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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | Gujarati | 747 | View Detail | ||
Mool Sutra: अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, जो आगतिं जाणइ णागतिं च।
जो सासयं जाण असासयं च, जातिं मरणं च चयणोववातं।।३।। Translated Sutra: જે પોતાને જાણે છે, જે લોકને જાણે છે, આગતિ - ગતિ, શાશ્વત - અશાશ્વત, જન્મ - મરણ, ચ્યવન - ઉપપાત, આત્માની નિમ્નતા - ઉચ્ચતા, આસ્રવ, સંવર, દુઃખ અને દુઃખનો નાશ - આ સઘળું જે જાણે છે તે જ સાચા આચારમાર્ગનું-ક્રિયામાર્ગનું નિરૂપણ કરી શકે છે. સંદર્ભ ૭૪૭-૭૪૮ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ?।।१।। Translated Sutra: अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 52 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो।
परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी।।८।। Translated Sutra: संसारी जीव के (राग-द्वेषरूप) परिणाम होते हैं। परिणामों से कर्म-बंध होता है। कर्म-बंध के कारण जीव चार गतियों में गमन करता है-जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। उनसे जीव विषयों का ग्रहण (सेवन) करता है। उससे फिर राग-द्वेष पैदा होता है। इस प्रकार जीव संसारचक्र में परिभ्रमण करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
७. मिथ्यात्वसूत्र | Hindi | 67 | View Detail | ||
Mool Sutra: हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं।
भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि।।१।। Translated Sutra: हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Hindi | 168 | View Detail | ||
Mool Sutra: जागरह नरा ! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी।
जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो।।९।। Translated Sutra: मनुष्यो ! सतत जागृत रहो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं है, धन्य वह है, जो सदा जागता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि।
पुण्णं सुगईहेदुं, पुण्णखएणेव णिव्वाणं।।८।। Translated Sutra: जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 249 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं।
आराहणाविरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव।।५।। Translated Sutra: (किन्तु) सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 315 | View Detail | ||
Mool Sutra: विरया परिग्गहाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ।
बहुदोससंकुलाओ, नरयगइगमणपंथाओ।।१५।। Translated Sutra: अपरिमित परिग्रह अनन्ततृष्णा का कारण है, वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का मार्ग है। अतः परिग्रह-परिमाणाणुव्रती विशुद्धचित्त श्रावक को क्षेत्र-मकान, सोना-चाँदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद तथा भण्डार (संग्रह) आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। संदर्भ ३१५-३१६ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 404 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुल्लहा उ मुहायाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा।
मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सोग्गइं।।२१।। Translated Sutra: मुधादायी-निष्प्रयोजन देनेवाले--दुर्लभ हैं और मुधाजीवी--भिक्षा पर जीवन यापन करनेवाले--भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही साक्षात् या परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 467 | View Detail | ||
Mool Sutra: दंसणणाणे विणओ, चरित्ततव-ओवचारिओ विणओ।
पंचविहो खलु विणओ, पंचमगइणाइगो भणिओ।।२९।। Translated Sutra: दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय--ये विनय तप के पाँच भेद कहे गये हैं, जो पंचमगति अर्थात् मोक्ष में ले जाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 525 | View Detail | ||
Mool Sutra: जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं।।२१।। Translated Sutra: जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 526 | View Detail | ||
Mool Sutra: माणुस्सं विग्गहं लद्धुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोच्चा पविज्जंति तव खंतिमहिंसयं।।२२।। Translated Sutra: (प्रथम तो चतुर्गतियों में भ्रमण करनेवाले जीव को मनुष्य-शरीर ही मिलना दुर्लभ है, फिर) मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाय। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३१. लेश्यासूत्र | Hindi | 534 | View Detail | ||
Mool Sutra: किण्हा नीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई बहुसो।।४।। Translated Sutra: कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याएँ हैं। इनके कारण जीव विविध दुर्गतियों में उत्पन्न होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३१. लेश्यासूत्र | Hindi | 535 | View Detail | ||
Mool Sutra: तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो।।५।। Translated Sutra: पीत (तेज), पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएँ हैं। इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 587 | View Detail | ||
Mool Sutra: परदव्वादो दुग्गइ, सद्दव्वादो हु सग्गई होई।
इय णाऊ सदव्वे, कुणह रई विरई इयरम्मि।।२१।। Translated Sutra: पर-द्रव्य अर्थात् धन-धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त होने से दुर्गति होती है और स्व-द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है। ऐसा जानकर स्व-द्रव्य में रत रहो और पर-द्रव्य से विरत। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 622 | View Detail | ||
Mool Sutra: लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के।
गइ पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु।।३५।। Translated Sutra: जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही ऊपर तैरने लग जाती है अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते हैं अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान् होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 633 | View Detail | ||
Mool Sutra: ण य गच्छदि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अन्नदवियस्स।
हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च।।१०।। Translated Sutra: धर्मास्तिकाय स्वयं गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों का गमन कराता है। वह तो जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 650 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुढविजलतेयवाऊ-वणप्फदी विविहथावरेइंदी।
बिगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी।।२७।। Translated Sutra: संसारीजीव भी त्रस और स्थावर दो प्रकार के हैं। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये सब एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं और शंख, पिपीलिका, भ्रमर तथा मनुष्य-पशु आदि क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | Hindi | 747 | View Detail | ||
Mool Sutra: अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, जो आगतिं जाणइ णागतिं च।
जो सासयं जाण असासयं च, जातिं मरणं च चयणोववातं।।३।। Translated Sutra: जो आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, आगति और अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण, चयन और उपपाद को जानता है, आस्रव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है, वही क्रियावाद का अर्थात् सम्यक् आचार-विचार का कथन कर सकता है। संदर्भ ७४७-७४८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | Hindi | 749 | View Detail | ||
Mool Sutra: लद्धं अलद्धपुव्वं, जिणवयण-सुभासिदं अमिदभूदं।
गहिदो सुग्गइमग्गो, णाहं मरणस्स बीहेमि।।५।। Translated Sutra: जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, वह अमृतमय सुभाषितरूप जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नहीं है। | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | English | 7 | View Detail | ||
Mool Sutra: घनघातिकर्ममथनाः, त्रिभुवनवरभव्यकमलमार्तण्डाः।
अर्हाः (अर्हन्तः) अनन्तज्ञानिनः, अनुपमसौख्या जयन्तु जगति।। Translated Sutra: May there be glory in this world to the Worthy Souls (Arhats) who have destroyed the dense of destructive Karmas, who like the sun bloom forth the louts like hearts of devoted persons capable of liberation, and who are possessed of infinite knowledge and excellent bliss. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरके।
किं नाम भवेत् तत् कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।।१।। Translated Sutra: In this world which is unstable, impermanent and full of misery, is there any thing by the performance of which I can be saved from taking birth in undesirable conditions. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 52 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः खलु संसारस्थो, जीवस्ततस्तु भवति परिणामः।
परिणामात् कर्म, कर्मतः भवति गतिषु गतिः।।८।। Translated Sutra: A person who is worldly, becomes the subject of feeling like attachment and aversion; as a consequence, karma binds his soul; the bondage of karmas results in cycles of births. As a result of birth, he gets a body; the body will have its senses; the senses will lead to their respective enjoyments which in turn will give birth to attachment and aversion. Thus is the soul involved into cycles of births and deaths - that is why it is said by the supreme Jinas, that the soul as such is beginningless and endless and still it has an end 9due to its death). Refers 52-54 | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 53 | View Detail | ||
Mool Sutra: गतिमधिगतस्य देहो, देहादिन्द्रियाणि जायन्ते।
तैस्तु विषयग्रहणं, ततो रागो वा द्वेषो वा।।९।। Translated Sutra: Please see 52; Refers 52-54 | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
७. मिथ्यात्वसूत्र | English | 67 | View Detail | ||
Mool Sutra: हा ! यथा मोहितमतिना, सुगतिमार्गमजानता।
भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयंकरे।।१।। Translated Sutra: Oh: what a pity? Due to my delusion, I have not been able to know the path leading to spiritual progress; so, I have been wandering since long in this formidable and terrible forest of mundane existence. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१२. अहिंसासूत्र | English | 158 | View Detail | ||
Mool Sutra: तुङ्गं न मन्दरात्, आकाशाद्विशालकं नास्ति।
यथा तथा जगति जानीहि, धर्मोऽहिंसासमो नास्ति।।१२।। Translated Sutra: No mountain is higher than the Meru; nothing is more expansive than the sky; similarly know that there si no religion equal to the religion of ahimsa in this world why do you indulge. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१५. आत्मसूत्र | English | 182 | View Detail | ||
Mool Sutra: चतुर्गतिभवसंभ्रमणं, जातिजरामरण-रोगशोकाश्च।
कुलयोनिजीवमार्गणा-स्थानानि जीवस्य नो सन्ति।।६।। Translated Sutra: Transmigration within the four species of living beings, birgh, old-age, death, disease, sorrow, a family, a place of birth, a status in the scheme of Jivasthanas, a status in the scheme of marganasthanas none of these (really) belongs to a soul. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | English | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुण्यमपि यः समिच्छति, संसारः तेन ईहितः भवति।
पुण्यं सुगतिहेतुः, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम्।।८।। Translated Sutra: He who aspires for merit, i.e. worldly well being, aspires for life in this mundane world; merit (punya) is capable of securing a pleasant state of existence; but it is cessation of merits (punya Karma) only that leads to liberation. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | English | 315 | View Detail | ||
Mool Sutra: विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात्।
बहुदोषसंकुलात्, नरकगतिगमनपथात्।।१५।। Translated Sutra: Persons should refrain from accumulation of unlimited property due to unquenchable thirst (i.e. greed) as it becomes a pathway to hell and results in numerous faults. A righteous and pure-minded person should not exceed the self-imposed limit in the acquisition of lands, gold, wealth, servants, cattle, vessels and pieces of furniture. Refers 315-316 | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | English | 404 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुर्लभा तु मुधादायिनः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः।
मुधादायिनः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम्।।२१।। Translated Sutra: It is difficult to find faultless alms-givers; it is more difficult to find one who lives on faultless begging; one who gives faultless alms and the one who lives one faultless begging, both will attain happy state in the next birth. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | English | 467 | View Detail | ||
Mool Sutra: दर्शनज्ञाने विनय-श्चारित्रतप-औपचारिको विनयः।
पञ्चविधः खलु विनयः, पञ्चमगतिनायको भणितः।।२९।। Translated Sutra: Humility is of five kinds; humility in faith, in knowledge, in conduct, in penance and in decorum or etiquette, these lead to liberation, i.e. the fifth state. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | English | 515 | View Detail | ||
