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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 108 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते–से य परक्कमेज्जा। से य परक्कममाणे मानुस्सएसु कामभोगेसु निव्वेदं गच्छेजा– मानुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अनितिया असासता सडण पडण विद्धंसणधम्मा उच्चार पासवण खेल सिंघाण वंत पित्त सुक्क सोणियसमुब्भवा दुरुय उस्सास निस्सासा दुरुय मुत्त पुरीसपुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्प-जहणिज्जा। संति उड्ढं देवा देवलोगंसि। ते णं तत्थ णो अन्नं देवं णो अन्नं देविं अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेंति, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउव्विय परियारेंति।
जइ इमस्स सुचरियस्स तव नियम बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણો ! મેં ધર્મનું નિરૂપણ કરેલ છે. યાવત્ સંયમની સાધનામાં પરાક્રમ કરતા એવા સાધુ માનવ સંબંધી શબ્દાદિ કામ – ભોગોથી વિરક્ત થઈ જાય અને એમ વિચારે કે – માનવસંબંધી કામભોગ અધ્રુવ યાવત્ ત્યાજ્ય છે. ઉપર દેવલોકમાં જે દેવ છે, તે ૧. ત્યાં અન્ય દેવીઓ સાથે વિષયસેવન કરતા નથી. ૨. પરંતુ પોતાની વિકુર્વિત દેવીઓ | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 109 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते–मानुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अनितिया असासता सडण पडण विद्धंसणधम्मा उच्चार पासवण खेल सिंधाण वंत पित्त सुक्क सोणियसमुब्भवा दुरुय उस्सास निस्सासा दुरुय मुत्त पुरीसपुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्प-जहणिज्जा। संति उड्ढं देवा देवलोगंसि। ते णं तत्थ नो अन्नं देवं णो अन्नं देविं अभिजुंजिय-अभि-जुंजिय परियारेंति, नो अप्पनिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेंति, नो अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउव्विय परियारेंति।
जइ इमस्स सुचरियस्स तव नियम बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि तं अहमवि आगमेस्साइं Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણો ! મેં ધર્મનું પ્રરૂપણ કરેલું છે યાવત્ સંયમની સાધનામાં પરાક્રમ કરતો એવો નિર્ગ્રન્થ માનવ સંબંધી કામભોગોથી વિરક્ત થઈ જાય અને તે એમ વિચારે કે – માનવ સંબંધી કામભોગ અધ્રુવ અને ત્યાજ્ય છે. જે ઉપર દેવલોકમાં દેવ છે, તે ત્યાં – ૧. બીજા દેવોની દેવી સાથે વિષય સેવન કરતા નથી. ૨. સ્વયંની વિકુર્વિત | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 110 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते– से य परक्कममाणे दिव्वमानुस्सेहिं कामभोगेहिं निव्वेदं गच्छेज्जा– मानुस्सगा कामभोगा अधुवा अनितिया असासता सडण पडण विद्धंसणधम्मा उच्चार पासवण खेल सिंघाण वंत पित्त सुक्क सोणियसमुब्भवा दुरुय उस्सास निस्सासा दुरुय मुत्त पुरोसपुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्स विप्पजहणिज्जा। दिव्वावि खलु कामभोगा अधुवा अनितिया असासता चला चयणधम्मा पुनरागमणिज्जा पच्छा पुव्वं च णं अवस्स विप्पजहणिज्जा।
जइ इमस्स सुचरियस्स तव नियम बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तं अहमवि आगमेस्साणं से जे इमे भवंति उग्गपुत्ता Translated Sutra: હે આયુષ્માન્ શ્રમણો! મેં ધર્મનું પ્રતિપાદન કરેલ છે યાવત્ સંયમ સાધનામાં પરાક્રમ કરતો નિર્ગ્રન્થ દિવ્ય અને માનુષિક કામભોગોથી વિરક્ત થઈ એમ વિચારે કે – માનુષિક કામભોગ અધ્રુવ યાવત્ ત્યાજ્ય છે. દેવ સંબંધી કામભોગ પણ અધ્રુવ, અનિત્ય, શાશ્વત, ચલાચલ સ્વભાવવાળા, જન્મ – મરણ વધારનારા અને પહેલાં કે પછી અવશ્ય ત્યાજ્ય | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 111 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते– से य परक्कममाणे दिव्वमानुस्सेहिं कामभोगेहिं निव्वेदं गच्छेज्जा। मानुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अनितिया असासता सडण पडण विद्धंसणधम्मा उच्चार पासवण खेल सिंघाण वंत पित्त सुक्क सोणियसमुब्भवा दुरुय उस्सास निस्सासा दुरुय मुत्त पुरीसपुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्स विप्पजहणिज्जा दिव्वावि खलु कामभोगा अधुवा अनितिया