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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयानुलोमाहिं आघवणाहिं य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउव्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वयासी–एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अनुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठिए, खुरो इव गंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो Translated Sutra: मेघकुमार के माता – पिता जब मेघकुमार को विषयों के अनुकूल आख्यापना से, प्रज्ञापना से, संज्ञापना से, विज्ञापना से समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से कहने लगे – हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 19 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्णदोहला असम्मानियदोहला सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयनकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला नित्तेया दोणविवण्णवयणा जहोचिय-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हारं अनभिलसमाणी किड्डारमणकिरियं परिहावेमाणी दीना दुम्मणा निरानंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियाइ।
तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडिचारियाओ अब्भिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणिं देविं ओलुग्ग ज्झियायमाणिं पासंति, पासित्ता एवं वयासी– किण्णं तुमे देवानुप्पिए! Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૯. ત્યારે તે ધારિણીદેવી તે દોહદ પૂર્ણ ન થવાથી, દોહદ સંપન્ન ન થવાથી, દોહદ સંપૂર્ણ ન થવાથી, દોહદ સન્માનનીય ન થવાના કારણે શુષ્ક, ભૂખી, નિર્માંસ, રુગ્ણ, જીર્ણ – જીર્ણશરીરી, મ્લાન – કાંતિહીન, દુર્બલ અને કમજોર થઇ ગઈ. તેણી વદનકમળ અને નયનકમળ નમાવીને રહી હતી, તે ફીક્કા મુખવાળી, હથેળીમાં મસળેલ ચંપકમાલાવત્ નિસ્તેજ, | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 33 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयानुलोमाहिं आघवणाहिं य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउव्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वयासी–एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अनुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठिए, खुरो इव गंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो Translated Sutra: ત્યારપછી મેઘકુમારને તેના માતાપિતા જ્યારે વિષયને અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઘણી આખ્યાપના, પ્રજ્ઞાપના, સંજ્ઞાપના, વિજ્ઞાપનાથી સમજાવવા, બૂઝાવવા, સંબોધન અને વિજ્ઞપ્તિ કરવામાં સમર્થ ન થયા, ત્યારે ઇચ્છા વિના મેઘકુમારને આમ કહ્યું – હે પુત્ર! એક દિવસને માટે પણ તારી રાજ્યશ્રીને જોવા ઇચ્છીએ છીએ. ત્યારે તે મેઘકુમાર, માતા | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 37 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं मेहा! इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी–से नूनं तुमं मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणेहि य निग्गच्छमाणेहि य अप्पेगइएहिं हत्थेहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं पाएहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं सीसे संघट्टिए अप्पेगइएहिं पोट्टे संघट्टिए अप्पेगइएहिं कायंसि संघट्टिए अप्पेगइएहिं ओलंडिए अप्पेगइएहिं पोलंडिए अप्पेगइएहिं पाय-रय-रेणु-गुंडिए कए। एमहालियं च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं निमिल्लावेत्तए। तए णं तुज्ज मेहा! इमेयारूवे अज्झत्थिए Translated Sutra: ત્યારે મેઘને આમંત્રી શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે મેઘકુમારને આમ કહ્યું – હે મેઘ ! તું રાત્રિના પહેલા અને છેલ્લા કાળ સમયમાં શ્રમણ – નિર્ગ્રન્થને વાચના, પૃચ્છના આદિ માટે જવા આવવાના કારણે લાંબી રાત્રિ મુહૂર્ત્ત માત્ર પણ ઊંઘી શક્યો નહીં, ત્યારે હે મેઘ ! આ આવા સ્વરૂપનો આધ્યાત્મિક યાવત્ સંકલ્પ થયો કે – જ્યાં સુધી હું ઘેર | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
3. रागद्वेष का प्रतिकार | Hindi | 121 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्,
तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित्। Translated Sutra: तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेष स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपेण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 193 | View Detail | ||
Mool Sutra: फासुयमग्गेण दिवा, जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण।
जंतूण परिहरंति, इरियासमिदी हवे गमणं ।। Translated Sutra: जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासुक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। (कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
5. प्रायश्चित्त तप | Hindi | 215 | View Detail | ||
Mool Sutra: कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि,
तनू भवन्त्यात्मविगर्हणेन।
प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषा-
मत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ।। Translated Sutra: अपनी निन्दा व गर्हा करने से तथा गुरु के समक्ष दोषों का प्रकाशन करने मात्र से किये गये अति दारुण कर्म भी कृश हो जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 293 | View Detail | ||
Mool Sutra: जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं।
तं देही देहत्थो, सदेहमित्तं पभासयदि ।। Translated Sutra: (ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से यद्यपि आत्मा भी सर्वगत कहा जा सकता है, परन्तु) जिस प्रकार पद्मरागमणि दूध के वर्तन में डाल देने पर उसमें स्थित ही सारे दूध को प्रकाशित करती है, उसके बाह्य क्षेत्र को नहीं; उसी प्रकार यह देहस्थ जीवात्मा भी इस शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता हुआ देह प्रमाण ही प्रतिभासित होता है, उससे | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
