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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-८ मल्ली

Hindi 99 Gatha Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं । सुर-असुर देव-दानव-नरिंद-महियाण निक्खमणे ॥

Translated Sutra: वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात्‌ चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-८ मल्ली

Hindi 103 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं लोगंतियाणं देवाणं पत्तेयं-पत्तेयं आसणाइं चलंति तहेव जाव तं जीयमेयं लोगंतियाणं देवाणं अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करित्तए त्ति। तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमो त्ति कट्टु एवं संपेहेंति, संपेहेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाइं दंडं निसिरंति, एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणियाइं दसद्धवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिया करयल-परिग्गहियं

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुए – इत्यादि उसी प्रकार जानना दीक्षा लेने की ईच्छा करने वाले तीर्थंकरो को सम्बोधन करना हमारा आचार है; अतः हम जाएं और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें, ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया। उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्‌घात से विक्रिया की।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-८ मल्ली

Hindi 109 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाइं चलेंति, समोसढा धम्मं सुणेंति, सुणेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए वि निग्गच्छइ। तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेट्ठपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ सीयाओ दुरूढा समाणा सव्विड्ढीए जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति जाव पज्जुवासंति। तए णं मल्ली अरहा तीसे महइमहालियाए परिसाए, कुंभगस्स रन्नो, तेसिं च जियसत्तु-पामोक्खाणं छण्हं राईणं धम्मं परिकहेइ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।

Translated Sutra: उस काल और उस समय में सब देवों के आसन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ आए, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया। फिर जिस दिशा में प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गए। कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए नीकला। तत्पश्चात्‌ वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने – अपने ज्येष्ठ पुत्रों
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-११ दावद्रव

Hindi 142 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति? गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पन्नत्ता–किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठंति। जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत्‌ गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१३ मंडुक

Hindi 147 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं

Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत्‌ छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 177 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे भारहे वासे चंपा नामं नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। तत्थ णं चंपाए नयरीए कविले नामं वासुदेवे राया होत्था–महताहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं ए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे। कविले वासुदेवे धम्मं सुणेइ। तए णं से कविले वासुदेवे मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतिए धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसद्दं सुणेइ। तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–किमन्ने धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पन्ने, जस्स णं अयं संखसद्दे

Translated Sutra: उस काल उस समयमें, धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्रमें, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। उसमें कपिल वासुदेव राजा था। वह महान हिमवान पर्वत समान महान था। उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अरिहंत चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया। उसी समय
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 178 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं वीईवयमाणे-वीईवयमाणे गंगं उवागए उवागम्म ते पंच पंडवे एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवइं पासामि। तए णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए मग्गण-गवेसणं करेंति, करेत्ता एगट्ठियाए गंगं महानइं उत्तरंति, उत्तरित्ता अन्नमन्नं एवं वयंति–पहू णं देवानुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गंगं महानइं बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहू नो पहू उत्तरित्तए? त्ति कट्टु एगट्ठियं णूमेंति, णूमेत्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा

Translated Sutra: इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हुए गंगा नदी के पास आए। तब उन्होंने पाँच पाण्डवों से कहा – ‘देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ। जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ।’ तब वे पाँचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए। आकर एक नौका
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 182 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो अन्नया कयाइ पंडुमहुराओ नयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी जेणेव सुरट्ठाजनवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठाजनवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, भासइ पन्नवेइ परूवेइ–एवं खलु देवानुप्पिया! अरहा अरिट्ठनेमी सुरट्ठाजनवए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अनगारा बहुजनस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! अरहा

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से नीकले। नीकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे। सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहुत जन परस्पर इस प्रकार
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१९ पुंडरीक

Hindi 218 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं

Translated Sutra: पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात्‌ पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत्‌
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कन्ध २

वर्ग-१० ईशानेन्द्र अग्रमहिषी आठ

अध्ययन-१ थी ८

Hindi 240 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हंसि सीहासनंसि, सेसं जहा कालीए। एवं अट्ठ वि अज्झयणा काली-गमएणं नायव्वा, नवरं–पुव्वभवो वाणारसीए नयरीए दोजणीओ। रायगिहे नयरे दोजणीओ। सावत्थीए नयरीए दोजणीओ। कोसंबीए नयरीए दोजणीओ। रामे पिया धम्मा माया। सव्वाओ वि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ। पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए। ईसाणस्स अग्गमहिसीओ। ठिई नवपलिओवमाइं। महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति बुज्झिहिंति मुच्चिहिंति सव्वदुक्खाणं अंतं काहिंति। एवं खलु