असासता चला चयणधम्मा पुनरागमणिज्जा पच्छा पुव्वं च णं अवस्स-विप्पजहणिज्जा जइ इमस्स सुचरियस्स तव नियम बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तं अहमवि आगमेस्साणं जाइं इमाइं अंतकुलाणि वा Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણો ! મેં ધર્મનું નિરૂપણ કરેલ છે યથાવત્ સંયમની સાધનામાં પ્રયત્ન કરતો સાધુ દિવ્ય માનુષિક કામભોગોથી વિરક્ત થઈ જાય અને તે એમ વિચારે કે, માનુષિક કામભોગો અધ્રુવ યાવત્ ત્યાજ્ય છે. દિવ્ય કામભોગો પણ અધ્રુવ યાવત્ ભવ – પરંપરાને વધારનાર છે. તથા પહેલાં કે પછી અવશ્ય ત્યાજ્ય છે. જો સમ્યક્ પ્રકારથી | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 112 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते– सव्वकामविरत्ते सव्वरागविरत्ते सव्वसंगातीते सव्वसिनेहा-तिक्कंते सव्वचारित्तपरिवुडे, तस्स णं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं दंसणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेणं अनुत्तरेणं आलएणं अनुत्तरेणं विहारेणं अनुत्तरेणं वीरिएणं अनुत्तरेणं अज्जवेणं अनुत्तरेणं मद्दवेणं अनुत्तरेणं लाघवेणं अनुत्तराए खंतीए अनुत्तराए मुत्तीए अनुत्तराए गुत्तीए अनुत्तराए तुट्ठीए अनुत्तरेणं सच्चसंजमतवसुचरियसोवचियफल० परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अनुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडि पुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा।
तते Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણો ! મેં ધર્મનું પ્રતિપાદન કરેલ છે. આ નિર્ગ્રન્થ પ્રવચન સત્ય છે – યાવત્ – તપ, સંયમની ઉગ્ર સાધના કરતી વેળાએ તે નિર્ગ્રન્થ સર્વે કામ, રાગ, સંગ, સ્નેહથી વિરક્ત થઈ જાય. સર્વ ચારિત્ર પરિવૃદ્ધ થાય ત્યારે – અનુત્તર જ્ઞાન, અનુત્તર દર્શન, યાવત પરિનિર્વાણ માર્ગમાં આત્માને ભાવિત કરીને તે શ્રમણ – અનંત, | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Hindi | 379 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अतिंतिणे अचवले अप्पभासी मियासणे ।
हवेज्ज उयरे दंते थोवं लद्धुं न खिंसए ॥ Translated Sutra: साधु तनतनाहट न करे, चपलता न करे, अल्पभाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो। थोड़ा पाकर निन्दा न करे। किसी जीव का तिरस्कार न करे। उत्कर्ष भी प्रकट न करे। श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि से मद न करे। जानते हुए या अनजाने अधार्मिक कृत्य हो जाए तो तुरन्त उससे अपने आपको रोक ले तथा दूसरी बार वह कार्य न करे। अनाचार | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ द्रुमपुष्पिका |
Hindi | 1 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो मंगलमुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो ।
देवा वि तं नमंसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ Translated Sutra: धर्म उत्कृष्ट मंगल है। उस धर्म का लक्षण है – अहिंसा, संयम और तप। जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है उसे देव भी नमस्कार करते है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ श्रामण्यपूर्वक |
Hindi | 15 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाइ सुभासियं ।
अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ ॥ Translated Sutra: उस संयती के सुभाषित वचनों को सुन कर वह धर्म में उसी प्रकार स्थिर हो गया जिस प्रकार अंकुश से हाथी स्थिर हो जाता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 32 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं– इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती।
कयरा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता? सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती।
इमा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। सेयं मे अहिज्जिउं धम्मपन्नत्ती, तं जहा–पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया।
पुढवी चित्तमंतमक्खाया अनेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं।
आऊ Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! मैंने सुना हैं, उन भगवान् ने कहा – इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में निश्चित ही षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन प्रवेदित, सुआख्यात और सुप्रज्ञप्त है। (इस) धर्मप्रज्ञप्ति (जिसमें धर्म की प्ररूपणा है) अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है ? वह ’षड्जीवनिकाय’ है – पृथ्वीकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 59 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई ।
जीवाजीवे वियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥ Translated Sutra: जो जीवों को, अजीवों को और दोनों को विशेषरूप से जानने वाला हो तो संयम को जानेगा। समस्त जीवों की बहुविध गतियों को जानता है। तब पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जानता है। तब दिव्य और मानवीय भोग से विरक्त होता है। विरक्त होकर आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है। त्याग करता है तब वह मुण्ड हो कर अनगारधर्म | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 183 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गोयरग्ग-पविट्ठो उ न निसीएज्ज कत्थई ।
कहं च न पबंधेज्जा चिट्ठित्ताण व संजए ॥ Translated Sutra: गोचरी के लिये गया हुआ संयमी कहीं भी न बैठे और न खड़ा रह कर भी धर्म – कथा का प्रबन्ध करे, अर्गला, परिघ, द्वार एवं कपाट का सहारा लेकर खड़ा न रहे, भोजन अथवा पानी के लिए आते हुए या गये हुए श्रमण, ब्राह्मण, कृपण अथवा वनीपक को लांघ कर प्रवेश न करे और न आँखों के सामने खड़ा रहे। किन्तु एकान्त में जा कर वहाँ खड़ा हो जाए। उन भिक्षाचरों | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 228 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेसिं सो निहुओ दंतो सव्वभूयसुहावहो ।
सिक्खाए सुसमाउत्तो आइक्खइ वियक्खणो ॥ Translated Sutra: तब वे शान्त, दान्त, सर्वप्राणियों के लिए सुखावह, ग्रहण और आसेवन, शिक्षाओं से समायुक्त और परम विचक्षण गणी उन्हें कहते हैं – कि धर्म के प्रयोजनभूत मोक्ष की कामना वाले निर्ग्रन्थों के भीम, दुरधिष्ठित और सकल आचार – गोचर मुझसे सुनो। सूत्र – २२८, २२९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 240 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।
नायरंति मुनी लोए भेयाययणवज्जिणो ॥ Translated Sutra: अब्रह्यचर्य लोकमें घोर, प्रमादजनक, दुराचरित है। संयमभंग करनेवाले स्थानोंसे दूर रहनेवाले मुनि उसका आचरण नहीं करते। यह अधर्म का मूल है। महादोषों का पुंज है। इसीलिए निर्ग्रन्थ मैथुन संसर्ग का त्याग करते है। सूत्र – २४०, २४१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 271 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाइं चत्तारिभोज्जाइं इसिणाहारमाईणि ।
ताइं तु विवज्जंतो संजमं अनुपालए ॥ Translated Sutra: जो आहार आदि चार पदार्थ ऋषियों के लिए अकल्पनीय हैं, उनका विवर्जन करता हुआ (साधु) संयम का पालन करे। अकल्पनीय पिण्ड, शय्या, वस्त्र और पात्र को ग्रहण करने की इच्छा न करे, ये कल्पनीय हों तो ग्रहण करे। जो साधु – साध्वी नित्य निमंत्रित कर दिया जाने वाला, क्रीत, औद्देशिक आहृत आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणियों के वध का अनुमोदन | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 293 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सओवसंता अममा अकिंचणा सविज्जविज्जाणुगया जसंसिणो ।
उउप्पसन्ने विमले व चंदिमा सिद्धिं विमाणाइ उवेंति ताइणो ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: सदा उपशान्त, ममत्व – रहित, अकिंचन अपनी अध्यात्म – विद्या के अनुगामी तथा जगत् के जीवों के त्राता और यशस्वी हैं, शरद्ऋतु के निर्मल चन्द्रमा के समान सर्वथा विमल साधु सिद्धि को अथवा सौधर्मावतंसक आदि विमानों को प्राप्त करते हैं। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Hindi | 385 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बलं थामं च पेहाए सद्धामारोगमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विण्णाय तहप्पाणं निजुंजए ॥ Translated Sutra: अपने बल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा और आरोग्य को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर, अपनी आत्मा को धर्मकार्य में नियोजित करे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Hindi | 386 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्ढई ।
जाविंदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे ॥ Translated Sutra: जब तक वृद्धावस्था पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ क्षीण न हों, तब तक धर्म का सम्यक् आचरण कर लो। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Hindi | 393 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जोगं च समणधम्मम्मि जुंजे अणलसो धुवं ।
जत्तो य समणधम्मम्मि अट्ठं लहइ अनुत्तरं ॥ Translated Sutra: साधु आलस्यरहित होकर श्रमणधर्म में योगों को सदैव नियुक्त करे; क्योंकि श्रमणधर्म में संलग्न साधु अनुत्तर अर्थ को प्राप्त करता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Hindi | 403 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विवित्ता य भवे सेज्जा नारीणं न लवे कहं ।
गिहिसंथवं न कुज्जा कुज्जा साहूहिं संथवं ॥ Translated Sutra: यदि उपाश्रय विविक्त हो तो केवल स्त्रियों के बीच धर्मकथा न कहे; गृहस्थों के साथ संस्तव न करे, साधुओं के साथ ही परिचय करे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 426 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए सिरसा पंजलीओ कायग्गिरा भो! मनसा य निच्चं ॥ Translated Sutra: जिसके पास धर्म – पदों का शिक्षण ले, हे शिष्य ! उसके प्रति विनय का प्रयोग करो। सिर से नमन करके, हाथों को जोड़ कर तथा काया, वाणी और मन से सदैव सत्कार करो। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 430 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] महागरा आयरिया महेसी समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए ।
संपाविउकामे अनुत्तराइं आराहए तोसए धम्मकामी ॥ Translated Sutra: अनुत्तर ज्ञानादि की सम्प्राप्ति का इच्छुक तथा धर्मकामी साधु (ज्ञानादि रत्नों के) महान् आकर, समाधि – योग तथा श्रुत, शील, और प्रज्ञा से सम्पन्न महर्षि आचार्यों को आराधे तथा उनकी विनयभक्ति से सदा प्रसन्न रखे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 432 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स खंधाओ पच्छा समुवेंति साहा ।
साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता तओ से पुप्फं च फलं रसो य ॥ Translated Sutra: वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध से शाखाऍं, शाखाओं से प्रशाखाऍं निकलती हैं। तदनन्तर पत्र, पुष्प, फल और रस उत्पन्न होता है। इसी प्रकार धर्म ( – रूप वृक्ष) का मूल विनय है और उसका परम रसयुक्त फल मोक्ष है। उस (विनय) के द्वारा श्रमण कीर्ति, श्रुत और निःश्रेयस् प्राप्त करता है। सूत्र – ४३२, ४३३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 435 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] विनयं पि जो उवाएणं चोइओ कुप्पई नरो ।
दिव्वं सो सिरिमेज्जंतिं दंडेण पडिसेहए ॥ Translated Sutra: (किसी भी) उपाय से विनय ( – धर्म) में प्रेरित किया हुआ जो मनुष्य कुपित हो जाता है, वह आती हुई दिव्यलक्ष्मी को डंडे से रोकता (हटाता) है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 454 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि चंडे मइइड्ढिगारवे पिसुणे नरे साहस हीनपेसणे ।
अदिट्ठधम्मे विनए अकोविए असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य चण्ड, अपनी बुद्धि और ऋद्धि का गर्वी, पिशुन, अयोग्यकार्य में साहसिक, गुरु – आज्ञा – पालन से हीन, श्रमण – धर्म से अदृष्ट, विनय में अनिपुण और असंविभागी है, उसे (कदापि) मोक्ष (प्राप्त) नहीं होता। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 463 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] समावयंता वयणाभिघाया कण्णंगया दुम्मणियं जणंति ।
