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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
मङ्गलं, संस्तारकगुणा |
Hindi | 8 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कल्लाणं अब्भुदओ देवाण वि दुल्लहं तिहुयणम्मि ।
बत्तीसं देविंदा जं तं झायंति एगमणा ॥ Translated Sutra: समाधिमरण रूप यह आराधना सच ही में कल्याणकर है। अभ्युदय उन्नति का परमहेतु है। इसलिए ऐसी आराधना तीन भुवन में देवताओं को भी दुर्लभ है। देवलोक के इन्द्र भी समाधिपूर्वक के पंड़ित मरण की एक मन से अभिलाषा रखते हैं। | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Hindi | 81 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ य मुनिवरवसहो गणिपिडगधरो तहाऽऽसि आयरिओ ।
नामेण उसहसेणो सुयसागरपारगो धीरो ॥ Translated Sutra: कृणाल नगर में वैश्रमणदास नाम का राजा था। इस राजा का रिष्ठ नाम का मंत्री कि जो मिथ्या दृष्टि और दुराग्रह वृत्तिवाला था। उस नगर में एक अवसर पर मुनिवर के लिए वृषभ समान, गणिपिटकरूप श्री द्वादशांगी के धारक और समस्त श्रुतसागर के पार को पानेवाले और धीर ऐसे श्री ऋषभसेन आचार्य, अपने परिवार सहित पधारे थे। उस सूरि के | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Hindi | 88 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिजाणाई तिगुत्तो जावज्जीवाए सव्वमाहारं ।
संघसमवायमज्झे सागारं गुरुनिओगेणं ॥ Translated Sutra: संथारा को अपनाने की विधि उचित अवसर पर, तीन गुप्ति से गुप्त ऐसा क्षपकसाधु ज्ञपरिज्ञा से जानता है। फिर यावज्जीव के लिए संघ समुदाय के बीच में गुरु के आदेश के अनुसार आगार सहित चारों आहार का पच्चक्खाण करता है। | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
भावना |
Hindi | 90 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खामेइ सव्वसंघं संवेगं सेसगाण कुणमाणो ।
मन-वइजोगेहिं पुरा कय-कारिय-अनुमए वा वि ॥ Translated Sutra: शेषलोगों को संवेग प्रकट हो उस तरह से वह क्षपक क्षमापना करे और सर्व संघ समुदाय के बीच में कहना चाहिए कि पूर्वे मन, वचन और काया के योग से करने, करवाने और अनुमोदने द्वारा मैंने जो कुछ भी अपराध किए हो उन्हें मैं खमाता हूँ। | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
भावना |
Hindi | 117 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संघो सइंदयाणं सदेव-मणुयाऽसुरम्मि लोगम्मि ।
दुल्लहतरो विसुद्धो, सुविसुद्धो सो महामउडो ॥ Translated Sutra: सुवर्णजड़ित श्री संघरूप महामुकुट, देव, देवेन्द्र, असुर और मानव सहित तीन लोक में विशुद्ध होने के कारण से पूजनीय हैं, अति दुर्लभ हैं। और फिर निर्मल गुण का आधार हैं, इसीलिए परमशुद्ध हैं, और सबको शिरोधार्य हैं। | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
मङ्गलं, संस्तारकगुणा |
Gujarati | 6 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वंसाणं जिनवंसो, सव्वकुलाणं च सावयकुलाइं ।
सिद्धिगइ व्व गईणं, मुत्तिसुहं सव्वसोक्खाणं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૬. વંશોમાં જેમ જિનેશ્વરનો વંશ શ્રેષ્ઠ છે, સર્વકુલોમાં જેમ શ્રાવકનું કુળ શ્રેષ્ઠ છે, ગતિમાં જેમ સિદ્ધિ ગતિ શ્રેષ્ઠ છે, તેમ સર્વ સુખોમાં મુક્તિ સુખ શ્રેષ્ઠ છે. સૂત્ર– ૭. ધર્મોમાં જેમ અહિંસા શ્રેષ્ઠ છે, લોકવચનમાં જેમ સાધુવચન શ્રેષ્ઠ છે, શ્રુતિમાં જેમ જિનવચન શ્રેષ્ઠ છે, શુદ્ધિમાં જેમ સમ્યક્ત્વ શ્રેષ્ઠ | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्वरूपं, लाभं |
Gujarati | 49 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तिप्पुरिसनाडयम्मि वि न सा रई जह महत्थवित्थारे ।
जिनवयणम्मि विसाले हेउसहस्सोवगूढम्मि ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૯. વૈક્રિય લબ્ધિથી પોતાના પુરુષ રૂપોને વિકુર્વી દેવતાઓ જે નાટકો કરે છે, તેમાં તેઓ તે આનંદ મેળવી શકતા નથી, જે જિનવચનમાં રક્ત સંથારા આરૂઢ મહર્ષિ મેળવે છે. સૂત્ર– ૫૦. રાગ – દ્વેષમય પરિણામે કટુ જે વૈષયિક સુખોને ચક્રવર્તી અનુભવે છે, તે સંગદશાથી મુક્ત, વીતરાગ સાધુ ન અનુભવે (તેઓ કેવળ આત્મરમણતાના સુખ અનુભવે | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Gujarati | 88 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिजाणाई तिगुत्तो जावज्जीवाए सव्वमाहारं ।
संघसमवायमज्झे सागारं गुरुनिओगेणं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૮૮. ત્રણ ગુપ્તિથી ગુપ્ત એવો ક્ષપક સાધુ, જ્ઞ પરિજ્ઞાથી જાણી, જાવજ્જીવ માટે સર્વ આહારને સંઘ સમુદાયની મધ્યે ગુરુના આદેશથી સાગાર ત્યાગ કરે. સૂત્ર– ૮૯. અથવા સમાધિના હેતુથી તે પાનક આહાર કરે. પછીથી તે મુનિ ઉચિત કાળે પાનકને પણ વોસિરાવી દે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૮૮, ૮૯ | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
भावना |
Gujarati | 107 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इय तहविहारिणो से विग्घकरी वेयणा समुट्ठेइ ।
तीसे विज्झवणाए अणुसट्ठिं दिंती निज्जवया ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૦૭. આ અવસરે સંથારા આરૂઢ ક્ષપકને કદાચ વિઘ્નકારી વેદના ઉદયમાં આવે તો તેને શમાવવા માટે નિર્યામક આચાર્યમાં હિતશિક્ષા આપે છે. સૂત્ર– ૧૦૮. હે પુણ્ય પુરુષ ! આત્મામાં આરાધનાનો વિસ્તાર આરોપી પૂર્વકાલીન મુનિવરો, પર્વતના ભાગે પાદપોપગમ અનશન કરી કાયોત્સર્ગ – ધ્યાને રહેતા હતા.. સૂત્ર– ૧૦૯. વળી અત્યંત ધૃતિ – સંતોષ | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
