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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ महाशतक |
Gujarati | 54 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रेवती गाहावइणी अन्नदा कदाइ मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं विकड्ढमाणी-विकड्ढमाणी जेणेव पोसहसाला, जेणेव महासतए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासतयं समणोवासयं एवं वयासी– हंभो! महासतया! समणोवासया! किं णं तुब्भं देवानुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा, जं णं तुमं मए सद्धिं ओरालाइं मानुस्सयाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे नो विहरसि?
तए णं से महासतए समणोवासए रेवतीए गाहावइणीए एयमट्ठं नो आढाइ नो परियाणाइ, अणाढायमाणे अपरि-याणमाणे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ।
तए णं सा रेवती गाहावइणी महासतयं समणोवासयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–हंभो! Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૩ | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ महाशतक |
Gujarati | 55 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए। परिसा पडिगया।
गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे नयरे ममं अंतेवासी महासतए नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिममारणंतियसंलेहणाए ज्झूसियसरीरे भत्तपान-पडियाइक्खिए, कालं अणवकंखमाणे विहरइ।
तए णं तस्स महासतगस्स समणोवासगस्स रेवती गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं विकड्ढमाणी-विकड्ढमाणी जेणेव पोसहसाला, जेणेव महासतए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्माय जणणाइं सिंगारियाइं इत्थिभावाइं उवदंसेमाणी-उवदंसेमाणी महासतयं समणोवासयं एवं वयासी–हंभो! Translated Sutra: તે કાળે, તે સમયે શ્રમણ ભગવંત મહાવીર રાજગૃહી સમોસર્યા. પર્ષદા નીકળી, ભગવંતે ધર્મ કહ્યો, ધર્મ શ્રવણ કરી પર્ષદા પાછી ગઈ. ગૌતમને આમંત્રીને ભગવંતે કહ્યું – હે ગૌતમ ! આ રાજગૃહનગરમાં મારો અંતેવાસી મહાશતક શ્રાવક પૌષધશાળામાં અપશ્ચિમ મારણાંતિક સંલેખનાથી કૃશ શરીરી થઇ, ભોજન – પાન પ્રત્યાખ્યાન કરેલો અને કાળની અપેક્ષા | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ महाशतक |
Gujarati | 56 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से महासतए समणोवासए बहूहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासगपरियायं पाउणित्ता एक्कारस य उवासगपडिमाओ सम्मं काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं ज्झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडेंसए विमाणे देवत्ताए उववण्णे। चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं उवासगदसाणं अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते०। Translated Sutra: ત્યારપછી મહાશતક શ્રાવક ઘણા શીલ, વ્રત, નિયમ આદિ વડે યાવત્ પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા, આત્મશુદ્ધિ કરી. તેણે વીશ વર્ષનો શ્રમણોપાસક પર્યાય પાળ્યો. મહાશતક શ્રાવકે અગિયાર ઉપાસક પ્રતિમાઓને સમ્યક્પણે કાયા વડે પાળીને, એક માસિકી સંલેખના વડે આત્માને ઝૂસિત કરી(તલ્લીન બનાવી), ૬૦ ભક્તોને અનશન વડે છેદીને, આલચોના – પ્રતિક્રમણ | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नंदिनीपिता |
Gujarati | 57 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी। कोट्ठए चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं सावत्थीए नयरीए नंदिणीपिया नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे जाव बहुजनस्स अपरिभूए।
तस्स णं नंदिनीपियस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ वड्ढिपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था।
से णं नंदीनीपिया गाहावई बहूणं जाव आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, Translated Sutra: નવમા અધ્યયનનો ઉત્ક્ષેપ કહેવો. હે જંબૂ! તે કાળે, તે સમયે શ્રાવસ્તી નગરી હતી, કોષ્ઠક ચૈત્ય હતું, જિતશત્રુ રાજા હતો. તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં નંદિનીપિતા નામે ધનાઢ્ય ગાથાપતિ હતો. તેના ચાર હિરણ્ય કોડી નિધાનમાં, ચાર હિરણ્ય કોડી વ્યાજે, ચાર હિરણ્ય કોડી ધન – ધાન્યાદિમાં રોકાયેલ હતા. દશ હજાર ગાયોનું એક એવા ચાર ગોકુળ હતા. | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० लेइयापिता |
Gujarati | 58 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं नवमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दसमस्स णं भंते अज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी। कोट्ठए चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं सावत्थीए नयरीए लेतियापिता नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे जाव बहुजनस्स अपरिभूए।
