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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 770 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं० एगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव पंचिंदियजीव-निव्वत्ती
एगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा– पुढविक्काइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव वणस्सइकाइय-एगिंदियजीवनिव्वत्ती।
पुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– सुहुमपुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती य, बादरपुढवि-काइय-एगिंदियजीवनिव्वत्ती य। एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा वड्डगबंधो तेयगसरीरस्स जाव–सव्वट्ठ सिद्धअनुत्तरोववातियकप्पातीतवेमानियदेवपंचिंदियजीवनिव्वत्ती Translated Sutra: भगवन् ! जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति यावत् पंचेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति। भगवन् ! एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की – पृथ्वी – कायिक – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 771 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जीवाणं निव्वत्ति कम्मपगडी सरीर निव्वत्ति |
सव्विंदिय निव्वत्ति भासा य मणे कसाया य || Translated Sutra: १. जीव, २. कर्मप्रकृति, ३. शरीर, ४. सर्वेन्द्रिय, ५. भाषा, ६. मन, ७. कषाय। तथा – ८. वर्ण, ९. गंध, १०. रस, ११. स्पर्श, १२. संस्थान, १३. संज्ञा, १४. लेश्या, १५. दृष्टि, १६. ज्ञान, १७. अज्ञान, १८. उपयोग और १९. योग, (इन सबकी निर्वृत्ति का कथन इस उद्देशक में किया गया है)। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र – ७७१– | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 772 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] वण्ण रस गंध फासे संठाअ विहीय बोद्धव्वा |
लेस दिट्ठी नाणे उवओगे चेव जोगे य || Translated Sutra: देखो सूत्र ७७१ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 773 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: देखो सूत्र ७७१ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-९ करण | Hindi | 774 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! करणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं० दव्वकरणे, खेत्तकरणे, कालकरणे, भवकरणे, भावकरणे।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे करणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वकरणे जाव भावकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं।
कतिविहे णं भंते! सरीरकरणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे सरीरकरणे पन्नत्ते, तं जहा–ओरालियसरीरकरणे जाव कम्मासरीरकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति सरीराणि।
कतिविहे णं भंते! इंदियकरणे पन्नत्ते।
गोयमा! पंचविहे इंदियकरणे पन्नत्ते, तं जहा–सोइंदियकरणे जाव फासिंदियकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति इंदियाइं।
एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चउव्विहे, Translated Sutra: भगवन् ! करण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – द्रव्यकरण, क्षेत्रकरण, कालकरण, भवकरण और भावकरण। भगवन् ! नैरयिकों के कितने करण हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के यथा – द्रव्यकरण यावत् भावकरण। वैमानिकों तक कहना। भगवन् ! शरीरकरण कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – औदारिकशरीरकरण यावत् कार्मणशरीरकरण। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-९ करण | Hindi | 775 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वे खित्ते काले भवे य भावे य सरीर करणे य |
इंदिय करणं भासा मणे कसाए समुग्घाए || Translated Sutra: द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, शरीर, करण, इन्द्रियकरण, भाषा, मन, कषाय और समुद्घात्। तथा – संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, वेद, प्राणातिपातकरण, पुद्गलकरण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान इनका कथन इस उद्देशक में हैं। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ सूत्र – ७७५–७७७ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-२ द्रव्य | Hindi | 869 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! जाइं दव्वाइं ओरालियसरीरत्ताए गेण्हइ ताइं किं ठियाइं गेण्हइ? अट्ठियाइं गेण्हइ?
गोयमा! ठियाइं पि गेण्हइ, अट्ठियाइं पि गेण्हइ।
ताइं भंते! किं दव्वओ गेण्हइ? खेत्तओ गेण्हइ? कालओ गेण्हइ? भावओ गेण्हइ?
गोयमा! दव्वओ वि गेण्हइ, खेत्तओ वि गेण्हइ, कालओ वि गेण्हइ, भावओ वि गेण्हइ। ताइं दव्वओ अनंतपदेसियाइं दव्वाइं, खेत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढाइं– एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं।
जीवे णं भंते! जाइं दव्वाइं वेउव्वियसरीरत्ताए गेण्हइ ताइं किं ठियाइं गेण्हइ? अट्ठियाइं गेण्हइ? एवं चेव, नवरं Translated Sutra: भगवन् ! जीव जिन पुद्गलद्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी। भगवन् ! (जीव) उन द्रव्यों को, द्रव्य से ग्रहण करता है या क्षेत्र से, काल से या भाव से ग्रहण करता है ? गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 870 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! संठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! छ संठाणा पन्नत्ता, तं जहा–परिमंडले, वट्टे, तंसे, चउरंसे, आयते, अणित्थंथे।
परिमंडला णं भंते! संठाणा दव्वट्ठयाए किं संखेज्जा? असंखेज्जा? अनंता?
