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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 84 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असियसिरया सुनयणा बिंबोट्ठी धवलदंतपंतीया ।
वरकमल कोमलंगी फुल्लुप्पल गंध नीसासा ॥ Translated Sutra: उनके मस्तक के केश काले थे, नयन सुन्दर थे, होठ बिम्बफल के समान थे, दाँतों की कतार श्वेत थी और शरीर श्रेष्ठ कमल के गर्भ के समान गौरवर्णवाला था। उसका श्वासोच्छ्वास विकस्वर कमल के समान गंधवाला था | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 85 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा विण्णय-परिणयमेत्ता जोव्वणगमणुपत्ता रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य अईव-अईव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था।
तए णं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पि य रायाणो विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-आभोएमाणी विहरइ, तं जहा-पडिबुद्धिं इक्खागरायं, चंदच्छायं अंगरायं, संखं कासिरायं, रुप्पिं कुणालाहिवइं, अदीनसत्तुं कुरुरायं जियसत्तु पंचालाहिवइं।
तए णं सा मल्ली कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह–अनेगखंभसयसन्निविट्ठं। तस्स णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए Translated Sutra: तत्पश्चात् विदेहराज की वह श्रेष्ठ कन्या बाल्यावस्था से मुक्त हुई यावत् तथा रूप, यौवन और लावण्य से अतीव – अतीव उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। तत्पश्चात् विदेहराज की वह उत्तम कन्या मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हो गई, तब वह उन छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान से जानती – देखती हुई रहने लगी। वे इस प्रकार | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 86 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसला नामं जनवए। तत्थ णं सागेए नामं नयरे।
तस्स णं उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं महेगे नागघरए होत्था–दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहिय-पाडिहेरे।
तत्थ णं सागेए नयरे पडिबुद्धी नामं इक्खागराया परिवसइ। पउमावई देवी। सुबुद्धी अमच्चे साम-दंड-भेय-उवप्प-याण-नीति-सुपउत्त-नय-विहण्णू विहरई।
तए णं पउमावईए देवीए अन्नया कयाइ नागजण्णए यावि होत्था।
तए णं सा पउमावई देवी नागजण्णमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी–एवं Translated Sutra: उस काल और उस समय में कौशल नामक देश था। उसमें साकेत नामक नगर था। उस नगर में ईशान दिशा में एक नागगृह था। वह प्रधान था, सत्य था, उसकी सेवा सफल होती थी और वह देवाधिष्ठित था। उस साकेत नगर में प्रतिबुद्धि नामक इक्ष्वाकुवंश का राजा निवास करता था। पद्मावती उसकी पटरानी थी, सुबुद्धि अमात्य था, जो साम, दंड, भेद और उपप्रदान | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। चम्पा नगरी थी। चन्द्रच्छाय अंगराज – अंग देश का राजा था। उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत – से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। वे अर्हन्नक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 95 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्मा सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णिपुव्वे जाइसरणे समुप्पन्ने, एयमट्ठं सम्मं अभिसमागच्छंति।
तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पन्नजाईसरणे जाणित्ता गब्भधराणं दाराइं विहाडेइ।
तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति।
तए णं महब्बलपामोक्खा सत्तवि य बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया वि होत्था।
तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे Translated Sutra: तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली से पूर्वभव का यह वृत्तान्त सूनने और हृदय में धारण करने से, शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं और जातिस्मरण को आच्छादित करने वाले कर्मों के क्षयोपशम के कारण, ईहा – अपोह तथा मार्गणा और गवेषणा – विशेष विचार करने से जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 96 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्स आसणं चलइ।
तए णं से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता मल्लिं अरहं ओहिणा आमोएइ। इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्प-ज्जित्था–एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए नय-रीए कुंभगस्स रन्नो [धूया पभावईए देवीए अत्तया?] मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेइ। तं जीयमेयं तीय-पच्चुप्पण्णमणानागयाणं सक्काणं अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलइत्तए, [तं जहा– Translated Sutra: उस काल और उस समय में शक्रेन्द्र का आसन चलायमान हुआ। तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपना आसन चलायमान हुआ देख कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया। तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन, एवं खयाल हुआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहंत नें एक वर्ष के पश्चात् ‘दीक्षा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 97 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीइं च हुंति कोडीओ ।
असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ९६ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 98 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहि-लाए रायहाणीए कुंभगस्स रयणी धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेइ जाव इंदा दलयंति अरहाणं। तं गच्छह णं देवानुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं कुंभगस्स रन्नो भवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।
तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तहत्ति Translated Sutra: शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया। विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलाकर कहा – ‘देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् तीन सौ अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है। सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो – इतना | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 99 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं ।
