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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 515 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो इत्थीणं इंदियाइं मणोहराइं मणोरमाइं आलोइत्ता, निज्झाइत्ता हवइ, से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–निग्गंथस्स खलु इत्थीणं इंदियाइं मणोहराइं, मणोरमाइं आलोएमाणस्स, निज्झायमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं इंदियाइं मणोहराइं, मणोरमाइं आलोएज्जा, निज्झाएज्जा। Translated Sutra: जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखता है और उनके विषय में चिन्तन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? – जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को देखता है और उनके विषय में चिन्तन करता हे, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका होती है, यावत् धर्म से भ्रष्ट हो जाता | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 516 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा, दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, कुइयसद्दं वा, रुइयसद्दं वा, गीयसद्दं वा, हसियसद्दं वा, थणियसद्दं वा, कंदियसद्दं वा, विलवियसद्दं वा, सुणेत्ता हवइ से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कुडुंतरंसि वा, दूसतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, कुइयसद्दं वा, रुइयसद्दं वा, गीयसद्दं वा, हसियसद्दं वा, थणियसद्दं वा, कंदियसद्दं वा, विलवियसद्दं वा, सुणे-माणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
तम्हा खलु Translated Sutra: जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, स्तनित, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् धर्म से भ्रष्ट | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 517 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो निग्गंथे पुव्वरयं, पुव्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ, से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–निग्गंथस्स खलु पुव्वरयं, पुव्वकीलियं अनुसरमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
तम्हा खलु नो निग्गंथे पुव्वरयं पुव्वकीलियं अनुसरेज्जा। Translated Sutra: जो संयमग्रहण से पूर्व को रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली – प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ संयम ग्रहण से पूर्व की रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 518 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो पणीयं आहारं आहारित्ता हवइ, से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–निग्गंथस्स खलु पणीयं पाणभोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीयं आहारं आहारेज्जा। Translated Sutra: जो प्रणीत अर्थात् रसयुक्त पौष्टिक आहार नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली – प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ प्रणीत आहार न करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 519 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ, से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–निग्गंथस्स खलु अइमायाए पाणभोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
तम्हा खलु नो निग्गंथे अइमायाए पानभोयणं भुंजिज्जा। Translated Sutra: जो परिमाण से अधिक नहीं खाता – पीता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक न खाए, न पीए। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 520 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो विभूसाणुवाई हवइ, से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–विभूसावत्तिए, विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे हवइ। तओ णं तस्स इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
तम्हा खलु नो निग्गंथे विभूसाणुवाई सिया। Translated Sutra: | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 521 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ, से निग्गंथे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह–निग्गंथस्स खलु सद्दरूवरसगंधफासाणुवाइस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्प-ज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
तम्हा खलु नो निग्गंथे सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हविज्जा।
दसमे बंभचेरसमाहिठाणे हवइ।
[भवंति इत्थ सिलोगा, तं जहा] Translated Sutra: जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न बने। यह ब्रह्मचर्य समाधि का दसवाँ स्थान है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 522 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जं विवित्तमणाइण्णं रहियं थीजणेण य ।
बंभचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए संयमी एकान्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित स्थान में रहे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 523 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मनपल्हायजननिं कामरागविवड्ढणिं ।
बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद पैदा करने वाली तथा कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री – कथा का त्याग करे। स्त्रियों के साथ परिचय तथा बार – बार वार्तालाप का सदा परित्याग करे। सूत्र – ५२३, ५२४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 525 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहियं ।
बंभचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु चक्षु – इन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंग – प्रत्यंग, संस्थान, बोलने की सुन्दर मुद्रा तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे। श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने। सूत्र – ५२५, ५२६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 527 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हासं किड्डं रइं दप्पं सहसावत्तासियाणि य ।
बंभचेररओ थीणं नानुचिंते कयाइ वि ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, दीक्षा से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास का कभी भी अनुचिन्तन न करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 528 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पणीयं भत्तपानं तु खिप्पं मयविवड्ढणं ।
बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत आहार का सदा – सदा परित्याग करे। चित्त की स्थिरता के लिए, जीवन – यात्रा के लिए उचित समय में धर्म – मर्यादानुसार प्राप्त परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक ग्रहण न करे। सूत्र – ५२८, ५२९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 530 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विभूसं परिवज्जेज्जा सरीरपरिमंडणं ।
बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, विभूषा का त्याग करे। शृंगार के लिए शरीर का मण्डन न करे। शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे। सूत्र – ५३०, ५३१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 540 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सेज्जा दढा पाउरणं मे अत्थि उप्पज्जई भोत्तुं तहेव पाउं ।
जाणामि जं वट्टइ आउसु! त्ति किं नाम काहामि सुएण भंते! ॥ Translated Sutra: रहने को अच्छा स्थान मिल रहा है। कपड़े मेरे पास हैं। खाने पीने को मिल जाता है। और जो हो रहा है, उसे मैं जानता हूँ। भन्ते ! शास्त्रों का अध्ययन करके मैं क्या करूँगा ? जो कोई प्रव्रजित होकर निद्राशील रहता है, यथेच्छ खा – पीकर बस आराम से सो जाता है, वह ‘पापश्रमण’ कहलाता है। सूत्र – ५४०, ५४१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 542 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियउवज्झाएहिं सुयं विनयं च गाहिए ।
ते चेव खिंसई बाले पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जिन आचार्य और उपाध्यायों से श्रुत और विनय ग्रहण किया है, उन्हीं की निन्दा करता है, उनकी निन्दा नहीं करता है, अपितु उनका अनादर करता है, जो ढीठ है, वह पाप श्रमण कहलाता है। सूत्र – ५४२, ५४३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 544 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सम्मद्दमाणे पाणाणि बीयाणि हरियाणि य ।
असंजए संजयमन्नमाणे पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो प्राणी, बीज और वनस्पति का संमर्दन करता रहता है, जो असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 545 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संथारं फलगं पीढं निसेज्जं पायकंबलं ।
अप्पमज्जियमारुहइ पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो संस्तारक, फलक – पाट, निषद्या – भूमि और पादकम्बल – का प्रमार्जन किए बिना ही उन पर बैठता है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 546 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खणं ।
उल्लंघणे य चंडे य पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो जल्दी – जल्दी चलता है, पुनः पुनः प्रमादाचरण करता रहता है, मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, क्रोधी है वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 547 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडिलेहेइ पमत्ते अवज्झइ पायकंबलं ।
पडिलेहणाअनाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो प्रमत्त – होकर प्रतिलेखन करता है, पात्र और कम्बल जहाँ – तहाँ रख देता है, प्रतिलेखन में असावधान रहता है, जो इधर – उधर की बातों को सुनता हुआ प्रमत्तभाव से प्रतिलेखन करता है, जो गुरु की अवहेलना करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। सूत्र – ५४७, ५४८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 549 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बहुमाई पमुहरे थद्धे लुद्धे अनिग्गहे ।
