Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-१० |
Gujarati | 993 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेण रातिंदियसतेणं अद्धछट्ठेहि य भिक्खासतेहिं अहासुत्तं अहाअत्थं अहातच्चं अहामग्गं अहाकप्पं सम्मं काएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आराहिया यावि भवति। Translated Sutra: સૂત્ર– ૯૯૩. દશ દશમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા ૧૦૦ રાત્રિ દિવસ વડે અને ૫૫૦ ભિક્ષા વડે યથાસૂત્ર યાવત્ આરાધેલી હોય છે. સૂત્ર– ૯૯૪. સંસાર સમાપન્નક જીવો દશ ભેદે હોય છે – પ્રથમ સમય એકેન્દ્રિય, અપ્રથમ સમય એકેન્દ્રિય એ રીતે યાવત્ અપ્રથમ સમય પંચેન્દ્રિય. સંસાર સમાપન્નક જીવો દશ ભેદે કહ્યા છે – પૃથ્વીકાયિક યાવત્ વનસ્પતિકાયિક. | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-१० |
Gujarati | 994 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दसविधा संसारसमवन्नगा जीवा पन्नत्ता, तं जहा–
पढमसमयएगिंदिया, अपढमसमयएगिंदिया, पढमसमयबेइंदिया, अपढमसमयबेइंदिया, पढमसमय तेइंदिया, अपढमसमयतेइंदिया, पढमसमयचउरिंदिया, अपढमसमयचउरिंदिया, पढमसमय पंचिंदिया, अपढमसमयपंचिंदिया।
दसविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तं जहा– पुढवीकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, बेंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचेंदिया, अणिंदिया।
अहवा– दसविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तं जहा–पढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया, पढमसमय- तिरिया, अपढमसमयतिरिया, पढमसमयमनुया, अपढमसमयमनुया, पढमसमयदेवा, अपढमसमय-देवा, पढमसमयसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૯૯૩ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-१ | Hindi | 21 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तेणाविमं तिनच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा ।
जे ते उ वाइणो एवं न ते संसारपारगा ॥ Translated Sutra: सन्धि को जान लेने मात्र से मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते। जो ऐसा कहते हैं, वे संसार के पार नहीं जा सकते। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-१ | Hindi | 25 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तेणाविमं तिनच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा ।
जे ते उ वाइणो एवं न ते मारस्स पारगा ॥ Translated Sutra: सन्धि को जान लेने मात्र से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते। जो ऐसा कहते हैं, वे मृत्यु के पार नहीं जा सकते। वे मृत्यु, व्याधि और बुढ़ापे से आकुल संसार रूपी चक्र में पुनः पुनः नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं। सूत्र – २५, २६ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-१ | Hindi | 26 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘नानाविहाइं दुक्खाइं अणुहवंति पुणो पुणो ।
संसारचक्कवालम्मि वाहिमच्चुजराकुले ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २५ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-३ उपसर्ग परिज्ञा |
उद्देशक-२ अनुकूळ उपसर्ग | Hindi | 194 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तं च भिक्खू परिण्णाय सव्वे संगा महासवा ।
जीवियं नावकंखेज्जा सोच्चा धम्ममनुत्तरं ॥ Translated Sutra: स्वजन संग को संसार का कारण मानकर साधु उसका त्याग करे क्योंकि स्नेह संबंध कर्म का महाआश्रव द्वार है। सर्वज्ञ कथित अनुत्तर धर्म का श्रवण करके साधु असंयमी जीवन की ईच्छा न करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-३ उपसर्ग परिज्ञा |
उद्देशक-३ परवादी वचन जन्य अध्यात्म दुःख | Hindi | 213 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तुब्भे सरागत्था अन्नमण्णमणुव्वसा।
नट्ठ-सप्पह-सब्भावा संसारस्स अपारगा ॥ Translated Sutra: इस प्रकार तुम सब सरागी और एक दूसरे के वशवर्ती, सत्पथ एवं सद्भाव रहित तथा संसार के अपारगामी हो। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-१ | Hindi | 7 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संति पंच महब्भूया इहमेगेसिमाहिया ।
पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासपंचमा ॥ Translated Sutra: कुछैक दार्शनिक कहते हैं इस संसार में पाँच महाभूत हैं – १.पृथ्वी, २.पानी, ३.अग्नि, ४.वायु, ५.आकाश। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-२ | Hindi | 29 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] न तं सयं कडं दुक्खं ‘न य’ अन्नकडं च णं ॥
सुहं वा जइ ‘वा दुक्खं’ सेहियं वा असेहियं ॥ Translated Sutra: वह दुःख न तो स्वयं कृत होता है और न ही अन्यकृत। वह सुख या दुःख सिद्धि सम्बद्ध हो, असिद्धि/संसारसम्बद्ध हो, नियतिकृत होता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-२ | Hindi | 50 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्संति ‘संसारं ते विउस्सिया’ ॥ Translated Sutra: अपने – अपने वचन की प्रशंसा और दूसरे के वचन की निन्दा करते हुए जो उछलते हैं, वे संसार बढ़ाते हैं | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-२ | Hindi | 51 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं ।
कम्मचिंतापणट्ठाणं दुक्खखंधविवद्धणं ॥ Translated Sutra: अब इसके बाद क्रियावादी दर्शन है, जो पूर्व कथित है। कर्म – चिन्तन नष्ट करने के कारण यह संसार – प्रवर्धक है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-२ | Hindi | 58 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जहा आसाविणिं नावं जाइअंधो दुरूहिया ।
इच्छई पारमागंतुं अंतराले विसीयई ॥ Translated Sutra: जैसे जन्मान्ध पुरुष आस्रविनी/सछिद्र नौका पर आरूढ़ हो कर पार पाना चाहता है, किन्तु उसे बीच में ही विषाद करना पड़ता है। इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार का पार पाना चाहते हैं, किन्तु वे संसार में ही अनुपर्यटन करते हैं। – ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र – ५८, ५९ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-२ | Hindi | 59 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु समणा एगे मिच्छदिट्ठी अनारिया ।
‘संसारपारकंखी ते’ संसारं अणुपरियट्टंति ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५८ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-३ | Hindi | 75 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] असंवुडा अणादीयं भमिहिंति पुणो-पुणो ।
कप्पकालमुवज्जंति ठाणा आसुरकिब्बिसिय ॥ Translated Sutra: वे असंवृत मनुष्य इस अनादि संसार में बार – बार भ्रमण करेंगे। वे कल्प परिमित काल तक आसुर एवं किल्बिषिक स्थानों में उत्पन्न होते हैं। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-१ | Hindi | 101 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] न वि ता अहमेव लुप्पए लुप्पंती लोगंसि पाणिणो ।
एवं सहिएऽहिपासए अणिहे से पुट्ठेऽहियासए ॥ Translated Sutra: इस संसार में केवल मैं ही लुप्त नहीं होता, अपितु लोक में दूसरे प्राणी भी लुप्त होते हैं। इस प्रकार साधक आत्मौपम्य – सहित देखता है। पीड़ा स्पर्श होने पर डरे नहीं, सहन करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-२ | Hindi | 112 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई महं ।
अदु इंखिणिया उ पाविया इह संखाय मुनी न मज्जई ॥ Translated Sutra: जो दूसरे लोगों को पराभूत करता है, वह संसार में महत् – परिभ्रमण करता है। पराभव की आकांक्षा पाप – जनक है। यह जानकर मुनि मद न करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-२ | Hindi | 142 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया बहू जणा ।
गुरुणो छंदाणुवत्तगा विरया तिण्ण महोघमाहियं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार महान अन्तर को जानकर, धर्म – सहित होकर, गुरु की भावना का अनुवर्तन कर कईं विरत मनुष्यों ने संसार – समुद्र पार किया है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-१ | Hindi | 302 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे केइ बाला इह जीवियट्ठी पावाइं कम्माइं करेंति रुद्दा ।
