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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-७७ |
Hindi | 156 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तत्तरिं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झावसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते।
अंगवंसाओ णं सत्तत्तरिं रायाणी मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अनगारिअं पव्वइया।
गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्तत्तरिं देवसहस्सा परिवारा पन्नत्ता।
एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तत्तरिं लवे लवग्गेणं पन्नत्ते। Translated Sutra: चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा सतहत्तर लाख पूर्व कोटि वर्ष कुमार अवस्था में रहकर महाराजपद को प्राप्त हुए – राजा हुए। अंगवंश की परम्परा में उत्पन्न हुए सतहत्तर राजा मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। गर्दतोय और तुषित लोकान्तिक देवों का परिवार सतहत्तर हजार देवों वाला है। प्रत्येक मुहूर्त्त में | |||||||||
Samavayang | સમવયાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवाय-७७ |
Gujarati | 156 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तत्तरिं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झावसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते।
अंगवंसाओ णं सत्तत्तरिं रायाणी मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अनगारिअं पव्वइया।
गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्तत्तरिं देवसहस्सा परिवारा पन्नत्ता।
एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तत्तरिं लवे लवग्गेणं पन्नत्ते। Translated Sutra: ચાતુરંત ચક્રવર્તી રાજા ભરત ૭૭ લાખ પૂર્વ કુમારાવસ્થામાં રહી, પછી મહારાજાના અભિષેકને પામ્યા. અંગવંશ ના ૭૭ રાજા મુંડ થઈને યાવત્ પ્રવ્રજિત થયેલા. ગર્દતોય અને તુષિત દેવોને ૭૭,૦૦૦ દેવોનો પરિવાર છે. એક એક મુહૂર્ત્ત ૭૭ – લવ પ્રમાણ છે. | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-२ |
उद्देशक-३ | Hindi | 94 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो अग्गी, दो पयावती, दो सोमा, दो रुद्दा, दो अदिती, दो बहस्सती, दो सप्पा, दो पिती, दो भगा, दो अज्जमा दो सविता, दो तट्ठा, दो वाऊ, दो इंदग्गी, दो मित्ता, दो इंदा, दो निरती, दो आऊ, दो विस्सा, दो बम्हा, दो विण्हू, दो वसू, दो वरुणा, दो अया, दो विविद्धी, दो पुस्सा, दो अस्सा, दो यमा। दो इंगालगा, दो वियालगा, दो लोहितक्खा, दो सनिच्चरा, दो आहुणिया, दो पाहुणिया, दो कणा, दो कणगा, दो कनकनगा, दो कनगविताणगा, दो कनगसंताणगा, दो सोमा, दो सहिया, दो आसासणा, दो कज्जोवगा, दो कब्बडगा, दो अयकरगा, दो दुंदुभगा, दो संखा, दो संखवण्णा, दो संखवण्णाभा, दो कंसा, दो कंसवण्णा, दो कंसवण्णाभा, दो रुप्पी, दो रुप्पा भासा, दो निला, दो णीलोभासा, Translated Sutra: अट्ठाईस नक्षत्रों के देवता – १ दो अग्नि, २. दो प्रजापति, ३. दो सोम, ४. दो रुद्र, ५. दो अदिति, ६. दो बृहस्पति, ७. दो सर्प, ८. दो पितृ, ९. दो भग, १०. दो अर्यमन्, ११. दो सविता, १२. दो त्वष्टा, १३. दो वायु, १४. दो इन्द्राग्नि, १५. दो मित्र, १६. दो इन्द्र, १७. दो निर्ऋति, १८. दो आप, १९. दो विश्व, २०. दो ब्रह्मा, २१. दो विष्णु, २२. दो वसु, २३. दो वरुण, | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-२ |
उद्देशक-३ | Hindi | 96 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धायइसंडे दीवे पच्चत्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं दो वासा पन्नत्ता–बहुसमतुल्ला जाव तं जहा –भरहे चेव, एरवए चेव।
एवं–जहा जंबुद्दीवे तहा एत्थवि भाणियव्वं जाव छव्विहंपि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा–भरहे चेव, एरवए चेव, नवरं–कूडसामली चेव, महाधायईरुक्खे चेव। देवा–गरुले चेव वेणुदेवे, पियदंसणे चेव।
धायइसंडे णं दीवे दो भरहाइं, दो एरवयाइं, दो हेमवयाइं, दो हेरण्णवयाइं, दो हरिवासाइं, दो रम्मगवासाइं, दो पुव्वविदेहाइं, दो अवरविदेहाइं, दो देवकुराओ, दो देवकुरुमहद्दुमा, दो देवकुरुमहद्दुमवासी देवा, दो उत्तरकुराओ, दो उत्तरकुरुमह-द्दुमा, दो उत्तरकुरुमहद्दुमवासी Translated Sutra: पूर्वार्ध धातकीखंडवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर और दक्षिण में दो क्षेत्र कहे गए हैं जो अति समान हैं – यावत् उनके नाम – भरत और ऐरवत। पहले जम्बूद्वीप के अधिकार में कहा वैसे यहाँ भी कहना चाहिए यावत् – दो क्षेत्र में मनुष्य छः प्रकार के काल का अनुभव करते हुए रहते हैं, उनके नाम – भरत और ऐरवत। विशेषता यह है कि वहाँ कूटशाल्मली | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 769 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं रुयगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तं जहा– Translated Sutra: जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के पश्चिम में रुचकवर पर्वत पर आठ कूट हैं, यथा – स्वस्तिक, अमोघ, हिमवत्, मंदर, रुचक, चक्रोतम, चन्द्र, सुदर्शन। सूत्र – ७६९, ७७० | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 771 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्ढियाओ जाव पलिओवमट्ठितीयाओ परिवसंति, तं जहा– Translated Sutra: इन आठ कूटों पर महर्धिक यावत् पल्योपम स्थिति वाली आठ दिशाकुमारियाँ रहती हैं, यथा – इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एक नासा, नवमिका, सीता, भद्रा। सूत्र – ७७१, ७७२ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 772 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावती ।
