Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Hindi | 141 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया?
दिट्ठं सुयं मयं विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जइ।
समेमाणा पलेमाणा, पुणो-पुनो जातिं पकप्पेंति। Translated Sutra: जिस मुमुक्षु में यह बुद्धि नहीं है, उससे अन्य (सावद्याम्भ) प्रवृत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी विवेक बुद्धि कैसे होगी ? यह जो (अहिंसा धर्म) कहा जा रहा है, वह इष्ट, श्रुत, मत और विशेष रूप से ज्ञात है। हिंसा में (गृद्धिपूर्वक) रचे – पचे रहने वाले और उसी में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Hindi | 142 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहो य राओ य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे।
पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: (मोक्षमार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सतत प्रज्ञावान्, धीर साधक ! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं, (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (धर्म में) पराक्रम कर। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा | Hindi | 144 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवन्नाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं।
अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता। अहासच्चमिणं- ति बेमि।
नानागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया ।
कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, ‘पुढो-पुढो जाइं पकप्पयंति’ ॥ Translated Sutra: ज्ञानी पुरुष, इस विषयमें, संसारमें स्थित, सम्यक् बोध पाने को उत्सुक एवं विज्ञान – प्राप्त मनुष्यों को उपदेश करते हैं। जो आर्त अथवा प्रमत्त होते हैं, वे भी धर्म का आचरण कर सकते हैं। यह यथातथ्य – सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ जीवों को मृत्यु के मुख में जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी कुछ लोग ईच्छा द्वारा प्रेरित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-३ अनवद्यतप | Hindi | 147 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवेह एणं बहिया य लोयं, से सव्वलोगंसि जे केइ विण्णू ।
अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति ॥
नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू।
आरंभजं दुक्खमिणंति नच्चा, एवमाहु समत्तदंसिणो।
ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो। Translated Sutra: इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से) विमुख जो लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर ! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में अग्रणी विज्ञ है। तू अनुचिन्तन करके देख – जिन्होंने दण्ड का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान होते हैं।) जो सत्त्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक् विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म का क्षय करते हैं। ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-४ संक्षेप वचन | Hindi | 152 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया?
से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सम्ममेयंति पासह।
जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं।
पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं।
‘कम्मुणा सफलं’ दट्ठुं, तओ णिज्जाइ वेयवी। Translated Sutra: जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का) पूर्व – संस्कार नहीं है और पश्चात् का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा ? (जिसकी भोगकांक्षाएं शान्त हो गई हैं।) वही वास्तव में प्रज्ञानवान् है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। यह सम्यक् है, ऐसा तुम देखो – सोचो। (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-१ एक चर | Hindi | 158 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे।
‘एत्थ फासे’ पुणो-पुणो
आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी।
एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं, ‘असरणे सरणं’ ति मन्नमाणे।
इहमेगेसिं एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, आसवसक्की पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे ‘मा से केइ अदक्खू’ अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ। अट्ठा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आवट्टं अणुपरियट्टंति। Translated Sutra: हे साधको ! विविध कामभोगों में गृद्ध जीवों को देखो, जो नरक – तिर्यंच आदि यातना – स्थानों में पच रहे हैं – उन्हीं विषयों से खिंचे जा रहे हैं। इस संसार प्रवाह में उन्हीं स्थानों का बारंबार स्पर्श करते हैं। इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीवी हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों) के कारण आरम्भजीवी हैं। अज्ञानी साधक इस | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-२ विरत मुनि | Hindi | 163 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से ‘सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति नच्चा’, पुरिसा! परमचक्खू! विपरक्कमा।
एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि।
से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, ‘बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव’।
एत्थ विरते अनगारे, दीहरायं तितिक्खए। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए ॥
एयं मोणं सम्मं अणुवासिज्जासि। Translated Sutra: (परिग्रह महाभय का हेतु है) यह सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध है और सुकथित है, यह जानकर परमचक्षुष्मान् पुरुष! तू (परिग्रह से मुक्त होने) पुरुषार्थ कर। (जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। मैंने सूना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Hindi | 164 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती।
सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते ॥
जहेत्थ मए संधी झोसिए, एवमण्णत्थ संधी दुज्झोसिए भवति, तम्हा बेमि–नो निहेज्ज वीरियं। Translated Sutra: इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में (मूर्च्छा – ममता न रखने के कारण) ही अपरिग्रही हैं। मेधावी साधक (आगमरूप) वाणी सूनकर तथा पण्डितों के वचन पर चिन्तन – मनन करके (अपरिग्रही) बने। आर्यों (तीर्थंकरों) ने ‘समता में धर्म कहा है।’ (भगवान महावीर ने कहा) जैसे मैंने ज्ञान – दर्शन – चारित्र – इन | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Hindi | 165 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे पुव्वुट्ठाई, नोपच्छा-निवाई। जे पुव्वुट्ठाई, पच्छा-निवाई। जे नोपुव्वुट्ठाई, नोपच्छा-निवाई।
सेवि तारिसए सिया, जे परिण्णाय लोगमणुस्सिओ। Translated Sutra: (इस मुनिधर्म में मोक्ष – मार्ग साधक तीन प्रकार के होते हैं) – एक वह होता है, जो पहले साधना के लिए उठता है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है। दूसरा वह है – जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है। तीसरा वह होता है – जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है। जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-४ अव्यक्त | Hindi | 172 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति से युक्त, सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है – ‘यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा ?’ वह स्त्रियाँ परम आराम हैं। (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक – सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?) ग्रामधर्म | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 184 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: अच्चेइ जाइ-मरणस्स वट्टमग्गं वक्खाय-रए।
सव्वे सरा णियट्टंति।
तक्का जत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गहिया।
ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयन्ने।
से न दोहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमण्डले।
न किण्हे, न णीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुक्किल्ले।
न सुब्भिगंधे, न दुरभिगंधे।
न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे।
न कक्खडे, न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न णिद्धे, न लुक्खे।
न काऊ। न रुहे। न संगे।
न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा।
परिण्णे सण्णे।
उवमा न विज्जए।
अरूवी सत्ता।
अपयस्स पयं नत्थि। Translated Sutra: इस प्रकार वह जीवों की गति – आगति के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यानरत मुनि जन्म – मरण के वृत्त मार्ग को पार कर जाता है। (उस मुक्तात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी स्वर लौट जाते हैं – वहाँ कोई तर्क नहीं है। वहाँ मति भी प्रवेश नहीं कर पाती, वह (बुद्धि ग्राह्य नहीं है)। वहाँ वह समस्त कर्ममल से रहित ओजरूप | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 186 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे।
जस्सिमाओ जाईओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, अक्खाइ से नाणमणेलिसं।
से किट्टति तेसिं समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं।
एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमंति।
पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे।
से बेमि–से जहा वि कुम्मे हरए विनिविट्ठचित्ते, पच्छन्न-पलासे, उम्मग्गं से णोलहइ।
भंजगा इव सन्निवेसं णोचयंति, एवं पेगे – ‘अनेगरूवेहिं कुलेहिं’ जाया, ‘रूवेहिं सत्ता’ कलुणं थणंति, नियाणाओ ते न लभंति मोक्खं।
अह पास ‘तेहिं-तेहिं’ कुलेहिं आयत्ताए जाया– Translated Sutra: इस मर्त्यलोक में मनुष्यों के बीच में ज्ञाता वह पुरुष आख्यान करता है। जिसे ये जीव – जातियाँ सब प्रकार से भली – भाँति ज्ञात होती हैं, वही विशिष्ट ज्ञान का सम्यग् आख्यान करता है। वह (सम्बुद्ध पुरुष) इस लोक में उनके लिए मुक्ति – मार्ग का निरूपण करता है, जो (धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 192 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाण भो! सुस्सूस भो! ‘धूयवादं पवेदइस्सामि’।