असंविभागी अचियत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो बहुत मायावी है, वाचाल है, धीठ है, लोभी है, अनिग्रह है – प्राप्त वस्तुओं का परस्पर संविभाग नहीं करता है, जिसे गुरु के प्रति प्रेम नहीं है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 550 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विवादं च उदीरेइ अहम्मे अत्तपन्नहा ।
वुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो शान्त हुए विवाद को पुनः उखाड़ता है, अधर्म में अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, कदाग्रह तथा कलह में व्यस्त है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 551 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अथिरासने कुक्कुईए जत्थ तत्थ निसीयई ।
आसनंमि अनाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो स्थिरता से नहीं बैठता है, हाथ – पैर आदि की चंचल एवं विकृत चेष्टाऍं करता है, जहाँ – तहाँ बैठ जाता है, जिसे आसन पर बैठने का उचित विवेक नहीं है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 552 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ससरक्खपाए सुवई सेज्जं न पडिलेहइ ।
संथारए अनाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो रज से लिप्त पैरों से सो जाता है, शय्या का प्रमार्जन नहीं करता है, संस्तारक के विषय में असावधान है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 553 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुद्धदहीविगईओ आहारेइ अभिक्खणं ।
अरए य तवोकम्मे पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो दूध, दही आदि विकृतियाँ बार – बार खाता है, जो तप – क्रिया में रुचि नहीं रखता है, वह पापश्रमण – कहलाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 554 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अत्थंतम्मि य सूरम्मि आहारेइ अभिक्खणं ।
चोइओ पडिचोएइ पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार – बार खाता रहता है, समझाने पर उलटा पड़ता है – वह पापश्रमण कहलाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 555 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियपरिच्चाई परपासंडसेवए ।
गाणंगणिए दुब्भूए पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो अपने आचार्य का परित्याग कर अन्य पाषण्ड – को स्वीकार करता है, जो गाणंगणिक होता है – वह निन्दित पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 556 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सयं गेहं परिचज्ज परगेहंसि वावडे ।
निमित्तेण य ववहरई पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो अपने घर को छोड़कर परघर में व्यापृत होता है – शुभाशुभ बतलाकर द्रव्यादिक उपार्जन करता है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 557 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सण्णाइपिंडं जेमेइ नेच्छई सामुदानियं ।
गिहिनिसेज्जं च वाहेइ पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो अपने ज्ञातिजनों से आहार ग्रहण करता है, सभी घरों से सामुदायिक भिक्षा नहीं चाहता है, गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप – श्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 558 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे रूवंधरे मुनिपपवराण हेट्ठिमे ।
अयंसि लोए विसमेव गरहिए न से इहं नेव परत्थ लोए ॥ Translated Sutra: जो इस प्रकार आचरण करता है, वह पार्श्वस्थादि पाँच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत है, केवल मुनिवेष का ही धारक है, श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है। वह इस लोक में विषकी तरह निन्दनीय होता है, अतः न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 559 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे वज्जए एए सया उ दोसे से सुव्वए होइ मुनीण मज्झे ।
अयंसि लोए अमयं व पूइए आराहए दुहओ लोगमिणं ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: जो साधु इन दोषों को सदा दूर करता है, वह मुनियों में सुव्रत होता है। इस लोक में अमृत की तरह पूजा जाता है। अतः वह इस लोक तथा परलोक दोनों की आराधना करता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 560 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कंपिल्ले नयरे राया उदिण्णबलवाहने ।
नामेणं संजए नाम मिगव्वं उवनिग्गए ॥ Translated Sutra: काम्पिल्य नगर में सेना और वाहन से सुसंपन्न ‘संजय’ नाम का राजा था। एक दिन मृगया के लिए निकला। वह राजा सब ओर से विशाल अश्वसेना, गजसेना, रथसेना तथा पदाति सेना से परिवृत्त था। राजा अश्व पर आरूढ़ था। वह रस – मूर्च्छित होकर काम्पिल्य नगर के केशर उद्यान की ओर ढकेले गए भयभीत एवं श्रान्त हिरणों को मार रहा था। सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 563 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह केसरम्मि उज्जाने अनगारे तवोधने ।