गोयमा! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता।
वट्टा णं भंते! संठाणा? एवं चेव। एवं जाव अणित्थंथा। एवं पएसट्ठयाए वि। एवं दव्वट्ठपएसट्ठयाए वि।
एएसि णं भंते! परिमंडल-वट्ट-तंस-चउरंस-आयत-अणित्थंथाणं संठाणाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा परिमंडलसंठाणा दव्वट्ठयाए, वट्टा संठाणा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, चउरंसा संठाणा Translated Sutra: भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! छह प्रकार के – परिमण्डल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र, आयत और अनित्थंस्थ। भगवन् ! परिमण्डल – संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! वे संख्यात नहीं हैं, असंख्यात भी नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं। भगवन् ! वृत्त – संस्थान पृच्छा। गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 871 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! संठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! पंच संठाणा पन्नत्ता, तं जहा–परिमंडले जाव आयते।
परिमंडला णं भंते! संठाणा किं संखेज्जा? असंखेज्जा? अनंता?
गोयमा! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता।
वट्टा णं भंते! संठाणा किं संखेज्जा? एवं चेव। एवं जाव आयता।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा? असंखेज्जा? अनंता?
गोयमा! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता।
वट्टा णं भंते! संठाणा किं संखेज्जा? एवं चेव। एवं जाव आयता।
सक्करप्पभाए णं भंते! पुढवीए परिमंडला संठाणा? एवं चेव। एवं जाव आयता। एवं जाव अहेसत्तमाए।
सोहम्मे णं भंते! कप्पे परिमंडला संठाणा? एवं जाव अच्चुए।
गेवेज्जविमाने Translated Sutra: भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – परिमण्डल (से लेकर) आयत तक। भगवन् ! परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! वे अनन्त हैं। भगवन् ! वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, इत्यादि (गौतम !) अनन्त हैं। इसी प्रकार आयतसंस्थान तक जानना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 872 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वट्टे णं भंते! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे पन्नत्ते?
गोयमा! वट्टे संठाणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–घटवट्टे य, पत्तरवट्टे य।
तत्थ णं जे से पत्तरवट्टे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–ओयपदेसिए य, जुम्मपदेसिए य। तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहन्नेणं पंचपदेसिए पंचपदेसोगाढे, उक्कोसेणं अनंतपदेसिए असंखेज्ज-पदेसोगाढे। तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहन्नेणं बारसपदेसिए बारसपदेसोगाढे, उक्कोसेणं अनंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे।
तत्थ णं जे से घणवट्टे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–ओयपदेसिए य, जुम्मपदेसिए य। तत्थ णं जे से ओयपदेसिए से जहन्नेणं सत्तपदेसिए सत्तपदेसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं Translated Sutra: भगवन् ! त्रयस्त्रसंस्थान कितने प्रदेश वाला और कितने आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ कहा गया है ? गौतम ! त्रयस्रसंस्थान दो प्रकार का – घनत्र्यस्र और प्रतरत्र्यस्र। उनमें से जो प्रतरत्र्यस्र है, वह दो प्रकार – ओज – प्रदेशिक और युग्म – प्रदेशिक। ओज – प्रदेशिक जघन्य तीन प्रदेश वाला और तीन आकाशप्रदेशों में तथा उत्कृष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 873 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परिमंडले णं भंते! संठाणे कतिपदेसिए–पुच्छा।
गोयमा! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–घणपरिमंडले य, पतरपरिमंडले य।
तत्थ णं जे से पतरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसइपदेसिए वीसइपदेसोगाढे, उक्कोसेणं अनंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे।
तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहन्नेणं चत्तालीसइपदेसिए चत्तालीसइपदेसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अनंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे पन्नत्ते।
परिमंडले णं भंते! संठाणे दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मे? तेओए? दावरजुम्मे? कलिओए?
गोयमा! नो कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, कलिओए।
वट्टे णं भंते! संठाणे दव्वट्ठयाए? एवं चेव। एवं जाव आयते।
परिमंडला णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! परिमण्डल – संस्थान कितने प्रदेशों वाला इत्यादि प्रश्न। गौतम ! परिमण्डलसंस्थान दो प्रकार का – घन – परिमण्डल और प्रतर – परिमण्डल। प्रतर – परिमण्डल, जघन्य बीस प्रदेश वाला और बीस आकाशप्रदेशों में उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है। घन – परिमण्डल जघन्य चालीस प्रदेशों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 874 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सेढीओ णं भंते! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? असंखेज्जाओ? अनंताओ?
गोयमा! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अनंताओ।
पाईणपडीणायताओ णं भंते! सेढीओ दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? एवं चेव। एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। एव उड्ढमहायताओ वि।
लोगागाससेढीओ णं भंते! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? असंखेज्जाओ? अनंताओ?
गोयमा! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अनंताओ।
पाईणपडीणायताओ णं भंते! लोगागाससेढीओ दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? एवं चेव। एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। एवं उड्ढमहायताओ वि।
अलोगागाससेढीओ णं भंते! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? असंखेज्जाओ? अनंताओ?
गोयमा! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अनंताओ। एवं पाईणपडीणायताओ Translated Sutra: भगवन् ! श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! वे अनन्त हैं। भगवन् ! पूर्व और पश्चिम दिशा में लम्बी श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप में संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न। गौतम ! वे अनन्त हैं। इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर में लम्बी श्रेणियों तथा उर्ध्व और अधो दिशा में लम्बी श्रेणियों के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 875 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सेढीओ णं भंते! किं सादीयाओ सपज्जवसियाओ? सादीयाओ अपज्जवसियाओ? अनादीयाओ
सपज्जवसियाओ? अनादीयाओ अपज्जवसियाओ?
