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Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

6. निःकांक्षित्व (निष्कामता) Hindi 55 View Detail
Mool Sutra: तिविहा य होइ कंखा, इह परलोए तथा कुधम्मे य। तिविहं पि जो ण कुज्जा, दंसणसुद्धीमुपगदो सो ।।

Translated Sutra: कामना तीन प्रकार की होती है-इह-लोक विषयक, परलोक विषयक तथा स्वधर्म को छोड़कर कुधर्म या परधर्म के ग्रहण विषयक। जो इनमें से किसी भी प्रकार की आकांक्षा या कामना नहीं करता, वह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त हो गया है, ऐसा समझो। (इसके अतिरिक्त उसे ख्याति-लाभ-प्रतिष्ठा की भी कामना नहीं होती।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

6. निःकांक्षित्व (निष्कामता) Hindi 57 View Detail
Mool Sutra: कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।

Translated Sutra: कामानुगृद्धि ही दुःख की जननी है, इसीसे इहलोक में या देवलोक में जितने भी शारीरिक व मानसिक दुःख हैं, वीतरागी उन सबका अन्त कर देते हैं। अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने के कारण उन्हें कामनाजन्य दुःख नहीं रहता।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

7. निर्विचिकित्सत्व (अस्पृश्यता-निवारण) Hindi 58 View Detail
Mool Sutra: जो ण करेदि जुगुप्पं, चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। सो खलु णिव्विदिगिंच्छो, सम्माद्दिट्ठी मुणेयव्वा ।।

Translated Sutra: जो जीव वस्तु के मनोज्ञामनोज्ञ धर्मों में अथवा व्यक्ति के कुल, जाति व सम्प्रदाय आदि रूप विविध धर्मों में ग्लानि नहीं करता, उसे विचिकित्साविहीन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

8. अमूढ़दृष्टित्व (स्व-धर्म-निष्ठा) Hindi 60 View Detail
Mool Sutra: मायावुइममेयं तु, मुसाभासा णिरत्थिया। संजममाणो वि अहं, वसामि इरियामि य ।।

Translated Sutra: (अपने-अपने पक्ष का पोषण करने में रत अनेक मत-मतान्तर लोक में प्रचलित हैं) ये सब मायाचारी हैं और इनकी वाणी मिथ्या व निरर्थक हैं। उनके कथन को सुनकर भी मैं भ्रम में नहीं पड़ता। संयम में स्थित रहता हूँ तथा यतनापूर्वक चलता हूँ।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

9. उपगूहनत्व (अनहंकारत्व) Hindi 63 View Detail
Mool Sutra: विरलो अज्जदि पुण्णं, सम्मदिट्ठी वएहिं संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो, णिंदण गरहाहि संजुत्तो ।।

Translated Sutra: व्रत, संयम आदि से युक्त कोई विरला सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसे पुण्य का उपार्जन करता है कि उपशम भाव में स्थित रहता हुआ सदा अपने दोषों के लिए आत्म-निन्दन व आत्म-गर्हण करता है।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) Hindi 64 View Detail
Mool Sutra: नो सक्कियमिच्छई न पूयं, नो वि य वंदणगं कुओ पसंसं? से संजए सव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ।।

Translated Sutra: जो सत्कार तथा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करता, नमस्कार तथा वन्दना आदि की भावना नहीं करता, उसके लिए प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही कहाँ? वह संयत है, सुव्रत है, तपस्वी है, आत्म-गवेषक है और वही भिक्षु है।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) Hindi 66 View Detail
Mool Sutra: घोडगलिंडसमाणस्स, तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स। बाहिरकरणं किं से, काहिदि वगणिहुदकरणस्स ।।

Translated Sutra: बगुले की चेष्टा के समान अन्तरंग में जो कषाय से मलिन है, ऐसे साधु की बाह्य क्रिया किस काम की? वह तो घोड़े की लीद के समान है, जो ऊपर से चिकनी और भीतर से दुर्गन्धयुक्त होती है।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) Hindi 68 View Detail
Mool Sutra: तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम! मा पमायए ।।

Translated Sutra: तू इस विशाल संसार-सागर को तैर चुका है। (गोखुर में डूबने की भाँति) अब किनारा हाथ आ जाने पर भी (झूठी मान-प्रतिष्ठा मात्र के लिए) क्यों अटक रहा है? शीघ्र पार हो जा। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

16. भाव-संशुद्धि Hindi 76 View Detail
Mool Sutra: मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ।।

Translated Sutra: लोकालोकदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने, भव्यों के मद मान माया व लोभविवर्जित निर्मल भाव को भाव-शुद्धि कहा है।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

