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Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-५

उद्देशक-९ राजगृह Hindi 269 Gatha Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] किमिदं रायगिहं ति य, उज्जोए अंधयार-समए य । पासंतिवासिपुच्छा, रातिंदिय देवलोगा य ॥

Translated Sutra: राजगृह नगर क्या है ? दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार क्यों होता है ? समय आदि काल का ज्ञान किन जीवों को होता है, किनको नहीं ? रात्रि – दिवस के विषय में पार्श्वजिनशिष्यों के प्रश्न और देवलोकविषयक प्रश्न; इतने विषय इस उद्देशक में हैं।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-६

उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक Hindi 323 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! जे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति तं किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? अनंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? गोयमा! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो अनंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति। जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! नैरयिक जीव जिन पुद्‌गलों का आत्मा (अपने) द्वारा ग्रहण – आहार करते हैं, क्या वे आत्म – शरीरक्षेत्रावगाढ़ पुद्‌गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? या अनन्तरक्षेत्रावगाढ़ पुद्‌गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? अथवा परम्परक्षेत्रावगाढ़ पुद्‌गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? गौतम ! वे आत्म – शरीरक्षेत्रावगाढ़
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-७

उद्देशक-१ आहार Hindi 329 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] किंसंठिए णं भंते! लोए पन्नत्ते? गोयमा! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते–हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइरवि-ग्गहिए, उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिए। तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाव उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली जीवे वि जाणइ-पासइ, अजीवे वि जाणइ-पासइ, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! लोक का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! सुप्रतिष्ठिक के आकार का है। वह नीचे विस्तीर्ण है और यावत्‌ ऊपर मृदंग के आकार का है। ऐसे इस शाश्वत लोक में उत्पन्न केवलज्ञान – दर्शन के धारक, अर्हन्त, जिन, केवली जीवों को भी जानते और देखते हैं तथा अजीवों को भी जानते और देखते हैं। इसके पश्चात्‌ वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-७

उद्देशक-३ स्थावर Hindi 349 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! जा वेदना सा निज्जरा? जा निज्जरा सा वेदना? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जा वेदना न सा निज्जरा? जा निज्जरा न सा वेदना? गोयमा! कम्मं वेदना, नोकम्मं निज्जरा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जा वेदना न सा निज्जरा, सा निज्जरा न सा वेदना। नेरइया णं भंते! जा वेदना सा निज्जरा? जा निज्जरा सा वेदना? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइयाणं जा वेदना न सा निज्जरा? जा निज्जरा न सा वेदना? गोयमा! नेरइयाणं कम्मं वेदना, नोकम्मं निज्जरा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नेरइयाणं जा वेदना न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेदना। एवं जाव

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या वास्तव में जो वेदना है, वह निर्जरा कही जा सकती है ? और जो निर्जरा है, वह वेदना कही जा सकती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन्‌ ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं कही जा सकती और जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं कही जा सकती ? गौतम ! वेदना कर्म है और निर्जरा नोकर्म है। इस कारण से ऐसा
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-७

उद्देशक-८ छद्मस्थ Hindi 365 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] छउमत्थे णं भंते! मनूसे तीयमनंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेनं, केवलाहिं पवयणमायाहिं सिज्झिंसु? बुज्झिंसु? मुच्चिंसु? परिनिव्वाइंसु? सव्व-दुक्खाणं अंतं करिंसु? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे जाव– से नूनं भंते! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, अनन्त और शाश्वत अतीतकाल में केवल संयम द्वारा, केवल संवर द्वारा, केवल ब्रह्मचर्य से तथा केवल अष्टप्रवचनमाताओं के पालन से सिद्ध हुआ है, यावत्‌ उसने सर्व दुःखों का अन्त किया है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस विषय में प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वह,
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शतक-७

उद्देशक-८ छद्मस्थ Hindi 367 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे? हंता गोयमा! नेरइयाणं पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे। एवं जाव वेमाणियाणं।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, किया जाता है और किया जाएगा, क्या वह सब दुःख रूप हैं और (उनके द्वारा) जिसकी निर्जरा की गई है, क्या वह सुखरूप है ? हाँ, गौतम ! नैरयिक द्वारा जो पापकर्म किया गया है, यावत्‌ वह सब दुःखरूप है और (उनके द्वारा) जिन (पापकर्मों) की निर्जरा की गई है, वह सब सुखरूप है। इस प्रकार वैमानिकों
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शतक-८

उद्देशक-२ आशिविष Hindi 390 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] दस ठाणाइं छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा–१. धम्मत्थिकायं २. अधम्मत्थिकायं ३. आगासत्थिकायं ४. जीवं असरीरपडिबद्धं ५. परमाणुपोग्गलं ६. सद्दं ७. गंधं ८. वातं ९. अयं जिने भविस्सइ वा न वा भविस्सइ १. अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा करेस्सइ। एयाणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली सव्वभावेणं जाणइ-पासइ, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सद्दं, गंधं, वातं, अयं जिने भविस्सइ वा न वा भविस्सइ, अयं सव्वदु-क्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा करेस्सइ।

