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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 95 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्मा सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णिपुव्वे जाइसरणे समुप्पन्ने, एयमट्ठं सम्मं अभिसमागच्छंति।
तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पन्नजाईसरणे जाणित्ता गब्भधराणं दाराइं विहाडेइ।
तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति।
तए णं महब्बलपामोक्खा सत्तवि य बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया वि होत्था।
तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे Translated Sutra: तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली से पूर्वभव का यह वृत्तान्त सूनने और हृदय में धारण करने से, शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं और जातिस्मरण को आच्छादित करने वाले कर्मों के क्षयोपशम के कारण, ईहा – अपोह तथा मार्गणा और गवेषणा – विशेष विचार करने से जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 103 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं लोगंतियाणं देवाणं पत्तेयं-पत्तेयं आसणाइं चलंति तहेव जाव तं जीयमेयं लोगंतियाणं देवाणं अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करित्तए त्ति। तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमो त्ति कट्टु एवं संपेहेंति, संपेहेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाइं दंडं निसिरंति, एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणियाइं दसद्धवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिया करयल-परिग्गहियं Translated Sutra: तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुए – इत्यादि उसी प्रकार जानना दीक्षा लेने की ईच्छा करने वाले तीर्थंकरो को सम्बोधन करना हमारा आचार है; अतः हम जाएं और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें, ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया। उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्घात से विक्रिया की। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 106 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं मल्लिस्स अरहओ मनोरमं सीयं दुरुढस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगला पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिया–एवं निग्गमी जहा जमालिस्स।
तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेगइया देवा मिहिलं रायहाणिं अब्भिंतरबाहिरं आसिय-संमज्जिय-संमट्ठ-सुइ-रत्थंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावंति।
तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, आभरणालंकारं ओमुयइ।
तए णं पभावई हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणालंकारं पडिच्छइ।
तए णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ।
तए णं सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब मनोरमा शिबिका पर आरूढ़ हुए, उस समय उनके आगे आठ – आठ मंगल अनुक्रम से चले। जमालि के निर्गमन की तरह यहाँ मल्ली अरहंत का वर्णन समझ लेना। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब दीक्षा धारण करने के लिए नीकले तो किन्हीं – किन्हीं देवों ने मिथिला राजधानी में पानी सींच दिया, उसे साफ कर दिया और भीतर तथा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 109 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाइं चलेंति, समोसढा धम्मं सुणेंति, सुणेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए वि निग्गच्छइ।
तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेट्ठपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ सीयाओ दुरूढा समाणा सव्विड्ढीए जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति जाव पज्जुवासंति।
तए णं मल्ली अरहा तीसे महइमहालियाए परिसाए, कुंभगस्स रन्नो, तेसिं च जियसत्तु-पामोक्खाणं छण्हं राईणं धम्मं परिकहेइ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। Translated Sutra: उस काल और उस समय में सब देवों के आसन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ आए, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया। फिर जिस दिशा में प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गए। कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए नीकला। तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने – अपने ज्येष्ठ पुत्रों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 111 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं लवणसमुद्दं अनेगाइं जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं अनेगाइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भूयाइं, तं जहा–अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे कालिय-वाए जाव समुट्ठिए।
तए णं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्जमाणी-आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी-संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी-संखोभिज्जमाणी सलिल-तिक्ख-वेगेहिं अइअट्टिज्जमाणी-अइअट्टिज्जमाणी कोट्टिमंसि करतलाहते विव तिंदूसए तत्थेव-तत्थेव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणी विव वरणीयलाओ सिद्धविज्जा विज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणी विव गगनतलाओ भट्ठविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणी विव महागरुल-वेग-वित्तासिय Translated Sutra: तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए। वे उत्पात इस प्रकार थे – अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे। प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी। तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार – बार काँपने लगी, बार – बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 123 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारया तओ मुहुत्तंतरस्स पासायवडेंसए सइं वा रइं वा धिइं वा अलभमाणा अन्नमन्नं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! रयणदीव-देवया अम्हे एवं वयासी–एवं खलु अहं सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ। तं सेयं खलु अम्हं देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्लं वनसंडं गमित्तए–अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवागच्छंति। तत्थ णं वावीसु य जाव आलीधरएसु य जाव सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरंति।
तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सइं वा रइं वा धिइं वा अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले Translated Sutra: वे माकन्दीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त्त में ही उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में कहने लगे – ‘देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे कहा है कि – शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवण – समुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 124 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइगस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म बलियतरं भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी–कहण्णं देवानुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थरेज्जामो?
तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्ले वनसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जक्खे परिवसइ। तए णं से सेलए जक्खे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु आगय-समए पत्तसमए महया-महया सद्देण एवं वदइ–कं तारयामि? कं पालयामि? तं गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्लं वण-संडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं Translated Sutra: तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गए। तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से छूटकारा पा सकते हैं ?’ तब शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा – ‘देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 139 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनपालिए चंपं नयरिं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे तिप्पमाणे विलवमाणे जिनरक्खियं-वावत्तिं निवेदेइ।
तए णं जिनपालिए अम्मापियरो मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि परियणेणं सद्धिं रोयमाणा कंदमाणा सोयमाणा तिप्पमाणा विलवमाणा बहूइं लोइयाइं मयकिच्चाइं करेंति, करेत्ता कालेणं विगयसोया जाया।
तए णं जिनपालियं अन्नया कयाइं सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी–कहण्णं पुत्ता! जिनरक्खिए कालगए?
तए णं से जिनपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवाय-संमुच्छणं च पोयवहण-विवत्तिं Translated Sutra: तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा माता – पिता थे वहाँ पहुँचा। उसने रोते – रोते और विलाप करते – करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सूनाया। तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता – पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के साथ रोते – रोते बहुत – से लौकिक मृतककृत्य करके वे कुछ समय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-११ दावद्रव |
Hindi | 142 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति?
गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पन्नत्ता–किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठंति।
जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव Translated Sutra: ‘भगवन् ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१२ उदक |
Hindi | 144 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे Translated Sutra: वह जितशत्रु राजा एक बार – किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ – मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 145 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तेरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। समोसरणं। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे दद्दुरवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए दद्दुरंसि सीहासनंसि दद्दुरे देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सूरियाभे जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए, जहा–सूरियाभे।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने बारहवें ज्ञात – अध्ययन का अर्थ यह कहा है तो तेरहवे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर चौदह | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 147 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 148 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चोद्दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नयरं। पमयवणे उज्जाणे। कनगरहे राया। तस्स णं कनगरहस्स पउमावई देवी।
तस्स णं कनगरहस्स तेयलिपुत्ते नामं अमच्चे–साम-दंड-भेय-उवप्पयाण-नीति-सुपउत्त-नयविहण्णू विहरइ।
तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तस्स णं भद्दा नामं भारिया।
तस्स णं कलावस्स मूसियारदारगस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया होत्था–रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ हे जम्बू ! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नगर था। उस से बाहर ईशान – दिशा में प्रमदवन उद्यान था। उस नगर में कनकरथ राजा था। कनकरथ राजा की पद्मावती देवी थी। कथकरथ राजा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 149 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कनगरहे राया रज्जे य रट्ठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य पुरे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे जाए, जाए पुत्ते वियंगेइ–अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं पायंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं पायंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं कण्णसक्कुलीओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं नासापुडाइं फालेइ, अप्पेगइयाणं अंगोवंगाइं वियत्तेइ।
तए णं तीसे पउमावईए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु कनगरहे राया रज्जे य रट्ठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे Translated Sutra: कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल में, वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप – गृद्ध और लालसामय था। अत एव वह जो – जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं के हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 152 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झ-त्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं तेयलि-पुत्तस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलीपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तं सेयं खलु ममं सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए–एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठि यम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं Translated Sutra: एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करती जाग रही थी, तब उसे विचार उत्पन्न हुआ – ‘मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत् दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अत एव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है।’ पोट्टिला दूसरे दिन प्रभात होने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 154 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अभिक्खणं-अभिक्खणं केवलिपन्नत्ते धम्मे संबोहेइ, नो चेव णं से तेयलिपुत्तं संबुज्झइ।
तए णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु कनगज्झए राया तेयलिपुत्तं आढाइ जाव भोगं च से अनुवड्ढेइ, तए णं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं-अभिक्खणं संबोहिज्जमाणे वि धम्मे नो संबुज्झइ। तं सेयं खलु ममं कनगज्झयं तेयलिपुत्ताओ विप्परिणामित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कनगज्झयं तेयलिपुत्तओ विप्परिणामेइ।
तए णं तेयलिपुत्ते कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे Translated Sutra: उधर पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को बार – बार केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं। तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ – ‘कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार – बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१५ नंदीफळ |