4. अनेकान्त-निर्देश | Hindi | 373 | View Detail | ||
Mool Sutra: यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम्।
इत्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।। Translated Sutra: जो अखण्ड तत्त्व स्वयं तत् स्वरूप है, वही अतत् स्वरूप है। जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। इस प्रकार वस्तु में वस्तुत्व का दर्शन करानेवाली परस्पर विरुद्ध अनेक शक्तियुगलों का प्रकाशित करना ही अनेकान्त का लक्षण है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
18. आम्नाय अधिकार |
1. जैनधर्म की शाश्वतता | Hindi | 409 | View Detail | ||
Mool Sutra: तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम्।
तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्त्तते, तीर्थंकरः एवम् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थवर्त्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
9. उपगूहनत्व (अनहंकारत्व) | Hindi | 61 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो छादयेन्नापि च लूषयेद्, मानं न सेवेत् प्रकाशनं च।
न चापि प्राज्ञः परिहासं कुर्यात्, न चाशीर्वादं व्यागृणीयात् ।। Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि पुरुष न तो सूत्र के अर्थ को छिपाता है, और न स्व-पक्ष पोषणार्थ उसका अन्यथा कथन करता है। वह अन्य के गुणों को छिपाता नहीं और न ही अपने गुणों का गर्व करके अपनी महत्ता का बखान करता है। स्वयं को प्रज्ञावन्त जानकर वह अन्य का उपहास नहीं करता और न ही अपना गौरव जताने के लिए किसीको आशीर्वाद देता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
3. रागद्वेष का प्रतिकार | Hindi | 121 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटंतौ,
ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्च्चिः ।। Translated Sutra: तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेष स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपेण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 193 | View Detail | ||
Mool Sutra: प्रासुकमार्गेण दिवा युगन्तरप्रेक्षिणा सकार्येण।
जन्तून परिहरता ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ।। Translated Sutra: जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासुक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। (कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
5. प्रायश्चित्त तप | Hindi | 215 | View Detail | ||
Mool Sutra: कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि,
तनू भवन्त्यात्मविगर्हणेन।
प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषा-
मत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ।। Translated Sutra: अपनी निन्दा व गर्हा करने से तथा गुरु के समक्ष दोषों का प्रकाशन करने मात्र से किये गये अति दारुण कर्म भी कृश हो जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 293 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा पद्मरागरत्नं, क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम्।
तथा देही देहस्थः, स्वदेहमात्रं प्रभासयति ।। Translated Sutra: (ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से यद्यपि आत्मा भी सर्वगत कहा जा सकता है, परन्तु) जिस प्रकार पद्मरागमणि दूध के वर्तन में डाल देने पर उसमें स्थित ही सारे दूध को प्रकाशित करती है, उसके बाह्य क्षेत्र को नहीं; उसी प्रकार यह देहस्थ जीवात्मा भी इस शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता हुआ देह प्रमाण ही प्रतिभासित होता है, उससे | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
4. अनेकान्त-निर्देश | Hindi | 373 | View Detail | ||
Mool Sutra: यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम्।
इत्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।। Translated Sutra: जो अखण्ड तत्त्व स्वयं तत् स्वरूप है, वही अतत् स्वरूप है। जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। इस प्रकार वस्तु में वस्तुत्व का दर्शन करानेवाली परस्पर विरुद्ध अनेक शक्तियुगलों का प्रकाशित करना ही अनेकान्त का लक्षण है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
1. जैनधर्म की शाश्वतता | Hindi | 409 | View Detail | ||
Mool Sutra: तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम्।
तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्त्तते, तीर्थंकरः एवम् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थवर्त्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 49 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! ।
तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! काले भविस्सई Translated Sutra: गौतम ! पंचम आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – दुःषमा नामक छठ्ठा आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, समपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। भगवन् ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र |
Hindi | 4 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं एगाए वइरामईए जगईए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते।
सा णं जगई अट्ठ जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले बारस जोयणाइं विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाइं विक्खंभेणं, उवरिं चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं, मूले विच्छिण्णा, मज्झे संक्खित्ता, उवरिं तनुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
सा णं जगई एगेणं महंतगवक्खकडएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। से णं गवक्खकडए अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं पंच धनुसयाइं विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे।
