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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 37 | Gatha | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नरगं तिरिक्खजोणिं, मानुसभावं च देवलोगं च ।
सिद्धे य सिद्धवसहिं, छज्जीवणियं परिकहेइ ॥ Translated Sutra: भगवान ने नरक तिर्यंचयोनि, मानुषभाव, देवलोक तथा सिद्ध, सिद्धावस्था एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया। जैसे – जीव बंधते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं। कईं अप्रतिबद्ध व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं। पीड़ा वेदना या आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख – सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म – बल | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 41 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा महतिमहालिया मनूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्त-मानंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाण हियया उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अत्थेगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइया, अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवन्ना।
अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–सुअक्खाए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुपन्नत्ते ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुभासिए ते भंते! निग्गंथे Translated Sutra: तब वह विशाल मनुष्य – परिषद् श्रमण भगवान महावीर से धर्म सूनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट – तुष्ट हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित – हृदय होकर उठी। उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण – प्रदक्षिणा, वंदन – नमस्कार किया, उनमें से कईं | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 42 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कूणिए राया भिंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी– सुयक्खाए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुपन्नत्ते ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुभासिए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुविणीए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुभाविए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, अनुत्तरे ते भंते! निग्गंथे पावयणे। धम्मं णं आइक्खमाणा उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आइक्खमाणा Translated Sutra: तत्पश्चात् भंभसार का पुत्र राजा कूणिक श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुआ, मन में आनन्दित हुआ। अपने स्थान से उठा। श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। वन्दन – नमस्कार किया। बोला – भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित, निर्ग्रन्थ प्रवचन अनुत्तर | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 43 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदियाओ पीइमणाओ परमसोमणस्सियाओ हरिसवस विसप्पमाण हिययाओ उट्ठाए उट्ठेंति, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–सुयक्खाए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुपन्नत्ते ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुभासिए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुविणीए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुभाविए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, अनुत्तरे ते भंते! निग्गंथे पावयणे। धम्मं णं आइक्खमाणा उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, Translated Sutra: सुभद्रा आदि रानियाँ श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुई, मन में आनन्दित हुई। अपने स्थान से उठीं। उठकर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिण – प्रदक्षिणा की। वैसा कर भगवान को वन्दन – नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार कर वे बोली – ‘‘निर्ग्रन्थ – प्रवचन सुआख्यात है सर्वश्रेष्ठ है इत्यादि पूर्व | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 50 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजने णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ। से कहमेयं भंते! एवं खलु गोयमा! जं णं से बहुजने अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ– एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमट्ठे अहंपि णं गोयमा! एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पन्नवेमि एवं परूवेमि एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहरेइ, Translated Sutra: भगवन् ! बहुत से लोग एक दूसरे से आख्यात करते हैं, भाषित करते हैं तथा प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है। भगवन् ! यह कैसे है ? बहुत से लोग आपस में एक दूसरे से जो ऐसा कहते हैं, प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर में सौ घरों में | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 51 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सेज्जे इमे गामागर नयर निगम रायहाणि खेड कब्बड दोणमुह मडंब पट्टणासम संबाह सन्निवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा–आयरियपडिनीया उवज्झायपडिनीया तदुभयपडिनीया कुलपडिनीया गणपडिनीया आयरिय उवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अनालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेसिं उववाए Translated Sutra: जो ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे – आचार्यप्रत्यनीक, उपाध्याय – प्रत्यनीक, कुल – प्रत्यनीक, गण – प्रत्यनीक, आचार्य और उपाध्याय के अयशस्कर, अवर्णकारक, अकीर्तिकारक, असद्भाव, आरोपण तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को – दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए बहुत | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 10 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसोत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अभयदए चक्खुदए अप्पडिहयवरनाणदंसणधरे वियट्टछउमे जिणे जाणए तिण्णे तारए मुत्ते मोयए बुद्धे बोहए सव्वण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुय-मणंतमक्खयमव्वाबाहमपुनरावत्तगं सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपाविउकामे–
... भुयमोयग भिंग नेल कज्जल पहट्ठभमरगण निद्ध निकुरुंब निचिय कुंचिय पयाहिणावत्त मुद्धसिरए दालिमपुप्फप्पगास तवणिज्जसरिस निम्मल सुनिद्ध केसंत केसभूमी घन निचिय सुबद्ध लक्खणुन्नय कूडागारनिभ पिंडियग्गसिरए छत्तागारुत्तिमंगदेसे निव्वण सम Translated Sutra: [૧] તે કાળે, તે સમયે શ્રમણ ભગવંત મહાવીર, જે શ્રુત અને ચારિત્ર ધર્મના – આદિકર, તીર્થની સ્થાપના કરનાર – તીર્થકર, સ્વયં બોધ પામેલા – સ્વયંસંબુદ્ધ, જ્ઞાનાદિ અનંત ગુણોથી – પુરુષોત્તમ, કર્મ શત્રુ નાશ કર્તા હોવાથી – પુરુષસિંહ, શ્વેત કમળ સમ નિર્મલ અને નિર્લેપ – પુરુષવરપુંડરિક, ઉત્તમ હાથીની જેમ બીજા ઉપર વિજય મેળવનાર | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 15 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे निग्गंथा भगवंतो–अप्पेगइया आभिनिबोहियनाणी अप्पेगइया सुयनाणी अप्पेगइया ओहिनाणी अप्पेगइया मणपज्जवनाणी अप्पेगइया केवलनाणी अप्पेगइया मनबलिया अप्पेगइया वयबलिया अप्पेगइया कायबलिया अप्पेगइया मणेणं सावाणुग्गहसमत्था अप्पेगइया वएणं सावाणुग्गहसमत्था अप्पेगइया काएणं सावाणुग्गहसमत्था ...
...अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता अप्पेगइया जल्लोसहिपत्ता अप्पेगइया विप्पोसहिपत्ता अप्पेगइया आमोसहिपत्ता अप्पेगइया सव्वोसहिपत्ता अप्पेगइया कोट्ठबुद्धी अप्पेगइया बीयबुद्धी अप्पेगइया पडबुद्धी अप्पेगइया पयाणुसारी Translated Sutra: [૧] તે કાળે, તે સમયે શ્રમણ ભગવંત મહાવીરના અંતેવાસી – શિષ્ય એવા ઘણા નિર્ગ્રન્થો હતા, જેવા કે – કેટલાક આભિનિબોધિકજ્ઞાની, શ્રુતજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની, મન:પર્યવજ્ઞાની, કેવળજ્ઞાની હતા, કેટલાક મનોબલિ, વચનબલિ અને કાયબલિ હતા. કેટલાક મન – વચન કે કાયાથી શાપ દેવામાં કે અનુગ્રહ કરવામાં સમર્થ હતા, કેટલાક ખેલૌષધિ લબ્ધિ પ્રાપ્ત | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 16 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो–जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विनयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी, जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जिइंदिया जियनिद्दा जियपरीसहा जीवियासमरणभय विप्पमुक्का, वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अज्जवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जप्पहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा, चारुवण्णा Translated Sutra: [૧] તે કાળે, તે સમયે શ્રમણ ભગવંત મહાવીરના અંતેવાસી – શિષ્યો, ઘણા સ્થવિર ભગવંતો જાતિસંપન્ન, કુળસંપન્ન, બળસંપન્ન, રૂપસંપન્ન, વિનયસંપન્ન, જ્ઞાનસંપન્ન, દર્શનસંપન્ન, ચારિત્રસંપન્ન, લજ્જાસંપન્ન, લાઘવસંપન્ન હતા. ઘણા સ્થવિર ભગવંતો – ઓજસ્વી, તેજસ્વી વર્ચસ્વી, યશસ્વી હતા. ઘણા સ્થવિર ભગવંતો – ક્રોધજયી, માનજયી, માયાજયી, | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 19 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं बाहिरए? बाहिरए छव्विहे, तं जहा–अनसने ओमोयरिया भिक्खायरिया रसपरिच्चाए कायकिलेसे पडिसंलीनया।
से किं तं अनसने? अनसने दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–इत्तरिए य आवकहिए य।
से किं तं इत्तरिए? इत्तरिए अनेगविहे पन्नत्ते, तं जहा–चउत्थभत्ते, छट्ठभत्ते, अट्ठमभत्ते, दसमभत्ते, बारसभत्ते, चउद्दसभत्ते, सोलसभत्ते, अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते, तेमासिए भत्ते, चउमासिए भत्ते, पंचमासिए भत्ते, छम्मासिएभत्ते। से तं इत्तरिए।
से किं तं आवकहिए? आवकहिए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य। से किं तं पाओवगमणे? पाओवगमणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–वाघाइमे य Translated Sutra: [૧] તે બાહ્યતપ શું છે? બાહ્યતપ છ ભેદે છે. તે આ રીતે – અનશન, ઊનોદરિકા, ભિક્ષાચર્યા, રસપરિત્યાગ, કાયક્લેશ પ્રતિસંલિનતા. તે અનશન શું છે ? અનશન બે ભેદે છે – ઇત્વરિક, યાવત્કથિત. તે ઇત્વરિક શું છે ? અનેકવિધ છે – ચતુર્થભક્ત, છઠ્ઠભક્ત, અઠ્ઠમભક્ત, દશમભક્ત, બારસભક્ત, ચૌદશભક્ત, સોલશભક્ત, અર્ધમાસિકભક્ત, માસિકભક્ત, બેમાસિક – ભક્ત | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 34 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रन्नो भिंभसारपुत्तस्स सुभद्दापमुहाण य देवीणं तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अनेगसयाए अनेगसयवंदाए अनेगसयवंदपरियालाए ओहवले अइवले महब्बले अपरिमिय बल वीरिय तेय माहप्प कंतिजुत्ते सारय णवणत्थणिय महुरगंभीर कोंचणिग्घोस दुंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए सुव्वत्तक्खर सन्निवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासानुगामिणीए सरस्सईए जोयणनीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ– अरिहा धम्मं परिकहेइ।
तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्मं आइक्खइ। सावि य णं अद्धमाहगा Translated Sutra: [૧] ત્યારપછી શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે ભંભસારપુત્ર કૂણિક રાજાને, સુભદ્રા આદિ રાણીઓને, તે મહામોટી પર્ષદાને – ઋષિપર્ષદા, મુનિપર્ષદા, યતિપર્ષદા, દેવપર્ષદા, અનેકશત, અનેક શતવૃંદ, અનેક શતવૃંદ પરિવાર ઉપસ્થિત હતો તેમાં. ... ઓઘબલી, અતિબલી, મહાબલી, અપરિમિત બલ – વીર્ય – તેજ – મહત્તા – કાંતિયુક્ત, શારદ – નવ – સ્તનિત – મધુર – ગંભીર | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 40 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जह रागेण कडाणं, कम्माणं पावगो फलविवागो । जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुवेंति ।
तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ, तं जहा–अगारधम्मं अनगारधम्मं च।
अनगारधम्मो ताव–इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय अदत्तादाण मेहुण परिग्गह राईभोयणाओ वेरमण। अयमाउसो! अनगारसामाइए धम्मे पन्नत्ते। एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति।
अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा–पंच अणुव्वयाइं, तिन्नि गुणव्वयाइं, चत्तारि सिक्खावयाइं। पंच अणुव्वयाइं, तं जहा–थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, Translated Sutra: [૧] રાગથી કરેલા કર્મોના ફળ વિપાક પાપપૂર્ણ હોય છે, જ્યારે કર્મથી સર્વથા રહિત સિદ્ધો સિદ્ધાલયને પામે છે. ભગવંતે ધર્મ બે ભેદે કહ્યો છે, તે આ – અગાર ધર્મ અને અણગાર ધર્મ. અણગાર ધર્મમાં નિશ્ચે સર્વતઃ સર્વાત્મભાવથી મુંડ થઈને, ગૃહવાસ છોડીને અનગારપણામાં પ્રવ્રજિત થાય છે, સર્વથા પ્રાણાતિપાત – મૃષાવાદ – અદત્તાદાન – મૈથુન | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Gujarati | 41 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा महतिमहालिया मनूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्त-मानंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाण हियया उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अत्थेगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइया, अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवन्ना।
अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–सुअक्खाए ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुपन्नत्ते ते भंते! निग्गंथे पावयणे, सुभासिए ते भंते! निग्गंथे Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૧. ત્યારે તે મહા – મોટી મનુષ્યપર્ષદા, શ્રમણ ભગવંત મહાવીર પાસે ધર્મ સાંભળી, સમજીને હૃષ્ટ – તુષ્ટ યાવત્ પ્રસન્નહૃદયી થઈ ઉત્થાનથી ઉઠે છે, ઉત્થાનથી ઉઠીને શ્રમણ ભગવંત મહાવીરને ત્રણ વખત આદક્ષિણ – પ્રદક્ષિણા કરે છે, કરીને વંદન – નમન કરે છે, કરીને કેટલાક મુંડ થઈને ઘરથી નીકળી અણગારિક પ્રવ્રજ્યા લીધી. કેટલાક | |||||||||
Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Gujarati | 51 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सेज्जे इमे गामागर नयर निगम रायहाणि खेड कब्बड दोणमुह मडंब पट्टणासम संबाह सन्निवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा–आयरियपडिनीया उवज्झायपडिनीया तदुभयपडिनीया कुलपडिनीया गणपडिनीया आयरिय उवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अनालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेसिं उववाए Translated Sutra: જે આ પ્રમાણે ગામ, આકર યાવત્ સન્નિવેશોમાં પ્રવ્રજિત થઈ શ્રમણ થાય છે તે આ – આચાર્યપ્રત્યનીક, ઉપાધ્યાયપ્રત્યનીક, કુલપ્રત્યનીક, ગણપ્રત્યનીક, આચાર્ય – ઉપાધ્યાયનો અપયશકારક, અવર્ણકારક, અકીર્તિકારક, ઘણી જ અસદ્ભાવના ઉદ્ભાવનાથી, મિથ્યાત્વાભિનિવેશ થકી પોતાને, બીજાને અને તદુભયને વ્યુદ્ગ્રાહિત કરતા, વ્યુત્પાદિત | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Hindi | 45 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: अत्थि णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेएंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति?
