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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 102 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति –
एवं खलु चलमाणे अचलिए। उदीरिज्जमाणे अनुदीरिए। वेदिज्जमाणे अवेदिए। पहिज्जमाणे अपहीने। छिज्जमाणे अच्छिन्ने भिज्जमाणे अभिन्ने। दज्झमाणे अदड्ढे। भिज्जमाणे अमए। निज्जरिज्जमाणे अनिज्जिण्णे।
दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति,
कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति?
दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिनेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति।
तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति,
कम्हा तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति?
तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिनेहकाए, तम्हा तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि – जो चल रहा है, वह अचलित है – चला नहीं कहलाता और यावत् – जो निर्जीर्ण हो रहा है, वह निर्जीर्ण नहीं कहलाता। दो परमाणुपुद्गल एक साथ नहीं चिपकते। दो परमाणुपुद्गल एक साथ क्यों नहीं चिपकते ? इसका कारण यह है कि दो परमाणु – पुद्गलों में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 103 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च, संपराइयं च।
जं समयं इरियावहियं पकरेइ, तं समयं संपराइयं पकरेइ।
जं समयं संपराइयं पकरेइ, तं समयं इरियावहियं पकरेइ।
इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पकरेइ।
संपराइयाए पकरणयाए इरियावहियं पकरेइ।
एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च, संपराइयं च।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, जाव इरियावहियं Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं – यावत् प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है। वह इस प्रकार – ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी। जस समय (जीव) एर्यापथिकी क्रिया करता है, उस समय साम्परायिकी क्रिया करता है और जिस समय साम्परायिकी क्रिया करता है, उस समय ऐर्यापथिकी क्रिया करता है। ऐर्यापथिकी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 104 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निरयगई णं भंते! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता।
एवं वक्कंतीपयं भाणियव्वं निरवसेसं।
सेवं भंते! सेवं भंते त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! नरकगति कितने समय तक उपपात से विरहित रहती है ? गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त तक नरकगति उपपात से रहित रहती है। इसी प्रकार यहाँ ‘व्युत्क्रान्तिपद’ कहना चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह ऐसा ही है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 105 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ ऊसास खंदए वि य, २ समुग्घाय ३,४ पुढविंदिय ५ अन्नउत्थि ६ भासा य ।
७ देवा य ८ चमरचंचा, ९, समयक्खित्तत्थिकाय बीयसए ॥ Translated Sutra: द्वीतिय शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें क्रमशः इस प्रकार विषय हैं – श्वासोच्छ्वास, समुद्घात, पृथ्वी, इन्द्रियाँ, निर्ग्रन्थ, भाषा, देव, (चमरेन्द्र) सभा, द्वीप (समयक्षेत्र का स्वरूप) और अस्तिकाय (का विवेचन)। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 106 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। भगवान महावीर स्वामी (वहाँ) पधारे। उनका धर्मोपदेश सूनने के लिए परीषद् नीकली। भगवान ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापिस लौट गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) श्री इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् – भगवान की पर्युपासना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 107 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किण्णं भंते! एते जीवा आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा?
गोयमा! दव्वओ अनंतपएसियाइं दव्वाइं, खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाइं, कालओ अन्नयर-ठितियाइं, भावओ वण्णमंताइं गंधमंताइं रसमंताइं फासमंताइं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा।
जाइं भावओ वण्णमंताइं आणमंति वा, पाणमंति वा ऊससंति वा, नीससंति वा ताइं किं एगवण्णाइं जाव किं पंच-वण्णाइं आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा?
गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाइं पि जाव पंचवण्णाइं पि आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा। विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाइं पि जाव सुक्किलाइं पि आणमंति वा, पणमंति वा, ऊससंति Translated Sutra: भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, किस प्रकार के द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाले द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येयप्रदेशों में रहे हुए द्रव्यों को, काल की अपेक्षा किसी भी प्रकार की स्थिति | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 108 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वाउयाए णं भंते! वाउयाए चेव आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा?
हंता गोयमा! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा।
वाउयाए णं भंते! वाउयाए चेव अनेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति?
हंता गोयमा! वाउयाए णं वाएयाए चेव अनेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति।
से भंते! किं पुट्ठे उद्दाति? अपुट्ठे उद्दाति?
गोयमा! पुट्ठे उद्दाति, नो अपुट्ठे उद्दाति।
से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ? असरीरी निक्खमइ?