8. अध्यात्मज्ञान के लिंग Hindi 95 View Detail
Mool Sutra: णासीले ण विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ।।

Translated Sutra: अशील न हो अर्थात् सुशील हो, बार-बार आचार को बदलनेवाला विशील न हो, रसलोलुप तथा क्रोधी न हो, सत्यपरायण हो। इन गुणों से व्यक्ति शिक्षाशील कहलाता है।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

10. अनित्य व अशरण संसार Hindi 101 View Detail
Mool Sutra: अम्भोबुद्बुदसंनिभा तनुरियं, श्रीरिन्द्रजालोपमा। दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः, कान्तार्थपुत्रादयः ।।

Translated Sutra: यह शरीर जलबुद्बुद के समान अनित्य है तथा लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान चंचल। स्त्री, धन व पुत्रादि आँधी से आहत जल-प्रवाहवत् अति वेग से नाश की ओर दौड़े जा रहे हैं। वैषयिक सुख काम से मत्त स्त्री की भाँति तरल हैं अर्थात् विश्वास के योग्य नहीं हैं। इसलिए समस्त उपद्रवों के स्थानभूत इनके विषय में शोक करने से क्या लाभ है?
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

10. अनित्य व अशरण संसार Hindi 102 View Detail
Mool Sutra: सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं, मत्तांगनापाङ्गवत्। तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये, शोकेन किं किं मुदा ।।

Translated Sutra: कृपया देखें १०१; संदर्भ १०१-१०२
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

14. लोक-स्वरूप चिन्तन Hindi 111 View Detail
Mool Sutra: असुहेण णिरय तिरियं, सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं। सुद्धेण लहइ सिद्धिं, एवं लोयं विचिंतिज्जो ।।

Translated Sutra: अशुभ उपयोग से नरक व तिर्यंच लोक की प्राप्ति होती है, शुभोपयोग से देवों व मनुष्यों के सुख मिलते हैं, और शुद्धोपयोग से मोक्षलाभ होता है। इस प्रकार लोक-भावना का चिन्तवन करना चाहिए।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

15. बोधि-दुर्लभ भावना Hindi 112 View Detail
Mool Sutra: माणुस्सं विग्गहं लद्धुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिमहिंसयं ।।

Translated Sutra: (चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कषाय-विजय व अहिंसादि युक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

15. बोधि-दुर्लभ भावना Hindi 113 View Detail
Mool Sutra: आहच्च सवणं लद्धुं, सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ।।

Translated Sutra: कदाचित् धर्म-श्रवण का लाभ हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा होना दुर्लभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रूप इस न्याय-मार्ग को सुनकर भी अनेक व्यक्ति (श्रद्धायुक्त चारित्र अंगीकार करने के बजाय ज्ञानाभिमानवश स्वच्छन्द व) पथ-भ्रष्ट होते देखे जाते हैं।
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

15. बोधि-दुर्लभ भावना Hindi 114 View Detail
Mool Sutra: सुइं च लद्धुं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं। बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ।।

Translated Sutra: और यदि बड़े भाग्य से सुनकर श्रद्धा हो जाय तो भी चारित्र पालने के लिए वीर्योल्लास का होना दुर्लभ है। क्योंकि अनेक व्यक्ति सद्धर्म का ज्ञान व रुचि होते हुए भी उसका आचरण करने में समर्थ नहीं होते हैं।
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

6. समता-सूत्र (स्थितप्रज्ञता) Hindi 127 View Detail
Mool Sutra: लाहालाहे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो णिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ।।

Translated Sutra: लाभ व अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरण में, निन्दा व प्रशंसा में तथा मान व अपमान में भिक्षु सदा समता रखे। (यही साधु का सामायिक नामक चारित्र है।)
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

6. समता-सूत्र (स्थितप्रज्ञता) Hindi 128 View Detail
Mool Sutra: जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ।।

Translated Sutra: समाधि का इच्छुक तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष भी न करे।
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

7. वैराग्य-सूत्र (संन्यास-योग) Hindi 132 View Detail
Mool Sutra: भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। ण लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।।

Translated Sutra: जो व्यक्ति भाव से विरक्त है, और दुःखों की परम्परा के द्वारा जिसके चित्त में मोह व शोक उत्पन्न नहीं होता है, वह इस संसार में रहते हुए भी, उसी प्रकार अलिप्त रहता है, जिस प्रकार जल के मध्य कमलिनी का पत्ता।
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

8. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) Hindi 137 View Detail
Mool Sutra: सो वि परीसहविजओ, छुहाइ-पीडाण-अइ-रउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं, उवसमभावेण जं सहणं ।।