Translated Sutra: प्रथम अध्ययन का उपोद्‌घात कहना चाहिए। जम्बू ! उस काल और उस समय में स्वामी राजगृह नगर में पधारे, यावत्‌ परिषद्‌ ने उपासना की। उस काल और उस समय कृष्णा देवी ईशान कल्प में कृष्णावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में, कृष्ण सिंहासन पर आसीन थी। शेष काली देवी के समान। आठों अध्ययन काली – अध्ययन सदृश हैं। विशेष यह कि पूर्वभव
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कन्ध २

वर्ग-१० ईशानेन्द्र अग्रमहिषी आठ

अध्ययन-१ थी ८

Hindi 241 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेण जाव सिद्धिगइ नामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं धम्मकहाणं अयमट्ठे पन्नत्ते।

Translated Sutra: हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ के संस्थापक, स्वयं बोध प्राप्त करने वाले, पुरुषोत्तम यावत्‌ सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ कहा है। धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कन्ध दस वर्गों में समाप्त।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका Hindi 98 View Detail
Mool Sutra: दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।।

Translated Sutra: सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) Hindi 221 View Detail
Mool Sutra: गुणपरिणामो सड्ढा, वच्छल्लं भत्तीपत्तलंभो य। संधाण तव पूया, अव्वोच्छित्ती समाधी य ।।

Translated Sutra: वैयावृत्त्य तप में अनेक सद्गुणों का वास है अथवा इसके अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है। यथा-गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, सद्पात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि गुणों का पुनः संधान, तप, पूजा, तीर्थ की अव्युच्छित्ति, समाधि आदि।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 256 View Detail
Mool Sutra: एया वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदुं, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।।

Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है।
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

5. नय-योजना-विधि Hindi 395 View Detail
Mool Sutra: तित्थयरवयणसंगह, विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सिं ।।

Translated Sutra: तीर्थंकरों के वचन प्रायः दो प्रकार के होते हैं-सामान्यांश प्रतिपादक और विशेषांश प्रतिपादक। इसलिए उनके ग्राहक नय भी दो प्रकार के हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सर्व नय इन दोनों के ही भेद-प्रभेद हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 408 View Detail
Mool Sutra: जंबूद्दीवे भरहेरावएसु वासेसु, एगसमए एगजुगे दो। अरहंतवंसा उप्पज्जिंसु वा, उप्पज्जिंति वा उप्पज्जिस्संति वा ।।

Translated Sutra: इस जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत इन दो वर्षों या क्षेत्रों में एक साथ अर्हंत या तीर्थंकर वंशों की उत्पत्ति अतीत में हुई है, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में भी इसी प्रकार होती रहेगी। (वर्तमान युग के तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम हैं, अरिष्टनेमि २२ वें, पार्श्वनाथ २३ वें और भगवान् महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वें
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 409 View Detail
Mool Sutra: तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्त्तते, तीर्थंकरः एवम् ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थवर्त्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 410 View Detail
Mool Sutra: अभविंसु पुरा वि भिक्खवो, आएसा वि भवंति सव्वया। एयाइँ गुणाइँ आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ।।

Translated Sutra: हे मुनियो! भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं और भविष्यत् में होंग, वे सभी व्रती, संयमी तथा महापुरुष होते हैं। इनका उपदेश नया नहीं होता, बल्कि काश्यप अर्थात् ऋषभदेव के धर्म का ही अनुसरण करने वाला होता है। (तीर्थंकर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं होते, बल्कि पूर्ववर्त्ती धर्म के अनुवर्तक होते हैं।)
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 411 View Detail
Mool Sutra: सव्वण्हुमुहविणिग्गय, पुव्वावरदोसरहिदपरिसुद्धं। अक्खयमणाहिणिहणं, सुदणाणपमाणं णिद्दिट्ठं ।।

Translated Sutra: (यही कारण है कि) सर्वज्ञ भगवान् तीर्थङ्कर के मुख से निकला हुआ, पूर्वापर विरोध-रहित तथा विशुद्ध यह द्वादशांग श्रुत अर्थात् जैनागम अक्षय तथा अनादि-निधन कहा गया है।
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 412 View Detail
Mool Sutra: एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं? धम्मे दुविहे मेहावि, कहं विप्पच्चओ न ते?