तीसे Translated Sutra: वह एक वज्रमय जगती द्वारा सब ओर से वेष्टित है। वह जगती आठ योजन ऊंची है। मूल में बारह योजन चौड़ी, बीच में आठ योजन चौड़ी और ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त तथा ऊपर पतली है। उस का आकार गाय की पूँछ जैसा है। यह सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई सी – तरासी हुई – सी, रजरहित, मैल – रहित, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र |
Hindi | 13 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्ढे नामं पव्वए पन्नत्ते? गोयमा! उत्तरद्धभरहवासस्स दाहिणेणं, दाहिणड्ढभरहवासस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण-समुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्ढे नामं पव्वए पन्नत्ते–पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्नेदुहा लवणसमुद्दं पुट्ठे–पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवणसमुद्दं पुट्ठे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुद्दं पुट्ठे, पणवीसं जोयणाइं उद्धं उच्चत्तेणं, छस्सकोसाइं जोयणाइं उव्वेहेणं, पन्नासं जोयणाइं विक्खंभेणं। तस्स बाहा पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत कहाँ है ? गौतम ! उत्तरार्ध भरतक्षेत्र के दक्षिण में, दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्व – लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिम – लवणसमुद्र के पूर्व में है। यह पूर्व – पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर – दक्षिण में चौड़ा है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्व – लवणसमुद्र | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 78 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ– तो तं चउरंगुलप्पमाणमेत्तं च अनग्घियं तंसच्छलंसं अनोवमजुइं दिव्वं मणिरयणपतिसमं वेरुलियं सव्वभूयकंतं वेढो–
जेण य मुद्धागएणं दुक्खं, ण किंचि जायइ हवइ आरोग्गे य सव्वकालं।
तेरिच्छिय-देवमाणुसकया य, उवसग्गा सव्वे न करेंति तस्स दुक्खं।
संगामे वि असत्थवज्झो, होइ णरो मणिवरं धरेंतो।
ठियजोव्वण-केसअवट्ठियणहो, हवइ य सव्वभयविप्पमुक्को।
तं मणिरयणं गहाय से नरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए निक्खिवइ।
तए णं से भरहाहिवे नरिंदे हारोत्थयसुकयरइयवच्छे कुंडलउज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए नरसीहे नरवई नरिंदे नरवसभे मरुयरायवसभकप्पे अब्भहियरायतेयलच्छीए Translated Sutra: तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरत्न का स्पर्श किया। वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दरतायुक्त था। चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था – वह तिखूंटा, ऊपर नीचे षट्कोणयुक्त, अनुपम द्युतियुक्त, दिव्य, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट, सब लोगों का मन हरने वाला था – जो सर्व – कष्ट – निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था। उस के प्रभाव | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 87 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं, विमानवासेवि दुल्लहतरं, वग्घारियमल्लदामकलावं सारय-धवलब्भरयणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणियलपुण्णचंदो।
तए णं से दिव्वे छत्तरतणे भरहेणं रन्ना परामुट्ठे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोयणाइं पवित्थरइ साहियाइं तिरियं। Translated Sutra: अल्पपुण्य – पुरुषों के लिए दुर्लभ था। वह छत्ररत्न छह खण्डों के अधिपति चक्रवर्ती राजाओं के पूर्वाचरित तप के फल का एक भाग था। देवयोनि में भी अत्यन्त दुर्लभ था। उस पर फूलों की मालाएं लटकती थीं, शरद् ऋतु के धवल मेघ तथा चन्द्रमा के प्रकाश के समान भास्वर था। एक सहस्र देवों से अधिष्ठित था। राजा भरत का वह छत्ररत्न | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 88 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुवरिं ठवेइ, ठवेत्ता मणिरयणं परामुसइ– तो तं चउरंगुल-प्पमाणमेत्तं च अणग्घियं तंसच्छलंसं अनोवमजुइं दिव्वं मणिरयणपतिसमं वेरुलियं सव्वभूयकंतं–
जेण य मुद्धागएणं दुक्खं, न किंचि जायइ हवइ आरोग्गे य सव्वकालं ।
तेरिच्छिय-देवमानुसकया य, उवसग्गा सव्वे न करेंति तस्स दुक्खं ॥
संगामे वि असत्थवज्झो, होइ नरो मणिवरं धरेंतो ।
ठियजोव्वण-केसअवट्ठिय-नहो, हवइ य सव्वभयविप्पमुक्को ॥
तं मणिरयणं गहाय छत्तरयणस्स वत्थिभागंसि ठवेइ, तस्स य अनतिवरं चारुरूवं सिलनिहि-यत्थमंतसित्त सालि जव गोहूम मुग्ग मास तिल कुलत्थ सट्ठिग निप्फाव चणग कोद्दव कोत्थुंभरि Translated Sutra: राजा भरत ने छत्ररत्न को अपनी सेना पर तान दिया। मणिरत्न का स्पर्श किया। उस मणिरत्न को राजा भरत ने छत्ररत्न के बस्तिभाग में – स्थापित किया। राजा भरत के साथ गाथापतिरत्न था। वह अपनी अनुपम विशेषता – लिये था। शिला की ज्यों अति स्थिर चर्मरत्न पर केवल वपन मात्र द्वारा शालि, जौ, गेहूँ, मूँग, उर्द, तिल, कुलथी, षष्टिक, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ४ क्षुद्र हिमवंत |
Hindi | 133 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– हेमवए वासे? हेमवए वासे? गोयमा! चुल्लहिमवंतमहाहिमवंतेहिं वासहरपव्वएहिं दुहओ समुवगूढे निच्चं हेमं दलयइ, निच्चं हेमं पगासइ। हेमवए य एत्थ देवे महिड्ढीए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ– Translated Sutra: भगवन् ! वह हैमवतक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! वह महाहिमवान् पर्वत से दक्षिण में एवं चुल्ल हिमवान् पर्वत से उत्तर में, उनके अन्तराल में है। वहाँ जो यौगलिक मनुष्य निवास करते हैं, वे बैठने आदि के निमित्त नित्य स्वर्णमय शिलापट्टक आदि का उपयोग करते हैं। उन्हें नित्य स्वर्ण देकर वह यह प्रकाशित करता है कि वह | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ४ क्षुद्र हिमवंत |
Hindi | 211 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सव्वेवि एए पंचसइया, रायहानीओ उत्तरेणं।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–रुप्पी वासहरपव्वए? रुप्पी वासहरपव्वए? गोयमा! रुप्पी णं वासहरपव्वए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पिओभासे सव्वरुप्पामए। रुप्पी य इत्थ देवे पलिओवमट्ठिईए परिवसइ। से तेणट्ठेणं।
कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे हेरण्णवए वासे पन्नत्ते? गोयमा! रुप्पिस्स उत्तरेणं, सिहरिस्स दक्खिणेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेरण्णवए वासे पन्नत्ते। एवं जह चेव हेमवयं तह चेव हेरण्णवयंपि भाणियव्वं, नवरं–जीवा दाहिणेणं उत्तरेणं धनुपट्ठं अवसिट्ठं तं Translated Sutra: ये सभी कूट पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे हैं। उत्तर में इनकी राजधानियाँ है। भगवन् ! वह रुक्मी वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! रुक्मी वर्षधर पर्वत रजत – निष्पन्न रजत की ज्यों आभामय एवं सर्वथा रजतमय है। वहाँ पल्योपमस्थितिक रुक्मी नामक देव निवास करता है, इसलिए वह रुक्मी वर्षधर पर्वत कहा जाता है। भगवन् ! जम्बूद्वीप | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 332 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वासाणं भंते! पढमं मासं कइ नक्खत्ता नेंति? गोयमा! चत्तारि नक्खत्ता नेंति, तं जहा–उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिट्ठा। उत्तरासाढा चउद्दस अहोरत्ते नेइ। अभिई सत्त अहोरत्ते नेई। सवणो अट्ठ अहोरत्ते णेई। धनिट्ठा एगं अहोरत्तं नेइ। तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अनुपरियट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पया चत्तारि य अंगुला पोरिसी भवइ।
वासाणं भंते! दोच्चं मासं कइ नक्खत्ता नेंति? गोयमा! चत्तारि, तं जहा–धनिट्ठा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तराभद्दवया। धनिट्ठा णं चउद्दस अहोरत्ते नेइ। सयभिसया सत्त। पुव्वाभद्दवया अट्ठ। उत्तराभद्दवया एगं। तंसि च णं मासंसि अट्ठंगुलपोरिसीए Translated Sutra: भगवन् ! चातुर्मासिक वर्षाकाल के श्रावण मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! चार – उत्तराषाढा, अभिजित, श्रवण तथा धनिष्ठा। उत्तराषाढा नक्षत्र श्रावण मास के १४ अहोरात्र, अभिजित नक्षत्र ७ अहोरात्र, श्रवण नक्षत्र ८ अहोरात्र तथा धनिष्ठा नक्षत्र १ अहोरात्र परिसमाप्त करता है। उस मास में सूर्य चार अंगुल | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Gujarati | 47 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमप-ज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए० परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमसुसमाणामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! ।
तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૭. ત્રીજા આરાનો બે કોડાકોડી સાગરોપમ કાળ વીત્યા પછી અનંત વર્ણ પર્યાયોથી યાવત્ અનંત ઉત્થાન કર્મ યાવત્ હ્રાસ થતા થતા આ દુષમસુષમા નામક આરાનો હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણ ! આરંભ થયો. ભગવન્ ! તે સમયમાં ભરતક્ષેત્રના કેવા પ્રકારના આકારભાવ પ્રત્યાવતાર કહેલા છે ? ગૌતમ ! બહુસમ રમણીય ભૂમિભાગ કહેલ છે, જેમ કોઈ આલિંગપુષ્કર | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Gujarati | 78 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ– तो तं चउरंगुलप्पमाणमेत्तं च अनग्घियं तंसच्छलंसं अनोवमजुइं दिव्वं मणिरयणपतिसमं वेरुलियं सव्वभूयकंतं वेढो–
जेण य मुद्धागएणं दुक्खं, ण किंचि जायइ हवइ आरोग्गे य सव्वकालं।
तेरिच्छिय-देवमाणुसकया य, उवसग्गा सव्वे न करेंति तस्स दुक्खं।
संगामे वि असत्थवज्झो, होइ णरो मणिवरं धरेंतो।
ठियजोव्वण-केसअवट्ठियणहो, हवइ य सव्वभयविप्पमुक्को।
तं मणिरयणं गहाय से नरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए निक्खिवइ।
तए णं से भरहाहिवे नरिंदे हारोत्थयसुकयरइयवच्छे कुंडलउज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए नरसीहे नरवई नरिंदे नरवसभे मरुयरायवसभकप्पे अब्भहियरायतेयलच्छीए Translated Sutra: ત્યારપછી રાજા ભરતે મણિરત્નને સ્પર્શ કર્યો. તે મણિરત્ન ચાર અંગુલ પ્રમાણ માત્ર, અનર્ધ, ત્ર્યસ્ર, નીચે ષટ્કોણ, અનોપમ દ્યુતિ, દિવ્ય, મણિરત્નના સ્વામીવત્, વૈડૂર્ય જાતિક, બધા જીવોને કાંત હતું. જે મસ્તકે ધરે તેને કોઈ દુઃખ ન રહે, યાવત્ સર્વકાળ આરોગ્યપ્રદ હતું. તિર્યંચ – દેવ – માનુષ્યકૃત ઉપસર્ગે સર્વે તેમને દુઃખ | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Gujarati | 85 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया उप्पिं विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ, पासित्ता चम्मरयणं परामुसइ– तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्ततारद्ध-चंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु य उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं, सणसत्तर-साइं सव्वधण्णाइं जत्थ रोहंति एगदिवसेण वावियाइं, वासं णाऊण चक्कवट्टिणा परामुट्ठे दिव्वे चम्मरयणे दुवालसजोयणाइं तिरियं पवित्थरइ तत्थ साहियाइं।
तए णं से भरहे राया सखंधारबले चम्मरयणं दुरुहइ, दुरुहित्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ– तए णं नवनउइसहस्स-कंचनसलागपरिमंडियं महरिहं अओज्झं निव्वण Translated Sutra: સૂત્ર– ૮૫. ત્યારે તે ભરતરાજા, વિજય સ્કંધાવારની ઉપર યુગમુશલ મુષ્ટિ પ્રમાણમાત્ર ધારાથી સાત રાત્રિ ઓઘમેઘ વર્ષા વરસાવતા જુએ છે. જોઈને ચર્મરત્નને સ્પર્શે છે. ત્યારે અહી શ્રીવત્સ સદૃશરૂપ આલાવો કહેવો યાવત્ બાર યોજન તીર્છુ વિસ્તારે છે – ફેલાવે છે. ત્યારે તે ભરત રાજા પોતાની સ્કંધાવાર સૈન્ય સહિત ચર્મરત્ન ઉપર આરૂઢ | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ४ क्षुद्र हिमवंत |