तस्स णं लेइयापियस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वड्ढिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था।
से णं लेइयापिता गाहावई बहूणं जाव आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, Translated Sutra: દશમાં અધ્યયનનો ઉત્ક્ષેપ કહેવો. તે કાળે, તે સમયે શ્રાવસ્તી નગરી હતી , કોષ્ઠક ચૈત્ય હતું, જિતશત્રુ રાજા હતો. તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં સાલિહીપિતા નામ ધનાઢ્ય ગાથાપતિ વસતો હતો. તેના ચાર હિરણ્ય કોડી નિધાનમાં, ચાર હિરણ્ય કોડી વ્યાજે, ચાર હિરણ્ય કોડી ધન – ધાન્યાદિમાં પ્રયુક્ત હતા. તેને દશ હજાર ગાયોનું એક એવા ચાર ગોકુળ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Hindi | 110 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पिया देवकामाणं कामरूवविउव्विणो ।
उड्ढं कप्पेसु चिट्ठंति पुव्वा वाससया बहू ॥ Translated Sutra: एक प्रकार से दिव्य भोगों के लिए अपने को अर्पित किए हुए वे देव इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं। तथा ऊर्ध्व कल्पों में पूर्व वर्ष शत तक रहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ क्षुल्लक निर्ग्रंथत्व |
Hindi | 162 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाईपहे बहू ।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १६१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 279 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्छेरगमब्भुदए भोए चयसि पत्थिवा! ।
असंते कामे पत्थेसि संकप्पेण विहन्नसि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 676 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खुरेहिं तिक्खधारेहिं छुरियाहिं कप्पणीहि य ।
कप्पिओ फालिओ छिन्नो उक्कत्तो य अनेगसो ॥ Translated Sutra: पाशों और कूट जालों से विवश बने मृग की भाँति मैं भी अनेक बार छलपूर्वक पकड़ा गया हूँ, बाँधा गया हूँ, रोका गया हूँ और विनष्ट किया गया हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 706 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनिस्सिओ इहं लोए परलोए अनिस्सिओ ।
वासीचंदनकप्पो य असने अनसने तहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७०२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 873 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ चरिमाणं दुरनुपालओ ।
कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोज्झो सुपालओ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८७२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1350 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू पच्छानुतावेय तवप्पभावं ।
एवं वियारे अमियप्पयारे आवज्जई इंदियचोरवस्से ॥ Translated Sutra: शरीर की सेवारूप सहायता आदि की लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी इच्छा न करे। दीक्षित होने के बाद अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की इच्छा न करे। इन्द्रियरूपी चोरों के वशीभूत जीव अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों को प्राप्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1353 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं ससंकप्पविकप्पनासो संजायई समयमुवट्ठियस्स ।
अत्थे असंकप्पयतो तओ से पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥ Translated Sutra: ‘‘अपने ही संकल्प – विकल्प सब दोषों के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं।’’ – ऐसा जो संकल्प करता है, उसके मन में समता जागृत होती है और उससे उसकी काम – गुणों की तुष्णा क्षीण होती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1127 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] थवथुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
थवथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ। Translated Sutra: भन्ते ! स्तवस्तुतिमंगल से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्तव – स्तुति मंगल से जीव को ज्ञान – दर्शन – चारित्र स्वरूप बोधि का लाभ होता है। ज्ञान – दर्शन – चारित्र स्वरूप बोधि से संपन्न जीव अन्तक्रिया के योग्य अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1206 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं ।
कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1243 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनगारगुणेहिं च पकप्पम्मिं तहेव य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: २७ अनगार – गुणों में और तथैव प्रकल्प (आचारांग) के २८ अध्ययनों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1450 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासुयम्मि अनाबाहे इत्थीहिं अनभिद्दुए ।
तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४४९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1602 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पासट्ठिमिंजा य तिंदुगा तउसमिंजगा ।
सदावरी य गुम्मी य बोद्धव्वा इंदकाइया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १६०० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1672 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वेमाणिया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया ।
कप्पोवगा य बोद्धव्वा कप्पाईया तहेव य ॥ Translated Sutra: वैमानिक देवों के दो भेद हैं – कल्प से सहित और कल्पातीत। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1673 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पोवगा बारसहा सोहम्मीसाणगा तहा ।
सणंकुमारमाहिंदा बंभलोगा य लंतगा ॥ Translated Sutra: कल्पोपग देव के बारह प्रकार हैं – सौधर्म, ईशानक, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत आरण और अच्युत। सूत्र – १६७३, १६७४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1674 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] महासुक्का सहस्सारा आणया पाणया तहा ।
आरणा अच्चुया चेव इइ कप्पोवगा सुरा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १६७३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1675 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पाईया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया ।
गेविज्जाणुत्तरा चेव गेविज्जा नवविहा तहिं ॥ Translated Sutra: कल्पातीत देवों के दो भेद हैं – ग्रैवेयक और अनुत्तर। ग्रैवेयक नौ प्रकार के हैं – अधस्तन – अधस्तन, अधस्तन – मध्यम, अधस्तन – उपरितन, मध्यम – अधस्तन, मध्यम – मध्यम, मध्यम – उपरितन, उपरितन – अधस्तन, उपरितन – मध्यम और उपरितन – उपरितन – ये नौ ग्रैवेयक हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धक – ये पाँच अनुत्तर | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Gujarati | 676 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खुरेहिं तिक्खधारेहिं छुरियाहिं कप्पणीहि य ।
कप्पिओ फालिओ छिन्नो उक्कत्तो य अनेगसो ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૬૫૮ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Gujarati | 873 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ चरिमाणं दुरनुपालओ ।
कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोज्झो सुपालओ ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૮૭૧ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Gujarati | 110 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पिया देवकामाणं कामरूवविउव्विणो ।
उड्ढं कप्पेसु चिट्ठंति पुव्वा वाससया बहू ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૦૯ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ क्षुल्लक निर्ग्रंथत्व |
Gujarati | 162 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाईपहे बहू ।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए ॥ Translated Sutra: તેથી પંડિત પુરુષ અનેકવિધ બંધનોની અને જાતિપથોની સમીક્ષા કરીને સ્વયં સત્યની શોધ કરે અને વિશ્વના બધા પ્રાણીઓ પ્રત્યે મૈત્રીનો ભાવ રાખે. | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Gujarati | 279 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्छेरगमब्भुदए भोए चयसि पत्थिवा! ।
असंते कामे पत्थेसि संकप्पेण विहन्नसि ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૭૮ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Gujarati | 706 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनिस्सिओ इहं लोए परलोए अनिस्सिओ ।
वासीचंदनकप्पो य असने अनसने तहा ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૦૨ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Gujarati | 1127 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] थवथुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
थवथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ। Translated Sutra: ભગવન્ ! સ્તવ, સ્તુતિ અને મંગલથી જીવને શું પ્રાપ્ત થાય છે ? સ્તવ, સ્તુતિ અને મંગલથી જીવને જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર સ્વરૂપ બોધિનો લાભ થાય છે. જ્ઞાન – દર્શન – ચારિત્ર સ્વરૂપ બોધિથી સંપન્ન જીવ મોક્ષને યોગ્ય અથવા વૈમાનિક દેવોમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય આરાધના આરાધે છે. | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Gujarati | 1206 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं ।
कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૦૨ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३१ चरणविधि |
Gujarati | 1243 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनगारगुणेहिं च पकप्पम्मिं तहेव य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૨૭ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Gujarati | 1350 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू पच्छानुतावेय तवप्पभावं ।
एवं वियारे अमियप्पयारे आवज्जई इंदियचोरवस्से ॥ Translated Sutra: શરીરની સેવા આદિ સહાયની લિપ્સાથી કલ્પ્ય શિષ્યની પણ ઇચ્છા ન કરે, દીક્ષિત થયા પછી અનુતપ્ત થઈને તપના પ્રભાવની ઇચ્છા ન કરે. ઇન્દ્રિય રૂપી ચોરોને વશીભૂત જીવ અનેક પ્રકારના અપરિમિત વિકારોને પ્રાપ્ત કરે છે. | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Gujarati | 1353 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं ससंकप्पविकप्पनासो संजायई समयमुवट्ठियस्स ।
अत्थे असंकप्पयतो तओ से पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥ Translated Sutra: ‘પોતાના સંકલ્પ – વિકલ્પો જ બધા દોષોના કારણ છે. ઇન્દ્રિયોના વિષયો નહીં.’ – એવો જે સંકલ્પ કરે છે, તેના મનમાં સમતા જાગૃત થાય છે અને તેનાથી તેની કામગુણ તૃષ્ણા ક્ષીણ થાય છે. | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Gujarati | 1450 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासुयम्मि अनाबाहे इत्थीहिं अनभिद्दुए ।
तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૪૪૫ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Gujarati | 1602 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पासट्ठिमिंजा य तिंदुगा तउसमिंजगा ।
सदावरी य गुम्मी य बोद्धव्वा इंदकाइया ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૦૦ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Gujarati | 1672 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वेमाणिया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया ।
कप्पोवगा य बोद्धव्वा कप्पाईया तहेव य ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૬૯ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Gujarati | 1673 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पोवगा बारसहा सोहम्मीसाणगा तहा ।
सणंकुमारमाहिंदा बंभलोगा य लंतगा ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૬૯ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Gujarati | 1674 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] महासुक्का सहस्सारा आणया पाणया तहा ।
आरणा अच्चुया चेव इइ कप्पोवगा सुरा ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૬૯ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Gujarati | 1675 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कप्पाईया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया ।
गेविज्जाणुत्तरा चेव गेविज्जा नवविहा तहिं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૬૯ | |||||||||
Vanhidasha | वह्निदशा | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ निषध |
Hindi | 3 | Sutra | Upang-12 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पंचमस्स वग्गस्स वण्हिदसाणं दुवालस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स वण्हिदसाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नामं नयरी होत्था–दुवालसजोयणायामा नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं रेवतए नामं पव्वए होत्था–तुंगे गगनतलमनुलिहंत-सिहरे नानाविहरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लया-वल्ली-परिगयाभिरामे हंस-मिय-मयूर-कोंच-सारस-चक्कवाग-मदनसाला-कोइलकुलोववेए Translated Sutra: हे भदन्त ! श्रमण यावत् संप्राप्त भगवान ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती – नगरी थी। वह पूर्व – पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर – दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, उसका निर्माण स्वयं धनपति ने अपने मतिकौशल से किया था। स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ प्राकार और पंचरंगी मणियों के | |||||||||
Vanhidasha | વહ્નિદશા | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ निषध |
Gujarati | 3 | Sutra | Upang-12 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पंचमस्स वग्गस्स वण्हिदसाणं दुवालस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स वण्हिदसाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नामं नयरी होत्था–दुवालसजोयणायामा नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं रेवतए नामं पव्वए होत्था–तुंगे गगनतलमनुलिहंत-सिहरे नानाविहरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लया-वल्ली-परिगयाभिरामे हंस-मिय-मयूर-कोंच-सारस-चक्कवाग-मदनसाला-कोइलकुलोववेए Translated Sutra: ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે પાંચમાં વર્ગ ‘વૃષ્ણિદશા’ના પહેલાં અધ્યયનનો શો અર્થ કહેલ છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે તે સમયે દ્વારવતી નગરી હતી. બાર યોજન લાંબી અને નવ યોજન પહોળી યાવત્ પ્રત્યક્ષ દેવલોકરૂપ, પ્રાસાદીય – દર્શનીય – અભિરૂપ – પ્રતિરૂપ હતી. તે દ્વારવતી બહાર ઇશાન દિશામાં રૈવત નામે પર્વત હતો. ઊંચો, ગગનતલને સ્પર્શતા | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-१ मृगापुत्र |
Hindi | 5 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं मियग्गामे नयरे एगे जाइअंधे पुरिसे परिवसइ। से णं एगेणं सचक्खुएणं पुरिसेणं पुरओ दंडएणं पकड्ढिज्जमाणे-पकड्ढिज्जमाणे फुट्टहडाहडसीसे मच्छिया चडगर पहकरेणं अण्णिज्ज-माणमग्गे मियग्गामे नयरे गेहे गेहे कोलुणवडियाए वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे मियग्गामे नयरे चंदनपायवे उज्जाने समोसरिए। परिसा निग्गया।
तए णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे जहा कूणिए तहा निग्गए जाव पज्जुवासइ।
तए णं से जाइअंधे पुरिसे तं महयाजणसद्दं च जणवूहं ए जणबोलं च जणकलकलं Translated Sutra: उस मृगाग्राम नामक नगर में विजय नामका एक क्षत्रिय राजा था। उसकी मृगा नामक रानी थी। उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगा देवी का आत्मज मृगापुत्र नामका एक बालक था। वह बालक जन्म के समय से ही अन्धा, गूँगा, बहरा, लूला, हुण्ड था। वह वातरोग से पीड़ित था। उसके हाथ, पैर, कान, आँख और नाक भी न थे। इन अंगोपांगों का केवल आकार ही | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-१ मृगापुत्र |
Hindi | 6 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से भगवं गोयमे तं जाइअंधं पुरिसं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्न कोऊहल्ले उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे अभिमुहे Translated Sutra: उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार भी वहाँ बिराजमान थे। गौतमस्वामी ने उस जन्मान्ध पुरुष को देखा। जातश्रद्ध गौतम इस प्रकार बोले – ‘अहो भगवन् ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप हो ?’ भगवान ने कहा – ‘हाँ, है !’ ‘हे प्रभो ! वह पुरुष कहाँ है ?’ भगवान | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-१ मृगापुत्र |
Hindi | 7 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! पुरिसे पुव्वभवे के आसि? किं नामए वा किं गोत्ते वा? कयरंसि गामंसि वा नयरंसि वा? किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता, केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ?
गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे नामं नयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे वण्णओ।
तत्थ णं सयदुवारे नयरे धनवई नामं राया होत्था–वण्णओ।
तस्स णं सयदुवारस्स नयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरत्थिमे दिसीभाए विजयवद्धमाणे नामं Translated Sutra: भगवन् ! यह पुरुष मृगापुत्र पूर्वभव में कौन था ? किस नाम व गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा नगर का रहने वाला था ? क्या देकर, क्या भोगकर, किन – किन कर्मों का आचरण कर और किन – किन पुराने कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है ? श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को कहा – ‘हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-१ मृगापुत्र |
Hindi | 9 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से एक्काई रट्ठकूडे सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! विजयवद्धमाणे खेडे सिंघाडग तिग चउक्क चच्चर चउम्मुह महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–इहं खलु देवानुप्पिया! एक्काइस्स रट्ठकूडस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउब्भूया, तं जहा–सासे जाव कोढे, तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छिओ वा तेगिच्छियपुत्तो वा एक्काइस्स रट्ठकूडस्स तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं एक्काई रट्ठकूडे Translated Sutra: तदनन्तर उक्त सोलह प्रकार के भयंकर रोगों से खेद को प्राप्त वह एकादि नामक प्रान्ताधिपति सेवकों को बुलाकर कहता है – ‘‘देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और साधारण मार्ग पर जाकर अत्यन्त ऊंचे स्वरों से इस तरह घोषणा करो – ‘हे देवानुप्रियो ! एकादि प्रान्तपति के शरीर | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-१ मृगापुत्र |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मियापुत्ते णं भंते! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिइ? कहिं उववज्जिहिइ?
गोयमा! मियापुत्ते दारए छव्वीसं वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले सीहकुलंसि सीहत्ताए पच्चायाहिइ।
से णं तत्थ सीहे भविस्सइ–अहम्मिए बहुनगरनिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसिए सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणइ समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ।
से णं तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता सिरीसवेसु उववज्जिहिइ। तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसेणं Translated Sutra: हे भगवन् ! यह मृगापुत्र नामक दारक यहाँ से मरणावसर पर मृत्यु को पाकर कहाँ जाएगा ? और कहाँ पर उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! मृगापुत्र दारक २६ वर्ष के परिपूर्ण आयुष्य को भोगकर मृत्यु का समय आने पर काल करके इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सिंहकुल में सिंह के रूप में उत्पन्न | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-२ उज्झितक |
Hindi | 12 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं वाणियगामे विजयमित्ते नामं सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे।
तस्स णं विजयमित्तस्स सुभद्दा नामं भारिया होत्था।
तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभद्दाए भारियाए अत्तए उज्झियए नामं दारए होत्था–अहीन पडिपुण्ण पंचिंदिय सरीरे लक्खण वंजण गुणोववेए माणुम्माणप्पमाण पडिपुण्ण सुजाय सव्वंग-सुंदरंगे ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे परिसा निग्गया। राया निग्गओ, जहा कूणिओ निग्गओ। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया राया य गओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे गोयमगोत्तेणं जाव संखित्तविउलतेयलेसे Translated Sutra: उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नामक एक धनी सार्थवाह निवास करता था। उस विजयमित्र की अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर से सम्पन्न सुभद्रा नाम की भार्या थी। उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का आत्मज उज्झितक नामक सर्वाङ्गसम्पन्न और रूपवान् बालक था। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर वाणिजग्राम नामक नगर में | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-२ उज्झितक |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं भगवओ गोयमस्स तं पुरिसं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ।
न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा। पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे निरयपडिरूवियं वेयणं वेएइ त्ति कट्टु वाणिय गामे नयरे उच्च नीय मज्झिम कुलाइं अडमाणे अहापज्जत्तं समुदानं गिण्हइ, गिण्हित्ता वाणियगामे नयरे मज्झंमज्झेणं पडिनिक्खमइ, अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-सोहेमाणे जेणेव दूइपलासए उज्जाने Translated Sutra: तत्पश्चात् उस पुरुष को देखकर भगवान् गौतम को यह चिन्तन, विचार, मनःसंकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो! यह पुरुष कैसी नरकतुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है !’ ऐसा विचार करके वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम घरों में भ्रमण करते हुए यथापर्याप्त भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान महावीर के पास | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-२ उज्झितक |
Hindi | 17 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] उज्झियए णं भंते! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववज्जिहिइ?
गोयमा! उज्झियए दारए पणुवीसं वासाइं परमाउं पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे सूलभिण्णे कए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइएसु नेरइगत्ताए उववज्जिहिइ।
से णं तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उववज्जिहिइ।
से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तिरियभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे जाए-जाए वाणरपेल्लए वहेइ। तं एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे Translated Sutra: हे प्रभो ! यह उज्झितक कुमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जाएगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! उज्झितक कुमार २५ वर्ष की पूर्ण आयु को भोगकर आज ही त्रिभागविशेष दिन में शूली द्वारा भेद को प्राप्त होकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा में नारक रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर सीधा इसी जम्बू द्वीप में भारतवर्ष | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-३ अभग्नसेन |
Hindi | 18 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
तए णं से सुहम्मे अनगारे जंबू अनगारं एवं वयासी–एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरिमताले नामं नयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे।
तस्स णं पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं अमोहदंसी उज्जाने।
तत्थ णं अमोहदंसिस्स जक्खस्स आययणे होत्था।
तत्थ णं पुरिमताले नयरे महब्बले नामं राया होत्था।
तस्स णं पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए देसप्पंते अडवि संसिया, एत्थ णं सालाडवी Translated Sutra: तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्ववत्। उस काल उस समय में पुरिमताल नगर था। वह भवनादि की अधिकता से तथा धन – धान्यादि से परिपूर्ण था। उस पुरिमताल नगर के ईशान – कोणमें अमोघदर्शी नामक उद्यान था उसमें अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक यक्षायतन था। पुरिमताल नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था। उस पुरिमताल नगर के ईशान |