ते घोररूवे तिमिसंधयारे तिव्वाभितावे नरए पडंति ॥ Translated Sutra: इस संसार में कुछ जीवितार्थी मूढ़ जीव रौद्र पाप कर्म करते हैं, वे घोर, सघन अन्धकारमय, तीव्र सन्तप्त नरक में गिरते हैं। जो आत्म – सुख के निमित्त त्रस और स्थावर जीवों की तीव्र हिंसा करता है, भेदन करता है, अदत्ताहारी है और सेवनीय का किंचित् अभ्यास नहीं करता है। सूत्र – ३०२, ३०३ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-६ वीरस्तुति |
Hindi | 357 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से भूइपण्णे अनिएयचारी ओहंतरे धीरे अनंतचक्खू ।
अनुत्तरं तवति सूरिए वा वइरोयणिंदे व ‘तमं पगासे’ ॥ Translated Sutra: वे भूतिप्रज्ञ प्रबुद्ध अनिकेतचारी, संसारपारगामी, धीर, अनंतचक्षु, तप्त सूर्यवत् अनुपम देदीप्यमान और प्रदीप्त अग्नि की तरह अंधकार में प्रकाशोत्पादक थे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-६ वीरस्तुति |
Hindi | 375 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ठितीन सेट्ठा लवसत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभान सेट्ठा ।
निव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा न नायपुत्ता परमत्थि नाणी ॥ Translated Sutra: जैसे स्थिति (आयु) में लव सप्तमदेव श्रेष्ठ है, सभाओं में सुधर्म सभा श्रेष्ठ है वैसे ही ज्ञातपुत्र से श्रेष्ठ कोई ज्ञानी नहीं है। वे आशुप्रज्ञ पृथ्वीतुल्य थे, विशुद्ध थे और अनासक्त थे। उन्होंने संग्रह नहीं किया। उन अभयंकर, वीर और अनन्त चक्षु ने संसार महासागर को तैरकर (मुक्ति पाई)। सूत्र – ३७५, ३७६ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-७ कुशील परिभाषित |
Hindi | 384 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अस्सिं च लोए अदुवा परत्था सयग्गसो वा तह अन्नहा वा ।
संसारमावण्ण ‘परं परं ते’ बंधंति वेयंति य दुण्णियाणि ॥ Translated Sutra: वे प्राणी इस लोक में या परलोक में, तद्रूप में या अन्य रूप में, संसार में आगे से आगे परिभ्रमण करते हुए दुष्कृत का बन्धन एवं वेदन करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-७ कुशील परिभाषित |
Hindi | 392 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं आहारसंपज्जणवज्जणेणं ।
एगे य सीतोदगसेवणेणं हुतेन एगे पवदंति मोक्खं ॥ Translated Sutra: इस संसार में कईं मूढ़ आहार में नमकवर्जन से मोक्ष कहते हैं। कुछ शीतल जल – सेवन से और कुछ हवन से मोक्षप्राप्ति कहते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-७ कुशील परिभाषित |
Hindi | 410 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ‘अवि हम्ममाणे’ फलगावतुट्ठी समागमं कंखइ अंतगस्स ।
णिद्धय कम्मं न पवंचुवेइ अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ॥ Translated Sutra: परीषहों से हन्यमान भिक्षु फलक की तरह शरीर कृश होने पर काल की आकांक्षा करता है। मैं ऐसा कहता हूँ कि वह कर्म – क्षय करने पर वैसे ही प्रपंच में/संसार में गति नहीं करता, जैसे धुरा टूटने पर गाड़ी नहीं चलती। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-११ मार्ग |
Hindi | 502 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अतरिंसु तरंतेगे तरिस्संति अनागया ।
तं सोच्चा पडिवक्खामि जंतवो! तं सुणेह मे ॥ Translated Sutra: (संसार – सागर को) तर गए हैं, तर रहे हैं और भविष्य में तरेंगे। उसे सूनकर जो कहूँगा उसे हे प्राणियों ! मुझसे सूनो। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-११ मार्ग |
Hindi | 519 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बुज्झमाणान पाणाणं किच्चंताणं सकम्मणा ।
आघाति साधुतं दीवं पतिट्ठेसा पवुच्चई ॥ Translated Sutra: (संसार – प्रवाह में) प्रवाहीत, स्वकर्मों से छिन्न प्राणीयों के लिए प्रभु ने साधुक/कल्याणकारी द्वीप का प्रति – पादन किया है। इसे ‘प्रतिष्ठा’ कहा जाता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-११ मार्ग |
Hindi | 527 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अनारिया ।
सोतं कसिणमावण्णा आगंतारो महब्भयं ॥ Translated Sutra: वैसे ही कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण सम्पूर्ण स्रोत संसार में पड़कर महाभय प्राप्त करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१२ समवसरण |