सुर-असुर देव-दानव-नरिंद-महियाण निक्खमणे ॥ Translated Sutra: वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 100 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीइं च कोडीओ असीइं सयसहस्साइं–इमेयारूवं अत्थ-संपयाणं दलइत्ता निक्खमामि त्ति मणं पहारेइ। Translated Sutra: उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर ‘मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा’ ऐसा मन में निश्चय किया। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 101 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्ठे विमाणपत्थडे सएहिं-सएहिं विमाणेहिं सएहिं-सएहिं पासायवडिंसएहिं पत्तेयं-पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोल-सहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं य बहूहिं लोगतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महयाऽहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-धन-मुइंग-पडुप्पवाइय रवेण विउलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति, तं जहा– Translated Sutra: उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट में, अपने – अपने विमान से, अपने – अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक – प्रत्येक चार – चार हजार सामानिक देवों से, तीन – तीन परिषदों से सात – सात अनीकों से, सात – सात अनीकाधिपतियों से, सोलह – सोलह हजार आत्मरक्षक देवों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 102 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतीया य ।
तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०१ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 103 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं लोगंतियाणं देवाणं पत्तेयं-पत्तेयं आसणाइं चलंति तहेव जाव तं जीयमेयं लोगंतियाणं देवाणं अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करित्तए त्ति। तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमो त्ति कट्टु एवं संपेहेंति, संपेहेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाइं दंडं निसिरंति, एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणियाइं दसद्धवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिया करयल-परिग्गहियं Translated Sutra: तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुए – इत्यादि उसी प्रकार जानना दीक्षा लेने की ईच्छा करने वाले तीर्थंकरो को सम्बोधन करना हमारा आचार है; अतः हम जाएं और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें, ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया। उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्घात से विक्रिया की। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 104 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुव्विं उक्खित्ता, माणुसेहिं साहट्ठरोमकूवेहिं ।
पच्छा वहंति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ Translated Sutra: मनुष्यों ने सर्वप्रथम वह शिबिका उठाई। उनके रोमकूप हर्ष के कारण विकस्वर हो रहे थे। उसके बाद असुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उसे वहन किया। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 105 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी ।
देविंददाणविंदा, वहंति सीयं जिणिंदस्स ॥ Translated Sutra: चलायमान चपल कुण्डलों को धारण करनेवाले तथा अपनी ईच्छा अनुसार विक्रिया से बनाये हुए आभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र देव की शिबिका वहन की। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 106 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं मल्लिस्स अरहओ मनोरमं सीयं दुरुढस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगला पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिया–एवं निग्गमी जहा जमालिस्स।
तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेगइया देवा मिहिलं रायहाणिं अब्भिंतरबाहिरं आसिय-संमज्जिय-संमट्ठ-सुइ-रत्थंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावंति।
तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, आभरणालंकारं ओमुयइ।
तए णं पभावई हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणालंकारं पडिच्छइ।
तए णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ।
तए णं सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब मनोरमा शिबिका पर आरूढ़ हुए, उस समय उनके आगे आठ – आठ मंगल अनुक्रम से चले। जमालि के निर्गमन की तरह यहाँ मल्ली अरहंत का वर्णन समझ लेना। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब दीक्षा धारण करने के लिए नीकले तो किन्हीं – किन्हीं देवों ने मिथिला राजधानी में पानी सींच दिया, उसे साफ कर दिया और भीतर तथा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 107 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नंदे य नंदिमित्ते, सुमित्त बलमित्त भानुमित्ते य ।
अमरवइ अमरसेने, महसेने चेव अट्ठमए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०६ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 108 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा मल्लिस्स अरहओ निक्खमण-महिमं करेंति, करेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
तए णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पव्वइए, तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं पसत्थाहिं लेसाहिं तयावरण-कम्मरय-विकरणकरं अपुव्वकरणं अनुपविट्ठ-स्स अणंते अनुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने। Translated Sutra: तत्पश्चात् भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक – इन चार निकाय के देवों ने मल्ली अरहंत का दीक्षा – महोत्सव किया। महोत्सव करके जहाँ नन्दीश्वर द्वीप था, वहाँ गए। जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया। महोत्सव करके यावत् अपने – अपने स्थान पर लौट गए। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत ने, जिस दिन दीक्षा अंगीकार की, उसी दिन | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 109 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाइं चलेंति, समोसढा धम्मं सुणेंति, सुणेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए वि निग्गच्छइ।
तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेट्ठपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ सीयाओ दुरूढा समाणा सव्विड्ढीए जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति जाव पज्जुवासंति।
तए णं मल्ली अरहा तीसे महइमहालियाए परिसाए, कुंभगस्स रन्नो, तेसिं च जियसत्तु-पामोक्खाणं छण्हं राईणं धम्मं परिकहेइ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। Translated Sutra: उस काल और उस समय में सब देवों के आसन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ आए, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया। फिर जिस दिशा में प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गए। कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए नीकला। तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने – अपने ज्येष्ठ पुत्रों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 110 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी। पुण्णभद्दे चेइए।
तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे। तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाह-दारया होत्था, तं जहा–जिनपालिए य जिनरक्खिए य।
तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अम्हे लवणसमुद्दं पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा। सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुनरवि Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान महावीर ने नौवें ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। कोणिक राजा था। चम्पानगरी के बाहर ईशान – दिक्कोण में पूर्णभद्र चैत्य था। चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह निवास करता था। वह समृद्धिशाली था। भद्रा उसकी भार्या | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 111 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं लवणसमुद्दं अनेगाइं जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं अनेगाइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भूयाइं, तं जहा–अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे कालिय-वाए जाव समुट्ठिए।
तए णं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्जमाणी-आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी-संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी-संखोभिज्जमाणी सलिल-तिक्ख-वेगेहिं अइअट्टिज्जमाणी-अइअट्टिज्जमाणी कोट्टिमंसि करतलाहते विव तिंदूसए तत्थेव-तत्थेव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणी विव वरणीयलाओ सिद्धविज्जा विज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणी विव गगनतलाओ भट्ठविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणी विव महागरुल-वेग-वित्तासिय Translated Sutra: तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए। वे उत्पात इस प्रकार थे – अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे। प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी। तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार – बार काँपने लगी, बार – बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 112 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारगा छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउणसिप्पोवगया बहूसु पोयवहण-संपराएसु कय-करणा लद्धविजया अमूढा अमूढहत्था एगं महं फलगखंडं आसादेंति।
जंसि च णं पएसंसि से पोयवहणे विवण्णे तंसि च णं पएसंसि एगे महं रयणदीवे नामं दीवे होत्था–अनेगाइं जोयणाइं सायामविक्खंभेणं अनेगाइं जोयणाइं परिक्खेवेणं नानादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए यावि होत्था–अब्भुग्गयमूसिय-पहसिए जाव सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं पासायवडेंसए रयणदीव-देवया नामं देवया परिवसइ–पावा Translated Sutra: परन्तु दोनों माकन्दीपुत्र चतुर, दक्ष, अर्थ को प्राप्त, कुशल, बुद्धिमान्, निपुण, शिल्प को प्राप्त, बहुत – से पोतवहन के युद्ध जैसे खतरनाक कार्यों में कृतार्थ, विजयी, मूढ़ता – रहित और फूर्तीले थे। अत एव उन्होंने एक बड़ा – सा पटा का टुकड़ा पा लिया। जिस प्रदेश में वह पोतवहन नष्ट हुआ था, उसी प्रदेश में – उसके पास ही, एक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 113 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयण-संदेसेण सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टेयव्वे त्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्ठं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणिय-आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयव्वं ति कट्टु निउत्ता।
तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए एवं वयासी–एवं खलु अहं देवानुप्पिया! सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव निउत्ता। तं जाव अहं देवानुप्पिया! लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टित्ता जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्ठं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणिय-आहुणिय तिसत्तखुत्तो Translated Sutra: तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उस माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा। उसने हाथ में ढाल और तलवार ली। सात – आठ ताड़ जितनी ऊंचाई पर आकाश में उड़ी। उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती – चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई। आकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से कहने लगी – ‘अरे माकन्दी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 114 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ उ–कंदल-सिलिंघ-दंतो, निउर-वरपुप्फपीवरकरो ।