Translated Sutra: (भगवान् महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन्! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 413 View Detail
Mool Sutra: पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ ।।

Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 415 View Detail
Mool Sutra: बावीसं तित्थयरा, सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवट्ठावणियं पुण, भयवं उसहो महावीरो ।।

Translated Sutra: दिगम्बर आम्नाय के अनुसार मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है। परन्तु प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर ऋषभ व महावीर ने छेदोपस्थापना संयम पर जोर दिया है।
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18. आम्नाय अधिकार

3. दिगम्बर-सूत्र Hindi 416 View Detail
Mool Sutra: ण वि सिज्झइ वत्थधरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मगया सव्वे ।।

Translated Sutra: भले ही तीर्थंकर क्यों न हो, वस्त्रधारी मुक्त नहीं हो सकता। एकमात्र नग्न या अचेल लिंग ही मोक्षमार्ग है, अन्य सर्व लिंग उन्मार्ग हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 420 View Detail
Mool Sutra: एवमेव महापउम्मो वि, अरहा समणाणं निग्गंथाणं। पंचमहव्वयाइं जाव, अचेलगं धम्मं पण्णविहिउ ।।

Translated Sutra: इसी प्रकार आगामी तीर्थंकर भगवान् महापद्म भी पंच महाव्रतों से युक्त अचेलक धर्म का ही प्ररूपण करेंगे।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका Hindi 98 View Detail
Mool Sutra: दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।।

Translated Sutra: सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) Hindi 221 View Detail
Mool Sutra: गुणपरिणामः श्रद्धा, वात्सल्यं भक्तिः पात्रलम्भश्च। सन्धानं तपः पूजा, अव्युच्छित्तिः समाधिश्च ।।

Translated Sutra: वैयावृत्त्य तप में अनेक सद्गुणों का वास है अथवा इसके अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है। यथा-गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, सद्पात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि गुणों का पुनः संधान, तप, पूजा, तीर्थ की अव्युच्छित्ति, समाधि आदि।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 256 View Detail
Mool Sutra: एकापि सा समर्था, जिनभक्तिः दुर्गतिं निवारयितुम्। पुण्यान्यपि पूरयितुं, आसिद्धिः परम्परासुखानाम् ।।

Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है।
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

5. नय-योजना-विधि Hindi 395 View Detail
Mool Sutra: तीर्थंकरवचनसंग्रह विशेषप्रस्तारमूलव्याकरणी। द्रव्यार्थिकश्च पर्ययनयश्च, शेषाः विकल्पाः एतेषाम् ।।

Translated Sutra: तीर्थंकरों के वचन प्रायः दो प्रकार के होते हैं-सामान्यांश प्रतिपादक और विशेषांश प्रतिपादक। इसलिए उनके ग्राहक नय भी दो प्रकार के हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सर्व नय इन दोनों के ही भेद-प्रभेद हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 408 View Detail
Mool Sutra: जम्बूद्वीपे भरतैरावतेषु वर्षेषु, एकसमये एकयुगे द्वौ। अर्हंद्वंशौ उत्पन्नौ वा, उत्पद्येते वा उत्पत्स्यतः वा ।।

Translated Sutra: इस जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत इन दो वर्षों या क्षेत्रों में एक साथ अर्हंत या तीर्थंकर वंशों की उत्पत्ति अतीत में हुई है, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में भी इसी प्रकार होती रहेगी। (वर्तमान युग के तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम हैं, अरिष्टनेमि २२ वें, पार्श्वनाथ २३ वें और भगवान् महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वें
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 409 View Detail
Mool Sutra: तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्त्तते, तीर्थंकरः एवम् ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थवर्त्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 410 View Detail
Mool Sutra: अभवन् पुरापि भिक्षवः, आगामिनश्च भविष्यन्ति सुव्रताः। एतान् गुणानाहुस्ते, काश्यपस्य धर्मानुचारिणः ।।

Translated Sutra: हे मुनियो! भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं और भविष्यत् में होंग, वे सभी व्रती, संयमी तथा महापुरुष होते हैं। इनका उपदेश नया नहीं होता, बल्कि काश्यप अर्थात् ऋषभदेव के धर्म का ही अनुसरण करने वाला होता है। (तीर्थंकर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं होते, बल्कि पूर्ववर्त्ती धर्म के अनुवर्तक होते हैं।)
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18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 411 View Detail
Mool Sutra: सर्वज्ञमुखविनिर्गतः, पूर्वापरदोषरहितपरिशुद्धम्। अक्षयमनादिनिधनं, श्रुतज्ञानप्रमाणं निर्दिष्टम् ।।

Translated Sutra: (यही कारण है कि) सर्वज्ञ भगवान् तीर्थङ्कर के मुख से निकला हुआ, पूर्वापर विरोध-रहित तथा विशुद्ध यह द्वादशांग श्रुत अर्थात् जैनागम अक्षय तथा अनादि-निधन कहा गया है।
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 412 View Detail
Mool Sutra: एककार्यप्रपन्नयोः, विशेषे किन्नु कारणम्। धर्मे द्विविधे मेधाविन्! कथं विप्रत्ययो न ते ।।

Translated Sutra: (भगवान् महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन्! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 413 View Detail
Mool Sutra: पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः। कल्प्यो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालकः ।।

Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 415 View Detail
Mool Sutra: द्वाविंशतितीर्थकराः, सामायिकसंयमं उपदिशंति। छेदोपस्थापनं पुनः, भगवान् ऋषभश्च वीरश्च ।।

Translated Sutra: दिगम्बर आम्नाय के अनुसार मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है। परन्तु प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर ऋषभ व महावीर ने छेदोपस्थापना संयम पर जोर दिया है।
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18. आम्नाय अधिकार

3. दिगम्बर-सूत्र Hindi 416 View Detail
Mool Sutra: नापि सिध्यति वस्त्रधरो, जिनशासने यद्यपि भवति तीर्थंकरः। नग्नो विमोक्षमार्गः, शेषा उन्मार्गकाः सर्वे ।।

Translated Sutra: भले ही तीर्थंकर क्यों न हो, वस्त्रधारी मुक्त नहीं हो सकता। एकमात्र नग्न या अचेल लिंग ही मोक्षमार्ग है, अन्य सर्व लिंग उन्मार्ग हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 420 View Detail
Mool Sutra: एवमेव महापद्मोऽपि, अर्हन् श्रमणाणां निर्ग्रन्थानाम्। पंचमहाव्रतानि यावदचेलकं धर्मं प्रज्ञापयिष्यति ।।

Translated Sutra: इसी प्रकार आगामी तीर्थंकर भगवान् महापद्म भी पंच महाव्रतों से युक्त अचेलक धर्म का ही प्ररूपण करेंगे।
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 53 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! बहुसम-रमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव नानाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहि य उवसोभिए, तं जहा–कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। तीसे णं भंते! समाए मनुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! तेसिं णं मनुयाणं छव्विहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, बहूईओ रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउयं पालेहिंति, पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी, अप्पेगइया तिरिय-गामी, अप्पेगइया मनुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, न सिज्झंति। तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं

Translated Sutra: उत्सर्पिणी काल के दुःषमा नामक द्वितीय आरक में भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम ! उनका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा। उस समय मनुष्यों का आकार – प्रकार कैसा होगा ? गौतम ! उस मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होंगे। उनकी ऊंचाई सात हाथ की होगी। उनका जघन्य अन्त – मुहूर्त्त का तथा उत्कृष्ट कुछ
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक

Hindi 229 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए दिव्वं जिणिंदाभिगमनजोग्गं सव्वालंकारविभूसियं उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता अट्ठहिं अग्ग-महिसीहिं सपरिवाराहिं नट्टाणीएणं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमानं अनुप्पयाहिणीकरेमाणे-अनुप्पयाहिणीकरेमाणे पुव्विल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव सीहासने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने। एवं चेव सामानियावि उत्तरेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहित्ता पत्तेयं-पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति। अवसेसा देवा य देवीओ

Translated Sutra: पालक देव द्वारा दिव्य यान की रचना को सुनकर शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान्‌ के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्यानीक, गन्धर्वानीक के साथ उस यान – विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से –
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक

Hindi 230 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिंदे उत्तरड्ढलोगाहिवई अट्ठावीसविमनावाससयसहस्साहिवई अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सक्के, इमं नाणत्तं–महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमानकारी, दक्खिणा निज्जाणभूमी, उत्तरपुरत्थिमिल्लो रइकरगपव्वओ, मंदरे समोसरिओ जाव पज्जुवासइ। एवं अवसिट्ठावि इंदा भाणियव्वा जाव अच्चुओ, इमं नाणत्तं–

Translated Sutra: उस काल, उस समय हाथ में त्रिशूल लिये, वृषभ पर सवार, सुरेन्द्र, उत्तरार्धलोकाधिपति, अठ्ठाईस लाख विमानों का स्वामी, निर्मल वस्त्र धारण किये देवेन्द्र, देवराज ईशान मन्दर पर्वत पर आता है। शेष वर्णन सौधर्मेन्द्र शक्र के सदृश है। अन्तर इतना है – घण्टा का नाम महाघोषा है। पदातिसेनाधिपति का नाम लघुपराक्रम है, विमानकारी
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 43 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुच्छिंसि, एत्थ णं उसहे नामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था। तए णं उसभे अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारावासमज्झावसइ, अज्झावसित्ता तेवट्ठिं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झावसइ, तेवट्ठिं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झा-वसमाणे लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ, चोसट्ठिं महिला गुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिन्नि वि पयाहियाए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झावस, अज्झावसत्ता... ...जेसे

Translated Sutra: नाभि कुलकर के, उन की भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्‌, कौशलिक, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुर्दिग्व्याप्त अथवा चार गतियों का अन्त करने में सक्षम धर्म – साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए। कौशलिक अर्हत्‌ ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार – अवस्था में व्यतीत किए। तिरेसठ
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 46 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उसभे णं अरहा कोसलिए वज्जरिसहनारायसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिए पंच धनुसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। उसभे णं अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झावसित्ता, तेवट्ठिं पुव्वसय-सहस्साइं रज्जवासमज्झा वसित्ता, तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए। उसभे णं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरियायं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरियायं पाउणित्ता, चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जेसे हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे

Translated Sutra: कौशलिक भगवान्‌ ऋषभ वज्रऋषभनाराचसंहनन युक्त, समचौरससंस्थानसंस्थित तथा ५०० धनुष दैहिक ऊंचाई युक्त थे। वे २० लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा ६३ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे। यों ८३ लाख पूर्व गृहवास में रहे। तत्पश्चात्‌ मुंडित होकर अगारवास से अनगार – धर्म में प्रव्रजित हुए। १००० वर्ष छद्मस्थ – पर्याय
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 47 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमप-ज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए० परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमसुसमाणामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! । तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे

Translated Sutra: गौतम ! तीसरे आरक का दो सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – सुषमा नामक चौथा आरक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। भगवन्‌ ! उस समय भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है यावत्‌
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 61 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडियसद्द-सन्नि-नाएणं आपूरेंते चेव अंबरतलं विनीयाए रायहानीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता गंगाए महानईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं मागहतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं गंगाए महानईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं मागहतित्थाभिमुहं पयातं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमनस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ,

Translated Sutra: अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधगृहशाला – से निकला। निकलकर आकाश में प्रतिपन्न हुआ। वह एक सहस्र यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था। वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के बीच से निकला। निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 62 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं अस्सरहं दुरुढे समाणे हय गय रह पवरजोहकलियाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभडचडगर पहगरवंदपरिक्खित्ते चक्करयणदेसियमग्गे अनेगरायवरसहस्साणुजायमग्गे महया उक्किट्ठि सीहनाय बोल कलकलरवेणं पक्खु भियमहासमुद्दरवभूयं पिव करेमाणे-करेमाणे पुरत्थिम-दिसाभिमुहे मागहतित्थेणं लवणसमुद्दं ओगाहइ जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला। तए णं से भरहे राया तुरगे निगिण्हई, निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता धनुं परामुसइ। तए णं तं अइरुग्गयबालचंद इंदधनु सन्निकासं वरमहिस दरिय दप्पिय दढघणसिंगग्गरइयसारं उरगवर पवरगवल पवरपरहुय भमरकुल णीलि णिद्ध धंत धोयपट्टं निउणोविय

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ राज भरत चातुर्घंट – अश्वरथ पर सवार हुआ। वह घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था। बड़े – बड़े योद्धाओं का समूह साथ चल रहा था। हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा पीछे – पीछे चल रहे थे। चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा था। उस के द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 67 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सरे भरहेणं रन्ना निसट्ठे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोयणाइं गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवनंसि निवइए। तए णं से मागहतित्थाहिवई देवे भवनंसि सरं निवइयं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते रुट्ठे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहरइ, साहरित्ता एवं वयासी–केस णं भो! एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीनपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए, जे णं मम इमाए एयारूवाए दिव्वाए देवड्ढीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं दिवानुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमन्नागयाए उप्पिं अप्पुस्सुए भवनंसि सरं निसिरइ त्तिकट्टु सीहासनाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठेत्ता जेणेव से नामाहयके

Translated Sutra: राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण तुरन्त बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिपति – के भवन में गिरा। मागध तीर्थाधिपति देव तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, रोषयुक्त, कोपाविष्ट, प्रचण्ड और क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया। कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएं उभर आई। उसकी भृकुटि तन गई। वह बोला – ‘अप्रार्थित – मृत्यु
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 68 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्थाभिमुहं पयातं चावि पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी– खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! हय गय रह पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेन्नं सन्नाहेह, आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह त्तिकट्टु मज्जनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता तेणेव कमेणं जाव धवलमहामेहनिग्गए जाव सेयवरचामराहिं उद्धुव्वमाणीहिं-उद्धुव्वमाणीहिं, मगइयवरफलग पवरपरिगरखेडय वरवम्म कवय माढी सहस्स-कलिए उक्कडवरमउड तिरीड पडाग झय वेजयंति चामरचलंत

Translated Sutra: राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण – पश्चिम दिशा में वरदामतीर्थ की ओर जाते हुए देखा। वह बहुत हर्षित तथा परितुष्ट हुआ। उस के कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा – घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं – से परिगठित चातुरंगिणी सेना को तैयार करो, आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो। यों कहकर राजा स्नानघर में
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 73 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तते णं तं धरणितलगमनलहु ततोव्विद्ध लक्खणपसत्थं हिमवंत कंदरंतरणिवाय संवद्धिय चित्त तिनिसदलियं जंबूणयसुकयकुव्वरं कनयदंडियारं पुलय वइर इंदणील सासग पवाल फलिहवर रयण लेट्ठु मणि विद्दुमविभूसियं अडयालीसारर-इयतवणिज्जपट्टसंगहिय जुत्ततुंबं पघसियपसिय-निम्मियनवपट्ट पुट्ठ परिनिट्ठियं विसिट्ठलट्ठणवलोहवद्धकम्मं हरिपहरणरयणसरिसचक्कं कक्केयण-इंदणी सासगसुसमाहिय बद्धजालकंकडं पसत्थविच्छिण्णसमधुरं पुरवरं व गुत्तं सुकरणतवणिज्ज-जुत्तकलियं कंकडगणिजुत्तकप्पणं पहरणानुजायं खेडग कनग धनु मंडलग्ग वरसत्ति कोंत तोमर सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियं कनगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुह

Translated Sutra: वह रथ पृथ्वी पर शीघ्र गति से चलनेवाला था। अनेक उत्तम लक्षण युक्त था। हिमालय पर्वत की वायु – रहित कन्दराओं में संवर्धित तिनिश नामक रथनिर्माणोपयोगी वृक्षों के काठ से बना था। उसका जुआ जम्बूनद स्वर्ण से निर्मित था। आरे स्वर्णमयी ताड़ियों के थे। पुलक, वरेन्द्र, नील सासक, प्रवाल, स्फटिक, लेष्टु, चन्द्रकांत, विद्रुम
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 74 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्स-संपरिवुडे दिव्वतुडियसद्दसन्निनादेणं पूरेंते चेव अंबरतलं सिंधूए महानईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं सिंधुदेवीभवनाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधूए महानईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं सिंधुदेवीभवनाभिमुहं पयातं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिए तहेव जाव जेणेव सिंधूए देवीए भवनं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिंधूए देवीए भवनस्स अदूरसामंते

Translated Sutra: प्रभास तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। यावत्‌ उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर प्रयाण किया। राजा भरत बहुत हर्षित हुआ, परितुष्ट हुआ। जहाँ सिन्धु
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 93 Gatha Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] पढमनरीसर! ईसर! हियईसर! महिलियासहस्साणं । देवसयसहस्सीसर! चोद्दसरयणीसर! जसंसी! ॥

Translated Sutra: प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालीन्‌ ! ६४००० नारियों के हृदयेश्वर – मागध तीर्थाधिपति आदि लाखों देव के स्वामिन्‌ ! चतुर्दश रत्नों के धारक ! यशस्विन्‌ !
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