गोयमा! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय Translated Sutra: हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकायों की ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है। भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मरकर पुनः पुनः (वायुकाय में ही) उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 109 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मडाई णं भंते! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पहीणसंसारवेयणिज्जे, नो वोच्छिन्नसंसारे, नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियट्ठे, नो निट्ठियट्ठकरणिज्जे पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ?
हंता गोयमा! मडाई णं नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पहीण-संसारवेयणिज्जे, नो वोच्छिन्नसंसारे, नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियट्ठे, नो निट्ठियट्ठ-करणिज्जे पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ। Translated Sutra: भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार – वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार – वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ नहीं हुआ, जिसका कार्य समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादी (अचित्त, निर्दोष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 110 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। विण्णु त्ति वत्तव्वं सिया। वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। पाणे भूए जीवे सत्ते विण्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया।
से केणट्ठेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदे त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा Translated Sutra: भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? गौतम ! उसे कदाचित् ‘प्राण’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘भूत’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘जीव’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘सत्य’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘विज्ञ’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘वेद’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद’ कहना चाहिए। हे भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 111 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मडाई णं भंते! नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसारवेयणिज्जे, वोच्छिन्न-संसारे, वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, निट्ठियट्ठे, निट्ठियट्ठकरणिज्जे नो पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ?
हंता गोयमा! मडाई णं नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसार-वेयणिज्जे, वोच्छिन्न-संसारे, वोच्छिन्न-संसारवेयणिज्जे, निट्ठियट्ठे, निट्ठियट्ठ-करणिज्जे नो पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ।
से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। मुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। पारगए त्ति वत्तव्वं सिया। परंपरगए त्ति वत्तव्वं Translated Sutra: भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा प्रासुकभोजी अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता ? हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। हे भगवन् ! पूर्वोक्त स्वरूपवाले | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 112 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ,
पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ जाव समोसरणं। परिसा निग्गच्छइ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: उस काल उस समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपला – शक नामका चैत्य था। वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। यावत् – भगवान का समवसरण हुआ। परीषद् धर्मोपदेश सूनने के लिए नीकली। उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 113 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स, तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ। धम्मकहा भाणियव्वा।
तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए णंदि पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता Translated Sutra: (भगवान महावीर से समाधान पाकर) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार करके यों कहा – ‘भगवन् ! मैं आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सूनना चाहता हूँ।’ हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो। पश्चात् श्रमण भगवान महावीर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 114 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तए णं से खंदए अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठे जाव नमंसित्ता मासियं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से नीकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र – अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर के पास आकर वन्दना – नमस्कार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 115 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया।
तए णं तस्स खंदयस्स अनगारस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–
एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महानुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए। जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि, भासं भासित्ता वि गिलामि, भासं भासमाणे गिलामि, Translated Sutra: उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई। यावत् जनता धर्मोपदेश सूनकर वापिस लौट गई। तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पीछले प्रहर में धर्म – जागरणा करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 116 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमनस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महाव्वयाइं आरुहेइ, आरुहेत्ता समणा य समणीओ य खामेइ, खामेत्ता तहारूवेहि थेरेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं द्रुहइ, द्रुहित्ता मेहघणसन्निगासं देवसन्निवातं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे Translated Sutra: तदनन्तर श्री स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर अत्यन्त हर्षित, सन्तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हुए। फिर खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और वन्दना – नमस्कार करके स्वयमेव पाँच महाव्रतों का आरोपण किया। फिर श्रमण – श्रमणियों से क्षमायाचना की, और तथारूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 117 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अनगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसग्गं करेंति, करेत्ता पत्तचीवराणि गेण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ सणियं-सणियं पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए।
से णं देवानुप्पिएहिं अब्भ णुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरुहेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं Translated Sutra: तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे ऊतरे। ऊतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। भगवान को वन्दना – नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-२ समुदघात | Hindi | 118 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! समुग्घाया पन्नत्ता?
