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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-३ अप्काय Hindi 27 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अदुवा अदिन्नादानं।

Translated Sutra: जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान भी है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-३ अप्काय Hindi 28 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए।

Translated Sutra: हमें कल्पता है। अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के लिए जल ले सकते हैं। ‘हम पीने तथा नहाने के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं।’
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-३ अप्काय Hindi 29 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पुढो सत्थेहिं विउट्टंति।

Translated Sutra: इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-३ अप्काय Hindi 30 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थवि तेसिं नो णिकरणाए।

Translated Sutra: अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय ही हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-३ अप्काय Hindi 31 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं उदय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं उदय-सत्थं समारंभावेज्जा, उदय-सत्थं समारंभंतेवि अन्ने न समणुजाणेज्जा। जस्सेते उदय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णात-कम्मे।

Translated Sutra: जो यहाँ, शस्त्र – प्रयोग कर जलकाय के जीवों का समारम्भ करता है, वह इन आरंभों से अनभिज्ञ है। जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र – प्रयोग नहीं करता, वह आरंभों का ज्ञाता है, वह हिंसा – दोष से मुक्त होता है। बुद्धिमान मनुष्य यह जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करे, दूसरों से न करवाए, उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसको
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-४ अग्निकाय Hindi 32 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से बेमि’–नेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं अब्भाइक्खवइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ।

Translated Sutra: मैं कहता हूँ – वह कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का, अपलाप न करे। न अपनी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करे। क्योंकि जो लोक (अग्निकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-४ अग्निकाय Hindi 34 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] वीरेहिं एयं अभिभूय दिट्ठं, संजतेहिं सया जतेहिं सया अप्पमत्तेहिं

Translated Sutra: वीरों ने, ज्ञान – दर्शनावरण आदि कर्मों को विजय कर यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है। वे वीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-४ अग्निकाय Hindi 38 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि– अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।(जाव) अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। से बेमि– संति पाणा पुढवि- निस्सिया, तण- निस्सिया, पत्त- निस्सिया, कट्ठ- निस्सिया, गोमय- निस्सिया, कयवर- निस्सिया। संति संपातिमा पाणा, आहच्च संपयंति य। अगणिं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जंति। जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति। जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायंति।

Translated Sutra: मैं कहता हूँ – बहुत से प्राणी – पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कूड़ा – कचरा आदि के आश्रित रहते हैं। कुछ सँपातिम प्राणी होते हैं जो उड़ते – उड़ते नीचे गिर जाते हैं। ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त होते हैं। शरीर का संघात होने पर अग्नि की उष्मा से मूर्च्छित हो जाते हैं। बाद में मृत्यु को प्राप्त
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-४ अग्निकाय Hindi 39 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं अगणि-सत्थे समारंभावेज्जा, अगणि-सत्थं समारंभमाणे अन्ने न समणुजाणेज्जा। जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे।

Translated Sutra: जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र – प्रयोग करता है, वह इन आरंभ – समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है। जो अग्निकाय पर शस्त्र – समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह आरंभ का ज्ञाता हो जाता है। जिसने यह अग्नि – कर्म – समारंभ भली भाँति समझ लिया है, वही मुनि है, वही परिज्ञात – कर्मा है। ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-६ त्रसकाय Hindi 51 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं। सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति बेमि। तसंति पाणा पदिसोदिसासु य।

Translated Sutra: सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता और अपरिनिर्वाण ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं। मैं ऐसा कहता हूँ। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब ओर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-६ त्रसकाय Hindi 54 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे। अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। से बेमि–अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति, अप्पेगे नहाए वहंति, अप्पेगे ण्हारुणीए वहंति, अप्पेगे अट्ठीए वहंति, अप्पेगे अट्ठिमिंजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणुट्ठाए

Translated Sutra: मैं कहता हूँ – कुछ मनुष्य अर्चा के लिए जीवहिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य चर्म के लिए, माँस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूँछ, केश, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ प्रयोजन – वश, कुछ निष्प्रयोजन ही जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-६ त्रसकाय Hindi 55 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं तसकाय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं तसकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेतसकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते तसकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे।

