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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Nishithasutra | નિશીથસૂત્ર | Ardha-Magadhi | उद्देशक-९ | Gujarati | 606 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू रन्नो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असनं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति, तं जहा– वरिसधराण वा कंचुइज्जाण दोवारियाण वा दंडारक्खियाण वा। Translated Sutra: જે સાધુ – સાધ્વી શુદ્ધવંશીય, મુદ્રાધારી, મૂર્દ્ધાભિષિક્ત ક્ષત્રિય રાજાના વર્ષધર – અંતઃપુર રક્ષક, કંચૂકી, અંતઃપુરમાં રહેનાર જન્મ નપુંસક, અંતઃપુરના દ્વારપાલ અને દંડરક્ષક માટે કઢાયેલ, અશન, પાન, ખાદિમ, સ્વાદિમ ગ્રહણ કરે કે કરનારને અનુમોદે તો પ્રાયશ્ચિત્ત. | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 263 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] कुद्दिट्ठिकुसत्थेहिं तु भावितो नेच्छए तगं मोत्तुं ।
लोगस्स अनुग्गहकरा चिरपुराणत्ति अम्हे मो ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 676 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] पुनरवि मनुस्सरूवी तणभारेणं तु विसति तं गामं ।
दट्ठुं लवे पुराणो किं इच्छसि अप्पणो नासं ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 683 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] लवति पुराणो को तुम देवो दंसेति मूगरूवं से ।
देवत्तं पुव्वभवं संगारं वावि संभारे ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 1759 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] उवहिं पुराणगहितं अप्पपरिभुत्तं तु गेण्हती तेसिं ।
असती तएतरं पी यदि य गिलाणो भवे तत्थ ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 2423 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] पुरनिग्गता कहं पुन पच्छा पत्ता उ ते हवेज्जाहि ।
गेलन्नखमगपारण वाघातो अंतर हवेज्जा ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 263 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] कुद्दिट्ठिकुसत्थेहिं तु भावितो नेच्छए तगं मोत्तुं ।
लोगस्स अनुग्गहकरा चिरपुराणत्ति अम्हे मो ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 676 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] पुनरवि मनुस्सरूवी तणभारेणं तु विसति तं गामं ।
दट्ठुं लवे पुराणो किं इच्छसि अप्पणो नासं ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 683 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] लवति पुराणो को तुम देवो दंसेति मूगरूवं से ।
देवत्तं पुव्वभवं संगारं वावि संभारे ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 1759 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] उवहिं पुराणगहितं अप्पपरिभुत्तं तु गेण्हती तेसिं ।
असती तएतरं पी यदि य गिलाणो भवे तत्थ ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 2423 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] पुरनिग्गता कहं पुन पच्छा पत्ता उ ते हवेज्जाहि ।
गेलन्नखमगपारण वाघातो अंतर हवेज्जा ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Gujarati | 149 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रायोरोहऽवराहे विभूसिओ घाइओ नयरमज्झे ।
धन्नाधन्नत्ति कहा वहावहो कप्पडियखोला ॥ Translated Sutra: અનુમોદનાના વિષયમાં રાજદુષ્ટનું દૃષ્ટાંત છે, તે આ પ્રમાણે – શ્રીનીલય નગરે ગુણચંદ્ર રાજા હતા, ગુણવતી આદિ રાણીઓ હતી. તે નગરમાં સુરૂપ નામે વણિક હતો. અત્યંત સુંદર, કામદેવ જેવો અને પરસ્ત્રી રાગી હતો.તે રાજાના અંત:પુરની રાણીઓને ભોગવવા લાગ્યો. રાજને જાન થતા તેને મારી નાખ્યો. જેઓ સુરુપના ભોગની પ્રશંસા કરતા હતા તે બધાને | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 227 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सोहम्मगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! सोहम्मगदेवा परिवसंति? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय-गह-नक्खत्ततारारूवाणं बहूइं जोयणसताणि बहूइं जोयणसहस्साइं बहूइं जोयणसतसहस्साइं बहुगीओ जोयणकोडीओ बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता, एत्थ णं सोहम्मे नामं कप्पे पन्नत्ते–पाईण-पडीणायते उदीण-दाहिणवित्थिण्णे अद्धचंदसंठाणसंठिते अच्चिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेज्जाओ जोयण-कोडीओ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडा-कोडीओ Translated Sutra: भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्पगत देवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् ऊपर दूर जाने पर सौधर्म नामक कल्प हैं। वह पूर्व – पश्चिम लम्बा, उत्तर दक्षिण विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र आकार में संस्थित, अर्चियों | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१२ शरीर |