गोयमा! तेहिं तेहिं नाणंतरेहिं, दंसणंतरेहिं, चरित्तंतरेहिं, लिंगंतरेहिं, पवयणंतरेहिं, पावयणंतरेहिं, कप्पंतरेहिं, मग्गंतरेहिं, मतंतरेहिं, भगंतरेहिं, नयतरेहिं, नियमंतरेहिं, पमाणंतरेहिं संकिता कंखिता वितिकिच्छता भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना– एवं खलु समणा निग्गंथा कंखा-मोहणिज्जं कम्मं वेदेंति।
से नूनं भंते! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेदितं?
हंता गोयमा! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेदितं।
एवं जाव अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ Translated Sutra: भगवन् ! क्या श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं। भगवन् ! श्रमणनिर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस प्रकार करते हैं ? गौतम ! उन – उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 96 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! लाघवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं?
हंता गोयमा! लाघवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं।
से नूनं भंते! अकोहत्तं अमानत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं?
हंता गोयमा! अकोहत्तं अमानत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं।
से नूनं भंते! कंखापदोसे खीणे समणे निग्गंथे अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा?
बहुमोहे वि य णं पुव्विं विहरित्ता अह पच्छा संवुडे कालं करेइ ततो पच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वाति सव्वदुक्खाणं अंतं करेति?
हंता गोयमा! कंखापदोसे खीणे समणे निग्गंथे Translated Sutra: भगवन् ! क्या लाघव, अल्पईच्छा, अमूर्च्छा, अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं? हाँ, गौतम! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं। भगवन् ! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता, अलोभत्व, क्या ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? हाँ, क्रोधरहितता यावत् अलोभत्व, ये सब श्रमणनिर्ग्रन्थों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 100 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आहाकम्मं णं भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
गोयमा! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनियबंधनबद्धाओ पकरेइ, हस्स कालठिइयाओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदानुभावाओ तिव्वा-नुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, अनाइयं च णं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरियट्टइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनियबंधनबद्धाओ पकरेइ जाव चाउरंतं Translated Sutra: भगवन् ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बाँधता है ? क्या करता है? किसका चय (वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? गौतम ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बंधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़ – बन्धन से बंधी हुई बना लेता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 105 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ ऊसास खंदए वि य, २ समुग्घाय ३,४ पुढविंदिय ५ अन्नउत्थि ६ भासा य ।
७ देवा य ८ चमरचंचा, ९, समयक्खित्तत्थिकाय बीयसए ॥ Translated Sutra: द्वीतिय शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें क्रमशः इस प्रकार विषय हैं – श्वासोच्छ्वास, समुद्घात, पृथ्वी, इन्द्रियाँ, निर्ग्रन्थ, भाषा, देव, (चमरेन्द्र) सभा, द्वीप (समयक्षेत्र का स्वरूप) और अस्तिकाय (का विवेचन)। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 109 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मडाई णं भंते! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पहीणसंसारवेयणिज्जे, नो वोच्छिन्नसंसारे, नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियट्ठे, नो निट्ठियट्ठकरणिज्जे पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ?
हंता गोयमा! मडाई णं नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पहीण-संसारवेयणिज्जे, नो वोच्छिन्नसंसारे, नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियट्ठे, नो निट्ठियट्ठ-करणिज्जे पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ। Translated Sutra: भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार – वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार – वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ नहीं हुआ, जिसका कार्य समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादी (अचित्त, निर्दोष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 110 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। विण्णु त्ति वत्तव्वं सिया। वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। पाणे भूए जीवे सत्ते विण्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया।
से केणट्ठेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदे त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा Translated Sutra: भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? गौतम ! उसे कदाचित् ‘प्राण’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘भूत’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘जीव’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘सत्य’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘विज्ञ’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘वेद’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद’ कहना चाहिए। हे भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 111 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मडाई णं भंते! नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसारवेयणिज्जे, वोच्छिन्न-संसारे, वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, निट्ठियट्ठे, निट्ठियट्ठकरणिज्जे नो पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ?