Hindi | 540 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा विरूवरूवाणिह अकिरियाता ।
जमाइइत्ता बहवे मणूसा भमंति संसारमणोवदग्गं ॥ Translated Sutra: वे अनभिज्ञ अक्रियवादी विविध रूपों का आख्यान करते हैं, जिसे स्वीकार कर अनेक मनुष्य अपार संसार में भ्रमण करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१२ समवसरण |
Hindi | 546 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ते चक्खु लोगस्सिह नायगा उ मग्गाणुसासंति हियं पयाणं ।
तहा तहा सासयमाहु लोए जंसी पया माणव! संपगाढा ॥ Translated Sutra: इस संसार में वे ही लोकनायक हैं जो दृष्टा है तथा जो प्रजा के लिए हीतकर मार्ग का अनुशासन करते हैं। हे मानव ! जिसमें प्रजा आसक्त है यथार्थतः वही शाश्वत लोक कहा गया है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१२ समवसरण |
Hindi | 548 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं ।
जंसी विसण्णा विसयंगणाहिं दुहतो वि लोयं अणुसंचरंति ॥ Translated Sutra: जिसे अपारगसलिल – प्रवाह कहा गया है, उस गहन संसार को दुर्मोक्ष जानो। जिसमें विषय और अंगनाओं से परुष विषण्ण है और लोक में अनुसंचरण करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१४ ग्रंथ |
Hindi | 583 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं अणोसिते नंतकरे ति नच्चा ।
ओभासमाणे दवियस्स वित्तं न निक्कसे बहिया आसुपण्णो ॥ Translated Sutra: गुरुकुल में न रहने वाला संसार का अन्त नहीं कर सकता, यह जानकर मनुज गुरुकुल – वास एवं समाधि की ईच्छा करे। गुरु वित्त पर अनुशासन करते हैं, अतः आशुप्रज्ञ गुरुकुल को न छोड़े। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१४ ग्रंथ |
Hindi | 586 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] डहरेन वुड्ढेन ऽणुसासिते तु रातिणिएणाऽवि समव्वएणं ।
सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छ निज्जंतए वावि अपारए से ॥ Translated Sutra: बाल या वृद्ध रात्निक अथवा समव्रती द्वारा अनुशासित होने पर जो सम्यक् स्थिरता में प्रवेश नहीं करता है, वह नीयमान होने पर भी संसार को पार नहीं कर पाता। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१४ ग्रंथ |
Hindi | 597 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संखाए धम्मं च वियागरंति बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति ।
ते पारगा दोण्ह विमोयणाए संसोधियं पण्हमुदाहरंति ॥ Translated Sutra: जो अवसरोचित जानकर धर्म की व्याख्या करते हैं वे बोधि को प्राप्त ज्ञाता संसार का अन्त करनेवाले होते हैं। वे श्रुत के पारगामी विद्वान अपने अपने और शिष्य के संदेह – विमोचन के लिए संशोधित जिज्ञासाओं की व्याख्या करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 638 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू लूहे तोरट्ठी देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू अन्नतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से भिक्खू एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला Translated Sutra: इसके पश्चात् राग – द्वेष रहित, संसार – सागर के तीर यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष भिक्षापात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उसके तट पर खड़ा होकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अत्यन्त विशाल यावत् मनोहर है। और वहाँ वह भिक्षु उन चारों | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 641 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अनुपुव्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा –आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राय भवति–महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति।
तस्स णं रण्णो परिसा भवति–उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, ‘नागा नागपुत्ता’, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसत्थारो पसत्थपुत्ता, सेणावई सेणावइपुत्ता।