Hindi | 404 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविकाइयाणं भंते! केवतिया ओरालियसरीरगा पन्नत्ता? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जेते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जेते मुक्केल्लगा ते णं अनंता, अनंताहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अनंता लोगा, अभवसिद्धिएहिंतो अनंतगुणा, सिद्धाणं अनंतभागो।
पुढविकाइयाणं भंते! केवतिया वेउव्वियसरीरया पन्नत्ता? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जेते बद्धेल्लगा ते णं नत्थि। तत्थ णं जेते मुक्केल्लगा ते णं Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम ! दो – बद्ध और मुक्त। जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल से – (वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र से वे असंख्यात लोक – प्रमाण हैं। जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं। कालतः अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 552 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मोसाहारा? गोयमा! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा एवं असुरकुमारा जाव वेमानिया।
ओरालियसरीरी जाव मनूसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा वि मीसाहारा वि।
नेरइया णं भंते! आहारट्ठी? हंता गोयमा! आहारट्ठी।
नेरइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति? गोयमा! नेरइयाणं आहारे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभोगनिव्वत्तिए य अणाभोगनिव्वत्तिए य। तत्थ णं जेसे अणाभोगनिव्वत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जति। तत्थ णं जेसे आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्ठे समुप्पज्जति।
नेरइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति? Translated Sutra: भगवन् ! क्या नैरयिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ? गौतम ! वे केवल अचित्ताहारी होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिकों पर्यन्त जानना। औदारिकशरीरी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं। भगवन् ! क्या नैरयिक आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 553 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] असुरकुमारा णं भंते! आहारट्ठी? हंता! आहारट्ठी। एवं जहा नेरइयाणं तहा असुरकुमाराण वि भाणियव्वं जाव ते तेसिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। तत्थ णं जेसे आभोगनिव्वत्तिए से णं जहन्नेणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं सातिरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति।
ओसन्नकारणं पडुच्च वण्णओ हालिद्द-सुक्किलाइं गंधओ सुब्भिगंधाइं रसओ अंबिल-महुराइं फासओ मउय-लहुअ-निद्धुण्हाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे जाव फासिंदियत्ताए जाव मणामत्ताए इच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए उड्ढत्ताए–णो अहत्ताए सुह-त्ताए–णो दुहत्ताए ते तेसिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। सेसं जहा नेरइयाणं।
एवं जाव थणियकुमाराणं, नवरं–आभोगनिव्वत्तिए Translated Sutra: भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। नारकों की वक्तव्यता समान असुर – कुमारों के विषय में यावत्… ‘उनके पुद्गलों का बार – बार परिणमन होता है’ यहाँ तक कहना। उनमें जो आभोग – निर्वर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ – भक्त पश्चात एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 554 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविक्काइया णं भंते! आहारट्ठी? हंता! आहारट्ठी।
पुढविक्काइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति? गोयमा! अनुसमयं अविरहिए आहरट्ठे समुप्पज्जति।