गोयमा! नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ, नो अनादीयाओ सपज्जवसियाओ, अनादीयाओ अपज्जवसियाओ। एवं जाव उड्ढमहायताओ।
लोगागाससेढीओ णं भंते! किं सादीयाओ सपज्जवसियाओ–पुच्छा।
गोयमा! सादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ, नो अनादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो अनादीयाओ अपज्जवसियाओ। एवं जाव उड्ढमहायत्ताओ।
अलोगागाससेढीओ णं भंते! किं सादीयाओ सपज्जवसियाओ–पुच्छा।
गोयमा! सिय सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय सादीयाओ अपज्जवसियाओ, सिय अनादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय अनादीयाओ Translated Sutra: भगवन् ! क्या श्रेणियाँ सादि – सपर्यवसित हैं, अथवा सादि – अपर्यवसित हैं या वे अनादि – सपर्यवसित हैं, अथवा अनादि – अपर्यवसित हैं। गौतम ! वे न तो सादि – सपर्यवसित हैं, न सादि – अपर्यवसित हैं और न अनादि – सपर्यवसित हैं, किन्तु अनादि – अपर्यवसित हैं। इसी प्रकार यावत् ऊर्ध्व और अधो दिशामें लम्बी श्रेणियों के विषयमें | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-१ | Hindi | 977 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सम्मद्दिट्ठीणं चत्तारि भंगा, मिच्छादिट्ठीणं पढम-बितिया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव।
नाणीणं चत्तारि भंगा, आभिनिबोहियनाणीणं जाव मनपज्जवनाणीणं चत्तारि भंगा, केवलनाणीणं चरिमो भंगो जहा अलेस्साणं।
अन्नाणीणं पढम-बितिया, एवं मइअन्नाणीणं, सुयअन्नाणीणं, विभंगनाणीण वि।
आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताणं पढम-बितिया, नोसण्णोवउत्ताणं चत्तारि।
सवेदगाणं पढम-बितिया। एवं इत्थिवेदगा, पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा वि। अवेदगाणं चत्तारि।
सकसाईणं चत्तारि, कोहकसाईणं पढम-बितिया भंगा, एवं माणकसायिस्स वि, मायाकसायिस्स वि। लोभकसायिस्स चत्तारि भंगा।
अकसायी णं भंते! जीवे Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि जीवों में (पूर्ववत्) चारों भंग जानना चाहिए। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए। ज्ञानी जीवों में चारों भंग पाए जाते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानी से मनःपर्यवज्ञानी जीवों तक भी चारों ही भंग जानना। केवलज्ञानी जीवों में अन्तिम एक भंग अलेश्य जीवों के समान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-१ | Hindi | 978 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ?
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया।
सलेस्से णं भंते! नेरइए पावं कम्मं? एवं चेव। एवं कण्हलेस्से वि, नीललेस्से वि, काउलेस्से वि। एवं कण्हपक्खिए सुक्कपक्खिए, सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी, नाणी आभिनिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी, अन्नाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी, आहारसण्णोवउत्ते जाव परिग्गहसण्णोवउत्ते, सवेदए नपुंसकवेदए, सकसायी जाव लोभकसायी सजोगी मणजोगी वइजोगी कायजोगी, सागरोवउत्ते अनागारोवउत्ते– एएसु सव्वेसु पदेसु पढम-बितिया भंगा भाणियव्वा।
एवं असुरकुमारस्स वि वत्तव्वया भाणियव्वा, नवरं–तेउलेसा, Translated Sutra: भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने पापकर्म बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा ? गौतम ! किसी ने पापकर्म बाँधा था, इत्यादि पहला और दूसरा भंग। भगवन् ! क्या सलेश्य नैरयिक जीव ने पापकर्म बाँधा था ? गौतम ! पहला और दूसरा भंग। इसी प्रकार कृष्ण, नील और कापोतलेश्या वाले जीव में भी प्रथम और द्वीतिय भंग। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-१ | Hindi | 979 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! नाणावरणिज्जं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ? एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तव्वया तहेव नाणावरणिज्जस्स वि भाणियव्वा, नवरं–जीवपदे मनुस्सपदे य सकसाइम्मि जाव लोभकसाइम्मि य पढम-बितिया भंगा, अवसेसं तं चेव जाव वेमाणिया। एवं दरिसणावरणिज्जेणं वि दंडगो भाणियव्वो निरवसेसो
जीवे णं भंते! वेयणिज्जं कम्मं किं बंधी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। सलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव पम्हलेस्से पढम-बितिया भंगा। सुक्कलेस्से ततियविहूणा भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो। कण्हपक्खिए Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा ? गौतम ! पापकर्म के समान ज्ञानावरणीय कर्म कहना, परन्तु जीवपद और मनुष्यपद में सकषायी यावत् लोभकषायी में प्रथम और द्वीतिय भंग ही कहना। यावत् वैमानिक तक कहना। ज्ञानावरणीयकर्म के समान दर्शनावरणीयकर्म कहना। भगवन् ! क्या जीव ने वेदनीयकर्म | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-१ | Hindi | 980 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! आउयं कम्मं किं बंधी बंधइ–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी चउभंगो। सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो।
कण्हपक्खिए णं–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ। सुक्कपक्खिए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा।
सम्मामिच्छादिट्ठी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि भंगा।