तेसिं Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कईं प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे कि – उन मनुष्यों में कईं आर्य होते हैं अथवा कईं अनार्य होते हैं, कईं उच्चगोत्रीय होते हैं, कईं नीचगोत्रीय। उनमें से कोई भीमकाय होता है, कईं ठिगने कद के होते हैं। कोई सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बूरे वर्ण | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 645 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: से बेमि–पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति, तं जहा–‘अप्पयरा वा भुज्जयरा’ वा। तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाइं भवंति, तं जहा–‘अप्पयरा वा भुज्जयरा’ वा। तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्ठिया। सतो वा वि एगे नायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया। असतो वा वि एगे नायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया।
जे ते सतो Translated Sutra: मैं ऐसा कहता हूँ कि पूर्व आदि चारों दिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, यावत् कोई कुरूप। उनके पास खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन तथा जनपद परिगृहीत होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक। इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 663 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ आयहेउं वा ‘नाइहेउं वा’ अगारहेउं वा परिवारहेउं वा नायगं वा सहवासियं वा निस्साए–१. अदुवा अणुगामिए २.अदुवा उवचरए ३.अदुवा पाडिपहिए ४.अदुवा संधिच्छेयए ५.अदुवा गंठि-च्छेयए ६. अदुवा ओरब्भिए ७. अदुवा सोयरिए ८. अदुवा वागुरिए ९. अदुवा साउणिए १. अदुवा मच्छिए ११. अदुवा गोवालए १२. अदुवा गोघायए १३. अदुवा सोवणिए १४. अदुवा सोवणियंतिए
से एगइओ अणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगमिय हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति–इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति।
से एगइओ उवचरगभावं पडिसंधाय तमेव उवचरिय हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता Translated Sutra: कोई पापी मनुष्य अपने लिए अथवा अपने ज्ञातिजनों के लिए अथवा कोई अपना घर बनाने के लिए या अपने परिवार के भरण – पोषण के लिए अथवा अपने नायक या परिचित जन तथा सहवासी के लिए निम्नोक्त पापकर्म का आचरण करने वाले बनते हैं – अनुगामिक बनकर, उपचरक बनकर, प्रातिपथिक बनकर, सन्धिच्छेदक बनकर, ग्रन्थिच्छेदक बनकर, औरभ्रिक बनकर, शौकरिक | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 670 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–जइ खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्म-समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वाओ पानाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए,सव्वाओ अदिन्नादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ Translated Sutra: पश्चात् दूसरे धर्मपक्ष का विवरण है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ, अपरिग्रह होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 673 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: ते सव्वे पावादुया आइगरा धम्माणं, नानापण्णा नानाचंदा नानासीला नानादिट्ठी नानारुई नानारंभा नानाज्झवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगओ चिट्ठंति।
पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावादुए आइगरे धम्माणं, नानापण्णे नानाछंदे नानासीले नानादिट्ठी नानारुई नानारंभे नानाज्झ-वसाणसंजुत्ते एवं वयासी– हंभो पावादया! आइगरा! धम्माणं, नानापण्णा! नानाछंदा! नानासीला! नानादिट्ठी! नानारुई! नानारंभा! नानाज्झवसाणसंजुत्ता! इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुण्णं गहाय मुहुत्तगं-मुहुत्तगं पाणिणा धरेह। नो बहु संडासगं Translated Sutra: वे पूर्वोक्त प्रावादुक अपने – अपने धर्म के आदि – प्रवर्तक हैं। नाना प्रकार की बुद्धि, नाना अभिप्राय, विभिन्न शील, विविध दृष्टि, नानारुचि, विविध आरम्भ और विभिन्न निश्चय रखने वाले वे सभी प्रावादुक एक स्थान में मंडलीबद्ध होकर बैठे हों, वहाँ कोई पुरुष आग के अंगारों से भरी हुई किसी पात्री को लोहे की संडासी से पकड़ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ आहार परिज्ञा |