Gujarati | 133 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– हेमवए वासे? हेमवए वासे? गोयमा! चुल्लहिमवंतमहाहिमवंतेहिं वासहरपव्वएहिं दुहओ समुवगूढे निच्चं हेमं दलयइ, निच्चं हेमं पगासइ। हेमवए य एत्थ देवे महिड्ढीए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ– Translated Sutra: ભગવન્ ! હૈમવંત ક્ષેત્રને હૈમવંત ક્ષેત્ર કેમ કહે છે ? ગૌતમ ! લઘુહિમવંત – મહાહિમવંત વર્ષધર પર્વતથી બંને તરફ સમવગૂઢ, નિત્ય હેમ – સુવર્ણ આપે છે, હેમ આપીને નિત્ય હેમ – સુવર્ણને પ્રકાશે છે. હૈમવત નામે અહીં મહર્દ્ધિક, પલ્યોપમ સ્થિતિક દેવ વસે છે. તેથી હે ગૌતમ ! હૈમવત ક્ષેત્રને હૈમવતક્ષેત્ર કહે છે. | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ४ क्षुद्र हिमवंत |
Gujarati | 209 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए नामं वासे पन्नत्ते? गोयमा! निलवंतस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दक्खिणेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एवं जह चेव हरिवासं तह चेव रम्मयं वासं भाणियव्वं, नवरं–दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धनुपट्ठं अवसेसं तं चेव।
कहि णं भंते! रम्मए वासे गंधावई नामं वट्टवेयड्ढपव्वए पन्नत्ते? गोयमा! नरकंताए पच्च-त्थिमेणं, नारीकंताए पुरत्थिमेणं, रम्मगवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं गंधावई नामं वट्टवेयड्ढे पन्नत्ते, जं चेव वियडावइस्स तं चेव गंधावइस्सवि वत्तव्वं। अट्ठो, बहवे उप्पलाइं जाव गंधावइवण्णाइं गंधावइवण्णाभाइं Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૦૯. ભગવન્ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપમાં રમ્યક્ નામે ક્ષેત્ર ક્યાં કહેલ છે ? ગૌતમ ! નીલવંતની ઉત્તરે, રુક્મિની દક્ષિણે, પૂર્વી લવણસમુદ્રની પશ્ચિમે, પશ્ચિમ લવણસમુદ્રની પૂર્વે, એ પ્રમાણે જેમ હરિવર કહ્યું, તેમ રમ્યક્ ક્ષેત્ર પણ કહેવું. વિશેષ એ કે – દક્ષિણમાં જીવા છે. ઉત્તરમાં ધનુ છે, બાકી પૂર્વવત્. ભગવન્ ! રમ્યક્ | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Gujarati | 263 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति? अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? हंता गोयमा! तं चेव जाव दीसंति।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि या मज्झंतियमुहुत्तंसि या अत्थमणमुहुत्तंसि या सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं? हंता तं चेव जाव उच्चत्तेणं।
जइ णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि या मज्झंतियमुहुत्तंसि या अत्थमणमुहुत्तंसि या सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं, कम्हा णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૬૩. ભગવન્ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપમાં ૧. સૂર્ય ઉદ્ગમન મુહૂર્ત્તમાં દૂર હોવા છતાં શું નિકટ દેખાય છે ? ૨. મધ્યાહ્ને સમીપ હોવા છતાં શું દૂર દેખાય છે ? ૩. અસ્ત થવાના સમયે શું દૂર હોવા છતાં સમીપ દેખાય છે ? હા, ગૌતમ ! તે પ્રમાણે જ દેખાય છે. ભગવન્ ! જંબૂદ્વીપમાં સૂર્ય ઊગવાના મુહૂર્ત્તમાં, મધ્યાહ્ન મુહૂર્ત્તમાં અને અસ્ત | |||||||||
Jambudwippragnapati | જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Gujarati | 344 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदविमानं भंते! कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति? गोयमा! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति–चंदविमानस्स णं पुरत्थिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल विमलनिम्मलदहिधण गोखीर फेण रययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउट्ठ वट्ट पीवरसु-सिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडंबियमुहाणं रत्तुप्पल-पत्तमउयसूमालतालुजीहाणं महुगुलियपिंगलक्खाणं पीवरवरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं मिउविसय-सुहुमलक्खणपसत्थवरवण्णकेसरसडोवसोहियाणं ऊसिय सुणमिय सुजाय अप्फोडिय नंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदाढाणं वइरामयदंताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्ज जोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मनोगमाणं मनोरमाणं Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૪૪. ભગવન્ ! ચંદ્ર વિમાનને કેટલા હજાર દેવો વહન કરે છે ? ચંદ્ર વિમાનને પૂર્વમાં શ્વેત, સુભગ, સુપ્રભ, શંખતલ – વિમલ – નિર્મલ, ધન દહીં, ગાયના દૂધના ફીણ, રજતના સમૂહની જેમ પ્રકાશક, સ્થિર, લષ્ટ, પ્રકોષ્ઠ, વૃત્ત, પીવર, સુશ્લિષ્ટ, વિશિષ્ટ, તીક્ષ્ણ દાઢાથી વિડંબિત મુખવાળા, રક્ત ઉત્પલ – મૃદુ – સુકુમાલ તાળવું અને જીભવાળા, | |||||||||
Jitakalpa | જીતકલ્પ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
मंगलं आदि |
Gujarati | 1 | Gatha | Chheda-05A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कय-पवयण-प्पणामो वोच्छं पच्छित्तदानं-संखेवं ।
जीयव्ववहार-गय जीयस्स विसोहणं परमं ॥ Translated Sutra: વર્ણન સંદર્ભ: Ɵ ભૂમિકા: વર્તમાન કાલે સ્વીકૃત છ છેદ સૂત્રોમાનું આ એક છેદસૂત્ર છે. પૂર્વે પંચકલ્પ નામે સૂત્ર હતું, પરંતુ તેનો વિચ્છેદ થતા તેને સ્થાને આ જીતકલ્પ સૂત્રની સ્થાપના થયેલી છે. જો કે હાલ પણ પાંચકલ્પ સૂત્રનું ભાષ્ય અને ચૂર્ણિ મળે જ છે. એ જ રીતે જીતકલ્પ સૂત્ર ઉપર પણ ભાષ્ય અને ચૂર્ણિ ઉપલબ્ધ જ છે. અમારા સટીક | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
मनुष्य उद्देशक | Hindi | 145 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगोरुयदीवस्स णं भंते! केरिसए आगार भावपडोयारे पन्नत्ते?
गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते। से जहानामए–आलिंगपुक्खरेति वा, एवं सवणिज्जे भाणितव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मनुस्सा य मनुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थतत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उद्दालका मोद्दालका रोद्दालका कतमाला नट्टमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंता कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहिं य पुप्फेहि य अच्छणपडिच्छन्ना सिरीए अतीवअतीव सोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठंति...
