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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 7 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति। Translated Sutra: देखो सूत्र ६ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 8 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अनुदिसाओ वा अनुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ सहेति। Translated Sutra: यह पुरुष, जो अपरिज्ञातकर्मा है वह इन दिशाओं व अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है। अपने कृत – कर्मों के साथ सब दिशाओं/अनुदिशाओं में जाता है। अनेक प्रकार की जीव – योनियों को प्राप्त होता है। वहाँ विविध प्रकार के स्पर्शों का अनुभव करता है। इस सम्बन्धमें भगवान् ने परिज्ञा विवेक का उपदेश किया है। सूत्र – ८–१० | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 9 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे य पडिसंवेदेइ। Translated Sutra: देखो सूत्र ८ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 10 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। Translated Sutra: देखो सूत्र ८ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 11 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं। Translated Sutra: अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा व यश के लिए, सम्मान की प्राप्ति के लिए, पूजा आदि पाने के लिए, जन्म – सन्तान आदि के जन्म पर, अथवा स्वयं के जन्म निमित्त से, मरण – सम्बन्धी कारणों व प्रसंगों पर, मुक्ति के प्रेरणा या लालसा से, दुःख के प्रतीकार हेतु – रोग, आतंक, उपद्रव आदि मिटाने के लिए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 12 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति। Translated Sutra: लोक में (उक्त हेतुओं से होने वाले) ये सब कर्मसमारंभ के हेतु जानने योग्य और त्यागने योग्य होते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 13 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्सेते लोगंसि कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: लोक में ये जो कर्मसमारंभ के हेतु हैं, इन्हें जो जान लेता है वही परिज्ञातकर्मा मुनि होता है। ऐसा मैं कहता हूँ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 14 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए।
अस्सिं लोए पव्वहिए।
तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति। Translated Sutra: जो मनुष्य आतै है, वह ज्ञान दर्शन से परिजीर्ण रहता है। क्योंकि वह अज्ञानी जो है। अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा – पीड़ा का अनुभव करता है। काम, भोग व सुख के लिए आतुर बने प्राणी स्थान – स्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप देते रहते हैं। यह तू देख ! समझ ! | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 15 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संति पाणा पुढो सिया। लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति। Translated Sutra: पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक् – पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं। तू देख ! आत्मसाधक, लज्जमान है – (हिंसा से स्वयं को संकोच करता हुआ संयममय जीवन जीता है।) कुछ साधु वेषधारी ‘हम गृहत्यागी हैं’ ऐसा कथन करते हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीसम्बन्धी हिंसा – क्रिया में लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 16 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव पुढवि-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा पुढवि-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा पुढवि-सत्थं समारंभंते
समणुजाणइ। Translated Sutra: इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है। कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा – सम्मान और पूजा के लिए, जन्म – मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 17 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं सत्थेहिं’ पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमब्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमब्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमब्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमब्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, Translated Sutra: वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। उसकी अबोधि के लिए होती है। वह साधक हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, संयम – साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सूनकर यह ज्ञात होता है कि, ‘यह जीव हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।’ (फिर भी) जो मनुष्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 18 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं पुढवि-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवण्णे
पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते पुढवि-कम्म-समारंभा परिण्णाता भवंति,
से हु मुनी परिण्णात-कम्मे। Translated Sutra: जो पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता, वह वास्तव में इन आरंभों का ज्ञाता है। यह (पृथ्वीकायिक जीवों की अव्यक्त वेदना) जानकर बुद्धिमान मनुष्य न स्वयं पृथ्वीकाय का समारंभ करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय का समारंभ करवाए और न उसका समारंभ करने वाले का अनुमोदन करे। जिसने पृथ्वीकाय सम्बन्धी समारंभ को जान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 19 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–से जहावि अनगारे उज्जुकडे, णियागपडिवण्णे, अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – जिस आचरण से अनगार होता है। जो ऋजुकृत् हो, नियाग – प्रतिपन्न – मोक्ष मार्ग के प्रति एकनिष्ठ होकर चलता हो, कपट रहित हो। जिस श्रद्धा के साथ संयम – पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे। विस्रोत – सिका – अर्थात् लक्ष्य के प्रति शंका व चित्त की चंचलता के प्रवाहमें न बहें, शंका का त्याग | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 20 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेवअणुपालिया। विजहित्तु विसोत्तियं। Translated Sutra: देखो सूत्र १९ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 40 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं नो करिस्सामि समुट्ठाए । मंता मइमं अभयं विदित्ता। तं जे नो करए एसोवरए, एत्थोवरए एस अनगारेत्ति पवुच्चइ। Translated Sutra: मैं संयम अंगीकार करके वह हिंसा नहीं करूँगा। बुद्धिमान संयम में स्थिर होकर मनन करे और ‘प्रत्येक जीव अभय चाहता है’ यह जानकर (हिंसा न करे) जो हिंसा नहीं करता, वही व्रती है। इस अर्हत् – शासन में जो व्रती है, वह अनगार है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 41 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे। Translated Sutra: जो गुण (विषय) है, वह आवर्त/संसार है। जो आवर्त है वह गुण है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 42 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अड्ढं अहं तिरियं पाईणं ‘पासमाणे रूवाइं पासति’, ‘सुणमाणे सद्दाइं सुणेति’। Translated Sutra: ऊंचे, नीचे, तीरछे, सामने देखने वाला रूपों को देखता है। सूनने वाला शब्दों को सूनता है। ऊंचे, नीचे, तीरछे, विद्यमान वस्तुओं में आसक्ति करने वाला, रूपों में मूर्च्छित होता है, शब्दों में मूर्च्छित होता है। यह (आसक्ति) ही संसार है। जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है। इन्द्रिय एवं मन से असंयत है, वह आज्ञा – धर्म – | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 43 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उड्ढं अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि।
एस लोए वियाहिए।
एत्थ अगुत्ते अणाणाए। Translated Sutra: देखो सूत्र ४२ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 44 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुणो-पुनो गुणासाए, वंकसमायारे। Translated Sutra: जो बार – बार विषयों का आस्वाद करता है, उनका भोग – उपभोग करता है, वह वक्रसमाचार अर्थात् असंयममय जीवनवाला है। वह प्रमत्त है तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। सूत्र – ४४, ४५ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 45 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: पमत्ते गारमावसे। Translated Sutra: देखो सूत्र ४४ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 46 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वगेणरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाती-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव वणस्सइ-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा वणस्सइ-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवओ, अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं Translated Sutra: तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं। ‘हम गृहत्यागी हैं’, यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं। वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। इस विषयमें भगवान ने परिज्ञा की है – इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 47 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे। (जाव) अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि–इमंपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं। इमंपि बुड्ढिधम्मयं, एयंपि बुड्ढिधम्मयं। इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं। इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति। इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं। इमंपि अनिच्चयं, एयंपि अनिच्चयं। इमंपि असासयं, एयंपि असासयं। इमंपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं। इमंपि विपरिनामधम्मयं, एयंपि विपरिनामधम्मयं। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – यह मनुष्य भी जन्म लेता है, यह वनस्पति भी जन्म लेती है। यह मनुष्य भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य भी चेतना युक्त है, यह वनस्पति भी चेतना युक्त है। यह मनुष्य शरीर छिन्न होने पर म्लान हो जाता है। यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है। यह मनुष्य भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 48 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी– नेव सयं वणस्सइ-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं वणस्सइ-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेवणस्सइ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते वणस्सइ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ करता है, वह उन आरंभो/आरंभजन्य कटुफलों से अनजान रहता है। जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उसके लिए आरंभ परिज्ञात है। यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारंभ न करे, न दूसरों से समारंभ करवाए और न समारंभ करने वालों का अनुमोदन करे जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 49 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–संतिमे तसा पाणा, तं जहा–अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया ओव-वाइया।
एस संसारेत्ति पवुच्चति। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – ये सब त्रस प्राणी हैं, जैसे – अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्च्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक। यह संसार कहा जाता है। मंद तथा अज्ञानी जीव को यह संसार होता है। मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देखकर कहता हूँ – प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण चाहता है। सूत्र – ४९, ५० | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 21 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पणया वीरा महावीहिं। Translated Sutra: वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत – अर्थात् समर्पित होते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 22 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं। Translated Sutra: मुनि की आज्ञा से लोक को – अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप जानकर उन्हें अकुतोभय बना दे। संयत रहे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 23 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि– नेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा।
जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – मुनि स्वयं, लोक – अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप न करे। न अपनी आत्मा का अपलाप करे। जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में अपना ही अपलाप करता है। जो अपना अपलाप करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 24 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे
विहिंसति।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव उदय-सत्थं समारंभति, अन्नेहिं वा उदय-सत्थं समारंभावेति, अन्ने वा उदय-सत्थं समारंभंते समणुजाणति।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं सुबंज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं Translated Sutra: तू देख ! सच्चे साधक हिंसा (अप्काय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो अपने आपको ‘अनगार’ घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों द्वारा जल सम्बन्धी आरंभ – समारंभ करते हुए जल – काय के जीवों की हिंसा करते हैं। और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं। इस विषय में भगवान ने परिज्ञा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 25 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह च खलु भो! अनगाराणं उदय-जीवा वियाहिया।
सत्थं चेत्थ अणुवीइ पासा। Translated Sutra: हे मनुष्य ! इस अनगार – धर्म में, जल को ‘जीव’ कहा है। जलकाय के जो शस्त्र हैं, उन पर चिन्तन करके देख | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 26 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘पुढो सत्थं’ पवेइयं। Translated Sutra: भगवान ने जलकाय के अनेक शस्त्र बताए हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 27 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अदुवा अदिन्नादानं। Translated Sutra: जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान भी है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 28 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए। Translated Sutra: हमें कल्पता है। अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के लिए जल ले सकते हैं। ‘हम पीने तथा नहाने के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 29 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढो सत्थेहिं विउट्टंति। Translated Sutra: इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 30 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थवि तेसिं नो णिकरणाए। Translated Sutra: अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय ही हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 31 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं उदय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं उदय-सत्थं समारंभावेज्जा, उदय-सत्थं समारंभंतेवि अन्ने न समणुजाणेज्जा।
जस्सेते उदय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति,
से हु मुनी परिण्णात-कम्मे। Translated Sutra: जो यहाँ, शस्त्र – प्रयोग कर जलकाय के जीवों का समारम्भ करता है, वह इन आरंभों से अनभिज्ञ है। जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र – प्रयोग नहीं करता, वह आरंभों का ज्ञाता है, वह हिंसा – दोष से मुक्त होता है। बुद्धिमान मनुष्य यह जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करे, दूसरों से न करवाए, उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसको | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 32 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से बेमि’–नेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं अब्भाइक्खवइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – वह कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का, अपलाप न करे। न अपनी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करे। क्योंकि जो लोक (अग्निकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 33 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे। जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे। Translated Sutra: जो दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है, वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक – शस्त्र का स्वरूप भी जानता है। | |||||||||
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उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 34 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वीरेहिं एयं अभिभूय दिट्ठं, संजतेहिं सया जतेहिं सया अप्पमत्तेहिं। Translated Sutra: वीरों ने, ज्ञान – दर्शनावरण आदि कर्मों को विजय कर यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है। वे वीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। | |||||||||
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उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 35 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पवुच्चति। Translated Sutra: जो प्रमत्त है, गुणों का अर्थी है, वह हिंसक कहलाता है। यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे) – अब मैं वह (हिंसा) नहीं करूँगा जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। सूत्र – ३५, ३६ | |||||||||
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उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 36 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं परिण्णाय मेहावी इयाणिं नो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं। Translated Sutra: देखो सूत्र ३५ | |||||||||