हंता गोयमा! मडाई णं नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसार-वेयणिज्जे, वोच्छिन्न-संसारे, वोच्छिन्न-संसारवेयणिज्जे, निट्ठियट्ठे, निट्ठियट्ठ-करणिज्जे नो पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ।
से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। मुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। पारगए त्ति वत्तव्वं सिया। परंपरगए त्ति वत्तव्वं Translated Sutra: भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा प्रासुकभोजी अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता ? हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। हे भगवन् ! पूर्वोक्त स्वरूपवाले | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 112 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ,
पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ जाव समोसरणं। परिसा निग्गच्छइ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: उस काल उस समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपला – शक नामका चैत्य था। वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। यावत् – भगवान का समवसरण हुआ। परीषद् धर्मोपदेश सूनने के लिए नीकली। उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 113 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स, तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ। धम्मकहा भाणियव्वा।
तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए णंदि पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता Translated Sutra: (भगवान महावीर से समाधान पाकर) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार करके यों कहा – ‘भगवन् ! मैं आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सूनना चाहता हूँ।’ हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो। पश्चात् श्रमण भगवान महावीर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 123 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवेंति–
१. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अन्ने देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ आभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउ-व्विय परियारेइ।
२. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा–इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च।
जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ।
इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थिवेयं वेएइ।
एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा– इत्थिवेदं च, Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वशमें करके या आलिंगन करके उनके साथ भी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 130 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति– अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवन-सयनासन-जानवाहणाइण्णा बहुधन-बहुजायरूव-रयया आयोगपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुल-भत्तपाना बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध-पुण्ण-पावा-आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिकरणबंधपमोक्खकुसला असहेज्जा Translated Sutra: इसके पश्चात् (एकदा) श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में तुंगिका नामकी नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नामका चैत्य था। उस तुंगिकानगरी में बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य और दीप्त थे। उनके विस्तीर्ण निपुल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 180 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ?
मंडिअपुत्ता! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च। एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ। Translated Sutra: भगवन् ! क्या श्रमण – निर्ग्रन्थों के (भी) क्रिया होती (लगती) है ? हाँ, होती है। भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे हो जाती है ? मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से इन्हीं दो कारणों से श्रमण – निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-१ सूर्य | Hindi | 215 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ चंप-रवि २ अनिल ३ गंठिय ४ सद्दे ५-६ छउमाउ ७ एयण ८ नियंठे ।
९ रायगिहं १ चंपा-चंदिमा य दस पंचमम्मि सए ॥ Translated Sutra: पांचवे शतक में ये दस उद्देशक हैं – प्रथम उद्देशक में चम्पा नगरी में सूर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। द्वीतिय में वायु – सम्बन्धी प्ररूपण। तृतीय में जालग्रन्थी का उदाहरण। चतुर्थ में शब्द – सम्बन्धी प्रश्नोत्तर। पंचम में छद्मस्थ वर्णन। छठे में आयुष्य सम्बन्धी निरूपण है। सातवे में पुद्गलों का कम्पन। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-८ निर्ग्रंथी पुत्र | Hindi | 262 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी नारयपुत्ते नामं अनगारे पगइभद्दए जाव विहरति।
तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवओ महावीरस्स अंतेवासी नियंठिपुत्ते नामं अनगारे पगइभद्दए जाव विहरति। तए णं से नियंठिपुत्ते अनगारे जेणामेव नारयपुत्ते अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नारयपुत्तं अनगारं एवं वयासी–सव्वपोग्गला ते अज्जो! किं सअड्ढा समज्झा सपएसा? उदाहु अनड्ढा अमज्झा अपएसा? अज्जो! त्ति नारयपुत्ते अनगारे नियंठिपुत्तं अनगारं एवं वयासी–सव्वपोग्गला मे अज्जो! सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अनड्ढा अमज्झा अपएसा।
तए णं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर पधारे। परीषद् दर्शन के लिए गई, यावत् धर्मोपदेश श्रवण कर वापस लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी नारदपुत्र नाम के अनगार थे। वे प्रकृतिभद्र थे यावत् आत्मा को भावित करते विचरते थे। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी निर्ग्रन्थीपुत्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-१ वेदना | Hindi | 273 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! जे महावेदने से महानिज्जरे? जे महानिज्जरे से महावेदने? महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्जराए?