Translated Sutra: छद्मस्थ पुरुष इन दस स्थानों को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति – काय, आकाशास्तिकाय, शरीर से रहित जीव, परमाणुपुद्‌गल, शब्द, गन्ध, वायु, यह जीव जिन होगा या नहीं ? तथा यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं ? इन्हीं दस स्थानों को उत्पन्न (केवल) ज्ञान – दर्शन के धारक अरिहन्त – जिनकेवली
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शतक-९

उद्देशक-३३ कुंडग्राम Hindi 465 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! खत्तियकुंडग्गामं नयरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-सम्मज्जिओवलित्तं जहा ओववाइए जाव सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तहेव पच्चप्पिणंति। तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्घ महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव उवट्ठवेंति। तए

Translated Sutra: तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – शीघ्र ही क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के अन्दर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़ कर जमीन की सफाई करके उसे लिपाओ, इत्यादि औपपातिक सूत्र अनुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा वापस सौंपी। क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने दुबारा
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-९

उद्देशक-३३ कुंडग्राम Hindi 466 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए। तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स एयमट्ठं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं से जमाली अनगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए। तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स दोच्चं पि, तच्चं

Translated Sutra: तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना – नमस्कार करके इस प्रकार बोले – भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर विहार करना चाहता हूँ। यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात को आदर नहीं दिया, न स्वीकार किया। वे मौन
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शतक-९

उद्देशक-३३ कुंडग्राम Hindi 467 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के हट्ठे जाए, अरोए वलियसरीरे साव-त्थीओ नयरीओ कोट्ठगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वानुपुव्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी–जहा णं देवानुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं अव-क्कंता, नो खलु अहं तहा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंते, अहं णं उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कंते। तए

Translated Sutra: तदन्तर किसी समय जमालि – अनगार उक रोगातंक से मुक्त और हृष्ट हो गया तथा नीरोग और बलवान् शीर वाला हुआ; तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामनुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उनके पास आया।
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शतक-१०

उद्देशक-५ देव Hindi 488 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे। गुणसिलए चेइए जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना जहा अट्ठमे सए सत्तमुद्देसए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तए णं ते थेरा भगवंतो जायसड्ढा जायसंसया जहा गोयमसामी जाव पज्जुवासमाणा एवं वयासी– चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? अज्जो! पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–काली, रायी, रयणी, विज्जू, मेहा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ठ देवीसहस्सं परिवारो पन्नत्तो। पभू णं भंते! ताओ एगमेगा देवी अन्नाइं अट्ठट्ठ देवीसहस्साइं

Translated Sutra: उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक उद्यान था। यावत्‌ परीषद्‌ लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के बहुत – से अन्तेवासी स्थविर भगवान जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों से युक्त थे, आठवें शतक के सप्तम उद्देशक के अनुसार अनेक विशिष्ट गुणसम्पन्न, यावत्‌ विचरण करते थे। एक बार उन स्थविरों
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शतक-११

उद्देशक-९ शिवराजर्षि Hindi 508 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ। तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं से सिवे रायरिसि तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव

Translated Sutra: फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। तत्पश्चात्‌ उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल के वस्त्र
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-११

उद्देशक-१० लोक Hindi 510 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कतिविहे णं भंते! लोए पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे लोए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वलोए, खेत्तलोए, काललोए, भावलोए। खेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अहेलोयखेत्तलोए, तिरियलोयखेत्तलोए, उड्ढलोयखेत्तलोए। अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा–रयणप्पभापुढविअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमापुढवि-अहेलोयखेत्तलोए। तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! असंखेज्जविहे पन्नत्ते, तं जहा–जंबुद्दीवे दीवे तिरियलोयखेत्तलोए जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए। उड्ढलोयखेत्तलोए

Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत्‌ पूछा – भगवन्‌ ! लोक कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का है। यथा – द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक। भगवन्‌ ! क्षेत्रलोक कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का। यथा – अधोलोक – क्षेत्रलोक, तिर्यग्लोक – क्षेत्रलोक और ऊर्ध्वलोक – क्षेत्रलोक। भगवन्‌ ! अधोलोक – क्षेत्रलोक कितने प्रकार
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शतक-११

उद्देशक-११ काल Hindi 518 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा? हंता अत्थि। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा? एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ। तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन्‌ ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल
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शतक-१२

उद्देशक-१ शंख Hindi 532 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–कतिविहा णं भंते! जागरिया पन्नत्ता? गोयमा! तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तं जहा–बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, सुदक्खुजागरिया। के केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तं जहा–बुद्धजागरिया, अबुद्ध-जागरिया, सुदक्खुजागरिया? गोयमा! जे इमे अरहंता भगवओ उप्पन्ननाणदंसणधरा अरहा जिने केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागय-वियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति। जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तनिक्खे- वणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणिया-समिया

Translated Sutra: गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार किया और पूछा – भगवन्‌ ! जागरिका कितने प्रकार की है ? गौतम ! जागरिका तीन प्रकार की कही गई है, यथा – वृद्ध – जागरिका, अबुद्ध – जागरिका और सुदर्शन – जागरिका। भगवन्‌ ! किस हेतु से कहा जाता है ? गौतम ! जो उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक अरिहंत भगवान हैं,
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शतक-१२