इह खलु अत्तत्ताए तेहिं-तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूता, अभिसंजाता, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवुड्ढा, अभिसंबुद्धा अभिणिक्खंता, अणुपुव्वेण महामुनी... Translated Sutra: हे मुने ! समझो, सूनने की ईच्छा करो, मैं धूतवाद का निरूपण करूँगा। (तुम) इस संसार में आत्मत्व से प्रेरित होकर उन – उन कुलों में शुक्र – शोणित के अभिषेक – से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग – स्नायु, नस, रोम आदि से क्रम से अभिनिष्पन्न हुए, फिर प्रसव होकर संवर्द्धित हुए, तत्पश्चात् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 194 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आतुरं लोयमायाए, ‘चइत्ता पुव्वसंजोगं’ हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरम्मि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहा तहा, ‘अहेगे तमचाइ कुसीला।’ Translated Sutra: (काम – रोग आदि से) आतुर लोक (समस्त प्राणिजगत) को भलीभाँति जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य में बास करके बसे (संयमी साधु) अथवा (सराग साधु) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 195 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा।
अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए।
कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहुत्ते वा अपरिमाणाए भेदे।
एवं से अंतराइएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवितिण्णा चेए। Translated Sutra: वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद – प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोत्तर आने वाले दुःस्सह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि – धर्म का त्याग कर देते हैं)। विविध कामभोगों को अपनाकर गाढ़ ममत्व रखने वाले व्यक्ति का तत्काल (प्रव्रज्या – परित्याग के) अन्त – र्मुहूर्त्त में या अपरिमित समय में शरीर छूट सकता है। इस प्रकार वे अनेक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 196 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘अहेगे धम्म मादाय’ ‘आयाणप्पभिइं सुपणिहिए’ चरे।
अपलीयमाणे दढे।
सव्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुनी।
अइअच्च सव्वतो संगं ‘ण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि।’
जयमाणे एत्थ विरते अनगारे सव्वओ मुंडे रीयंते।
जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति ओमोयरियाए।
से अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा।
पलियं पगंथे अदुवा पगंथे।
अतहेहिं सद्द-फासेहिं, इति संखाए।
एगतरे अन्नयरे अभिण्णाय, तितिक्खमाणे परिव्वए।
जे य हिरी, जे य अहिरीमणा। Translated Sutra: यहाँ कईं लोग, धर्म को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं। वह अलिप्त/अनासक्त और सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं) समग्र आसक्ति को छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धूनने में प्रवृत्त | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 197 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चिच्चा सव्वं विसोत्तियं, ‘फासे फासे’ समियदंसणे।
एते भो! नगिणा वुत्ता, जे लोगंसि अनागमणधम्मिणो।
आणाए मामगं धम्मं।
एस उत्तरवादे, इह माणवाणं वियाहिते।
एत्थोवरए तं झोसमाणे।
आयाणिज्जं परिण्णाय, परियाएण विगिंचइ।
‘इहमेगेसिं एगचरिया होति’।
तत्थियराइयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए।
से मेहावी परिव्वए।
सुब्भिं अदुवा दुब्भिं।
अदुवा तत्थ भेरवा।
पाणा पाणे किलेसंति।
ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासेज्जासि। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन – सम्पन्न मुनि सब प्रकार की शंकाएं छोड़कर दुःख – स्पर्शों को समभाव से सहे। हे मानवो ! धर्म – क्षेत्र में उन्हें ही नग्न कहा गया है, जो मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते। आज्ञा में मेरा धर्म है, यह उत्तर बाद इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के लिए प्रतिपादित किया है। विषय से उपरत साधक ही | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-३ उपकरण शरीर विधूनन | Hindi | 198 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘एयं खु मुनी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे णिज्झोसइत्ता’।
जे अचेले परिवुसिए, तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ–परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइ-स्सामि, सूइं जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीवीस्सामि, उक्कसिस्सामि, वोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि।
अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसग-फासा फुसंति।
एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले।
‘लाघवं आगममाणे’।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
एवं तेसिं महावीराणं चिरराइं Translated Sutra: सतत सु – आख्यात धर्म वाला विधूतकल्पी (आचार का सम्यक् पालन करने वाला) वह मुनि आदान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है। जो भिक्षु अचेलक रहता है, उस भिक्षु को ऐसी चिन्ता उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूँगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे की याचना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-३ उपकरण शरीर विधूनन | Hindi | 200 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विरयं भिक्खुं रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ किं विधारए?