Hindi | 690 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पुरक्खायं–इहेगइया सत्ता नानाविहजोणिया नानाविहसंभवा नानाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउट्टंति।
ते जीवा तेसिं नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति– ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति?] ।
अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं Translated Sutra: इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने निरूपण किया है कि इस जगत में कईं प्राणी नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं। वे अनेक प्रकार की योनियों में स्थित रहते हैं, संवर्द्धन पाते हैं। वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मानुसार उन कर्मों के ही प्रभाव से विविध योनियों में आकर उत्पन्न होते हैं। वे प्राणी अनेक प्रकार | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ आहार परिज्ञा |
Hindi | 691 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पुरक्खायं–इहेगइया सत्ता नानाविहजोणिया नानाविहसंभवा नानाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगाकम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा उदगत्ताए विउट्टंति? । तं सरीरगं वायसंसिद्धं वायसंगहियं वायपरिगयं उड्ढंवाएसु उड्ढंभागी भवइ, अहेवाएसु अहेभागी भवइ, तिरियंवाएसु तिरियभागी भवइ, तं जहा– उस्सा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए।
ते जीवा तेसिं नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति– ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। नानाविहाणं तसथावराणं Translated Sutra: इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर वहाँ किये हुए कर्मोदयवशात् नाना प्रकार के त्रसस्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन विभिन्न प्रकार के त्रस – स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। पृथ्वी आदि के शरीरों | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ आहार परिज्ञा |
Hindi | 692 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पुरक्खायं–इहेगइया सत्ता नानाविहजोणिया नानाविहसंभवा नानाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्ते वा अगणिकायत्ताए विउट्टंति।
ते जीवा तेसिं नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति– ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति?] ।
अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं Translated Sutra: इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नाना प्रकार की योनियों में आकर वहाँ किये हुए अपने कर्म के प्रभाव से त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। वायुकाय के सम्बन्ध में शेष बातें तथा चार आलापक अग्निकाय समान समझना। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ आहार परिज्ञा |
Hindi | 693 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पुरक्खायं–इहेगइया सत्ता नानाविहजोणिया नानाविहसंभवा नानाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा वाउकायत्ताए विउट्टंति।
ते जीवा तेसिं नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति– ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति?] ।
अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं Translated Sutra: इस संसार में कितने ही जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हुए कर्म के प्रभाव से पृथ्वीकाय में आकर अनेक प्रकार के त्रस – स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में पृथ्वी, शर्करा या बालू के रूप में उत्पन्न होते हैं। इस विषय में निम्न गाथाओं के अनुसार जानना: – पृथ्वी, शर्करा, बालू, | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ आचार श्रुत |
Hindi | 727 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नत्थि चाउरंते संसारे नेवं सण्णं निवेसए ।