उद्देशक-९ देव Hindi 554 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! देवा पन्नत्ता? गोयमा! पंचविहा देवा पन्नत्ता, तं जहा–भवियदव्वदेवा, नरदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–भवियदव्वदेवा-भवियदव्वदेवा? गोयमा! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मनुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–भवियदव्वदेवा-भवियदव्वदेवा। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नरदेवा-नरदेवा? गोयमा! जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उप्पन्नसमत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहिपइणो समिद्ध-कीसा बत्तीसरायवरसहस्साणु-यातमग्गा सागरवरमेहलाहिवइणो मणुस्सिंदा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नरदेवा-नरदेवा। से

Translated Sutra: भगवन्‌ ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! देव पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा – भव्यद्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव, भावदेव। भगवन्‌ ! भव्यद्रव्यदेव, ‘भव्यद्रव्यदेव’ किस कारण से कहलाते हैं ? गौतम ! जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक अथवा मनुष्य, देवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे भविष्य में भावीदेव होने के
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 583 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] किंसंठिए णं भंते! लोए पन्नत्ते? गोयमा! सुपइट्ठियसंठिए लोए पन्नत्ते–हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं बिसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइर-विग्गहिए, उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिए। तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाव उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली जीवे वि जाणइ-पासइ, अजीवे वि जाणइ-पासइ, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेति। एयस्स णं भंते! अहेलोगस्स, तिरियलोगस्स, उड्ढलोगस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवे तिरियलोए, उड्ढलोए असंखेज्जगुणे,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! इस लोक का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! सुप्रतिष्ठक के आकार का है। यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त है, इत्यादि वर्णन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार कहना। भगवन्‌ ! अधोलोक, तिर्यग्‌लोक और ऊर्ध्वलोक में, कौन – सा लोक किस लोक से छोटा यावत्‌ बहुत, सम अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे छोटा तिर्यक्‌
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-६ उपपात Hindi 587 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए–वण्णओ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदाइ पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे

Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर किसी अन्य दिन राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से यावत्‌ विहार कर देते हैं। उस काल, उस समय में चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामका चैत्य था। किसी दिन श्रमण भगवान महावीर पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए यावत्‌ विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत्‌
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-७ भाषा Hindi 592 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! काये पन्नत्ते? गोयमा! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तं जहा–ओरालिए, ओरालियमीसए, वेउव्विए, वेउव्विय-मीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए। कतिविहे णं भंते! मरणे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे मरणे पन्नत्ते, तं जहा–आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आतियंतियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे। आवीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे। दव्वावीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा– नेरइयदव्वावीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदव्वावीचिय-मरणे, मनुस्सदव्वावीचियमरणे,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! मरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आवीचिकमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिक – मरण, बालमरण और पण्डितमरण। भगवन्‌ ! आवीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का। द्रव्यावीचिकमरण, क्षेत्रावीचिकमरण, कालावीचिकमरण, भवावीचिकमरण और भावावीचिकमरण। भगवन्‌ ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम !
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-१ चरम Hindi 599 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! किं अनंतरोववन्नगा? परंपरोववन्नगा? अनंतर-परंपरअणुववन्नगा? गोयमा! नेरइया अनंतरोववन्नगा वि, परंपरोववन्नगा वि, अनंतर-परंपरअणुववन्नगा वि। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया अनंतरोववन्नगा वि, परंपरोववन्नगा वि, अनंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि? गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अनंतरोववन्नगा, जे णं नेरइया अपढम-समयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा, जे णं नेरइया विग्गहगइसमावन्नगा ते णं नेरइया अनंतर-परंपर-अणुववन्नगा। से तेणट्ठेणं जाव अनंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि। एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। अनंतरोववन्नगा णं भंते! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति?

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या नैरयिक अनन्तरोपपन्नक हैं, परम्परोपपन्नक हैं, अथवा अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं ? गौतम! नैरयिक अनन्तरोपपन्नक भी हैं, परम्परोपपन्नक भी हैं और अनन्तरपरम्परानुपपन्नक भी हैं। भगवन्‌ ! किस हेतु से ऐसा कहा है कि नैरयिक यावत्‌ अनन्तरपरम्परानुपपन्नक भी हैं ? गौतम ! जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी प्रथम
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-९ अनगार Hindi 631 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासइ, तं पुण जीवं सरूविं सकम्मलेस्सं जाणइ-पासइ। हंता गोयमा! अनगारे णं भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासइ, तं पुण जीवं सरूविं सकम्मलेस्सं जाणइ पासइ। अत्थि णं भंते! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोएंति तवेंति पभासेंति? हंता अत्थि। कयरे णं भंते! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति जाव पभासेंति? गोयमा! जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमानेहिंतो लेस्साओ बहिया अभिनिस्स-डाओ पभावेंति, एए णं गोयमा! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोएंति तवेंति पभासेंति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! अपनी कर्मलेश्या को नहीं जानने – देखने वाला भावितात्मा अनगार, क्या सरूपी (सशरीर) और कर्मलेश्या – सहित जीव को जानता – देखता है ? हाँ, गौतम ! भावितात्मा अनगार, जो अपनी कर्मलेश्या को नहीं जानता – देखता, वह सशरीर एवं कर्मलेश्या वाले जीव को जानता – देखता है। भगवन्‌ ! क्या सरूपी, सकर्मलेश्य पुद्‌गलस्कन्ध अवभासित
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 637 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नमो सुयदेवयाए भगवईए तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नगरी होत्था–वण्णओ। तीसे णं सावत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, तत्थ णं कोट्ठए नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए हालाहला नामं कुंभकारी आजीविओवासिया परिवसति–अड्ढा जाव बहुजणस्स अपरिभूया, आजीविय-समयंसि लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! आजीवियसमये अट्ठे, अयं परमट्ठे, सेसे अणट्ठे त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं गोसाले मंखलिपुत्ते चउव्वीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजी-वियसंघसंपरिवुडे