सज्झायज्झाणजुत्तं धम्मज्झाणं ज्झियायई ॥ Translated Sutra: उस केशर उद्यान में एक तपोधन अनगार स्वाध्याय एवं ध्यान में लीन थे, धर्मध्यान की एकाग्रता साध रहे थे। आश्रव क्षय करने वाले अनगार लतामण्डप में ध्यान कर रहे थे। उनके समीप आए हिरणों का राजा ने वध कर दिया। अश्वारूढ़ राजा शीघ्र वहाँ आया। मृत हिरणों को देखने के बाद उसने वहाँ एक ओर अनगार भी देखा सूत्र – ५६३–५६५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 566 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह राया तत्थ संभंतो अनगारो मनाहओ ।
मए उ मंदपुन्नेणं रसगिद्धेण घंतुणा ॥ Translated Sutra: राजा मुनि को देखकर सहसा भयभीत हो गया। उसने सोचा – ‘‘मैं कितना मन्दपुण्य, रसासक्त एवं हिंसक वृत्ति का हूँ कि मैंने व्यर्थ ही मुनि को आहत किया है।’’ घोड़े को छोड़कर उस राजा ने विनयपूर्वक अनगार के चरणों को वन्दन किया और कहा कि – भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें। वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 570 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अभओ पत्थिवा! तुब्भं अभयदाया भवाहि य ।
अनिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि? ॥ Translated Sutra: पार्थिव ! तुझे अभय है। पर, तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में संलग्न है ? सब कुछ छोड़कर जब तुझे यहाँ से अवश्य लाचार होकर चले जाना है, तो इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ? राजन् ! तू जिसमें मोहमुग्ध है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल है। तू अपने परलोक के हित | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 573 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दाराणि य सुया चेव मित्ता य तह बंधवा ।
जीवंतमनुजीवंति मयं नानुव्वयंति य ॥ Translated Sutra: स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र तथा बन्धुजन जीवित व्यक्ति के साथ ही जीते हैं। कोई भी मृत व्यक्ति के पीछे नहीं जाता है – अत्यन्त दुःख के साथ पुत्र अपने मृत पिता को घर से बाहर श्मशान में निकाल देते हैं। उसी प्रकार पुत्र को पिता और बन्धु को अन्य बन्धु भी बाहर निकालते हैं। अतः राजन् ! तू तप का आचरण कर। सूत्र – ५७३, ५७४ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 575 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तओ तेणज्जिए दव्वे दारे य परिरक्खिए ।
कीलंतन्ने नरा रायं! हट्ठतुट्ठमलंकिया ॥ Translated Sutra: ‘‘मृत्यु के बाद उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन का तथा सुरक्षित स्त्रियों का हृष्ट, तुष्ट एवं अलंकृत होकर अन्य लोग उपभोग करते हैं। जो सुख अथवा दुःख के कर्म जिस व्यक्ति ने किए हैं, वह अपने उन कर्मों के साथ परभव में जाता है।’’ सूत्र – ५७५, ५७६ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 577 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोऊण तस्स सो धम्मं अनगारस्स अंतिए ।
महया संवेगनिव्वेयं समावन्नो नराहिवो ॥ Translated Sutra: अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया। राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया। सूत्र – ५७७, ५७८ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 579 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चिच्चा रट्ठं पव्वइए खत्तिए परिभासइ ।
जहा ते दीसई रूवं पसन्नं ते तहा मनो ॥ Translated Sutra: राष्ट्र को छोड़कर प्रव्रजित हुए क्षत्रिय मुनि ने एक दिन संजय मुनि को कहा – तुम्हारा यह रूप जैसे प्रसन्न है, वैसे ही तुम्हारा अन्तर्मन भी प्रसन्न है ? | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 582 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किरियं अकिरियं विनयं अन्नाणं च महामुनी ।
एएहिं चउहिं ठाणेहिं मेयन्ने किं पभासई? ॥ Translated Sutra: क्षत्रिय मुनि – हे महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान – इन चार स्थानों के द्वारा कुछ एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता असत्य तत्त्व की प्ररूपणा करते हैं। बुद्ध, उपशान्त, विद्या और चरण से संपन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने ऐसा प्रकट किया है। सूत्र – ५८२, ५८३ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 584 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडंति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो ।
दिव्वं च गइं गच्छंति चरित्ता धम्ममारियं ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं। और जो आर्यधर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं।यह क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का सब कथन मायापूर्वक है, अतः मिथ्या वचन है, निरर्थक है। मैं इन मायापूर्ण वचनों से बचकर रहता हूँ, बचकर चलता हूँ। वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 587 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहमासी महापाने जुइमं वरिससओवमे ।
जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा ॥ Translated Sutra: मैं पहले महाप्राण विमान में वर्ष शतोपम आयुवाला द्युतिमान् देव था। जैसे कि यहाँ सौ वर्ष की आयुपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही वहाँ पल्योपम एवं सागरोपम की दिव्य आयु पूर्ण है। ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी जानता हूँ।’’ सूत्र – | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 590 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो ।
अहो उट्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे ॥ Translated Sutra: मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नो से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ। अहो ! मैं दिन – रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ। यह जानकर तुम भी तप का आचरण करो।जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे सर्वज्ञ ने प्रकट किया है। अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है। सूत्र – ५९०, ५९१ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 593 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थधम्मोवसोहियं ।
भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए ॥ Translated Sutra: अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हुए थे। नराधिप सागर चक्रवर्ती सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। महान् ऋद्धि – संपन्न, यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 603 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दसण्णरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुनी चरे ।
दसण्णभद्दो निक्खंतो सक्खं सक्केण चोइओ ॥ Translated Sutra: साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होकर दशार्णभद्र राजा ने अपने सब प्रकार से प्रमुदित दशार्ण राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि – धर्म का आचरण किया। विदेह के राजा नमि श्रामण्य धर्म में भली – भाँति स्थिर हुए, अपने को अति विनम्र बनाया। सूत्र – ६०३, ६०४ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 605 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु य दुम्मुहो ।
नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य नग्गई ॥ Translated Sutra: कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गन्धार में नग्गति – राजाओं में वृषभ के समान महान् थे। इन्होंने अपने – अपने पुत्र को राज्य में स्थापित कर श्रामण्य धर्म स्वीकार किया। सूत्र – ६०५, ६०६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 607 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं मुनी चरे ।
उद्दायणो पव्वइओ पत्तो गइमनुत्तरं ॥ Translated Sutra: सौवीर राजाओं में वृषभ के समान महान् उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि – धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की। इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने काम – भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का नाश किया। अमरकीर्त्ति, महान् यशस्वी विजय राजा ने गुण – समृद्ध राज्य को छोड़कर | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 612 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्चंतनियाणखमा सच्चा मे भासिया वई ।
अतरिंसु तरंतेगे तरिस्संति अनागया ॥ Translated Sutra: मैंने यह अत्यन्त निदानक्षम – सत्य – वाणी कही है। इसे स्वीकार कर अनेक जीव अतीत में संसार – समुद्र से पार हुए हैं, वर्तमान में पार हो रहे हैं और भविष्य में पार होंगे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 613 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कहं धीरे अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे? ।
सव्वसंगविनिम्मुक्के सिद्धे हवइ नीरए ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: धीर साधक एकान्तवादी अहेतुवादों में अपने – आप को कैसे लगाए ? जो सभी संगों से मुक्त है, वही नीरज होकर सिद्ध होता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
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अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 614 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुग्गीवे नयरे रम्मे काननुज्जानसोहिए ।
राया बलभद्दो त्ति मिया तस्सग्गमाहिसी ॥ Translated Sutra: कानन और उद्यानों से सुशोभित ‘सुग्रीव’ नामक सुरम्य नगर में बलभद्र राजा था। मृगा पट्टरानी थी। ‘बलश्री’ नाम का पुत्र था, जो कि ‘मृगापुत्र’ नाम से प्रसिद्ध था। माता – पिता को प्रिय था। युवराज था और दमीश्वर था। प्रसन्न – चित्त से सदा नन्दन प्रासाद में – दोगुन्दग देवों की तरह स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था। सूत्र | |||||||||
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अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 617 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणट्ठिओ ।
आलोएइ नगरस्स चउक्कतियचच्चरे ॥ Translated Sutra: एक दिन मृगापुत्र मणि और रत्नों से जडित कुट्टिमतल वाले प्रासाद के गवाक्ष में खड़ा था। नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। उसने वहाँ राजपथ पर जाते हुए तप, नियम एवं संयम के धारक, शील से समृद्ध तथा गुणों के आकार एक संयत श्रमण को देखा। वह उस को अनिमेष – दृष्टि से देखता है और सोचता है – ‘‘मैं मानता हूँ कि |