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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ कापिलिय |
Hindi | 216 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न हु पाणवहं अनुजाने मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं ।
एवारिएहिं अक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो ॥ Translated Sutra: जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्य पुरुषों ने कहा है – ‘‘जो प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह कभी भी सब दुःखों से मुक्त नहीं होता। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ कापिलिय |
Hindi | 226 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु ।
जाओ पुरिसं पलोभित्ता खेल्लंति जहा व दासेहिं ॥ Translated Sutra: जिनके हृदय में कपट है अथवा जो वक्ष में फोड़े के रूप स्तनोंवाली हैं, जो अनेक कामनाओंवाली हैं, जो पुरुष को प्रलोभन मैं फँसाकर उसे दास की भाँति नचाती हैं, ऐसी राक्षसी – स्वरूप साधनाविद्या तक स्त्रियों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। स्त्रियों को त्यागनेवाला अनगार उनमें आसक्त न हो। भिक्षु – धर्म को पेशल जानकर उसमें | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 241 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं निसामित्ता हेऊकारणचोइओ ।
तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा – ‘‘जिनके पास अपना जैसा कुछ भी नहीं है, ऐसे हम लोग सुख से रहते हैं, सुख से जीते हैं। मिथिला के जलने में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है – पुत्र, पत्नी और गृह – व्यापार से मुक्त भिक्षु के लिए न कोई वस्तु प्रिय होती है और न कोई अप्रिय – ‘सब ओर से मैं अकेला | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 262 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिने ।
एगं जिनेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २६१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 321 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न हु जिने अज्ज दिस्सई बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए ।
संपइ नेयाउए पहे समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: भविष्य में लोग कहेंगे – ‘आज जिन नहीं दिख रहे हैं और जो मार्गदर्शक हैं भी, वे एक मत के नहीं है।’ किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 373 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कोहो य मानो य वहो य जेसिं मोसं अदत्तं च परिग्गहं च ।
ते माहणा जाइविज्जाविहूणा ताइं तु खेत्ताइं सुपावयाइं ॥ Translated Sutra: यक्ष – ‘‘जिनमें क्रोध, मान, हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह हैं, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन पापक्षेत्र हैं।’’ हे ब्राह्मणो ! इस संसार में आप केवल वाणी का भार ही वहन कर रहे हो। वेदों को पढ़कर भी उनके अर्थ नहीं जानते। जो मुनि भिक्षा के लिए समभावपूर्वक ऊंच नीच घरों में जाते हैं, वे ही पुण्य – क्षेत्र हैं। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 380 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवाभिओगेण निओइएणं दिन्ना मु रन्ना मनसा न ज्झाया ।
नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं जेणम्हि वंता इसिणा स एसो ॥ Translated Sutra: भद्रा – देवता की बलवती प्रेरणा से राजा ने मुझे इस मुनि को दिया था, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा। मेरा परित्याग करने वाले यह ऋषि नरेन्द्रों और देवेन्द्रों से भी पूजित हैं। ये वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने स्वयं मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा मुझे दिये जाने | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 443 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सकम्मसेसेण पुराकएणं कुलेसु दग्गेसु य ते पसूया ।
निव्विण्णसंसारभया जहाय जिनिंदमग्गं सरणं पवन्ना ॥ Translated Sutra: पूर्वभव में कृत अपने अवशिष्ट कर्मों के कारण वे जीव उच्चकुलों में उत्पन्न हुए और संसारभय से उद्विग्न होकर कामभोगों का परित्याग कर जिनेन्द्रमार्ग की शरण ली। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 486 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इमे य बद्धा फंदंति मम हत्थऽज्जमागया ।
वयं च सत्ता कामेसु भविस्सामो जहा इमे ॥ Translated Sutra: आर्य ! हमारे हस्तगत हुए ये कामभोग, जिन्हें हमने नियन्त्रित समझ रखा है, वस्तुतः क्षणिक है। अभी हम कामनाओं में आसक्त हैं, किन्तु जैसे कि पुरोहित – परिवार बन्धनमुक्त हुआ, वैसे ही हम भी होंगे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 492 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं ते कमसो बुद्धा सव्वे धम्मपरायणा ।
जम्ममच्चुभउव्विग्गा दुक्खस्संतगवेसिणो ॥ Translated Sutra: इस प्रकार वे सब क्रमशः बुद्ध बने, धर्मपरायण बने, जन्म एवं मृत्यु के भय से उद्विग्न हुए, अत एव दुःख के अन्त की खोज में लग गये। जिन्होंने पूर्व जन्म में अनित्य एवं अशरण आदि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित किया था, वे सब राजा, रानी, ब्राह्मण, पुरोहित, उसकी पत्नी और उनके दोनों पुत्र वीतराग अर्हत् – शासन में मोह को दूर | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 511 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा। Translated Sutra: आयुष्मन् ! भगवान् ने ऐसा कहा है। स्थविर भगवन्तों ने निर्ग्रन्थ प्रवचन में दस ब्रह्मचर्य – समाधि – स्थान बतलाए हैं – जिन्हें सुन कर, जिनके अर्थ का निर्णय कर भिक्षु संयम, संवर तथा समाधि से अधिकाधिक सम्पन्न हो – गुप्त हो, इन्द्रियों को वश में रखे – ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 542 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियउवज्झाएहिं सुयं विनयं च गाहिए ।
