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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1214 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पानभोयणं ।
परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ॥ Translated Sutra: दूध, दहीं, घी आदि प्रणीत (पौष्टिक) पान, भोजन तथा रसों का त्याग, ‘रसपरित्याग’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1215 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा ।
उग्गा जहा धरिज्जंति कायकिलेसं तमाहियं ॥ Translated Sutra: आत्मा को सुखावह अर्थात् सुखकर वीरासनादि उग्र आसनों का अभ्यास, ‘कायक्लेश’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1216 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए ।
सयनासनसेवणया विवित्तसयनासनं ॥ Translated Sutra: एकान्त, अनापात तथा स्त्री – पशु आदि रहित शयन एवं आसन ग्रहण करना, ‘विविक्तशयनासन’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1217 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एसो बाहिरगतवो समासेण वियाहिओ ।
अब्भिंतरं तवं एत्तो वुच्छामि अनुपुव्वसो ॥ Translated Sutra: संक्षेप में यह बाह्य तप का व्याख्यान है। अब क्रमशः आभ्यन्तर तप का निरूपण करूँगा। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग – यह आभ्यन्तर तप हैं। सूत्र – १२१७, १२१८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1218 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पायच्छित्तं विनओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ ।
ज्झाणं च विउस्सग्गो एसो अब्भिंतरो तवो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२१७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1219 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं ।
जे भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं ॥ Translated Sutra: आलोचनार्ह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, ‘प्रायश्चित्त’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1220 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासनदायणं ।
गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विनओ एस वियाहिओ ॥ Translated Sutra: खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भाव – पूर्वक शुश्रूषा करना, ‘विनय’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1221 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे ।
आसेवनं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं ॥ Translated Sutra: आचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्य का यथाशक्ति आसेवन करना, ‘वैयावृत्य’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1222 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा ।
अनुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे ॥ Translated Sutra: वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा – यह पंचविध ‘स्वाध्याय’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1223 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता ज्झाएज्जा सुसमाहिए ।
धम्मसुक्काइं ज्झाणाइं ज्झाणं तं तु बुहा वए ॥ Translated Sutra: आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर सुसमाहित मुनि जो धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याता है, ज्ञानीजन उसे ही ‘ध्यान’ तप कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1224 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सयनासनठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे ।
कायस्स विउस्सग्गो छट्ठो सो परिकित्तिओ ॥ Translated Sutra: सोने, बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से व्यर्थ की चेष्टा नहीं करता है, यह शरीर का व्युत्सर्ग – ‘व्युत्सर्ग’ नामक छठा तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1225 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयं तवं तु दुविहं जे सम्मं आयरे मुनी ।
से खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तप का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से विमुक्त हो जाता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1226 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चरणविहिं पवक्खामि जीवस्स उ सुहावहं ।
जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं ॥ Translated Sutra: जीव को सुख प्रदान करने वाली उस चरण – विधि का कथन करूँगा, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार – सागर को तैर गए हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1227 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगओ विरइं कुज्जा एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं ॥ Translated Sutra: साधक को एक ओर से निवृत्ति और एक ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1228 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे ।
जे भिक्खू रुंभई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष हैं। इन दो पापकर्मों का जो भिक्षु सदा निरोध करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1229 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दंडाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं ।
जे भिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: तीन दण्ड, तीन गौरव और तीन शल्यों का जो भिक्षु सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1230 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमानुसे ।
जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: देव, तिर्यंच और मनुष्य – सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा सहन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1231 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विगहाकसायसण्णाणं ज्झाणाणं च दुयं तहा ।