Translated Sutra: अत्यन्त दारुण क्षुधा आदि की वेदना को जो ज्ञानी मुनि शान्त भाव से सहन करता है, उसे परीषहजय कहते हैं।
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग]

1. व्यवहार-चारित्र निर्देश Hindi 139 View Detail
Mool Sutra: असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणयादु जिण भणियं ।।

Translated Sutra: अशुभ कार्यों से निवृत्ति तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति, यह व्यवहार नय से चारित्र का लक्षण है। वह पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार का है।
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग]

5. अप्रमाद-सूत्र Hindi 155 View Detail
Mool Sutra: वित्तेण ताणं ण लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुआ परत्था। दीवप्पणट्ठे व अणंतमोहे नेयाउयं दट्ठुमदट्ठुमेव ।।

Translated Sutra: प्रमादी पुरुष इस लोक में या परलोक में धन-ऐश्वर्य आदि से संरक्षण नहीं पाता। जिसका अभ्यन्तर दीपक बुझ गया है, ऐसा अनन्त मोहवाला प्रमत्त प्राणी न्यायमार्ग को देखकर भी देख नहीं पाता है। (अर्थात् शास्त्रों से जानकर भी जीवन में उसका अनुभव कर नहीं पाता है।)
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग]

5. अप्रमाद-सूत्र Hindi 158 View Detail
Mool Sutra: सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिय आसुपन्ने। घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्तो ।।

Translated Sutra: कर्तव्याकर्तव्य का शीघ्र ही निर्णय कर लेनेवाले तथा धर्म के प्रति सदा जागृत रहनेवाले पण्डित जन, आत्महित के प्रति सुप्त संसारी जीवों का कभी विश्वास नहीं करते। काल को भयंकर और शरीर को निर्बल जानकर वे सदा भेरण्ड पक्षी की भाँति सावधान रहते हैं।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

3. अहिंसा-सूत्र Hindi 166 View Detail
Mool Sutra: रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये। तेसिं चेदुप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठा ।।

Translated Sutra: रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में `अहिंसा' कहा गया है। और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?]
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

4. सत्य-सूत्र Hindi 169 View Detail
Mool Sutra: पत्थं हिदयाणिट्ठं पि, भण्णमाणस्स सगणवासिस्स। कडुगं व ओसहं तं, महुरविवायं हवइ तस्स ।।

Translated Sutra: हे मुनियो! तुम अपने संघवालों के साथ हितकर वचन बोलो। यदि कदाचित् वे हृदय को अप्रिय भी लगें, तो भी कोई हर्ज नहीं। क्योंकि कटुक औषधि भी परिणाम में मधुर व कल्याणकर ही होती है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

6. ब्रह्मचर्य-सूत्र Hindi 175 View Detail
Mool Sutra: एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा। जहा महासायरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार महासागर को तिर जाने वाले के लिए गंगा नदी का तिरना अति सुलभ है, उसी प्रकार स्त्री-संग के त्यागी महात्मा के लिए अन्य सर्व त्याग सरल हो जाते हैं।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

7. परिग्रह-त्याग-सूत्र Hindi 176 View Detail
Mool Sutra: न कामभोगा समयं उवेंति न यावि भोगा विगइं उवेंति। जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ।।

Translated Sutra: काम-भोग अपने आप न किसी में समता उत्पन्न करते हैं और न रागद्वेष रूप विषमता। मनुष्य स्वयं उनके प्रति रागद्वेष करके उनका स्वामी व भोगी बन जाता है, और मोहवश विकार-ग्रस्त हो जाता है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

7. परिग्रह-त्याग-सूत्र Hindi 178 View Detail
Mool Sutra: सामिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं णिरामिसं। आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामि णिरामिसा ।।

Translated Sutra: एक पक्षी के मुँह में मांस का टुकड़ा देखकर दूसरे अनेक पक्षी उस पर टूट पड़ते हैं, किन्तु मांस का टुकड़ा छोड़ देने पर वह सुखी हो जाता है। इसी प्रकार दीक्षार्थी साधु भी समस्त परिग्रह को छोड़कर निरामिष हो जाता है। (परिग्रह के कारण से उत्पन्न होने वाले अनेक विघ्न व संकट, परिग्रह का त्याग कर देने से सहज टल जाते हैं।)
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 191 View Detail
Mool Sutra: इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अट्ठमा ।।