धम्मो त्ति किच्चा परमग्गसूरे जिइंदिए जो सहई स पुज्जो ॥ Translated Sutra: आते हुए कटुवचनों के आघात कानों में पहुँचते ही दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं; (परन्तु) जो वीर – पुरुषों का परम अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष ‘यह मेरा धर्म है’ ऐसा मान कर सहन कर लेता है, वही पूज्य होता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 493 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव असनं पानगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता ।
छंदिय साहम्मियाण भुंजे भोच्चा सज्झायरए य जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: पूर्वोक्त प्रकार से विविध अशन आदि आहार को पाकर जो अपने साधर्मिक साधुओं को निमन्त्रित करके खाता है तथा भोजन करके स्वाध्याय में रत रहता है, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 503 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न जाइमत्ते न य रूवमत्ते न लाभमत्ते न सुएणमत्ते ।
मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो जाति, रूप, लाभ, श्रुत का मद नहीं करता है; उनको त्यागकर धर्मध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 504 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पवेयए अज्जपयं महामुणी धम्मे ठिओ ठावयई परं पि ।
निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंगं न यावि हस्सकुहए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो महामुनि शुद्ध धर्म – का उपदेश करता है, स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थापित करता है, प्रव्रजित होकर कुशील को छोड़ता है तथा हास्योत्पादक कुतूहलपूर्ण चेष्टाऍं नहीं करता, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 506 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्नदुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहानुप्पेहिणा अनो-हाइएणं चेव, हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागाभूयाइं इमाइं अट्ठारस ठाणाइं सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति, तं जहा–
१. हं भो! दुस्समाए दुप्पजीवी।
२. लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा।
३. भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा।
४. इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ।
५. ओमजनपुरक्कारे।
६. वंतस्स य पडियाइयणं।
७. अहरगइवासोवसंपया।
८. दुल्लभे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्झे वसंताणं।
९. आयंके से वहाय होइ।
१०. संकप्पे से वहाय होइ।
११. सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए।
१२. बंधे गिहवासे। मोक्खे परियाए।
१३. Translated Sutra: इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में जो प्रव्रजित हुआ है, किन्तु कदाचित् दुःख उत्पन्न हो जाने से संयम में उसका चित्त अरतियुक्त हो गया। अतः वह संयम का परित्याग कर जाना चाहता है, किन्तु संयम त्यागा नहीं है, उससे पूर्व इन अठारह स्थानों का सम्यक् प्रकार से आलोचन करना चाहिए। ये अठारह स्थान अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 507 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य चयई धम्मं अणज्जो भोगकारणा ।
से तत्थ मुच्छिए बाले आयइं नावबुज्झइ ॥ Translated Sutra: इस विषय में कुछ श्लोक हैं – जब अनार्य (साधु) भोगों के लिए (चारित्र – ) धर्म को छोड़ता है, तब वह भोगों में मूर्च्छित बना हुआ अज्ञ अपने भविष्य को सम्यक्तया नहीं समझता। वह सभी धर्मों में परिभ्रष्ट हो कर वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे आयु पूर्ण होने पर देवलोक के वैभव से च्युत हो कर पृथ्वी पर पड़ा हुआ इन्द्र। सूत्र – | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 518 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्माउ भट्ठं सिरिओ ववेयं जण्णग्गि विज्झायमिवप्पतेयं ।
हीलंति णं दुव्विहियं कुसीला दाढुद्धियं घोरविसं व नागं ॥ Translated Sutra: जिसकी दाढें निकाल दी गई हों, उस घोर विषधर की साधारण अज्ञ जन भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही धर्म से भ्रष्ट, श्रामण्य रूपी लक्ष्मी से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि के समान निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील लोग भी निन्दा करते हैं। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 519 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इहेवधम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेज्जं च पिहुज्जणम्मि ।
चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेट्ठओ गई ॥ Translated Sutra: धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र को भंग करनेवाला इसी लोक में अधर्मी कहलाता है, उसका अपयश और अपकीर्ति होती है, साधारण लोगों में भी वह दुर्नाम हो जाता है और अन्त में उसकी अधोगति होती है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 523 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं ।
तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ Translated Sutra: जिसकी आत्मा इस प्रकार से निश्चित होती है। वह शरीर को तो छोड़ सकता है, किन्तु धर्मशासन को छोड़ नहीं सकता। ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियाँ उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ वायु सुदर्शन – गिरि को। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-२ विविक्तचर्या |
Hindi | 525 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चूलियं तु पवक्खामि सुयं केवलिभासियं ।
जं सुणित्तु सपुन्नाणं धम्मे उप्पज्जए मई ॥ Translated Sutra: मैं उस चूलिका को कहूँगा, जो श्रुत है, केवली – भाषित है, जिसे सुन कर पुण्यशाली जीवों की धर्म में मति उत्पन्न होती है। | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ द्रुमपुष्पिका |
Gujarati | 1 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो मंगलमुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो ।
देवा वि तं नमंसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ Translated Sutra: ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ મંગલછે. તે ધર્મ – અહિંસા, સંયમ, તપરૂપ છે, જેનું મન સદા ધર્મમાં લીન છે, તેને દેવો પણ નમસ્કાર કરે છે. | |||||||||
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अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Gujarati | 32 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं– इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती।
कयरा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता? सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती।
इमा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। सेयं मे अहिज्जिउं धम्मपन्नत्ती, तं जहा–पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया।
पुढवी चित्तमंतमक्खाया अनेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं।
आऊ Translated Sutra: (૧). મેં તે આયુષ્યમાન ભગવંતે એ પ્રમાણે કહે છે તે સાંભળેલ છે કે – આ ‘છ જીવનિકાય’ નામક અધ્યયન નિશ્ચે કાશ્યપગોત્રીય શ્રમણ ભગવંત મહાવીર દ્વારા પ્રવેદિત, સુઆખ્યાત, સુપ્રજ્ઞપ્ત છે. આ ‘ધર્મ પ્રાપ્તિ’નું અધ્યયન મારા માટે શ્રેષ્ઠ છે. (૨). તે છ જીવનિકાય અધ્યયન કેવું છે ? જે કાશ્યપ ગોત્રીય શ્રમણ ભગવંત મહાવીર દ્વારા પ્રવેદિત, | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Gujarati | 46 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा–
से कीडं वा पयंगं वा कुंथुं वा पिवीलियं वा हत्थंसि वा पायंसि वा बाहुंसि वा ऊरुं वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेज्जंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय एगंतमवणेज्जा नो णं संघायमावज्जेज्जा। Translated Sutra: તે ભિક્ષુ કે ભિક્ષુણી, કે જે સંયત, વિરત, પ્રતિહત, પ્રત્યાખ્યાતપાપકર્મી ભિક્ષુ કે ભિક્ષુણી દિવસે કે રાત્રે, એકલા કે પર્ષદામાં, સૂતા કે જાગતા કીટ, પતંગ, કુંથુ કે કીડીને – હાથ પગ, બાહુ, ઉરુ, ઉંદર, મસ્તક, વસ્ત્ર, પાત્ર, કંબલ, પાદપ્રૌંછનક, રજોહરણ, ગુચ્છા, ઉડગ, દંડક, પીઠક, ફલક, શય્યા, સંસ્તારક કે બીજા તેવા પ્રકારના ઉપકરણ | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Gujarati | 60 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया जीवे अजीवे य दो वि एए वियाणई ।
