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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-२ समुदघात Hindi 118 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा! सत्त समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–१. समुग्घाए २. कसायसमुग्घाए ३. मारणंतिय-समुग्घाए ४. वेउव्वियसमुग्घाए ५. तेजससमुग्घाए ६. आहारगसमुग्घाए ७. केवलियसमुग्घाए। छाउमत्थियसमुग्घायवज्जं समुग्घायपदं नेयव्वं।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! कितने समुद्‌घात कहे गए हैं ? गौतम ! समुद्‌घात सात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – वेदना – समुद्‌घात, कषाय – समुद्‌घात, मारणान्तिक – समुद्‌घात, वैक्रिय – समुद्‌घात, तैजस – समुद्‌घात, आहारक – समुद्‌घात और केवली – समुद्‌घात। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का छत्तीसवा समुद्‌घातपद कहना चाहिए, किन्तु उसमें प्रतिपादित
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-३ पृथ्वी Hindi 119 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–१. रयणप्पभा २. सक्करप्पभा ३. बालुयप्पभा ४. पंकप्पभा ५. धूमप्पभा ६. तमप्पभा ७. तमतमा। जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयव्वो जाव–

Translated Sutra: भगवन्‌ ! पृथ्वीयाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में नैरयिक उद्देशक में पृथ्वीसम्बन्धी जो वर्णन है, वह सब यहाँ जान लेना चाहिए। वहाँ उनके संस्थान, मोटाई आदि का तथा यावत्‌ – अन्य जो भी वर्णन है, वह सब यहाँ कहना। पृथ्वी, नरकावास का अंतर, संस्थान, बाहल्य, विष्कम्भ, परिक्षेप, वर्ण, गंध और स्पर्श (यह सब कहना चाहिए)। सूत्र
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-३ पृथ्वी Hindi 120 Gatha Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] पुढवि ओगाहिता निरया संठाणमेव बाहल्लं। विक्खंभ परिक्खेवो वण्णोगंधाय फ़ासोय ॥

Translated Sutra: देखो सूत्र ११९
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-३ पृथ्वी Hindi 121 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] किं सव्वे पाणा उववन्नपुव्वा? हंता गोयमा! असइं अदुवा अनंतखुत्तो।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या सब जीव उत्पन्नपूर्व हैं ? हाँ, गौतम ! सभी जीव रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वीयों में अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूके हैं।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-४ ईन्द्रिय Hindi 122 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! इंदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा–१. सोइंदिए २. चक्खिंदिए ३. घाणिंदिए ४. रसिंदिए ५. फासिंदिए। पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयव्वो जाव– अलोगे णं भंते! किणा फुडे? कतिहिं वा काएहिं फुडे? गोयमा! नो धमत्थिकाएणं फुडे जाव नो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए अनंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वगासे अनंतभागूणे।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पाँच। श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के, इन्द्रियपद का प्रथम उद्देशक कहना। उसमें कहे अनुसार इन्द्रियों का संस्थान, बाहल्य, चौड़ाई, यावत्‌ अलोक तक समग्र इन्द्रिय – उद्देशक कहना चाहिए।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 123 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवेंति– १. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अन्ने देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ आभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउ-व्विय परियारेइ। २. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा–इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च। जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ। इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थिवेयं वेएइ। एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा– इत्थिवेदं च,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वशमें करके या आलिंगन करके उनके साथ भी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 124 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उदगब्भे णं भंते! उदगब्भे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। तिरिक्खजोणियगब्भे णं भंते! तिरिक्खजोणियगब्भे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराइं। मनुस्सीगब्भे णं भंते! मनुस्सीगब्भे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! उदकगर्भ, उदकगर्भ के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक उदकगर्भ, उदकगर्भरूप में रहता है। भगवन्‌ ! तिर्यग्योनिकगर्भ कितने समय तक तिर्यग्योनिकगर्भरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट आठ वर्ष। भगवन्‌ ! मानुषीगर्भ, कितने समय तक मानुषीगर्भरूप में
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 125 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कायभवत्थे णं भंते! कायभवत्थे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीसं संवच्छराइं।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! काय – भवस्थ कितने समय तक काय – भवस्थरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक रहता है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 126 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] मनुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते! जोणिब्भूए केवतियं कालं संचिट्ठइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! मानुषी और पंचेन्द्रियतिर्यंची योनिगत बीज योनिभूतरूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 127 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एगजीवे णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वामागच्छइ? गोयमा! जहन्नेणं इक्कस्स वा दोण्ह वा तिण्ह वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! एक जीव, एक भव की अपेक्षा कितने जीवों का पुत्र हो सकता है ? गौतम ! एक जीव, एक भव में जघन्य एक जीव का, दो जीवों का अथवा तीन जीवों का, और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व जीवों का पुत्र हो सकता है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 128 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एगजीवस्स णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति? गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति? गोयमा! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुप्पज्जइ। ते दुहओ सिणेहं चिणंति, चिणित्ता तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जहन्नेणं एक्को वा दो