Translated Sutra: (चलने बोलने खाने आदि में यत्नाचार पूर्वक बरतना समिति कहलाती है।) वह पाँच प्रकार की है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार प्रतिष्ठापन। मन वचन व काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं। पंच समितियाँ तो चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्ति परक हैं और गुप्तियाँ समस्त अशुभ व्यापारों के प्रति निवृत्तिपरक हैं। संदर्भ
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 192 View Detail
Mool Sutra: एयाओ पंचसमिईओ, चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो ।।

Translated Sutra: कृपया देखें १९१; संदर्भ १९१-१९२
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 193 View Detail
Mool Sutra: फासुयमग्गेण दिवा, जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण। जंतूण परिहरंति, इरियासमिदी हवे गमणं ।।

Translated Sutra: जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासुक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। (कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 194 View Detail
Mool Sutra: पेसुण्णहासकक्कस-परणिंदाप्पप्पसंसाविकहादी। वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी हवे कहणं ।।

Translated Sutra: (किसीको मेरे वचन से कोई पीड़ा न पहुँचे, इस उद्देश्य से साधु)- पैशून्य, उपहास, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, राग-द्वेष-वर्धक चर्चाएँ, आदि स्व-पर अनिष्टकारी जितने भी वचन हो सकते हैं, उन सबका त्याग करके, प्रयत्नपूर्वक स्व-पर हितकारी ही वचन बोलता है। यही उसकी भाषा समिति है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 196 View Detail
Mool Sutra: चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई। आइये निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया ।।

Translated Sutra: साधु के पास अन्य तो कोई परिग्रह होता ही नहीं। संयम व शौच के उपकरणभूत रजोहरण, कमण्डलु, पुस्तक आदि मात्र होते हैं। उन्हें उठाते-धरते समय वह स्थान को भली प्रकार झाड़ लेता है, ताकि उनके नीचे दबकर कोई क्षुद्र जीव मर न जाय। उसकी यह यतना ही आदान निक्षेपण समिति कहलाती है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 197 View Detail
Mool Sutra: एगंते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे। उच्चारादिच्चाओ, पदिठावणिया हवे समिदी ।।

Translated Sutra: [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

11. गुप्ति (आत्म-गोपन सूत्र) Hindi 198 View Detail
Mool Sutra: जा रायादिणियत्ती, मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्ती वा, मोणं वा होदि वचिगुत्ती ।।

Translated Sutra: मन का राग-द्वेष से निवृत्त होकर (समताभाव में स्थित हो जाना) मनोगुप्ति है। असत्य व अनिष्टकारी वचनों की निवृत्ति अथवा मौन वचन-गुप्ति है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

11. गुप्ति (आत्म-गोपन सूत्र) Hindi 199 View Detail
Mool Sutra: कायकिरियाणियत्ती, काओसग्गे सरीरगुत्ती। हिंसादिणियत्ती वा, सरीरगुत्ती हवदि एसा ।।

Translated Sutra: समस्त कायिकी क्रियाओं की निवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग निश्चय काय-गुप्ति है और हिंसा-असत्य आदि पाप-क्रियाओं की निवृत्ति व्यवहार काय-गुप्ति है।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

1. तपोग्नि-सूत्र Hindi 207 View Detail
Mool Sutra: तस्माद्वीर्य समुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः। बाह्य वाक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ।।

Translated Sutra: आत्म-बल का उद्रेक हो जाने के कारण योगी की समस्त इच्छाएँ निरुद्ध हो जाती हैं। उसे ही परमार्थतः तप जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता है- बाह्य व आभ्यन्तर। कायिक व वाचसिक तप बाह्य है और मानसिक आभ्यन्तर।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

3. विविक्त देश-सेवित्व Hindi 210 View Detail
Mool Sutra: लोइयजणसंगादो, होइ मइमुहरकुडिलदुब्भावो। लोइयसंगं तम्हा, जोइ वि तिविहेण मुंचाओ ।।

Translated Sutra: लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाला वतक्कड़, कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से प्रायः अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए, मुमुक्षु जनों को मन वचन काय से लौकिक संगति का त्याग कर देना चाहिए।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

3. विविक्त देश-सेवित्व Hindi 211 View Detail
Mool Sutra: एगंतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ।।

Translated Sutra: जहाँ किसी का आना-जाना न हो, विशेषतः स्त्री व पशु के संसर्ग से वर्जित हो, ऐसे शून्य व निर्जन स्थान में रहना अथवा सोना-बैठना आदि विविक्त शय्यासन नाम का पंचम तप है।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

4. कायक्लेश तप (हठ-योग) Hindi 212 View Detail
Mool Sutra: ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा। उग्गा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं तमाहियं ।।