संधेमाणे समुट्ठिए।
जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे ‘आयरिय-पदेसिए’।
‘ते अणवकंखमाणा’ अणतिवाएमाणा दइया मेहाविनो पंडिया।
एवं तेसिं भगवओ अणुट्ठाणे जहा से दिया पोए।
एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुव्वेण वाइय। Translated Sutra: चिरकाल से मुनिधर्म में प्रव्रजित, विरत और संयम में गतिशील भिक्षु का क्या अरति धर दबा सकती है ? (आत्मा के साथ धर्म का) संधान करने वाले तथा सम्यक् प्रकार से उत्थित मुनि को (अरति अभिभूत नहीं कर सकती) जैसे असंदीन द्वीप (यात्रियों के लिए) आश्वासन – स्थान होता है, वैसे ही आर्य द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार – समुद्र पार करने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 204 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नममाणा एगे जीवितं विप्परिणामेंति।
पुट्ठा वेगे णियट्ठंति, जीवियस्सेव कारणा।
णिक्खंतं पि तेसिं दुन्निक्खंतं भवति।
बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो-पुनो जातिं पकप्पेंति।
अहे संभवंता विद्दायमाणा, अहमंसी विउक्कसे।
उदासीणे फरुसं वदंति।
पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं।
तं मेहावी जाणिज्जा धम्मं। Translated Sutra: कईं साधक नत (समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं। कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट होने पर केवल जीवन जीने के निमित्त से (संयम और संयमीवेश से) निवृत्त हो जाते हैं। उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुर्निष्क्रमण हो जाता है, क्योंकि साधारण जनों द्वारा भी वे निन्दनीय हो जाते हैं तथा (आसक्त होने से) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 205 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहम्मट्ठी तुमंसि नाम बाले, आरंभट्ठी, अणुवयमाणे, हणमाणे, घायमाणे, हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे उदीरिए, उवेहइ णं अणाणाए।
एस विसण्णे वितद्दे वियाहिते Translated Sutra: (धर्म से पतित को इस प्रकार अनुशासित करते हैं – ) तू अधर्मार्थी है, बाल है, आरम्भार्थी है, (आरम्भ – कर्ताओं का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है – ) प्राणियों का हनन करो, प्राणियों का वध करने वालों का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है। (भगवान ने) घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी अपेक्षा कर रहा है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 206 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणा–‘एवं पेगे वइत्ता’,
मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं ।
‘वीरायमाणा समुट्ठाए, अविहिंसा सुव्वया दंता’ ॥
अहेगे पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे।
वसट्टा कायराजना लूसगा भवंति।
अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, ‘से समणविब्भंते समणविब्भंते’।
पासहेगे समण्णागएहिं असमण्णागए, णममाणेहिं अणममाणे, विरतेहिं अविरते, दविएहिं अदविए।
अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्ठियट्ठे वीरे आगमेणं सया परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा ? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। दीन और पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 207 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से गिहेसु वा गिहंतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा ‘जणवयंतरेसु वा’, संतेगइयाजना लूसगा भवति, अदुवा–फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए।
ओए समियदंसणे।
दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, आइक्खे विभए किट्टे वेयवी।
से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए–संतिं, विरतिं, उवसमं, णिव्वाणं, सोयवियं,
अज्जवियं, मद्दवियं, लाघवियं, अणइवत्तियं।
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेज्जा। Translated Sutra: वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, जनपदों में या जन – पदान्तरों में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए) कुछ विद्वेषी जन हिंसक हो जाते हैं। अथवा (परीषहों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको सहन करे। राग और द्वेष से रहित सम्यग्दर्शी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 208 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपको बाधा न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का वध हो, तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेश न करने वाला) वह महामुनि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 211 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धुवं चेयं जाणेज्जा – असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा, पायपुंछणं वा लभिय, भुंजिय णोभुंजिय, पंथं विउत्ता विउकम्म विभत्तं धम्मं झोसेमाणे समेमाणे पलेमाणे, पाएज्ज वा, निमंतेज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं–परं अणाढायमाणे Translated Sutra: असमनोज्ञ भिक्षु कदाचित् मुनि से कहे – (मुनिवर !) तुम इस बात को निश्चित समझ लो – (हमारे मठ या आश्रम में प्रतिदिन) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन (मिलता है)। तुम्हें ये प्राप्त हुए हों या न हुए हों तुमने भोजन कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन करते हुए | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में कईं साधकों को आचार – गोचर सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु – जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 213 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया।
अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स
सव्वत्थ सम्मयं पावं।
तमेव उवाइकम्म।
एस मह विवेगे वियाहिते।
गामे वा अदुवा रण्णे? नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह–पवेदितं माहणेण मईमया।
जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया।
जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं, अनियाणा ते वियाहिया। Translated Sutra: जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन) रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। (वह मुनि उन मतवादियों से कहे – ) (आप के दर्शनों में आरम्भ) पाप सर्वत्र सम्मत है। मैं उसी (पाप) का निकट से अति – क्रमण करके (स्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 405 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स–इह खलु गाहावइणीओ वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ -सुण्हाओ वा, गाहावइ-धाईओ वा, गाहावइ-दासीओ वा, गाहावइ-कम्मकरीओ वा। तासिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ–जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता वयमंता गुणमंता संजया संवुडा बंभचारी उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एतेसिं कप्पइ मेहुणं धम्मं परियारणाए आउट्टित्तए।
जा य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणं धम्मं परियारणाए आउट्टेज्जा, पुत्तं खलु सा लभेज्जा–ओयस्सिं तेयस्सिं वच्चस्सिं जसस्सिं संप-राइयं आलोयण-दरिसणिज्जं। एयप्पगारं निग्घोसं सोच्चा निसम्म तासिं च णं अन्नय्ररि सड्ढी तं तवस्सिं भिक्खुं Translated Sutra: गृहस्थों के साथ एक स्थान में निवास करने वाले साधु के लिए कि उसमें गृहपत्नीयाँ, गृहस्थ की पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, उसकी धायमाताएं, दासियाँ या नौकरानियाँ भी रहेंगी। उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि, ‘ये जो श्रमण भगवान होते हैं, वे शीलवान, वयस्क, गुणवान, संयमी, शान्त, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 219 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्ममायाणह, पवेइयं माहणेण मतिमया–समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाएज्जा, णिमंतेज्जा, कुज्जा वेयावडियं–परं आढायमाणे। Translated Sutra: मतिमान् महामाहन श्री वर्द्धमान स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म को भली – भाँति समझ लो कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन आदि दे, उन्हें देने के लिए मनुहार करे, उनका वैयावृत्य करे। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 220 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समुट्ठिता।
‘सोच्चा वई मेहावी’, पंडियाणं निसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते।
ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा नो ‘परिग्गहावंतो सव्वावंतो’ च णं लोगंसि।
णिहाय दंडं पाणेहिं, पावं कम्मं अकुव्वमाणे, एस महं अगंथे वियाहिए।
ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च नच्चा। Translated Sutra: कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं। तीर्थंकर तथा श्रुतज्ञानी आदि पण्डितों के वचन सूनकर, मेधावी साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) आर्यों ने समता में धर्म कहा है, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से धर्म कहा है। वे कामभोगों की आकांक्षा न रखनेवाले, प्राणियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 223 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं भिक्खुं सीयफास-परिवेवमाणगायं उवसंकमित्तु गाहावई बूया–आउसंतो समणा! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति? आउसंतो गाहावई! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति। सीयफासं नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए। नो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालेत्तए वा पज्जालेत्तए वा, कायं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा अन्नेसिं वा वयणाओ।