कुडयज्जुण-नीव-सुरभिदाणो, पाससउऊ गयवरो साहीणो ॥ Translated Sutra: कंदल – नवीन लताएं और सिलिंध्र – भूमिफोड़ा उस प्रावृष् – हाथी के दाँत हैं। निउर नामक वृक्ष के उत्तम पुष्प ही उसकी उत्तम सूँड़ हैं। कुटज, अर्जुन और नीप वृक्षों के पुष्प ही उसका सुगन्धित मदजल हैं। और उस वनखण्ड में वर्षाऋतु रूपी पर्वत भी सदा स्वाधीन – विद्यमान रहता है, क्योंकि वह इन्द्रगोप रूपी पद्मराग आदि मणियों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 115 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ य–सुरगोवमणि-विचित्तो, दद्दुरकुलरसिय-उज्झररवो ।
वरहिणवंद-परिणद्धसिहरो, वासारत्तउऊ पव्वओ साहीणो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११४ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 116 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं तुब्भे देवानुप्पिया! बहूसु बावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीधरएसु य मालीधरएसु य जाव कुसुमधरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरिज्जाह। जइ णं तुब्भे तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्तरिल्लं वनसंडे गच्छेज्जाह। तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तं जहा–सरदो य हेमंतो य। Translated Sutra: हे देवानुप्रियो ! उस पूर्व दिशा के उद्यान में तुम बहुत – सी बावड़ियों में, यावत् बहुत – से सरोवरों की श्रेणियों में, बहुत – से लतामण्डपों में, वल्लियों के मंडपों में यावत् बहुत – से पुष्पमंडपों में सुखे – सुखे रमण करते हुए समय व्यतीत करना। अगर तुम वहाँ भी ऊब जाओ, उत्सुक हो जाओ या कोई उपद्रव हो जाए – भय हो जाए, तो | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 117 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ उ–सण-सत्तिवण्ण-कउहो, नीलुप्पल-पउम-नलिण-सिंगो ।
सारस-चक्काय-रवियघोसो, सरयउऊ गोवई साहीणो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११६ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 118 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ य–सियकुंद-धवलजोण्हो, कुसुमिय-लोद्धवनसंड-मंडलतलो ।
तुसार-दगधार-पीवरकरो, हेमंतउऊ ससी सया साहीणो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११६ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 119 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं तुब्भे देवानुप्पिया! बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीधरएसु य मालीधरएसु य जाव कुसुमधरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरिज्जाह। जइ णं तुब्भे तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे अवरिल्लं वनसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा तं जहा–वसंते य गिम्हे य। Translated Sutra: देखो सूत्र ११६ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 120 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ उ–सहकार-चारुहारो, किंसुय-कण्णियारासोगमउडो ।
ऊसियतिलग-बकुलायवत्तो, वसंतउऊ नरवई साहीणो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११६ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 121 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ य–पाडल-सिरीस-सलिलो, मल्लिया-वासंतिय-धवलवेलो ।
सीयलसुरभि-निल-मगरचरिओ, गिम्हउऊ सागरो साहीणो ॥ Translated Sutra: उस वनखण्ड में ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर सदा विद्यमान रहता है। वह ग्रीष्म – सागर पाटल और शिरीष के पुष्पों रूपी जल से परिपूर्ण रहता है। मल्लिका और वासन्तिकी लताओं के कुसुम ही उसकी उज्ज्वल वेला – ज्वार है। उसमें जो शीतल और सुरभित पवन है, वही मगरों का विचरण है। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 122 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीधरएसु य मालीधरएसु य जाव कुसुमधरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरेज्जाह। जइ णं तुब्भे देवानुप्पिया! तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाहं तओ तुब्भे जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छेज्जाह ममं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठेज्जाह, मा णं तुब्भे दक्खिणिल्लं वनसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे अइकाए महाकाए मसि-महिस-मूसा-कालए नयणविसरोसपुण्णे अंजप-पुंज-नियरप्पगासे रत्तच्छे जमल-जुयल-चंचल-चलंतजीहे धरणितल-वेणिभूए उक्कड-फुड-कुडिल-जडुल-कक्खड-वियड-फडाडोव-करणदच्छे Translated Sutra: देवानुप्रियो ! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जाओ तो उस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। मेरी प्रतीक्षा करते – करते यहीं ठहरना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है। उसका विष उग्र है, प्रचंड है, घोर है, अन्य सब सर्पों से उसका शरीर बड़ा है। इस सर्प के अन्य विशेषण | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 123 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारया तओ मुहुत्तंतरस्स पासायवडेंसए सइं वा रइं वा धिइं वा अलभमाणा अन्नमन्नं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! रयणदीव-देवया अम्हे एवं वयासी–एवं खलु अहं सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ। तं सेयं खलु अम्हं देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्लं वनसंडं गमित्तए–अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवागच्छंति। तत्थ णं वावीसु य जाव आलीधरएसु य जाव सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरंति।
तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सइं वा रइं वा धिइं वा अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले Translated Sutra: वे माकन्दीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त्त में ही उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में कहने लगे – ‘देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे कहा है कि – शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवण – समुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 124 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइगस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म बलियतरं भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी–कहण्णं देवानुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थरेज्जामो?
तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्ले वनसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जक्खे परिवसइ। तए णं से सेलए जक्खे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु आगय-समए पत्तसमए महया-महया सद्देण एवं वदइ–कं तारयामि? कं पालयामि? तं गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्लं वण-संडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं Translated Sutra: तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गए। तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से छूटकारा पा सकते हैं ?’ तब शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा – ‘देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 125 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुद्दं तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टइ, जं तत्थ तणं वा जाव एगंते एडेइ, जेणेव पासा-यवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदिय-दारए पासायवडेंसए अपासमाणी जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवाग-च्छइ जाव सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, करेत्ता तेसिं मागंदिय-दारगाणं कत्थइ सुइं वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले, एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, ते मागंदिय-दारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झं-मज्झेणं वीईवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठ तलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढं वेहासं उप्पयइ, Translated Sutra: तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया। दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई। आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देखकर पूर्व दिशा के वनखण्ड में गई। वहाँ सब जगह उसने मार्गणा की। पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 126 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा जिनरक्खियस्स नाऊण ।
वघनिमित्तं उवरिं मागंदिय-दारगाण दोण्हंपि ॥ Translated Sutra: तत्पश्चात् – उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर दोनों माकन्दीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त बोली। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 127 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दोसकलिया सललियं नानाविह-चुण्णवास-मीस दिव्वं ।
धाण-मण-निव्वुइकरं सव्वोउय-सुरभिकुसुम-वुट्ठिंपमुंचमाणी ॥ Translated Sutra: द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित, विविध प्रकार के चूर्णवास से मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देने वाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगन्धित फूलों की वृष्टि करती हुई। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 128 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नानामणि-कनग-रयण-घंटियाखिंखिणि नेउर-मेहल-भूसणरवेणं ।
दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं वेइ सा सकलुसा ॥ Translated Sutra: नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, घुँघरूओं, नूपुरों और मेखला – इन सब आभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिन देवी इस प्रकार कहने लगी। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 129 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] होल वसुल गोल नाह दइत पिय रमण कंत सामिय निग्घिण नित्थक्क ।
थिण्ण निक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख
अकलुण जिनरक्खिय मज्झं हिययरक्खगा ॥ Translated Sutra: ‘हे होल ! वसुल, गोल हे नाथ ! हे दयित हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निर्घुण ! हे नित्थक्क ! हे कठोर हृदय ! हे दयाहीन ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव ! हे निर्लज्ज ! हे रूक्ष ! हे अकरूण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 130 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न हु जुज्जसि एक्कयं अणाहं अबंधवं तुज्झ चलण-ओवायकारियं उज्झिउमधन्नं ।
गुणसंकरं हं तुमे विहूणा न समत्था जीविउ खणपि ॥ Translated Sutra: ‘मुझ अकेली, अनाथ, बान्धव हीन, तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाली और अधन्या का त्याग देना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है। हे गुणों के समूह ! तुम्हारे बिना मैं क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ।’ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 131 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इमस्स उ अनेगझस-मगर-विविधसावय-सयाउलधरस्स रयणागरस्स मज्झे ।
अप्पाणं वहेमि तुज्झ पुरओ एहि नियत्ताहि जइ सि कुविओ खमाहि एगावराहं मे ॥ Translated Sutra: ‘अनेक सैकड़ों मत्स्य, मगर और विविध क्षुद्र जलचर प्राणियों से व्याप्त गृहरूप या मत्स्य आदि के घर – स्वरूप इस रत्नाकर के मध्य में तुम्हारे सामने मैं अपना वध करती हूँ। आओ, वापिस लौट चलो। अगर तुम कुपित हो तो मेरा एक अपराध क्षमा करो।’ ‘तुम्हारा मुख मेघ – विहीन विमल चन्द्रमा के समान है। तुम्हारे नेत्र शरदऋतु के सद्यः | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 132 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तुज्झ व विगयधन-विमलसिसमंडलागार-सस्सिरीयं
सारयनवकमल-कुमुद-कुवलय-दलनिकरिस निभनवणं ।
वयणं पिवासागयाए सद्धा मे पेच्छिउं जे
अवलोएहिं ता इ ममं नाह जा ते पेच्छामि वयणकमलं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३१ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 133 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एव सप्पणय-सरल-महुराइं पुणो-पुणो कलुणाइं ।