Translated Sutra: [आत्मबल की वृद्धि के तथा शरीर पर से ममत्व भाव का त्याग करने के अर्थ] योगीजन वीरासन, कुक्कुट आसन, शवासन आदि विविध प्रकार के उत्कट व उग्र आसनों को धारण करके धूप शीत या वर्षा में निर्भय व निश्चल बैठे या खड़े रहते हैं। यही कायक्लेश नामक छठा बाह्य तप है। (अब क्रम से प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर या मानसिक तपों का कथन किया जाता
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

5. प्रायश्चित्त तप Hindi 214 View Detail
Mool Sutra: आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं। जे भिक्खू वहई सम्मं, पायच्छित्तं तमाहियं ।।

Translated Sutra: अपने दोषों के शोधनार्थ जो भिक्षु गुरु के समक्ष दोषों की निष्कपट आलोचना करता है, और गुरुप्रदत्त दण्ड को सविनय अंगीकार करता है, अथवा प्रायश्चित्त के शास्त्रोक्त दश भेदों का सम्यक्रीत्या पालन करता है, उसको प्रायश्चित्त नामक तप होता है।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

5. प्रायश्चित्त तप Hindi 215 View Detail
Mool Sutra: कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि, तनू भवन्त्यात्मविगर्हणेन। प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषा- मत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ।।

Translated Sutra: अपनी निन्दा व गर्हा करने से तथा गुरु के समक्ष दोषों का प्रकाशन करने मात्र से किये गये अति दारुण कर्म भी कृश हो जाते हैं।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

6. विनय तप Hindi 216 View Detail
Mool Sutra: अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं। गुरुभत्ति भावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ।।

Translated Sutra: गुरुजनों के आने पर खड़े हो जाना, हाथ जोड़ना, उन्हें बैठने के लिए उच्चासन देना, उनकी भक्ति तथा भावसहित सेवा-सुश्रूषा करना, ये सब विनय नामक आभ्यन्तर तप के लिंग हैं।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) Hindi 219 View Detail
Mool Sutra: सेज्जागासणिसेज्जा-उवधीपडिलेहणा उवग्गहिदे। आहारो सहवायण, विकिंचणुव्वत्तणादीसु ।।

Translated Sutra: (इन दो गाथाओं में गुरु-सेवा के विविध लिंगों का कथन है।) वृद्ध व ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने व बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार व औषध आदि देकर उनका उपकार करना, उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें शास्त्र पढ़कर सुनाना, अशक्त हों तो उनका मैला उठाना, उन्हें करवट दिलाना, सहारा देकर बैठाना
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) Hindi 220 View Detail
Mool Sutra: उद्धाण तेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे। वेज्जावच्चं उत्तं, संगहणारक्खणोवेदं ।।

Translated Sutra: कृपया देखें २१९; संदर्भ २१९-२२०
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग)

1. आदर्श मरण Hindi 234 View Detail
Mool Sutra: चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मण्णमाणो। लाभंतरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी ।।

Translated Sutra: योगी को चाहिए कि वह चारित्र में दोष लगने के प्रति सतत् शंकित रहे, और लोक के थोड़े से भी परिचय को बन्धन मानकर स्वतंत्र विचरे। जब तक रत्नत्रय के लाभ की किंचिन्मात्र भी सम्भावना हो तब तक जीने की बुद्धि रखे अर्थात् शरीर की सावधानी से रक्षा करे, और जब ऐसी आशा न रह जाय, तब इस शरीर को ज्ञान व विवेकपूर्वक त्याग दे।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 242 View Detail
Mool Sutra: (क) धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।

Translated Sutra: वस्तु का स्वभाव धर्म है। (प्रकृत में समता आत्मा का स्वभाव होने से वह उसका धर्म है।) उत्तम क्षमा आदि दश, सम्यग्दर्शनादि तीन तथा जीवों की रक्षा (उपलक्षण से अहिंसा आदि पाँच तथा अन्य भी पूर्वोक्त संयम के अंग) ये सब धर्म हैं अर्थात् उस समतामयी स्वभाव के विविध अंग या लिंग हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 244 View Detail
Mool Sutra: सद्धं णगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं। खंतिं णिउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ।।

Translated Sutra: श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गुप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 251 View Detail
Mool Sutra: ण बलाउसाउअट्ठं, ण सरीरस्सुवचयट्ठं तेजट्ठं। णाणट्ठं संजमठ्ठं, झाणट्ठं चेव भुंजेज्जो ।।

Translated Sutra: साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

5. गुरु-उपासना Hindi 260 View Detail
Mool Sutra: जे केइ वि उवएसा, इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा ।।

Translated Sutra: इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं।
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