पुढविक्काइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति एवं जहा नेरइयाणं जाव–ताइं भंते! कति दिसिं आहारेंति? गोयमा! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, नवरं– ओसन्नकारणं न भवति, वण्णतो काल-नील-लोहिय-हालिद्द-सुक्किलाइं, गंधओ सुब्भिगंध-दुब्भिगंधाइं, रसओ तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराइं, फासतो कक्खड-मउय-गरुय-लहुय-सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विप्परिणामइत्ता Translated Sutra: भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! प्रतिसमय बिना विरह के होती है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के कथन के समान जानना; यावत् पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३६ समुद्घात |
Hindi | 619 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिसमइए णं भंते! केवलिसमुग्घाए पन्नत्ते? गोयमा! अट्ठसमइए पन्नत्ते, तं जहा–पढमे समए दंडं करेति, बिइए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समए लोगं पडिसाहरति, छट्ठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता ततो पच्छा सरीरत्थे भवति।
से णं भंते! तहासमुग्घायगते किं मनजोगं जुंजति? वइजोगं जुंजति? कायजोगं जुंजति? गोयमा! नो मनजोगं जुंजइ, नो वइजोगं जुंजइ, कायजोगं जुंजति।
कायजोगण्णं भंते! जुंजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुंजति? ओरालियमीसासरीर-कायजोगं जुंजति? किं वेउव्वियसरीरकायजोगं जुंजति? वेउव्वियमीसासरीरकायजोगं Translated Sutra: भगवन् ! केवलिसमुद्घात कितने समय का है ? गौतम ! आठ समय का, – प्रथम समय में दण्ड करता है, द्वितीय समय में कपाट, तृतीय समय में मन्थान, चौथे समय में लोक को व्याप्त करता है, पंचम समय में लोक – पूरण को सिकोड़ता है, छठे समय में मन्थान को, सातवें समय में कपाट को और आठवें समय में दण्ड को सिकोड़ता है और दण्ड का संकोच करते ही शरीरस्थ | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ अपरिग्रह |
Hindi | 45 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जो सो वीरवरवयणविरतिपवित्थर-बहुविहप्पकारो सम्मत्तविसुद्धमूलो धितिकंदो विणयवेइओ निग्गततिलोक्कविपुल-जसनिचियपीणपीवरसुजातखंधो पंचमहव्वयविसालसालो भावणतयंत ज्झाण सुभजोग नाण पल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हयफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि सिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खर मोत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवर-वरपायवो। चरिमं संवरदारं।
जत्थ न कप्पइ गामागर नगर खेड कब्बड मडंब दोणमुह पट्टणासमगयं च किंचि अप्पं व बहुं व अणुं व थूलं व तस थावरकाय दव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं। न हिरण्ण सुवण्ण खेत्त वत्थुं, न दासी दास भयक पेस हय गय गवेलगं व, न जाण जुग्ग सयणासणाइं, Translated Sutra: श्रीवीरवर – महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर – पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है। विनय इसकी वेदिका है। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भावनाएं इस संवरवृक्ष | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Hindi | 68 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ–एवं खलु भंते! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अनेगगनणायक दंडणायग राईसर तलवर माडंबिय कोडुंबिय इब्भ सेट्ठि सेनावइ सत्थवाह मंति महामंति गणग दोवारिय अमच्च चेड पीढमद्द नगर निगम दूय संधिवालेहिं सद्धिं संपरिवुडे विहरामि। तए णं ममं णगरगुत्तिया ससक्खं सहोढं सलोद्दं सगेवेज्जं अवउडगबंधणबद्धं चोरं उवणेंति। तए णं अहं तं पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि, ववरोवेत्ता अओकुंभीए पक्खिवावेमि, अओमएणं पिहाणएणं पिहावेमि, अएण य तउएण य कायावेमि, आयपच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि।
तए Translated Sutra: प्रदेशी राजा ने केशीकुमारश्रमण से कहा – बुद्धि – विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है। किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती है। हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पाँच बाणों को नीकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Hindi | 69 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–अत्थि णं भंते! एस पन्नओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ– भंते! से जहानामए–केइ पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणि पाय पिट्ठंतरोरुपरिणए घन निचिय वट्ट बलियखंधे चम्मेट्ठग दुघण मुट्ठिय समाहय निचियगत्ते उरस्सबलसमण्णागए तलजमलजुयलबाहू लंघण पवण जइण पमद्दणसमत्थे छेए दक्खे पत्तट्ठे कुसले मेधावी निउण सिप्पोवगए पभू पंचकंडगं निसिरित्तए?