भावना |
Gujarati | 112 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पोराणिय-पच्चुप्पन्निया उ अहियासिऊण वियणाओ ।
कम्मकलंकलवल्ली विहुणइ संथारमारूढो ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૧૨. સંથારે આરૂઢ ક્ષપક પૂર્વકાલિન કર્મોદયથી ઉત્પન્ન વેદના સમભાવે સહીને કર્મ કલંકની વેલડીને મૂળથી હલાવી દે છે. સૂત્ર– ૧૧૩. અજ્ઞાની જે કર્મ ઘણા કોટિ વર્ષોથી ખપાવે છે, તેને જ્ઞાની, ત્રણ રીતે ગુપ્ત, શ્વાસમાત્રમાં ખપાવે છે. સૂત્ર– ૧૧૪. બહુ ભાવોના સંચિત આઠ પ્રકારના કર્મોને તે જ્ઞાની ઉચ્છ્વાસમાત્રમાં ખપાવે | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
भावना |
Gujarati | 117 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संघो सइंदयाणं सदेव-मणुयाऽसुरम्मि लोगम्मि ।
दुल्लहतरो विसुद्धो, सुविसुद्धो सो महामउडो ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૧૬ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-३ | Hindi | 337 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– उदितोदिते नाममेगे, उदितत्थमिते नाममेगे, अत्थमितोदिते नाममेगे, अत्थमितत्थमिते नाममेगे।
भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी णं उदितोदिते, बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी उदितत्थमिते, हरिएसबले णं अनगारे अत्थमितोदिते, काले णं सोयरिये अत्थमितत्थमिते। Translated Sutra: पुरुष वर्ग चार प्रकार का है। यथा – उदितोदित – यहाँ भी उदय (समृद्ध) और आगे भी उदय (परम सुख) है। उदितास्तमित – यहाँ उदय है किन्तु आगे उदय नहीं। अस्तमितोदित – यहाँ उदय नहीं है किन्तु आगे उदय है। अस्त – मितास्तमित – यहाँ भी और आगे भी उदय नहीं है। भरत चक्रवर्ती उदितोदित है; ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती उदितास्तमित हैं; हरिकेशबल | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 644 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तविधे कायकिलेसे पन्नत्ते, तं जहा– ठाणातिए, उक्कुडुयासणिए, पडिमठाई, वीरासणिए, नेसज्जिए, दंडायतिए, लगंडसाई। Translated Sutra: कायक्लेश सात प्रकार का कहा गया है, यथा – स्थानातिग – कायोत्सर्ग करने वाला। उत्कटुकासनिक – उकडु बैठने वाला। प्रतिमास्थायी – भिक्षु प्रतिमा का वहन करने वाला। वीरासनिक – सिंहासन पर बैठने वाले के समान बैठना। नैषधिक – पैर आदि स्थिर करके बैठना। दंडायतिक – दण्ड के समान पैर फैलाकर बैठना। लगंड – शायी – वक्र काष्ठ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-२ |
उद्देशक-१ | Hindi | 75 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव। अब्भंतरए कम्मए, बाहिरए वेउव्विए।
देवाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तं– अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव। अब्भंतरए कम्मए, बाहिरए वेउव्विए
पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव। अब्भंतरगे कम्मए, बाहिरगे ओरालिए जाव वणस्सइकाइयाणं।
बेइंदियाणं दो सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव। अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणितबद्धे बाहिरगे ओरालिए।
तेइंदियाणं दो सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव। अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणितबद्धे बाहिरगे ओरालिए।
चउरिंदियाणं Translated Sutra: नैरयिक जीवों के दो शरीर कहे गए हैं, यथा – आभ्यन्तर और बाह्य। कार्मण आभ्यन्तर हैं और वैक्रिय बाह्य शरीर हैं। देवताओं के शरीर भी इसी तरह कहने चाहिए। पृथ्वीकायिक जीवों के दो शरीर कहे गए हैं, यथा – आभ्यन्तर और बाह्य। कार्मण आभ्यन्तर हैं और औदारिक बाह्य हैं। वनस्पतिकायिक जीव पर्यन्त ऐसा समझना चाहिए। द्वीन्द्रिय | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-३ | Hindi | 346 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउहिं ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, तं जहा– अरहंतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं, अरहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे, जायतेजे वोच्छिज्जमाणे।
चउहिं ठाणेहिं लोउज्जोते सिया, तं जहा– अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं नाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु।
चउहिं ठाणेहिं देवगंधारे सिया, तं जहा–अरहंतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं, अरहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्ज-माणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे, जायतेजे वोच्छिज्जमाणे।
चउहिं ठाणेहिं देवुज्जोते सिया, तं जहा– अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं नाणुप्पायमहिमासु, Translated Sutra: लोक में अन्धकार चार कारणों से होता है। यथा – अर्हन्तों के मोक्ष जाने पर, अर्हन्त कथित धर्म के लुप्त होने पर, पूर्वों का ज्ञान नष्ट होने पर, अग्नि न रहने पर। लोक में उद्योत चार कारणों से होता है। यथा – अर्हन्तों के जन्म समय में, अर्हन्तों के प्रव्रजित होते समय, अर्हन्तों के केवलज्ञान महोत्सव में, अर्हन्तों के | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१ |
Hindi | 17 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरएणं। Translated Sutra: प्रत्येक शरीर नामकर्म के उदय से होने वाले शरीर में जीव एक है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१ |
Hindi | 51 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगा नेरइयाणं वग्गणा।
एगा असुरकुमाराणं वग्गणा।
एगा नागकुमाराणं वग्गणा।
एगा सुवण्णकुमाराणं वग्गणा।
एगा विज्जुकुमाराणं वग्गणा।
एगा अग्गिकुमाराणं वग्गणा।
एगा दीवकुमाराणं वग्गणा।
एगा उदहिकुमाराणं वग्गणा।
एगा दिसाकुमाराणं वग्गणा।
एगा वायुकुमाराणं वग्गणा।
एगा थणियकुमाराणं वग्गणा।
एगा पुढविकाइयाणं वग्गणा।
एगा आउकाइयाणं वग्गणा।
एगा तेउकाइयाणं वग्गणा।
एगा वाउकाइयाणं वग्गणा।
एगा वणस्सइकाइयाणं वग्गणा।
एगा बेइंदियाणं वग्गणा।
एगा तेइंदियाणं वग्गणा।
एगा चउरिंदियाणं वग्गया।
एगा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वग्गणा।
एगा मनुस्साणं वग्गणा।
एगा वाणमंतराणं वग्गणा।
एगा Translated Sutra: नारकीय के जीवों की वर्गणा एक है। असुरकुमारों की वर्गणा एक है, यावत् – वैमानिक देवों की वर्गणा एक है भव्य जीवों की वर्गणा एक है। अभव्य जीवों की वर्गणा एक है। भव्य नरक जीवों की वर्गणा एक है। अभव्य नरक जीवों की वर्गणा एक है। इस प्रकार – यावत् – भव्य वैमानिक देवों की वर्गणा एक है। अभव्य वैमानिक देवों की वर्गणा | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-२ |
उद्देशक-१ | Hindi | 68 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुविहे उम्माए पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे चेव, मोहनिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं। तत्थ णं जे से जक्खाएसे, से णं सुहवेयतराए चेव, सुहविमोयतराए चेव। तत्थ णं जे से मोहनिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, से णं दुहवेयतराए चेव, दुहविमोयतराए चेव। Translated Sutra: उन्माद दो प्रकार का कहा गया है, यथा – यक्ष के प्रवेश से होने वाला, मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला। इसमें जो यक्षावेश उन्माद है उसका सरलता से वेदन हो सकता है। तथा जो मोहनीय के उदय से होने वाला है उसका कठिनाई से वेदन होता है और उसे कठिनाई से ही दूर किया जा सकता है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-२ |
उद्देशक-४ | Hindi | 100 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा–पेज्जबंधे चेव, दोसबंधे चेव।
जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं बंधंति, तं जहा–रागेण चेव, दोसेण चेव।
जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं उदीरेंति, तं जहा–अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए।
जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं वेदेंति, तं जहा–अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए। जीवा णं दोहिं ठाणेहिं कम्मं निज्जरेति, तं जहा–अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए। Translated Sutra: दो राशियाँ कही गई हैं, यथा – जीव – राशि और अजीव – राशि। बंध दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा – राग – बंध और द्वेष – बंध। जीव दो प्रकार से पाप कर्म बाँधते हैं, यथा – राग से और द्वेष से। जीव दो प्रकार से पाप कर्मों की उदीरणा करते हैं, आभ्युपगमिक (स्वेच्छा से) वेदना से, औपक्रमिक (कर्मोदय वश) वेदना से। इसी तरह दो प्रकार से जीव | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-१ | Hindi | 137 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तिविहा मच्छा पन्नत्ता, तं जहा–अंडया, पोयया, संमुच्छिमा।
अंडया मच्छा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
पोतया मच्छा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
तिविहा पक्खी पन्नत्ता, तं जहा–अंडया, पोयया, संमुच्छिमा।
अंडया पक्खी तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
पोयया पक्खी तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
तिविहा उरपरिसप्पा पन्नत्ता, तं जहा–अंडया, पोयया, संमुच्छिमा।
अंडया उरपरिसप्पा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
पोयया उरपरिसप्पा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
तिविहा भुजपरिसप्पा Translated Sutra: मत्स्य (मच्छ) तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा अण्डे से उत्पन्न होने वाले, पोत से (बिना किसी आवरण के) पैदा होने वाले, सम्मूर्छिम (संयोग के बिना) स्वतः उत्पन्न होने वाले। अण्डज मत्स्य तीन प्रकार के हैं, यथा – स्त्री मत्स्य, पुरुष मत्स्य और नपुंसक मत्स्य। पोतज मत्स्य तीन प्रकार के हैं, यथा – स्त्री, पुरुष और नपुंसक। पक्षी | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 250 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नाममेगे उन्नते, उन्नते नाममेगे पनते, पनते नाममेगे उन्नते, पनते नाममेगे पनते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नामेगे उन्नते, उन्नते नाममेगे पनते, पनते नाममेगे उन्नते, पनते नाममेगे पनते।
चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते गाममेगे उन्नतपरिणते, उन्नते नाममेगे पनतपरिणते, पनते नाममेगे उन्नतपरिणते, पनते नाममेगे पनतपरिणते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणते, उन्नते नाममेगे पनतपरिणते, पनते नाममेगे उन्नतपरिणते, पनते नाममेगे पनतपरिणते।
चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते Translated Sutra: चार प्रकार के वृक्ष कहे गए हैं, यथा – कितनेक द्रव्य से भी ऊंचे और भाव से भी ऊंचे, कितनेक द्रव्य से ऊंचे किन्तु भाव से नीचे, कितनेक द्रव्य से नीचे किन्तु भाव से ऊंचे, कितनेक द्रव्य से भी नीचे और भाव से भी नीचे। इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा – कितनेक द्रव्य से ‘जाति से’ उन्नत और गुण से भी उन्नत इस प्रकार | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 261 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि ज्झाणा पन्नत्ता, तं जहा–अट्टे ज्झाणे, रोद्दे ज्झाणे, धम्मे ज्झाणे, सुक्के ज्झाणे।
अट्ट ज्झाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–
१. अमणुन्न-संपओग-संपउत्ते, तस्स विप्पओग-सति-समन्नागते यावि भवति।
२. मणुन्न-संपओग-संपउत्ते, तस्स अविप्पओग-सति-समन्नागते यावि भवति।
३. आतंक-संपओग-संपउत्ते, तस्स विप्पओग-सति-समन्नागते यावि भवति।
४. परिजुसित-काम-भोग-संपओग-संपउत्ते तस्स अविप्पओग-सति-समन्नागते यावि भवति।
अट्टस्स णं ज्झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा–कंदणता, सोयणता, तिप्पणता, परिदेवणता।
रोद्दे ज्झाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–हिंसानुबंधि, मोसानुबंधि, तेणानुबंधि, Translated Sutra: ध्यान चार प्रकार का है – आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान। आर्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा – अमनोज्ञ ‘अनिष्ट’ वस्तु की प्राप्ति होने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना। मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति होने पर वह दूर न हो उसकी चिन्ता करना। बीमारी होने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना। सेवित कामभोगों | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 289 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि कूडागारा पन्नत्ता, तं जहा– गुत्ते नामं एगे गुत्ते, गुत्ते नामं एगे अगुत्ते, अगुत्ते नामं एगे गुत्ते, अगुत्ते नामं एगे अगुत्ते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– गुत्ते नामं एगं गुत्ते, गुत्ते नामं एगे अगुत्ते, अगुत्ते नामं एगे गुत्ते, अगुत्ते नामं एगे अगुत्ते।
चत्तारि कूडागारसालाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– गुत्ता नाममेगा गुत्तदुवारा, गुत्ता नाममेगा अगुत्तदुवारा, अगुत्ता नाममेगा गुत्तदुवारा, अगुत्ता नाममेगा अगुत्तदुवारा।
एवामेव चत्तारित्थीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–गुत्ता नाममेगा गुत्तिंदिया, गुत्ता नाममेगा अगुत्तिंदिया, अगुत्ता नाममेगा गुत्तिंदिया, Translated Sutra: कूटागार गृह चार प्रकार के हैं – गुप्त प्राकार से आवृत्त और गुप्त द्वार वाला, गुप्त – प्राकार से आवृत्त किन्तु अगुप्त द्वार वाला, अगुप्त – प्राकार रहित किन्तु गुप्त द्वार वाला है। अगुप्त – प्राकार रहित है और अगुप्त द्वार वाला है। इसी प्रकार पुरुष वर्ग भी चार प्रकार का है। एक पुरुष गुप्त (वस्त्रावृत) है और गुप्तेन्द्रिय | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 311 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–संपागडपडिसेवी नाममेगे, पच्छन्नपडिसेवी नाममेगे, पडुप्पन्नणंदी नाममेगे, णिस्सरणणंदी नाममेगे।
चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–जइत्ता नाममेगा नो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता नाममेगा नो जइत्ता, एगा जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगा नो जइत्ता नो पराजिणित्ता।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–जइत्ता नाममेगे नो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता नाममेगे नो जइत्ता, एगे जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगे नो जइत्ता नो पराजिणित्ता।
चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–जइत्ता नाममेगा जयइ, जइत्ता नाममेगा पराजिणति, पराजिणित्ता नाममेगा जयइ, पराजिणित्ता Translated Sutra: पुरुष चार प्रकार के हैं। यथा – संप्रगट प्रतिसेवी – साधु समुदाय में रहने वाला एक साधु अगीतार्थ के समक्ष दोष सेवन करते हैं। प्रच्छन्नप्रतिसेवी – एक साधु प्रच्छन्न दोष सेवन करता है। प्रत्युत्पन्न नंदी – एक साधु वस्त्र या शिष्य के लाभ से आनन्द मनाता है। निःसरण नंदी – एक साधु गच्छ में से स्वयं के या शिष्य के नीकलने | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 366 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहा तिगिच्छा पन्नत्ता, तं जहा–विज्जो, ओसधाइं, आउरे, परियारए।
चत्तारि तिगिच्छगा पन्नत्ता, तं जहा–आततिगिच्छए नाममेगे नो परतिगिच्छए, परतिगिच्छए नाममेगे नो आततिगिच्छए, एगे आततिगिच्छएवि परतिगिच्छएवि, एगे नो आततिगिच्छए नो परतिगिच्छए।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–वणकरे नाममेगे नो वणपरिमासी, वणपरिमासी नाममेगे नो वणकरे, एगे वणकरेवि वणपरिमासीवि, एगे नो वणकरे नो वणपरिमासी।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–वणकरे नाममेगे नो वणसारक्खी, वणसारक्खी नाममेगे नो वणकरे, एगे वणकरेवि वणसारक्खीवि, एगे नो वणकरे नो वणसारक्खी।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–वणकरे Translated Sutra: चिकित्सक चार प्रकार के हैं। एक चिकित्सक स्वयं की चिकित्सा करता है किन्तु दूसरे की चिकित्सा नहीं करता है। एक चिकित्सक दूसरे की चिकित्सा करता है किन्तु स्वयं की चिकित्सा नहीं करता है। एक चिकित्सक स्वयं की भी चिकित्सा करता है और अन्य की भी चिकित्सा करता है। एक चिकित्सक न स्वयं की चिकित्सा करता है और न अन्य | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 376 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि मच्छा पन्नत्ता, तं जहा–अनुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी।
