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Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१० चंद्रमा

Hindi 141 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गोयमो एवं वयासी– कहण्णं भंते! जीवा वड्ढंति वा हायंति वा? गोयमा! ते जहानामए बहुलपक्खस्स पाडिवय-चंदे पुण्णिया-चंदं पणिहाय हीने वण्णेणं हीणे सोम्माए हीने निद्धयाए हीने कंतीए एवं–दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेसाए हीने मंडलेणं। तयानंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवय-चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव हीणतराए मंडलेणं। तयानंतरं च णं तइया–चंदे बीया-चंदं पणिहाय हीनतराए वण्णेणं जाव हीनतराए मंडलेणं। एवं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो दसवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? ‘हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। उस के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-११ दावद्रव

Hindi 142 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति? गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पन्नत्ता–किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठंति। जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत्‌ गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१२ उदक

Hindi 143 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, बारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया। धारिणी देवी। अदीनसत्तू कुमारे जुवराया वि होत्था। सुबुद्धी अमच्चे जाव रज्जधुराचिंतए, समणोवासए। तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमेणं एगे फरिहोदए यावि होत्था–मेय-वसा-रुहिर-मंस-पूय-पडल-पोच्चडे मयग-कलेवर-संछण्णे अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए–अहिमडे इ वा गोमडे इ वा जाव मय-कुहिय-विणट्ठ-किमिण-वावण्ण-दुरभिगंधे

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! यदि यावत्‌ सिद्धि प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ग्यारहवे ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो बारहवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?‌’ हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उस चम्पा नगरी में जितशत्रु नामक राजा था। धारिणी नामक रानी थी, वह परिपूर्ण
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१२ उदक

Hindi 144 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे

Translated Sutra: वह जितशत्रु राजा एक बार – किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत्‌ अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत्‌ सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत्‌ जीमने के अनन्तर, हाथ – मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन,
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१३ मंडुक

Hindi 145 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तेरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। समोसरणं। परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे दद्दुरवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए दद्दुरंसि सीहासनंसि दद्दुरे देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सूरियाभे जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए, जहा–सूरियाभे। भंतेति! भगवं गोयमे समणं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने बारहवें ज्ञात – अध्ययन का अर्थ यह कहा है तो तेरहवे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर चौदह
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१३ मंडुक

Hindi 146 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स अन्नया कयाइ सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउब्भूया। [तं जहा– [गाथा] सासे कासे जरे दाहे, कुच्छिसूले भगंदरे ।अरिसा अजीरए दिट्ठी- मुद्धसूले अकारए ।अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू दउदरे कोढे ॥

Translated Sutra: कुछ समय पश्चात्‌ एक बार नन्द मणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए। वे इस प्रकार थे – श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षि – शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, नेत्रशूल, मस्तकशूल, भोजनविषयक अरुचि, नेत्रवेदना कर्णवेदना, कंडू – खाज, दकोदर और कोढ़।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१३ मंडुक

Hindi 147 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं

Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत्‌ छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 148 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चोद्दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नयरं। पमयवणे उज्जाणे। कनगरहे राया। तस्स णं कनगरहस्स पउमावई देवी। तस्स णं कनगरहस्स तेयलिपुत्ते नामं अमच्चे–साम-दंड-भेय-उवप्पयाण-नीति-सुपउत्त-नयविहण्णू विहरइ। तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए। तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तस्स णं कलावस्स मूसियारदारगस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया होत्था–रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ हे जम्बू ! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नगर था। उस से बाहर ईशान – दिशा में प्रमदवन उद्यान था। उस नगर में कनकरथ राजा था। कनकरथ राजा की पद्मावती देवी थी। कथकरथ राजा
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 149 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कनगरहे राया रज्जे य रट्ठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य पुरे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे जाए, जाए पुत्ते वियंगेइ–अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं पायंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं पायंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं कण्णसक्कुलीओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं नासापुडाइं फालेइ, अप्पेगइयाणं अंगोवंगाइं वियत्तेइ। तए णं तीसे पउमावईए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु कनगरहे राया रज्जे य रट्ठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे

Translated Sutra: कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल में, वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप – गृद्ध और लालसामय था। अत एव वह जो – जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं के हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 150 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा पोट्टिला अन्नया कयाइ तेयलिपुत्तस्स अनिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया यावि होत्था–नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तए णं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं तेयलिस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नाम गोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? [ति कट्टु?] ओहयमन-संकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ। तए

Translated Sutra: किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई। तेतलिपुत्र उसका नाम – गोत्र भी सूनना पसंद नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या ! तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार आया – ‘तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु आजकल अप्रिय हो गई हूँ। अत एव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सूनना चाहते,
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 151 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नामं अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंधाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमियाओ मणसमियाओ वइसमियाओ काय-समियाओ मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ गुत्ताओ गुत्तिंदियाओ गुत्तबंभचारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरंति। तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए

Translated Sutra: उस काल और उस समय में ईर्या – समिति से युक्त यावत्‌ गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करती – करती तेतलिपुर नगर में आई। आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। तत्पश्चात्‌ उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 152 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झ-त्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं तेयलि-पुत्तस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलीपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तं सेयं खलु ममं सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए–एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठि यम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं

Translated Sutra: एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करती जाग रही थी, तब उसे विचार उत्पन्न हुआ – ‘मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत्‌ दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अत एव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है।’ पोट्टिला दूसरे दिन प्रभात होने
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 153 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कनगरहे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था। तए णं ते ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेनावइ-सत्थवाह-पभिइणो रोयमाणा कंदमाणा विलव-माणा तस्स कनगरहस्स सरीरस्स महया इड्ढी-सक्कार-समुदएणं नीहरणं करेंति, करेत्ता अन्नमन्नं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! कनगरहे राया रज्जे य जाव मुच्छिए पुत्ते वियंगित्था। अम्हे णं देवानुप्पिया! रायाहीणा रायाहिट्ठिया रायाहीणकज्जा। अयं च णं तेयाली अमच्चे कनगरहस्स रन्नो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नवियारे सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था। तं सेयं खलु अम्हं तेयलिपुत्तं अमच्चं कुमारं जाइत्तए

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ किसी समय कनकरथ राजा मर गया। तब राजा, ईश्वर, यावत्‌ अन्तिम संस्कार करके वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे – देवानुप्रियो ! कनकरथ राजा ने राज्य आदि में आसक्त होने के कारण अपने पुत्रों को विकलांग कर दिया है। देवानुप्रियो ! हम लोग तो राजा के अधीन हैं, राजा से अधिष्ठित होकर रहने वाले हैं और राजा के अधीन रहकर
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 154 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अभिक्खणं-अभिक्खणं केवलिपन्नत्ते धम्मे संबोहेइ, नो चेव णं से तेयलिपुत्तं संबुज्झइ। तए णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु कनगज्झए राया तेयलिपुत्तं आढाइ जाव भोगं च से अनुवड्ढेइ, तए णं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं-अभिक्खणं संबोहिज्जमाणे वि धम्मे नो संबुज्झइ। तं सेयं खलु ममं कनगज्झयं तेयलिपुत्ताओ विप्परिणामित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कनगज्झयं तेयलिपुत्तओ विप्परिणामेइ। तए णं तेयलिपुत्ते कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे

Translated Sutra: उधर पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को बार – बार केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं। तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ – ‘कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है, यावत्‌ उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार – बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 155 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाईसरणे समुप्पन्ने। तए णं तेयलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावईए विजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्था। तए णं हं थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइए सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तए णं हं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव तेयलिपुरे तेयलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम उत्पन्न होने से, जातिस्मरण ज्ञान प्राप्ति हुई। तब तेतलिपुत्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ – निश्चय ही मैं इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, महाविदेह क्षेत्र में पुश्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था। फिर मैंने स्थविर मुनि के निकट
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र

Hindi 156 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेयलिपुरे नयरे अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहिं य देवदुंदुहीओ समाहयाओ, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, चेलुक्खेवे दिव्वे गीयगंधव्वनिनाए कए यावि होत्था। तए णं से कनगज्झए राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे एवं वयासी–एवं खलु तेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पव्वइए। तं गच्छामि णं तेयलिपुत्तं अनगारं वंदामि नमंसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमट्ठं विनएणं भुज्जो-भुज्जो खामेमि–एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता ण्हाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धिं जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेयलिपुत्ते अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता तेयलिपुत्तं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता

Translated Sutra: उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहते हुए वाणव्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाईं। पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत – गन्धर्व का निनाद किया। तत्पश्चात्‌ कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हुआ बोला – निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है। अत
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१५ नंदीफळ

Hindi 157 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पन्नरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया। तत्थ णं चंपाए नयरीए धने नामं सत्थवाहे होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए। तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था–रिद्धत्थिमिय-समिद्धा वण्णओ। तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कनगकेऊ नामं राया होत्था–महया वण्णओ। तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था। जितशत्रु राजा था। धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत्‌ किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था। उस
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 158 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सोलसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था। तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तं जहा–सोमे सोमदत्ते सोमभूई–अड्ढा जाव अपरिभूया रिउव्वेय-जउव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय जाव बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिनिट्ठिया। तेसि णं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था, तं जहा–नागसिरी भूयसिरी जक्खसिरी–सुकुमालपाणिपायाओ जाव तेसि णं माहणाणं इट्ठाओ,

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो सोलहवे ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ जम्बू ! उस काल, उस समयमें चम्पा नगरी थी। उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान दिशा भागमें सुभूमिभाग नामक उद्यान था। उस चम्पानगरीमें तीन ब्राह्मण – बन्धु निवास करते थे। सोम,
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 159 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नामं थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नामं अनगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउलं-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ। तए णं से धम्मरुई अनगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाइं ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं

Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत्‌ बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत्‌ विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद्‌ नीकली। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। परीषद्‌ वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 160 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तं धिरत्थु णं अज्जो! नागसिरीए माहणीए अघन्नाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभग निंबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अनगारे मासक्खमणपारणगंसि सालइएणं तित्तालाउएणं बहुसंभारसंभिएणं नेहावगाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए। तए णं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म चंपाए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु बहुजनस्स एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पन्नवेंति एवं परूवेंति–धिरत्थु णं देवानुप्पिया! नागसिरीए जाव दूभगनिंबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अनगारे सालइएणं तित्तालाउएणं बहुसंभारसंभिएणं नेहावगाढेणं

Translated Sutra: ‘तो हे आर्यो ! उस अधन्य अपुण्य, यावत्‌ निंबोली समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तथारूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणकमें यावत्‌ तेल से व्याप्त कटुक, विषाक्त तूंबे का शाक देकर असमयमें ही मार डाला।’ तत्पश्चात्‌ उस निर्ग्रन्थ श्रमणोंने धर्मघोष स्थविर के पास वह वृत्तान्त सूनकर और समझकर
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 161 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सा णं तओनंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि दारियत्ताए पच्चायाया। तए णं सा भद्दा सत्थवाही नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारियं पयाया–सुकुमालकोमलियं गयता-लुयसमाणं। तए णं तीसे णं दारियाए निव्वत्तबारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्ण नामधेज्जं करेंति–जम्हा णं अम्ह एसा दारिया सुकुमाल-कोमलिया गयतालुयसमाणा, तं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेज्जं सुकुमालिया-सुकुमालिया। तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति सूमालियत्ति। तए णं सा सूमालिया दारिया पंचधाईपरिग्गहिया

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ वह पृथ्वीकाय से नीकलकर इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, चम्पा नगरी में सागरदत्त सार्थवाह की भद्रा भार्या की कूंख में बालिका के रूप में उत्पन्न हुई। तब भद्रा सार्थवाही ने नौ मास पूर्ण होने पर बालिका का प्रसव किया। वह बालिका हाथी के तालु के समान अत्यन्त सुकुमार और कोमल थी। उस बालिका के बारह दिन
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 162 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए जिनदत्ते नामं सत्थवाहे–अड्ढे। तस्स णं जिनदत्तस्स भद्दा भारिया–सूमाला इट्ठा मानुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरइ। तस्स णं जिनदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए–सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे। तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ। इमं च णं सूमालिया दारिया ण्हाया चेडिया-चक्कवाल-संपरिवुडा उप्पिं आगासतलगंसि कनग-तिंदूसएणं कीलमाणी-कीलमाणी विहरइ। तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे सुमालियं दारियं पासइ, पासित्ता सुमालियाए दारियाए रूवे य जोव्वणे

Translated Sutra: चम्पा नगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था। उस जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुकुमारी थी, जिनदत्त को प्रिय थी यावत्‌ मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आस्वादन करती हुई रहती थी। उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था। वह भी सुकुमार एक सुन्दर रूप में सम्पन्न
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 163 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सागरए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेइ, से जहानामए–असिपत्ते इ वा करपत्ते इ वा खुरपत्ते इ वा कलंबचीरिगापत्ते इ वा सत्तिअग्गे इ वा कोंतग्गे इ वा तोमरग्गे इ वा भिंडिमालग्गे इ वा सूचिकलावए इ वा विच्छुयडंके इ वा कविकच्छू इ वा इंगाले इ वा मुम्मुरे इ वा अच्ची इ वा जाले इ वा अलाए इ वा सुद्धागणी इ वा भवे एयारूवे? नो इणट्ठे समट्ठे। एत्तो अनिट्ठतराए चेव अक्कंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमनामतराए चेव पाणिफासं संवेदेइ। तए णं से सागरए अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठइ। तए णं सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स अम्मापियरो मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं

Translated Sutra: उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि। वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श का अनुभव करता रहा। सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर सकता हुआ, विवश होकर, मुहूर्त्तमात्र – वहाँ रहा। फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 164 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमनुरत्ता पइं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणं-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासधरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी– गए णं से सागरए त्ति कट्टु ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहिं। तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं

Translated Sutra: सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी। वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्त थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी। उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते – करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा – ‘सागर तो चल दिया!’ उसके मन का संकल्प मारा गया, अत एव वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान – चिन्ता करने लगी। तत्पश्चात्‌
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 165 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा भद्दा कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि। तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता मुहधोवणियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव वासधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं ओहयमनसंकप्पं करतलपल्हत्थमुहिं अट्टज्झाणोवगयं ज्झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियाहि? तए णं सा सूमालिया दारिया

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया। पूर्ववत्‌ कहा – तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में आया। सुकुमालिका को गोद में बिठाकर कहने लगा – ‘हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किए हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है। अत एव बेटी ! भग्नमनोरथ
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श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 166 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ– नरवइ-दिन्न-पयारा अम्मापिइ-नियण-निप्पिवासा वेसविहार-कय-निकेया नानाविह-अविनयप्पहाणा अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया। तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था–सूमाला जहा अंडनाए। तए णं तीसे ललियाए गोट्ठीए अन्नया कयाइ पंच गोट्ठिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। तत्थ णं एगे गोट्ठिल्लगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरेइ, एगे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुप्फपूरगं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरुक्खेवं करेइ। तए णं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहिं गोट्ठिल्लपुरिसेहिं

Translated Sutra: चम्पा नगरी में ललिता एक गोष्ठी निवास करती थी। राजाने उसे ईच्छानुसार विचरण करने की छूट दे रखी थी। वह टोली माता – पिता आदि स्वजनों की परवाह नहीं करती थी। वेश्या का घर ही उसका घर था। वह नाना प्रकार का अविनय करने में उद्धत थी, वह धनाढ्य लोगों की टोली थी और यावत्‌ किसी से दबती नहीं थी। उस चम्पानगरीमें देवदत्ता गणिका
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 167 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सूमालिया अज्जा सरीरवाउसिया जाया यावि होत्था–अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराइं धोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गुज्झंतराइं धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेइए, तत्थ वि य णं पुव्वामेव उदएणं अब्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ। तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वयासी–एवं खलु अज्जे! अम्हे समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ। नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए। तुमं च णं अज्जे! सरीरबाउसिया अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेसि, पाए धोवेसि, सीसं धोवेसि, मुहं धोवेसि,

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ सुकुमालिका आर्या शरीरबकुश हो गई, अर्थात्‌ शरीर को साफ – सुथरा – सुशोभन रखनेमें आसक्त हो गई। वह बार – बार हाथ धोती, पैर धोती, मस्तक धोती, मुँह धोती, स्तनान्तर धोती, बगलें धोती तथा गुप्त अंग धोती। जिस स्थान पर खड़ी होती या कायोत्सर्ग करती, सोती, स्वाध्याय करती, वहाँ भी पहले ही जमीन पर जल छिड़कती थी और फिर
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श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 168 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जनवएसु कंपिल्लपुरे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। तत्थ णं दुवए नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं चुलणी देवी। धट्ठज्जुणे कुमारे जुवराया। तए णं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जनवएसु कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रन्नो चुलणीए देवीए कुच्छिंसि दारियत्ताए पच्चायाया। तए णं सा चुलणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमाल-पाणिपायं जाव दारियं पयाया। तए णं तीसे दारियाए निव्वत्तबारसाहियाए

Translated Sutra: उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीपमें, भरतक्षेत्रमें पाँचाल देशमें काम्पिल्यपुर नामक नगर था। (वर्णन) वहाँ द्रुपद राजा था। (वर्णन) द्रुपद राजा की चुलनी नामक पटरानी थी और धृष्टद्युम्न नामक कुमार युवराज था। सुकुमालिका देवी उस देवलोक से, आयु भव और स्थिति को समाप्त करके यावत्‌ देवीशरीर का त्याग करके
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श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 169 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दुवए राया दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिया! बारवइं नयरिं। तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे, बलदेवपामोक्खे पंच महावीरे, उग्गसेणपामोक्खे सोलस रायसहस्से, पज्जुन्नपामोक्खाओ अद्धट्ठाओ कुमारकोडीओ, संब-पामोक्खाओ सट्ठि दुद्दंतसाहस्सीओ, वीरसेनपामोक्खाओ एक्कवीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महासेन पामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ, अन्ने य बहवे राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेनावइ-सत्थवाहप-भिइओ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि– एवं

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ द्रुपद राजा ने दूत बुलवाकर उससे कहा – देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती नगरी जाओ। वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीर पुरुषों
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 170 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दुवए राया दोच्चं पि दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिया! हत्थिणाउरं नयरं। तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं–जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसय-समग्गं, गंगेयं विदुरं दोणं जय-द्दहं सउणिं कीवं आसत्थामं करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि– एवं खलु देवानुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रन्नो धूयाए, चुलणीए अत्तयाए धट्ठज्जुण-कुमारस्स भइणीए, दोवईए रायवरकन्नाए सयंवरे भविस्सइ। तं णं तुब्भे दुवयं रायं अनुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ द्रुपद राजा ने दूसरे दूत को बुलाकर उससे कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ। वहाँ तुम पुत्रों सहित पाण्डु राजा को – उनके पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को, सो भाइयों समेत दुर्योधन को, गांगेय, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, कर्ण और अश्वत्थामा को दोनों हाथ जोड़कर यावत्‌ मस्तक पर अंजलि
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 171 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता ण्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाइं मंगल्लाइं वत्थाइं पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जिनपडिमाणं अच्चणं करेइ, करेत्ता जिनघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ।

Translated Sutra: उधर वह राजवरकन्या द्रौपदी प्रभात काल होने पर स्नानगृह की ओर गई। वहाँ जाकर स्नानगृह में प्रविष्ट होकर उसने स्नान किया यावत्‌ शुद्ध और सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र धारण किए। जिन प्रतिमाओं का पूजन किया। पूजन करके अन्तःपुर में चली गई।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 172 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं दोवइं रायवरकण्णं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति। किं ते? वरपायपत्तनेउरा जाव चेडिया-चक्कवाल-महयरग-विंद-परिक्खित्ता अंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ। तए णं से धट्ठज्जुणे कुमारे दोवईए रायवरकन्नाए सारत्थं करेइ। तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कंपिल्लपुरं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरामडबं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ अन्तःपुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया। किस प्रकार ? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए यावत्‌ वह दासियों के समूह से परिवृत्त होकर अन्तःपुर से बाहर नीकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई। आकर क्रीड़ा करने वाली धाय और लेखिका
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 173 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवईए य देवीए कल्लाणकारे भविस्सइ। तं तुब्भे णं देवानुप्पिया! ममं अनुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं चेव समोसरह। तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयं-पत्तेयं ण्हाया सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया हत्थिखंधवरगया जाव जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे पंचण्हं

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ पाण्डु राजा ने उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्त्र राजाओं से हाथ जोड़कर यावत्‌ इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पाँच पाण्डवों और द्रौपदी का कल्याणकरण महोत्सव होगा। अत एव देवानुप्रियो ! तुम सब मुझ पर अनुग्रह करके यथासमय विलम्ब किए बिना पधारना। तत्पश्चात्‌ वे वासुदेव आदि नृपतिगण
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 174 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धिं कल्लाकल्लिं वारंवारेणं उरालाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति। तए णं से पंडू राया अन्नया कयाइं पंचहिं पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवईए य सद्धिं अंतोअंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे सीहासनवरगए यावि विहरइ। इमं च णं कच्छुल्लनारए–दंसणेणं अइभद्दए विनीए अंतो-अंतो य कलुस हियए मज्झत्थ-उवत्थिए य अल्लीण -सोमपियदंसणे सुरूवे अमइल-सगल-परिहिए कालमियचम्म-उत्तरासंग-रइयवच्छे दंड-कमंडलु-हत्थे जडामउड-दित्तसिरए जन्नोव-इय-गणेत्तिय-मुंजमेहला-वागलधरे हत्थकय-कच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणि-ओवयणुप्पयणि-लेसणीसु य संकाणि-आभिओगि-पण्णत्ति-गमणि-थंभिणीसु

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्तःपुर के परिवार सहित एक – एक दिन बारी – बारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत्‌ रहने लगे। पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत्त होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। इधर कच्छुल्ल
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 175 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्ठेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्घाए उद्धुयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था। तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध-दाहिणड्ढ-भरहवासे

Translated Sutra: तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो! यह द्रौपदी अपने रूप, यौवन, लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अत एव मेरा आदर नहीं करती यावत्‌ मेरी उपासना नहीं करती। अत एव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।’ इस प्रकार नारद ने विचार करके
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 176 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जुहिट्ठिल्ले राया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवइं देविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेत्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुइं वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुं रायं एवं वयासी–एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेन वा दानवेन वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि णं ताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए। तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ,

Translated Sutra: इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात्‌ थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे। वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा करने लगे। किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 177 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे भारहे वासे चंपा नामं नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। तत्थ णं चंपाए नयरीए कविले नामं वासुदेवे राया होत्था–महताहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं ए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे। कविले वासुदेवे धम्मं सुणेइ। तए णं से कविले वासुदेवे मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतिए धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसद्दं सुणेइ। तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–किमन्ने धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पन्ने, जस्स णं अयं संखसद्दे

Translated Sutra: उस काल उस समयमें, धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्रमें, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। उसमें कपिल वासुदेव राजा था। वह महान हिमवान पर्वत समान महान था। उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अरिहंत चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया। उसी समय
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 178 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं वीईवयमाणे-वीईवयमाणे गंगं उवागए उवागम्म ते पंच पंडवे एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवइं पासामि। तए णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए मग्गण-गवेसणं करेंति, करेत्ता एगट्ठियाए गंगं महानइं उत्तरंति, उत्तरित्ता अन्नमन्नं एवं वयंति–पहू णं देवानुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गंगं महानइं बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहू नो पहू उत्तरित्तए? त्ति कट्टु एगट्ठियं णूमेंति, णूमेत्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा

Translated Sutra: इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हुए गंगा नदी के पास आए। तब उन्होंने पाँच पाण्डवों से कहा – ‘देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ। जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ।’ तब वे पाँचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए। आकर एक नौका
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 179 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते पंच पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं निव्विसया आणत्ता। तए णं पंडू राया ते पंच पंडवे एवं वयासी–कहण्णं पुत्ता! तुब्भे कण्हेणं वासुदेवेणं निव्विसया आणत्ता? तए णं ते पंच पंडवा पंडुं रायं एवं वयासी–एवं खलु ताओ! अम्हे अवरकंकाओ पडिनियत्ता लवणसमुद्दं दोण्णिं जोयणसयसहस्साइं वीईवइत्था। तए णं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयइ–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ वे पाँचों पाण्डव हस्तिनापुर नगर आए। पाण्डु राजा के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले – ‘हे तात ! कृष्ण नें हमें देशनिर्वासन की आज्ञा दी है।’ तब पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों से प्रश्न किया – ‘पुत्रों ! किस कारण वासुदेव ने तुम्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी ?’ तब पाँच पाण्डवों ने पाण्डु राजा को उत्तर दिया
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 180 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई देवी अन्नया कयाइ आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था। तए णं सा दोवई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया–सूमाल कोमलयं गयतालुयसमाणं। तए णं तस्स णं दारगस्स निव्वत्तबारसाहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्जं करेंति जम्हा णं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए देवीए अत्तए, तं होउ णं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं पंडुसेने-पंडुसेने। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति पंडुसेणत्ति। तए णं तं पंडुसेणं दारयं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासजायगं चेव सोहणंसि तिहि-करण-मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेंति। तए णं से

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई। फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत्‌ सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया। बारह दिन व्यतीत होने पर बालक के माता – पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि – क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 181 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ जाव पव्वइया। सुव्वयाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयंति, एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमास-खमणेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।

Translated Sutra: द्रौपदी देवी भी शिबिका से ऊतरी, यावत्‌ दीक्षित हुई। वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गई। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हुई विचरने लगी।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 182 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो अन्नया कयाइ पंडुमहुराओ नयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी जेणेव सुरट्ठाजनवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठाजनवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, भासइ पन्नवेइ परूवेइ–एवं खलु देवानुप्पिया! अरहा अरिट्ठनेमी सुरट्ठाजनवए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अनगारा बहुजनस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! अरहा

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से नीकले। नीकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे। सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहुत जन परस्पर इस प्रकार
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१६ अवरकंका

Hindi 183 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई अज्जा सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झोसेत्ता आलोइय-पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा बंभ-लोए उववन्ना। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं दुवयस्स वि देवस्स दससागरोवमाइं ठिई। से णं भंते! दुवए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइणामधेज्जं

Translated Sutra: दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात्‌ द्रौपदी आर्या ने सुव्रता आर्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया। अन्त में एक मास की संलेखना करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया। ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 184 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था। तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! यदि यावत्‌ निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था। (वर्णन) उस नगर में कनककेतु नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत – से
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 185 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ते संजत्ता-नावावाणियगे एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! गामागर-नगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संबाह-सण्णिवेसाइं० आहिंडह, लवणसमुद्दं च अभिक्खणं-अभिक्खणं पोयवहणेणं ओगाहेह। तं अत्थियाइं च केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे? तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा कनगकेऊ एवं वयासी–एवं खलु अम्हे देवानुप्पिया! इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवंतेणं संछूढा। तत्थ णं बहवे हिरन्नागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य, बहवे तत्थ आसे पासामो। किं ते? हरिरेणु जाव अम्हं गंधं आघायंति, आघाइत्ता भीया तत्था उव्विग्गा उव्विग्गमणा तओ अनेगाइं जोयणाइं उब्भमंति।

Translated Sutra: फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत्‌ आकरों में घूमते हो और बार – बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक – अद्‌भुत – अनोखी वस्तु देखी है ?’ तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 186 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति। तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा पयत्ता यावि होत्था। तए णं ते आसा ते उक्किट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे आसेवमाणा तेहिं बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बज्झंति। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारेंति, कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूणं पोयवहण-पाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति। तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव

Translated Sutra: उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे। वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्च्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए। उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 187 Gatha Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदिय–वसट्टा ॥

Translated Sutra: श्रुतिसुखद स्वरघोलना के प्रकारवाले, मधुर वीणा, तलताल, बाँसूरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं। किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 188 Gatha Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] सोइंदिय-दुद्दंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । दीविग-रुयमसहंतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो ॥

Translated Sutra: देखो सूत्र १८७
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 189 Gatha Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] थण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-गव्विय-विलासियगईसु । रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिंदिय-वसट्टा ॥

Translated Sutra: देखो सूत्र १८७
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 190 Gatha Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] चक्खिंदिय -दुद्दंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । जं जलणंमि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ ॥

Translated Sutra: देखो सूत्र १८७
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