अत्थि चाउरंते संसारे एवं सण्णं निवेसए ॥ Translated Sutra: चार गति वाला संसार नहीं है, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए, अपितु चातुर्गति संसार है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 747 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि बीओदगभोइ भिक्खू भिक्खं विहं जायइ जीवियट्ठी ।
ते ‘नाइसंजोगमविप्पहाय’ काओवगा णंतकरा भवंति ॥ Translated Sutra: (अतः) जो भिक्षु होकर भी सचित्त, बीजकाय, (सचित्त) जल एवं आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि का उपभोग करते हैं, वे केवल जीविका के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं। वे अपने ज्ञातिजनों का संयोग छोड़कर भी अपनी काया के ही पोषक हैं, वे अपने कर्मों का या जन्म – मरण रूप संसार का अन्त करने वाले नहीं हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 759 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा ते भोयणट्ठा वणिया वयंति ।
वयं तु कामेहिं अज्झोववण्णा अनारिया पेमरसेसु गिद्धा ॥ Translated Sutra: वणिक् धन के अन्वेषक और मैथुन में गाढ़ आसक्त होते हैं, तथा वे भोजन की प्राप्ति के लिए इधर – उधर जाते रहते हैं। अतः हम तो ऐसे वणिकों को काम – भोगों में अत्यधिक आसक्त, प्रेम के रस में गृद्ध और अनार्य कहते हैं। वणिक् आरम्भ और परिग्रह का व्युत्सर्ग नहीं करते, उन्हीं में निरन्तर बंधे हुए रहते हैं और आत्मा को दण्ड देते | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 783 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुहओवि धम्मम्मि समुठियामो अस्सिं सुट्ठिच्चा तह एस कालं ।
आयारसीले बुइएह णाणे न संपरायम्मि विसेसमत्थि ॥ Translated Sutra: (सांख्यमतवादी एकदण्डीगण आर्द्रकमुनि से कहने लगे – ) आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं। तीनों कालों में धर्म में भलीभाँति स्थित हैं। (हम दोनों के मत में) आचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है। आपके और हमारे दर्शन में ‘संसार’ के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 785 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं न मिज्जंति न संसरंति न माहणा खत्तिय-वेस-पेसा ।
कीडा य पक्खी य सरीसिवा य नरा य सव्वे तह देवलोगा ॥ Translated Sutra: (आर्द्रक मुनि कहते हैं – ) इस प्रकार (आत्मा को एकान्त नित्य एवं सर्वव्यापक) मानने पर संगति नहीं हो सकती और जीव का संसरण भी सिद्ध नहीं हो सकता। और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य रूप भेद ही सिद्ध हो सकते हैं। तथा कीट, पक्षी, सरीसृप इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती। इसी प्रकार मनुष्य, देवलोक | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 786 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोगं अयाणित्तिह केवलेणं कहिंति जे धम्ममजाणमाणा ।
णासेंति अप्पाणं परं च णट्ठा संसार घोरम्मि अणोरपारे ॥ Translated Sutra: इस लोक को केवलज्ञान के द्वारा न जानकर अनभिज्ञ जो व्यक्ति धर्म का उपदेश करते हैं, वे स्वयं नष्ट जीव अपने आप का और दूसरे को भी अपार तथा भयंकर संसार में नाश कर देते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 787 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोगं विजाणंतिह केवलेणं पुण्णेन पाणेन समाहिजुत्ता ।
धम्मं समत्तं च कहिंति जे उ तारेंति अप्पाण परं च तिण्णा ॥ Translated Sutra: परन्तु जो व्यक्ति समाधियुक्त है, वे पूर्ण केवलज्ञान द्वारा इस लोक को विविध प्रकार से यथावस्थित रूप से जान पाते हैं, समस्त धर्म का प्रतिपादन करते हैं। स्वयं संसारसागर से पार हुए पुरुष दूसरों को भी संसार सागर से पार करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 792 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बुद्धस्स आणाए इमं समाहिं अस्सिं सुठिच्चा तिविहेन ताई ।
तरिउं समुद्दं व महाभवोधं ‘आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जासि’ ॥ Translated Sutra: तत्त्वदर्शी भगवान की आज्ञा से इस समाधियुक्त धर्म को अंगीकार करके तथा सम्यक् प्रकार से सुस्थित होकर तीनों करणों से विरक्ति रखता हुआ साधक आत्मा का त्राता बनता है। अतः महादुस्तर समुद्र की तरह संसारसमुद्र को पार करने के लिए आदानरूप धर्म का निरूपण एवं ग्रहण करना चाहिए। – ऐसा मैं कहता हूँ। |