...एगोरुयदीवे णं दीवे Translated Sutra: हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का है ? गौतम ! एकोरुकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। मुरज के चर्मपुट समान समतल वहाँ का भूमिभाग है – आदि। इस प्रकार शय्या की मृदुता भी कहना यावत् पृथ्वीशिलापट्टक का भी वर्णन करना। उस शिलापट्टक पर बहुत से एको – रुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियाँ | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
द्वीप समुद्र | Hindi | 167 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नामं दारे पन्नत्ते? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साइं अबाधाए जंबुद्दीवे दीवे पुरच्छिमपेरंते लवणसमुद्द-पुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीताए महानदीए उप्पिं, एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नामं दारे पन्नत्ते–अट्ठ जोयणाइं उढ्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं, तावतियं चेव पवेसेणं, ...
...सेए वरकनगथूभियागे ईहामिय उसभ तुरग नर मगर विहग वालग किन्नर रुरु सरभ चमर कुंजर वनलय पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गतवइरवेदियापरिगताभिरामे विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिए Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप का विजयद्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर तथा जंबूद्वीप के पूर्वान्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जंबूद्वीप का विजयद्वार है। यह द्वार आठ योजन का ऊंचा, चार योजन का चौड़ा और इतना ही इसका | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
द्वीप समुद्र | Hindi | 169 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ निसीहियाए दो दो तोरणा पन्नत्ता। वण्णओ जाव सहस्स-पत्तहत्थगा
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दोदो सालभंजियाओ पन्नत्ताओ। वण्णओ।
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दोदो नागदंतगा पन्नत्ता। नागदंतावण्णओ उवरिमनागदंता नत्थि।
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दोदो हयसंघाडा दोदो गयसंघाडा एवं नरकिन्नरकिंपुरिस-महोरगगंधव्वउसभसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा एवं पंतीओ वीहीओ मिहुणगा।
दोदो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ।
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दोदो दिसासोवत्थिया पन्नत्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा।
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दोदो वंदनकलसा पन्नत्ता। वण्णओ।
तेसि णं तोरणाणं Translated Sutra: उस विजयद्वार के दोनों ओर दोनों नैषेधिकाओं में दो दो तोरण कहे गये हैं। यावत् उन पर आठ – आठ मंगलद्रव्य और छत्रातिछत्र हैं। उन तोरणों के आगे दो दो शालभंजिकाएं हैं। उन तोरणों के आगे दो दो नागदंतक हैं। उन नागदंतकों में बहुत सी काले सूत में गूँथी हुई विस्तृत पुष्पमालाओं के समुदाय हैं यावत् वे अतीव शोभा से युक्त | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 283 | Gatha | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिनयरा दित्ता ।
चित्तंतरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य ॥ Translated Sutra: (मनुष्यलोक से बाहर अवस्थित) सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्दान्तरित सूर्य अपने अपने तेजःपुंज से प्रकाशित होते हैं। इनका अन्तर और प्रकाशरूप लेश्या विचित्र प्रकार की है। | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 288 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अंतो णं भंते! मानुसुत्तरस्स पव्वतस्स जे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्ढोववन्नगा? कप्पोववन्नगा? विमाणोववन्नगा? चारोववन्नगा? चारट्ठितीया? गतिरतिया? गति-समावन्नगा? गोयमा! ते णं देवा नो उड्ढोववन्नगा, नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा, चारोववन्नगा, नो चारट्ठितीया, गतिरतिया गतिसमावन्नगा, उड्ढीमुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठितेहिं जोयण-साहस्सि-तेहिं तावखेत्तेहिं, साहस्सियाहिं बाहिरियाहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्ट गीत वादित तंती तल ताल तुडिय घन मुइंग पडुप्पवादितरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा महया उक्किट्ठसीहनाय-वोलकलकलरवेणं Translated Sutra: भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्व विमानों में उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गतिशील और गति को प्राप्त हुए हैं ? गौतम ! वे देव ज्योतिष्क विमानों | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
ज्योतिष्क उद्देशक | Hindi | 315 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदविमाने णं भंते कति देवसाहस्सीओ परिवहंति गोयमा चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभ-गाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउवट्टपीवर-सुसिलिट्ठविसिट्ठ-तिक्खदाढा-विडंबितमुहाणं रत्तुप्पलपत्त-मउयसुमालालु-जीहाणं मधुगुलियपिंग-लक्खाणं पसत्थसत्थवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं विसालपीवरोरुपडिपुन्नविउलखंधाणं मिउविसय पसत्थसुहुमलक्खण-विच्छिण्णकेसरसडोवसोभिताणं चंकमितललिय-पुलितथवलगव्वित-गतीणं उस्सियसुणिम्मि-यसुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयनक्खाणं वइरामयदंताणं पीतिगमाणं मनोगमाणं मनोरमाणं मनोहराणं अमीयगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं Translated Sutra: भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं ? गौतम ! १६००० देव, उनमें से ४००० देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा से उठाते हैं। वे सिंह श्वेत हैं, सुन्दर हैं, श्रेष्ठ कांति वाले हैं, शंख के तल के समान विमल और निर्मल तथा जमे हुए दहीं, गाय का दूध, फेन चाँदी के नीकर के समान श्वेत प्रभावाले हैं, उनकी आँखें शहद की गोली | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
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वैमानिक उद्देशक-२ | Hindi | 330 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोहम्मीसानेसु णं भंते! कप्पेसु विमाना केवतियं आयामविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य। तत्थ णं जेते संखेज्जवित्थडा ते णं संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं। तत्थ णं जेते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं। एवं जाव गेवेज्जविमाना।
अनुत्तरविमाना पुच्छा। गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संखेज्जवित्थडे य असंखेज्ज-वित्थडा य। तत्थ णं जेसे संखेज्जवित्थडे से एगं जोयणसयसहस्सं Translated Sutra: भगवन् ! सौधर्म – ईशानकल्प में विमानों की लम्बाई – चौड़ाई कितनी है ? उनकी परिधि कितनी है ? गौतम! वे विमान दो तरह के हैं – संख्यात योजन विस्तारवाले और असंख्यात योजन विस्तारवाले। नरकों के कथन समान यहाँ कहना; यावत् अनुत्तरोपपातिक विमान दो प्रकार के हैं – संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले। | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
द्वीप समुद्र | Gujarati | 166 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पन्नत्ता? गोयमा! चत्तारि दारा पन्नत्ता, तं जहा–विजये वेजयंते जयंते अपराजिते। Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૬૬. ભગવન્ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપના કેટલા દ્વારો કહ્યા છે ? ગૌતમ ! ચાર. તે આ – વિજય, વૈજયંત, જયંત, અપરાજિત. સૂત્ર– ૧૬૭. ભગવન્ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપનું વિજય નામે દ્વાર ક્યાં છે ? ગૌતમ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપના મેરુ પર્વતની પૂર્વે ૪૫,૦૦૦ યોજન અબાધાએ ગયા પછી જંબૂદ્વીપ દ્વીપના પૂર્વાંતમાં તથા લવણ સમુદ્રના પૂર્વાર્ધના પશ્ચિમ | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
मनुष्य उद्देशक | Gujarati | 145 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगोरुयदीवस्स णं भंते! केरिसए आगार भावपडोयारे पन्नत्ते?
गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते। से जहानामए–आलिंगपुक्खरेति वा, एवं सवणिज्जे भाणितव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मनुस्सा य मनुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थतत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उद्दालका मोद्दालका रोद्दालका कतमाला नट्टमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंता कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहिं य पुप्फेहि य अच्छणपडिच्छन्ना सिरीए अतीवअतीव सोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठंति...
...एगोरुयदीवे णं दीवे Translated Sutra: એકોરુકદ્વીપ દ્વીપનો અંદરનો ભૂમિભાગ ચર્મમઢિત મૃદંગ સમાનબહુસમ રમણીય કહેલ છે. એ રીતે શયનીય કહેવું યાવત્ પૃથ્વીશિલાપટ્ટકનું પણ વર્ણન કરવું જોઈએ. ત્યાં ઘણા એકોરુકદ્વીપક મનુષ્યો અને સ્ત્રીઓ બેસે છે સુવે છે, યાવત્ વિચરે છે. હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણ ! એકોરુક દ્વીપમાં તે – તે દેશમાં, ત્યાં – ત્યાં ઘણા ઉદ્દાલક, કોદ્દાલક, | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
जंबुद्वीप वर्णन | Gujarati | 195 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे कति चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा? कति सूरिया तविंसु वा तविस्संति वा? कति नक्खत्ता जोयं जोइंसु वा जोयंति वा जोइस्संति वा? कति महग्गहा चारं चरिंसु वा चरंति वा चरिस्संति वा? कति तारागणकोडाकोडीओ सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा?
गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, दो सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा, छप्पन्नं नक्खत्ता जोगं जोइंसु वा जोयंति वा जोएस्संति वा, छावत्तरं गहसतं चारं चरिंसु वा चरंति वा चरिस्संति वा– Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૯૫. ભગવન્ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપમાં કેટલા ચંદ્રો પ્રકાશેલા હતા, પ્રકાશે છે કે પ્રકાશશે ? કેટલા સૂર્યો તપ્યા હતા, તપે છે કે તપશે ? કેટલા નક્ષત્રોએ યોગ કરેલો, યોગ કરે છે કે યોગ કરશે ? કેટલા મહાગ્રહો ચાર ચર્યા હતા, ચરે છે કે ચરશે ? કેટલા તારાગણ કોડાકોડી શોભતા હતા, શોભે છે કે શોભશે ? ગૌતમ ! જંબૂદ્વીપ દ્વીપમાં બે ચંદ્રો | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
लवण समुद्र वर्णन | Gujarati | 201 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लवणे णं भंते! समुद्दे कति चंडा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा? एवं पंचण्हवि पुच्छा। गोयमा! लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, चत्तारि सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा, बारसुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोइंसु वा जोयंति वा जोएस्संति वा, तिन्नि बावणा महग्गहसया चारं चरिंसु वा चरंति वा चरिस्संति वा, दुण्णि सयसहस्सा सत्तट्ठिं च सहस्सा नव य सया तारागणकोडकोडीणं सोभं सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा। Translated Sutra: ભગવન્ ! લવણ સમુદ્રમાં કેટલા ચંદ્રો પ્રકાશ્યા, પ્રકાશે છે, પ્રકાશશે ? એ રીતે પાંચે જ્યોતિષ્કની પૃચ્છા. ગૌતમ ! લવણ સમુદ્રમાં ચાર ચંદ્રો પ્રકાશ્યા છે, પ્રકાશે છે અને પ્રકાશશે. ચાર સૂર્યો તપ્યાછે, તપે છે અને તપશે. ૧૧૨ – નક્ષત્રોએ ચંદ્રનો યોગ કર્યોછે, કરે છે અને કરશે. ૩૫૨ મહાગ્રહોએ ચાર ચર્યો છે, ચરે છે અને ચરશે. ૨,૬૭,૯૦૦ | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
लवण समुद्र वर्णन | Gujarati | 205 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! वेलंधरणागरायाणो पन्नत्ता? गोयमा! चत्तारि वेलंधरणागरायाणो पन्नत्ता, तं जहा–गोथूभे सिवए संखे मणोसिलए।
एतेसि णं भंते! चउण्हं वेलंधरणागरायाणं कति आवासपव्वत्ता पन्नत्ता? गोयमा! चत्तारि आवासपव्वता पन्नत्ता, तं जहा–गोथूभे दओभासे संखे दगसीमे।
कहि णं भंते! गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे नामं आवासपव्वते पन्नत्ते? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं लवणसमुद्दं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे नामं आवासपव्वते पन्नत्ते। सत्तरसएक्कवीसाइं जोयणसताइं उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारिं तीसे जोयणसते Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૦૫. ભગવન્ ! વેલંધર નાગરાજ કેટલા કહ્યા છે ? ગૌતમ ! ચાર. તે આ – ગોસ્તૂપ, શિવક, શંખ અને મનઃશિલાક. ભગવન્ ! આ ચાર વેલંધર નાગરાજાના કેટલા આવાસ પર્વતો છે ? ગૌતમ ! ચાર. ગોસ્તૂપ, ઉદકભાસ, શંખ, દકસીમા. ભગવન્ ! ગોસ્તૂપ વેલંધર નાગરાજનો સ્તૂપ નામે આવાસ પર્વત ક્યાં છે ? ગૌતમ! જંબૂદ્વીપ – દ્વીપના મેરુની પૂર્વે લવણસમુદ્રમાં | |||||||||
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चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 224 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लवणसमुद्दं धायइसंडे नामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति।