एवामेव चत्तारि भिक्खागा पन्नत्ता, तं जहा–अनुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी।
चत्तारि गोला पन्नत्ता, तं जहा–मधुसित्थगोले, जउगोले, दारुगोले, मट्टियागोले।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–मधुसित्थगोलसमाने, जउगोलसमाने, दारुगोलसमाने, मट्टियागोलसमाने।
चत्तारि गोला पन्नत्ता, तं जहा–अयगोले, तउगोले, तंबगोले, सीसगोले।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अयगोलसमाने, तउगोलसमाने, तंबगोलसमाने, सीसगोलसमाने।
चत्तारि गोला पन्नत्ता, तं जहा–हिरण्णगोले, सुवण्णगोले, रयणगोले, Translated Sutra: मत्स्य चार प्रकार के हैं। यथा – एक मत्स्य नदी के प्रवाह के अनुसार चलता है। एक मत्स्य नदी के प्रवाह के सन्मुख चलता है। एक मत्स्य नदी के प्रवाह के किनारे चलता है। एक मत्स्य नदी के प्रवाह के मध्य में चलता है। इसी प्रकार भिक्षु (श्रमण) चार प्रकार के हैं। यथा – एक भिक्षु उपाश्रय के समीप गृह से भिक्षा लेना प्रारम्भ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 379 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–निक्कट्ठे नाममेगे निक्कट्ठे, निक्कट्ठे नाममेगे अनिक्कट्ठे, अनिक्कट्ठे नाममेगे निक्कट्ठे, अनिक्कट्ठे नाममेगे अनिक्कट्ठे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–निक्कट्ठे नाममेगे णिक्कट्ठप्पा, निक्कट्ठे नाममेगे अणिक्कट्ठप्पा, अनिक्कट्ठे नाममेगे णिक्कट्ठप्पा, अनिक्कट्ठे नाममेगे अणिक्कट्ठप्पा।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–बुहे नाममेगे बुहे, बुहे नाममेगे अबुहे, अबुहे नाममेगे बुहे, अबुहे नाममेगे अबुहे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–बुधे नाममेगे बुधहियए, बुधे नाममेगे अबुधहियए, अबुधे नाममेगे बुधहियए, अबुधे नाममेगे Translated Sutra: पुरुष चार प्रकार के हैं। एक पुरुष पहले भी कृश है और पीछे भी कृश रहता है। एक पुरुष पहले कृश है किन्तु पीछे स्थूल हो जाता है। एक पुरुष पहले स्थूल है किन्तु पीछे कृश हो जाता है। एक पुरुष पहले भी स्थूल होता है और पीछे भी स्थूल ही रहता है। पुरुष चार प्रकार के हैं। एक पुरुष का शरीर कृश है और उसके कषाय भी कृश (अल्प) है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 383 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि सण्णाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा।
[सूत्र] चउहिं ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा– ओमकोट्ठताए, छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।
[सूत्र] चउहिं ठाणेहिं भयसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा– हीनसत्तताए, भयवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठो-वओगेणं।
[सूत्र] चउहिं ठाणेहिं मेहुणसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा– चितमंससोणिययाए, मोहनिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।
[सूत्र] चउहिं ठाणेहिं परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा– अविमुत्तयाए, लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं। Translated Sutra: संज्ञा चार प्रकार की है। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा। चार कारणों से आहार संज्ञा होती है। यथा – पेट खाली होने से। क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से। खाद्य पदार्थों की चर्चा सूनने से। निरन्तर भोजन की ईच्छा करने से। चार कारणों से भय संज्ञा होती है। यथा – अल्पशक्ति होने से। भयवेदनीय कर्म के | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 385 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि उदगा पन्नत्ता, तं जहा–उत्ताणे नाममेगे उत्ताणोदए, उत्ताणे नाममेगे गंभीरोदए, गंभीरे नाममेगे उत्ताणोदए, गंभीरे नाममेगे गंभीरोदए।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–उत्ताणे नाममेगे उत्ताणहिदए, उत्ताणे नाममेगे गंभीरहिदए, गंभीरे नाममेगे उत्ताणहिदए, गंभीरे नाममेगे गंभीरहिदए।
चत्तारि उदगा पन्नत्ता, तं जहा–उत्ताणे नाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे नाममेगे गंभीरोभासी, गंभीरे नाममेगे उत्ताणोभासी, गंभीरे नाममेगे गंभीरोभासी।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–उत्ताणे नाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे नाममेगे गंभीरोभासी, गंभीरे नाममेगे उत्ताणोभासी, Translated Sutra: पानी चार प्रकार के हैं। यथा – एक पानी थोड़ा गहरा है किन्तु स्वच्छ है। एक पानी थोड़ा गहरा है किन्तु मलिन है। एक पानी बहुत गहरा है किन्तु स्वच्छ है। एक पानी बहुत गहरा है किन्तु मलिन है। इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के हैं। यथा – एक पुरुष बाह्य चेष्टाओं से तुच्छ है और तुच्छ हृदय है। एक पुरुष बाह्य चेष्टाओं से तो | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 387 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तं जहा– पुण्णे नाममेगे पुण्णे, पुण्णे नाममेगे तुच्छे, तुच्छे नाममेगे पुण्णे, तुच्छे नाममेगे तुच्छे।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– पुण्णे नाममेगे पुण्णे, पुण्णे नाममेगे तुच्छे, तुच्छे नाममेगे पुण्णे, तुच्छे नाममेगे तुच्छे।
चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तं जहा– पुण्णे नाममेगे पुण्णोभासी, पुण्णे नाममेगे तुच्छोभासी, तुच्छे नाममेगे पुण्णोभासी, तुच्छे नाममेगे तुच्छोभासी।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–पुण्णे नाममेगे पुण्णोभासी, पुण्णे नाममेगे तुच्छोभासी, तुच्छे नाममेगे पुण्णो भासी, तुच्छे नाममेगे तुच्छोभासी।
चत्तारि Translated Sutra: कुम्भ चार प्रकार के हैं। यथा – एक कुम्भ पूर्ण (टूटा – पूटा) नहीं है और पूर्ण (मधु से भरा हुआ) है। एक कुम्भ पूर्ण है, किन्तु खाली है। एक कुम्भ पूर्ण (मधु से भरा हुआ) है किन्तु अपूर्ण (टूटा – फूटा) है। एक कुम्भ अपूर्ण (टूटा – फूटा) है और अपूर्ण (खाली है)। इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के हैं। एक पुरुष जात्यादि गुण से पूर्ण | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 388 | Gatha | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] हिययमपावकलुसं, जीहाऽवि य महुरभासिणीनिच्चं ।
जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे मधुपिहाणे ॥ Translated Sutra: जिस पुरुष का हृदय निष्पाप एवं निर्मल है और जिसकी जिह्वा भी सदा मधुर भाषिणी है उस पुरुष को मधु ढक्कन वाले मधु कुम्भ की उपमा दी जाती है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 389 | Gatha | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] हिययमपावकलुसं, जीहाऽवि य कडुयभासिणीनिच्चं ।
जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥ Translated Sutra: जिस पुरुष का हृदय निष्पाप एवं निर्मल है किन्तु उसकी जिह्वा सदा कटुभाषिणी है तो उस पुरुष को विष पूरित ढक्कन वाले मधु कुम्भ की उपमा दी जाती है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 390 | Gatha | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जं हिययं कलुसमयं, जीहाऽवि य मधुरभासिणीनिच्चं ।
जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे महुपिहाणे ॥ Translated Sutra: जो पापी एवं मलिन हृदय है और जिसकी जिह्वा सदा मधुर भाषिणी है उस पुरुष को मधुपूरित ढक्कन वाले विष कुम्भ की उपमा दी जाती है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 391 | Gatha | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जं हिययं कलुसमयं, जीहाऽवि य कडुयभासिणीनिच्चं ।
जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे विसपिहाणे ॥ Translated Sutra: जो पापी एवं मलिन हृदय है और जिसकी जिह्वा सदा कटुभाषिणी है उस पुरुष को विषपूरित ढक्कन वाले विष कुम्भ की उपमा दी जाती है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 393 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहे कम्मे पन्नत्ते, तं जहा–सुभे नाममेगे सुभे, सुभे नाममेगे असुभे, असुभे नाममेगे सुभे, असुभे नाममेगे असुभे।
चउव्विहे कम्मे पन्नत्ते, तं जहा– सुभे नाममेगे सुभविवागे, सुभे नाममेगे असुभविवागे, असुभे नाममेगे सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे।
चउव्विहे कम्मे पन्नत्ते, तं जहा– पगडीकम्मे, ठितीकम्मे, अनुभावकम्मे, पदेसकम्मे। Translated Sutra: कर्म चार प्रकार के हैं। यथा – एक कर्म प्रकृति शुभ है और उसका हेतु भी शुभ है। एक कर्म प्रकृति शुभ है किन्तु उसका हेतु अशुभ है। एक कर्म प्रकृति अशुभ है किन्तु उसका हेतु शुभ है। एक कर्म प्रकृति अशुभ है और उसका हेतु भी अशुभ है। कर्म चार प्रकार के हैं। यथा – एक कर्म प्रकृति का बंध शुभ रूप में हुआ और उसका उदय भी शुभ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Hindi | 430 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा– दुआइक्खं, दुव्विभज्जं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं।
पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा–सुआइक्खं, सुविभज्जं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरनुचरं।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चमब्भणुण्णाताइं भवंति, तं जहा–खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं Translated Sutra: पाँच कारणों से प्रथम और अन्तिम जिन का उपदेश उनके शिष्यों को उन्हें समझने में कठिनाई होती है। दुराख्येय – आयास साध्य व्याख्या युक्त। दुर्विभजन – विभाग करने में कष्ट होता है। दुर्दर्श – कठिनाई से समझ में आता है। दुःसह – परीषह सहन करने में कठिनाई होती है। दुरनुचर – जिनाज्ञानुसार आचरण करने में कठिनाई होती है। पाँच | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Hindi | 431 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं निच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तित्ताइं निच्चं
बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं भवंति, तं जहा– अरसजीवी, विरसजीवी, अंतजीवी,