ते चेव खिंसई बाले पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जिन आचार्य और उपाध्यायों से श्रुत और विनय ग्रहण किया है, उन्हीं की निन्दा करता है, उनकी निन्दा नहीं करता है, अपितु उनका अनादर करता है, जो ढीठ है, वह पाप श्रमण कहलाता है। सूत्र – ५४२, ५४३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 577 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोऊण तस्स सो धम्मं अनगारस्स अंतिए ।
महया संवेगनिव्वेयं समावन्नो नराहिवो ॥ Translated Sutra: अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया। राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया। सूत्र – ५७७, ५७८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 578 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संजओ चइउं रज्जं निक्खंतो जिनसासने ।
गद्दभालिस्स भगवओ अनगारस्स अंतिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 590 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो ।
अहो उट्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे ॥ Translated Sutra: मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नो से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ। अहो ! मैं दिन – रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ। यह जानकर तुम भी तप का आचरण करो।जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे सर्वज्ञ ने प्रकट किया है। अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है। सूत्र – ५९०, ५९१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 591 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जं च मे पुच्छसी काले सम्मं सुद्धेण चेयसा ।
ताइं पाउकरे बुद्धे तं नाणं जिनसासने ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५९० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 593 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थधम्मोवसोहियं ।
भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए ॥ Translated Sutra: अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हुए थे। नराधिप सागर चक्रवर्ती सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। महान् ऋद्धि – संपन्न, यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 602 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अन्निओ रायसहस्सेहिं सुपरिच्चाई दमं चरे ।
जयनामो जिनक्खायं पत्तो गइमनुत्तरं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५९३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 606 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए नरिंदवसभा निक्खंता जिनसासने ।
पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं सामन्ने पज्जुवट्ठिया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६०५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 611 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कहं धीरो अहेऊहिं उम्मत्तो व्व महिं चरे? ।
एए विसेसमादाय सूरा दढपरक्कमा ॥ Translated Sutra: इन भरत आदि शूर और दृढ पराक्रमी राजाओं ने जिनशासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था। अतः अहेतुवादों से प्रेरित होकर अब कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे ? | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२० महानिर्ग्रंथीय |
Hindi | 762 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेवहाछंदकुसीलरूवे मग्गं विराहेत्तु जिनुत्तमाणं ।
कुररी विवा भोगरसानुगिद्धा निरट्ठसोया परियावमेइं ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार स्वच्छन्द और कुशील साधु भी जिनोत्तम मार्ग की विराधना कर वैसे ही परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि भोगरसोंमें आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है।’’ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२० महानिर्ग्रंथीय |
Hindi | 766 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तुट्ठो य सेणिओ राया इणमुदाहु कयंजली ।
अनाहत्तं जहाभूयं सुट्ठु मे उवदंसियं ॥ Translated Sutra: राजा श्रेणिक संतुष्ट हुआ और हाथ जोड़कर बोला – भगवन् ! अनाथ का यथार्थ स्वरूप आपने मुझे ठीक तरह समझाया है। हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य – जन्म सफल है, उपलब्धियाँ सफल हैं, तुम सच्चे सनाथ और सबान्धव हो, क्योंकि तुम जिनेश्वर के मार्ग में स्थित हो। सूत्र – ७६६, ७६७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२० महानिर्ग्रंथीय |
Hindi | 767 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तुज्झं सुलद्धं खु मनुस्सजम्मं लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी! ।
तुब्भे सनाहा य सबंधवा य जं भे ठिया मग्गे जिनुत्तमाणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७६६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 784 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहिंस सच्चं च अतेनगं च तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च ।
पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्ज धम्मं जिनदेसियं विऊ ॥ Translated Sutra: विद्वान् मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 824 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोऊण रायकन्ना पव्वज्जं सा जिनस्स उ ।
नीहासा य निरानंदा सोगेण उ समुत्थया ॥ Translated Sutra: भगवान् अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या सुनकर राजकन्या राजीमती के हास्य और आनन्द सब समाप्त हो गए। और वह शोकसे मूर्च्छित हो गई। राजीमती ने सोचा – धिक्कार है मेरे जीवन को। चूँकि मैं अरिष्टनेमि के द्वारा परित्यक्ता हूँ, अतः मेरा प्रव्रजित होना ही श्रेय है। धीर तथा कृतसंकल्प राजीमती ने कूर्च और कंधी से सँवारे हुए | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 832 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह सो वि रायपुत्तो समुद्दविजयंगओ ।
भीयं पवेवियं दट्ठुं इमं वक्कं उदाहरे ॥ Translated Sutra: तब समुद्रविजय के अंगजात उस राजपुत्र ने राजीमती को भयभीत और काँपती हुई देखकर वचन कहा – भद्रे ! मैं रथनेमि हूँ। हे सुन्दरी ! हे चारुभाषिणी ! तू मुझे स्वीकार कर। हे सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। निश्चित ही मनुष्य – जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। आओ, हम भोगों को भोगे। बाद में भुक्तभोगी हम जिन – मार्ग में दीक्षत होंगे। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 834 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एहि ता भुंजिमो भोए मानुस्सं खु सुदुल्लहं ।
भुत्तभोगा तओ पच्छा जिनमग्गं चरिस्सिमो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८३२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 847 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जिने पासे त्ति नामेण अरहा लोगपूइओ ।
संबुद्धप्पा य सव्वण्णू धम्मतित्थयरे जिने ॥ Translated Sutra: पार्श्व नामक जिन, अर्हन्, लोकपूजित सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म – तीर्थ के प्रवर्त्तक और वीतराग थे। लोक – प्रदीप भगवान् पार्श्व के ज्ञान और चरण के पारगामी, महान् यशस्वी ‘केशीकुमार – श्रमण’ शिष्य थे। वे अवधि – ज्ञान और श्रुत – ज्ञान से प्रबुद्ध थे। शिष्य – संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 882 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस ।
दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिनामहं ॥ Translated Sutra: गणधर गौतम – एक को जीतने से पाँच जीत लिए गए और पाँच को जीत लेने से दस जीत लिए गए। दसों को जीतकर मैंने सब शत्रुओं को जीत लिया। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 908 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मग्गे य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी ।
केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: मार्ग किसे कहते हैं ? केशी ने गौतम को कहा। गौतम ने कहा – मिथ्या प्रवचन को मानने वाले सभी पाखण्डी लोग उन्मार्ग पर चलते हैं। सन्मार्ग तो जिनोपदिष्ट है, और वही उत्तम मार्ग है। सूत्र – ९०८, ९०९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 909 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कुप्पवयणपासंडी सव्वे उम्मग्गपट्ठिया ।
सम्मग्गं तु जिनक्खायं एस मग्गे हि उत्तमे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ९०८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 923 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भानू य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी ।
केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: वह सूर्य कौन है ? केशी ने गौतम को कहा। गौतम ने कहा – जिसका संसार क्षीण हो गया है, जो सर्वज्ञ है, ऐसा जिन – भास्कर उदित हो चुका है। वह सब प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा। सूत्र – ९२३, ९२४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 924 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उग्गओ खीणसंसारो सव्वण्णू जिनभक्खरो ।
सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोयंमि पाणिणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ९२३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 932 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे ।
अभिवंदित्ता सिरसा गोयमं तु महायसं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार संशय के दूर होने पर घोर पराक्रमी केशीकुमार, महान् यशस्वी गौतम को वन्दना कर – प्रथम और अन्तिम जिनों के द्वारा उपदिष्ट एवं सुखावह पंचमहाव्रतरूप धर्म के मार्ग में भाव से प्रविष्ट हुए। सूत्र – ९३२, ९३३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२४ प्रवचनमाता |
Hindi | 936 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठ पवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य ।
पंचेव य समिईओ तओ गुत्तीओ आहिया ॥ Translated Sutra: समिति और गुप्ति – रूप आठ प्रवचनमाताऍं हैं। समितियाँ पाँच हैं। गुप्तियाँ तीन हैं। ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान समिति और उच्चार समिति। मनो – गुप्ति, वचन गुप्ति और आठवीं प्रवचन माता काय – गुप्ति है। ये आठ समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं इनमें जिनेन्द्र – कथित द्वादशांग – रूप समग्र प्रवचन अन्तर्भूत | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२४ प्रवचनमाता |