Translated Sutra: भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो। उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्व – दिशाभाग में कोष्ठक नामक चैत्य था। उस श्रावस्ती नगरी में आजीविक (गोशालक) मत की उपासिका हालाहला नामकी कुम्भारिन रहती थी। वह आढ्य यावत्‌ अपरिभूत थी। उसने आजीविकसिद्धान्त का अर्थ प्राप्त कर लिया
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 638 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइ–एवं खलु देवानुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिने जिनप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिने जिनसद्दं पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं? तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कनगपुलगनिधस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे

Translated Sutra: इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक पर, यावत्‌ राजमार्गों पर बहुत – से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत्‌ इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे – हे देवानुप्रियो ! निश्चित है कि गोशालक मंखलिपुत्र ‘जिन’ होकर अपने आप को ‘जिन’ कहता हुआ, यावत्‌ ‘जिन’ शब्द में अपने आपको प्रकट करता हुआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 644 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउब्भवित्था, तं जहा–साणे, कलंदे, कण्णियारे, अच्छिदे, अग्गिवेसायणे, अज्जुणे, गोमायुपुत्ते। तए णं तं छ दिसाचरा अट्ठविहं पुव्वगयं मग्गदसमं सएहिं-सएहिं मतिदंसणेहिं निज्जूहंति, निज्जूहित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उवट्ठाइंसु। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अट्ठंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयानं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं इमाइं छ अणइक्कमणिज्जाइं वागर-णाइं वागरेति, तं जहा– लाभं अलाभं सुहं दुक्खं, जीवियं मरणं तहा। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं

Translated Sutra: इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक के पास किसी दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए। यथा – शोण इत्यादि सब कथन पूर्ववत्‌, यावत्‌ – जिन न होते हुए भी अपने आपको जिन शब्द से प्रकट करता हुआ विचरण करने लगा है। अतः हे गौतम ! वास्तव में मंखलिपुत्र गोशालक ‘जिन’ नहीं है, वह ‘जिन’ शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत्‌ ‘जिन’ शब्द से स्वयं को प्रसिद्ध
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 651 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वानुभूती नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए धम्मायरियाणुरागेणं एयमट्ठं असद्दहमाणे उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसाले मंखलिपुत्ते एवं वयासी– जे वि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति, से वि ताव वंदति नमंसति सक्कारेति सम्माणेति कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति, किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चेव पव्वाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया

Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत्‌ विनीत थे। वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे और मंखलिपुत्र गोशालक के पास आकर कहने लगे – हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 652 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अज्जोति! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी–अज्जो! से जहानामए तणरासी इ वा कट्ठरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा अगनिज्झामिए अगनिज्झूसिए अगनिपरिणामिए हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरित्ता हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, तं छंदेणं अज्जो! तुब्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, अट्ठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य

Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने कहा – ‘हे आर्यो ! जिस प्रकार तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, त्वचा राशि, तुष – राशि, भूसे की राशि, गोमय की राशि और अवकर राशि को अग्नि से थोड़ा – सा जल जाने पर, आग में झोंक देने पर एवं अग्नि से परिणामान्तर होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है, उसका तेज
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 653 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु अहं जिने जिनप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिने जिनसद्दं पगासेमाणे विहरिते अहण्णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए समणमारए समणपडिनीए आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहरित्ता सएणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे

Translated Sutra: इसके पश्चात्‌ जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत्‌ मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ – ‘मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन – प्रलापी यावत्‌ जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा हूँ। मैं मंखलिपुत्र गोशालक श्रमणों
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 654 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवाराइं पिहेंति, पिहेत्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावत्थिं नगरिं आलिहंति, आलिहित्ता गोसालस्स मंख-लिपुत्तस्स सरीरगं वामे पदे सुंबेणं बंधंति, बंधित्ता तिक्खुत्तो मुहे उट्ठुभंति, उट्ठुभित्ता सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर -चउम्मुह-महापह-पहेसु आकट्ट-विकट्टिं करेमाणा णीयं-णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयासी–नो खलु देवानुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिने जिनप्पलावी जाव विहरिए। एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे

Translated Sutra: तदनन्तर उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक को कालधर्म – प्राप्त हुआ जानकर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिए। फिर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के ठीक बीचों बीच श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया। फिर मंखलिपुत्र गोशालक के बाएं पैर को मूंज की रस्सी से बाँधा। तीन बार उसके मुख में थूका। फिर उक्त
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 655 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपु-रत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं साणकोट्ठए नामं चेइए होत्था–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूर-सामंते, एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था–किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरंबभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरि-ज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति। तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति–अड्ढा

Translated Sutra: तदनन्तर किसी दिन भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से नीकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल उस समय मेंढिकग्राम नगर था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था। यावत्‌ पृथ्वी – शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान्‌ मालुकाकच्छ था वह श्याम, श्यामप्रभावाला,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१६

उद्देशक-१ अधिकरण Hindi 663 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! अयं अयकोट्ठंसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहमाणे वा पव्विहमाणे वा कतिकिरिए? गोयमा! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोट्ठंसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहति वा पव्विहति वा, तावं च णं से पुरिसे काइ-याए जाव पाणाइवायकिरियाए–पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे, जेसिं पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो अए निव्वत्तिए, अयकोट्ठे निव्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, इंगाला निव्वत्तिया, इंगालकड्ढणी निव्वत्तिया, भत्था निव्वत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए –पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। पुरिसे णं भंते! अयं अयकोट्ठाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिंसि उक्खिव्वमाणे वा निक्खिव्वमाणे वा

Translated Sutra: भगवन्‌ ! लोहा तपाने की भट्ठी में तपे हुए लोहे का लोहे की संडासी से ऊंचा – नीचा करने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्ठी में लोहे की संडासी से लोहे को ऊंचा या नीचा करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी क्रिया तक पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है तथा जिन
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१६

उद्देशक-१ अधिकरण Hindi 665 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! सरीरगा पन्नत्ता? गोयमा! पंच सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए, वेउव्विए, आहारए, तेयए, कम्मए। कति णं भंते! इंदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा–सोइंदिए, चक्खिंदिए, घाणिंदिए, रसिंदिए, फासिंदिए। कतिविहे णं भंते! जोए पन्नत्ते? गोयमा! तिविहे जोए पन्नत्ते, तं जहा–मनजोए, वइजोए, कायजोए। जीवे णं भंते! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरणं? गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अधिकरणी वि, अधिकरणं पि? गोयमा! अविरतिं पडुच्च। से तेणट्ठेणं जाव अधिकरणं पि। पुढविकाइएण णं भंते! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरणं? एवं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के यथा – औदारिक यावत्‌ कार्मण। भगवन्‌ इन्द्रियाँ कितनी कही गई है ? गौतम ! पाँच, यथा – श्रोत्रेन्द्रिय यावत्‌ स्पर्शेन्द्रिय। भगवन्‌ ! योग कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! तीन प्रकार के, यथा – मनोयोग, वचनयोग और काययोग। भगवन्‌ ! औदारिकशरीर को बांधता हुआ
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१६

उद्देशक-४ जावंतिय Hindi 672 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी– जावतियं णं भंते! अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा खवयंति? नो इणट्ठे समट्ठे। जावतियं णं भंते! चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससएण वा वाससएहिं वा वाससहस्सेण वा खवयंति? नो इणट्ठे समट्ठे। जावतियं णं भंते! छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससहस्सेण वा वाससहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेण वा खवयंति? नो इणट्ठे समट्ठे। जावतिय णं भंते! अट्ठमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससयसहस्सेण

Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत्‌ पूछा – भगवन्‌ ! अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। भगवन्‌ ! चतुर्थ भक्त करने वाले श्रमण – निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१७

उद्देशक-१ कुंजर Hindi 696 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! तलमारुहइ, आरुहित्ता तलाओ तलफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए? गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तलमारुहइ, आरुहित्ता तलाओ तलफलं पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे। जेसिं पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए, तलफले निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। अहे णं भंते! से तलफले अप्पणो गरुयत्ताए भारियत्ताए गरुयसंभारियत्ताए अहे वीससाए पच्चोवयमाणे जाइं तत्थ पाणाइं जाव जीवियाओ ववरोवेति, तए णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए? गोयमा! जावं च णं से तलफले अप्पणो गरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! कोई पुरुष, ताड़ के वृक्ष पर चढ़े और फिर उस ताड़ से ताड़ के फल को हिलाए अथवा गिराए तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! उस पुरुष को कायिकी आदि पाँचों क्रियाएं लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष और ताड़ का फल उत्पन्न हुआ है, उन जीवों को भी कायिकी आदि पाँचों क्रियाएं लगती हैं। भगवन्‌ ! यदि वह ताड़फल
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१७