एगणासा णवमिया, सीता भद्दा य अट्ठमा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७१ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 773 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रुयगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तं जहा– Translated Sutra: जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर में रुचकवर पर्वत पर आठ कूट हैं, यथा – रत्न, रत्नोच्चय, सर्वरत्न, रत्नसंचय, विजय, वैजयंत, जयन्त, अपराजित। सूत्र – ७७३, ७७४ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 774 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रयण-रयणुच्चए या, सव्वरयण रयणसंचए चेव ।
विजये य वेजयंते, जयंते अपराजिते ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७३ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 775 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्ढियाओ जाव पलिओवमट्ठितीयाओ परिवसंति, तं जहा– Translated Sutra: इन आठ कूटों पर महर्धिक यावत् पल्योपम स्थिति वाली आठ दिशाकुमारियाँ रहती हैं, यथा – अलंबुसा, मितकेसी, पोंडरी गीत – वारुणी, आशा, सर्वगा, श्री, ह्री। सूत्र – ७७५, ७७६ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 776 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अलंबुसा मिस्सकेसी, पोंडरिगी य वारुणी ।
आसा सव्वगा चेव, सिरी हिरी चेव उत्तरतो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७५ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 777 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्ठ अहेलोगवत्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– Translated Sutra: आठ दिशा कुमारियाँ अधोलोक में रहती हैं, यथा – भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिसेना और बलाहका। सूत्र – ७७७, ७७८ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 778 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भोगंकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी ।
सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७७ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 779 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्ठ उड्ढलोगवत्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– Translated Sutra: आठ दिशा कुमारियाँ ऊर्ध्वलोक में रहती हैं, यथा – मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्र, पुष्पमाला और अनिंदिता। सूत्र – ७७९, ७८० | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 780 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मेघंकरा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी ।
तोयधारा विचित्ता य, पुप्फमाला अनिंदिता ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७९ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-४ | Hindi | 76 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एते जिया भो! ‘न सरणं’ ‘बाला पंडियमाणिणो’ ।
‘हिच्चा णं’ पुव्वसंजोगं सितकिच्चोवएसगा ॥ Translated Sutra: हे मुनि ! बाल – पुरुष स्वयं को पंडित मानते हुए विजयी होने पर भी शरण नहीं हैं। वे पूर्व संयोगों को छोड़कर भी कृत्यों (गृहस्थ – धर्म) के उपदेशक हैं। विद्वान भिक्षु उनके मत को जानकर उनमें मूर्च्छा न करे। अनुत्कर्ष और अल्पलीन मुनि मध्यस्थ – भाव से जीवन – यापन करे। सूत्र – ७६, ७७ | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
काल प्रमाणं |
Hindi | 77 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे ।
लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ Translated Sutra: सात प्राण का एक स्तोक, सात स्तोक का एक लव, ७७ लव का एक मुहूर्त्त कहा है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
काल प्रमाणं |
Hindi | 79 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाइं तेवत्तरिं च ऊसासा ।
एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहिं अनंतनाणीहिं ॥ Translated Sutra: ३७७३ उच्छ्वास होते हैं। सभी अनन्तज्ञानीओने इसी मुहूर्त्त – परिमाण बताया है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 975 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्सक्खेवपमोक्खं च अचयंतो तहिं दिओ ।
सपरिसो पंजली होउं पुच्छई तं महामुनिं ॥ Translated Sutra: उसके आक्षेपों का अर्थात् उत्तर देने में असमर्थ ब्राह्मण ने अपनी समग्र परिषद के साथ हाथ जोड़कर उस महामुनि से पूछा – तुम कहो – वेदों का मुख क्या है ? यज्ञों का, नक्षत्रों का और धर्मों का जो मुख है, उसे भी कहिए। और अपना तथा दूसरों का उद्धार करने में जो समर्थ हैं, वे भी बतलाओ। मुझे यह सब संशय है। हे साधु ! मैं पूछता हूँ, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 77 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुक्करं खलु भो! निच्चं अनगारस्स भिक्खुणो ।
सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं ॥ Translated Sutra: वास्तव में अनगार भिक्षु ही यह चर्या सदा से ही दुष्कर रही है कि उसे वस्त्र, पात्र, आहारादि सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास कुछ भी अयाचित नहीं होता है। गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट साधु के लिए गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना सरल नहीं है, अतः ‘गृहवास ही श्रेष्ठ है’ – मुनि ऐसा चिन्तन न करे। सूत्र – ७७, ७८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 78 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए ।
सेओ अगारवासु त्ति इइ भिक्खू न चिंतए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 275 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं निसामित्ता हेऊकारणचोइओ ।
तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा – ‘‘सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हों, फिर भी लोभी मनुष्य की उनसे कुछ भी तृप्ति नहीं होती। क्योंकि इच्छा आकाश समान अनन्त है।’’ ‘‘पृथ्वी चावल, जौ, सोना और पशु की इच्छापूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है – यह जानकर साधक तप का आचरण करे।’’ सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 377 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] के एत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खंडिएहिं ।
एयं दंडेण फलेण हंता कंठम्मि घेत्तूण खेलज्ज जो णं? ॥ Translated Sutra: रुद्रदेव – यहाँ कोई है क्षत्रिय, उपज्योतिष – रसोइये, अध्यापक और छात्र, जो इस निर्ग्रन्थ को डण्डे से, फलक से पीट कर और कण्ठ पकड़ कर निकाल दें। यह सुनकर बहुत से कुमार दौड़ते हुए आए और दण्डों से, बेंतो से, चाबुकों से ऋषि को पीटने लगे। राजा कौशलिक की अनिन्द्य सुंदरी कन्या भद्रा ने मुनि को पीटते देखकर क्रुद्ध कुमारों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 378 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अज्झावयाणं वयणं सुणेत्ता उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा ।
दंडेहि वित्तेहि कसेहि चेव समागया तं इसि तालयंति ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 379 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रन्नो तहिं कोसलियस्स धूया भद्द त्ति नामेण अनिंदियंगी ।
तं पासिया संजय हम्ममाणं कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 477 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नहेव कुंचा समइक्कमंता तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा ।
पलेंति पुत्ता य पई य मज्झं ते हं कहं नानुगमिस्समेक्का? ॥ Translated Sutra: पुरोहित – पत्नी – जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा प्रसारित जालों को काटकर आकाश में स्वतन्त्र उड जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति भी छोड़कर जा रहे हैं। मैं भी क्यों न उनका अनुगमन करूँ ? पुत्र और पत्नी के साथ पुरोहितने भोगों को त्याग कर अभिनिष्क्रमण किया है।यह सुनकर उस कुटुम्ब की प्रचुर और श्रेष्ठ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 478 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरोहियं तं ससुयं सदारं सीच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए ।
कुडुंबसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 577 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोऊण तस्स सो धम्मं अनगारस्स अंतिए ।
महया संवेगनिव्वेयं समावन्नो नराहिवो ॥ Translated Sutra: अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया। राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया। सूत्र – ५७७, ५७८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 578 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संजओ चइउं रज्जं निक्खंतो जिनसासने ।
गद्दभालिस्स भगवओ अनगारस्स अंतिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 677 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पासेहिं कूडजालेहिं मिओ वा अवसो अहं ।
वाहिओ बद्धरुद्धो अ बहुसो चेव विवाइओ ॥ Translated Sutra: गलों से तथा मगरों को पकड़ने के जालों से मत्स्य की तरह विवश मैं अनन्त बार खींचा गया, फाड़ा गया, पकड़ा गया और मारा गया। बाज पक्षियों, जालों तथा वज्रलेपों के द्वारा पक्षी की भाँति मैं अनन्त बार पकड़ा गया, चिपकाया गया, बाँधा गया और मारा गया। सूत्र – ६७७–६७९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 678 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गलेहिं मगरजालेहिं मच्छो वा अवसो अहं ।
उल्लिओ फालिओ गहिओ मारिओ य अनंतसो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 679 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वीदंसएहि जालेहिं लेप्पाहिं सउणो विव ।