गोयमा! सत्त समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–१. समुग्घाए २. कसायसमुग्घाए ३. मारणंतिय-समुग्घाए ४. वेउव्वियसमुग्घाए ५. तेजससमुग्घाए ६. आहारगसमुग्घाए ७. केवलियसमुग्घाए। छाउमत्थियसमुग्घायवज्जं समुग्घायपदं नेयव्वं। Translated Sutra: भगवन् ! कितने समुद्घात कहे गए हैं ? गौतम ! समुद्घात सात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – वेदना – समुद्घात, कषाय – समुद्घात, मारणान्तिक – समुद्घात, वैक्रिय – समुद्घात, तैजस – समुद्घात, आहारक – समुद्घात और केवली – समुद्घात। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का छत्तीसवा समुद्घातपद कहना चाहिए, किन्तु उसमें प्रतिपादित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 119 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–१. रयणप्पभा २. सक्करप्पभा ३. बालुयप्पभा ४. पंकप्पभा ५. धूमप्पभा ६. तमप्पभा ७. तमतमा।
जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयव्वो जाव– Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में नैरयिक उद्देशक में पृथ्वीसम्बन्धी जो वर्णन है, वह सब यहाँ जान लेना चाहिए। वहाँ उनके संस्थान, मोटाई आदि का तथा यावत् – अन्य जो भी वर्णन है, वह सब यहाँ कहना। पृथ्वी, नरकावास का अंतर, संस्थान, बाहल्य, विष्कम्भ, परिक्षेप, वर्ण, गंध और स्पर्श (यह सब कहना चाहिए)। सूत्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 120 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पुढवि ओगाहिता निरया संठाणमेव बाहल्लं।
विक्खंभ परिक्खेवो वण्णोगंधाय फ़ासोय ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११९ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 121 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किं सव्वे पाणा उववन्नपुव्वा?
हंता गोयमा! असइं अदुवा अनंतखुत्तो। Translated Sutra: भगवन् ! क्या सब जीव उत्पन्नपूर्व हैं ? हाँ, गौतम ! सभी जीव रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वीयों में अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूके हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-४ ईन्द्रिय | Hindi | 122 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! इंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा–१. सोइंदिए २. चक्खिंदिए ३. घाणिंदिए ४. रसिंदिए ५. फासिंदिए। पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयव्वो जाव–
अलोगे णं भंते! किणा फुडे? कतिहिं वा काएहिं फुडे?
गोयमा! नो धमत्थिकाएणं फुडे जाव नो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए अनंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वगासे अनंतभागूणे। Translated Sutra: भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पाँच। श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के, इन्द्रियपद का प्रथम उद्देशक कहना। उसमें कहे अनुसार इन्द्रियों का संस्थान, बाहल्य, चौड़ाई, यावत् अलोक तक समग्र इन्द्रिय – उद्देशक कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 123 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवेंति–
१. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अन्ने देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ आभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउ-व्विय परियारेइ।
२. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा–इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च।
जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ।
इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थिवेयं वेएइ।
एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा– इत्थिवेदं च, Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वशमें करके या आलिंगन करके उनके साथ भी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 124 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उदगब्भे णं भंते! उदगब्भे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा।
तिरिक्खजोणियगब्भे णं भंते! तिरिक्खजोणियगब्भे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराइं।
मनुस्सीगब्भे णं भंते! मनुस्सीगब्भे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं। Translated Sutra: भगवन् ! उदकगर्भ, उदकगर्भ के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक उदकगर्भ, उदकगर्भरूप में रहता है। भगवन् ! तिर्यग्योनिकगर्भ कितने समय तक तिर्यग्योनिकगर्भरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट आठ वर्ष। भगवन् ! मानुषीगर्भ, कितने समय तक मानुषीगर्भरूप में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 125 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कायभवत्थे णं भंते! कायभवत्थे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीसं संवच्छराइं। Translated Sutra: भगवन् ! काय – भवस्थ कितने समय तक काय – भवस्थरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक रहता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 126 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मनुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते! जोणिब्भूए केवतियं कालं संचिट्ठइ?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। Translated Sutra: भगवन् ! मानुषी और पंचेन्द्रियतिर्यंची योनिगत बीज योनिभूतरूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 127 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगजीवे णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वामागच्छइ?
गोयमा! जहन्नेणं इक्कस्स वा दोण्ह वा तिण्ह वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। Translated Sutra: भगवन् ! एक जीव, एक भव की अपेक्षा कितने जीवों का पुत्र हो सकता है ? गौतम ! एक जीव, एक भव में जघन्य एक जीव का, दो जीवों का अथवा तीन जीवों का, और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व जीवों का पुत्र हो सकता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 128 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगजीवस्स णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति?
गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति?