Hindi | 157 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पन्नरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं चंपाए नयरीए धने नामं सत्थवाहे होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था–रिद्धत्थिमिय-समिद्धा वण्णओ।
तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कनगकेऊ नामं राया होत्था–महया वण्णओ।
तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था। जितशत्रु राजा था। धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था। उस | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 159 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नामं थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नामं अनगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउलं-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ।
तए णं से धम्मरुई अनगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाइं ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। परीषद् वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 162 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए जिनदत्ते नामं सत्थवाहे–अड्ढे।
तस्स णं जिनदत्तस्स भद्दा भारिया–सूमाला इट्ठा मानुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरइ।
तस्स णं जिनदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए–सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे।
तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ। इमं च णं सूमालिया दारिया ण्हाया चेडिया-चक्कवाल-संपरिवुडा उप्पिं आगासतलगंसि कनग-तिंदूसएणं कीलमाणी-कीलमाणी विहरइ।
तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे सुमालियं दारियं पासइ, पासित्ता सुमालियाए दारियाए रूवे य जोव्वणे Translated Sutra: चम्पा नगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था। उस जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुकुमारी थी, जिनदत्त को प्रिय थी यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आस्वादन करती हुई रहती थी। उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था। वह भी सुकुमार एक सुन्दर रूप में सम्पन्न | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 163 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सागरए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेइ, से जहानामए–असिपत्ते इ वा करपत्ते इ वा खुरपत्ते इ वा कलंबचीरिगापत्ते इ वा सत्तिअग्गे इ वा कोंतग्गे इ वा तोमरग्गे इ वा भिंडिमालग्गे इ वा सूचिकलावए इ वा विच्छुयडंके इ वा कविकच्छू इ वा इंगाले इ वा मुम्मुरे इ वा अच्ची इ वा जाले इ वा अलाए इ वा सुद्धागणी इ वा भवे एयारूवे?
नो इणट्ठे समट्ठे। एत्तो अनिट्ठतराए चेव अक्कंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमनामतराए चेव पाणिफासं संवेदेइ।
तए णं से सागरए अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठइ।
तए णं सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स अम्मापियरो मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं Translated Sutra: उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि। वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श का अनुभव करता रहा। सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर सकता हुआ, विवश होकर, मुहूर्त्तमात्र – वहाँ रहा। फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 164 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमनुरत्ता पइं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणं-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासधरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी– गए णं से सागरए त्ति कट्टु ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ।
तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहिं।
तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं Translated Sutra: सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी। वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्त थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी। उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते – करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा – ‘सागर तो चल दिया!’ उसके मन का संकल्प मारा गया, अत एव वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान – चिन्ता करने लगी। तत्पश्चात् | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 166 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ– नरवइ-दिन्न-पयारा अम्मापिइ-नियण-निप्पिवासा वेसविहार-कय-निकेया नानाविह-अविनयप्पहाणा अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था–सूमाला जहा अंडनाए।
तए णं तीसे ललियाए गोट्ठीए अन्नया कयाइ पंच गोट्ठिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति।
तत्थ णं एगे गोट्ठिल्लगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरेइ, एगे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुप्फपूरगं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरुक्खेवं करेइ।
तए णं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहिं गोट्ठिल्लपुरिसेहिं Translated Sutra: चम्पा नगरी में ललिता एक गोष्ठी निवास करती थी। राजाने उसे ईच्छानुसार विचरण करने की छूट दे रखी थी। वह टोली माता – पिता आदि स्वजनों की परवाह नहीं करती थी। वेश्या का घर ही उसका घर था। वह नाना प्रकार का अविनय करने में उद्धत थी, वह धनाढ्य लोगों की टोली थी और यावत् किसी से दबती नहीं थी। उस चम्पानगरीमें देवदत्ता गणिका | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 169 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दुवए राया दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिया! बारवइं नयरिं। तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे, बलदेवपामोक्खे पंच महावीरे, उग्गसेणपामोक्खे सोलस रायसहस्से, पज्जुन्नपामोक्खाओ अद्धट्ठाओ कुमारकोडीओ, संब-पामोक्खाओ सट्ठि दुद्दंतसाहस्सीओ, वीरसेनपामोक्खाओ एक्कवीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महासेन पामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ, अन्ने य बहवे राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेनावइ-सत्थवाहप-भिइओ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि–
एवं Translated Sutra: तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूत बुलवाकर उससे कहा – देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती नगरी जाओ। वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीर पुरुषों | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 170 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दुवए राया दोच्चं पि दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिया! हत्थिणाउरं नयरं। तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं–जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसय-समग्गं, गंगेयं विदुरं दोणं जय-द्दहं सउणिं कीवं आसत्थामं करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि–