Translated Sutra: भगवन्‌ ! एक जनीव के एक भव में कितने जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो अथवा तीन जीव और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं। भगवन्‌ ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे गौतम ! कर्मकृत योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 129 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] मेहुणण्णं भंते! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कज्जई? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कनएणं समभिद्धंसेज्जा, एरिसएणं गोयमा! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ। सेवं भंते! सेवं भंते! जाव विहरइ।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की) सलाई (डालकर, उस) से बाँस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पतिसे भरी नली को जला डालता है, हे गौतम ! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है। ‘हे भगवन्‌ ! यह इसी प्रकार है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 130 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ। तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति– अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवन-सयनासन-जानवाहणाइण्णा बहुधन-बहुजायरूव-रयया आयोगपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुल-भत्तपाना बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध-पुण्ण-पावा-आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिकरणबंधपमोक्खकुसला असहेज्जा

Translated Sutra: इसके पश्चात्‌ (एकदा) श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में तुंगिका नामकी नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नामका चैत्य था। उस तुंगिकानगरी में बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य और दीप्त थे। उनके विस्तीर्ण निपुल
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक Hindi 131 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विनयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जिइंदिया जियपरीसहा जीवियासमरणभयविप्पमुक्का तवप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जा-प्पहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा चारुपण्णा सोही अणियाणा

Translated Sutra: उस काल और उस समय में पार्श्वापत्यीय स्थविर भगवान पाँच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए तुंगिका नगरी के पुष्पवतिकचैत्य पधारे। यथारूप अवग्रह लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवंत जाति – सम्पन्न, कुलसम्पन्न,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 142 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! अत्थिकाया पन्नत्ता? गोयमा! पंच अत्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा–धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। धम्मत्थिकाए णं भंते! कतिवण्णे? कतिगंधे? कतिरसे? कतिफासे? गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे। से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ। दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे, खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ–भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य–धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे। भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। गुणओ गमणगुणे। अधम्मत्थिकाए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! अस्तिकाय कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति – काय, जीवास्तिकाय और पुद्‌गलास्तिकाय। भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! धर्मास्ति – काय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित है, अर्थात्‌ – धर्मास्तिकाय अरूपी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 143 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। एवं दोण्णि, तिन्नि, चत्तारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेज्जा, असंखेज्जा। भंते! धम्मत्थि-कायपदेसा धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। एगपदेसूणे वि य णं भंते! धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया? से नूनं गोयमा! खंडे चक्के? सगले चक्के? भगवं! नो खंडे चक्के, सगले चक्के। खंडे छत्ते?