हंता गोयमा! जे महावेदने से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदने, महावेदनस्स य अप्पवेदनस्स य से सेए जे पसत्थ-निज्जराए।
छट्ठ-सत्तमासु णं भंते! पुढवीसु नेरइया महावेदना?
हंता महावेदना।
ते णं भंते! समणेहिंतो निग्गंथेहिंतो महानिज्जरतरा?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणं खाइ अट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जे महावेदने से महानिज्जरे? जे महानिज्जरे से महावेदने? महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्जराए?
गोयमा! से जहानामए दुवे वत्था सिया–एगे वत्थे Translated Sutra: भगवन् ! क्या यह निश्चित है कि जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है और जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है ? तथा क्या महावेदना वाला और अल्पवेदना वाला, इन दोनों में वही जीव श्रेयान् (श्रेष्ठ) है, जो प्रशस्तनिर्जरा वाला है ? हाँ, गौतम ! जो महावेदना वाला है इत्यादि जैसा ऊपर कहा है, इसी प्रकार समझना चाहिए भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१ आहार | Hindi | 336 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदुट्ठस्स पान-भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
गोयमा! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेइ,
एस णं गोयमा! सइंगाले पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता महया अप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! सधूमे पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहेउं अन्नदव्वेणं सद्धिं संजोएत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! संजोयणादोसदुट्ठे Translated Sutra: भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष से दूषित पान भोजन का क्या अर्थ कहा गया है ? गौतम! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी प्रासुक और एषणीय अशन – पान – खादिम – स्वादिमरूप आहार ग्रहण करके उसमें मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आहार करते हैं, हे गौतम ! यह अंगारदोष से दूषित आहार – पानी हैं। जो निर्ग्रन्थ अथवा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१ आहार | Hindi | 337 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! खेत्तातिक्कंतस्स, कालातिक्कंतस्स, मग्गातिक्कंतस्स, पमाणातिक्कंतस्स पान-भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
गोयमा! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहेत्ता उग्गए सूरिए आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! खेत्तातिक्कंते पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असनं-पान-खाइम-साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्ता आहारमाहारेइ एस णं गोयमा! कालातिक्कंते पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहारमाहारेइ, Translated Sutra: भगवन् ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान – भोजन का क्या अर्थ है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय अशन – पान – खादिम – स्वादिमरूप चतुर्विध आहार को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं, तो हे गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१ आहार | Hindi | 338 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! सत्थातीतस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स, वेसियस्स, सामुदाणियस्स पान-भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
गोयमा! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा निक्खित्तसत्थमुसले ववगयमाला-वन्नग-विलेवने ववगय-चुय-चइय-चत्तदेहं, जीव-विप्पजढं, अकयं, अकारियं, असंकप्पियं, अनाहूयं, अकीयकडं, अनुद्दिट्ठं, नव-कोडीपरिसुद्धं, दसदोसविप्पमुक्कं, उग्गमुप्पायणेसणासुपरिसुद्धं, वीतिंगालं, वीतधूमं, संजोयणा- दोसविप्पमुक्कं, असुरसुरं, अचवचवं, अदुयं, अविलंबियं, अपरिसाडिं, अक्खोवंजण वणाणुलेवणभूयं, संजमजायामायवत्तियं, संजमभारवहणट्ठयाए बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! सत्थातीतस्स, Translated Sutra: भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्येषित, सामुदायिक भिक्षारूप पान – भोजन का क्या अर्थ है? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी शस्त्र और मूसलादि का त्याग किये हुए हैं, पुष्प – माला और विलेपन से रहित हैं, वे यदि उस आहार को करते हैं, जो कृमि आदि जन्तुओं से रहित, जीवच्युत और जीवविमुक्त है, जो साधु के लिए नहीं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 375 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजणे णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ– एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ–एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु सु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु सु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: भगवन् ! बहुत – से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि – अनेक प्रकार के छोटे – बड़े संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए आहत हुए एवं घायल हुए बहुत – से मनुष्य मृत्यु के समय मरकर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? गौतम ! बहुत – से मनुष्य, जो इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 377 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थि रहते थे, यथा – कालोदयी, शैलोदाई शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-६ प्रासुक आहारादि | Hindi | 406 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए, अनुप्पविट्ठं केइ दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा–एगं आउसो! अप्पणा भुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि। से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अनुगवेसियव्वा सिया। जत्थेव अनुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेव अनुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अनुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसिं दावए, एगंते अनावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वे सिया।
निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अनुप्पविट्ठं केइ तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा–एगं आउसो! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि। से य ते पडिग्गाहेज्जा, Translated Sutra: गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे – ‘आयुष्मन् श्रमण ! इन दो पिण्डों में से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना। वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और स्थविरों की गवेषणा करे। गवेषणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-६ प्रासुक आहारादि | Hindi | 407 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्ठेणं अन्नयरेसु अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति– इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि, पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, अकरणयाए अब्भुट्ठेमि, अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि।
१. से य संपट्ठिए असंपत्ते, थेरा य पुव्वामेव अमुहा सिया। से णं भंते! किं आराहए? विराहए?