एवं खलु देवानुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रन्नो धूयाए, चुलणीए अत्तयाए धट्ठज्जुण-कुमारस्स भइणीए, दोवईए रायवरकन्नाए सयंवरे भविस्सइ। तं णं तुब्भे दुवयं रायं अनुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे Translated Sutra: तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूसरे दूत को बुलाकर उससे कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ। वहाँ तुम पुत्रों सहित पाण्डु राजा को – उनके पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को, सो भाइयों समेत दुर्योधन को, गांगेय, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, कर्ण और अश्वत्थामा को दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 172 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं दोवइं रायवरकण्णं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति। किं ते? वरपायपत्तनेउरा जाव चेडिया-चक्कवाल-महयरग-विंद-परिक्खित्ता अंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ।
तए णं से धट्ठज्जुणे कुमारे दोवईए रायवरकन्नाए सारत्थं करेइ।
तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कंपिल्लपुरं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरामडबं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया। किस प्रकार ? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए यावत् वह दासियों के समूह से परिवृत्त होकर अन्तःपुर से बाहर नीकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई। आकर क्रीड़ा करने वाली धाय और लेखिका | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 173 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवईए य देवीए कल्लाणकारे भविस्सइ। तं तुब्भे णं देवानुप्पिया! ममं अनुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं चेव समोसरह।
तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयं-पत्तेयं ण्हाया सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया हत्थिखंधवरगया जाव जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे पंचण्हं Translated Sutra: तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्त्र राजाओं से हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पाँच पाण्डवों और द्रौपदी का कल्याणकरण महोत्सव होगा। अत एव देवानुप्रियो ! तुम सब मुझ पर अनुग्रह करके यथासमय विलम्ब किए बिना पधारना। तत्पश्चात् वे वासुदेव आदि नृपतिगण | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 174 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धिं कल्लाकल्लिं वारंवारेणं उरालाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति।
तए णं से पंडू राया अन्नया कयाइं पंचहिं पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवईए य सद्धिं अंतोअंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे सीहासनवरगए यावि विहरइ।
इमं च णं कच्छुल्लनारए–दंसणेणं अइभद्दए विनीए अंतो-अंतो य कलुस हियए मज्झत्थ-उवत्थिए य अल्लीण -सोमपियदंसणे सुरूवे अमइल-सगल-परिहिए कालमियचम्म-उत्तरासंग-रइयवच्छे दंड-कमंडलु-हत्थे जडामउड-दित्तसिरए जन्नोव-इय-गणेत्तिय-मुंजमेहला-वागलधरे हत्थकय-कच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणि-ओवयणुप्पयणि-लेसणीसु य संकाणि-आभिओगि-पण्णत्ति-गमणि-थंभिणीसु Translated Sutra: तत्पश्चात् पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्तःपुर के परिवार सहित एक – एक दिन बारी – बारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत् रहने लगे। पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत्त होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। इधर कच्छुल्ल | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 175 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्ठेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्घाए उद्धुयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था।
तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध-दाहिणड्ढ-भरहवासे Translated Sutra: तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो! यह द्रौपदी अपने रूप, यौवन, लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अत एव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरी उपासना नहीं करती। अत एव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।’ इस प्रकार नारद ने विचार करके | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 176 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जुहिट्ठिल्ले राया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवइं देविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेत्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुइं वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुं रायं एवं वयासी–एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेन वा दानवेन वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि णं ताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए।
तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, Translated Sutra: इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात् थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे। वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा करने लगे। किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 177 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे भारहे वासे चंपा नामं नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए।
तत्थ णं चंपाए नयरीए कविले नामं वासुदेवे राया होत्था–महताहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं ए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे। कविले वासुदेवे धम्मं सुणेइ।
तए णं से कविले वासुदेवे मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतिए धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसद्दं सुणेइ।
तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–किमन्ने धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पन्ने, जस्स णं अयं संखसद्दे Translated Sutra: उस काल उस समयमें, धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्रमें, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। उसमें कपिल वासुदेव राजा था। वह महान हिमवान पर्वत समान महान था। उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अरिहंत चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया। उसी समय | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 179 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते पंच पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं निव्विसया आणत्ता।
तए णं पंडू राया ते पंच पंडवे एवं वयासी–कहण्णं पुत्ता! तुब्भे कण्हेणं वासुदेवेणं निव्विसया आणत्ता?