उद्देशक-१ कुंजर Hindi 697 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! सरीरगा पन्नत्ता? गोयमा! पंच सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए जाव कम्मए। कति णं भंते! इंदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा–सोइंदिए जाव फासिंदिए। कतिविहे णं भंते! जोए पन्नत्ते? गोयमा! तिविहे जोए पन्नत्ते, तं जहा–मणजोए, वइजोए, कायजोए। जीवे णं भंते! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे कतिकिरिए? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। एवं पुढविकाइए वि। एवं जाव मनुस्से। जीवा णं भंते! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कतिकिरिया? गोयमा! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि। एवं पुढविकाइया वि। एवं जाव मनुस्सा। एवं वेउव्वियसरीरेण वि दो दंडगा, नवरं–जस्स अत्थि

Translated Sutra: भगवन्‌ ! शरीर कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच, यथा – औदारिक यावत्‌ कार्मण शरीर। भगवन्‌ ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पाँच, यथा – श्रोत्रेन्द्रिय यावत्‌ स्पर्शेन्द्रिय। भगवन्‌ ! योग कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का यथा – मनोयोग, वचनयोग और काययोग। भगवन्‌ ! औदारिकशरीर को निष्पन्न करता हुआ जीव कितनी
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शतक-१८

उद्देशक-१ प्रथम Hindi 723 Gatha Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] जो जेण पत्तपुव्वो, भावो सो तेण अपढमओ होइ । सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुव्वेसु भावेसु ॥

Translated Sutra: जिस जीव को जो भाव पूर्व से प्राप्त है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव ‘अप्रथम’ है, किन्तु जिन्हें जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव प्रथम कहलाता है।
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शतक-१८

उद्देशक-३ माकंदी पुत्र Hindi 732 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति, तेसि णं भंते! पोग्गलाणं सेयकालंसि कतिभागं आहारेंति? कतिभागं निज्जरेंति? मागंदियपुत्ता! असंखेज्जइभागं आहारेंति, अनंतभागं निज्जरेंति। चक्किया णं भंते! केइ तेसु निज्जरापोग्गलेसु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा? नो इणट्ठे समट्ठे। अनाहारणमेयं बुइयं समणाउसो! एवं जाव वेमाणियाणं। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! नैरयिक, जिन पुद्‌गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन्‌ ! उन पुद्‌गलों का कितना भाग भविष्यकालमें आहाररूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता है ? माकन्दिपुत्र ! असंख्यातवे भाग का आहाररूपसे ग्रहण होता है और अनन्तवे भाग निर्जरण होता है। भगवन्‌! क्या कोई जीव उन निर्जरा पुद्‌गलों पर बैठने, यावत्‌
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शतक-१८

उद्देशक-७ केवली Hindi 744 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुण सिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई। तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अय-मेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्ग-लत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं,

Translated Sutra: उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। (वर्णन)। वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। (वर्णन)। यावत्‌ वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्टक था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत – से अन्यतीर्थिक रहते थे, यथा – कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के अनुसार, यावत्‌ – ‘यह कैसे माना जा सकता है?’ यहाँ तक समझना
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शतक-२०

उद्देशक-१ बेईन्द्रिय Hindi 780 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–सिय भंते! जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ साहरणसरीर बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति? नो इणट्ठे समट्ठे। बेंदिया णं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति। तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा! तओ लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा। एवं जहा एगूण-वीसतिमे सए तेउक्काइयाणं जाव उव्वट्टंति, नवरं–सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छदिट्ठी, दो नाणा दो अन्नाणा नियमं, नो मणजोगी, वइजोगी वि कायजोगी वि, आहारो

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ !’ राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत्‌ इस प्रकार पूछा – भगवन्‌ ! क्या कदाचित्‌ दो, तीन, चार या पाँच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बाँधते हैं, इसके पश्चात्‌ आहार करते हैं ? अथवा आहार को परिणमाते हैं, फिर विशिष्ट शरीर को बाँधते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव पृथक्‌ – पृथक्‌
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शतक-२०

उद्देशक-८ भूमि Hindi 795 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! चउवीसाए तित्थगराणं कति जिणंतरा पन्नत्ता? गोयमा! तेवीसं जिणंतरा पन्नत्ता। एएसि णं भंते! तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहिं कालियसुयस्स वीच्छेदे पन्नत्ते? गोयमा! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिम-पच्छिमएसु अट्ठसु-अट्ठसु जिनंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अव्वोच्छेये पन्नत्ते, मज्झिमएसु सत्तसु जिनंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स वोच्छेदे पन्नत्ते, सव्वत्थ वि णं वोच्छिण्णे दिट्ठिवाए।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! इन चौबीस तीर्थंकरों के कितने जिनान्तर कहे हैं ? गौतम ! इनके तेईस अन्तर कहे गए हैं। भगवन्‌ ! इन तेईस जिनान्तरों में जिनके अन्तर में कब कालिकश्रुत का विच्छेद कहा गया है ? गौतम ! पहले और पीछे के आठ – आठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत का अव्यवच्छेद कहा गया है और मध्य के आठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत का व्यवच्छेद
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शतक-२०