सिया से एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कायं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए। Translated Sutra: शीत – स्पर्श से काँपते हुए शरीर वाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे – आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय – विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? (इस पर मुनि कहता है) आयुष्मन् गृहपति ! मुझे ग्राम – धर्म पीड़ित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत – स्पर्श को सहन करने में समर्थ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-५ ग्लान भक्त परिज्ञा | Hindi | 230 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे–अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहिं, गिलानो अगिलाणेहिं, अभिकंख साह-म्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि। अहं वा वि खलु अपडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स, अगिलानो गिलाणस्स, अभिकंख साहम्मिअस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए।
आहट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च णोसाति-ज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं णोआणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं णोआणक्खेस्सामि, आहडं च णोसाति-ज्जिस्सामि।
‘लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वताए Translated Sutra: जिस भिक्षु का यह प्रकल्प होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे साधर्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा से साधर्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा। (१) (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 238 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु दलइस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु दलइस्सामि, आहडं च णोसातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु ‘अन्नेसिं भिक्खूणं’ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु णोदलइस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु णोदलइस्सामि, आहडं च नो सातिज्जिस्सामि।
अहं च खलु तेण अहाइरित्तेणं अहेसणिज्जेणं Translated Sutra: जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा और उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा। (१) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा। (२) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 241 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहं पि विदित्ताणं, बुद्धा धम्मस्स पारगा ।
अणुपुव्वीए संखाए, आरंभाओ तिउट्टति ॥ Translated Sutra: वे धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों प्रकार से हेयता का अनुभव करके क्रम से विमोक्ष का अवसर जान – कर आरंभ से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 251 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए ।
आयवज्जं पडीयारं, विजहिज्जा तिहा तिहा ॥ Translated Sutra: ज्ञात – पुत्र ने भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण अनशन का यह आचार – धर्म बताया है। इसमें किसी भी अंगोपांग के व्यापार का, किसी दूसरे के सहारे का मन, वचन और काया से तथा कृत – कारित – अनुमोदित रूप से त्याग करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 259 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे ।
अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥ Translated Sutra: यह उत्तम धर्म है। यह पूर्व स्थानद्वय से प्रकृष्टतर ग्रह वाला है। साधक स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ स्थिर होकर रहे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 266 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नो चेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तंसि हेमंते ।
से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥ Translated Sutra: ‘मैं हेमन्त ऋतु में वस्त्र से शरीर को नहीं ढकूँगा।’ वे इस प्रतिज्ञा का जीवनपर्यन्त पालन करने वाले और संसार या परीषहों के पारगामी बन गए थे। यह उनकी अनुधर्मिता ही थी। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 271 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाति ।
पुट्ठो वि नाभिभासिंसु, गच्छति नाइवत्तई अंजू ॥ Translated Sutra: कभी गृहस्थोंसे युक्त स्थानमें भी वे उनमें घुलते – मिलते नहीं थे। वे उनका संसर्ग त्याग करके धर्मध्यानमें मग्न रहते। वे किसी के पूछने पर भी नहीं बोलते थे। अन्यत्र चले जाते, किन्तु अपने ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 299 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्टु ।
अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति ॥ Translated Sutra: अन्तर में स्थित भगवान से पूछा – ‘अन्दर कौन है ?’ भगवान ने कहा – ‘मैं भिक्षु हूँ।’ यदि वे क्रोधान्ध होते तब भगवान वहाँ से चले जाते। यह उनका उत्तम धर्म है। वे मौन रहकर ध्यान में लीन रहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 340 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं ‘समारब्भ समुद्दिस्स’ कीयं पामिच्च अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसं-तरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, ‘परिभुत्तं वा’ ‘अपरिभुत्तं वा’ आसेवियं वा अनासेवियं वा –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 353 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसितुकामे सव्वं भंडगमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहिया विहार-भूमिं वा वियार-भूमिं वा निक्खममाणे वा, पविसमाणे वा सव्वं भंडगमायाए बहिया विहार-भूमिं वा वियार-भूमिं वा निक्खमेज्ज वा, पविसेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। Translated Sutra: जो भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होना चाहता है, वह अपने सब धर्मोपकरण लेकर आहार – प्राप्ति उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रवेश करे या नीकले। साधु या साध्वी बाहर मलोत्सर्गभूमि या स्वाध्यायभूमि में नीकलते या प्रवेश समय अपने सभी धर्मोपकरण लेकर वहाँ से नीकले या प्रवेश करे। एक ग्राम से दूसरे ग्राम | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 354 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहं पुण एवं जाणेज्जा–तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए, तिव्वदेसियं वा महियं सण्णिवयमाणिं पेहाए, महावाएण वा रयं समुद्धयं पेहाए, तिरिच्छं संपाइमा वा तसा-पाणा संथडा सन्निवयमाणा पेहाए, से एवं नच्चा नो सव्वं भंडगमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसेज्ज वा, निक्खमेज्ज वा। बहिया विहार-भूमिं वा वियार-भूमिं वा पविसेज्ज वा, निक्खमेज्ज वा, गामाणुगामं वा दूइज्जेज्जा। Translated Sutra: यदि वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि बहुत बड़े क्षेत्र में वर्षा बरसती है, विशाल प्रदेश में अन्धकार रूप धुंध पड़ती दिखाई दे रही है, अथवा महावायु से धूल उड़ती दिखाई देती है, तिरछे उड़ने वाले या त्रस प्राणी एक साथ मिलकर गिरते दिखाई दे रहे हैं, तो वह ऐसा जानकर सब धर्मोपकरण साथ में लेकर आहार के निमित्त गृहस्थ के घर में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-४ | Hindi | 356 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणु पविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–मंसादियं वा, मच्छादियं वा, मंसं-खलं वा, मच्छ-खलं वा, आहेणं वा, पहेणं वा, हिंगोलं वा, संमेलं वा हीरमाणं पेहाए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणगा, बहवे तत्थ समण-माहण-अतिथि-किवण-वणीमगा उवागता उवागमिस्संति, तत्थाइण्णावित्ती। नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परिय-ट्टणाणुपेह-धम्माणुओगचिंताए। सेवं नच्चा तहप्पगारं पुरे-संखडिं वा, पच्छा-संखडिं वा, संखडिं संखडि-पडियाए नो अभिसंधारेज्ज गमणाए।
से भिक्खू Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते समय भिक्षु या भिक्षुणी यह जो कि इस संखड़ि के प्रारम्भ में माँस या मत्स्य पकाया जा रहा है, अथवा माँस या मत्स्य छीलकर सूखाया जा रहा है; विवाहोत्तर काल में नववधू के प्रवेश या पितृगृह में वधू के पुनः प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, या मृतक – सम्बन्धी भोज हो रहा है, अथवा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Hindi | 388 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुपरियावण्णं भोयण-जायं पडिगाहेत्ता साहम्मिया तत्थ वसति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया। तेसिं अणालोइया अनामं तिया परिट्ठवेइ। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता से पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसंतो! समणा! इमे मे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा बहुपरियावण्णे, तं भुंजह णं।
से सेवं वयंतं परो वएज्जा–आउसंतो! समणा! आहारमेयं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा जावइयं-जावइयं परिसडइ, तावइयं-तावइयं भोक्खामो वा, पाहामो वा। सव्वमेयं परिसडइ, सव्वमेयं भोक्खामो वा, पाहामो वा। Translated Sutra: भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु – साध्वी उसके यहाँ से बहुत – सा नाना प्रकार का भोजन ले आए तब वहाँ जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ तथा अपरिहारिक साधु – साध्वी निकटवर्ती रहते हों, उन्हें पूछे बिना एवं निमंत्रित किये बिना जो साधु – साध्वी उस आहार को परठ देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं।वह साधु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१० | Hindi | 390 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहेत्ता, ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स-तस्स खद्धं-खद्धं दलाति। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता वएज्जा–आउसंतो! समणा! संति मम पुरे -संथुया वा, पच्छा-संथुया वा, तं जहा–आयरिए वा, उवज्झाए वा, पवत्ती वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा, गनावच्छेइए वा। अवियाइं एएसिं खद्धं-खद्धं दाहामि।