Translated Sutra: जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरंभ (आरंभजनित कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित है। यह जानकर बुद्धिमान्‌ मनुष्य स्वयं त्रसकाय – शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। जिसने त्रसकाय –
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-७ वायुकाय Hindi 60 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे। अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। से बेमि–संति संपाइमा पाणा, आहच्च संपयंति य। फरिसं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जंति। जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायंति। एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं वाउ-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं वाउ-सत्थ समारंभावेज्जा, नेवन्नेवाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया

Translated Sutra: मैं कहता हूँ – संपातिम – प्राणी होते हैं। वे वायु से प्रताड़ित होकर नीचे गिर जाते हैं। वे प्राणी वायु का स्पर्श होने से सिकुड़ जाते हैं। जब वे वायु – स्पर्श से संघातित होते हैं, तब मूर्च्छित हो जाते हैं। जब वे जीव मूर्च्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं। जो वहाँ वायुकायिक जीवों का समारंभ करता है, वह
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा

उद्देशक-७ वायुकाय Hindi 62 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं। तं णोअन्नेसिं। तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेछज्जीवणिकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते छज्जीव-णिकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे।

Translated Sutra: वह वसुमान्‌ (ज्ञान – दर्शन – चारित्र – रूप धनयुक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तः करण से पापकर्म को अकरणीय जाने, तथा उस विषय में अन्वेषण भी न करे। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट्‌ – जीवनिकाय का समारंभ न करे। दूसरों से समारंभ न करवाए। समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसने षट्‌
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-१ स्वजन Hindi 63 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे। इति से गुणट्ठी महता परियावेणं वसे पमत्ते– माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयण-संगंथ-संथुया मे, विवित्तोवगरण-परियट्टण-भोयण-अच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए– वसे पमत्ते। अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकाल-समुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विणि-विट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो। अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं, तं जहा–

Translated Sutra: जो गुण (इन्द्रियविषय) हैं, वह (कषायरुप संसार का) मूल स्थान है। जो मूल स्थान है, वह गुण है। इस प्रकार विषयार्थी पुरुष, महान परिताप से प्रमत्त होकर, जीवन बीताता है। वह इस प्रकार मानता है, ‘‘मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्र – वधू है, मेरा सखा –
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-१ स्वजन Hindi 65 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा। नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। से न हस्साए, न किड्डाए, न रतीए, न विभूसाए।

Translated Sutra: वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं। बाद में वह भी उन स्वजनों की निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू भी उन्हें त्राण, या शरण देने में समर्थ नहीं है। वह वृद्ध पुरुष, न हँसी – विनोद के योग्य रहता
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-१ स्वजन Hindi 68 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाणं भोयणाए। तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति। जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया नियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा। नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा।

Translated Sutra: (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित – संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है। उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग के लिए उपयोग में लेता है। (प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। जिन स्वजन – स्नेहीयों के साथ वह रहता आया है, वे
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-१ स्वजन Hindi 69 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं।

Translated Sutra: प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख। अपनाअपना है, यह जानकर (आत्मद्रष्टा बने)। सूत्र – ६९, ७०
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-१ स्वजन Hindi 72 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जाव- सोय-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव नेत्त-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव घाण-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव जीह-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव फास-पण्णाणा अपरिहीणा। इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयट्ठं सम्मं समणुवासिज्जासि।

Translated Sutra: जब तक श्रोत्र – प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र – प्रज्ञान, घ्राण – प्रज्ञान, रसना – प्रज्ञान और स्पर्श – प्रज्ञान परिपूर्ण हैं, तब तक – इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्महित के लिए सम्यक्‌ प्रकार से प्रयत्नशील बने। ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-२ अद्रढता Hindi 74 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अणाणाए पुट्ठा ‘वि एगे’ नियट्टंति। मंदा मोहेण पाउडा। ‘अपरिग्गहा भविस्सामो’ समुट्ठाए, लद्धे कामेहिगाहंति। अणाणाए मुनिनो पडिलेहंति। एत्थ मोहे पुनो पुनो सण्णा। नो हव्वाए नो पाराए।