तया गइं बहुविहं सव्वजीवाण जाणई ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૬૦. જે જીવને અને અજીવને, બંનેને વિશેષ રૂપે જાણે છે ત્યારે સર્વે જીવોની બહુવિધ ગતિને જાણે છે. સૂત્ર– ૬૧. જ્યારે સર્વે જીવોની બહુવિધ ગતિને જાણે છે, ત્યારે પુન્ય, પાપ, બંધ અને મોક્ષને જાણે છે. સૂત્ર– ૬૨. જ્યારે પુન્ય, પાપ, બંધ, મોક્ષ જાણે છે ત્યારે જે દિવ્ય અને જે માનવીય ભોગ છે, તેનાથી વિરક્ત થાય. સૂત્ર– ૬૩. જ્યારે | |||||||||
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अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 157 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिया य गोयरग्गगओ इच्छेज्जा परिभोत्तुयं ।
कोट्ठगं भित्तिमूलं वा पडिलेहित्ताण फासुयं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૫૭. ભિક્ષાર્થે ગયેલ સાધુ કદાચિત આહારનો પરિભોગ કરવા ઇચ્છે તો પ્રાસુક કોષ્ઠક કે ભિત્તિમૂલનું પ્રતિલેખન કરીને સૂત્ર– ૧૫૮. તે મેધાવી મુનિ અનુજ્ઞાપૂર્વક કોઈ આચ્છાદિત અને સંવૃત્ત સ્થળમાં પોતાના હાથને સારી રીતે પ્રમાર્જી, ત્યાં તે સંયત ભોજન કરે. સૂત્ર– ૧૫૯. ત્યાં તે ભોજન કરતો, આહારમાં ગોટલી, કાંટા, તૃણ, | |||||||||
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अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Gujarati | 179 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे ।
अकालं च विवज्जेत्ता काले कालं समायरे ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૭૯. ભિક્ષુ, ભિક્ષા – કાળે ભિક્ષાર્થે નીકળે, કાળે જ પાછો ફરે. અકાલનેળે વર્જીને જે કાર્ય જ્યારે ઉચિત હોય, ત્યારે તે કાર્ય કરે. સૂત્ર– ૧૮૦. હે મુનિ ! જો તું અકાળમાં ભિક્ષાર્થે જઈશ અને કાળનું પ્રતિલેખન નહી કરે તો ભિક્ષા ન મળે ત્યારે તું તને પોતાને ક્ષુબ્ધ કરીશ અને સંનિવેશની નિંદા કરીશ. સૂત્ર– ૧૮૧. ભિક્ષુ સમય | |||||||||
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अध्ययन-६ महाचारकथा |
Gujarati | 226 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणदंसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं ।
गणिमागमसंपन्नं उज्जाणम्मि समोसढं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૨૬, ૨૨૭. જ્ઞાનદર્શન સંપન્ન, સંયમ અને તપમાં રત, આગમ સંપન્ન ગણિ – આચાર્યને ઉદ્યાનમાં પધારેલા જોઈને રાજા, રાજમંત્રી, બ્રાહ્મણ અને ક્ષત્રિય નિશ્ચલાત્મા થઈને પૂછે છે – આપના આચાર – ગોચર કેવા છે ? સૂત્ર– ૨૨૮, ૨૨૯. ત્યારે તે નિભૃત, દાંત, સર્વે પ્રાણી માટે સુખાવહ, શિક્ષાઓથી સમાયુક્ત અને પરમ વિચક્ષણ ગણિ તેમને કહે | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Gujarati | 240 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।
नायरंति मुनी लोए भेयाययणवज्जिणो ॥ Translated Sutra: અબ્રહ્મચર્ય લોકમાં ઘોર, પ્રમાદજનક અને દુરધિષ્ઠિત છે. સંયમ ભંગ કરનારા સ્થાનોથી દૂર રહેનાર મુનિ તેનું આચરણ ન કરે. આ અબ્રહ્મ અધર્મનું મૂળ છે, મહાદોષોનો પૂંજ છે, તેથી નિર્ગ્રન્થ મૈથુન સંસર્ગનો ત્યાગ કરે છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૨૪૦, ૨૪૧ | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Gujarati | 271 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाइं चत्तारिभोज्जाइं इसिणाहारमाईणि ।
ताइं तु विवज्जंतो संजमं अनुपालए ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૭૧. જે આહાર આદિ ચાર પદાર્થ ઋષિને માટે અકલ્પ્ય છે, તેનું વિવર્જન કરતો સાધુ સંયમનું પાલન કરે. સૂત્ર– ૨૭૨. સાધુ – સાધ્વી અકલ્પનીય આહાર, શય્યા, વસ્ત્ર અને પાત્રને ગ્રહણ કરવાની ઇચ્છા ન કરે, કલ્પનીય હોય તો ગ્રહણ કરે. સૂત્ર– ૨૭૩. જે સાધુ – સાધ્વી નિત્ય નિમંત્રણા કરીને દેવાતો, ક્રીત, ઔદ્દેશિક અને આહૃત આહાર ગ્રહણ | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ वाकशुद्धि |
Gujarati | 319 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव गंतुमुज्जाणं पव्वयाणि वणाणि य ।
रुक्खा महल्ल पेहाए नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૧૯ થી ૩૨૨. આ પ્રકારે ઉદ્યાનમાં, પર્વતો પર, વનોમાં જઈને મોટા વૃક્ષોને જોઈને પ્રજ્ઞાવાન સાધુ આમ ન બોલે કે આ વૃક્ષ પ્રાસાદ, સ્તંભ, તોરણ, ઘર, પરિઘ, અર્ગલા, નૌકા, જલકુંડી યોગ્ય છે. પીઠ, કાષ્ઠપત્ર, હળ, મયિક, યંત્રયષ્ટિ, ગાડીના પૈડાની નાભિ કે ગંડિકા માટે આ કાષ્ઠ ઉપયુક્ત થઈ શકે છે, તેમ ન બોલે. આસન, શયન, યાન અને ઉપાશ્રય | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Gujarati | 379 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अतिंतिणे अचवले अप्पभासी मियासणे ।