Hindi | 938 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयाओ अट्ठ समिईओ समासेण वियाहिया ।
दुवालसंगं जिनक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ९३६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1092 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो ॥ Translated Sutra: परोपदेश के बिना स्वयं के ही यथार्थ बोध से अवगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और संवर आदि तत्त्वों की जो रुचि है, वह ‘निसर्ग रुचि’ है। जिन दृष्ट भावों में, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में – ‘यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है’ – ऐसी जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है, वह ‘निसर्गरुचि’ है। सूत्र – १०९२, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1093 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो जिनदिट्ठे भावे चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव ।
एमेव नन्नह त्ति य निसग्गरुइ त्ति नायव्वो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०९२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1094 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए चेव उ भावे उवइट्ठे जो परेण सद्दहई ।
छउमत्थेण जिनेण व उवएसरुइ त्ति नायव्वो ॥ Translated Sutra: जो अन्य छद्मस्थ अथवा अर्हत् के उपदेश से जीवादि भावों में श्रद्धान् करता है, वह ‘उपदेशरुचि’ जानना | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1358 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आनुपुव्विं जहक्कमं ।
जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवत्तए ॥ Translated Sutra: मैं अनुपूर्वी के क्रमानुसार आठ कर्मों का वर्णन करूँगा, जिनसे बँधा हुआ यह जीव संसार में परिवर्तन करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1076 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोक्खमग्गगइं तच्चं सुणेह जिनभासियं ।
चउकारणसंजुत्तं नाणदंसणलक्खणं ॥ Translated Sutra: ज्ञानादि चार कारणों से युक्त, ज्ञानदर्शन लक्षण स्वरूप, जिनभाषित, सम्यक् मोक्ष – मार्ग की गति को सुनो | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1077 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
एस मग्गो त्ति पन्नत्तो जिनेहिं वरदंसिहिं ॥ Translated Sutra: वरदर्शी जिनवरों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के मार्ग पर आरूढ हुए जीव सद्गति को प्राप्त करते हैं। सूत्र – १०७७, १०७८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1082 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो ।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो जिनेहिं वरदंसिहिं ॥ Translated Sutra: वरदर्शी जिनवरों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव – यह छह द्रव्यात्मक लोक कहा है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1102 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो अत्थिकायधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च ।
सद्दहइ जिनाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥ Translated Sutra: जिन – कथित अस्तिकाय धर्म में, श्रुत – धर्म में और चारित्र – धर्म में श्रद्धा करता है, वह ‘धर्मरुचि’ वाला है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1108 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अकसायं अहक्खायं छउमत्थस्स जिनस्स वा ।
एयं चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११०७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1155 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिरूवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ। लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! प्रतिरूपता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिरूपता से – जिनकल्प जैसे आचार के पालन से जीव उपकरणों की लघुता को प्राप्त होता है। लघुभूत होकर जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंगवाला, प्रशस्त लिंगवाला, विशुद्ध सम्यक्त्व से सम्पन्न, सत्त्व और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय, अल्प | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1255 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रागं च दोसं च तहेव मोहं उद्धत्तुकामेण समूलजालं ।
जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा ते कित्तइस्सामि अहानुपुव्विं ॥ Translated Sutra: जो राग, द्वेष और मोह का मूल से उन्मूलन चाहता है, उसे जिन – जिन उपायों को उपयोग में लाना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूँगा। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1279 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव रूवम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रूप के प्रति द्वेष करने वाला भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1292 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव सद्दम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष – युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1305 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव गंधम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो गन्ध के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। |