‘से णेवं’ वयंतं परो वएज्जा–कामं खलु आउसो! अहापज्जत्तं णिसिराहि। जावइयं-जावइयं परो वयइ, तावइयं-तावइयं निसिरेज्जा। सव्वमेयं परो वयइ, सव्वमेयं निसिरेज्जा। Translated Sutra: कोई भिक्षु साधारण आहार लेकर आता है और उन साधर्मिक साधुओं से बिना पूछे ही जिसे चाहता है, उसे बहुत दे देता है, तो ऐसा करके वह माया – स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए, कहे – ‘‘आयुष्मन् श्रमणों ! यहाँ मेरे पूर्व – परिचित तथा पश्चात् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१० | Hindi | 393 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सिया से परो अभिहट्टु अंतोपडिग्गहए बिलं वा लोणं, उब्भियं वा लोणं परिभाएत्ता नीहट्टु दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा, परपायंसि वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से आहच्च पडिग्गाहिए सिया, तं च नाइदूरगए जाणेज्जा, से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसो! त्ति वा भइणि! त्ति वा ‘इमं ते किं जाणया दिन्नं? उदाहु अजाणया’?
सो य भणेज्जा– नो खलु मे जाणया दिन्नं, अजाणया। कामं खलु आउसो! इदाणिं णिसिरामि। तं भुंजह च णं परिभाएह च णं। तं परेहिं समणुण्णायं Translated Sutra: साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड़ – लवण या उद्भिज – लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश नीकालकर, देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उसे अप्रासुक, अनैषणीय समझकर लेने से मना कर दे। कदाचित् सहसा उस नमक को | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 396 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ।
तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा–असंसट्ठे हत्थे असंसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण असंसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा [पाणं वा] खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पिंडेसणा।
अहावरा दोच्चा पिंडेसणा–संसट्ठे हत्थे संसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण संसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–दोच्चा पिंडेसणा।
अहावरा तच्चा पिंडेसणा–इह खलु पाईणं वा, पडीणं Translated Sutra: अब संयमशील साधु को सात पिण्डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए। (१) पहली पिण्डैषणा – असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र। हाथ और बर्तन (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट हो तो उनसे अशनादि आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यह पहली पिण्डैषणा है। (२) दूसरी पिण्डैषणा है – संसृष्ट हाथ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 398 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा उवस्सयं एसित्तए, अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा, सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं। तहप्पगारे उवस्सए नो ‘ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा’।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं Translated Sutra: साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा करना चाहे तो ग्राम या नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके साधु के योग्य उपाश्रय का अन्वेषण करते हुए यदि यह जाने कि वह उपाश्रय अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो वैसे उपाश्रय में वह साधु या साध्वी स्थान, शय्या और निषीधिका न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अंडों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 414 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईण वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयारे-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणिय-सालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहाकम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, बद्ध-कम्मंताणि वा, वक्क-कम्मंताणि वा, Translated Sutra: आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कईं श्रद्धालु हैं जैसे कि गृहस्वामी, गृह – पत्नी, उसकी पुत्र – पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, धायमाताएं, दास – दासियाँ या नौकर – नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार – व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सूना है, किन्तु उन्होंने यह सून | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 423 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा अणुवीइ उवस्सयं जाएज्जा, जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए, ते उवस्सयं अणुण्णवेज्जा– कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णातं वसिस्सामो जाव आउसंतो, जाव आउसंतस्स उवस्सए, जाव साहम्मिया एत्ता, ताव उवस्सयं गिण्हिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो। Translated Sutra: वह साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहपति के घरों, परिव्राजकों के मठों आदि को देख – जान कर और विचार करके कि यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? फिर उपाश्रय की याचना करे। जैसे कि वहाँ पर या उस उपाश्रय का स्वामी है, समधिष्ठाता है, उससे आज्ञा माँगे और कहे – ‘आयुष्मन् ! आपकी ईच्छानुसार जितने काल तक और जितना भाग आप |