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उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 37 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे, अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति। तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव अगणि-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा अगणि-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा अगणि-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेहिं नायं भवति– एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए। इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं विरूवरूवेहिं Translated Sutra: तू देख ! संयमी पुरुष जीव – हिंसा में लज्जा का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो हम ‘अनगार हैं’ यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय की हिंसा करते हैं। अग्निकाय के जीवों की हिंसा करते हुए अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। इस विषय में भगवान ने परिज्ञा का निरूपण किया है। कुछ मनुष्य इस | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 38 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि– अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।(जाव)
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि– संति पाणा पुढवि- निस्सिया, तण- निस्सिया, पत्त- निस्सिया, कट्ठ- निस्सिया, गोमय- निस्सिया, कयवर- निस्सिया। संति संपातिमा पाणा, आहच्च संपयंति य। अगणिं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जंति। जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति। जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायंति। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – बहुत से प्राणी – पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कूड़ा – कचरा आदि के आश्रित रहते हैं। कुछ सँपातिम प्राणी होते हैं जो उड़ते – उड़ते नीचे गिर जाते हैं। ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त होते हैं। शरीर का संघात होने पर अग्नि की उष्मा से मूर्च्छित हो जाते हैं। बाद में मृत्यु को प्राप्त | |||||||||
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उद्देशक-४ अग्निकाय | Hindi | 39 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं अगणि-सत्थे समारंभावेज्जा, अगणि-सत्थं समारंभमाणे अन्ने न समणुजाणेज्जा।
जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र – प्रयोग करता है, वह इन आरंभ – समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है। जो अग्निकाय पर शस्त्र – समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह आरंभ का ज्ञाता हो जाता है। जिसने यह अग्नि – कर्म – समारंभ भली भाँति समझ लिया है, वही मुनि है, वही परिज्ञात – कर्मा है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 50 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मंदस अवियाणओ। Translated Sutra: देखो सूत्र ४९ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 51 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं।
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति बेमि।
तसंति पाणा पदिसोदिसासु य। Translated Sutra: सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता और अपरिनिर्वाण ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं। मैं ऐसा कहता हूँ। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब ओर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 52 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ-तत्थ पुढो पास, आउरा परितावेंति। Translated Sutra: तू देख, विषय – सुखाभिलाषी आतुर मनुष्य स्थान – स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते हैं। त्रसकायिक प्राणी पृथक् – पृथक् शरीरों में आश्रित रहते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 53 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संति पाणा पुढो सिया।
लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकाय-समारंभेणं तसकाय-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव तसकाय-सत्थं समारंभति, अन्नेहिं वा तसकाय-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा तसकाय-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवओ, अनगाराणं ‘वा अंतिए’ इहमेगेसिं नायं भवइ– एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए। इच्चत्थं गढिए Translated Sutra: तू देख ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा का अनुभव करते हैं और उनको भी देख, जो ‘हम गृहत्यागी हैं’ यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से त्रसकाय का समारंभ करते हैं। त्रसकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी हिंसा करते हैं। इस विषय में भगवान ने परिज्ञा है। कोई मनुष्य इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान, पूजा | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 54 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि–अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति, अप्पेगे नहाए वहंति, अप्पेगे ण्हारुणीए वहंति, अप्पेगे अट्ठीए वहंति, अप्पेगे अट्ठिमिंजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणुट्ठाए Translated Sutra: मैं कहता हूँ – कुछ मनुष्य अर्चा के लिए जीवहिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य चर्म के लिए, माँस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूँछ, केश, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ प्रयोजन – वश, कुछ निष्प्रयोजन ही जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 55 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं तसकाय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं तसकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेतसकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते तसकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरंभ (आरंभजनित कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित है। यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय – शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। जिसने त्रसकाय – | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Hindi | 56 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘पहू एजस्स’ दुगंछणाए। Translated Sutra: अतः वायुकायिक जीवों की दुगंछा करने में समर्थ होता है। |