Mool Sutra: प्रत्येकं प्रत्येकं निजकं, कर्मफलमनुभवताम्।
कः कस्य जगति स्वजनः? कः कस्य वा परजनो भणितः।।११।। Translated Sutra: In this world where every one has to suffer the fruits of his own Karmas individually, is there any person whom one can call his own either related or stranger? | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | English | 525 | View Detail | ||
Mool Sutra: जरामरणवेगेन,डह्यमानानां प्राणिनाम्।
धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम्।।२१।। Translated Sutra: For living beings who are floating in the currents of odl age and death, religion is the best island, resting place and supreme shelter. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३१. लेश्यासूत्र | English | 534 | View Detail | ||
Mool Sutra: कृष्णा नीला कापोता, तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवो, दुर्गतिमुपपद्यते बहुशः।।४।। Translated Sutra: The black, blue and grey are the three types of inauspicious Lesyas; as result of these three (Lesyas) the soul takes birth in various-unhappy states of existence. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३१. लेश्यासूत्र | English | 535 | View Detail | ||
Mool Sutra: तेजः पद्मा शुक्ला, तिस्रोऽप्येता धर्मलेश्याः।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते बहुशः।।५।। Translated Sutra: The golden-yellow, lotus-coloured and white are the three types of auspicious Lesyas; on account of these three, the soul mostly takes birth in various happy states of existence. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | English | 587 | View Detail | ||
Mool Sutra: परद्रव्यात् दुर्गतिः, स्वद्रव्यात् खलु सुगतिः भवति।
इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये, कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन्।।२१।। Translated Sutra: One gets birth in a miserable state by being devoted to other substances, i.e., worldly things and birth in a good state by being devoted to contemplation of one’s own soul; knowing this one should be absorbed in meditation of one’s soul and desist from thinking of other substances. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | English | 622 | View Detail | ||
Mool Sutra: अलाबु च एरण्डफल-मग्निधूम इषुर्धनुर्विप्रमुक्तः।
गतिः पूर्वप्रयोगेणैवं, सिद्धानामपि गतिस्तु।।३५।। Translated Sutra: Just as there is an upward motion in gourd if freed inside the water, in caster-seed (when it is dried), in fire or smoke and in the arrow shot from the bow, in the sameway there is a natural upward motion of the emancipated souls. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | English | 747 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मानं यः जानाति यश्च लोकं यः आगतिं नागतिं च।
यः शाश्वतं जानाति अशाश्वतं च जातिं मरणं च च्यवनोपपातम्।। Translated Sutra: One who knows about a soul, the world, the ensuing births, cessation of the ensuing births, the things, eternal and non-eternal, bith, death in general and that of deities soul in the tour and higher region, the karmic inflow. The stay of the stoppage karmic inflow, misery, the purging of karmas only he deserves to preach the dectrine of right action. Refers 747-748 | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | English | 749 | View Detail | ||
Mool Sutra: लब्धमलब्धपूर्वं, जिनवचन-सुभाषितं अमृतभूतम्।
गृहीतः सुगतिमार्गो, नाहं मरणाद् बिभेमि।।५।। Translated Sutra: I have already attained the noble verbal preaching of Jinas which was not attained earlier and is of the form of nectar; I have taken up the pathe leading to a happy future birth-so that I may no more be afraid of death. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४४. वीरस्तवन | English | 751 | View Detail | ||
Mool Sutra: स सर्वदर्शी अभिभूतज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान् स्थितात्मा।
अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान्, ग्रन्थादतीतः अभयोऽनायुः।।२।। Translated Sutra: Lord Mahavira was possessed of an all-comprehensive perception, possessed of a supreme knowledge, no taker of an improper meal, possessed of patience, possessed of steadiness, the supreme learned man in the world, free from all possessions, free from fear, one not going to take another birth. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | Gujarati | 7 | View Detail | ||
Mool Sutra: घनघातिकर्ममथनाः, त्रिभुवनवरभव्यकमलमार्तण्डाः।
अर्हाः (अर्हन्तः) अनन्तज्ञानिनः, अनुपमसौख्या जयन्तु जगति।। Translated Sutra: આત્મગુણના ઘાતક એવા કર્મોનો નાશ કરનાર, ત્રણે લોકમાં રહેલા ભવ્ય આત્માઓને વિકસિત કરવામાં સૂર્ય સમાન, અનુત્તર સુખ અને અનંતજ્ઞાનયુક્ત અરિહંતોનો જગતમાં જય હો. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Gujarati | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरके।
किं नाम भवेत् तत् कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।।१।। Translated Sutra: અનિત્ય, અશાશ્વત અને દુઃખમય આ સંસારમાં એવું કયું કાર્ય મારે કરવું કે જેનાથી મારી દુર્ગતિ ન થાય? | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Gujarati | 52 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः खलु संसारस्थो, जीवस्ततस्तु भवति परिणामः।
परिणामात् कर्म, कर्मतः भवति गतिषु गतिः।।८।। Translated Sutra: સંસારીજીવને રાગ-દ્વેષ આદિનાં પરિણામ (સંકલ્પ) હોય છે. પરિણામથી કર્મો બંધાય છે અને કર્મોથી ચારેય ગતિઓમાં જીવને જન્મ લેવાં પડે છે. જન્મ થવાથી દેહ અને દેહ હોવાથી ઈન્દ્રિયોનું નિર્માણ થાય છે. ઈન્દ્રિયો વિષયોને ગ્રહણ કરે છે તેના કારણે રાગ-દ્વેષ ઉદ્ભવે છે સંદર્ભ ૫૨-૫૪ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Gujarati | 53 | View Detail | ||
Mool Sutra: गतिमधिगतस्य देहो, देहादिन्द्रियाणि जायन्ते।
तैस्तु विषयग्रहणं, ततो रागो वा द्वेषो वा।।९।। Translated Sutra: મહેરબાની કરીને જુઓ ૫૨; સંદર્ભ ૫૨-૫૪ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
७. मिथ्यात्वसूत्र | Gujarati | 67 | View Detail | ||
Mool Sutra: हा ! यथा मोहितमतिना, सुगतिमार्गमजानता।
भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयंकरे।।१।। Translated Sutra: અરે! સુગતિના માર્ગથી અજાણ અને મૂઢમતિ એવો હું ઘોર-ભયાનક ભવાટવીમાં કેટલું બધું રખડ્યો? | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१२. अहिंसासूत्र | Gujarati | 158 | View Detail | ||
Mool Sutra: तुङ्गं न मन्दरात्, आकाशाद्विशालकं नास्ति।
यथा तथा जगति जानीहि, धर्मोऽहिंसासमो नास्ति।।१२।। Translated Sutra: મેરુ પર્વતથી ઊંચું કંઈ નથી, આકાશથી વિશાળ કંઈ નથી, તેવી જ રીતે જગતમાં અહિંસાથી ઊંચો કોઈ ધર્મ નથી. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१५. आत्मसूत्र | Gujarati | 182 | View Detail | ||
Mool Sutra: चतुर्गतिभवसंभ्रमणं, जातिजरामरण-रोगशोकाश्च।
कुलयोनिजीवमार्गणा-स्थानानि जीवस्य नो सन्ति।।६।। Translated Sutra: ચાર ગતિમાં ભ્રમણ, જન્મ-જરા-મરણ-રોગ-શોક આદિ દુઃખો, કુલ, યોનિ, જીવસ્થાન કે માર્ગણાસ્થાન - શુદ્ધ આત્મામાં આમાનું કશું છે જ નહિ. (કુલ=જીવોના પ્રકારો. યોનિ = જીવોની ઉત્પત્તિ સ્થાનો. જીવસ્થાન = જીવની વિવિધ સ્થિતિઓ. માર્ગણાસ્થાન=ભિન્ન-ભિન્ન કક્ષા અને સ્થિત | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Gujarati | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुण्यमपि यः समिच्छति, संसारः तेन ईहितः भवति।
पुण्यं सुगतिहेतुः, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम्।।८।। Translated Sutra: જે પુણ્યની ઈચ્છા રાખે છે તેણે સંસારની પણ ઈચ્છા રાખી એમ કહેવું જોઈએ. પુણ્ય સદ્ગતિનો હેતુ છે; નિર્વાણ માટે તો પુણ્યનો પણ ક્ષય કરવો રહ્યો. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Gujarati | 315 | View Detail | ||
Mool Sutra: विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात्।
बहुदोषसंकुलात्, नरकगतिगमनपथात्।।१५।। Translated Sutra: પરિગ્રહની તૃષ્ણાનો અંત નથી. દોષભરપૂર, દુર્ગતિ તરફ દોરી જનારા અમર્યાદ પરિગ્રહથી જેઓ બચવા ઈચ્છે છે તેઓએ આ વસ્તુઓનું પ્રમાણ બાંધી લેવું જોઈએ :- જમીન-મકાન, સોનું આદિ કિંમતી ધાતુઓ, ધન-ધાન્ય, દ્વિપદ-ચતુષ્પદ, સરસામાન; શુદ્ધ હૃદયવાળા શ્રાવકે આ વસ્તુઓનું સંદર્ભ ૩૧૫-૩૧૬ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Gujarati | 404 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुर्लभा तु मुधादायिनः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः।
मुधादायिनः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम्।।२१।। Translated Sutra: નિષ્કામભાવે દાન આપનાર અને નિષ્કામભાવે દાન લેનાર વ્યક્તિ જગતમાં દુર્લભ છે. નિષ્કામ દાતા અને નિષ્કામ ભોક્તા-બંને સદ્ગતિના અધિકારી બને છે. |