हवेज्ज उयरे दंते थोवं लद्धुं न खिंसए ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૭૯. સાધુ આહાર ન મળે કે નીરસ મળે ત્યારે બબડાટ ન કરે, ચંચળતા ન કરે, અલ્પભાષી, મિતભોજી અને ઉદરનો દમન કરનાર થાય, થોડું મળે તો પણ દાતાને ન નિંદે. સૂત્ર– ૩૮૦. કોઈ જીવનો તિરસ્કાર ન કરે, ઉત્કર્ષ પણ પ્રગટ ન કરે, શ્રુત – લાભ – જાતિ – તપ – બુદ્ધિનો મદ ન કરે. સૂત્ર– ૩૮૧. જાણતા કે અજાણતા કોઈ અધાર્મિક કૃત્ય થઈ જાય તો તુરંત | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Gujarati | 391 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] राइनिएसु विनयं पउंजे धुवसीलयं सययं न हावएज्जा ।
कुम्मो व्व अल्लीणपलीनगुत्तो परक्कमेज्जा तवसंजमम्मि ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૯૧. સાધુ, રત્નાધિકો પ્રત્યે વિનયી બને, ધ્રુવશીલતાને કદાપિ ન ત્યાગે, કાચબાની જેમ આલીન – પ્રલીન ગુપ્ત થઈને તપ અને સંયમમાં પરાક્રમ કરે. સૂત્ર– ૩૯૨. સાધુ નિદ્રાને બહુ ન કરે, અતિ હાસ્યને પણ વર્જિત કરે, પારસ્પારિક વિકથામાં રમણ ન કરે, સદા સ્વાધ્યાયમાં રત રહે. સૂત્ર– ૩૯૩. સાધુ આળસ રહિત થઈ શ્રમણ – ધર્મમાં યોગોને | |||||||||
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अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Gujarati | 401 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मंत भेसजं ।
गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૦૧. નક્ષત્ર, સ્વપ્ન ફળ, યોગ, નિમિત્ત, મંત્ર, ભોજનાદિ ગૃહસ્થને ન કહે, કેમ કે તે પ્રાણી હિંસાના સ્થાન છે. સૂત્ર– ૪૦૨. બીજાને માટે બનેલ, ઉચ્ચારભૂમિથી યુક્ત, સ્ત્રી – પશુથી રહિત શય્યા અને આસનનું સેવન કરે. સૂત્ર– ૪૦૩. જો ઉપાશ્રય વિવિક્ત હોય તો માત્ર સ્ત્રીઓ વચ્ચે ધર્મ ન કહે. ગૃહસ્થ પરીચય ન કરે, સાધુ સાથે જ પરીચય | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Gujarati | 425 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जहाहियग्गी जलण नमंसे नाणाहुईमंतपयाभि सित्तं ।
एवायरियं उवचिट्ठएज्जा अनंतनाणोवगओ वि संतो ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૨૫. જે પ્રમાણે આહિતાગ્નિ બ્રાહ્મણ વિવિધ આહૂતિ અને મંત્રપદોથી અભિષિક્ત કરેલ અગ્નિને નમસ્કાર કરે છે, તે પ્રકારે શિષ્ય અનંતજ્ઞાન યુક્ત થઈ જાય તો પણ આચાર્યશ્રી વિનયથી ભક્તિ કરે. સૂત્ર– ૪૨૬. જેમની પાસે ધર્મપદો શીખે, હે શિષ્ય! તેના પ્રત્યે વિનય કરો. મસ્તકે અંજલિ કરી, કાયા – વાણી – મનથી સદૈવ સત્કાર કરો. સૂત્ર– | |||||||||
Dashvaikalik | દશવૈકાલિક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Gujarati | 432 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स खंधाओ पच्छा समुवेंति साहा ।
साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता तओ से पुप्फं च फलं रसो य ॥ Translated Sutra: વૃક્ષના મૂળથી સ્કંધ ઉત્પન્ન થાય છે, સ્કંધથી શાખા ઊગે છે, શાખાથી પ્રશાખા નીકળે છે. પછી તે વૃક્ષને પત્ર, પુષ્પ, ફળ અને રસ ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણે ધર્મવૃક્ષનું મૂળ વિનય છે, તેનું પરમ રસયુક્ત ફળ મોક્ષ છે. તે વિનય દ્વારા સાધુ કીર્તિ, શ્રુત અને મોક્ષને જલદી પ્રાપ્ત કરે છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૪૩૨, ૪૩૩ | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Gujarati | 453 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] विवत्ती अविनीयस्स संपत्ती विनियस्स य ।
जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ Translated Sutra: અવિનીતને વિપત્તિ અને વિનીતને સંપત્તિ પ્રાપ્ત થાય છે. જેને આ બંને પ્રકારે જ્ઞાત છે, તે જ કલ્યાણકારી શિક્ષાને પ્રાપ્ત થાય છે. જે મનુષ્ય ચંડ છે, પોતાની મતિનો ગર્વી છે, જે પિશુન છે, સાહસિક છે, ગુરુ આજ્ઞા પાલનથી હીન છે, શ્રમણ ધર્મથી અદૃષ્ટ છે, વિનયમાં અનિપુણ છે, અસંવિભાગી છે, તમને કદાપિ મોક્ષ પ્રાપ્ત ન થાય. જે ગુરુ આજ્ઞાનુસાર |