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को ‘धर्मास्तिकाय’ कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन्‌ ! क्या धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों, तीन प्रदेशों, चार प्रदेशों, पाँच प्रदेशों, छह प्रदेशों, सात प्रदेशों, आठ प्रदेशों, नौ प्रदेशों, दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों तथा असंख्येय प्रदेशों को ‘धर्मास्तिकाय’
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 144 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावंउवदंसेतीति वत्तव्वं सिया। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया? गोयमा! जीवे णं अनंताणं आभिनिबोहियनाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयनाणपज्जवाणं, अनंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मनपज्जवनाणपज्जवाणं, अनंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अणं-ताणं मइअन्नाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयअन्नाणपज्जवाणं,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम वाला जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हाँ, गौतम ! भगवन्‌ ! ऐसा किस कारण से कहा है ? गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मनःपर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 145 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! आगासे पन्नत्ते? गोयमा! दुविहे आगासे पन्नत्ते, तं जहा– लोयागासे य अलोयागासे य। लोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा? गोयमा! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि। जे जीवा ते नियमा एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया, अनिंदिया। जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा, बेइंदियदेसा, तेइंदियदेसा, चउरिंदियदेसा, पंचिंदियदेसा, अनिंदियदेसा। जे जीवप्पदेसा ते नियमा एगिंदियपदेसा, बेइंदियपदेसा, तेइंदियपदेसा, चउरिंदियपदेसा, पंचिंदिय पदेसा, अनिंदियपदेसा। जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है। यथा – लोकाकाश और अलोकाकाश। भगवन्‌ ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं? अजीव के प्रदेश हैं ? गौतम ! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं; अजीव भी हैं, अजीव के देश
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 146 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अलोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा? गोयमा! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीवप्पदेसा; नो अजीवा, नो अजीवदेस, नो अजीव-प्पदेसा; एगे अजीवदव्वदेसे अगरुयलहुए अनंतेहिं अगुरयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अनंतभागूणे।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या अलोकाकाश में जीव यावत्‌ अजीवप्रदेश हैं ? गौतम ! अलोकाकाश में न जीव हैं, यावत्‌ न ही अजीवप्रदेश हैं। वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघु – गुणों से संयुक्त है; वह अनन्त – भागःकम सर्वाकाशरूप है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 147 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते? गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। अधम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते? गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। लोयाकासे णं भंते! केमहालए पन्नत्ते? गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। जीवत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते? गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। पोग्गलत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते? गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक – प्रमाण है, लोकस्पृष्ट है, लोकको ही स्पर्श करके कहा हुआ है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्ति – काय और पुद्‌गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। इन पाँचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 148 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अहोलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति? गोयमा! सातिरेगं अद्धं फुसति। तिरियलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति? गोयमा! असंखेज्जइभागं फुसति। उड्ढलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति? गोयमा! देसूणं अद्धं फुसति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अधोलोक स्पर्श करता है ? गौतम ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है। भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को तिर्यग्‌लोक स्पर्श करता है? पृच्छा०। गौतम ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करता है। भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१० अस्तिकाय Hindi 149 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति? गोयमा! नो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसति, नो संखेज्जे भागे फुसति, नो असंखेज्जे भागे फुसति, नो सव्वं फुसति। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घनोदही धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति? जहा रयणप्पभा तहा घनोदहि-घनवाय-तणुवाया वि। इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति?

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यह रत्नप्रभापृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श करती है या असंख्यातभाग को स्पर्श करती है, अथवा संख्यातभागों को स्पर्श करती है या असंख्यात भागों को स्पर्श करती है अथवा समग्र को स्पर्श करती है? गौतम! यह रत्नप्रभापृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श नहीं करती, अपितु असंख्यात भाग
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 152 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नामं नयरी होत्था–वण्णओ। तीसे णं मोयाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे नंदने नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गच्छइ, पडिगया परिसा। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासि– चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरराया केमहिड्ढीए? केमहज्जुतीए? केमहाबले? केमहायसे? केमहासोक्खे? केमहानुभागे? केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए? गोयमा! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए, महज्जुतीए, महाबले, महायसे, महासोक्खे, महानुभागे!

Translated Sutra: उस काल उस समयमें ‘मोका’ नगरी थी। मोका नगरी के बाहर ईशानकोण में नन्दन चैत्य था। उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे। परीषद्‌ नीकली। धर्मोपदेश सूनकर परीषद्‌ वापस चली गई उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के द्वीतिय अन्तेवासी अग्निभूति नामक अनगार जिनका गोत्र गौतम था, तथा जो सात हाथ ऊंचे
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 153 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो सामानियदेवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो तावत्तीसया देवा केमहिड्ढीया? तावत्तीसया जहा सामाणिया तहा नेयव्वा। लोयपाला तहेव, नवरं–संखेज्जा दीव-समुद्दा भाणियव्वा। जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ देवीओ केमहिड्ढियाओ जाव केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए? गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ देवीओ महिड्ढियाओ जाव महानु-भागाओ। ताओ णं तत्थ साणं-साणं भवणाणं,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव यदि इस प्रकार की महती ऋद्धि से सम्पन्न हैं, यावत्‌ इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन्‌ ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रायस्त्रिंशक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं ? (हे गौतम !) जैसा सामानिक देवों के विषय में कहा था, वैसा ही त्रायस्त्रिंशक देवों के विषय में
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 154 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूती अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तच्चं गोयमं वायुभूतिं अनगारं एवं वदासि–एवं खलु गोयमा! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए तं चेव एवं सव्वं अपुट्ठवागरणं नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता। तेणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अनगारे दोच्चस्स गोयमस्स अग्गिभूतिस्स अनगारस्स एवमाइक्ख-माणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमट्ठं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एयमट्ठं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे

Translated Sutra: द्वीतिय गौतम (गोत्रीय) अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार करते हैं, वन्दन – नमस्कार करके जहाँ तृतीय गौतम ( – गोत्रीय) वायुभूति अनगार थे, वहाँ आए। उनके निकट पहुँचकर वे, तृतीय गौतम वायुभूति अनगार से यों बोले – हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है, इत्यादि समग्र वर्णन अपृष्ट
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 155 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूति अनगारे दोच्चे णं गोयमेणं अग्गिभूतिणा अनगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–जइ णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, बली णं भंते! वइरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिड्ढीए? जाव केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए? गोयमा! बली णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया महिड्ढीए जाव महानुभागे। जहा चमरस्स तहा बलिस्स वि नेयव्वं, नवरं–सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं भाणियव्वं, सेसं तं चेव निरवसेसं नेयव्वं, नवरं–नाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं सामाणिएहि य। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति तच्चे

Translated Sutra: इसके पश्चात्‌ तीसरे गौतम ( – गोत्रीय) वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार किया, और फिर यों बोले – भगवन्‌ ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत्‌ इतनी विकुर्व – णाशक्ति से सम्पन्न है, तब हे भगवन्‌ ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? यावत्‌ वह कितनी विकुर्वणा
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 156 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासि तीसए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडि-पुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान ऋद्धि वाला है, यावत्‌ इतनी विकुर्वणा करने मे समर्थ है, तो आप देवानुप्रिय का शिष्य ‘तिष्यक’ नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत्‌ विनीत था निरन्तर छठ – छठ की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूरे आठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 157 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं तच्चे गोयमे वायुभूई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी – जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए, ईसाने णं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्ढीए? एवं तहेव, नवरं–साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तहेव।

Translated Sutra: तृतीय गौतम वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके यावत्‌ इस प्रकार कहा – भगवन्‌ ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत्‌ इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन्‌ ! देवेन्द्र देवराज ईशान कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत्‌ कितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है ? (गौतम ! शक्रेन्द्र
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 158 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अनगारे पगतिभद्दए जाव विनीए अट्ठमंअट्ठमेणं अनिक्खित्तेणं, पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोक-म्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, तीसं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाने कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि से युक्त है, यावत्‌ वह इतनी विकुर्वणाशक्ति रखता है, तो प्रकृति से भद्र यावत्‌ विनीत, तथा निरन्तर अट्ठम की तपस्या और पारणे में आयंबिल, ऐसी कठोर तपश्चर्या से आत्मा को भावित करता हुआ, दोनों हाथ ऊंचे रखकर सूर्य की ओर मुख करके आतापना – भूमि में आतापना लेने वाला
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शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 159 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एवं सणंकुमारे वि, नवरं–चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे। एवं लंतए वि, नवरं–सातिरेगे अट्ठ केवलकप्पे। महासुक्के सोलस केवलकप्पे। सहस्सारे सातिरेगे सोलस। एवं पाणए वि, नवरं–बत्तीसं केवलकप्पे। एवं अच्चुए वि, नवरं–सातिरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अन्नं तं चेव। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति तच्चे गोयमे वायुभूई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ जाव विहरइ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ मोयाओ नयरीओ नंदनाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।