गहिओ लग्गो बद्धो य मारिओ य अनंतसो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 773 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंपाए पालिए नाम सावए आसि वाणिए ।
महावीरस्स भगवओ सीसे सो उ महप्पणो ॥ Translated Sutra: चम्पा नगरी में ‘पालित’ नामक एक वणिक् श्रावक था। वह विराट पुरुष भगवान् महावीर का शिष्य था। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का विद्वान था। एक बार पोत से व्यापार करता हुआ वह पिहुण्ड नगर आया। वहाँ व्यापार करते समय उसे एक व्यापारी ने विवाह के रूप में अपनी पुत्री दी। कुछ समय के बाद गर्भवती पत्नी को लेकर उसने स्वदेश की ओर | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 774 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निग्गंथे पावयणे सावए से विकोविए ।
पोएण ववहरंते पिहुंडं नगरमागए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 775 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पिहुंडे ववहरंतस्स वाणिओ देइ धूयरं ।
तं ससत्तं पइगिज्झ सदेसमह पत्थिओ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 776 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह पालियस्स धरणी समुद्दंमि पसवई ।
अह दारए तहिं जाए समुद्दपालि त्ति नामए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 777 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खेमेण आगए चंपं सावए वाणिए घरं ।
संवड्ढई घरे तस्स दारए से सुहोइए ॥ Translated Sutra: वह वणिक् श्रावक सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर आया। वह सुकुमार बालक उसके घर में आनन्द के साथ बढ़ने लगा। उसने बहत्तर कलाऍं सीखीं, वह नीति – निपुण हो गया। वह युवावस्था से सम्पन्न हुआ तो सभी को सुन्दर और प्रिय लगने लगा। पिता ने उसके लिए ‘रूपिणी’ नाम की सुन्दर भार्या ला दी। वह अपनी पत्नी के साथ दोगुन्दक देव की भाँति | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 778 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बावत्तरिं कलाओ य सिक्खए नीइकोविए ।
जोव्वणेण य संपन्ने सुरूवे पियदंसणे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 779 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्स रूववइं भज्जं पिया आनेइ रूविणिं ।
पासाए कीलए रम्मे देवो दोगुंदओ जहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 877 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] केसिमेवं बुवाण तु गोयमो इणमब्बवी ।
विण्णाणेन समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ॥ Translated Sutra: तब गौतम ने कहा – विशिष्ट ज्ञान से अच्छी तरह धर्म के साधनों को जानकर ही उन की अनुमति दी गई है। नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना लोगों की प्रतीति के लिए है। संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और मैं साधु हूँ, – यथाप्रसंग इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है। वास्तव में दोनों तीर्थंकरों का एक ही सिद्धान्त | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 878 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पच्चयत्थं च लोगस्स नानाविहविगप्पणं ।
जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 879 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह भवे पइण्णा उ मोक्खसब्भूयसाहणे ।
नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1077 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
एस मग्गो त्ति पन्नत्तो जिनेहिं वरदंसिहिं ॥ Translated Sutra: वरदर्शी जिनवरों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के मार्ग पर आरूढ हुए जीव सद्गति को प्राप्त करते हैं। सूत्र – १०७७, १०७८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1078 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
एयं मग्गमनुप्पत्ता जीवा गच्छंति सोग्गइं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1376 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उदहीसरिनामाणं तीसई कोडिकोडिओ ।
उक्कोसिया ठिई होइ अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ Translated Sutra: ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि – कोटि उदधि सदृश – सागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है। सूत्र – १३७६, १३७७ | |||||||||
Vyavaharsutra | व्यवहारसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-३ | Hindi | 76 | Sutra | Chheda-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथस्स णं नवडहरतरुणस्स आयरिय-उवज्झाए वीसंभेज्जा, नो से कप्पइ अनायरियउवज्झायस्स होत्तए।
कप्पइ से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता तओ पच्छा उवज्झायं।
से किमाहु भंते? दुसंगहिए समणे निग्गंथे, तं जहा–आयरिएणं उवज्झाएण य। Translated Sutra: वो साधु जो दीक्षा में छोटे हैं। तरुण हैं। ऐसे साधु की आचार्य – उपाध्याय काल कर गए हो उनके बिना रहना न कल्पे, पहले आचार्य और फिर उपाध्याय की स्थापना करके रहना कल्पे। ऐसा क्यों कहा ? वो साधु नए हैं – तरुण हैं इसलिए उसे आचार्य – उपाध्याय आदि के संग बिना रहना न कल्पे, यदि साध्वी नवदीक्षित और तरुण हो तो उसे आचार्य – |