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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-१ दिशा | Hindi | 476 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! सरीरा पन्नत्ता?
गोयमा! पंच सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए वेउव्विए आहारए तेयए कम्मए।
ओरालियसरीरे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
एवं ओगाहणासंठाणं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अप्पाबहुगं ति।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के औदारिक, यावत् कार्मण। भगवन् औदारिक शरीर कितने प्रकार का है ? अवगाहन – संस्थान – पद समान अल्पबहुत्व तक जानना। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-२ संवृत्त अणगार | Hindi | 477 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी– संवुडस्स णं भंते! अनगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स, मग्गओ रूवाइं अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाइं अवलोएमाणस्स, उड्ढं रूवाइं ओलोएमाणस्स, अहे रूवाइं आलोएमाणस्स तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ? संपराइया किरिया कज्जइ?
गोयमा! संवुडस्स णं अनगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स, मग्गओ रूवाइं अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाइं अवलोएमाणस्स, उड्ढं रूवाइं ओलोएमाणस्स, अहे रूवाइं आलोएमाणस्स तस्स णं नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–संवुडस्स णं जाव संपराइया किरिया कज्जइ?
गोयमा! Translated Sutra: राजगृह में यावत् गौतमस्वामी ने पूछा – भगवन् ! वीचिपथ में स्थित होकर सामने के रूपों को देखते हुए, पार्श्ववर्ती ऊपर के एवं नीचे के रूपों का नरीक्षण करते हुए संवृत अनगार को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! वीचिपथ में स्थित हो कर सामने के रूपों को देखते हुए यावत् नीचे के रूपों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-२ संवृत्त अणगार | Hindi | 478 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तं जहा–सीया, उसिणा, सीतोसिणा। एवं जोणीपदं निरवसेसं भाणियव्वं। Translated Sutra: भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार – शीत, उष्ण, शीतोष्ण। यहाँ योनिपद कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-२ संवृत्त अणगार | Hindi | 479 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! वेयणा पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा वेयणा पन्नत्ता, तं जहा–सीया, उसिणा, सीओसिणा।
एवं वेयणापदं भाणियव्वं जाव–
नेरइया णं भंते! किं दुक्खं वेयणं वेदेंति? सुहं वेयणं वेदेंति? अदुक्खमसुहं वेयणं वेदेंति?
गोयमा! दुक्खं पि वेयणं वेदेंति, सुहं पि वेयणं वेदेंति, अदुक्खमसुहं पि वेयणं वेदेंति। Translated Sutra: भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है। गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है। यथा – शीता, उष्णा और शीतोष्णा यहाँ वेदनापद कहना चाहिए, यावत् – ‘भगवन् ! क्या नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना वेदते हैं, या सुखरूप वेदना वेदते हैं, अथवा अदुःख – असुखरूप वेदना वेदते हैं ? हे गौतम ! नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना भी वेदते हैं, सुखरूप वेदना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-२ संवृत्त अणगार | Hindi | 480 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मासियण्णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अनगारस्स, निच्चं वोसट्ठकाए, चियत्तदेहे जे केइ परीसहोवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ। एवं मासिया भिक्खुपडिमा निरवसेसा भाणियव्वा, जहा दसाहिं जाव आराहिया भवइ। Translated Sutra: भगवन् ! मासिक भिक्षुप्रतिमा जिस अनगार ने अंगीकार की है तथा जिसने शीरर का त्याथ कर दिया है और काया का सदा के लिए व्युत्सर्ग कर दिया है, इत्यादि दशाश्रुतस्कन्ध में बताए अनुसार मासिक भिक्षु प्रतिमा सम्बन्धी समग्र वर्णन करना। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-२ संवृत्त अणगार | Hindi | 481 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अनालोइयपडिक्कंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा।
भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ–पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि एयस्स ठाणस्स आलोएस्सामि, पडिक्कमिस्सामि, निंदिस्सामि, गरिहिस्सामि, विउट्टिस्सामि, विसोहिस्सामि, अकरणयाए अब्भुट्ठिस्सामि, अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयं पडिक्कंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा।
भिक्खू Translated Sutra: कोई भिक्षु किसी अकृत्य का सेवन करके यदि उस अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती। यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर लिया, किन्तु बाद में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-३ आत्मऋद्धि | Hindi | 482 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–आइड्ढीए णं भंते! देवे जाव चत्तारि, पंच देवावासंतराइं वीतिक्कंते, तेण परं परिड्ढीए?