उद्देशक-८ भूमि Hindi 798 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जहा णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे वासे ओसप्पिणीए देवानुप्पियाणं एक्कवीसं वाससहस्साइं तित्थे अनुसज्जिस्सति, तहा णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स केवतिलं कालं तित्थे अनुसज्जिस्सति? गोयमा! जावतिए णं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए एवइयाइं संखेज्जाइं आगमे-स्साणं चरिमतित्थगरस्स तित्थे अनुसज्जिस्सति।

Translated Sutra: हे भगवन्‌ ! भावी तीर्थंकरोंमें से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ कितने काल तक अविच्छिन्न रहेगा ? गौतम ! कौशलिक ऋषभदेव, अरहन्त का जितना जिनपर्याय है, उतने वर्ष भावी तीर्थंकरोंमें अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ रहेगा।
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शतक-२०

उद्देशक-९ चारण Hindi 801 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! चारणा पन्नत्ता? गोयमा! दुविहा चारणा पन्नत्ता, तं जहा–विज्जाचारणा य, जंघाचारणा य। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–विज्जाचारणे-विज्जाचारणे? गोयमा! तस्स णं छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं विज्जाए उत्तरगुणलद्धिं खममाणस्स विज्जाचारणलद्धी नामं लद्धी समुप्पज्जइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ– विज्जाचारणे-विज्जाचारणे। विज्जाचारणस्स णं भंते! कहं सीहा गतो, कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते? गोयम! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं। देवे णं महिड्ढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेव-इणामेव त्ति कट्टु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्यरानिवाएहिं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! चारण कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथा – विद्याचारण और जंघाचारण। भगवन्‌ विद्याचारण मुनि को ‘विद्याचारण’ क्यों कहते हैं ? अन्तर – रहित छट्ठ – छट्ठ के तपश्चरणपूर्वक पूर्वश्रुतरूप विद्या द्वारा तपोलब्धि को प्राप्त मुनि को विद्याचारणलब्धि नामकी लब्धि उत्पन्न होती है। इस कारण से यावत्‌
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शतक-२४

उद्देशक-२२ थी २४ देव Hindi 860 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सोहम्मदेवा णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? भेदो जहा जोइसिय-उद्देसए। असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए साहम्मगदेवेसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमट्ठितीएसु उक्कोसेणं तिपलिओवमट्ठितीएसु उववज्जेज्जा। ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जंति? अवसेसं जहा जोइसिएसु उववज्ज-माणस्स, नवरं–सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। नाणी वि, अन्नाणी वि, दो नाणा दो अन्नाणा नियमं। ठिती जहन्नेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं। एवं अनुबंधो वि। सेसं तहेव।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! सौधर्मदेव, किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से यावत्‌ देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? ज्योतिष्क – उद्देशक के अनुसार भेद जानना चाहिए। भगवन्‌ ! असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय – तिर्यंचयोनिक कितने काल की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य पल्योपम की
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शतक-२५

उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ Hindi 901 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! नियंठा पन्नत्ता? गोयमा! पंच नियंठा पन्नत्ता, तं जहा–पुलाए, बउसे, कुसीले, नियंठे, सिणाए। पुलाए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–नाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुम-पुलाए नाम पंचमे। बउसे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभोगबउसे, अनाभोगबउस, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहा-सुहुमबउसे नामं पंचमे। कुसीले णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–पडिसेवणाकुसीले य, कसायकुसीले य। पडिसेवणाकुसीले णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा– नाणपडिसेवणाकुसीले,

Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत्‌ पूछा – भगवन्‌ ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। भगवन्‌ ! पुलाक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – ज्ञानपुलाक, दर्शनपुलाक, चारित्र – पुलाक, लिंगपुलाक, यथासूक्ष्मपुलाक। भगवन्‌ ! बकुश कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम
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शतक-२५

उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ Hindi 903 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पुलाए णं भंते! किं ठियकप्पे होज्जा? अट्ठियकप्पे होज्जा? गोयमा! ठियकप्पे वा होज्जा, अट्ठियकप्पे वा होज्जा। एवं जाव सिणाए। पुलाए णं भंते! किं जिनकप्पे होज्जा? थेरकप्पे होज्जा? कप्पातीते होज्जा? गोयमा! नो जिनकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, नो कप्पातीते होज्जा। बउसे णं–पुच्छा। गोयमा! जिनकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, नो कप्पातीते होज्जा। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले णं–पुच्छा। गोयमा! जिनकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा होज्जा। नियंठे णं–पुच्छा। गोयमा! नो जिनकप्पे होज्जा, नो थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा। एवं सिणाए वि।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! पुलाक स्थितकल्प में होता है, अथवा अस्थितकल्प में होता है ? गौतम ! वह स्थितकल्प में भी होता है और अस्थितकल्प में भी होता है। इसी प्रकार यावत्‌ स्नातक तक जानना। भगवन्‌ ! पुलाक जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में होता है अथवा कल्पातीत में होता है ? गौतम ! वह स्थविरकल्प में होता है। भगवन्‌ ! बकुश जिनकल्प में
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शतक-२५

उद्देशक-७ संयत Hindi 941 Gatha Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] उवसंते खीणम्मि व, जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि । छउमत्थो व जिणो वा, अहखाओ संजओ स खलु ॥