धायइसंडे णं भंते! दीवे किं समचक्कवालसंठिते? विसमचक्कवालसंठिते? गोयमा! समचक्कवाल-संठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते।
धायइसंडे णं भंते! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं? केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते? गोयमा! चत्तारि जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, इगयालीसं जोयणसतसहस्साइं दसजोयण-सहस्साइं नव य एगट्ठे जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते। से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेणं वनसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वण्णओ।
धायइसंडस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पन्नत्ता? Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૨૪. ઘાતકીખંડ નામક દ્વીપ વૃત્ત, વલયાકાર સંસ્થાન સંસ્થિત, ચોતરફથી લવણસમુદ્રને ઘેરીને રહેલ છે. ભગવન્ ! ઘાતકીખંડદ્વીપ સમચક્રવાલ સંસ્થિત છે કે વિષમચક્રવાલ સંસ્થિત ? ગૌતમ ! સમચક્રવાલ સંસ્થિત છે, વિષમ – ચક્રવાલ સંસ્થિત નથી. ભગવન્ ! ઘાતકીખંડ દ્વીપનો ચક્રવાલ વિષ્કંભ અને પરિધિ કેટલી છે ? ગૌતમ ! ચક્રવાલ વિષ્કંભ | |||||||||
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चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 228 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धायइसंडं णं दीवं कालोदे नामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ।
कालोदे णं भंते! समुद्दे किं समचक्कवालसंठिते? विसमचक्कवालसंठिते? गोयमा! समचक्कवालसंठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते।
कालोदे णं भंते! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते? गोयमा! अट्ठ जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, एकाणउतिं जोयणसयसहस्साइं सत्तरिं च सहस्साइं छच्च पंचुत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते। से णं एगाए पउमवरवेदियाए, एगेणं वनसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते दोण्हवि वण्णओ।
कालोयस्स णं भंते! समुद्दस्स Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૨૮. કાલોદ નામે સમુદ્ર વૃત્ત – વલયાકાર સંસ્થાને રહેલ છે. તે ઘાતકીખંડ દ્વીપને ચોતરફથી ઘેરીને રહેલો છે. કાલોદ સમુદ્ર શું સમચક્રવાલ સંસ્થાન સંસ્થિત છે કે વિષમ ચક્રવાલ સંસ્થાન સંસ્થિત છે ? ગૌતમ ! સમચક્રવાલ સંસ્થાન સંસ્થિત છે, વિષમ ચક્રવાલ સંસ્થાન સંસ્થિત નથી. ભગવન્ ! કાલોદ સમુદ્રનો ચક્રવાલ વિષ્કંભ અને | |||||||||
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चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 235 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कालोयं णं समुद्दं पुक्खरवरे नामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति।
पुक्खरवरे णं दीवे किं समचक्कवालसंठिते? विसमचक्कवालसंठिते? गोयमा! समचक्क-वालसंठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते।
पुक्खरवरे णं भंते! दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते? गोयमा! सोलस जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बानउति च सय-सहस्साइं अउनानउतिं च सहस्सा अट्ठ य चउनउया परिक्खेवेणं पन्नत्ते। Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૩૫. પુષ્કરવર નામક દ્વીપ વૃત્ત – વલયાકાર સંસ્થાન સંસ્થિત છે. તે કાલોદ સમુદ્રને ચોતરફથી પરીવરીને રહેલ છે આદિ પૂર્વવત્. યાવત્ સમચક્રવાલ સંસ્થાન સંસ્થિત છે. વિષમ ચક્રવાલ સંસ્થાન સંસ્થિત નથી. ભગવન્ ! પુષ્કરવરદ્વીપનો ચક્રવાલ વિષ્કંભ, પરિધિ કેટલા છે? ગૌતમ! ૧૬ – લાખ યોજન ચક્રવાલ વિષ્કંભ સૂત્ર– ૨૩૬. પુષ્કરવરદ્વીપની | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 250 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समयखेत्ते मनुस्सखेत्ते णं भंते! केवतियं आयामविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते? गोयमा! पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दोन्नि य एऊणपण्णा जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति–मनुस्सखेत्ते? मनुस्सखेत्ते? गोयमा! मनुस्सखेत्ते णं तिविधा मनुस्सा परिवसंति तं जहा–कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चति–मनुस्सखेत्ते, मनुस्सखेत्ते।
अदुत्तरं च णं गोयमा! मनुस्सखेत्तस्स सासए नामधेज्जे जाव निच्चे।
मनुस्सखेत्ते णं भंते! कति चंदा Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૫૦. ભગવન્ ! સમયક્ષેત્રની લંબાઈ, પહોળાઈ અને પરિધિ કેટલી છે ? ગૌતમ ! લંબાઈ – પહોળાઈ ૪૫ લાખ યોજન અને ૧,૪૨,૩૦,૨૪૯ યોજન પરિધિ છે. ભગવન્! મનુષ્ય ક્ષેત્રને મનુષ્યક્ષેત્ર કેમ કહે છે ? ગૌતમ ! મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં ત્રણ ભેદે મનુષ્યો વસે છે, તે આ – કર્મભૂમક, અકર્મભૂમક, અંતર્દ્વીપક. તે કારણે હે ગૌતમ ! મનુષ્યક્ષેત્રને મનુષ્યક્ષેત્ર |