तए णं ते पंच पंडवा पंडुं रायं एवं वयासी–एवं खलु ताओ! अम्हे अवरकंकाओ पडिनियत्ता लवणसमुद्दं दोण्णिं जोयणसयसहस्साइं वीईवइत्था। तए णं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयइ–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं Translated Sutra: तत्पश्चात् वे पाँचों पाण्डव हस्तिनापुर नगर आए। पाण्डु राजा के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले – ‘हे तात ! कृष्ण नें हमें देशनिर्वासन की आज्ञा दी है।’ तब पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों से प्रश्न किया – ‘पुत्रों ! किस कारण वासुदेव ने तुम्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी ?’ तब पाँच पाण्डवों ने पाण्डु राजा को उत्तर दिया | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 180 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई देवी अन्नया कयाइ आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था।
तए णं सा दोवई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया–सूमाल कोमलयं गयतालुयसमाणं।
तए णं तस्स णं दारगस्स निव्वत्तबारसाहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्जं करेंति जम्हा णं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए देवीए अत्तए, तं होउ णं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं पंडुसेने-पंडुसेने।
तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति पंडुसेणत्ति।
तए णं तं पंडुसेणं दारयं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासजायगं चेव सोहणंसि तिहि-करण-मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेंति।
तए णं से Translated Sutra: तत्पश्चात् एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई। फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत् सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया। बारह दिन व्यतीत होने पर बालक के माता – पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि – क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 185 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ते संजत्ता-नावावाणियगे एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! गामागर-नगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संबाह-सण्णिवेसाइं० आहिंडह, लवणसमुद्दं च अभिक्खणं-अभिक्खणं पोयवहणेणं ओगाहेह। तं अत्थियाइं च केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे?
तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा कनगकेऊ एवं वयासी–एवं खलु अम्हे देवानुप्पिया! इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवंतेणं संछूढा। तत्थ णं बहवे हिरन्नागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य, बहवे तत्थ आसे पासामो।
किं ते? हरिरेणु जाव अम्हं गंधं आघायंति, आघाइत्ता भीया तत्था उव्विग्गा उव्विग्गमणा तओ अनेगाइं जोयणाइं उब्भमंति। Translated Sutra: फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत् आकरों में घूमते हो और बार – बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक – अद्भुत – अनोखी वस्तु देखी है ?’ तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 186 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति। तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा पयत्ता यावि होत्था।
तए णं ते आसा ते उक्किट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे आसेवमाणा तेहिं बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बज्झंति।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारेंति, कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूणं पोयवहण-पाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति।
तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव Translated Sutra: उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे। वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्च्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए। उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 187 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु ।
सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदिय–वसट्टा ॥ Translated Sutra: श्रुतिसुखद स्वरघोलना के प्रकारवाले, मधुर वीणा, तलताल, बाँसूरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं। किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 215 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कंडरीयस्स अनगारस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालाइक्कंतेहि य पमाणाइक्कंतेहि य निच्चं पानभोयणेहि य पयइ-सुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया–उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जर-परिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ।