Translated Sutra: मोहनीयकर्म उपशान्त या क्षीण हो जाने पर जो छद्मस्थ या जिन होता है, वह यथाख्यात – संयत कहलाता है।
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शतक-२५

उद्देशक-७ संयत Hindi 942 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइयसंजए णं भंते! किं सवेदए होज्जा? अवेदए होज्जा? गोयमा! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा। जइ सवेदए–एवं जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं। एवं छेदोवट्ठावणियसंजए वि। परिहारविसुद्धियसंजओ जहा पुलाओ। सुहुमसंपराय-संजओ अहक्खायसंजओ य तहा नियंठो। सामाइयसंजए णं भंते! किं सरागे होज्जा? वीयरागे होज्जा? गोयमा! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा। एवं जाव सुहुमसंपरायसंजए। अहक्खायसंजए। जहा नियंठे। सामाइयसंजए णं भंते! किं ठियकप्पे होज्जा? अट्ठियकप्पे होज्जा? गोयमा! ठियकप्पे वा होज्जा, अट्ठियकप्पे वा होज्जा। छेदोवट्ठावणियसंजए–पुच्छा। गोयमा! ठियकप्पे होज्जा, नो अट्ठियकप्पे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! सामायिकसंयत सवेदी होता है या अवेदी ? गौतम ! वह सवेदी भी होता है और अवेदी भी। यदि वह सवेदी होता है, आदि सभी कथन कषायकुशील के अनुसार कहना। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत में भी जानना। परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन पुलाक समान। सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन निर्ग्रन्थ समान है। भगवन्‌ ! सामायिकसंयत
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२५

उद्देशक-७ संयत Hindi 953 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइयसंजए णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी। एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहिं एकूणतीसाए वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी। सुहुमसंपराए जहा नियंठे। अहक्खाए जहा सामाइयसंजए। सामाइयसंजया णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! सव्वद्धं। छेदोवट्ठावणियसंजया–पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं अड्ढाइज्जाइं वाससयाइं, उक्कोसेणं पण्णासं सागरोवमकोडिसयसहस्साइं। परिहारविसुद्धीयसंजया–पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं देसूणाइं दो वाससयाइं, उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुव्वकोडीओ। सुहुमसंपरागसंजया–पुच्छा। गोयमा!

Translated Sutra: भगवन्‌ ! सामायिकसंयत कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत को भी कहना। परिहारविशुद्धिसंयत जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन २९ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त रहता है। सूक्ष्मसम्परायसंयत निर्ग्रन्थ के अनुसार कहना। यथाख्यातसंयत
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शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान

उद्देशक-१ Hindi 975 Gatha Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] १. जीवा य २. लेस्स ३. पक्खिय, ४. दिट्ठि ५. अन्नाण ६. नाण ७. सण्णाओ । ८. वेय ९. कसाए १. उवओग ११. जोग एक्कारस वि ठाणा ॥

Translated Sutra: भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो। इस शतक में ग्यारह उद्देशक हैं – जीव, लेश्याएं, पाक्षिक, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, संज्ञाएं, वेद, कषाय, उपयोग और योग, ये ग्यारह स्थान हैं, जिनको लेकर बन्ध की वक्तव्यता कही जाएगी।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान

उद्देशक-२ थी ११ Hindi 990 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अचरिमे णं भंते! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी–पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइए एवं जहेव पढमोद्देसए, पढम-बितिया भंगा भाणियव्वा सव्वत्थ जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं। अचरिमे णं भंते! मनुस्से पावं कम्मं किं बंधी–पुच्छा। गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ। सलेस्से णं भंते! अचरिमे मनुस्से पावं कम्मं किं बंधी? एवं चेव तिन्नि भंगा चरमविहूणा भाणियव्वा एवं जहेव पढमुद्देसे, नवरं–जेसु तत्थ वीससु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिन्नि भंगा भाणियव्वा चरिमभंगवज्जा। अलेस्से केवल-नाणी य अजोगी य–एए तिन्नि वि न पुच्छिज्जंति,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! अचरम नैरयिक ने पापकर्म बाँधा था ? इत्यादि प्रश्न। गौतम ! किसी ने पापकर्म बाँधा था, इत्यादि प्रथम उद्देशक समान सर्वत्र प्रथम और द्वीतिय भंग पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक पर्यन्त कहना। भगवन्‌ ! क्या अचरम मनुष्य ने पापकर्म बाँधा था ? किसी मनुष्य ने बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा, किसी ने बाँधा था, बाँधता है
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-३४ एकेन्द्रिय

शतक-शतक-१

उद्देशक-१ Hindi 1033 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कइविहा णं भंते! एगिंदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंचविहा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा–पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया। एवमेते चउक्कएणं भेदेणं भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइया। अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता-सुहुम-पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! कइसमएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा? एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ

Translated Sutra: भगवन्‌ ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के, यथा – पृथ्वीकायिक यावत्‌ वनस्पतिकायिक। इनके भी प्रत्येक के चार – चार भेद वनस्पतिकायिक – पर्यन्त कहने चाहिए। भगवन्‌ ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्‌घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी
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