वयणाइं जंपमाणी सा पाया मग्गओ समन्नेइ पावहियया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३१ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 134 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य सप्पणय-सरल-महुर-भणिएहिं संजाय-विउणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव-जोवण्णसिरिं च दिव्वं सरभस-उवगूहियाइं विब्बोय-विलसियाणि य विहसिय-सकडक्खदिट्ठि-निस्ससिय-मलिय-उवललिय-थिय-गमण-पणयखिज्जिय-पसाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गतो सविलियं।
तए णं जिनरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्लणोल्लियमइं अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं उव्विहइ नियगपट्ठाहि विगयसद्धे।
तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिनरक्खियं सकलुसा सेलगपट्ठाहि Translated Sutra: कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे उस पर दुगुना राग उत्पन्न हो गया। वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप की और यौवन की लक्ष्मी को स्मरण करने लगा। उसके द्वारा | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 135 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे पुनरवि मानुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य हीलणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो-भुज्जो अनुपरियट्टिस्सइ–जहा व से जिनरक्खिए। Translated Sutra: इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य – उपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की ईच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत – से साधुओं, बहुत – सी साध्वीयों, बहुत – से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 136 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] छलिओ अवयक्खंतो, निरवयक्खो गओ अविग्घेणं ।
तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण भवियव्वं ॥ Translated Sutra: पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया। अत एव प्रवचन सार में आसक्ति रहित होना चाहिए। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 137 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भोगे अवयक्खंता, पडंति संसारसागरे घोरे ।
भोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं ॥ Translated Sutra: चारित्र ग्रहण करके भी जो भोगों की ईच्छा करते हैं, वे घोर संसार – सागर में गिरते हैं और जो भोगों की ईच्छा नहीं करते, वे संसार रूपी कान्तार पार कर जाते हैं। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 138 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिनपालिए तेणेव उवागच्छइ, बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरएहि य मउएहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संता तंता परितंता निव्विण्णा समाणा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
तए णं से सेलए जक्खे जिनपालिएण सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चंपाए नयरीए अग्गुज्जाणंसि जिनपालियं पट्ठाओ ओयारेइ, ओयारेत्ता एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! चंपा नयरी दीसइ त्ति कट्टु जिनपालियं पुच्छइ, जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव Translated Sutra: तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई। आकर बहुत – से अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, शृंगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और अतिशय खिन्न हो गई। तब वह जिस दिशा से आई थी, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 139 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनपालिए चंपं नयरिं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे तिप्पमाणे विलवमाणे जिनरक्खियं-वावत्तिं निवेदेइ।
तए णं जिनपालिए अम्मापियरो मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि परियणेणं सद्धिं रोयमाणा कंदमाणा सोयमाणा तिप्पमाणा विलवमाणा बहूइं लोइयाइं मयकिच्चाइं करेंति, करेत्ता कालेणं विगयसोया जाया।
तए णं जिनपालियं अन्नया कयाइं सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी–कहण्णं पुत्ता! जिनरक्खिए कालगए?
तए णं से जिनपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवाय-संमुच्छणं च पोयवहण-विवत्तिं Translated Sutra: तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा माता – पिता थे वहाँ पहुँचा। उसने रोते – रोते और विलाप करते – करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सूनाया। तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता – पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के साथ रोते – रोते बहुत – से लौकिक मृतककृत्य करके वे कुछ समय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 140 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। जिनपालिए धम्मं सोच्चा पव्वइए। एगारसंगवी। मासियाए संलेहणाए अप्पाणं ज्झोसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसणाए छेएत्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने। दो सागरोवमाइं ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे मानुस्सए कामभोगे नो पुनरवि आसयइ पत्थयइ पीहेइ, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्सइ–जहा Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे। भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। कूणिक राजा भी नीकला। जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की। क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव |