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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-५ पक्षी | Hindi | 353 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविहे जोणीसंगहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे जोणीसंगहे पन्नत्ते, तं जहा–अंडया, पोयया, संमुच्छिमा। एवं जहा जीवाभिगमे जाव नो चेव णं ते विमाने वीतीवएज्जा, एमहालया णं गोयमा! ते विमाना पन्नत्ता।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् भगवान महावीर स्वामी से पूछा – हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का। अण्डज, पोतज और सम्मूर्च्छिम। इस प्रकार जीवा – जीवाभिगमसूत्र में कहे अनुसार यावत् ‘उन विमानों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, हे गौतम ! वे विमान इतने महान् कहे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 355 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किं इहगए नेरइयाउयं पकरेइ? उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ? उववन्ने नेरइयाउयं पकरेइ?
गोयमा! इहगए नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने नेरइयाउयं पकरेइ। एवं असुरकुमारेसु वि, एवं जाव वेमाणिएसु।
जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किं इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ? उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ? उववन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ?
गोयमा! नो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने वि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ। एवं जाव वेमाणिएसु।
जीवे Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! जो जीव नारकों में उत्पन्न होने योग्य हैं, क्या वह इस भव में रहता हुआ नारकायुष्य बाँधता है, वहाँ उत्पन्न होता हुआ नारकायुष्य बाँधता है या फिर (नरक में) उत्पन्न होने पर नारका – युष्य बाँधता है ? गौतम ! वह इस भव में रहता हुआ ही नारकायुष्य बाँधता लेता है, परन्तु नरक में उत्पन्न हुआ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 356 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! किं आभोगनिव्वत्तियाउया? अनाभोगनिव्वत्तियाउया?
गोयमा! नो आभोगनिव्वत्तियाउया, अनाभोगनिव्वत्तियाउया। एवं नेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया। Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव आभोगनिर्वर्तित आयुष्य वाले हैं या अनाभोगनिर्वर्तित आयुष्य वाले हैं ? गौतम ! जीव आभोगनिर्वर्तित आयुष्य वाले नहीं हैं, किन्तु अनाभोगनिर्वर्तित आयुष्य वाले हैं। इसी प्रकार नैरयिकों के (आयुष्य के) विषय में भी कहना चाहिए। वैमानिकों पर्यन्त इसी तरह कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 357 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
गोयमा! पाणाइवाएण जाव मिच्छादंसणसल्लेणं–एवं खलु गोयमा! जीवाणं कक्कस-वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति।
अत्थि णं भंते! नेरइया णं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
एवं चेव। एवं जाव वेमाणियाणं।
अत्थि णं भंते! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
गोयमा! पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं, कोहविवेगेणं जाव मिच्छादंसण-सल्लविवेगेणं–एवं खलु गोयमा! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति।
अत्थि णं Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीवों के कर्कश वेदनीय कर्म करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं। भगवन् ! जीव कर्कश – वेदनीय कर्म कैसे बाँधते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से बाँधते हैं। क्या नैरयिक जीव कर्कशवेदनीय कर्म बाँधते हैं ? हाँ, गौतम ! पहले कहे अनुसार बाँधते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना। भगवन् ! क्या | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 358 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
गोयमा! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए, बहूणं पाणाणं भूयानं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरिया-वणयाए–एवं खलु गोयमा! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति। एवं नेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं।
अत्थि णं भंते! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति?
गोयमा! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरिया-वणयाए, Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव सातावेदनीय कर्म बाँधते हैं ? हाँ, गौतम ! बाँधते हैं। भगवन् ! जीव सातावेदनीय कर्म कैसे बाँधते हैं ? गौतम ! प्राणों पर अनुकम्पा करने से, भूतों पर अनुकम्पा करने से, जीवों के प्रति अनुकम्पा करने से और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से; तथा बहुत – से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 359 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्सम-दुस्समाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ?
गोयमा! कालो भविस्सइ हाहाभूए, भंभब्भूए कोलाहलभूए। समानुभावेण य णं खर-फरुस-धूलिमइला दुव्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाहिंति। इह अभिक्खं धूमाहिंति य दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुस-तमपडल-निरालोगा। समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति। अहियं सूरिया तवइस्संति।
अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा विरसमेहा खार-मेहा खत्तमेहा अग्गिमेहा विज्जुमेहा विसमेहा असणिमेहा–अपिवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणोदीरणा-परिणामसलिला, अमणुन्नपा-णियगा Translated Sutra: भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल का दुःषमदुःषम नामक छठा आरा जब अत्यन्त उत्कट अवस्था को प्राप्त होगा, तब भारतवर्ष का आकारभाव – प्रत्यवतार कैसा होगा ? गौतम ! वह काल हाहाभूत, भंभाभूत (दुःखार्त्त) तथा कोलाहलभूत होगा। काल के प्रभाव से अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, असह्य, व्याकुल, भयंकर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 360 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मनुयाणं केरिसए आगारभाव-पडोयारे भविस्सइ?
गोयमा! मनुया भविस्संति दुरूवा दुवण्णा दुग्गंधा दुरसा दुफासा अनिट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणुन्ना अमणामा हीनस्सरा दीनस्सरा अणिट्ठस्सरा अकंतस्सरा अप्पियस्सरा असुभस्सरा अमणुन्नस्सरा अमणामस्सरा अनादेज्जवयणपच्चायाया, निल्लज्जा, कूड-कवड-कलह-वह-बंध-वेरनिरया, मज्जायातिक्कमप्पहाणा, अकज्जनिच्चुज्जता, गुरुनियोग-विनयरहिया य, विकल-रूवा, परूढनह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस-ज्झामवण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलियकेसा, बहुण्हारु- संपिणद्ध-दुद्दंसणिज्जरूवा, संकुडितवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणतव्व थेरगनरा, Translated Sutra: भगवन् ! उस समय भारतवर्ष की भूमि का आकार और भावों का आविर्भाव किस प्रकार का होगा ? गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र की भूमि अंगारभूत, मुर्मूरभूत, भस्मीभूत, तपे हुए लोहे के कड़ाह के समान, तप्तप्राय अग्नि के समान, बहुत धूल वाली, बहुत रज वाली, बहुत कीचड़ वाली, बहुत शैवाल वाली, चलने जितने बहुत कीचड़ वाली होगी, जिस पर पृथ्वीस्थित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-७ अणगार | Hindi | 361 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संवुडस्स णं भंते! अनगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, आउत्तं चिट्ठमाणस्स, आउत्तं निसीयमाणस्स, आउत्तं तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थं पडिग्गह कंबलं पादपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा, तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ? संपराइया किरिया कज्जइ?
गोयमा! संवुडस्स णं अनगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–संवुडस्स णं अनगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव नो संपराइया, किरिया कज्जइ?
गोयमा! जस्स णं कोह-मान-माया-लोभा वोच्छिन्ना भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-मान-माया-लोभा Translated Sutra: भगवन् ! उपयोगपूर्वक चलते – बैठते यावत् उपयोगपूर्वक करवट बदलते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन आदि ग्रहण करते और रखते हुए उस संवृत्त अनगार को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! उस संवृत्त अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी नहीं। भगवन् ! ऐसा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-७ अणगार | Hindi | 362 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रूवी भंते! कामा? अरूवी कामा?
गोयमा! रूवी कामा, नो अरूवी कामा।
सचित्ता भंते! कामा? अचित्ता कामा?
गोयमा! सचित्ता वि कामा, अचित्ता वि कामा।
जीवा भंते! कामा? अजीवा कामा?
गोयमा! जीवा वि कामा, अजीवा वि कामा।
जीवाणं भंते! कामा? अजीवाणं कामा?
गोयमा! जीवाणं कामा, नो अजीवाणं कामा।
कतिविहा णं भंते! कामा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा कामा पन्नत्ता, तं जहा–सद्दा य, रूवा य।
रूवी भंते! भोगा? अरूवी भोगा?
गोयमा! रूवी भोगा, नो अरूवी भोगा।
सचित्ता भंते! भोगा? अचित्ता भोगा?
गोयमा! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा।
जीवा भंते! भोगा? अजीवा भोगा?
गोयमा! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा।
जीवाणं भंते! भोगा? अजीवाणं भोगा?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! काम रूपी है या अरूपी है ? आयुष्मन् श्रमण ! काम रूपी है, अरूपी नहीं है। भगवन् ! काम सचित्त है अथवा अचित्त है ? गौतम ! काम सचित्त भी हैं और काम अचित्त भी हैं। भगवन् ! काम जीव हैं अथवा अजीव हैं ? गौतम ! काम जीव भी हैं और काम अजीव भी हैं। भगवन् ! काम जीवों के होते हैं या अजीवों के होते हैं ? गौतम ! काम जीवों के होते | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-७ अणगार | Hindi | 363 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] छउमत्थे णं भंते! मनूसे जे भविए अन्नयरेसु सु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से नूनं भंते! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसकार-परक्कमेणं विउलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए? से नूनं भंते! एयमट्ठं एवं वयह?
गोयमा! नो तिणट्ठे समट्ठे। पभू णं से उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसक्कार-परक्कमेण वि अन्नयराइं विपुलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ।
आहोहिए णं भंते! मनूसे जे भविए अन्नयरेसु सु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से नूनं भंते! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं, कम्मेणं, Translated Sutra: भगवन् ! ऐसा छद्मस्थ मनुष्य, जो किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होने वाला है, भगवन् ! वास्तव में वह क्षीणभोगी उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम के द्वारा विपुल और भोगने योग्य भोगों को भोगता हुआ विहरण करने में समर्थ नहीं है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-७ अणगार | Hindi | 364 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे इमे भंते! असण्णिणो पाणा, तं जहा–पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, छट्ठा य एगतिया तसा–एए णं अंधा, मूढा, तमपविट्ठा, तमपडल-मोहजाल-पडिच्छन्ना अकामनिकरणं वेदनं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! जे इमे असण्णिणो पाणा जाव वेदनं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया।
अत्थि णं भंते! पभू वि अकामनिकरणं वेदनं वेदेंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! पभू वि अकामनिकरणं वेदनं वेदेंति?
गोयमा! जे णं नो पभू विणा पदीवेणं अंधकारंसि रूवाइं पासित्तए, जे णं नो पभू पुरओ रूवाइं अनिज्झाइत्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू मग्गओ रूवाइं अनवयक्खित्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू पासओ रूवाइं अनवलोएत्ता णं पासित्तए, जे णं Translated Sutra: भगवन् ! ये जो असंज्ञी प्राणी हैं, यथा – पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक ये पाँच तथा छठे कईं त्रस – कायिक जीव हैं, जो अन्ध हैं, मूढ़ हैं, तामस में प्रविष्ट की तरह हैं, (ज्ञानावरणरूप) तमःपटल और (मोहनीयरूप) मोहजाल से आच्छादित हैं, वे अकामनिकरण (अज्ञान रूप में) वेदना वेदते हैं, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हाँ, गौतम ! जो ये | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 365 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] छउमत्थे णं भंते! मनूसे तीयमनंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेनं, केवलाहिं पवयणमायाहिं सिज्झिंसु? बुज्झिंसु? मुच्चिंसु? परिनिव्वाइंसु? सव्व-दुक्खाणं अंतं करिंसु?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे जाव–
से नूनं भंते! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया। Translated Sutra: भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, अनन्त और शाश्वत अतीतकाल में केवल संयम द्वारा, केवल संवर द्वारा, केवल ब्रह्मचर्य से तथा केवल अष्टप्रवचनमाताओं के पालन से सिद्ध हुआ है, यावत् उसने सर्व दुःखों का अन्त किया है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस विषय में प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वह, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 366 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे?
हंता गोयमा! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे।
से नूनं भंते! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव एवं अप्पाहारतराए चेव अप्पनीहा-रतराए चेव अप्पुस्सासतराए चेव अप्पनीसासतराए चेव अप्पिड्ढितराए चेव अप्पमहतराए चेव अप्पज्जुइतराए चेव?
कुंथूओ हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महाहारतराए चेव महानीहारतराए चेव महाउस्सासतराए चेव महानीसासतराए चेव महिड्ढितराए चेव महामहतराए चेव महज्जुइतराए चेव?
हंता गोयमा! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव कुंथूओ वा हत्थी महाकम्मतराए चेव, Translated Sutra: भगवन् ! क्या वास्तव में हाथी और कुन्थुए का जीव समान है ? हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए का जीव समान है। इस विषय में राजप्रश्नीयसूत्र में कहे अनुसार ‘खुड्डियं वा महालियं वा’ इस पाठ तक कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 367 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे?
हंता गोयमा! नेरइयाणं पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे। एवं जाव वेमाणियाणं। Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, किया जाता है और किया जाएगा, क्या वह सब दुःख रूप हैं और (उनके द्वारा) जिसकी निर्जरा की गई है, क्या वह सुखरूप है ? हाँ, गौतम ! नैरयिक द्वारा जो पापकर्म किया गया है, यावत् वह सब दुःखरूप है और (उनके द्वारा) जिन (पापकर्मों) की निर्जरा की गई है, वह सब सुखरूप है। इस प्रकार वैमानिकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 368 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! सण्णाओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! दस सण्णाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गह-सण्णा, कोहसण्णा, मानसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा। एवं जाव वेमाणियाणं।
नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा–सीयं, उसिणं, खुहं, पिवासं, कंडुं, परज्झं, जरं, दाहं, भयं, सोगं। Translated Sutra: भगवन् ! संज्ञाएं कितने प्रकार की कही गई हैं ? गौतम ! दस प्रकार की हैं। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा। वैमानिकों पर्यन्त चौबीस दण्डकों में ये दस संज्ञाएं पाई है। नैरयिक जीव दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 369 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ?
हंता गोयमा! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–हत्थिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ?
गोयमा! अविरतिं पडुच्च। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–हत्थिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ। Translated Sutra: भगवन् ! क्या वास्तव में हाथी और कुन्थुए के जीव को समान रूप में अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि हाथी और कुन्थुए के यावत् क्रिया समान लगती है ? गौतम ! अविरति की अपेक्षा समान लगती है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 370 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहाकम्मं णं भंते! भुंजमाणे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
गोयमा! अहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनिय-बंधनबद्धाओ पकरेइ जाव सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! आधाकर्म का उपयोग करने वाला साधु क्या बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? गौतम ! इस विषय का सारा वर्णन प्रथम शतक के नौंवे उद्देशक में कहे अनुसार – ‘पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है’ यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 371 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे।
असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
हंता पभू।
से णं भंते! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ?
गोयमा! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ।
एवं २ एगवण्णं अनेगरूवं ३. अनेगवण्णं एगरूवं ४. अनेगवण्णं अनेगरूवं–चउभंगो।
असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता Translated Sutra: भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले, एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ हैं। भगवन् ! वह असंवृत अनगार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 372 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विन्नाणमेयं अरहया–महासिलाकंटए संगामे। महासिलाकंटए णं भंते! संगामे वट्टमाणे के जइत्था? के पराजइत्था?
गोयमा! वज्जी, विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई, नव लेच्छई–कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो पराजइत्था।
तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटगं संगामं उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिमे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी –खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! उदाइं हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेनं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया Translated Sutra: अर्हन्त भगवान ने यह जाना है, अर्हन्त भगवान ने यह सूना है – तथा अर्हन्त भगवान को यह विशेष रूप से ज्ञात है कि महाशिलाकण्टक संग्राम महाशिलाकण्टक संग्राम ही है। (अतः) भगवन् ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम चल रहा था, तब उसमें कौन जीता और कौन हारा ? गौतम ! वज्जी विदेहपुत्र कूणिक राजा जीते, नौ मल्लकी और नौ लेच्छकी, जो कि काश | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 373 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नायमेयं अरहया, सुवमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया–रहमुसले संगामे। रहमुसले णं भंते! संगामे वट्टमाणे के जइत्था? के पराजइत्था?
गोयमा! वज्जी, विदेहपुत्ते, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था; नव मल्लई, नव लेच्छई पराजइत्था।
तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी– खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! भूयानंदं हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-पवरजोह-कलियं चाउरंगिणिं सेनं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया जाव Translated Sutra: भगवन् ! अर्हन्त भगवान ने जाना है, इसे प्रत्यक्ष किया है और विशेषरूप से जाना है कि यह रथमूसल – संग्राम है। भगवन् ! यह रथमूसलसंग्राम जब हो रहा था तब कौन जीता, कौन हारा ? हे गौतम ! वज्री – इन्द्र और विदेहपुत्र (कूणिक) एवं असुरेन्द्र असुरराज चमर जीते और नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी राजा हार गए। तदनन्तर रथमूसल – संग्राम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 374 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कम्हा णं भंते! सक्के देविंदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रन्नो साहेज्जं दलइत्था?
गोयमा! सक्के देविंदे देवराया पुव्वसंगतिए, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए। एवं खलु गोयमा! सक्के देविंदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रन्नो साहेज्जं दलइत्था। Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र और असुरेन्द्र असुरराज चमर, इन दोनों ने कूणिक राजा को किस कारण से सहायता दी ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र तो कूणिक राजा का पूर्वसंगतिक था और असुरेन्द्र असुरकुमार राजा चमर कूणिक राजा का पर्यायसंगतिक मित्र था। इसीलिए, हे गौतम ! उन्होंने कूणिक राजा को सहायता दी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 375 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजणे णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ– एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ–एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु सु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु सु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: भगवन् ! बहुत – से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि – अनेक प्रकार के छोटे – बड़े संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए आहत हुए एवं घायल हुए बहुत – से मनुष्य मृत्यु के समय मरकर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? गौतम ! बहुत – से मनुष्य, जो इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 376 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वरुणे णं भंते! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! सोहम्मे कप्पे, अरुणाभे विमाने देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता तत्थ णं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता।
से णं भंते! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिति।
वरुणस्स णं भंते! नागनत्तुयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! सुकुले Translated Sutra: भगवन् ! वरुण नागनप्तृक कालधर्म पाकर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? गौतम ! वह सौधर्मकल्प में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। उस देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। अतः वहाँ वरुण – देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है। भगवन् ! वह वरुण देव उस देवलोक से आयु – क्षय होने पर, भव – क्षय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 377 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थि रहते थे, यथा – कालोदयी, शैलोदाई शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 378 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे, गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगया।
तए णं से कालोदाई अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
अत्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
कालोदाई! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं Translated Sutra: किसी समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा। यावत् परीषद् धर्मोपदेश सूनकर लौट गई। तदनन्तर अन्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 379 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं अगनिकायं समारंभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगनिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे अगनिकायं निव्वावेइ।
एएसि णं भंते! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव? महाकिरियतराए चेव? महासवतराए चेव? महावेयणतराए चेव? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव? अप्पकिरियतराए चेव? अप्पासवतराए चेव? अप्पवेयणतराए चेव? जे वा से पुरिसे अगनिकायं उज्जालेइ, जे वा से पुरिसे अगनिकायं निव्वावेइ?
कालोदाई! तत्थ णं जे से पुरिसे अगनिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव।
तत्थ Translated Sutra: भगवन् ! (मान लीजिए) समान उम्र के यावत् समान ही भाण्ड, पात्र और उपकरण वाले दो पुरुष एक – दूसरे के साथ अग्निकाय का समारम्भ करें, उनमें से एक पुरुष अग्निकाय को जलाए और एक पुरुष अग्निकाय को बुझाए, तो हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में से कौन – सा पुरुष महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महा – आस्रव वाला और महावेदना वाला है | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 380 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति?
हंता अत्थि।
कयरे णं भंते! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति?
कालोदाई! कुद्धस्स अनगारस्स तेयलेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं-जहिं च णं सा निपतति तहिं-तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति। एतेणं कालोदाई! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति।
तए णं से कालोदाई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं, मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं Translated Sutra: भगवन् ! क्या अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते हैं, वे वस्तुओं को उद्योतित करते हैं, तपाते हैं और प्रकाश करते हैं ? हाँ, कालोदायी ! अचित्त पुद्गल भी यावत् प्रकाश करते हैं। भगवन् ! अचित्त होते हुए भी कौन – से पुद्गल अवभासित होते हैं, यावत् प्रकाश करते हैं ? कालोदायी ! क्रुद्ध अनगार की नीकली हुई तेजोलेश्या दूर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 382 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वदासी–कतिविहा णं भंते! पोग्गला पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा पोग्गला पन्नत्ता, तं जहा–पयोगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार पूछा – भगवन् ! पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पुद्गल तीन प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं – प्रयोग – परिणत, मिश्र – परिणत और विस्रसा परिणत। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 383 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–एगिंदियपयोगपरिणया, बेइंदियपयोगपरिणया, तेइंदिय-पयोग-परिणया, चउरिंदियपयोगपरिणया, पंचिंदियपयोगपरिणया।
एगिंदियपयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–पुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, आउकाइयएगिंदिय-पयोगपरिणया, तेउकाइय-एगिंदियपयोगपरिणया, वाउकाइय-एगिंदियपयोगपरिणया, वणस्सइ-काइय-एगिंदियपयोगपरिणया।
पुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– सुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, बादरपुढवि-काइयएगिंदियपयोगपरिणया Translated Sutra: भगवन् ! प्रयोग – परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के कहे गए हैं, एकेन्द्रिय – प्रयोग – परिणत यावत्, त्रीन्द्रिय – प्रयोग – परिणत, चतुरिन्द्रिय – प्रयोग – परिणत, पंचेन्द्रिय – प्रयोग – परिणत पुद्गल। भगवन् ! एकेन्द्रिय – प्रयोग – परिणत पुद्गल कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 384 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मीसापरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–एगिंदियमीसापरिणया जाव पंचिंदियमीसापरिणया।
एगिंदियमीसापरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
एवं जहा पयोगपरिणएहिं नव दंडगा भणिया, एवं मीसापरिणएहिं वि नव दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसेसं, नवरं–अभिलावो मीसापरिणया भाणियव्वं, सेसं तं चेव जाव जे पज्जत्ता-सव्वट्ठसिद्धअनुत्तरोववाइय जाव आयतसंठाणपरिणया वि। Translated Sutra: भगवन् ! मिश्रपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – एकेन्द्रिय – मिश्रपरिणत पुद्गल यावत् पंचेन्द्रिय – मिश्रपरिणत पुद्गल। भगवन् ! एकेन्द्रिय – मिश्रपुद्गल कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गलों के समान मिश्र – परिणत पुद्गलों के विषय में भी नौ दण्डक कहना। विशेषता यह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 385 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वीससापरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिणया,
संठाणपरिणया।
जे वण्णपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा– कालवण्णपरिणया जाव सुक्किल-वण्णपरिणया।
जे गंधपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सुब्भिगंधपरिणया, दुब्भिगंधपरिणया।
जे रसपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–तित्तरसपरिणया जाव महुररसपरिणया।
जे फासपरिणया ते अट्ठविहा पन्नत्ता, तं जहा–कक्खडफासपरिणया जाव लुक्खफास-
परिणया।
जे संठाणपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–परिमंडलसंठाणपरिणया जाव आयतसंठाण
परिणया।
जे वण्णओ कालवण्णपरिणया ते Translated Sutra: भगवन् ! विस्रसा – परिणत पुद्गल कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – वर्णपरिणत, गन्धपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत और संस्थानपरिणत। जो पुद्गल वर्णपरिणत हैं, वे पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा – कृष्णवर्ण के रूप में परिणत यावत् शुक्ल वर्ण के रूप में परिणत पुद्गल। जो गन्ध – परिणत – पुद्गल हैं, वे दो प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 386 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! दव्वे किं पयोगपरिणए? मीसापरिणए? वीससापरिणए?
गोयमा! पयोगपरिणए वा, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा।
जइ पयोगपरिणए किं मनपयोगपरिणए? वइपयोगपरिणए? कायपयोगपरिणए?
गोयमा! मनपयोगपरिणए वा, वइपयोगपरिणए वा, कायपयोगपरिणए वा।
जइ मनपयोगपरिणए किं सच्चमनपयोगपरिणए? मोसमनपयोगपरिणए? सच्चामोसमन-पयोग-परिणए? असच्चामोसमनपयोगपरिणए?
गोयमा! सच्चमनपयोगपरिणए वा, मोसमनपयोगपरिणए वा, सच्चामोसमनपयोगपरिणए वा, असच्चामोसमनपयोगपरिणए वा।
जइ सच्चमनपयोगपरिणए किं आरंभसच्चमनपयोगपरिणए? अनारंभसच्चमनपयोग-परिणए? सारंभसच्चमनपयोगपरिणए? असारंभसच्चमनपयोगपरिणए? समारंभसच्चमनपयोग-परिणए? असमारंभसच्चमनपयोगपरिणए?
गोयमा! Translated Sutra: गौतम ! एक द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत होता है, मिश्रपरिणत होता है अथवा विस्रसापरिणत होता है ? गौतम ! एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है, अथवा मिश्रपरिणत होता है, अथवा विस्रसापरिणत भी होता है। भगवन् ! यदि एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है तो क्या वह मनःप्रयोगपरिणत होता है, वचन – प्रयोग परिणत होता है, अथवा काय – प्रयोग – परिणत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 387 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते दव्वा! किं पयोगपरिणया? मीसापरिणया? वीससापरिणया?
गोयमा! १. पयोगपरिणया वा २. मीसापरिणया वा ३. वीससापरिणया वा ४. अहवेगे पयोग-परिणए, एगे मीसापरिणए ५. अहवेगे पयोगपरिणए, एगे वीससापरिणए ६. अहवेगे मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए।
जइ पयोगपरिणया किं मनपयोगपरिणया? वइपयोगपरिणया? कायपयोगपरिणया?
गोयमा! १. मनपयोगपरिणया वा २. वइपयोगपरिणया वा ३. कायपयोगपरिणया वा ४. अहवेगे मनपयोगपरिणए, एगे वइपयोगपरिणए ५. अहवेगे मनपयोगपरिणए, एगे कायपयोगपरिणए ६. अहवेगे वइपयोगपरिणए, एगे कायपयोगपरिणए।
जइ मनपयोगपरिणया किं सच्चमनपयोगपरिणया? असच्चमनपयोगपरिणया? सच्चमोसमनपयोगपरिणया? असच्चमोसमनपयोगपरिणया?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! दो द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत होते हैं, मिश्रपरिणत होते हैं, अथवा विस्रसापरिणत होते हैं ? गौतम ! वे प्रयोगपरिणत होते हैं, या मिश्रपरिणत होते हैं, अथवा विस्रसापरिणत होते हैं, अथवा एक द्रव्यप्रयोगपरिणत होते हैं और दूसरा मिश्रपरिणत होता है; या एक द्रव्यप्रयोगपरिणत होता है और दूसरा द्रव्य विस्रसापरिणत होता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 388 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं, मीसापरिणयाणं, वीससापरिणयाणं य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया, मीसापरिणया अनंतगुणा, वीससापरिणया अनंतगुणा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत, इन तीनों प्रकार के पुद्गलों में कौन – से (पुद्गल), किन (पुद्गलों) से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे और उनसे विस्रसापरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं। ‘भगवन् ! यह इसी प्रकार है | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 389 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! आसीविसा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा आसीविसा पन्नत्ता, तं जहा– जातिआसीविसा य, कम्मआसीविसा य।
जातिआसीविसा णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–विच्छुयजातिआसीविसे, मंडुक्कजातिआसीविसे, उरगजाति-आसीविसे, मनुस्सजातिआसीविसे।
विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते?
गोयमा! पभू णं विच्छुयजातिआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोंदिं विसेनं विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तए। विसए से विस ट्ठयाए, नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा।
मंडुक्कजातिआसीविसस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते?
गोयमा! पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे Translated Sutra: भगवन् ! आशीविष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं। जाति – आशीविष और कर्म – आशीविष भगवन् ! जाति – आशीविष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के जैसे – वृश्चिकजाति – आशीविष, मण्डूक – जाति – आशीविष, उरगजाति – आशीविष और मनुष्यजाति – आशीविष। भगवन् ! वृश्चिकजाति – आशीविष का कितना विषय है ? गौतम ! वह अर्द्धभरतक्षेत्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 390 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दस ठाणाइं छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा–१. धम्मत्थिकायं २. अधम्मत्थिकायं ३. आगासत्थिकायं ४. जीवं असरीरपडिबद्धं ५. परमाणुपोग्गलं ६. सद्दं ७. गंधं ८. वातं ९. अयं जिने भविस्सइ वा न वा भविस्सइ १. अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा करेस्सइ।
एयाणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली सव्वभावेणं जाणइ-पासइ, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सद्दं, गंधं, वातं, अयं जिने भविस्सइ वा न वा भविस्सइ, अयं सव्वदु-क्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा करेस्सइ। Translated Sutra: छद्मस्थ पुरुष इन दस स्थानों को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति – काय, आकाशास्तिकाय, शरीर से रहित जीव, परमाणुपुद्गल, शब्द, गन्ध, वायु, यह जीव जिन होगा या नहीं ? तथा यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं ? इन्हीं दस स्थानों को उत्पन्न (केवल) ज्ञान – दर्शन के धारक अरिहन्त – जिनकेवली | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 391 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! नाणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे नाणे पन्नत्ते, तं जहा–आभिनिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, मनपज्जवनाणे, केवलनाणे।
से किं तं आभिनिबोहियनाणे?
आभिनिबोहियनाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा। एवं जहा रायप्पसेणइज्जे नाणाणं भेदो तहेव इह भाणियव्वो जाव सेत्तं केवलनाणे।
अन्नाणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–मइअन्नाणे, सुयअन्नाणे, विभंगनाणे।
से किं तं मइअन्नाणे?
मइअन्नाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा।
से किं तं ओग्गहे?
ओग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य। एवं जहेव आभिनिबोहियनाणं Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। राजप्रश्नीयसूत्र में ज्ञानों के भेद के कथनानुसार ‘यह है वह केवल – ज्ञान’; यहाँ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 392 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निरयगतिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
गोयमा! नाणी वि, अन्नाणी वि। तिन्नि नाणाइं नियमा, तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए।
तिरियगतिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
गोयमा! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा।
मनुस्सगतिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
गोयमा! तिन्नि नाणाइं भयणाए, दो अन्नाणाइं नियमा। देवगतिया जहा निरयगतिया।
सिद्धगतिया णं भंते! जीवा किं नाणी?
जहा सिद्धा।
सइंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
गोयमा! चत्तारि नाणाइं, तिन्नि अन्नाणाइं–भयणाए।
एगिंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी?
जहा पुढविकाइया। बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिया णं दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा। पंचिंदिया जहा सइंदिया।
अनिंदिया Translated Sutra: भगवन् ! निरयगतिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं, वे नियमतः तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। भगवन् ! तिर्यंचगतिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! उनमें नियमतः दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं। भगवन् ! मनुष्यगतिक जीव ज्ञानी हैं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 393 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते लद्धी पन्नत्ता?
गोयमा! दसविहा लद्धी पन्नत्ता, तं जहा–१. नाणलद्धी २. दंसणलद्धी ३. चरित्तलद्धी ४. चरित्ताचरित्तलद्धी ५. दानलद्धी ६. लाभलद्धी ७. भोगलद्धी ८. उवभोगलद्धी ९. वीरियलद्धी १. इंदियलद्धी।
नाणलद्धी णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–आभिनिबोहियनाणलद्धी जाव केवलनाणलद्धी।
अन्नाणलद्धी णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–मइअन्नाणलद्धी, सुयअन्नाणलद्धी, विभंगनाणलद्धी।
दंसणलद्धी णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धी, सम्मामिच्छा-दंसणलद्धी।
चरित्तलद्धी Translated Sutra: भगवन् ! लब्धि कितने प्रकार की कही है ? गौतम ! लब्धि दस प्रकार की कही गई है – ज्ञानलब्धि, दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि, चारित्राचारित्रलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धि और इन्द्रियलब्धि। भगवन् ! ज्ञानलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! पाँच प्रकार की, यथा – आभिनिबोधिकज्ञान – लब्धि यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 394 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सागारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
पंच नाणाइं, तिन्नि अन्नाणाइं–भयणाए।
आभिनिबोहियनाणसागारोवउत्ता णं भंते?
चत्तारि नाणाइं भयणाए। एवं सुयनाणसागारोवउत्ता वि। ओहिनाणसागारोवउत्ता जहा ओहिनाणलद्धिया। मनपज्जवनाणसागारोवउत्ता जहा मनपज्जवनाणलद्धीया। केवलनाण-सागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धीया।
मइअन्नाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए। एवं सुयअन्नाणसागारोवउत्ता वि। विभंगनाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाइं नियमा।
अनगारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
पंच नाणाइं, तिन्नि अन्नाणाइं–भयणाए। एवं चक्खुदंसण-अचक्खुदंसणअनागारोवउत्ता वि, Translated Sutra: भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं, या अज्ञानी ? गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं, जो ज्ञानी होते हैं, उनमें पाँच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और जो अज्ञानी होते हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान – साकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? गौतम ! | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 395 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आभिनिबोहियनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते?
गोयमा! से समासओ चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ।
दव्वओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वदव्वाइं जाणइ-पासइ।
खेत्तओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वं खेत्तं जाणइ-पासइ।
कालओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वं कालं जाणइ-पासइ।
भावओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वे भावे जाणइ-पासइ।
सुयनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते?
गोयमा! से समासओ चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ।
दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ-पासइ।
खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वखेत्तं जाणइ-पासइ।
कालओ णं सुयनाणी उवउत्ते Translated Sutra: भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान का विषय कितना व्यापक है ? गौतम ! संक्षेप में चार प्रकार का है। यथा – द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य से आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश (सामान्य) से सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है, क्षेत्र से सामान्य से सभी क्षेत्र को जानता और देखता है, इसी प्रकार काल से भी और भाव से भी जानना। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 396 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणी णं भंते! नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! नाणी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–१. सादीए वा अपज्जवसिए २. सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जे से सादीए सप-ज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठिं सागरोवमाइं सातिरेगाइं।
आभिनिबोहियनाणी णं भंते! आभिनिबोहिय नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! एवं चेव।
एवं सुयनाणी वि।
ओहिनाणी वि एवं चेव, नवरं–जहन्नेणं एक्कं समयं।
मनपज्जवनाणी णं भंते! मनपज्जवनाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
केवलनाणी णं भंते! केवलनाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! सादीए अपज्जवसिए।
अन्नाणी, मइअन्नाणी, Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानी ’ज्ञानी’ के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं। – सादि – अपर्यवसित और सादि – सपर्यवसित। इनमें से जो सादि – सपर्यवसित ज्ञानी हैं, वे जघन्यतः अन्तमुहूर्त्त तक और उत्कृष्टतः कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक ज्ञानीरूप में रहते हैं। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबो – धिकज्ञानी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-३ वृक्ष | Hindi | 397 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! रुक्खा पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–संखेज्जजीविया, असंखेज्जजीविया, अनंतजीविया
से किं तं संखेज्जजीविया?
संखेज्जजीविया अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–
ताल तमाले तक्कलि, तेयलि साले य सालकल्लाणे ।सरले जावति केयइ, कंदलि तह चम्मरुक्खे य भुयरुक्ख हिंगुरुक्खे, लवंगरुक्खे य होति बोधव्वे । पूयफली खज्जूरी, बोधव्वा नालिएरी य ॥
जे यावण्णे तहप्पगारा। सेत्तं संखेज्जजीविया।
से किं तं असंखेज्जजीविया?
असंखेज्जजीविया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–एगट्ठिया य बहुबीयगा य।
से किं तं एगट्ठिया?
एगट्ठिया अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–
निबंब जंबु कोसंब, साल अंकोल्ल Translated Sutra: भगवन् ! वृक्ष कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! वृक्ष तीन प्रकार के कहे गए हैं, संख्यात जीव वाले, असंख्यात जीव वाले और अनन्त जीव वाले। भगवन् ! संख्यातजीव वाले वृक्ष कौन – से हैं ? गौतम ! अनेकविध, जैसे – ताड़, तमाल, तक्कलि, तेतली इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र में कहे अनुसार नारिकेल पर्यन्त जानना। ये और इस प्रकार के जितने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-३ वृक्ष | Hindi | 398 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: अह भंते! कुम्मे, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणा, गोणावलिया, मनुस्से, मनुस्सावलिया, महिसे, महिसावलिया–एएसि णं दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते वि णं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा?
हंता फुडा।
पुरिसे णं भंते! अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्ठेण वा किलिंचेण वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अन्नयरेसु ण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिंदमाणे वा विछिंदमाणे वा, अगनिकाए वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा विबाहं वा उप्पाएइ? छविच्छेदं वा करेइ?
नो तिणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। Translated Sutra: भगवन् ! कछुआ, कछुओं की श्रेणी, गोधा, गोधा की श्रेणी, गाय, गायों की पंक्ति, मनुष्य, मनुष्यों की पंक्ति, भैंसा, भैंसों की पंक्ति, इन सबके दो या तीन अथवा संख्यात खण्ड किये जाएं तो उनके बीच का भाग क्या जीवप्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? हाँ, गौतम ! वह स्पृष्ट होता है। भगवन् ! कोई पुरुष उन कछुए आदि के खण्डों के बीच के भाग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-३ वृक्ष | Hindi | 399 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा, ईसीपब्भारा।
इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा? अचरिमा?
चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव–
वेमाणिया णं भंते! फासचरिमेणं किं चरिमा? अचरिमा?
गोयमा! चरिमा वि, अचरिमा वि।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ – रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी और ईषत्प्राग्भारा। भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अथवा अचरम ? यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का चरमपद। वैमानिक तक कहना। गौतम ! वे चरम भी हैं और अचरम भी हैं। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-४ क्रिया | Hindi | 400 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! किरियाओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारिया-वणिया, पाणाइवायकिरिया–एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव सव्वत्थोवाओ मिच्छादंसण-वत्तियाओ किरियाओ, अप्पच्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ, पारिग्गहियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ, आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसा-हियाओ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने पूछा – भगवन् ! क्रियाएं कितनी हैं ? गौतम ! पाँच – कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का समग्र क्रियापद – ‘माया – प्रत्ययिकी क्रियाएं विशेषाधिक हैं;’ – यहाँ तक कहना चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 401 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–आजीविया णं भंते! थेरे भगवंते एवं वयासी–समणोवासगस्स णं भंते! सामाइय-कडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, से णं भंते! तं भंडं अनुगवेसमाणे किं सभंडं अनुगवेसइ? परायगं भंडं अनुगवेसइ?
गोयमा! सभंडं अनुगवेसइ, नो परायगं भंडं अनुगवेसइ।
तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवइ?
हंता भवइ।
से केणं खाइ णं अट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सभंडं अनुगवेसइ, नो परायगं भंडं अनुगवेसइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–नो मे हिरण्णे, नो मे सुवण्णे, नो मे कंसे, नो मे दूसे, नो मे विपुलधन-कनग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणमादीए Translated Sutra: राजगृह नगर के यावत् गौतमस्वामी ने पूछा – भगवन् ! आजीविकों ने स्थविर भगवंतों से पूछा कि ‘सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए किसी श्रावक के भाण्ड – वस्त्र आदि सामान को कोई अपहरण कर ले जाए, वह उस भाण्ड – वस्त्रादि सामान का अन्वेषण करे तो क्या वह अपने सामान का अन्वेषण करता है या पराये सामान का ? गौतम ! वह अपने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 402 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ?
हंता भवइ।
से केणं खाइ णं अट्ठेणं भंते एवं वुच्चइ–जायं चरइ? नो अजायं चरइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–नो मे माता, नो मे पिता, नो मे भाया, नो मे भगिनी, नो मे भज्जा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो मे सुण्हा; पेज्जबंधने पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जायं चरइ, नो अजायं चरइ।
समणोवासगस्स णं भंते! पुव्वामेव थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ?
गोयमा! तीयं पडिक्कमति, पडुप्पन्नं संवरेति, अनागयं पच्चक्खाति।
तीयं पडिक्कममाणे किं १. तिविहं तिविहेणं Translated Sutra: भगवन् ! उन शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार किये हुए श्रावक का वह अपहृत भाण्ड उसके लिए तो अभाण्ड हो जाता है ? हाँ, गौतम ! वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाता है। भगवन् ! तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का नहीं ? गौतम ! सामायिक आदि करने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 403 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आजीवियसमयस्स णं अयमट्ठे–अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता; से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुंपित्ता, विलुंपित्ता, उद्दवइत्ता आहारमाहारेंति।
तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तं जहा–१. ताले २. तालपलंबे ३. उव्विहे ४. संविहे ५. अवविहे ६. उदए ७. नामुदए ८. णम्मुदए ९. अणुवालए १. संखवालए ११. अयंपुले १२. कायरए – इच्चेते दुवालस आजीविओवासगा अरहंतदेवतागा, अम्मापिउसुस्सूसगा, पंचफल-पडिक्कंता, तं जहा–उंबरेहिं, वडेहिं, बोरेहिं, सतरेहिं, पिलक्खूहिं पलंडु-ल्हसुणकंदमूलविवज्जगा, अनिल्लंछिएहिं अनक्कभिन्नेहिं गोणेहि तसपाणविवज्जिएहिं छेत्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति।
एए वि ताव एवं Translated Sutra: आजीविक के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी होते हैं। इसलिए वे हनन करके, काटकर, भेदन करके, कतर कर, उतार कर और विनष्ट करके खाते हैं। ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं – ताल, तालप्रलम्ब, उद्विध, संविध, अवविध, उदय, नामोदय, नर्मोदय, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 404 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: कतिविहा णं भंते! देवलोगा पन्नत्ता?
गोयमा! चउव्विहा देवलोगा पन्नत्ता, तं जहा–भवनवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के, यथा – भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। |