हंता पभू। जति णं भंते! सच्चेव पुरिसे बाले अदक्खे अपत्तट्ठे अकुसले अमेहावी मंदविण्णाणे पभू होज्जा पंचकंडगं निसिरित्तए, तो णं अहं सद्दहेज्जा पत्तिए-ज्जा रोएज्जा Translated Sutra: प्रदेशी राजा ने कहा – हे भदन्त ! यह तो प्रज्ञाजन्य उपमा है। किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत हेतु से तो यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है। भदन्त ! कोई एक तरुण यावत् कार्यक्षम पुरुष एक विशाल वजनदार लोहे के भार की, सीसे के भार को या रांगे के भार को उठाने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण – हाँ, समर्थ है। लेकिन | |||||||||
Rajprashniya | રાજપ્રશ્નીય ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Gujarati | 54 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग तिय चउक्क चच्चर चउम्मुह महापहपहेसु महया जनसद्दे इ वा जनवूहे इ वा जनबोले इ वा जनकलकले इ वा जनउम्मी इ वा जनसन्निवाए इ वा बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ–
एवं खलु देवानुप्पिया! पासावच्चिज्जे केसी नामं कुमारसमणे जातिसंपन्ने पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो! देवानुप्पिया! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन Translated Sutra: ત્યારે શ્રાવસ્તી નગરીના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, ચતુર્મુખ, મહાપથ – પથોમાં મહા જનશબ્દ, જનવ્યૂહ, જન કલકલ, જન બોલ, જનઉર્મિ, જનઉત્કલિક, જન સંનિપાતિક યાવત્ પર્ષદા સેવે છે. ત્યારે તે ચિત્તસારથી, તે મહા જનશબ્દ અને જન કલકલ સાંભળીને અને જોઈને આવા પ્રકારનો સંકલ્પ યાવત્ ઉત્પન્ન થયો. શું આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઇન્દ્ર | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | English |
Metaphysics |
35. Dravysutra | 644 | View Detail | |||
Mool Sutra: Vannarasagamdhaphase, puranagalanai savvakalamhi.
Khamdam iva kunamana, paramanu puggala tamha. Translated Sutra: Like the molecules, the atoms also possess the attributes of colour, taste, smell and touch, they remain everchanging by getting conjoined and disjoint. They therefore are called Pudgala. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | English |
Theory of Relativity |
(A) PANCAVIDHA JNANA | 680 | View Detail | |||
Mool Sutra: Maipuvvam suyamuttam, na mai suyapuvviya viseso’yam.
Puvvam puranapalana-bhavao jam mai tassa. Translated Sutra: The Srutajnana is acquired through matijnana while the matijnana is not acquired through Srutajnana, but in the act of fortering thoughts, it is the characteristic of matijnana that it precedes the Srutajnana. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | English |
Theory of Relativity |
39. Nayasutra | 711 | View Detail | |||
Mool Sutra: Saddarudho attho, attharudho taheva puna saddo.
Bhanai iha samabhirudho, jaha imda puramdaro sakko. Translated Sutra: Every word is followed by a specific meaning and vice-versa. The different synonymous words have their respective connotations even if the same object is referred to by them. For example, the word, Indra, Purandar and Sakra connote the same object, yet they have their respective meaning to. This is known as Samabhirudhanaya. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | English | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वण्णरसगंधफासे, पूरणगलणाइ सव्वकालम्हि।
खंदं इव कुणमाणा, परमाणू पुग्गला तम्हा।।२१।। Translated Sutra: Like the molecules, the atoms also possess the attributes of colour, taste, smell and touch, they remain everchanging by getting conjoined and disjoint. They therefore are called Pudgala. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | English | 680 | View Detail | ||
Mool Sutra: मइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं।
पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स।।७।। Translated Sutra: The Srutajnana is acquired through matijnana while the matijnana is not acquired through Srutajnana, but in the act of fortering thoughts, it is the characteristic of matijnana that it precedes the Srutajnana. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | English | 711 | View Detail | ||
Mool Sutra: सद्दारूढो अत्थो, अत्थारूढो तहेव पुण सद्दो।
भणइ इह समभिरूढो, जह इंद पुरंदरो सक्को।।२२।। Translated Sutra: Every word is followed by a specific meaning and vice-versa. The different synonymous words have their respective connotations even if the same object is referred to by them. For example, the word, Indra, Purandar and Sakra connote the same object, yet they have their respective meaning to. This is known as Samabhirudhanaya. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Gujarati | 161 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं।।२।। Translated Sutra: જગતમાં સારભૂત એવા જ્ઞાનાદિ પદાર્થોને સૂઈ રહેનારો આત્મા ખોઈ નાખે છે. માટે જાગૃત રહીને પુરાણાં કર્મોને ખંખેરતા રહો. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Gujarati | 609 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा महातलायस्स, सन्निरुद्धे जलागमे।
उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे।।२२।। Translated Sutra: કોઈ મોટા તળાવમાં પાણીને આવવાનાં રસ્તા બંધ કરી દેવામાં આવે તો બાકીનું પાણી ઉલેચાઈને ખલાસ થઈ જાય છે અથવા તાપથી સોસાઈ જાય છે, એવી જ રીતે, સંયમી પુરુષ નવાં કર્મોને આવવાનાં દ્વાર બંધ કરે છે ત્યારે અનેક જન્મોનાં એકત્ર થયેલાં તેનાં પુરાણાં કર્મો તપ વડે સંદર્ભ ૬૦૯-૬૧૦ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वण्णरसगंधफासे, पूरणगलणाइ सव्वकालम्हि।
खंदं इव कुणमाणा, परमाणू पुग्गला तम्हा।।२१।। Translated Sutra: જેમાં સદા પૂરણ અને ગલન (કંઈક ઉમેરાવું અને કંઈક ઓછું થવું, જોડાવું અને છૂટા થવું) વગેરે ક્રિયાઓ ચાલ્યા કરે છે, જેનાં વર્ણ-ગંધ-રસ-સ્પર્શ વગેરે ગુણોમાં પણ વધઘટ થયા કરે છે તે પદાર્થને પુદ્ગલ કહેવાય છે. પુદ્ગલના સ્કન્ધ અને પરમાણુ-બંને પ્રકારોમાં આવું પરિવ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Gujarati | 680 | View Detail | ||
Mool Sutra: मइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं।
पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स।।७।। Translated Sutra: વિશેષતા એ છે કે શ્રુતજ્ઞાન હોય ત્યાં તેની પૂર્વે મતિજ્ઞાન હોય જ, પરંતુ મતિજ્ઞાન હોય ત્યાં શ્રુતજ્ઞાન હોય જ એવું નથી. મતિજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાનનું પાલક - પોષક છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 712 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं जह सद्दत्थो, संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ।
तेणेवंभूयनओ, सद्दत्थपरो विसेसेण।।२३।। Translated Sutra: જ્યારે શબ્દાર્થ પ્રમાણે પદાર્થ વિદ્યમાન હોય છે ત્યારે જ તે શબ્દ તેના માટે પ્રયોજી શકાય એમ એવંભૂત નય કહે છે. (શબ્દથી સૂચિત ક્રિયા કે ગુણ જ્યારે પદાર્થમાં જણાતા ન હોય ત્યારે તે શબ્દ તેને લાગુ પડે નહિ. આ નય મુજબ, ઈન્દ્ર જ્યારે પુરનો નાશ કરતો હતો ત્યારે | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वण्णरसगंधफासे, पूरणगलणाइ सव्वकालम्हि।
खंदं इव कुणमाणा, परमाणू पुग्गला तम्हा।।२१।। Translated Sutra: जिसमें पूरण गलन की क्रिया होती है अर्थात् जो टूटता-जूड़ता रहता है, वह पुद्गल है। स्कन्ध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में सदा पूरण-गलन क्रिया होती रहती है, इसलिए परमाणु भी पुद्गल है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 680 | View Detail | ||
Mool Sutra: मइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं।
पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स।।७।। Translated Sutra: श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नहीं होता। यही दोनों ज्ञानों में अन्तर है। `पूर्व' शब्द `पृ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है पालन और पूरण। श्रुत का पूरण और पालन करने से मतिज्ञान पूर्व में ही होता है। अतः मतिपूर्वक ही श्रुत कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 711 | View Detail | ||
Mool Sutra: सद्दारूढो अत्थो, अत्थारूढो तहेव पुण सद्दो।
भणइ इह समभिरूढो, जह इंद पुरंदरो सक्को।।२२।। Translated Sutra: जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने वाचक अर्थ में आरूढ़ है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्द भी अपने-अपने अर्थ में आरूढ़ है। अर्थात् शब्दभेद के साथ अर्थभेद होता ही है। जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शक्र--तीनों शब्द देवों के राजा के बोधक हैं, तथापि इन्द्र शब्द से उसके ऐश्वर्य का बोध होता है, पुरन्दर से अपने शत्रु के पुरों का नाश करनेवाले | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | English | 161 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीदन्ति स्वपताम्, अर्थाः पुरुषाणां लोकसारार्थाः।
तस्माज्जागरमाणा, विधूनयत पुराणकं कर्म।।२।। Translated Sutra: He who sleeps, his many excellent things of this world are lost unknowingly. Therefore, remain awake all the while and destroy the Karmas, accumulated in the past. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | English | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात्।।२१।। Translated Sutra: Like the molecules, the atoms also possess the attributes of colour, taste, smell and touch, they remain everchanging by getting conjoined and disjoint. They therefore are called Pudgala. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | English | 680 | View Detail | ||
Mool Sutra: मतिपूर्वं श्रुतमुक्तं, न मतिः श्रुतपूर्विका विशेषोऽयम्।
पूर्वं पूरणपालन - भावाद्यद् मतिस्तस्य।।७।। Translated Sutra: The Srutajnana is acquired through matijnana while the matijnana is not acquired through Srutajnana, but in the act of fortering thoughts, it is the characteristic of matijnana that it precedes the Srutajnana. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | English | 711 | View Detail | ||
Mool Sutra: शब्दारूढोऽर्थोऽर्थारूढस्तथैव पुनः शब्दः।
भणति इह समभिरूढो, यथा इन्द्रः पुरन्दरः शक्रः।।२२।। Translated Sutra: Every word is followed by a specific meaning and vice-versa. The different synonymous words have their respective connotations even if the same object is referred to by them. For example, the word, Indra, Purandar and Sakra connote the same object, yet they have their respective meaning to. This is known as Samabhirudhanaya. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | English | 746 | View Detail | ||
Mool Sutra: नहि नूनं पुराऽनुश्रुत-मथवा तत्तथा नो समुत्थितम्।
मुनिना सामायिकाद्याख्यातं, ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना।।२।। Translated Sutra: One might not have heard about that or one might not have acted in accordance with that, but certainly virtues like equanimity etc. have been preached by the omniscient sage Jnataputra (=Mahavira). | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Gujarati | 161 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीदन्ति स्वपताम्, अर्थाः पुरुषाणां लोकसारार्थाः।
तस्माज्जागरमाणा, विधूनयत पुराणकं कर्म।।२।। Translated Sutra: જગતમાં સારભૂત એવા જ્ઞાનાદિ પદાર્થોને સૂઈ રહેનારો આત્મા ખોઈ નાખે છે. માટે જાગૃત રહીને પુરાણાં કર્મોને ખંખેરતા રહો. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Gujarati | 609 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा महातडागस्य, सन्निरुद्धे जलागमे।
उत्सिञ्चनया तपनया, क्रमेण शोषणा भवेत्।।२२।। Translated Sutra: કોઈ મોટા તળાવમાં પાણીને આવવાનાં રસ્તા બંધ કરી દેવામાં આવે તો બાકીનું પાણી ઉલેચાઈને ખલાસ થઈ જાય છે અથવા તાપથી સોસાઈ જાય છે, એવી જ રીતે, સંયમી પુરુષ નવાં કર્મોને આવવાનાં દ્વાર બંધ કરે છે ત્યારે અનેક જન્મોનાં એકત્ર થયેલાં તેનાં પુરાણાં કર્મો તપ વડે સંદર્ભ ૬૦૯-૬૧૦ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात्।।२१।। Translated Sutra: જેમાં સદા પૂરણ અને ગલન (કંઈક ઉમેરાવું અને કંઈક ઓછું થવું, જોડાવું અને છૂટા થવું) વગેરે ક્રિયાઓ ચાલ્યા કરે છે, જેનાં વર્ણ-ગંધ-રસ-સ્પર્શ વગેરે ગુણોમાં પણ વધઘટ થયા કરે છે તે પદાર્થને પુદ્ગલ કહેવાય છે. પુદ્ગલના સ્કન્ધ અને પરમાણુ-બંને પ્રકારોમાં આવું પરિવ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Gujarati | 680 | View Detail | ||
Mool Sutra: मतिपूर्वं श्रुतमुक्तं, न मतिः श्रुतपूर्विका विशेषोऽयम्।
पूर्वं पूरणपालन - भावाद्यद् मतिस्तस्य।।७।। Translated Sutra: વિશેષતા એ છે કે શ્રુતજ્ઞાન હોય ત્યાં તેની પૂર્વે મતિજ્ઞાન હોય જ, પરંતુ મતિજ્ઞાન હોય ત્યાં શ્રુતજ્ઞાન હોય જ એવું નથી. મતિજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાનનું પાલક - પોષક છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 711 | View Detail | ||
Mool Sutra: शब्दारूढोऽर्थोऽर्थारूढस्तथैव पुनः शब्दः।
भणति इह समभिरूढो, यथा इन्द्रः पुरन्दरः शक्रः।।२२।। Translated Sutra: સમભિરૂઢ નય એવું માને છે કે અર્થ જેમ શબ્દ પર આરૂઢ છે - શબ્દથી બંધાયેલો છે તેમ શબ્દ પણ અર્થથી બંધાયેલો છે. અર્થાત્ દરેક શબ્દ ભિન્ન ભિન્ન પદાર્થનો વાચક છે, પછી ભલે તે પર્યાયવાચી ગણાતો હોય. ઈન્દ્ર, શક્ર, પુરંદર વગેરે શબ્દો ભિન્ન ભિન્ન અર્થ જણાવે છે. (સમ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 712 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं यथा शब्दार्थः, सन् भूतस्तदन्यथाऽभूतः।
तेनैवंभूतनयः,शब्दार्थपरो विशेषेण।।२३।। Translated Sutra: જ્યારે શબ્દાર્થ પ્રમાણે પદાર્થ વિદ્યમાન હોય છે ત્યારે જ તે શબ્દ તેના માટે પ્રયોજી શકાય એમ એવંભૂત નય કહે છે. (શબ્દથી સૂચિત ક્રિયા કે ગુણ જ્યારે પદાર્થમાં જણાતા ન હોય ત્યારે તે શબ્દ તેને લાગુ પડે નહિ. આ નય મુજબ, ઈન્દ્ર જ્યારે પુરનો નાશ કરતો હતો ત્યારે | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | Gujarati | 746 | View Detail | ||
Mool Sutra: नहि नूनं पुराऽनुश्रुत-मथवा तत्तथा नो समुत्थितम्।
मुनिना सामायिकाद्याख्यातं, ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना।।२।। Translated Sutra: એ પરમ મુનિએ - સર્વદર્શી જ્ઞાતપુત્ર મહાવીરે સામાયિક ધર્મનો ઉપદેશ આપ્યો હતો, પણ આ જીવે કાં તો તે સાંભળ્યો નથી ને કાં તો તેનું સમ્યક્ આચરણ કર્યું નથી. | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Hindi | 161 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीदन्ति स्वपताम्, अर्थाः पुरुषाणां लोकसारार्थाः।
तस्माज्जागरमाणा, विधूनयत पुराणकं कर्म।।२।। Translated Sutra: जो पुरुष सोते हैं उनके जगत् में सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते हैं। अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात्।।२१।। Translated Sutra: जिसमें पूरण गलन की क्रिया होती है अर्थात् जो टूटता-जूड़ता रहता है, वह पुद्गल है। स्कन्ध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में सदा पूरण-गलन क्रिया होती रहती है, इसलिए परमाणु भी पुद्गल है। |