हंता गोयमा! आइड्ढीए णं देवे जाव चत्तारि, पंच देवावासंतराइं वीतिक्कंते, तेण परं परिड्ढीए। एवं असुरकुमारे वि, नवरं–असुरकुमारावासंतराइं, सेसं तं चेव। एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे, एवं वाणमंतरे, जोइसिए वेमाणिए जाव तेण परं परिड्ढीए।
अप्पिड्ढीए णं भंते! देवे महिड्ढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा? नो इणट्ठे समट्ठे।
समिड्ढीए णं भंते! देवे समिड्ढीयस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा?
नो इणट्ठे समट्ठे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा।
से भंते! किं विमोहित्ता पभू? अविमोहित्ता Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवद् ! देव क्या आत्मऋद्धि द्वारा यावत् चार – पांच देवावासान्तरों का उल्लंघन करताहै और इसके पश्चात् दूसरी शक्ति द्वारा उल्लंघन करता है ? हाँ, गौतम ! देव आत्मशक्ति से यावत् चार – पांच देवासों का उल्लंघन करता है और उसके उपरान्त (वैक्रिय) शक्ति द्वारा उल्लंघन करता है। इसी प्रकार असुरकुमारों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-३ आत्मऋद्धि | Hindi | 483 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसस्स णं भंते! धावमाणस्स किं खु-खु त्ति करेति?
गोयमा! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जगस्स य अंतरा एत्थ णं कक्कडए नामं वाए संमुच्छइ, जेणं आसस्स धावमाणस्स खु-खु त्ति करेति। Translated Sutra: भगवान् ! दौड़ता हुआ घोड़ा ‘खु – खु’ शब्द क्यों करता है ? गौतम ! जब घोड़ा दौड़ता है तो उसके हृदय और यकृत् के बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होती है, इससे दौड़ता हुआ घोड़ा ‘खु – खु’ शब्द करता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-३ आत्मऋद्धि | Hindi | 484 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! आसइस्सामो, सइस्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइस्सामो, तुयट्टिस्सामो–पन्नवणी णं एस भाया? न एसा भासा मोसा?
हंता गोयमा! आसइस्सामो, सइस्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइस्सामो, तुयट्टिस्सामो–पन्नवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: इन बारह प्रकार की भाषाओं में ‘हम आश्रय करेंगे, शयन करेगें, खड़े रहेंगे, बैठेंगे और लेटेंगे’ इत्यादि भाषण करना क्या प्रज्ञापनी भाषा कहलाती है और ऐसा भाषा मृषा नहीं कहलाती है ? हॉं, गौतम ! यह आश्रय करेंगे, इत्यादि भाषा प्रज्ञापनी भाषा है, यह भाषा मृषा नहीं है। हे, भगवान् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है! आमंत्रणी, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-३ आत्मऋद्धि | Hindi | 485 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: आमंतणि आणमणी जायणि तह पुच्छणी य पन्नवणी।
पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४८४ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-३ आत्मऋद्धि | Hindi | 486 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: अणभिग्गहिया भासा भासा य अभिग्गहम्मि बोधव्वा।
संसयकरणी भासा वोयड मव्वोयडा चेव ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४८४ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-४ श्यामहस्ती | Hindi | 487 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से सामहत्थी अनगारे जायसड्ढे जाव उट्ठाए Translated Sutra: उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था (वर्णन) वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। वहाँ श्रमण भगवान महावीर का समवसरण हुआ यावत् परीषद् आई और वापस लौट गई। उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरण करते थे। उस काल और उस समय में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-५ देव | Hindi | 488 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे। गुणसिलए चेइए जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना जहा अट्ठमे सए सत्तमुद्देसए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तए णं ते थेरा भगवंतो जायसड्ढा जायसंसया जहा गोयमसामी जाव पज्जुवासमाणा एवं वयासी–
चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?
अज्जो! पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–काली, रायी, रयणी, विज्जू, मेहा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ठ देवीसहस्सं परिवारो पन्नत्तो।
पभू णं भंते! ताओ एगमेगा देवी अन्नाइं अट्ठट्ठ देवीसहस्साइं Translated Sutra: उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक उद्यान था। यावत् परीषद् लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के बहुत – से अन्तेवासी स्थविर भगवान जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों से युक्त थे, आठवें शतक के सप्तम उद्देशक के अनुसार अनेक विशिष्ट गुणसम्पन्न, यावत् विचरण करते थे। एक बार उन स्थविरों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-५ देव | Hindi | 489 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमस्स महारन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?
अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कनगा, कनगलता, चित्तगुत्ता, वसुंधरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे पन्नत्ते।
पभू णं ताओ एगामेगा देवी अन्नं एगमेगं देवीसहस्सं परियारं विउव्वित्तए?
एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए।
पभू णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमे महाराया सोमाए रायहानीए, सभाए सुहम्माए, सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए? अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं–परियारो जहा सूरियाभस्स। Translated Sutra: भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के लोकपाल सोम महाराज की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? आर्यो! चार यथा – कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता और वसुन्दधरा। इनमें से प्रत्येक देवी का एक – एक हजार देवियों का परिवार है। इनमें से प्रत्येक देवी एक – एक हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिलकर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-६ सभा | Hindi | 490 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो उड्ढं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पंच वडेंसगा पन्नत्ता, तं जहा–असोगवडेंसए, सत्तवण्णवडेंसए, चंपगवडेंसए, चूयवडेंसए मज्झे, सोहम्मवडेंसए। से णं सोहम्म-वडेंसए महाविमाने अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की सुधर्मासभा कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूभाग से अनेक कोटाकोटि योजन दूर ऊंचाई में सौधर्म नामक देवलोक में सुधर्मासभा है; इस प्रकार सारा वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार जानना, यावत् पाँच अवतंसक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-६ सभा | Hindi | 492 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अलंकारअच्चणिया, तहेव जाव आयरक्ख त्ति । दो सागरोवमाइं ठिती।
सक्के णं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्ढिए जाव केमहासोक्खे।
गोयमा! महिड्ढिए जाव महासोक्खे। से णं तत्थ बत्तीसाए विमानावाससयसहस्साणं जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। एमहिड्ढिए जाव एमहासोक्खे सक्के देविंदे देवराया।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र शक्र कितनी महती ऋद्धि वाला यावत् कितने महान् सुख वाला है ? गौतम ! वह महा – ऋद्धिशाली यावत् महासुखसम्पन्न है। वह वहाँ बत्तीस लाख विमानों का स्वामी है; यावत् विचरता है। देवेन्द्र देवराज शक्र इस प्रकार की महाऋद्धि से सम्पन्न और महासुखी है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-७ अन्तर्द्वीप | Hindi | 493 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं एगूरुयमनुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे पन्नत्ते?
एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव सुद्धदंतदीवो त्ति। एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! उत्तरदिशा में रहने वाले एकोरुक मनुष्यों का एकोरुकद्वीप नामक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! एको – रुकद्वीप से लेकर यावत् शुद्धदन्तद्वीप तक का समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र अनुसार जानना चाहिए। इस प्रकार अट्ठाईस द्वीपों के ये अट्ठाईस उद्देशक कहने चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 495 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उववाओ परिमाणं अवहारुच्चत्त बंध वेदे य।
उदए उदीरणाए लेसा दिट्ठी य नाणे य ॥ Translated Sutra: १. उपपात, २. परिमाण, ३. अपहार, ४. ऊंचाई (अवगाहना), ५. बन्धक, ६. वेद, ७. उदय, ८. उदीरणा, ९. लेश्या, १०. दृष्टि, ११. ज्ञान। तथा – १२. योग, १३. उपयोग, १४. वर्ण – रसादि, १५. उच्छ्वास, १६. आहार, १७. विरति, १८. क्रिया, १९. बन्धक, २०. संज्ञा, २१. कषाय, २२. स्त्रीवेदादि, २३. बन्ध। २४. संज्ञी, २५. इन्द्रिय, २६. अनुबन्ध, २७. संवेध, २८. आहार, २९. स्थिति, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 496 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: गाथा] जोगुवओगे वण्ण-रसमाइ ऊसासगे य आहारे ।
विरई किरिया बंधे सण्ण कसायित्थि बंधे य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४९५ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 497 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सण्णिंदिय अनुबंधे संवेहाऽऽहार ठिइ समुग्घाए ।
चयणं मूलादीसु य उववाओ सव्वजीवाणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४९५ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 498 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–उप्पले णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
गोयमा! एगजीवे, नो अनेगजीवे। तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जंति ते णं नो एगजीवा अनेगजीवा।
ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जंति। एवं उववाओ भाणियव्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसानेति।
ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! जहन्नेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरांत जब उस उत्पल में दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रहकर अनेक जीव वाला बन जाता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 499 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सालुए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
गोयमा! एगजीवे। एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अनंतखुत्तो, नवरं–सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या एक पत्ते वाला शालूक एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला है ? गौतम ! वह एक जीव वाला है; यहाँ से लेकर यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं; तक उत्पल – उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष इतना ही है कि शालूक के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथ – क्त्व की है। शेष सब पूर्ववत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 500 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पलासे णं भंते? एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा, नवरं–सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं गाउयपुहत्ता। देवेहिंतो न उववज्जंति।
लेसासु–ते णं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा? नीललेस्सा? काउलेस्सा?
गोयमा! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा काउलेस्से वा–छव्वीसं भंगा, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! पलासवृक्ष के एक पत्ते वाला (होता है, तब वह) एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! उत्पल – उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष इतना है कि पलाश के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग हैं और उत्कृष्ट गव्यूति – पृथक्त्व है। देव च्यव कर पलाशवृक्ष में से उत्पन्न नहीं होते। भगवन् ! वे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 501 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कुंभिए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियव्वे, नवरं– ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहत्तं, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! एक पत्ते वाला कुम्भिक एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! पलाश (जीव) के समान कहना। इतना विशेष है कि कुम्भिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट वर्ष – पृथक्त्व की है। शेष पूर्ववत्। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 502 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नालिए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया निरवसेसं भाणियव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! एक पत्ते वाला नालिक, एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! कुभ्भिक उद्देशक अनुसार कहना। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 503 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पउमे णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया निरवसेसा भाणियव्वा। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! एक पत्र वाला पद्म, एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला होता है ? गौतम ! उत्पल – उद्देशक के अनुसार इसकी सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 504 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्णिए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं चेव निरवसेसं भाणियव्वं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! एक पत्ते वाली कर्णिका एक जीव वाली है या अनेक जीव वाली है ? गौतम ! इसका समग्र वर्णन उत्पल – उद्देशक के समान करना। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 505 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नलिने णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं चेव निरवसेसं जाव अनंतखुत्तो।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! एक पत्ते वाला नलिन एक जीव वाला होता है, या अनेक जीव वाला ? गौतम ! इसका समग्र वर्णन उत्पल उद्देशक के समान करना चाहिए और सभी जीव अनन्त बार उत्पन्न हो चूके हैं, यहाँ तक कहना। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 506 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं हत्थिणापुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवने नामं उज्जाणे होत्था–सव्वोउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे नंदनवनसन्निभप्पगासे सुहसीतलच्छाए मनोरमे सादुप्फले अकंटए, पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्था–महयाहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दे नामं कुमारे होत्था–सुकुमालपाणिपाए, जहा सूरियकंते जाव रज्जं Translated Sutra: उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था। उस हस्तिनापुर नगर के बाहर ईशानकोण में सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध था। रम्य था, नन्दनवन के समान सुशोभित था। उसकी छाया सुखद और शीतल थी। वह मनोरम, स्वादिष्ट फलयुक्त, कण्टकरहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 507 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सकहं वक्कलं ठाणं, सिज्जाभंडं कमंडलं ।
दंडदारूं तहप्पाणं, अहे ताइं समादहे ॥
महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गिं हुणइ, हुणित्ता चरुं साहेइ, साहेत्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, करेत्ता अतिहिपूयं करेइ, करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति। Translated Sutra: देखो सूत्र ५०६ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 508 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ।
तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसि तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव Translated Sutra: फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल के वस्त्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 509 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि संघयणे सिज्झंति?
गोयमा! वइरोसभणारायसंघयणे सिज्झंति, एवं जहेव ओववाइए तहेव।
संघयणं संठाणं, उच्चतं आउयं च परिवसणा।
एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियव्वा जाव–
अव्वाबाहं सोक्खं, अणुहोंति सासयं सिद्धा॥
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके भगवान गौतम ने इस प्रकार पूछा – ‘भगवन् ! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन से सिद्ध होते हैं ?’ गौतम ! वे वज्रऋषभनाराच – संहनन से सिद्ध होते हैं; इत्यादि औपपा – तिकसूत्र के अनुसार संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य, परिवसन, इस प्रकार सम्पूर्ण सिद्धिगण्डिका – ‘सिद्ध जीव अव्याबाध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१० लोक | Hindi | 510 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कतिविहे णं भंते! लोए पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे लोए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वलोए, खेत्तलोए, काललोए, भावलोए।
खेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अहेलोयखेत्तलोए, तिरियलोयखेत्तलोए, उड्ढलोयखेत्तलोए।
अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा–रयणप्पभापुढविअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमापुढवि-अहेलोयखेत्तलोए।
तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! असंखेज्जविहे पन्नत्ते, तं जहा–जंबुद्दीवे दीवे तिरियलोयखेत्तलोए जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए।
उड्ढलोयखेत्तलोए Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! लोक कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का है। यथा – द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक। भगवन् ! क्षेत्रलोक कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का। यथा – अधोलोक – क्षेत्रलोक, तिर्यग्लोक – क्षेत्रलोक और ऊर्ध्वलोक – क्षेत्रलोक। भगवन् ! अधोलोक – क्षेत्रलोक कितने प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१० लोक | Hindi | 511 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए जाव एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिन्नि जोयणसयसहस्साइं सोलससहस्साइं दोन्निय सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धनुसयं तेरस अंगुलाइं अद्धंगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं।
तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्ढीया जाव महासोक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचलियं सव्वओ समंता संपरि-क्खित्ताणं चिट्ठेज्जा। अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे Translated Sutra: भगवन् ! लोक कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप, समस्त द्वीप – समुद्रों के मध्य में है; यावत् इसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। किसी काल और किसी समय महर्द्धिक यावत् महासुख – सम्पन्न छह देव, मन्दर पर्वत पर मन्दर की चूलिका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१० लोक | Hindi | 512 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोगस्स णं भंते! एगम्मि आगासपदेसे जे एगिंदियपदेसा जाव पंचिंदियपदेसा अनिंदियपदेसा अन्नमन्नबद्धा अन्नमन्नपुट्ठा अन्नमन्नबद्धपुट्ठा अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठंति? अत्थि णं भंते! अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति? छविच्छेदं वा करेंति? नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– लोगस्स णं एगम्मि आगासपदेसे जे एगिंदियपदेसा जाव अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठंति, नत्थि णं भंते! अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति? छविच्छेदं वा करेंति?
गोयमा! से जहानामए नट्टिया सिया–सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलास-सललिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयारकुसला Translated Sutra: भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर एकेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, क्या वे सभी एक दूसरे के साथ बद्ध हैं, अन्योन्य स्पृष्ट हैं यावत् परस्पर – सम्बद्ध हैं? भगवन् ! क्या वे परस्पर एक दूसरे को आबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा) उत्पन्न करते हैं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१० लोक | Hindi | 513 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोगस्स णं भंते! एगम्मि आगासपदेसे जहन्नपए जीवपदेसाणं, उक्कोसपए जीवपदेसाणं सव्वजीवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपदेसे जहन्नपए जीवपदेसा, सव्वजीवा असंखेज्ज-गुणा, उक्कोसपए जीवपदेसा विसेसाहिया।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेशों, उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीव – प्रदेशों और समस्त जीवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! लोक के एक आकाश प्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेश सबसे थोड़े हैं, उनसे सर्वजीव असंख्यातगुणे हैं, उनसे (एक आकाशप्रदेश पर) उत्कृष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 514 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासे चेइए–वण्णओ जाव पुढविसि-लापट्टओ। तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसइ–अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे ण्हाए कय बलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं पायविहारचारेणं महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियग्गामं Translated Sutra: उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। यावत् उसमें एक पृथ्वीशिलापट्ट था। उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी रहता था। वह आढ्य यावत् अपरिभूत था। वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक होकर यावत् विचरण करता था। महावीर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 515 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पमाणकाले?
पमाणकाले दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–दिवसप्पमाणकाले, राइप्पमाणकाले य। चउपोरिसिए दिवसे, चउपोरिसिया राई भवइ। उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ।
जदा णं भंते! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी-परिहायमाणी जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ? जदा णं जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभाग-मुहुत्तभागेणं परिवड्ढमाणी-परिवड्ढमाणी उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए Translated Sutra: भगवन् ! जब दिवस की या रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त्त की होती है, तब उस मुहूर्त्त का कितना भाग घटते – घटते जघन्य तीन मुहूर्त्त की दिवस और रात्रि की पौरुषी होती है ? और जब दिवस और रात्रि की पौरुषी जघन्य तीन मुहूर्त्त की होती है, तब मुहूर्त्त का कितना भाग बढ़ते – बढ़ते उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त्त की पौरुषी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 516 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अहाउनिव्वत्तिकाले?
अहाउनिव्वत्तिकाले–जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मनुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं। सेत्तं अहाउ-निव्वत्तिकाले।
से किं तं मरणकाले?
मरणकाले–जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं मरणकाले।
से किं तं अद्धाकाले?