जे भिक्खू वज्जई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: जो भिक्षु विकथाओं का, कषायों का, संज्ञाओं का और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान का सदा वर्जन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1232 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वएसु इंदियत्थेसु समिईसु किरियासु य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में तथा इन्द्रिय – विषयों और क्रियाओं के परिहार में सदा यत्नशील रहता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1233 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लेसासु छसु काएसु छक्के आहारकारणे ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: जो भिक्षु छह लेश्याओं, पृथ्वी कायं आदि छह कायों और आहार के छह कारणों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1234 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पिंडोग्गहपडिमासु भयट्ठाणेसु सत्तसु ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: पिण्डावग्रहों में, आहार ग्रहण की सात प्रतिमाओं में और सात भय – स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1235 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मएसु बंभगुत्तीसु भिक्खुधम्मंमि दसविहे ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: मद – स्थानों में, ब्रह्मचर्य की गुप्तियों में और दस प्रकार के भिक्षु – धर्मों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1236 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उवासगाणं पडिमासु भिक्खूणं पडिमासु य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: उपासकों की प्रतिमाओं में, भिक्षुओं की प्रतिमाओं में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1237 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किरियासु भूयगामेसु परमाहम्मिएसु य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: क्रियाओं में, जीव – समुदायों में और परमाधार्मिक देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1238 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गाहासोलहसएहिं तहा अस्संजमम्मि य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: गाथा – षोडशक में और असंयम में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1239 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बंभंमि नायज्झयणेसु ठाणेसु य समाहिए ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छई मंडले ॥ Translated Sutra: ब्रह्मचर्य में, ज्ञातअध्ययनों में, असमाधि – स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1240 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगवीसाए सबलेसु बावीसाए परीसहे ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: इक्कीस शबल दोषों में और बाईस परीषहों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1241 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेवीसइ सूयगडे रूवाहिएसु सुरेसु अ ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों में, रूपाधिक अर्थात् चौबीस देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1242 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पणवीसभावणाहिं उद्देसेसु दसाइणं ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: पच्चीस भावनाओं में, दशा आदि (दशाश्रुत स्कन्ध, व्यवहार और बृहत्कल्प) के २६ उद्देश्यों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1243 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनगारगुणेहिं च पकप्पम्मिं तहेव य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: २७ अनगार – गुणों में और तथैव प्रकल्प (आचारांग) के २८ अध्ययनों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1244 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पावसुयपसंगेसु मोहट्ठाणेसु चेव य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: २९ पापश्रुत – प्रसंगों में और ३० मोह – स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1245 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धाइगुणजोगेसु तेत्तीसासायणासु य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: सिद्धों के ३१ अतिशायी गुणों में, ३२ योग – संग्रहों में, तैंतीस आशातनाओं में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1246 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इइ एएसु ठाणेसु जे भिक्खू जयई सया ।
खिप्पं से सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिओ ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: इस प्रकार जो पण्डित भिक्षु इन स्थानों में सतत उपयोग रखता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से मुक्त हो जाता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1247 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्चंतकालस्स समूलगस्स सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो ।
तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ॥ Translated Sutra: अनन्त अनादि काल से सभी दुःखों और उनके मूल कारणों से मुक्ति का उपाय मैं कह रहा हूँ। उसे पूरे मन से सुनो। वह एकान्त हितरूप है, कल्याण के लिए है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1248 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ Translated Sutra: सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह की परिहार से, राग – द्वेष के पूर्ण क्षय से – जीव एकान्त सुख – रूप मोक्ष को प्राप्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1249 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजनस्स दूरा ।
सज्झायएगंतनिसेवणा य सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य ॥ Translated Sutra: गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्त में निवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना, धैर्य रखना, यह दुःखों से मुक्ति का उपाय है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1250 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं ।
निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ Translated Sutra: अगर श्रमण तपस्वी समाधि की आकांक्षा रखता है तो वह परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे, तत्त्वार्थों को जानने में निपुण बुद्धिवाला साथी खोजे तथा स्त्री आदि से विवेक के योग्य – एकान्त घर में निवास करे | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1251 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न वा लभेज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा ।
एक्को वि पावाइ विवज्जयंतो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ Translated Sutra: यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम – भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1252 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा य अंडप्पभवा बलागा अंडं बलागप्पभवं जहा य ।
एमेव मोहाययणं खु तण्हं मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार अण्डे से बलाका पैदा होती है और बलाका से अण्डा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मोह का जन्म – स्थान तृष्णा है, और तृष्णा का जन्म – स्थान मोह है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1253 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥ Translated Sutra: कर्म के बीज राग और द्वेष हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह कर्म जन्म और मरण का मूल है और जन्म एवं मरण ही दुःख है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1254 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा ।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हओ जस्स न किंचणाइं ॥ Translated Sutra: उसने दुःख समाप्त कर दिया है, जिसे मोह नहीं है, उसने मोह मिटा दिया है, जिसे तृष्णा नहीं है। उसने तृष्णा नाश कर दिया है, जिसे लोभ नहीं है। उसने लोभ समाप्त कर दिया हे, जिसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं है | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1255 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रागं च दोसं च तहेव मोहं उद्धत्तुकामेण समूलजालं ।
जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा ते कित्तइस्सामि अहानुपुव्विं ॥ Translated Sutra: जो राग, द्वेष और मोह का मूल से उन्मूलन चाहता है, उसे जिन – जिन उपायों को उपयोग में लाना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूँगा। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1256 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसा पगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं ।
दित्तं च कामा समभिद्दवंति दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ Translated Sutra: रसों का उपयोग प्रकाम नहीं करना। रस प्रायः मनुष्य के लिए दृप्तिकर होते हैं। विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करते हैं, जैसे स्वादुफल वाले वृक्ष को पक्षी। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1257 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ ।
एविंदियग्गी वि पगामभोइणो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ Translated Sutra: जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है, उसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती। ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1258 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विवित्तसेज्जासणजंतियाणं ओमासणाणं दमिइंदियाणं ।
न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं पराइओ वाहिरिवोसहेहिं । Translated Sutra: जो विविक्त शय्यासन से यंत्रित हैं, अल्पभोजी हैं, जितेन्द्रिय हैं, उनके चित्त को रागद्वेष पराजित नहीं कर सकते हैं, जैसे औषधि से पराजित व्याधि पुनः शरीर को आक्रान्त नहीं करती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1259 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा बिरालावसहस्स मूले न मूसगाणं वसही पसत्था ।
एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार बिडालों के निवास – स्थान के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास – स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी प्रशस्त नहीं है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1260 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न रूवलावण्णविलासहासं न जंपियं इंगियपेहियं वा ।
इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दट्ठुं ववस्से समणे तवस्सी ॥ Translated Sutra: श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, आलाप, इंगित और कटाक्ष को मन में निविष्ट कर देखने का प्रयत्न न करे। जो सदा ब्रह्मचर्य में लीन हैं, उनके लिए स्त्रियों का अवलोकन, उनकी इच्छा, चिन्तन और वर्णन न करना हितकर है, तथा सम्यक् ध्यान साधना के लिए उपयुक्त है। सूत्र – १२६०, १२६१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1261 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अदंसणं चेव अपत्थणं च अचिंतणं चेव अकित्तणं च ।
इत्थीजनस्सारियज्झाणजोग्गं हियं सया बंभवए रयाणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२६० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1262 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कामं तु देवीहि विभूसियाहिं न चाइया खोभइउं तिगुत्ता ।
तहा वि एगंतहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुनिनं पसत्थो ॥ Translated Sutra: यद्यपि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनि को अलंकृत देवियाँ भी विचलित नहीं कर सकती, तथापि एकान्त हित की दृष्टि से मुनि के लिए विविक्तवास ही प्रशस्त है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1263 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोक्खाभिकंखिस्स वि मानवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे ।
नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ बालमनोहराओ ॥ Translated Sutra: मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में ऐसा कुछ भी दुस्तर नहीं है, जैसे कि अज्ञानियों के मन को हरण करनेवाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं। |