Translated Sutra: अनाज्ञा में – (वीतराग विहित – विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोई – कोई संयम – जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं। वे मंदबुद्धि – अज्ञानी मोह से आवृत्त रहते हैं। कुछ व्यक्ति – ‘हम अपरिग्रही होंगे’ – ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम – सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग उपस्थित
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-३ मदनिषेध Hindi 79 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] समिते एयाणुपस्सी। तं जहा–अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं। सहपमाएणं अनेगरूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ।

Translated Sutra: यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर। जो समित है वह इसको देखता है। जैसे – अन्धापन, बहरा – पन, गूँगापन, कानापन, लूला – लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों – दुखों का अनुभव
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-३ मदनिषेध Hindi 82 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नत्थि कालस्स नागमो। सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविनो जीविउकामा। सव्वेसिं जीवियं पियं। तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजियाणं संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ– अप्पा वा बहुगा वा। से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए। तओ से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवइ। तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, नस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ। इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ। मुनिणा हु एयं पवेइयं। अनोहंतरा एते, नोय ओहं तरित्तए । अतीरंगमा

Translated Sutra: काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी क्षण आ सकती है। सब को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते हैं। दुःख से धबराते हैं। वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं। सब को जीवन प्रिय है। वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद और चतुष्पद का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनको कार्य में नियुक्त करता
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-४ भोगासक्ति Hindi 84 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति। जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियया पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा। नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं। भोगामेव अणुसोयंति। इहमेगेसिं माणवाणं।

Translated Sutra: तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ – संग्रही मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग – उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व – जन एकदा उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-४ भोगासक्ति Hindi 85 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइ–अप्पा वा बहुगा वा। से तत्थ गढिए चिट्ठति, भोयणाए। ततो से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवति। तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा डज्झइ। इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ।

Translated Sutra: यहाँ पर कुछ मनुष्यों को अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ – मात्रा हो जाती है। वह फिर उस अर्थ – मात्रा में आसक्त होता है। भोग के लिए उसकी रक्षा करता है। भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान्‌ वैभव वाला बन जाता है। फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-४ भोगासक्ति Hindi 86 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु। जेण सिया तेण णोसिया। इणमेव नावबुज्झंति, जेजना मोहपाउडा। थीभि लोए पव्वहिए। ते भो वयंति–एयाइं आयतणाइं। से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरग-तिरिक्खाए। उदाहु वीरे– अप्पमादो महामोहे। अलं कुसलस्स पमाएणं। संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए। नालं पास। अलं ते एएहिं।

Translated Sutra: हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता त्याग दे। उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जिस भोगसामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है। जो मनुष्य मोहकी सघनतासे आवृत हैं, ढ़ंके हैं, वे इस तथ्य को कि पौद्‌गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षण – भंगुर हैं, तथा वे ही शल्य नहीं जानते यह
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-५ लोकनिश्रा Hindi 88 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जमिणं विरूवरूवेहिं ‘सत्थेहिं लोगस्स कम्म-समारंभा’ कज्जंति, तं जहा–अप्पनो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायरासाए। सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए।

Translated Sutra: असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए कर्म समारंभ करते हैं। जैसे – अपने लिए, पुत्र, पुत्री, पुत्र – वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास – दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रातःकालीन भोजन के लिए। इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-५ लोकनिश्रा Hindi 90 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अदिस्समाणे कय-विक्कएसु। से न किणे, न किनावए, किणंतं न समणुजाणइ। से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खेयण्णे खणयण्णे विणयण्णे समयण्णे भावण्णे, परिग्गहं अममायमाणे, कालेणुट्ठाइ, अपडिण्णे

Translated Sutra: वह वस्तु के क्रय – विक्रय में संलग्न न हो। न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे। वह भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-५ लोकनिश्रा Hindi 92 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] लद्धे आहारे अनगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं। लाभो त्ति न मज्जेज्जा। अलाभो त्ति न सोयए। बहुं पि लद्धुं न णिहे। परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा।

Translated Sutra: आहार प्राप्त होने पर, आगम के अनुसार, अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए। ईच्छित आहार आदि प्राप्त होने पर उसका मद नहीं करे। यदि प्राप्त न हो तो शोक न करे। यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो, तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से स्वयं को दूर रखे।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-५ लोकनिश्रा Hindi 96 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी। मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए। कासकंसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई, कडेण मूढे पुनो तं करेइ लोभं। वेरं वड्ढेति अप्पणो। जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवूहणयाए। अमरायइ महासड्ढी। अट्ठमेतं पेहाए। अपरिण्णाए कंदति।

Translated Sutra: वह मतिमान्‌ साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्यागकर लार को न चाटे। अपने को तिर्यक्‌मार्ग में, (कामभोग के बीच में) न फँसाए। यह पुरुष सोचता है – मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूँगा (इस प्रकार) वह दूसरों को ठगता है, माया – कपट रचता है, और फिर अपने रचे मायाजाल में स्वयं फँसकर मूढ़ बन जाता है। वह मूढ़भाव से ग्रस्त फिर लोभ करता
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-५ लोकनिश्रा Hindi 97 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से तं जाणह जमहं बेमि’। ‘तेइच्छं पंडिते’ पवयमाणे। से हंता ‘छेत्ता भेत्ता’ ‘लुंपइत्ता विलुंपइत्ता’ उद्दवइत्ता। अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे। जस्स वि य णं करेइ। अलं बालस्स संगेणं। जे वा से कारेइ बाले। ‘न एवं’ अणगारस्स जायति।

Translated Sutra: तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा – पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा में प्रवृत्त होते हैं। वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण – वध करता है। ‘जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूँगा,’ यह मानता हुआ (जीव – वध करता है)। जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव – वध में सहभागी होता है)। (इस
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ लोकविजय

उद्देशक-६ अममत्त्व Hindi 99 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सिया से एगयरं विप्परामुसइ, छसु अन्नयरंसि कप्पति। सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति। सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति। जंसिमे पाणा पव्वहिया। पडिलेहाए णोणिकरणाए। एस परिण्णा पवुच्चइ। कम्मोवसंती।

Translated Sutra: कदाचित्‌ किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छहों जीव – कायों में (सभी का) समारंभ कर सकता है। वह सुख का अभिलाषी, बार – बार सुख की ईच्छा करता है, (किन्तु) स्व – कृत कर्मों के कारण, मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-१ भावसुप्त Hindi 110 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं। समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए। जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति...

Translated Sutra: इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे। जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक्‌ प्रकार से परिज्ञात किया है – (जो उनमें रागद्वेष न करता हो)। वह आत्मवान्‌, ज्ञानवान्‌, वेदवान्‌, धर्मवान्‌ और ब्रह्मवान्‌ होता है। जो पुरुष
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-१ भावसुप्त Hindi 113 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए। मंता एयं मइमं! पास। आरंभजं दुक्खमिणं ति नच्चा। माई पमाई पुनरेइ गब्भं। उवेहमानो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति। अप्पमत्तो कामेहिं, उवरतो पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते ‘जे खेयण्णे’। जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे। अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ। कम्मुणा उवाही जायइ। कम्मं च पडिलेहाए।

Translated Sutra: (सुप्त) मनुष्यों को दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे। हे मतिमान्‌ ! तू मननपूर्वक इन (दुखियों) को देख। यह दुःख आरम्भज है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से आत्महित में प्रवृत्त रह)। मया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य बार – बार जन्म लेता है। शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है, वह
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-२ दुःखानुभव Hindi 115 Gatha Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] जातिं च वुड्ढिं च इहज्ज! पासे। भूतेहिं जाणे पडिलेह सातं। तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा, समत्तदंसी न करेति पावं॥

Translated Sutra: हे आर्य ! तू इस संसार में जन्म और बुद्धि को देख। तू प्राणियों को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर। इससे त्रैविद्य या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है)। समत्वदर्शी पाप नहीं करता।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-२ दुःखानुभव Hindi 117 Gatha Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मन्नति । अलं बालस्स संगेण, वेरं वड्ढेति अप्पनो

Translated Sutra: वह (काम – भोगासक्त मनुष्य) हास्य – विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बाल – अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 125 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] संधिं लोगस्स जाणित्ता। आयओ बहिया पास। तम्हा न हंता न विघायए। जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुनी कारणं सिया?

Translated Sutra: साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि समझकर प्रमाद करना उचित नहीं है। अपनी आत्मा के समान बाह्य – जगत को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए। जो परस्पर एक – दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 126 Gatha Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए। अनन्नपरमं नाणी, नोपमाए कयाइ वि ॥ आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाए जावए । विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा॥

Translated Sutra: इस स्थिति में (मुनि) समता की द्रष्टि से पर्यालोचन करके आत्मा को प्रसाद रखे। ज्ञानी मुनि अनन्य परम के प्रति कदापि प्रमाद न करे। वह साधक सदा आत्मगुप्त और वीर रहे, वह अपनी संयम – यात्रा का निर्वाह परिमित आहार से करे। वह साधक छोटे या बड़े रूपों – (द्रश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 130 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] का अरई? के आनंदे? एत्थंपि अग्गहे चरे। सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीण-गुतो परिव्वए ॥ पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि?

Translated Sutra: उस (धूत – कल्प)योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द है? वह इस विषय में बिलकुल ग्रहण रहित होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य आदि त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन – वचन – काया को तीन गुप्तियों से गुप्त करते हुए विचरण करे। हे पुरुष ! तू ही मेरा मित्र है, फिर बाहर अपने से भिन्न मित्र क्यों ढूँढ़ रहा है ?
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 131 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥ पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि। पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि। सच्चस्स आणाए ‘उवट्ठिए से’ मेहावी मारं तरति। सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति।

Translated Sutra: जिसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर अत्यन्त दूर समझो, जिसे अत्यन्त दूर समझते हो उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो। हे पुरुष ! अपना ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है। सत्य
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-४ कषाय वमन Hindi 136 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। ‘जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे’। दुक्खं लोयस्स जाणित्ता। वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं । परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं ॥

Translated Sutra: प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है। साधक लोक के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे) वीर साधक लोक के संयोग का परित्याग कर महायान को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ सम्यक्वाद Hindi 140 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तं आइइत्तु न णिहे न निक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा। दिट्ठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा। नो लोगस्सेसणं चरे।

Translated Sutra: साधक उस (अर्हत्‌ भाषित – धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर (उसका आचरण करे)। (इष्ट – अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। वह लोकैषणा में न भटके।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ सम्यक्वाद Hindi 142 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अहो य राओ य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि।

Translated Sutra: (मोक्षमार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सतत प्रज्ञावान्‌, धीर साधक ! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं, (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (धर्म में) पराक्रम कर। ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा Hindi 143 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा – एए पए संबुज्झमाणे, लोयं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेइयं।

Translated Sutra: जो आस्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिस्रव – कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं, जो परिस्रव हैं, वे आस्रव हो जाते हैं, जो अनास्रव – व्रत विशेष हैं, वे भी अपरिस्रव – कर्म के कारण हो जाते हैं, (इसी प्रकार) जो अपरिस्रव, वे भी अनास्रव नहीं होते हैं। इन पदों को सम्यक्‌ प्रकार से समझने वाला तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा Hindi 146 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवंति केआवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति–से दिट्ठं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता’ हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा। एत्थ वि जाणह नत्थित्थ दोसो। अनारियवयणमेयं। तत्थ जे ते आरिया, ते एवं वयासी–से दुद्दिट्ठं च भ, दुस्सुयं च भ, दुम्मयं च भे, दुव्विण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जण्णं तुब्भे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं ‘परूवेह, एवं पण्णवेह’– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा,

Translated Sutra: इस मत – मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न – भिन्न मतवाद का प्रतिपादन करते हैं। जैसे की कुछ मतवादी कहते हैं – ‘हमने यह देख लिया है, सून लिया है, मनन कर लिया है और विशेष रूप से जान भी लिया है, ऊंची, नीची और तिरछी सब दिशाओं में सब तरह से भली – भाँति इसका निरीक्षण भी कर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-३ अनवद्यतप Hindi 148 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं। जहा जुण्णाइं कट्ठाइं, हव्ववाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे। विगिंच कोहं अविकंपमाणे।

Translated Sutra: यहाँ (अर्हत्प्रवचनमें) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित अनासक्त होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर को प्रकम्पित कर डाले। अपने कषाय – आत्मा को कृश करे, जीर्ण कर डाले। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालत है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्मा को शीघ्र जला डालता है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 150 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं। तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सया जए। दुरनुचरो मग्गो वीराणं अनियट्टगामीणं। विगिंच मंस-सोणियं। एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए । जे धुनाइ समुस्सयं, वसित्ता बंभचेरंसि ॥

Translated Sutra: मुनि पूर्व – संयोग का त्याग कर उपशम करके (शरीर का) आपीड़न करे, फिर प्रपीड़न करे और तब निष्पीड़न करे। मुनि सदा अविमना, प्रसन्नमना, स्वारत, समित, सहित और वीर होकर (इन्द्रिय और मन का) संयमन करे। अप्रमत्त होकर जीवन – पर्यन्त संयम – साधन करने वाले, अनिवृत्तगामी मुनियों का मार्ग अत्यन्त दुरनुचर होता है। (संयम और मोक्षमार्ग
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 151 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेत्तेहिं पलिछिन्नेहिं, आयाणसोय-गढिए बाले। अव्वोच्छिन्नबंधणे, अनभिक्कंतसंजोए। तमंसि अविजाणओ आणाए लंभो नत्थि

Translated Sutra: नेत्र आदि इन्द्रियों पर नियंत्रण का अभ्यास करते हुए भी जो पुनः कर्म के स्रोत में गृद्ध हो जाता है तथा जो जन्म – जन्मों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह – अन्धकार में निमग्न वह बाल – अज्ञानी मानव अपने आत्महित एवं मोक्षोपाय को नहीं जान पाता। ऐसे साधक को आज्ञा का लाभ नहीं प्राप्त होता।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 152 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया? से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सम्ममेयंति पासह। जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं। पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं। ‘कम्मुणा सफलं’ दट्ठुं, तओ णिज्जाइ वेयवी।

Translated Sutra: जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का) पूर्व – संस्कार नहीं है और पश्चात्‌ का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा ? (जिसकी भोगकांक्षाएं शान्त हो गई हैं।) वही वास्तव में प्रज्ञानवान्‌ है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। यह सम्यक्‌ है, ऐसा तुम देखो – सोचो। (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-१ एक चर Hindi 156 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति।

Translated Sutra: जिसे संशय का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जानता।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-२ विरत मुनि Hindi 159 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोयंसि अणारंभजीवी, एतेसु चेव मनारंभजीवी। एत्थोवरए तं झोसमाणे ‘अयं संधी’ ति अदक्खु। जे ‘इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति मन्नेसी। एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते। उट्ठिए नोपमायए। जाणित्तु दुक्खं पत्तयं सायं’। पुढोछंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं। से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए।

Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी हैं, वे (अनारम्भ – प्रवृत्त गृहस्थों) के बीच रहते हुए भी अना – रम्भजीवी हैं। इस सावद्य से उपरत अथवा आर्हत्‌शासन में स्थित अप्रमत्त मुनि खयह सन्धि हैं। – ऐसा देखकर उसे क्षीण करता हुआ (क्षणभर भी प्रमाद न करे)। ‘इस औदारिक शरीर का यह वर्तमान क्षण है,’ इस प्रकार जो क्षणान्वेषी
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