गोयमा! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुप्पज्जइ। ते दुहओ सिणेहं चिणंति, चिणित्ता तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जहन्नेणं एक्को वा दो Translated Sutra: भगवन् ! एक जनीव के एक भव में कितने जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो अथवा तीन जीव और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे गौतम ! कर्मकृत योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 129 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मेहुणण्णं भंते! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कज्जई?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कनएणं समभिद्धंसेज्जा, एरिसएणं गोयमा! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ।
सेवं भंते! सेवं भंते! जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की) सलाई (डालकर, उस) से बाँस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पतिसे भरी नली को जला डालता है, हे गौतम ! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 130 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति– अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवन-सयनासन-जानवाहणाइण्णा बहुधन-बहुजायरूव-रयया आयोगपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुल-भत्तपाना बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध-पुण्ण-पावा-आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिकरणबंधपमोक्खकुसला असहेज्जा Translated Sutra: इसके पश्चात् (एकदा) श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में तुंगिका नामकी नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नामका चैत्य था। उस तुंगिकानगरी में बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य और दीप्त थे। उनके विस्तीर्ण निपुल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 131 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विनयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जिइंदिया जियपरीसहा जीवियासमरणभयविप्पमुक्का तवप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जा-प्पहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा चारुपण्णा सोही अणियाणा Translated Sutra: उस काल और उस समय में पार्श्वापत्यीय स्थविर भगवान पाँच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए तुंगिका नगरी के पुष्पवतिकचैत्य पधारे। यथारूप अवग्रह लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवंत जाति – सम्पन्न, कुलसम्पन्न, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 142 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! अत्थिकाया पन्नत्ता?
गोयमा! पंच अत्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा–धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए।
धम्मत्थिकाए णं भंते! कतिवण्णे? कतिगंधे? कतिरसे? कतिफासे?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे;
अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे।
से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ।
दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे,
खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते,
कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ–भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य–धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे।
भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे।
गुणओ गमणगुणे।
अधम्मत्थिकाए Translated Sutra: भगवन् ! अस्तिकाय कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति – काय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। भगवन् ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! धर्मास्ति – काय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित है, अर्थात् – धर्मास्तिकाय अरूपी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 143 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
एवं दोण्णि, तिन्नि, चत्तारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेज्जा, असंखेज्जा। भंते! धम्मत्थि-कायपदेसा धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
एगपदेसूणे वि य णं भंते! धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?
से नूनं गोयमा! खंडे चक्के? सगले चक्के?
भगवं! नो खंडे चक्के, सगले चक्के।
खंडे छत्ते? Translated Sutra: भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को ‘धर्मास्तिकाय’ कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों, तीन प्रदेशों, चार प्रदेशों, पाँच प्रदेशों, छह प्रदेशों, सात प्रदेशों, आठ प्रदेशों, नौ प्रदेशों, दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों तथा असंख्येय प्रदेशों को ‘धर्मास्तिकाय’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 144 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावंउवदंसेतीति वत्तव्वं सिया।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! जीवे णं अनंताणं आभिनिबोहियनाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयनाणपज्जवाणं, अनंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मनपज्जवनाणपज्जवाणं, अनंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अणं-ताणं मइअन्नाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयअन्नाणपज्जवाणं, Translated Sutra: भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम वाला जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हाँ, गौतम ! भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है ? गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मनःपर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 145 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! आगासे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे आगासे पन्नत्ते, तं जहा– लोयागासे य अलोयागासे य।
लोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा?
गोयमा! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि।
जे जीवा ते नियमा एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया, अनिंदिया।
जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा, बेइंदियदेसा, तेइंदियदेसा, चउरिंदियदेसा, पंचिंदियदेसा, अनिंदियदेसा।
जे जीवप्पदेसा ते नियमा एगिंदियपदेसा, बेइंदियपदेसा, तेइंदियपदेसा, चउरिंदियपदेसा, पंचिंदिय पदेसा, अनिंदियपदेसा।
जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, Translated Sutra: भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है। यथा – लोकाकाश और अलोकाकाश। भगवन् ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं? अजीव के प्रदेश हैं ? गौतम ! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं; अजीव भी हैं, अजीव के देश | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 146 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अलोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा?
गोयमा! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीवप्पदेसा; नो अजीवा, नो अजीवदेस, नो अजीव-प्पदेसा; एगे अजीवदव्वदेसे अगरुयलहुए अनंतेहिं अगुरयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अनंतभागूणे। Translated Sutra: भगवन् ! क्या अलोकाकाश में जीव यावत् अजीवप्रदेश हैं ? गौतम ! अलोकाकाश में न जीव हैं, यावत् न ही अजीवप्रदेश हैं। वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघु – गुणों से संयुक्त है; वह अनन्त – भागःकम सर्वाकाशरूप है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 147 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
अधम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
लोयाकासे णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
जीवत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
पोग्गलत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक – प्रमाण है, लोकस्पृष्ट है, लोकको ही स्पर्श करके कहा हुआ है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्ति – काय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। इन पाँचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 148 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहोलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति?
गोयमा! सातिरेगं अद्धं फुसति।
तिरियलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति?
गोयमा! असंखेज्जइभागं फुसति।
उड्ढलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति?
गोयमा! देसूणं अद्धं फुसति। Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अधोलोक स्पर्श करता है ? गौतम ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है। भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को तिर्यग्लोक स्पर्श करता है? पृच्छा०। गौतम ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करता है। भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 149 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति?
गोयमा! नो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसति, नो संखेज्जे भागे फुसति, नो असंखेज्जे भागे फुसति, नो सव्वं फुसति।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घनोदही धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति?
जहा रयणप्पभा तहा घनोदहि-घनवाय-तणुवाया वि।
इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? Translated Sutra: भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श करती है या असंख्यातभाग को स्पर्श करती है, अथवा संख्यातभागों को स्पर्श करती है या असंख्यात भागों को स्पर्श करती है अथवा समग्र को स्पर्श करती है? गौतम! यह रत्नप्रभापृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श नहीं करती, अपितु असंख्यात भाग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 150 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पुढवोदही घण-तणू, कप्पा गेवेज्जणुत्तरा सिद्धी ।
संखेज्जइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा ॥ Translated Sutra: पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, कल्प, ग्रैवेयक, अनुत्तर, सिद्धि (ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी) तथा सात अव – काशान्तर, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करते हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 151 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ केरिसविउव्वणा २. चमर ३. किरिय ४,५. जाणित्थि ६. नगर ७. पाला य ।
८. अहिवइ ९. इंदिय १. परिसा, ततियम्मि सए दसुद्देसा ॥ Translated Sutra: तृतीय शतक में दस उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में चमरेन्द्र की विकुर्वणा – शक्ति कैसी है ? इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं, दूसरे उद्देशक में चमरेन्द्र का उत्पात, तृतीय उद्देशक में क्रियाओं। चतुर्थ में देव द्वारा विकुर्वित यान को साधु जानता है? इत्यादि प्रश्नों। पाँचवे उद्देशक में साधु द्वारा स्त्री आदि के रूपों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 152 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं मोयाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे नंदने नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गच्छइ, पडिगया परिसा।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासि– चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरराया केमहिड्ढीए? केमहज्जुतीए? केमहाबले? केमहायसे? केमहासोक्खे? केमहानुभागे? केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए?
गोयमा! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए, महज्जुतीए, महाबले, महायसे, महासोक्खे, महानुभागे! Translated Sutra: उस काल उस समयमें ‘मोका’ नगरी थी। मोका नगरी के बाहर ईशानकोण में नन्दन चैत्य था। उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे। परीषद् नीकली। धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापस चली गई उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के द्वीतिय अन्तेवासी अग्निभूति नामक अनगार जिनका गोत्र गौतम था, तथा जो सात हाथ ऊंचे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 153 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो सामानियदेवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो तावत्तीसया देवा केमहिड्ढीया?
तावत्तीसया जहा सामाणिया तहा नेयव्वा। लोयपाला तहेव, नवरं–संखेज्जा दीव-समुद्दा भाणियव्वा।
जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ देवीओ केमहिड्ढियाओ जाव केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए?
गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ देवीओ महिड्ढियाओ जाव महानु-भागाओ। ताओ णं तत्थ साणं-साणं भवणाणं, Translated Sutra: भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव यदि इस प्रकार की महती ऋद्धि से सम्पन्न हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन् ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रायस्त्रिंशक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं ? (हे गौतम !) जैसा सामानिक देवों के विषय में कहा था, वैसा ही त्रायस्त्रिंशक देवों के विषय में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 154 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूती अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तच्चं गोयमं वायुभूतिं अनगारं एवं वदासि–एवं खलु गोयमा! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए तं चेव एवं सव्वं अपुट्ठवागरणं नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता।
तेणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अनगारे दोच्चस्स गोयमस्स अग्गिभूतिस्स अनगारस्स एवमाइक्ख-माणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमट्ठं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एयमट्ठं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे Translated Sutra: द्वीतिय गौतम (गोत्रीय) अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार करते हैं, वन्दन – नमस्कार करके जहाँ तृतीय गौतम ( – गोत्रीय) वायुभूति अनगार थे, वहाँ आए। उनके निकट पहुँचकर वे, तृतीय गौतम वायुभूति अनगार से यों बोले – हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है, इत्यादि समग्र वर्णन अपृष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 155 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूति अनगारे दोच्चे णं गोयमेणं अग्गिभूतिणा अनगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–जइ णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, बली णं भंते! वइरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिड्ढीए? जाव केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए?
गोयमा! बली णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया महिड्ढीए जाव महानुभागे। जहा चमरस्स तहा बलिस्स वि नेयव्वं, नवरं–सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं भाणियव्वं, सेसं तं चेव निरवसेसं नेयव्वं, नवरं–नाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं सामाणिएहि य।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति तच्चे Translated Sutra: इसके पश्चात् तीसरे गौतम ( – गोत्रीय) वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार किया, और फिर यों बोले – भगवन् ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्व – णाशक्ति से सम्पन्न है, तब हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? यावत् वह कितनी विकुर्वणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 156 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासि तीसए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडि-पुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स Translated Sutra: भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने मे समर्थ है, तो आप देवानुप्रिय का शिष्य ‘तिष्यक’ नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था निरन्तर छठ – छठ की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूरे आठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 157 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं तच्चे गोयमे वायुभूई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी – जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए, ईसाने णं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्ढीए? एवं तहेव, नवरं–साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तहेव। Translated Sutra: तृतीय गौतम वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके यावत् इस प्रकार कहा – भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है ? (गौतम ! शक्रेन्द्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 158 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अनगारे पगतिभद्दए जाव विनीए अट्ठमंअट्ठमेणं अनिक्खित्तेणं, पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोक-म्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, तीसं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाने कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए Translated Sutra: भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि से युक्त है, यावत् वह इतनी विकुर्वणाशक्ति रखता है, तो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत, तथा निरन्तर अट्ठम की तपस्या और पारणे में आयंबिल, ऐसी कठोर तपश्चर्या से आत्मा को भावित करता हुआ, दोनों हाथ ऊंचे रखकर सूर्य की ओर मुख करके आतापना – भूमि में आतापना लेने वाला | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 159 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं सणंकुमारे वि, नवरं–चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे।
एवं लंतए वि, नवरं–सातिरेगे अट्ठ केवलकप्पे। महासुक्के सोलस केवलकप्पे। सहस्सारे सातिरेगे सोलस।
एवं पाणए वि, नवरं–बत्तीसं केवलकप्पे।
एवं अच्चुए वि, नवरं–सातिरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अन्नं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति तच्चे गोयमे वायुभूई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ जाव विहरइ।
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ मोयाओ नयरीओ नंदनाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। Translated Sutra: इसी प्रकार सनत्कुमार देवलोक के देवेन्द्र के विषय में भी समझना चाहिए। विशेषता यह है कि (सनत् – कुमारेन्द्र की विकुर्वणाशक्ति) सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों जितने स्थल को भरने की है और तीरछे उसकी विकुर्वणा – शक्ति असंख्यात (द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की) है। इसी तरह (सनत्कुमारेन्द्र के) सामानिक देव, त्राय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 160 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ जाव परिसा पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाने देविंदे देवराया ईसाने कप्पे ईसानवडेंसए विमाने जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्ता जाव जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता। एवं वदासी–अहो णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव महानुभागे। ईसानस्स णं भंते! सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं अनुपविट्ठे?
गोयमा! Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। यावत् परीषद् भगवान की पर्युपासना करने लगी। उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, शूलपाणि वृषभ – वाहन लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रजरहित निर्मल वस्त्रधारक, सिर पर माला से सुशोभित मुकुटधारी, नवीनस्वर्ण निर्मित सुन्दर, विचित्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 161 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहानी अणिंदा अपुरोहिया या वि होत्था।
तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सिं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासि–
एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचा रायहानी अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवानुप्पिया! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, अयं च णं देवानुप्पिया! तामली बालतवस्सी तामलित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभागे नियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणाज्झूसणाज्झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे, तं सेयं खलु देवानुप्पिया! अम्हं तामलिं Translated Sutra: उस काल उस समय में बलिचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहित से विहीन थी। उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा। देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया, और कहा – देवानुप्रियो ! बलिचंचा राजधानी इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है। हे देवानुप्रियो |