गोयमा! आराहए, नो विराहए।
२. से य संपट्ठिए असंपत्ते, अप्पणा य पुव्वामेव अमुहे सिया। से णं भंते! किं आराहए? विराहए?
गोयमा! आराहए, नो विराहए।
३. से य संपट्ठिए असंपत्ते, थेरा य Translated Sutra: गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्हा करूँ; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करूँ, इस (पाप – दोष से) विशुद्ध बनूँ, पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-८ प्रत्यनीक | Hindi | 413 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! ववहारे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, तं जहा–आगमे, सुतं, आणा, धारणा, जीए।
जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा।
नो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा।
नो य से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा।
नो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहार पट्ठवेज्जा।
नो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्ठवेज्जा।
इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्ठवेज्जा, तं जहा–आगमेणं, सुएणं आणाए, धारणाए, जीएणं।
जहा-जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा-तहा ववहारं पट्ठवेज्जा।
से Translated Sutra: भगवन् ! व्यवहार कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! व्यवहार पाँच प्रकार का कहा गया है, आगम व्यवहार, श्रुतव्यवहार, आज्ञाव्यवहार, धारणाव्यवहार और जीतव्यवहार। इन पाँच प्रकार के व्यवहारों में से जिस साधु के पास आगम हो, उसे उस आगम से व्यवहार करना। जिसके पास आगम न हो, उसे श्रुत से व्यवहार चलाना। जहाँ श्रुत न हो वहाँ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 464 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महयाभडचडगर पहकरवंदपरिक्खित्ते, जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं Translated Sutra: श्रमण भगवान् महावीर के पास से धमृ सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् वन्दन – नमन किया और कहा – ‘‘भगवन् ! मैं र्निग्रन्थ – प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ – प्रवचन पर प्रतीत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 466 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए।
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स एयमट्ठं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ।
तए णं से जमाली अनगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए।
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स दोच्चं पि, तच्चं Translated Sutra: तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना – नमस्कार करके इस प्रकार बोले – भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर विहार करना चाहता हूँ। यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात को आदर नहीं दिया, न स्वीकार किया। वे मौन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 467 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के हट्ठे जाए, अरोए वलियसरीरे साव-त्थीओ नयरीओ कोट्ठगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वानुपुव्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी–जहा णं देवानुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं अव-क्कंता, नो खलु अहं तहा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंते, अहं णं उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कंते।
तए Translated Sutra: तदन्तर किसी समय जमालि – अनगार उक रोगातंक से मुक्त और हृष्ट हो गया तथा नीरोग और बलवान् शीर वाला हुआ; तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामनुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उनके पास आया। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 508 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ।
तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसि तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव Translated Sutra: फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल के वस्त्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 623 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा?
गोयमा! अनुत्तरोववाइयाणं देवाणं अनुत्तरा सद्दा, अनुत्तरा रूवा, अनुत्तरा गंधा, अनुत्तरा रसा, अनुत्तरा फासा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा।
अनुत्तरोववाइया णं भंते! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेनं अनुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना?
गोयमा! जावतियं छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतिएणं कम्मावसेसेनं अनुत्तरोव-वाइयदेवत्ताए उववन्ना।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। भगवन् ! वे अनुत्त – रौपपातिक देव क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द, यावत् – अनुत्तर स्पर्श प्राप्त होते हैं, इस कारण, हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं। भगवन् ! कितने कर्म | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-९ अनगार | Hindi | 635 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे इमे भंते! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति, ते णं कस्स तेयलेस्सं वीईवयंति?
