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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ आचार श्रुत |
Hindi | 727 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नत्थि चाउरंते संसारे नेवं सण्णं निवेसए ।
अत्थि चाउरंते संसारे एवं सण्णं निवेसए ॥ Translated Sutra: चार गति वाला संसार नहीं है, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए, अपितु चातुर्गति संसार है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ आचार श्रुत |
Hindi | 737 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इच्चेएहिं ठाणेहिं जिणे दिट्ठेहिं संजए ।
धारयंते उ अप्पाणं आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ॥
Translated Sutra: इस प्रकार इस अध्ययन में जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट या उपलब्ध स्थानों के द्वारा अपने आपको संयम में स्थापित करता हुआ साधु मोक्ष प्राप्त होने तक (पंचाचार पालन में) प्रगति करे। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 759 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा ते भोयणट्ठा वणिया वयंति ।
वयं तु कामेहिं अज्झोववण्णा अनारिया पेमरसेसु गिद्धा ॥ Translated Sutra: वणिक् धन के अन्वेषक और मैथुन में गाढ़ आसक्त होते हैं, तथा वे भोजन की प्राप्ति के लिए इधर – उधर जाते रहते हैं। अतः हम तो ऐसे वणिकों को काम – भोगों में अत्यधिक आसक्त, प्रेम के रस में गृद्ध और अनार्य कहते हैं। वणिक् आरम्भ और परिग्रह का व्युत्सर्ग नहीं करते, उन्हीं में निरन्तर बंधे हुए रहते हैं और आत्मा को दण्ड देते | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 785 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं न मिज्जंति न संसरंति न माहणा खत्तिय-वेस-पेसा ।
कीडा य पक्खी य सरीसिवा य नरा य सव्वे तह देवलोगा ॥ Translated Sutra: (आर्द्रक मुनि कहते हैं – ) इस प्रकार (आत्मा को एकान्त नित्य एवं सर्वव्यापक) मानने पर संगति नहीं हो सकती और जीव का संसरण भी सिद्ध नहीं हो सकता। और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य रूप भेद ही सिद्ध हो सकते हैं। तथा कीट, पक्षी, सरीसृप इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती। इसी प्रकार मनुष्य, देवलोक | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 804 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा–आउसंतो! नियंठा! इह खलु परिव्वायया वा परिव्वाइयाओ
वा अन्नयरेहिंतो तित्थायतणेहिंतो आगम्म धम्मस्सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा?
हंता उवसंकमेज्जा।
‘किं तेसिं’ तहप्पगाराणं धम्मे आइक्खियव्वे?
हंता आइक्खियव्वे।
किं ते तहप्पगारं धम्मं सोच्चा निसम्म एवं वएज्जा–इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अनुत्तरंकेवलियं पडिपुण्णं णेयाउयं संसुद्धं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहं असंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। एत्थ ठिया जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। इमाणाए Translated Sutra: भगवान श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा – मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है – आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस लोक में परिव्राजक अथवा परिव्राजिकाएं किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों से चलकर धर्मश्रवण के लिए क्या निर्ग्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ? निर्ग्रन्थ – हाँ, आ सकती हैं। श्री गौतमस्वामी – क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-४ स्त्री परिज्ञा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 254 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सीहं जहा व कुणिमेणं निब्भयमेगचरं पासेणं ।
एवित्थियाओ बंधंति संवुडमेगतियमणगारं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૫૩ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-६ वीरस्तुति |
Gujarati | 368 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनुत्तरग्गं परमं महेसी ‘असेसकम्मं स विसोहइत्ता ।
सिद्धिं गतिं साइमणंत पत्ते नाणेन सीलेन य दंसणेण’ ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૩૬૬ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-८ वीर्य |
Gujarati | 415 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] माइणो कट्टु मायाओ ‘कामभोगे समारभे’ ।
हंता छेत्ता पगतित्ता आय-सायाणुगामिणो ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૧૫. માયાવી માયા કરીને કામ – ભોગોનું સેવન કરે છે. પોતાના સુખના અનુગામી એવા તે પ્રાણીઓનું હનન, છેદન, કર્તન કરે છે. ... સૂત્ર– ૪૧૬. તે અસંયમી જીવો મન, વચન અને કાયાથી તથા તંદુલમત્સ્યની માફક મનથી આલોક – પરલોક અને બંને માટે પ્રાણીનો ઘાત પોતે કરે છે અને બીજા પાસે કરાવે છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૪૧૫, ૪૧૬ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१२ समवसरण |
Gujarati | 554 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अत्तान जो जाणइ जो य लोगं ‘जो आगतिं’ जाणइ ऽनागतिं च ।
जो सासयं जान असासयं च जातिं मरणं च चयणोववातं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૫૧ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१३ यथातथ्य |
Gujarati | 572 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयाइं मदाइं विगिंच ‘धीरा णेताणि सेवंति’ सुधीरधम्मा ।
ते सव्वगोतावगता महेसी उच्चं अगोतं च गतिं वयंति ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૬૯ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१३ यथातथ्य |
Gujarati | 574 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू बहुजणे वा तह एगचारी ।
एगंतमोणेण वियागरेज्जा एगस्स जंतो गतिरागती य ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૭૩ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Gujarati | 634 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह पुरिसे पुरत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणिं, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासंति तं महं एगं पउमवर-पोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहमंसि पुरिसे ‘देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू। अहमेतं पउमवरपोंडरीयं ‘उण्णिक्खिस्सामि त्ति वच्चा’ से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणिं। जाव-जावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए ‘णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए Translated Sutra: હવે કોઈ પુરુષ પૂર્વ દિશાથી વાવડી પાસે આવીને તે વાવડીને કિનારે રહીને જુએ છે કે, ત્યાં એક મહાન શ્રેષ્ઠ કમળ, જે ક્રમશઃ સુંદર રચનાથી યુક્ત યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. ત્યારે તે પુરુષ આ પ્રમાણે બોલ્યો – હું પુરુષ છું, ખેદજ્ઞ – દેશ કાલનો જ્ઞાતા અથવા માર્ગના પરિશ્રમનો જ્ઞાતા, કુશળ, પંડિત – વિવેકવાન, વ્યક્ત – પરિપક્વ બુદ્ધિવાળો, | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Gujarati | 635 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चे पुरिसजाते–अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणिं, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
तं च एत्थ एगं पुरिसजाय पासइ पहीणतीरं, अपत्तपउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए ‘नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णं’।
तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसे ‘अदेसकालण्णे अखेत्तण्णे अकुसले अपंडिए अविअत्ते अमेधावी बाले नो मग्गण्णे नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णे नो परक्क-मण्णू’, जण्णं एस पुरिसे ‘अहं देसकालण्णे खेत्तण्णे Translated Sutra: હવે બીજો પુરુષ – તે પુરુષ દક્ષિણ દિશાથી વાવડી પાસે આવ્યો. તે વાવડીના કિનારે રહીને એક મહાન શ્રેષ્ઠ કમળને જુએ છે, જે સુંદર રચનાવાળુ, પ્રાસાદીય યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. ત્યાં તે એક પુરુષને જુએ છે જે કિનારાથી દૂર છે અને તે શ્રેષ્ઠ પુંડરીક સુધી પહોંચ્યો નથી. જે નથી અહીંનો રહ્યો કે નથી ત્યાંનો. પણ તે વાવડી મધ્યે કીચડમાં | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Gujarati | 636 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चे पुरिसजाते– अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ दोण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला नो मग्गण्णा नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णा नो परक्कमण्ण, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे– ‘अम्हे तं पउमवरपोंडरीयं Translated Sutra: હવે ત્રીજો પુરુષ – ત્રીજો પુરુષ પશ્ચિમ દિશાથી વાવડી પાસે આવ્યો. વાવડીના કિનારે એક ઉત્તમ શ્વેત કમળને જુએ છે, જે વિકસિત યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. ત્યાં પહેલા બંને પુરુષોને પણ જુએ છે, જેઓ કિનારાથી ભ્રષ્ટ થયા છે અને ઉત્તમ શ્વેત કમળ લઈ શક્યા નથી યાવત વાવડીની વચ્ચે કીચડમાં ફસાઈ ગયા છે ત્યારે તે ત્રીજો પુરુષ એમ કહે છે, અરે | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Gujarati | 637 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे चउत्थे पुरिसजाते–अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति ‘तं महं’ एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ तिण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला नो मग्गण्णा नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णा नो परक्कमण्णू, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे–’अम्हे एतं पउमवरपोंड-रीयं Translated Sutra: હવે ચોથો પુરુષ – ચોથો પુરુષ ઉત્તર દિશાથી તે વાવડી પાસે આવ્યો, કિનારે ઊભા રહી તેણે એક ઉત્તમ શ્વેત કમળ જોયું, જે ખીલેલું યાવત્ પ્રતિરૂપ હતું. તેણે પહેલા ત્રણ પુરુષો જોયા, જે કિનારાથી ભ્રષ્ટ થઈ યાવત્ કાદવમાં ખૂંચેલા હતા. ત્યારે ચોથા પુરુષે કહ્યું – અહો ! આ પુરુષો અખેદજ્ઞ છે યાવત્ માર્ગના ગતિ – પરાક્રમને જાણતા | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Gujarati | 638 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू लूहे तोरट्ठी देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू अन्नतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से भिक्खू एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला Translated Sutra: પછી રાગદ્વેષ રહિત, ખેદજ્ઞ યાવત્ ગતિ – પરાક્રમનો જ્ઞાતા ભિક્ષુ કોઈ દિશા કે વિદિશાથી તે વાવડીને કિનારે આવ્યો. તે વાવડીના કિનારે રહીને જુએ છે કે ત્યાં એક મહાન શ્વેત કમળ યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. તે સાધુ ચાર પુરુષોને પણ જુએ છે, જેઓ કિનારાથી ભ્રષ્ટ છે યાવત્ ઉત્તમ શ્વેત કમળને પ્રાપ્ત કરી શક્યા નથી. આ પાર કે પેલે પાર જવાના | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
धर्मोपदेश एवं फलं |
Hindi | 64 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आसी य खलु आउसो! पुव्विं मनुया ववगयरोगाऽऽयंका बहुवाससयसहस्सजीविणो। तं जहा–जुयलधम्मिया अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विज्जाहरा।
ते णं मनुया अनतिवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तु-प्पल-पउमकर-चरण-कोमलंगुलितला नग नगर मगर सागर चक्कंक-धरंक-लक्खणंकियतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अनुपुव्विसुजाय पीवरं गुलिया उन्नय तनु तंब निद्धनहा संठिय सुसिलिट्ठ गूढगोप्फा एणी कुरुविंदवित्तवट्टाणुपुव्विजंघा सामुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम-विलासियगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइन्नहउ व्व Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! पूर्वकाल में युगलिक, अरिहंत चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव चारण और विद्याधर आदि मानव रोग रहित होने से लाखों साल तक जीवन जीते थे। वो काफी सौम्य, सुन्दर रूपवाले, उत्तम भोग – भुगतनेवाला, उत्तम लक्षणवाले, सर्वांग सुन्दर शरीरवाले थे। उन के हाथ और पाँव के तालवे लाल कमल पत्र जैसे और कोमल थे। अंगुलीयाँ भी | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
उपदेश, उपसंहार |
Hindi | 143 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अनेगेहिं कइवरसहस्सेहिं विविहपासपडिबद्धेहिं कामरागमोहिएहिं वन्नियाओ ताओ विय एरिसाओ, तं जहा–
पगइविसमाओ पियरूसणाओ कतियवचडुप्परून्नातो अथक्कहसिय-भासिय-विलास- वीसंभ-पचू(च्च) याओ अविनयवातोलीओ मोहमहावत्तणीओ विसमाओ पियवयणवल्लरीओ कइयवपेमगिरितडीओ अवराहसहस्सघरिणीओ ४, पभवो सोगस्स, विनासो बलस्स, सूणा पुरिसाणं, नासो लज्जाए, संकरो अविणयस्स, निलओ नियडीणं १० खाणी वइरस्स, सरीरं सोगस्स, भेओ मज्जायाणं, आसओ रागस्स, निलओ दुच्चरियाणं १५, माईए सम्मोहो, खलणा नाणस्स, चलणं सीलस्स, विग्घो धम्मस्स, अरी साहूण २०, दूसणं आयारपत्ताणं, आरामो कम्मरयस्स, फलिहो मुक्खमग्गस्स, Translated Sutra: काम, राग और मोह समान तरह – तरह की रस्सी से बँधे हजारों श्रेष्ठ कवि द्वारा इन स्त्रियों की तारीफ में काफी कुछ कहा गया है। वस्तुतः उनका स्वरूप इस प्रकार है। स्त्री स्वभाव से कुटील, प्रियवचन की लत्ता, प्रेम करने में पहाड़ की नदी की तरह कुटील, हजार अपराध की स्वामिनी, शोक उत्पन्न करवानेवाली, बाल का विनाश करनेवाली, मर्द | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
उपदेश, उपसंहार |
Hindi | 155 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो ताणं, धम्मो सरणं, धम्मो गई पइट्ठा य ।
धम्मेण सुचरिएण य गम्मइ अजरामरं ठाणं ॥ Translated Sutra: धर्म रक्षक है। धर्म शरण है, धर्म ही गति और आधार है। धर्म का अच्छी तरह से आचरण करने से अजर अमर स्थान की प्राप्ति होती है। | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे समणोवासए बहूहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेत्ता, बीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, एक्कारस य उवासगपडिमाओ सम्मं काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कंते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसगस्स महाविमानस्स उत्तरपुरत्थिमे णं अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं आनंदस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।
आनंदे णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं Translated Sutra: यों श्रमणोपासक आनन्द ने अनेकविध शीलव्रत यावत् आत्मा को भावित किया। बीस वर्ष तक श्रमणो – पासक पर्याय – पालन किया, ग्यारह उपासक – प्रतिमाओं का अनुसरण किया, एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन संपन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण – काल आने पर समाधिपूर्वक देह – त्याग किया। वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 46 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए–अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ।
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणोवासिया जाया–अभिगयजीवाजीवा जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे–एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिट्ठिं पवण्णे, तं Translated Sutra: तत्पश्चात् सकडालपुत्र जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सूना कि सकडालपुत्र आजीविक – सिद्धान्त को छोड़कर श्रमण – निर्ग्रन्थों की दृष्टि – स्वीकार कर चूका है, तब उसने विचार किया कि मैं सकडालपुत्र के पास जाऊं और श्रमण निर्ग्रन्थों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 449 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह तायगो तत्थ मुनीण तेसिं तवस्स वाघायकरं वयासी ।
इमं वयं वेयविओ वयंति जहा न होई असुयाण लोगो ॥ Translated Sutra: यह सुनकर पिता ने कुमार – मुनियों की तपस्या में बाधा उत्पन्न करनेवाली यह बात कही की – पुत्रो ! वेदों के ज्ञाता कहते हैं – जिनको पुत्र नहीं होता है, उनकी गति नहीं होती है। हे पुत्रो, पहले वेदों का अध्ययन करो, ब्राह्मणों को भोजन दो और विवाह कर स्त्रियों के साथ भोग भोगो। अनन्तर पुत्रों को घर का भार सौंप कर अरण्यवासी | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 327 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बुद्धस्स निसम्म भासियं सुकहियमट्ठपओवसोहियं ।
रागं दोसं च छिंदिया सिद्धिगइं गए गोयमे ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: अर्थ और पद से सुशोभित एवं सुकथित भगवान की वाणी को सुनकर, राग – द्वेष का छेदन कर गौतम सिद्धि गति को प्राप्त हुए। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Hindi | 102 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कम्माणं तु पहाणाए आनुपुव्वी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमनुप्पत्ता आययंति मनुस्सयं ॥ Translated Sutra: कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगति निरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि प्राप्त होती है और उसके फलस्वरूप उन्हें मनुष्यत्व प्राप्त होता है। | |||||||||
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अध्ययन-५ अकाममरणिज्जं |
Hindi | 135 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जनेन सद्धिं होक्खामि इइ बाले पगब्भई ।
काम-भोगानुराएणं केसं संपडिवज्जई ॥ Translated Sutra: ‘‘मैं तो आम लोगों के साथ रहूँगा। ऐसा मानकर अज्ञानी मनुष्य भ्रष्ट हो जाता है। किन्तु वह कामभोग के अनुराग से कष्ट ही पाता है। फिर वह त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है। प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन ही प्राणीसमूह की हिंसा करता है। जो हिंसक, बाल – अज्ञानी, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर तथा शठ होता | |||||||||
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अध्ययन-५ अकाममरणिज्जं |
Hindi | 149 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चीराजिनं नगिनिणं जडी-संघाडि-मुंडिणं ।
एयाणि वि न तायंति दुस्सीलं परियागयं ॥ Translated Sutra: दुराचारी साधु को वस्त्र, अजिन, नग्नत्व, जटा, गुदड़ी, शिरोमुंडन आदि बाह्याचार, नरकगति में जाने से नहीं बचा सकते। भिक्षावृत्ति से निर्वाह करनेवाला भी यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त नहीं हो सकता है। भिक्षु हो अथवा गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है, तो स्वर्ग में जाता है। सूत्र – १४९, १५० | |||||||||
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अध्ययन-७ औरभ्रीय |
Hindi | 192 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा य तिन्नि वणिया मूलं घेत्तूण निग्गया ।
एगोऽत्थ लहई लाहं एगो मूलेण आगओ ॥ Translated Sutra: तीन वणिक् मूल धन लेकर व्यापार को निकले। उनमें से एक अतिरिक्त लाभ प्राप्त करता है। एक सिर्फ मूल ही लेकर लौटता है। और एक मूल भी गँवाकर आता है। यह व्यवहार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना। मनुष्यत्व मूल धन है। देवगति लाभरूप है। मूल के नाश से जीवों को निश्चय ही नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ औरभ्रीय |
Hindi | 194 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मानुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे ।
मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १९२ | |||||||||
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अध्ययन-७ औरभ्रीय |
Hindi | 195 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया ।
देवत्तं मानुसत्तं च जं जिए लोलयासढे ॥ Translated Sutra: अज्ञानी जीव की दो गति हैं – नरक और तिर्यंच। वहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है। क्योंकि वह लोलुपता और वंचकता के कारण देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार चूका होता है। नरक और तिर्यंच – रूप दो दुर्गति को प्राप्त अज्ञानी जीव देव और मनुष्य गति को सदा ही हारे हुए हैं। क्योंकि भविष्य में उन का दीर्घ काल तक वहाँ से | |||||||||
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अध्ययन-८ कापिलिय |
Hindi | 209 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए ।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥ Translated Sutra: अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में वह कौन सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं ? | |||||||||
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अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 280 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं निसामित्ता हेऊकारणचोइओ ।
तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा – ‘‘संसार के काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। जो कामभोगों चाहते हैं, किन्तु उनका सेवन नहीं कर पाते , वे भी दुर्गति में जाते है क्रोध से अधोगति में जाना होता है। मान से अधमगति होती है। माया से सुगति में बाधाऍं आती है। लोभ से दोनों तरह | |||||||||
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अध्ययन-११ बहुश्रुतपूज्य |
Hindi | 358 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समुद्दगंभीरसमा दुरासया अचक्किया केणइ दुप्पहंसया ।
सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया ॥ Translated Sutra: समुद्र के समान गम्भीर, दुरासद, अविचलित, अपराजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण, त्राता – ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों को क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं। | |||||||||
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अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 441 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो उदग्गचारित्ततवो महेसी ।
अनुत्तरं संजम पालइत्ता अनुत्तरं सिद्धिगइं गओ ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: कामभोगों से निवृत्त, उग्र चारित्री एवं तपस्वी महर्षि चित्र अनुत्तर संयम का पालन करके अनुत्तर सिद्धिगति को प्राप्त हुए। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
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अध्ययन-१५ सभिक्षुक |
Hindi | 500 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जेन पुन जहाइ जीवियं मोहं वा कसिणं नियच्छई ।
नरनारिं पजहे सया तवस्सी न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ॥ Translated Sutra: स्त्री हो या पुरुष, जिसकी संगति से संयमी जीवन छूट जाये और सब ओर से पूर्ण मोह में बंध जाए, तपस्वी उस संगति से दूर रहता है, जो कुतूहल नहीं करता, वह भिक्षु है। | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 584 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडंति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो ।
दिव्वं च गइं गच्छंति चरित्ता धम्ममारियं ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं। और जो आर्यधर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं।यह क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का सब कथन मायापूर्वक है, अतः मिथ्या वचन है, निरर्थक है। मैं इन मायापूर्ण वचनों से बचकर रहता हूँ, बचकर चलता हूँ। वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 593 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थधम्मोवसोहियं ।
भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए ॥ Translated Sutra: अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हुए थे। नराधिप सागर चक्रवर्ती सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। महान् ऋद्धि – संपन्न, यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 605 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु य दुम्मुहो ।
नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य नग्गई ॥ Translated Sutra: कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गन्धार में नग्गति – राजाओं में वृषभ के समान महान् थे। इन्होंने अपने – अपने पुत्र को राज्य में स्थापित कर श्रामण्य धर्म स्वीकार किया। सूत्र – ६०५, ६०६ | |||||||||
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अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 607 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं मुनी चरे ।
उद्दायणो पव्वइओ पत्तो गइमनुत्तरं ॥ Translated Sutra: सौवीर राजाओं में वृषभ के समान महान् उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि – धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की। इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने काम – भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का नाश किया। अमरकीर्त्ति, महान् यशस्वी विजय राजा ने गुण – समृद्ध राज्य को छोड़कर | |||||||||
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अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 659 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सारीरमानसा चेव वेयणाओ अनंतसो ।
मए सोढाओ भीमाओ असइं दुक्खभयाणि य ॥ Translated Sutra: मैंने शारीरिक और मानसिक भयंकर वेदनाओं को अनन्त बार सहन किया है। और अनेक बार भयंकर दुःख और भय भी अनुभव किए हैं। मैंने नरक आदि चार गतिरूप अन्त वाले जरा – मरण रूपी भय के आकर कान्तार में भयंकर जन्म – मरणों को सहा है। सूत्र – ६५९, ६६० | |||||||||
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अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 711 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] महापभावस्स महाजसस्स मियाइ पुत्तस्स निसम्म भासियं ।
तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं गइप्पहाणं च तिलोगविस्सुयं ॥ Translated Sutra: महान् प्रभावशाली, यशस्वी मृगापुत्र के तपःप्रधान, त्रिलोक – विश्रुत एवं मोक्षरूपगति से प्रधान – उत्तम चारित्र को सुनकर – धन को दुःखवर्धक तथा ममत्वबन्धन को महाभयंकर जानकर निर्वाण के गुणों को प्राप्त करने वाली, सुखावह, अनुत्तर धर्म – धुरा को धारण करो। – ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र – ७११, ७१२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1117 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं विनयपडिवत्तिं जणयइ। विनयपडिवन्ने य णं जीवे अनच्चा-सायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमनुस्सदेवदोग्गईओ निरुंभइ, वण्णसंजलणभत्तिबहुमानयाए मनुस्सदेवसोग्गईओ निबंधइ, सिद्धिं सोग्गइं च विसोहेइ। पसत्थाइं च णं विनयमूलाइं सव्वकज्जाइं साहेइ। अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय – प्रतिपत्ति को प्राप्त होता है। विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवादादिरूप आशातना नहीं करता। उससे वह नैरयिक, तिर्यग्, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२० महानिर्ग्रंथीय |
Hindi | 758 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तमंतमेनेव उ से असीले सया दुही विप्परियासुवेइ ।
संधावई नरगतिरिक्खजोणिं मोनं विराहेत्तु असाहुरूवे ॥ Translated Sutra: वह शीलरहित साधु अपने तीव्र अज्ञान के कारण विपरीत – दृष्टि को प्राप्त होता है, फलतः असाधु प्रकृति – वाला वह साधु मुनि – धर्म की विराधना कर सतत दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में आवागमन करता रहता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२० महानिर्ग्रंथीय |
Hindi | 759 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उद्देसियं कीयगडं नियागं न मुंचई किंचि अनेसणिज्जं ।
अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥ Translated Sutra: जो औद्देशिक, क्रीत, नियाग आदि के रूप में थोड़ासा – भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता है, वह अग्नि की भाँति सर्वभक्षी भिक्षु पाप – कर्म करके यहाँ से मरने के बाद दुर्गति में जाता है।’’ | |||||||||
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अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 910 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो ।
अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा! ॥ Translated Sutra: गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया। मेरा एक और भी सन्देह है। गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें। मुने ! महान् जलप्रवाह के वेग से बहते – डूबते हुए प्राणियों के लिए शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप तुम किसे मानते हो ?’’ सूत्र – ९१०, ९११ | |||||||||
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अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 912 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अत्थि एगो महादीवो वारिमज्झं महालओ ।
महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई ॥ Translated Sutra: गणधर गौतम – जल के बीच एक विशाल महाद्वीप है। वहाँ महान् जलप्रवाह के वेग की गति नहीं है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 913 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दीवे य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी ।
केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: वह महाद्वीप कौन सा है ? केशी ने गौतम को कहा। गौतम ने कहा – जरा – मरण के वेग से बहते – डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। सूत्र – ९१३, ९१४ | |||||||||
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अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1086 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥ Translated Sutra: ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग – ये जीव के लक्षण हैं। शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श – ये पुद्गल के लक्षण हैं। एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग – ये पर्यायों के लक्षण हैं। सूत्र – १०८६–१०८८ | |||||||||
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अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1087 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दंधयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा ।
वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०८६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1088 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य ।
संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०८६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1089 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव ॥ Translated Sutra: जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व हैं। इन तथ्यस्वरूप भावों के सद्भाव के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। सूत्र – १०८९, १०९० |