मनपज्जवनाणी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। केवलनाणे चरिमो भंगो। एवं Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव ने आयुष्यकर्म बाँधा था, इत्यादि प्रश्न। गौतम ! किसी जीवने बाँधा था, इत्यादि चारों भंग हैं। सलेश्य से लेकर शुक्ललेश्यी जीवों तक में चारों भंग पाए जाते हैं। अलेश्य जीवों में एकमात्र अन्तिम भंग है। भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जीव ने (आयुष्यकर्म) बाँधा था, इत्यादि प्रश्न। गौतम ! किसी जीव ने बाँधा था, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-२ थी ११ | Hindi | 981 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनंतरोववन्नए णं भंते! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी–पुच्छा तहेव।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया भंगा।
सलेस्से णं भंते! अनंतरोववन्नए नेरइए पावं कम्मं किं बंधी–पुच्छा।
गोयमा! पढम-बितिया भंगा। एवं खलु सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा, नवरं–सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छि-ज्जइ। एवं जाव थणियकुमाराणं।
बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियाणं वइजोगो न भण्णइ। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं ओहिनाणं, विभंगनाणं, मणजोगो, वइजोगो– एयाणि पंच न भण्णंति। मनुस्साण अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मनपज्जवनाण-केवलनाण विभंगनाण-नोसण्णोवउत्त-अवेदग-अकसाय-मणजोग-वइजोग-अजोगि–एयाणि एक्कारस Translated Sutra: भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बाँधा था ? इत्यादि। गौतम ! प्रथम और द्वीतिय भंग होता है। भगवन् ! सलेश्यी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बाँधा था ? इनमें सर्वत्र प्रथम और द्वीतिय भंग। किन्तु कृष्णपाक्षिक में तृतीय भंग पाया जाता है। इस प्रकार सभी पदों में पहला और दूसरा भंग कहना, किन्तु विशेष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-२ थी ११ | Hindi | 982 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परंपरोववन्नए णं भंते! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए पढम-बितिया। एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नएहिं वि उद्देसओ भाणियव्वो नेरइयाईओ तहेव नवदंडगसंगहिओ। अट्ठण्ह वि कम्मप्पगडीणं जा जस्स कम्मस्स वत्तव्वया सा तस्स अहीणमतिरित्ता नेयव्वा जाव वेमाणिया अनागारोवउत्ता।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या परम्परोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बाँधा था ? गौतम ! प्रथम और द्वीतिय भंग जानना। प्रथम उद्देशक समान परम्परोपपन्नक नैरयिक में पापकर्मादि नौ दण्डक सहित यह उद्देशक भी कहना। आठ कर्म – प्रकृतियों में से जिसके लिए जिस कर्म की वक्तव्यता कही है, उसके लिए उस कर्म की वक्तव्यता अनाकारोपयुक्त वैमानिकों तक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 132 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु जाव एगदिसाभिमुहा निज्जायंति।
तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिया नंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तं महाफलं खलु देवानुप्पिया! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन-वंदन-नमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए?
एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स Translated Sutra: तदनन्तर तुंगिकानगरी के शृंगाटक मार्गमें, त्रिक रास्तोंमें, चतुष्क पथोंमें तथा अनेक मार्ग मिलते हैं, ऐसे मार्गों में, राजमार्गों में एवं सामान्य मार्गों में यह बात फैल गई। परीषद् एक ही दिशामें उन्हें वन्दन करने के लिए जाने लगी। जब यह बात तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 133 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे महइमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्मं परिकहेंति, तं जहा–
सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं,
सव्वाओ अदिन्नादानाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं।
तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता एवं वयासी– संजमेणं भंते! किंफले? तवे किंफले?
तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी–संजमे णं अज्जो! अणण्हयफले, तवे वोदाणफले।
तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी–जइ णं भंते! संजमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले। Translated Sutra: तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने उन श्रमणोपासकों तथा उस महती परीषद् (धर्मसभा) को केशीश्रमण की तरह चातुर्याम – धर्म का उपदेश दिया। यावत् वे श्रमणोपासक अपनी श्रमणोपासकता द्वारा आज्ञा के आराधक हुए। यावत् धर्म – कथा पूर्ण हुई। तदनन्तर वे श्रमणोपासक स्थविर भगवंतों से धर्मोपदेश सूनकर एवं हृदयंगम करके बड़े | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 134 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाइं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणाइं पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाइं उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ (श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। परीषद् वन्दना करने गई यावत् धर्मोपदेश सूनकर) परीषद् वापस लौट गई। उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखते थे। वे निरन्तर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 135 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तहारूवं णं भंते! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा?
गोयमा! सवणफला।
से णं भंते! सवणे किंफले? नाणफले।
से णं भंते! नाणे किंफले? विन्नाणफले।
से णं भंते! विण्णाणे किंफले? पच्चक्खाणफले।
से णं भंते! पच्चक्खाणे किंफले? संजमफले।
से णं भंते! संजमे किंफले? अणण्हयफले।
से णं भंते! अणण्हए किंफले? तवफले।
से णं भंते! तवे किंफले? वोदाणफले।
से णं भंते! वोदाणे किंफले? अकिरियाफले।
सा णं भंते! अकिरिया किंफला? सिद्धिपज्जवसाणफला–पन्नत्ता गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन की पर्युपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना का क्या फल मिलता है ? गौतम ! तथारूप श्रमण या माहन के पर्युपासक को उसकी पर्युपासना का फल होता है – श्रवण। भगवन् ! उस श्रवण का क्या फल होता है ? गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। भगवन् ! उन ज्ञान का क्या फल है ? गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 136 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संजमे ।
अणण्हए तवे चेव, वोदाने अकिरिया सिद्धी ॥ Translated Sutra: (पर्युपासना का प्रथम फल) श्रवण, (श्रवण का फल) ज्ञान, (ज्ञान का फल) विज्ञान, (विज्ञान का फल) प्रत्याख्यान, (प्रत्याख्यान का फल) संयम, (संयम का फल) अनाश्रवत्व, (अनाश्रवत्व का फल) तप, (तप का फल) व्यवदान, (व्यवदान का फल) अक्रिया और (अक्रिया का फल) सिद्धि है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 137 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, भासंति, पन्नवेंति, परूवेंति–एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे, एत्थ णं महं एगे हरए अघे पन्नत्ते– अनेगाइं जोयणाइं आयाम-विक्खंभेणं, नाणादुमसंडमंडिउद्देसे, सस्सिरीए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थ णं बहवे ओराला बलाहया संसेयंति संमुच्छंति वासंति। तव्वइरित्ते य णं सया समियं उसिणे-उसिणे आउकाए अभिनिस्सवइ।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाइक्खंति, मिच्छं ते एवमाइक्खंति। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि, भासामि, पन्नवेमि, परूवेमि– एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि ‘राजगृह नगर के बाहर वैभारगिरि के नीचे एक महान (बड़ा भारी) पानी का ह्रद है। उसकी लम्बाई – चौड़ाई अनेक योजन है। उसका अगला भाग अनेक प्रकार के वृक्षसमूह से सुशोभित है, वह सुन्दर है, यावत् प्रतिरूप है। उस ह्रद में अनेक उदार मेघ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-६ भाषा | Hindi | 138 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! मन्नामी ति ओहारिणी भासा? एवं भासापदं भाणियव्वं। Translated Sutra: भगवन् ! भाषा अवधारिणी है; क्या मैं ऐसा मान लूँ ? गौतम ! उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के भाषापद जान लेना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-७ देव | Hindi | 139 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! देवा पन्नत्ता?
गोयमा! चउव्विहा देवा पन्नत्ता, तं जहा– भवनवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया।
कहि णं भंते! भवनवासीणं देवाणं ठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे देवाणं वत्तव्वया सा भाणियव्वा। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे एवं सव्वं भाणियव्वं, जाव सिद्धगंडिया समत्ता।
कप्पाण पइट्ठाणं, बाहुल्लुच्चत्त मेव संठाणं।
जीवाभिगमे जो वेमाणिउद्देसो सो भाणियव्वो सव्वो। Translated Sutra: भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भगवन् ! भवनवासी देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! भवनवासी देवों के स्थान इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे हैं; इत्यादि देवों की सारी वक्तव्यता प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-८ चमरचंचा | Hindi | 140 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अरणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुद्दं बायालीसं जोयणसयसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तिगिंछिकूडे नामं उप्पायपव्वए पन्नत्ते–सत्तरस-एक्कवीसे जोयणसए उड्ढं उच्चत्तेणं चत्तारितीसे जोयणसए कोसं च उव्वेहेणं मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं, मज्झे चत्तारि चउवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, उवरिं सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खंभेणं मूले तिन्नि जोयणसहस्साइं, दोन्निय बत्तीसुत्तरे Translated Sutra: भगवन् ! असुरकुमारों के इन्द्र और अनेक राजा चमर की सुधर्मा – सभा कहाँ पर है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में स्थित मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में तीरछे असंख्य द्वीपों और समुद्रों को लाँघने के बाद अरुणवर द्वीप आता है। उस द्वीप की वेदिका के बाहिरी किनारे से आगे बढ़ने पर अरुणोदय नामक समुद्र आता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-९ समयक्षेत्र | Hindi | 141 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किमिदं भंते! समयखेत्ते त्ति पवुच्चति?
गोयमा! अड्ढाइज्जा दीवा, दो य समुद्दा, एस णं एवइए समयखेत्तेति पवुच्चति।
तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतरे। एवं जीवाभिगमवत्तव्वया नेयव्वा जाव अब्भिंतर-पुक्खरद्धं जोइसविहूणं। Translated Sutra: भगवन् ! यह समयक्षेत्र किसे कहा जाता है ? गौतम ! अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र इतना यह (प्रदेश) ‘समयक्षेत्र’ कहलाता है। इनमें जम्बूद्वीप नामक द्वीप समस्त द्वीपों और समुद्रों के बीचोबीच है। इस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा हुआ सारा वर्णन यहाँ यावत् आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध तक कहना चाहिए; किन्तु ज्योतिष्कों का वर्णन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-२ | Hindi | 442 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोभिंसु, सोभिंति, सोभिस्संति। Translated Sutra: देखो सूत्र ४४१ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-२ | Hindi | 443 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लवणे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिंसु वा? पभासेंति वा? पभासिस्संति वा?
एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ। धायइसंडे, कालोदे, पुक्खरवरे, अब्भंतपुक्खरद्धे, मनुस्सखेत्ते–एएसु सव्वेसु जहा जीवा-भिगमे जाव–एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं।
पुक्खरोदे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिंसु वा? पभासेंति वा? पभासिस्संति वा?
एवं सव्वेसु दीव-समुद्देसु जोतिसियाणं भाणियव्वं जाव सयंभूरमणे जाव सोभिंसु वा, सोभिंति वा, सोभिस्संति वा। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने चन्द्रों ने प्रकाश किया, करते हैं और करेंगे ? गौतम ! जीवाभिगमसूत्रानुसार तारों के वर्णन तक जानना। घातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करवरद्वीप, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और मनुष्यक्षेत्र; इन सब में जीवाभिगमसूत्र के अनुसार – ‘‘एक चन्द्र का परिवार कोटाकोटी तारागण (सहित) होता है’’ तक जानना चाहिए। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३ थी ३० अंतर्द्वीप | Hindi | 444 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं एगूरुयमनुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे पन्नत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स पुरत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुद्दं उत्तरपुरत्थिमे णं तिन्नि जोयणसयाइं ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगुरुयमनुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे पन्नत्ते–तिन्नि जोयणसयाइं आयाम-विक्खंभेणं, नव एगूणवन्ने जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं।
से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। दोण्ह वि पमाणं वण्णओ य। एवं एएणं कमेणं एवं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे जाव Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा – भगवन् ! दक्षिण दिशा का ‘एकोरुक’ मनुष्यों का ‘एकोरुकद्वीप’ नामक द्वीप कहाँ बताया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में ‘एकोरुक’ नामक द्वीप है।) जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के अनुसार इसी क्रम के शुद्धदन्तद्वीप तक (जान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 445 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा, केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स वा, तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए?
गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए?
गोयमा! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् (गौतमस्वामी ने) इस प्रकार पूछा – भगवन् ! केवली, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, केवलिपाक्षिक, केवलि – पाक्षिक के श्रावक, केवलि – पाक्षिक की श्राविका, केवलि – पाक्षिक के उपासक, केवलि – पाक्षिक की उपासिका, (इनमें से किसी) से बिना सुने ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 446 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं वाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए, पगइउवसंतयाए, पगइपयणुकोह-मान-माया-लोभयाए, मिउमद्दवसंपन्नयाए, अल्लीणयाए, विणीययाए, अन्नया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं-विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ।
से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं जाणइ-पासइ। से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पन्नेणं Translated Sutra: निरन्तर छठ – छठ का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए उस जीव की प्रकृति – भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और लाभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 447 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा?
गोयमा! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा–तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए।
से णं भंते! कतिसु नाणेसु होज्जा?
गोयमा! तिसु–आभिनिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा।
से णं भंते! किं सजोगी होज्जा? अजोगी होज्जा? गोयमा! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा।
जइ सजोगी होज्जा, किं मणजोगी होज्जा? वइजोगी होज्जा? कायजोगी होज्जा?
गोयमा! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा।
से णं भंते! किं सागरोवउत्ते होज्जा? अनागारोवउत्ते होज्जा?
गोयमा! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अनागारोवउत्ते वा होज्जा।
से णं भंते! कयरम्मि संघयणे होज्जा?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितनी लेश्याओं में होता है ? गौतम ! वह तीन विशुद्धलेश्याओं में होता है, यथा – तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितने ज्ञानों में होता है ? गौतम ! वह आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों में होता है। भगवन् ! वह सयोगी होता है, या अयोगी ? गौतम ! वह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 448 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! केवलिपन्नत्तं धम्मं आघवेज्ज वा? पन्नवेज्ज वा? परूवेज्ज वा? नो तिणट्ठे समट्ठे, नन्नत्थ एगनाएण वा, एगवागरणेण वा।
से णं भंते! पव्वावेज्ज वा? मुंडावेज्ज वा?
नो तिणट्ठे समट्ठे, उवदेसं पुण करेज्जा।
से णं भंते! सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति?
हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति। Translated Sutra: भगवन् ! वे असोच्चा केवली केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं अथवा प्ररूपणा करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वे एक उदाहरण के अथवा एक प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य उपदेश नहीं करते। भगवन् ! वे (किसी को) प्रव्रजित या मुण्डित करते हैं ? गौतम ! वह अर्थ समर्थ नहीं। किन्तु उपदेश करते हैं। भगवन् ! वे सिद्ध होते | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 449 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! किं उड्ढं होज्जा? अहे होज्जा? तिरियं होज्जा?
गोयमा! उड्ढं वा होज्जा, अहे वा होज्जा, तिरियं वा होज्जा। उड्ढं होमाणे सद्दावइ-वियडावइ-गंधावइ-मालवंतपरियाएसु वट्ट-वेयड्ढपव्वएसु होज्जा, साहरणं पडुच्च सोमनसवने वा पंडगवने वा होज्जा। अहे होमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवने वा होज्जा। तिरियं होमाणे पन्नरससु कम्मभूमीसु होज्जा, साहरणं पडुच्च अड्ढाइज्जदीव-समुद्द तदेक्कदे-सभाए होज्जा। ते णं भंते! एगसमए णं केवतिया होज्जा?
गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव Translated Sutra: भगवन् ! वे असोच्चा कवली ऊर्ध्वलोक में होते है, अधोलोक में होते हैं या तिर्यक्लोक में होते हैं ? गौतम ! वे तीनो लोक में भी होते हैं। यदि ऊर्ध्वलोक में होते हैं तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त नामक वृत (वैताढ्य) पर्वतों में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा सौमनसवन में अथवा पाण्डुकवन में होते हैं। यदि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 450 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा, केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्सवा, तप्पक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स वा, तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए?
गोयमा! सोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए?
गोयमा! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं सोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं Translated Sutra: भगवन् ! केवली यावत् केवलि – पाक्षिक की उपासिका से श्रवण कर क्या कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म – बोध प्राप्त करता है ? गौतम ! कोई जीव प्राप्त करता है और कोई जीव प्राप्त नहीं करता। इस विषय में असोच्चा के समान ‘सोच्चा’ की वक्तव्यता कहना। विशेष यह कि सर्वत्र ‘सोच्चा’ ऐसा पाठ कहना। शेष पूर्ववत् यावत् जिसने मनःपर्यवज्ञानावरणीय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३२ गांगेय | Hindi | 451 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढे। परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए नामं अनगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी–
संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति? निरंतरं नेरइया उववज्जंति?
गंगेया! संतरं पि नेरइया उववज्जंति, निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति।
संतरं भंते! असुरकुमारा उववज्जंति? निरंतरं असुरकुमारा उववज्जंति?
गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा उववज्जंति, निरंतरं पि असुरकुमारा Translated Sutra: उस काल, उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। वहाँ द्युतिपलाश नाम का चैत्य था। महावीर स्वामी पधारे, समवसरण लगा। परिषद् निकली। (भगवान ने) धर्मोपदेश दिया। परिषद् वापिस लौट गई। उस काल उस समय में पार्श्वापत्य गांगेय नामक अनगार थे। जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वे आए और श्रमण भगवान् महावीर के न अतिनिकट और न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-२ आकाश | Hindi | 781 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! आगासे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे आगासे पन्नत्ते, तं जहा–लोयागासे य, अलोयागासे य।
लोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? –एवं जहा बितियसए अत्थिउद्देसे तहेव इह वि भाणियव्वं, नवरं–अभिलावो जाव धम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते।
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव ओगाहित्ता णं चिट्ठति। एवं जाव पोग्गलत्थिकाए।
अहेलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवतियं ओगाढे?
गोयमा! सातिरेगं अद्धं ओगाढे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा बितियसए जाव–
ईसिपब्भारा णं भंते! पुढवी लोयागासस्स किं संखेज्जइभागं ओगाढा–पुच्छा।
गोयमा! नो संखेज्जइभागं ओगाढा, असंखेज्जइभागं Translated Sutra: भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का – लोकाकाश और अलोकाकाश। भगवन् ! क्या लोकाकाश जीवरूप है, अथवा जीवदेश – रूप है ? गौतम ! द्वीतिय शतक के अस्ति – उद्देशक अनुसार कहना चाहिए। विशेष में धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक यहाँ कहना चाहिए – भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-२ आकाश | Hindi | 782 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकायस्स णं भंते! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता?
गोयमा! अनेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा–धम्मे इ वा, धम्मत्थिकाये इ वा, पाणाइवाय-वेरमणे इ वा, मुसावायवेरमणे इ वा, एवं जाव परिग्गहवेरमणे इ वा, कोहविवेगे इ वा जाव मिच्छादंसण-सल्लविवेगे इ वा, रियासमिती इ वा, भासासमिती इ वा, एसणासमिती इ वा, आयाणभंडमत्तनिक्खेव समिती इ वा, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिती इ वा, मणगुत्ती इ वा, वइगुत्ती इ वा, कायगुत्ती इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा।
अधम्मत्थिकायस्स णं भंते! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता?
गोयमा! अनेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा–अधम्मे इ वा, Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक। यथा – धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात – विरमण, यावत् परिग्रहविरमण, अथवा क्रोध – विवेक, यावत् – मिथ्यादर्शन – शल्य – विवेक, अथवा ईर्यासमिति, यावत् उच्चार – प्रस्रवण – खेल – जल्ल – सिंघाण – परिष्ठापनिकासमिति, अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति; ये | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-३ प्राणवध | Hindi | 783 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादंसण-सल्लविवेगे, उप्पत्तिया वेणइया कम्मया पारिणामिया, ओग्गहे ईहा अवाए धारणा, उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे, नेरइयत्ते, असुरकुमारत्ते जाव वेमानियत्ते, नाणावरणिज्जे जाव अंत-राइए, कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी, चक्खुदंसणे अचक्खु-दंसणे ओहिदंसणे केवलदंसणे, आभिनिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा, ओरालियसरीरे वेउव्वियसरीरे आहारगसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे, मणजोगे वइजोगे कायजोगे, सागारोवओगे, अनागारोवओगे, Translated Sutra: भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, औत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम; नैरयिकत्व, असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-३ प्राणवध | Hindi | 784 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भं वक्कममाणे कतिवण्णं कतिगंधं कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमइ?
गोयमा! पंचवण्णं, दुगंधं, पंचरसं, अट्ठफासं परिणामं परिणमइ।
कम्मओ णं भंते! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ?
हंता गोयमा! कम्मओ णं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले परिणामों से युक्त होता है ? गौतम ! बारहवें शतक के पंचम उद्देशक के अनुसार यहाँ भी – कर्म से जगत है, कर्म के बिना जीव में विविध (रूप से जगत का) परिणाम नहीं होता, यहाँ तक। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-४ उपचय | Hindi | 785 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! इंदियोवचए पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे इंदियोवचए पन्नत्ते, तं जहा–सोइंदियोवचए, एवं बितिओ इंदियउद्देसओ निरवसेसो भाणियव्वो जहा पन्नवणाए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का कहा है ? गौतम ! पाँच प्रकार का है, श्रोत्रेन्द्रियोपचय इत्यादि सब वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के द्वीतिय इन्द्रियोद्देशक समान कहना चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-५ परमाणु | Hindi | 786 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! एगवण्णे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पन्नत्ते। जइ एगवण्णे? सिय कालए, सिय नीलए, सिय लोहियए, सिय हालिद्दए, सिय सुक्किलए। जइ एगगंधे? सिय सुब्भिगंधे, सिय दुब्भिगंधे। जइ एगरसे? सिय तित्ते, सिय कडुए, सिय कसाए, सिय अंबिले, सिय महुरे। जइ दुफासे? १. सिय सीए य निद्धे य, २. सिय सीए य लुक्खे य, ३. सिय उसिणे य निद्धे य, ४. सिय उसिणे य लुक्खे य।
दुप्पएसिए णं भंते! खंधे कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! सिय एगवण्णे, सिय दुवण्णे, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, सिय दुरसे, सिय दुफासे, सिय तिफासे, सिय चउफासे पन्नत्ते।
जइ एगवण्णे? Translated Sutra: भगवन् ! परमाणु – पुद्गल कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला कहा गया है ? गौतम ! (वह) एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श वाला कहा गया है। यदि एक वर्ण वाला हो तो कदाचित् काला, कदाचित् नीला, कदाचित् लाल, कदाचित् पीला और कदाचित् श्वेत होता है। यदि एक गन्ध वाला होता है तो कदाचित् सुरभिगन्ध और कदाचित् दुरभिगन्ध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-५ परमाणु | Hindi | 787 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बायरपरिणए णं भंते! अनंतपएसिए खंधे कतिवण्णे? एवं जहा अट्ठारसमसए जाव सिय अट्ठफासे पन्नत्ते। वण्ण-गंध-रसा जहा दसपएसियस्स।
जइ चउफासे? १. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे, २. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे, ३. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे, ४. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ५. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे, ६. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे, ७. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे, ८. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ९. सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे Translated Sutra: भगवन् ! बादर – परिणाम वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है ? गौतम ! अठारहवे शतक के छठे उद्देशक के समान ‘कदाचित् आठ स्पर्श वाला कहा गया है’, तक जानना। अनन्तप्रदेशी बादर परिणामी स्कन्ध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भंग, दशप्रदेशी स्कन्ध के समान कहने। यदि वह चार स्पर्श वाला होता है, तो कदाचित् सर्वकर्कश, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-५ परमाणु | Hindi | 788 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! परमाणू पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे परमाणू पन्नत्ते, तं० दव्वपरमाणू, खेत्तपरमाणू, कालपरमाणू, भावपरमाणू।
दव्वपरमाणू णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–अच्छेज्जे, अभेज्जे, अडज्झे, अगेज्झे।
खेत्तपरमाणू णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–अणद्धे, अमज्झे, अपदेसे, अविभाइमे।
कालपरमाणू णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे।
भावपरमाणू णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव Translated Sutra: भगवन् ! परमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा – द्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, काल – परमाणु और भावपरमाणु। भगवन् ! द्रव्यपरमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा – अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य। भगवन् ! क्षेत्रपरमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा – अनर्द्ध, अमध्य, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-६ अंतर | Hindi | 789 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! किं पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा? पुव्विं आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा?
गोयमा! पुव्विं वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा एवं जहा सत्तरसमसए छट्ठुद्देसे जाव से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–पुव्विं वा जाव उववज्जेज्जा, नवरं–तेहिं संपाउणणा, इमेहिं आहारो भण्णति, सेसं तं चेव।
पुढविक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए ईसाने कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए? एवं चेव। Translated Sutra: भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी और शर्कराप्रभापृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं; इत्यादि वर्णन सत्तरहवे शतक के छठे उद्देशक के अनुसार, विशेष यह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-६ अंतर | Hindi | 790 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आउक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववज्जित्तए? सेसं जहा पुढविक्काइयस्स जाव से तेणट्ठेणं। एवं पढम-दोच्चाणं अंतरा समोहए जाव ईसीपब्भाराए उववाएयव्वो। एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जाव ईसीपब्भाराए उववाएयव्वो आउक्का-इयत्ताए।
आउयाए णं भंते! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घनोदहिघनोदहिवलएसु आउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए? सेसं तं चेव। एवं एएहिं चेव अंतरा समोहओ जाव अहेसत्तमाए पुढवीए Translated Sutra: भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में अप्कायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? गौतम ! शेष समग्र पृथ्वीकायिक के समान। इसी प्रकार पहली और दूसरी पृथ्वी के बीच में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो सव्वसाहूणं। Translated Sutra: अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो। |