गोयमा! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवनवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ।
एवं एएणं अभिलावेणं–तिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ।
चउम्मासपरियाए समणे निग्गंथे गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयई।
पंचमासपरियाए समणे निग्गंथे चदिम-सूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसराईणं तेयलेस्सं वीईवयइ।
छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ।
सत्तमासपरियाए Translated Sutra: भगवन् ! जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ आर्यत्वयुक्त होकर विचरण करते हैं, वे किसकी तेजोलेश्या का अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! एक मास के दीक्षापर्याय वाला श्रमण – निर्ग्रन्थ वाणव्यन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है; दो मास के दीक्षापर्याय वाला श्रमण – निर्ग्रन्थ असुरेन्द्र के सिवाय (समस्त) भवनवासी देवों की | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 638 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइ–एवं खलु देवानुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिने जिनप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिने जिनसद्दं पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं?
तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कनगपुलगनिधस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे Translated Sutra: इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत – से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे – हे देवानुप्रियो ! निश्चित है कि गोशालक मंखलिपुत्र ‘जिन’ होकर अपने आप को ‘जिन’ कहता हुआ, यावत् ‘जिन’ शब्द में अपने आपको प्रकट करता हुआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 647 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं गच्छ णं तुमं आनंदा! गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमट्ठं परिकहेहि–मा णं अज्जो! तुब्भं केई गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ, गोसाले णं मंखलिपुत्ते समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवन्ने।
तए णं से आनंदे थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव गोयमादी समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोयमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वयासी–एवं खलु अज्जो! छट्ठक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे Translated Sutra: (भगवन् – ) ‘इसलिए हे आनन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण – निर्ग्रन्थों को यह बात कही कि – हे आर्यो! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ कोई भी धार्मिक चर्चा न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार पूर्वक कोई प्रत्युपचार (तिरस्कार) न करे। क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण – निर्ग्रन्थों के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 648 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जावं च णं आनंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमट्ठं परिकहेइ, तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हाला हलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता आजीविय-संघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं सावत्थिं नगरिं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी–सुट्ठु णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी, साहू णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी–गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी।
जे णं Translated Sutra: जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को भगवान का आदेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक आजीवकसंघ से परिवृत्त होकर हालाहला कुम्भकारी की दुकान से नीकलकर अत्यन्त रोष धारण किए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आया। फिर श्रमण भगवान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 652 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अज्जोति! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी–अज्जो! से जहानामए तणरासी इ वा कट्ठरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा अगनिज्झामिए अगनिज्झूसिए अगनिपरिणामिए हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरित्ता हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, तं छंदेणं अज्जो! तुब्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, अट्ठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने कहा – ‘हे आर्यो ! जिस प्रकार तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, त्वचा राशि, तुष – राशि, भूसे की राशि, गोमय की राशि और अवकर राशि को अग्नि से थोड़ा – सा जल जाने पर, आग में झोंक देने पर एवं अग्नि से परिणामान्तर होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है, उसका तेज | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 655 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपु-रत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं साणकोट्ठए नामं चेइए होत्था–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूर-सामंते, एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था–किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरंबभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरि-ज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति। तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति–अड्ढा Translated Sutra: तदनन्तर किसी दिन भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से नीकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल उस समय मेंढिकग्राम नगर था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था। यावत् पृथ्वी – शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था वह श्याम, श्यामप्रभावाला, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 657 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते से णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता। तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता।
से णं भंते! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे Translated Sutra: भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम ! वह ऊंचे चन्द्र और सूर्य का यावत् उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ गोशालक की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। भगवन् ! वह गोशालक देव उस देवलोक से आयुष्य, भव और स्थिति | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 659 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंज्झगिरिपायमूले बेभेले सन्निवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चायाहिति।
तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कवालभावं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विनएणं, पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलइस्सति। सा णं तस्स भारिया भविस्सति–इट्ठा कंता जाव अणुमया, भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, रयणकरंडओ विव सुसारक्खिया, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं जाव परिसहो-वसग्गा फुसंतु। तए णं सा दारिया अन्नदा कदायि गुव्विणी ससुरकुलाओ कुलघरं निज्जमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया काल-मासे कालं Translated Sutra: वहाँ भी शस्त्र से वध होने पर यावत् काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विन्ध्य – पर्वत के पादमूल में बेभेल सन्निवेश में ब्राह्मणकुल में बालिका के रूप में उत्पन्न होगा। वह कन्या जब बाल्यावस्था का त्याग करके यौवनवय को प्राप्त होगी, तब उसके माता – पिता उचित शुल्क और उचित विनय द्वारा पति को भार्या के रूप |