अद्धाकाले–से णं समयट्ठयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्ठयाए। एस णं सुदंसणा! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्ठयाए। असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवु-च्चइ। संखेज्जाओ आवलियाओ उस्साओ जहा सालिउद्देसए जाव–
एएसि णं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया Translated Sutra: भगवन् ! वह यथार्निवृत्तिकाल क्या है ? (सुदर्शन !) जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव ने स्वयं जिस गति का और जैसा भी आयुष्य बाँधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना – भोगना, ‘यथायुर्निवृ – त्तिकाल’ कहलाता है। भगवन् ! मरणकाल क्या है ? सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 517 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?
एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहन्नमणुक्कोसेनं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की है ? सुदर्शन ! स्थितिपद सम्पूर्ण कहना, यावत् – अजघन्य – अनुत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 518 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ।
तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 519 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गय उसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं ज्झयं कुंभं ।
पउमसर सागर विमानभवन रयणुच्चय सिहिं च ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१८ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 520 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु सत्त महा-
सुविणे पासित्ता णं पडिबु-ज्झंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति। इमे य णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए Translated Sutra: ‘हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत् आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।’ अतः हे देवानुप्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 521 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुम्माणवड्ढणं करेह, करेत्ता हत्थिणापुरं नगरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-संमज्जिओवलित्तं जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसंजुत्तं उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममे-तमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्ख-मइ, Translated Sutra: इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिना – पुर नगर में शीघ्र ही चारक – शोधन अर्थात् – बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लीप – पोत कर शुद्धि (यावत्) करो – कराओ। तत्पश्चात् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 522 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुत्तंसि ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणग-ण्हाण-गीय-वाइय-पसाहण-अट्ठंगतिलग-कंकण-अविहवबहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउय-मंगलोवयार-कयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरियत्ताणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिंतो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेनं पाणिं गिण्हाविंसु।
तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति, तं जहा–अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ, Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी समय शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त्त में महाबल कुमार ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक – मंगल प्रायश्चित्त किया। उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया गया। फिर सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, गीत, वादित, मण्डन, आठ अंगों पर तिलक, लाल डोरे के रूप में कंकण तथा दही, अक्षत आदि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 523 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अनगारे जाइसंपन्ने वण्णओ जहा केसि-सामिस्स जाव पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिणापुरे नगरे, जेणेव सहसंबवने उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जणवूहं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पास-माणस्स वा एवं Translated Sutra: उस काल और उस समय में तेरहवे तीर्थंकर अरहंत विमलनाथ के धर्मघोष अनगार थे। वे जातिसम्पन्न इत्यादि केशी स्वामी के समान थे, यावत् पाँच सौ अनगारों के परिवार के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए हस्ति – नापुर नगर में सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 524 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुमे सुदंसणा! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णय-परिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपन्नत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तं सुट्ठु णं तुमं सुदंसणा! इदाणिं पि करेंसि। से तेणट्ठेणं सुदंसणा! एवं वुच्चइ– अत्थि णं एतेसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा।
तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठं सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णी पुव्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एयमट्ठं Translated Sutra: तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने यथारूप स्थविरों से केवलि – प्ररूपित धर्म सूना। वह धर्म तुम्हें ईच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 525 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। संखवने चेइए–वण्णओ। तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया अभिगयजीवा-जीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयाइ एगयओ समुवागयाणं सहियाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–देवलोगेसु णं अज्जो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवट्ठिती-गहियट्ठे ते समणोवासए एवं वयासी–देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं Translated Sutra: उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। इस आलभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण करते थे। उस समय एक दिन एक स्थान पर आकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में परस्पर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 526 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ। तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा, हट्ठतुट्ठा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! समणे भगवं महावीरे जाव आलभियाए नगरीए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो देवानुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन-वंदन-नमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणाए? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमगं पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवानुप्पिया! समणं भगवं महावीरं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् (आलभिका नगरी में) पधारे, यावत् परीषद् ने उनकी पर्युपासना की। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान आलभिका नगरी के वे श्रमणोपासक इस बात को सूनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 527 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–पभू णं भंते! इसिभ-द्दपुत्ते समणोवासए देवानुप्पियाणं अंतियं मुंडे भावित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइत्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे गोयमा! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेहिति, ज्झूसेत्ता सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेहिति, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाने देवत्ताए Translated Sutra: तदनन्तर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! क्या ऋषि – भद्रपुत्र श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगारवास से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ हैं? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत – से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान |