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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | Hindi | 8 | View Detail | ||
Mool Sutra: अट्ठविहकम्मवियला, णिट्ठियकज्जा पणट्ठसंसारा।
दिट्ठसयलत्थसारा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।। Translated Sutra: अष्टकर्मों से रहित, कृतकृत्य, जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त तथा सकल तत्त्वार्थ के द्रष्टा सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | Hindi | 17 | View Detail | ||
Mool Sutra: जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं, णंददु जिणसासणं सुइरं।।१।। Translated Sutra: जिसमें लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागर को पार कर जाते हैं तथा जो समस्त जीवों के लिए शरणभूत है, वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | Hindi | 22 | View Detail | ||
Mool Sutra: जय वीयराय ! जयगुरू ! होउ मम तुह पभावओ भयवं !
भवणिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठफलसिद्धी।।६।। Translated Sutra: हे वीतराग !, हे जगद्गुरु !, हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे संसार से विरक्ति, मोक्षमार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल की प्राप्ति होती रहे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ?।।१।। Translated Sutra: अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 46 | View Detail | ||
Mool Sutra: खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्था णउ कामभोगा।।२।। Translated Sutra: ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देनेवाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 52 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो।
परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी।।८।। Translated Sutra: संसारी जीव के (राग-द्वेषरूप) परिणाम होते हैं। परिणामों से कर्म-बंध होता है। कर्म-बंध के कारण जीव चार गतियों में गमन करता है-जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। उनसे जीव विषयों का ग्रहण (सेवन) करता है। उससे फिर राग-द्वेष पैदा होता है। इस प्रकार जीव संसारचक्र में परिभ्रमण करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 54 | View Detail | ||
Mool Sutra: जायदि जीवस्सेवं, भावो संसारचक्कवालम्मि।
इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा।।१०।। Translated Sutra: कृपया देखें ५२; संदर्भ ५२-५४ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 55 | View Detail | ||
Mool Sutra: जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो।।११।। Translated Sutra: जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, और मृत्यु दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 73 | View Detail | ||
Mool Sutra: न य संसारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स।
जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेओ।।३।। Translated Sutra: इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 77 | View Detail | ||
Mool Sutra: जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी।।७।। Translated Sutra: जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 81 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।।११।। Translated Sutra: भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 103 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिव्वेदतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु।
जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।।२२।। Translated Sutra: सब द्रव्यों में होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद (संसार देह तथा भोगों के प्रति वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 130 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे।
जे भिक्खू रुंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले।।९।। Translated Sutra: पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो पाप हैं। जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है वह मंडल (संसार) में नहीं रुकता-मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि।
पुण्णं सुगईहेदुं, पुण्णखएणेव णिव्वाणं।।८।। Translated Sutra: जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 200 | View Detail | ||
Mool Sutra: कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं।
कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि।।९।। Translated Sutra: अशुभ-कर्म को कुशील और शुभ-कर्म को सुशील जानो। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 248 | View Detail | ||
Mool Sutra: सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि।
जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।।४।। Translated Sutra: जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 249 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं।
आराहणाविरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव।।५।। Translated Sutra: (किन्तु) सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२०. सम्यक्चारित्रसूत्र | Hindi | 286 | View Detail | ||
Mool Sutra: सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं।
खन्तिं निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पघंसयं।।२५।। Translated Sutra: श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ़ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से युक्त धनुष से कर्म-कवच को भेदकर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। संदर्भ २८६-२८७ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 307 | View Detail | ||
Mool Sutra: संवेगजणिदकरणा, णिस्सल्ला मंदरो व्व णिक्कंपा।
जस्स दढा जिणभत्ती, तस्स भयं णत्थि संसारे।।७।। Translated Sutra: जिसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करनेवाली, शल्यरहित तथा मेरुवत् निष्कम्प और दृढ़ जिन-भक्ति है, उसे संसार में किसी तरह का भय नहीं है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 334 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो मुणिभुत्तविसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिट्ठं।
संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं।।३४।। Translated Sutra: जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है, वास्तव में उसीका भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 338 | View Detail | ||
Mool Sutra: बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो।
न लवे असाहुं साहु त्ति, साहुं साहु त्ति आलवे।।३।। Translated Sutra: (परन्तु) ऐसे भी बहुत से असाधु हैं जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है। (लेकिन) असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 416 | View Detail | ||
Mool Sutra: एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी।
से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए।।३३।। Translated Sutra: जो मुनि इन आठ प्रवचन-माताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह ज्ञानी शीघ्र संसार से मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 483 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी।
संसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासिं।।४५।। Translated Sutra: ज्ञानमयी वायुसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि संसार के कारणभूत कर्म-बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी प्रचण्ड आग तृण-राशि को। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२९. ध्यानसूत्र | Hindi | 493 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुविदियजगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य।
वेरग्गभावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ।।१०।। Translated Sutra: जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्यभावना से युक्त है, वही ध्यान में सुनिश्चल--भलीभाँति स्थित होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 506 | View Detail | ||
Mool Sutra: अद्धुवमसरणमेगत्त-मन्नत्तसंसारलोयमसुइत्तं।
आसवसंवरणिज्जर, धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज।।२।। Translated Sutra: अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि--इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 507 | View Detail | ||
Mool Sutra: जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं।
लच्छी विणास-सहिया, इय सव्वं भंगुर मुणह।।३।। Translated Sutra: जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार (संसार में) सब-कुछ क्षण-भंगुर है - अनित्य है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 511 | View Detail | ||
Mool Sutra: धी संसारो जहियं, जुवाणओ परमरूवगव्वियओ।
मरिऊण जायइ, किमी तत्थेव कलेवरे नियए।।७।। Translated Sutra: इस संसार को धिक्कार है, जहाँ परम रूप-गर्वित युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त (मृत) शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 512 | View Detail | ||
Mool Sutra: सो नत्थि इहोगासो, लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि।
जम्मणमरणाबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता।।८।। Translated Sutra: इस संसार में बाल की नोक जितना भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 514 | View Detail | ||
Mool Sutra: रयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं।
संसारं तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए।।१०।। Translated Sutra: (वास्तव में-) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 523 | View Detail | ||
Mool Sutra: णाऊण लोगसारं, णिस्सारं दीहगमणसंसारं।
लोयग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं।।१९।। Translated Sutra: लोक को निःसार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) जीव सुखपूर्वक सदा निवास करते है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 529 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया।
नावा व तीरसंपण्णा, सव्वदुक्खा तिउट्टइ।।२५।। Translated Sutra: भावना-योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुँच जाती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुँचती है, जहाँ उसके समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 567 | View Detail | ||
Mool Sutra: सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।।१।। Translated Sutra: शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक। यह संसार समुद्र है, जिसे महर्षिजन तैर जाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 580 | View Detail | ||
Mool Sutra: मिच्छद्दंसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसभोगाढा।
इय जे मरंति जीवा, तेसिं दुलहा भवे बोही।।१४।। Translated Sutra: इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा प्रगाढ़ कृष्णलेश्यासहित मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि-लाभ दुर्लभ हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 586 | View Detail | ||
Mool Sutra: इहपरलोगासंस-प्पओग, तह जीयमरणभोगेसु।
वज्जिज्जा भाविज्ज य, असुहं संसारपरिणामं।।२०।। Translated Sutra: संलेखना-रत साधक को मरण-काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम साँस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिन्तन करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 588 | View Detail | ||
Mool Sutra: जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा।
लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए।।१।। Translated Sutra: समस्त अविद्यावान् (अज्ञानी पुरुष) दुःखी हैं-दुःख के उत्पादक हैं। वे विवेकमूढ़ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 595 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो।
अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो, संसारहेउं च वयन्ति बन्धं।।८।। Translated Sutra: आत्मा (जीव) अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। तथा अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बन्ध के कारण हैं और बन्ध को संसार का हेतु कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 649 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवा संसारत्था, णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा।
उवओगलक्खणा वि य, देहादेहप्पवीचारा।।२६।। Translated Sutra: जीव दो प्रकार के हैं--संसारी और मुक्त। दोनों ही चेतना स्वभाववाले और उपयोग लक्षणवाले हैं। संसारी जीव शरीरी होते हैं और मुक्तजीव अशरीरी। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 733 | View Detail | ||
Mool Sutra: पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं।
पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो।।१२।। Translated Sutra: संसार में ऐसे बहुत-से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है। [ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 734 | View Detail | ||
Mool Sutra: सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं।
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया।।१३।। Translated Sutra: इसलिए जो पुरुष केवल अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे के वचनों की निन्दा करते हैं और इस तरह अपना पांडित्य-प्रदर्शन करते हैं, वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं--दृढ़ रूप में आबद्ध हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 735 | View Detail | ||
Mool Sutra: णाणाजीवा णाणाकम्मं, णाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हा वयणविवादं, सगपरसमएहिं वज्जिज्जा।।१४।। Translated Sutra: इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसीके भी साथ वचन-विवाद करना उचित नहीं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४४. वीरस्तवन | Hindi | 752 | View Detail | ||
Mool Sutra: से भूइपण्णे अणिएयचारी, ओहंतलरे धीरे अणंतचक्खू।
अणुत्तरे तवइ सूरिए वा, वइरोयणिंदेव तमं पगासे।।३।। Translated Sutra: वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसार-सागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सूर्य की भाँति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था। | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | English | 8 | View Detail | ||
Mool Sutra: अष्टविधकर्मविकलाः, निष्ठितकार्याः प्रणष्टसंसाराः।
दृष्टसकलार्थसाराः, सिद्धाः सिद्धिं मम दिशन्तु।।८।। Translated Sutra: May the path of emancipation be shown to me by the Liberated Souls who have freed themselves from the eight kinds of Karmas, have attained complete fulfilment, have freed themselves from the cycles fo births and deaths and who have known the essence of all the things. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | English | 17 | View Detail | ||
Mool Sutra: यद् आलीना जीवाः, तरन्ति संसारसागरमनन्तम्।
तत् सर्वजीवशरणं, नन्दतु जिनशासनं सुचिरम्।।१।। Translated Sutra: May the teachings of Jina which enable all souls to cross over the endless ocean of mundane existence and which afford protection to all living beings, flourish for ever. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरके।
किं नाम भवेत् तत् कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।।१।। Translated Sutra: In this world which is unstable, impermanent and full of misery, is there any thing by the performance of which I can be saved from taking birth in undesirable conditions. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 46 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखाः अनिकामसौख्याः।
संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः।।२।। Translated Sutra: Sensuous enjoyments give momentary pleasure, but prolonged misery, more of misery and less of pleasure and they are the obstructions to salvationa and a veritable mine of misfortunes. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 47 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुष्ठ्वपि मार्ग्यमाणः, कुत्रापि कदल्यां नास्ति यथा सारः।
इन्द्रियविषयेषु तथा, नास्ति सुखं सुष्ठ्वपि गवेषितम्।।३।। Translated Sutra: Just as no substantial thing can be found in a bananaplant even after a minute search, similarly there can be no happiness in the objects of senses even when minutely looked for. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 48 | View Detail | ||
Mool Sutra: नरविबुधेश्वरसौख्यं, दुःखं परमार्थतस्तद् ब्रुवते।
परिणामदारुणमशाश्वतं, च यत् तस्मात् अलं तेन।।४।। Translated Sutra: From the real point of view the pleasures enjoyed by emperors and tghe lord of gods are painful as they are momentary and agonizing in their effect, tgherefore it is proper to remain away from them. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 49 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा कच्छुरः कच्छुं, कण्डूयन् दुःखं मनुते सौख्यम्।
मोहातुरा मनुष्याः, तथा कामदुःखं सुखं ब्रुवन्ति।।५।। Translated Sutra: Just as a person fuffering from itches considers the scratching of his body to be a pleasure though really it is painful similarly people who are under the spell of infatuation consider the sensuous injoyment to be pleasurable. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 50 | View Detail | ||
Mool Sutra: भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः।
बालश्च मन्दितः मूढः, वध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि।।६।। Translated Sutra: He who is immersed in carnal pleasures becomes perverted in knowing what is beneficial and conducive to spiritual welfare, becomes ignorant, dull and infatuated and entangles himself in his own Karamas like a fly cought in phlegm. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 51 | View Detail | ||
Mool Sutra: जानाति चिन्तयति, जन्मजरामरणसम्भवं दुःखम्।
न च विषयेषु विरज्यते, अहो ! सुबद्धः कपटग्रन्थिः।।७।। Translated Sutra: Everyone knows and thinks about the pains of birth, old age and death, and yet no one develops distregard for the objects of sense. Oh: how tight is this knot of conceit? |