Translated Sutra: इसी प्रकार सनत्कुमार देवलोक के देवेन्द्र के विषय में भी समझना चाहिए। विशेषता यह है कि (सनत्‌ – कुमारेन्द्र की विकुर्वणाशक्ति) सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों जितने स्थल को भरने की है और तीरछे उसकी विकुर्वणा – शक्ति असंख्यात (द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की) है। इसी तरह (सनत्कुमारेन्द्र के) सामानिक देव, त्राय
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 160 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ जाव परिसा पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाने देविंदे देवराया ईसाने कप्पे ईसानवडेंसए विमाने जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्ता जाव जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए। भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता। एवं वदासी–अहो णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव महानुभागे। ईसानस्स णं भंते! सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं अनुपविट्ठे? गोयमा!

Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। यावत्‌ परीषद्‌ भगवान की पर्युपासना करने लगी। उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, शूलपाणि वृषभ – वाहन लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रजरहित निर्मल वस्त्रधारक, सिर पर माला से सुशोभित मुकुटधारी, नवीनस्वर्ण निर्मित सुन्दर, विचित्र
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 161 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहानी अणिंदा अपुरोहिया या वि होत्था। तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सिं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासि– एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचा रायहानी अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवानुप्पिया! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, अयं च णं देवानुप्पिया! तामली बालतवस्सी तामलित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभागे नियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणाज्झूसणाज्झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे, तं सेयं खलु देवानुप्पिया! अम्हं तामलिं

Translated Sutra: उस काल उस समय में बलिचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहित से विहीन थी। उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा। देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया, और कहा – देवानुप्रियो ! बलिचंचा राजधानी इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है। हे देवानुप्रियो
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 162 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाने कप्पे अणिंदे अपुरोहिए या वि होत्था। तए णं से तामली बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाइं सट्ठिं वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अनसनाए छेदित्ता कालकासे कालं किच्चा ईसाने कप्पे ईसानवडेंसए विमाने उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइ-भागमेत्तीए ओगाहणाए ईसानदेविंदविरहियकालसमयंसि ईसानदेविंदत्ताए उववन्ने। तए णं से ईसाने देविंदे देवराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, [तं जहा–आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए] । तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया

Translated Sutra: उस काल और उस समय में ईशान देवलोक इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित भी था। उस समय ऋषि तामली बालतपस्वी, पूरे साठ हजार वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके, दो महीने की संलेखना से अपनी आत्मा को सेवित करके, एक सौ बीस भक्त अनशन में काटकर काल के अवसर पर काल करके ईशान देवलोक के ईशावतंसक विमान में उपपातसभा की देवदूष्य – वस्त्र
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 163 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते ईसानकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं गरहिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं पव्वहिज्जमाणं आकड्ढ-विकड्ढिं कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाने देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी– एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ ईशानकल्पवासी बहुत – से वैमानिक देवों और देवियों ने (इस प्रकार) देखा कि बलिचंचा – निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा और आक्रोशना की जा रही है, यावत्‌ उस शब को मनचाहे ढंग से इधर – उधर घसीटा या खींचा जा रहा है। अतः इस प्रकार देखकर वे वैमानिक
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 164 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो विमानेहिंतो ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाना ईसिं उच्चतरा चेव ईसिं उन्नयतरा चेव? ईसानस्स वा देविंदस्स देवरन्नो विमानेहिंतो सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाना ईसिं णीयतरा चेव ईसिं निन्नतरा चेव? हंता गोयमा! सक्कस्स तं चेव सव्वं नेयव्वं। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– गोयमा! से जहानामए करयले सिया–देसे उच्चे, देसे उन्नए। देसे णीए, देसे निण्णे। से तेणट्ठेणं गोयमा! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जाव ईसिं निन्नतरा चेव।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के विमानों से देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान कुछ (थोड़े – से) उच्चतर – ऊंचे हैं, कुछ उन्नततर हैं ? अथवा देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से देवेन्द्र देवराज शक्र के विमान कुछ नीचे हैं, कुछ निम्नतर हैं ? हाँ, गौतम ! यह इसी प्रकार है। यहाँ ऊपर का सारा सूत्रपाठ (उत्तर के रूप में) समझ
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 165 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवित्तए? हंता पभू। से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू? गोयमा! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू। पभू णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवित्तए? हंता पभू। से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू? गोयमा! आढामाणे वि पभू, अणाढामाणे वि पभू। पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोइत्तए? हंता पभू। से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू? गोयमा! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू। पभू णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया सक्कं देविंदं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट हो (जाने) में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम! शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास जाने में समर्थ है। भगवन्‌ ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? हे गौतम ! वह ईशानेन्द्र का आदर करता हुआ जाता है, किन्तु अनादर करता हुआ नहीं। भगवन्‌ ! देवेन्द्र
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 166 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाइं करणिज्जाइं समुप्पज्जंति? हंता अत्थि। कहमिदानिं पकरेंति? गोयमा! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवति, ईसाने वा देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवति इति भो! सक्का! देविंदा! देवराया! दाहिणड्ढलोगाहिवई! इति भो! ईसाणा! देविंदा! देवराया! उत्तरड्ढलोगाहिवई! इति भो! इति भो! त्ति ते अन्नमन्नस्स किच्चाइं करणिज्जाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। अत्थि णं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पज्जंति? हंता अत्थि। से कहमिदाणिं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! उन देवेन्द्र देवराज शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर कोई कृत्य और करणीय समुत्पन्न होते हैं ? हाँ, गौतम ! समुत्पन्न होते हैं। भगवन्‌ ! जब इन दोनों के कोई कृत्य या करणीय होते हैं, तब वे कैसे व्यवहार (कार्य) करते हैं ? गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है, तब वह देवेन्द्र देवराज ईशान
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा Hindi 167 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सणंकुमारे णं भंते! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए? अभवसिद्धिए? सम्मद्दिट्ठी? मिच्छद्दिट्ठी? परित्त-संसारिए? अनंतसंसारिए? सुलभबोहिए? दुल्लभबोहिए? आराहए? विराहए? चरिमे? अचरिमे? गोयमा! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए। सम्मद्दिट्ठी, नो मिच्छद्दिट्ठी। परित्तसंसारिए, नो अनंत-संसारिए। सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचरिमे। से केणट्ठेणं भंते! गोयमा! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए निस्सेससिए हिय-सुह-निस्सेसकामए। से तेणट्ठेणं गोयमा!

Translated Sutra: हे भगवन्‌ ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ?; सम्यग्दृष्टि हैं, या मिथ्या – दृष्टि हैं ? परित्त संसारी हैं या अनन्त संसारी ? सुलभबोधि हैं, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 170 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था जाव परिसा पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहानीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासनंसि, चउसट्ठीए सामानियसाहसहिं जाव नट्टविहिं उवदंसेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी– अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अत्थि णं भंते! ईसिप्पब्भाराए पुढवीए अहे असुर-कुमारा देवा परिवसंति? नो इणट्ठे

Translated Sutra: उस काल, उस समय में राजगृह नामका नगर था। यावत्‌ भगवान वहाँ पधारे और परीषद्‌ पर्युपासना करने लगी। उस काल, उस समय में चौंसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत्त और चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठे असुरेन्द्र असुरराज चमर ने (राजगृह में विराजमान भगवान को अवधिज्ञान से देखा); यावत्‌ नाट्यविधि
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 171 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] केवइयकालस्स णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य? गोयमा! अनंताहिं ओसप्पिणीहिं, अनंताहिं उस्सप्पिणीहिं समतिक्कंताहिं अत्थि णं एस भावे लोयच्छेरयभूए समुप्पज्जइ, जं णं असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। किं निस्साए णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव साहम्मो कप्पो? गोयमा! से जहानामए इहं सबरा इ वा बब्बरा इ वा टंकणा इ वा चुचुया इ वा पल्हा इ वा पुलिंदा इ वा एगं महं रण्णं वा गड्ढं वा दुग्गं वा दरिं वा विसमं वा पव्वयं वा नीसाए सुमहल्लमवि आसबलं वा हत्थिबलं वा जोहबलं वा धणुबलं वा आगलेंति, एवामेव असुरकुमारा वि

Translated Sutra: भगवन्‌ ! कितने काल में असुरकुमार देव ऊर्ध्व – गमन करते हैं, तथा सौधर्मकल्प तक ऊपर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे ? गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी – काल और अनन्त अवसर्पिणीकाल व्यतीत होने के पश्चात्‌ लोक में आश्चर्यभूत यह भाव समुत्पन्न होता है कि असुरकुमार देव ऊर्ध्वगमन करते हैं, यावत्‌ सौधर्मकल्प तक जाते हैं। भगवन्‌ ! किसका
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 172 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] चमरे णं भंते! असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? पत्ते? अभिसमन्नागए? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विंज्झगिरिपायमूले बेभेले नामं सन्निवेसे होत्था–वण्णओ। तत्थ णं बेभेले सन्निवेसे पूरणे नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए या वि होत्था। तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अत्थि ता मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि और यावत्‌ वह सब, किस प्रकार उपलब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुई ? हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारत वर्ष (क्षेत्र) में, विन्ध्याचल की तलहटी में ‘बेभेल’ नामक सन्निवेश था। वहाँ ‘पूरण’ नामक एक गृहपति रहता था। वह आढ्य और दीप्त
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शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 173 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो अप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, नन्नत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अनगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए त्ति कट्टु ओहिं पउंजइ, ममं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता हा! हा! अहो! हतो अहमंसि त्ति कट्टु ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए वज्जस्स वीहिं

Translated Sutra: उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत्‌ मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्ति वाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न ही असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय है कि वह अरिहंत भगवंतों, अर्हन्त भगवान के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय लिए बिना
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शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 174 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया वज्जं पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि–एवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो बहाए वज्जे निसट्ठे। तए णं ममं इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था– नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो अप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, नन्नत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि

Translated Sutra: हे गौतम ! (जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशाग्र हिलने लगे। तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दन – नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके कहा – भगवन्‌ ! आपका ही आश्रय लेकर स्वयं
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 175 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महानुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेवं अनुपरियट्टित्ता णं गेण्हित्तए? हंता पभू। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–देवे णं महिड्ढीए जाव महानुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अनुपरियट्टित्ता णं गेण्हित्तए? गोयमा! पोग्गले णं खित्ते समाणे पुव्वामेव सिग्घगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिड्ढीए जाव महानुभागे पुव्विं पि पच्छा वि सीहे सीहगती चेव तुरिए तुरियगती चेव। से तेणट्ठेणं जाव पभू गेण्हित्तए। जइ णं भंते! देवे महिड्ढीए जाव पभू तमेव

Translated Sutra: ‘हे भगवन्‌ !’ यों कहकर भगवान्‌ गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके इस प्रकार कहा (पूछा) भगवन्‌ ! महाऋद्धिसम्पन्न, महाद्युतियुक्त यावत्‌ महाप्रभाव – शाली देव क्या पहले पुद्‌गल को फैंक कर, फिर उसके पीछे जाकर उसे पकड़ लेने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! वह समर्थ है। भगवन्‌
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शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 176 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्जभयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहानीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविट्ठे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए ज्झियाति। तए णं चमरं असुरिंदं असुररायं सामानियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव ज्झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी– किं णं देवानुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा चिंतासोयसागर-संपविट्ठा करयलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया

Translated Sutra: इसके पश्चात्‌ वज्र – (प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान्‌ अपमान से अपमानित हुआ, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमरचंचा नामक राजधानी में सुधर्मा
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-२ चमरोत्पात Hindi 177 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो? गोयमा! तेसि णं देवाणं अहुणोववण्णाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुपज्जइ–अहो! णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए, जारिसिया णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए, तारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए। जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा जाव अभिस-मण्णागए, तारिसिया णं अम्हेहि वि जाव अभिसमन्नागए। तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवामो पासामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो

Translated Sutra: भगवन्‌ ! असुरकुमार देव यावत्‌ सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण से जाते हैं ? गौतम ! (देवलोक में) तत्काल उत्पन्न तथा चरमभवस्थ उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आध्यात्मिक यावत्‌ मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है – अहो ! हमने दिव्य देवऋद्धि यावत्‌ उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है। जैसी दिव्य देवऋद्धि हमने यावत्‌
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-३ क्रिया Hindi 178 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी मंडिअपुत्ते नामं अनगारे पगइभद्दए जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–कइ णं भंते! किरियाओ पन्नत्ताओ? मंडिअपुत्ता! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– काइया, अहिगरणिआ, पाओसिआ, पारियावणिआ, पाणाइवायकिरिया। काइया णं भंते! किरिया कइविहा पन्नत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–अणुवरयकायकिरिया य, दुप्पउत्तकायकिरिया य। अहिगरणिआ णं भंते! किरिया कइविहा पन्नत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संजोयणाहिगरणकिरिया य, निवत्तणाहिगरणकिरिया य। पाओसिआ

Translated Sutra: उस काल और उस समय में ‘राजगृह’ नामक नगर था; यावत्‌ परिषद्‌ (धर्मकथा सून) वापस चली गई। उस काल और उस समय में भगवान के अन्तेवासी प्रकृति से भद्र मण्डितपुत्र नामक अनगार यावत्‌ पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले – भगवन्‌ ! क्रियाएं कितनी कही गई हैं ? हे मण्डितपुत्र ! क्रियाएं पाँच कही गई हैं। – कायिकी, आधिकर – णिकी, प्राद्वेषिकी,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-३ क्रिया Hindi 179 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पुव्विं भंते! किरिया, पच्छा वेदना? पुव्विं वेदना, पच्छा किरिया? मंडिअपुत्ता! पुव्विं किरिया, पच्छा वेदना। नो पुव्विं वेदना, पच्छा किरिया।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! पहले क्रिया होती है, और पीछे वेदना होती है ? अथवा पहले वेदना होती है, पीछे क्रिया होती है? मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया होती है, बाद में वेदना होती है; परन्तु पहले वेदना हो और पीछे क्रिया हो, ऐसा नहीं होता।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-३ क्रिया Hindi 180 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ? हंता अत्थि। कहन्नं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ? मंडिअपुत्ता! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च। एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या श्रमण – निर्ग्रन्थों के (भी) क्रिया होती (लगती) है ? हाँ, होती है। भगवन्‌ ! श्रमण निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे हो जाती है ? मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से इन्हीं दो कारणों से श्रमण – निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३

उद्देशक-३ क्रिया Hindi 181 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ? हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ। जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंत किरिया भवइ? नो इणट्ठे समट्ठे। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति? मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में काँपता है, विविध रूप में काँपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है, घट्टित होता (घूमता) है, क्षुब्ध होता है, उदीरित होता या करता है; और उन – उन भावों में परिणत होता है ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित – (परिमित) रूप से काँपता है, यावत्‌ उन – उन भावों में परिणत होता है। भगवन्‌
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