तए णं थेरा अन्नया कयाइ जेणेव पोंडरीगिणी नयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता नलिनीवने समोसढा। पुंडरीए निग्गए। धम्मं सुणेइ।
तए णं पुंडरीए राया धम्मं सोच्चा जेणेव कंडरीए अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त – प्रान्त अर्थात् रूखे – सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के समान यावत् दाह – ज्वर उत्पन्न हो गया। वे रुग्ण होकर रहने लगे। तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे। तब पुंडरीक राजमहल से नीकला और उसने धर्म – देशना | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 218 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं Translated Sutra: पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१० ईशानेन्द्र अग्रमहिषी आठ अध्ययन-१ थी ८ |
Hindi | 241 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेण जाव सिद्धिगइ नामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं धम्मकहाणं अयमट्ठे पन्नत्ते। Translated Sutra: हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ के संस्थापक, स्वयं बोध प्राप्त करने वाले, पुरुषोत्तम यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ कहा है। धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कन्ध दस वर्गों में समाप्त। | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Gujarati | 76 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अठमट्ठे पन्नत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणु इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सोओदाए महानदीए दाहिणेणं, सुहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं सलिलावई नामं विजए पन्नत्ते।
तत्थ णं सलिलावईविजए वीयसोगा नामं रायहाणी–नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोग-भूया।
तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए इंदकुंभे Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૬. ભગવન્ ! જો શ્રમણ યાવત્ સિદ્ધિ ગતિ સંપ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે સાતમા જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો, તો આઠમા જ્ઞાત અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે આ જ જંબૂદ્વીપના મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મેરુ પર્વતની પશ્ચિમે નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તરે, શીતોદા મહાનદીની દક્ષિણે સુખાવહ વક્ષસ્કાર પર્વતની | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Gujarati | 82 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहयरियाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणुस्सवं, नवरं–मिहिलाए कुंभस्स पभावईए अभिलाओ संजोएयव्वो जाव नंदीसरवरदीवे महिमा।
तया णं कुंभए राया बहूहिं भवनवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणा-भिसेयमहिमाए कयाए समाणीए पच्चूसकालसमयंसि नगरगुत्तिए सद्दावेइ जायकम्मं जाव नाम-करणं–जम्हा णं अम्हं इमीसे दारियाए माऊए मल्लसय-णिज्जंसि डोहले विणीए, तं होउ णं अम्हं दारिया नामेणं मल्ली।
तए णं सा मल्ली पंचधाईपरिक्खित्ता जाव सुहंसुहेणं परिवड्ढई०। Translated Sutra: સૂત્ર– ૮૨. તે કાળે, તે સમયે અધોલોકમાં વસનારી આઠ મહત્તરિકા દિશાકુમારીઓ, જેમ જંબૂદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં જન્મ – વર્ણન છે, તે સર્વે કહેવું. વિશેષ આ – મિથિલામાં કુંભના ભવનમાં, પ્રભાવતીનો આલાવો કહેવો. યાવત્ નંદીશ્વર દ્વીપમાં મહોત્સવ કર્યો. ત્યારપછી કુંભરાજા તથા ઘણા ભવનપતિ આદિ ચારે દેવોએ તીર્થંકરનો જન્માભિષેક યાવત્ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Gujarati | 184 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था।
तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૮૪. ભગવન્ ! જો શ્રમણ ભગવંત મહાવીર સ્વામીએ જ્ઞાતાધર્મકથાના સોળમાં અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો ભગવંતે સતરમાં જ્ઞાતઅધ્યયનનો અર્થ શું કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે હસ્તિશીર્ષ નગર હતું. ત્યાં કનકકેતુ રાજા હતો. તે હસ્તિશીર્ષ નગરમાં ઘણા સાંયાત્રિક નૌવણિક રહેતા હતા. તેઓ ધનાઢ્ય યાવત્ ઘણા લોકોથી અપરિભૂત | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 25 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपायं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया।
तए णं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणिं देविं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयायं पासंति, पासित्ता सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया। तं णं अम्हे Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૫. ત્યારપછી તે ધારિણીદેવી નવ માસ બહુ પ્રતિપૂર્ણ થયા પછી સાડા સાત રાત્રિદિવસ વીત્યા પછી, અર્ધ રાત્રિકાળ સમયમાં સુકુમાલ હાથ પગવાળા યાવત્ સર્વાંગ સુંદર બાળકને જન્મ આપ્યો. ત્યારે તે અંગપ્રતિચારિકાઓ, ધારિણી દેવીને નવ માસ પ્રતીપૂર્ણ થતા યાવત્ બાળકને જન્મ આપેલ જોઈને, શીઘ્ર, ત્વરિત, ચપળ, વેગવાળી ગતિથી | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Gujarati | 63 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पंचमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवती नामं नयरी होत्था–पाईणपडीणायया उदीण-दाहिणवित्थिण्णा नवजोयणवित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा धनवइ-मइ-निम्मिया चामीयर-पवर-पागारा नाणामणि-पंचवण्ण-कविसीसग-सोहिया अलकापुरि-संकासा पमुइय-पक्कीलिया पच्चक्खं देवलोगभूया।
तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए रेवतगे नामं पव्वए होत्था–तुंगे गगनतल-मनुलिहंतसिहरे नानाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-परिगए हंस-मिग-मयूर-कोंच-सारस-चक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेए Translated Sutra: ભગવન્ ! જો શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે ચોથા જ્ઞાતાધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો હે ભગવન્ ! પાંચમાં જ્ઞાતનો શો અર્થ કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે દ્વારવતી નગરી હતી. તે પૂર્વ – પશ્ચિમ લાંબી નવ યોજન અને ઉત્તર – દક્ષિણ બાર યોજન પહોળી હતી, કુબેરની મતિથી નિર્મિત, સુવર્ણના શ્રેષ્ઠ પ્રાકાર, પંચવર્ણી વિવિધ મણિના બનેલ કાંગરાથી | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Gujarati | 64 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा नामं गाहावइणी परिवसइ–अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन -जानवाहना बहुधन-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणा बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलग-प्पभूया बहुजनस्स अपरिभूया।
तीसे णं थावच्चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं सत्थवाहदारए होत्था–सुकुमालपाणिपाए अहीन-पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे लक्खण-वंजण-गुणोववेए मानुम्मान-प्पमाणपडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगे ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे।
तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारगं साइरेगअट्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहुत्तंसि कलायरियस्स Translated Sutra: તે દ્વારવતી નગરીમાં થાવચ્ચા નામે ગૃહપત્ની રહેતી હતી, તે ધનાઢ્યા યાવત્ અપરિભૂતા હતી. તે થાવચ્ચા ગૃહપત્નીનો પુત્ર થાવચ્ચાપુત્ર નામે સાર્થવાહપુત્ર હતો, જે સુકુમાલ યાવત્ સુરૂપ હતો. ત્યારે તે થાવચ્ચા ગૃહપત્ની, તે પુત્રને સાતિરેક આઠ વર્ષનો થયેલો જાણીને શોભન તિથિ – કરણ – નક્ષત્ર – મુહૂર્ત્તમાં કલાચાર્ય પાસે | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Gujarati | 65 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] थावच्चापुत्ते वि निग्गए। जहा मेहे तहेव धम्मं सोच्चा निसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ। जहा मेहस्स तहा चेव निवेयणा।
तए णं तं थावच्चापुत्तं थावच्चा गाहावइणी जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसय-पडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था।
तए णं सा थावच्चा गाहावइणी आसणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठेत्ता महत्थं महग्घं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं Translated Sutra: થાવચ્ચા પુત્ર, મેઘકુમારની માફક નીકળ્યો. તેની જેમજ ધર્મ સાંભળ્યો, અવધાર્યો, પછી થાવચ્ચા ગાથાપત્ની પાસે આવ્યો. આવીને માતાના પગે પડ્યો. મેઘકુમારની માફક નિવેદના કરી, માતા જ્યારે વિષયને અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઘણી જ આઘવણા, પન્નવણા, સંજ્ઞાપના અને વિજ્ઞાપના વડે સામાન્ય કથન કરતા કે યાવત્ આજીજી કરતા પણ તેને મનાવવામાં | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Gujarati | 66 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नामं नगरे होत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे। सेलए राया। पउमावई देवी। मंडुए कुमारे जुवराया।
तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था–उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुरं चिंतयंति।
थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे। राया निग्गए।
तए णं से सेलए राया थावच्चापुत्तस्स अनगारस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए पीइमणे परम-सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता थावच्चा-पुत्तं अनगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
सद्दहामि Translated Sutra: સૂત્ર– ૬૬. તે કાળે, તે સમયે શૈલકપુર નગર હતું. સુભૂમિભાગ ઉદ્યાન હતું. શૈલક રાજા, પદ્માવતી દેવી, મંડુકકુમાર યુવરાજ. તે શૈલકને પંથક આદિ ૫૦૦ મંત્રી હતા. તેઓ ઔત્પાતિકી, વૈનયિકી આદિ ચાર પ્રકારની બુદ્ધિયુક્ત થઈ રાજ્યધૂરાના ચિંતક હતા. થાવચ્ચાપુત્ર, શૈલકપુરે પધાર્યા, રાજા નીકળ્યો, ધર્મકથા કહી, ધર્મ સાંભળ્યો, પછી કહ્યું | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ तुंब |
Gujarati | 74 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव सुक्कज्झाणोवगए विहरइ।
तए णं से इंदभूई नामं अनगारे जायसड्ढे जाव एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कतुंब निच्छिद्दं निरुवहयं दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, Translated Sutra: ભગવન્ ! જો સિદ્ધિને પ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે પાંચમાં જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો, તો છઠ્ઠા અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! એ પ્રમાણે તે કાળે, તે સમયે રાજગૃહે ભગવંત મહાવીર પધાર્યા. પર્ષદા નીકળી. તે કાળે, તે સમયે ભગવંતના જ્યેષ્ઠ શિષ્ય ઇન્દ્રભૂતિ, સમીપમાં યાવત્ શુક્લધ્યાનોપગત થઈ વિચરતા હતા. ત્યારે તે ઇન્દ્રભૂતિને | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 5 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अनगारस्स जेट्ठे अंतेवासी अज्जजंबू नामं अनगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वइररिसह-नाराय-संघयणे कनग-पलग-निघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से अज्जजंबूनामे अनगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले
संजायसड्ढे Translated Sutra: સૂત્ર– ૫. ત્યારે ચંપાનગરીથી પર્ષદા – જનસમૂહ નીકળ્યો. રાજા કોણિક નીકળ્યો. સુધર્માસ્વામીએ ધર્મ કહ્યો. ધર્મ સાંભળીને પર્ષદા જે દિશાથી આવેલી, તે દિશામાં પાછી ગઈ. તે કાળે, તે સમયે આર્ય સુધર્મા અણગારના મોટા શિષ્ય આર્ય જંબૂ નામે અણગાર, જે કાશ્યપ ગોત્રના હતા, સાત હાથ ઉંચા હતા યાવત્ આર્ય સુધર્મા સ્થવિરની દૂર નહીં | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 15 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्त-सुइय-सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण-सरससुरभि-मुक्क-पुप्फपुं-जोवयारकलियं कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डज्झंत-सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर गंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरि-सवस-विसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से सेणिए राया कल्लं Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૫. ત્યારે તે શ્રેણિક રાજા પ્રભાતકાળ સમયે કૌટુંબિક પુરુષોને બોલાવે છે, બોલાવીને આમ કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિયો ! જલદીથી આજે બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળા(સભામંડપ)ને સવિશેષ પરમ રમ્ય, ગંધોદક સિંચિત, સાફ – સૂથરી કરી, લીંપી, પંચવર્ણી સરસ સુરભિ વિખરાયેલ પુષ્પના પુંજના ઉપચાર યુક્ત, કાલાગરુ પ્રવર કુંદુરુક્ક તુરુષ્ક ધૂપના | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Gujarati | 19 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्णदोहला असम्मानियदोहला सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयनकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला नित्तेया दोणविवण्णवयणा जहोचिय-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हारं अनभिलसमाणी किड्डारमणकिरियं परिहावेमाणी दीना दुम्मणा निरानंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियाइ।
तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडिचारियाओ अब्भिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणिं देविं ओलुग्ग ज्झियायमाणिं पासंति, पासित्ता एवं वयासी– किण्णं तुमे देवानुप्पिए! Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૯. ત્યારે તે ધારિણીદેવી તે દોહદ પૂર્ણ ન થવાથી, દોહદ સંપન્ન ન થવાથી, દોહદ સંપૂર્ણ ન થવાથી, દોહદ સન્માનનીય ન થવાના કારણે શુષ્ક, ભૂખી, નિર્માંસ, રુગ્ણ, જીર્ણ – જીર્ણશરીરી, મ્લાન – કાંતિહીન, દુર્બલ અને કમજોર થઇ ગઈ. તેણી વદનકમળ અને નયનકમળ નમાવીને રહી હતી, તે ફીક્કા મુખવાળી, હથેળીમાં મસળેલ ચંપકમાલાવત્ નિસ્તેજ, |