पंतजीवी, लूहजीवी।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं निच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं भवंति, तं जहा– ठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, वीरासनिए, नेसज्जिए।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं निच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं Translated Sutra: पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ की महानिर्जरा और महापर्यवसान – मुक्ति होती है। यथा – ग्लानि के बिना आचार्य की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना उपाध्याय की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना स्थविर की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना तपस्वी की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना ग्लान की सेवा करने वाला। पाँच कारणों से श्रमण | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Hindi | 443 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे णं उदिण्णे परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खीज्जा अहियासेज्जा, तं जहा–
१. उदिण्णकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूते। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा निच्छोडेति वा निब्भंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा नेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिदंति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा अवहरति वा।
२. जक्खाइट्ठे खलु अयं पुरिसे। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा निच्छोडेति वा निब्भंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा नेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा Translated Sutra: पाँच कारणों से छद्मस्थजीव (साधु) उदय में आये हुए परीषहों और उपसर्गों को – समभाव से सहन करता है। समभाव से क्षमा करता है। समभाव से तितिक्षा करता है। समभाव से निश्चल होता है। समभाव से विचलित होता है वह इस प्रकार है। कर्मोदय से यह पुरुष उन्मत्त है इसलिए – मुझे आक्रोशवचन बोलता है। दुर्वचनों से मेरी भर्त्सना करता | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-३ | Hindi | 490 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंच पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते, उदयनसत्ते। Translated Sutra: पुरुष पाँच प्रकार के हैं, यथा – ह्री सत्व – लज्जा से धैर्य रखने वाला, ह्री मन सत्व – लज्जा से मन में धैर्य रखने वाला, चल सत्व – अस्थिर चित्त वाला, स्थिर सत्व – स्थिर चित्त वाला, उदात्त सत्व – बढ़ते हुए धैर्य वाला। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-६ |
Hindi | 548 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आतंके उवसग्गे, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए ।
पाणिदया-तवहेउं, सरीरवुच्छेयणट्ठाए ॥ Translated Sutra: आतंक – ज्वरादि की शांति के लिए, उपसर्ग – राजा या स्वजनों द्वारा उपसर्ग किये जाने पर, तितिक्षा – सहिष्णु बनने के लिए, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, प्राणियों की रक्षा के लिए, शरीर त्यागने के लिए। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-६ |
Hindi | 549 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] छहिं ठाणेहिं आया उम्मायं पाउणेज्जा, तं जहा–अरहंताणं अवण्णं वदमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वदमाणे, आयरिय-उवज्झायाणं अवण्णं वदमाणे, चाउव्वण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे, जक्खावेसेण चेव, मोहनिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं। Translated Sutra: छ कारणों से आत्मा उन्माद को प्राप्त होता है, यथा – अर्हन्तों का अवर्णवाद बोलने पर, अर्हन्त प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद बोलने पर, आचार्य और उपाध्यायों के अवर्णवाद बोलने पर, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद बोलने पर, यक्षाविष्ट होने पर, मोहनीय कर्म का उदय होने पर। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 605 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सज्जे रिसभे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे ।
धेवते चेव नेसादे, सरा सत्त वियाहिता ॥ Translated Sutra: षड्ज, रिसभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद। षड्ज – १. नासा, २. कंठ, ३. हृदय, ४. जीभ, ५. दाँत और ६. तालु इन छः स्थानों से उत्पन्न होने वाला स्वर। रिषभ – बैल (साँड़) के समान गंभीर स्वर। गांधार – विविध प्रकार के गंधों से युक्त स्वर। मध्यम – महानाद वाला स्वर। पंचम – नासिकाओं से नीकलने वाला स्वर। धैवत – अन्य स्वरों से अनुसंधान | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 607 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सज्जं तु अग्गजिब्भाए, उरेण रिसभं सरं ।
कंठुग्गतेण गंधारं, मज्झजिब्भाए मज्झिमं ॥ Translated Sutra: षड्ज स्वर जिह्वा के अग्रभाग से नीकलने वाला स्वर। ऋषभ स्वर हृदय से नीकलता है। गांधार स्वर उग्र कंठ से नीकलता है। मध्यम स्वर जिह्वा के मध्य भाग से नीकलता है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 702 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्ठहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु नो आलोएज्जा, नो पडिक्कमेज्जा, नो निंदेज्जा नो गरिहेज्जा, नो विउट्टेज्जा, नो विसोहेज्जा, नो अकरणयाए अब्भुट्ठेज्जा, नो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिव-ज्जेज्जा, तं जहा– करिंसु वाहं, करेमि वाहं, करिस्सामि वाहं, अकित्ती वा मे सिया, अवण्णे वा मे सिया, अविनए वा मे सिया, कित्ती वा मे परिहाइस्सइ, जसे वा मे परिहाइस्सइ
अट्ठहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, निंदेज्जा, गरिहेज्जा, विउट्टेज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुट्ठेज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, तं जहा–
१. मायिस्स णं अस्सिं लोए गरहिते भवति।
२. उववाए Translated Sutra: आठ कारणों से मायावी माया करके न आलोयणा करता है, न प्रतिक्रमण करता है, यावत् – न प्रायश्चित्त स्वीकारता है, यथा – मैंने पापकर्म किया है अब मैं उस पाप की निन्दा कैसे करूँ ? मैं वर्तमान में भी पाप करता हूँ अतः मैं पाप की आलोचना कैसे करूँ ? मैं भविष्य में भी यह पाप करूँगा – अतः मैं आलोचना कैसे करूँ ? मेरी अपकीर्ति होगी | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 732 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणेणं भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे भवेत्ता अगाराओ अनगारितं पव्वाइया, तं जहा–
वीरगए वीरजसे, संजय एणिज्जए य रायरिसी, सेये सिवे उद्दायने, तह संखे कासिवद्धने । Translated Sutra: भगवान महावीर से मुण्डित होकर आठ राजा प्रव्रजित हुए। यथा – वीरांगद, क्षीरयश, संजय, एणेयक, श्वेत, शिव, उदायन, शंख। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-९ |
Hindi | 870 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्थंसि नवहिं जीवेहिं तित्थगरनामगोत्ते कम्मे निव्वत्तिते, तं जहा–सेणिएणं, सुपासेणं, उदाइणा, पोट्टिलेणं अनगारेणं, दढाउणा, संखेणं, सतएणं, सुलसाए सावियाए, रेवतीए। Translated Sutra: भगवान महावीर के तीर्थ में नौ जीवों ने तीर्थंकरगोत्र नामकर्म का उपार्जन किया, श्रेणिक, सुपार्श्व, उदायन, पोटिलमुनि, दृढ़ायु, शंख, शतक, सुलसा, रेवती। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-९ |
Hindi | 872 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं अज्जो! सेणिए राया भिंभिसारे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सीमंतए नरए चउरासीतिवाससहस्सट्ठितीयंसि णिरयंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति। से णं तत्थ नेरइए भविस्सति– काले कालोभासे गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकिण्हे वण्णेणं। से णं तत्थ वेयणं वेदिहिती उज्जलं तिउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं दिव्वं दुरहियासं।
से णं ततो नरयाओ उव्वट्टेत्ता आगमेसाए उस्सप्पिणीए इहेव जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले पुंडेसु जनवएसु सतदुवारे णगरे संमुइस्स कुलकरस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुमत्ताए पच्चायाहिति।
तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं Translated Sutra: हे आर्य ! यह श्रेणिक राजा मरकर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सीमंतक नरकावास में चौरासी हजार वर्ष की नारकीय स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उत्पन्न होगा और अति तीव्र यावत् – असह्य वेदना भोगेगा। यह उस नरक से नीकलकर आगामी उत्सर्पिणी में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वैताढ्यपर्वत के समीप पुण्ड्र जनपद के शतद्वार | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-९ |
Hindi | 873 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कंसे संखे जीवे गगणे वाते य सारए सलिले ।
पुक्खरपत्ते कुम्मे विहगे खग्गे य भारंडे ॥ Translated Sutra: कांस्यपात्र के समान अलिप्त, शंख के समान निर्मल, जीव के समान अप्रतिहत गति, गगन के समान आलम्बन रहित, वायु के समान अप्रतिबद्ध विहारी, शरद ऋतु के जल के समान स्वच्छ हृदय वाले, पद्मपत्र के समान अलिप्त, कूर्म के समान गुप्तेन्द्रिय, पक्षी के समान एकाकी, गेंडा के सींग के समान एकाकी, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त, हाथी के | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१० |
Hindi | 942 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दसविधे सच्चामोसे पन्नत्ते, तं जहा–उप्पन्नमीसए, विगतमीसए, उप्पन्नविगतमीसए, जीवमीसए, अजीवमीसए जीवाजीवमीसए, अनंतमीसए, परित्तमीसए, अद्धामीसए, अद्धद्धामीसए। Translated Sutra: सत्यमृषा (मिश्र वचन) दस प्रकार का है, यथा – उत्पन्न मिश्रक – सही संख्या मालूम न होने पर भी ‘इस शहर में दस बच्चे पैदा हुए हैं’ ऐसा कहना। विगत मिश्रक – जन्म के समान मरण के सम्बन्ध में कहना। उत्पन्न विगत मिश्रक – सही संख्या प्राप्त न होने पर भी इसी गाँव में दस बालक जन्मे हैं और दस वृद्ध मरे हैं। इस प्रकार कहना। जीव | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-१ |
Gujarati | 3 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे दंडे। Translated Sutra: સૂત્ર– ૩. દંડ એક છે...(આત્મા જે ક્રિયાથી દંડાય તેને દંડ કહે છે.) સૂત્ર– ૪. ક્રિયા એક છે...(કરવું તે ક્રિયા, તેના કાયિકી આદિ અનેક ભેદો છે.) સૂત્ર– ૫. લોક એક છે... (જ્યાં ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યો રહેલા છે, તેને લોક કહે છે.) સૂત્ર– ૬. અલોક એક છે...(જ્યાં ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યો ન હોય, તેને અલોક કહે છે.) સૂત્ર સંદર્ભ– ૩–૬ |