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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 442 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इयरे उणं अनुज्झित्ता इच्छारंभ-परिग्गहं।
सदाराभिरए स गिही जिन-लिंगं तु पूयए न धारयं ति॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३८ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 444 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे पुन सव्वस्स पडिक्कंते धारे पंच-महव्वए।
जिनलिंगं तु समुव्वहइ तं तिगं नो विवज्जए॥ Translated Sutra: जिन्होंने सर्व पाप का प्रत्याख्यान किया है। पंच महाव्रत धारण किया है, प्रभु के वेश को स्वीकार किया है। वो यदि मैथुन अप्काय अग्निकाय सेवन का त्याग न करे तो उनको बड़ी आशातना बताई है। उसी कारण से जिनेश्वर इन तीन में बड़ी आशातना कहते हैं। इसलिए उन तीन का मन से भी सेवन के लिए अभिलाषा मत करो। सूत्र – ४४४, ४४५ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 493 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं कयराए विहिए पंच-मंगलस्स णं विणओवहाणं कायव्वं
(२) गोयमा इमाए विहिए पंचमंगलस्स णं विणओवहाणं कायव्वं, तं जहा–सुपसत्थे चेव सोहने तिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्ग-ससीबले
(३) विप्पमुक्क-जायाइमयासंकेण, संजाय-सद्धा-संवेग-सुतिव्वतर-महंतुल्लसंत-सुहज्झ-वसायाणुगय-भत्ती-बहुमान-पुव्वं निन्नियाण-दुवालस-भत्त-ट्ठिएणं,
(४) चेइयालये जंतुविरहिओगासे,
(५) भत्ति-भर-निब्भरुद्धसिय-ससीसरोमावली-पप्फुल्ल-वयण-सयवत्त-पसंत-सोम-थिर-दिट्ठी
(६) नव-नव-संवेग- समुच्छलंत- संजाय- बहल- घन- निरंतर- अचिंत- परम- सुह- परिणाम-विसेसुल्लासिय-सजीव-वीरियानुसमय-विवड्ढंत-पमोय-सुविसुद्ध-सुनिम्मल-विमल-थिर-दढयरंत Translated Sutra: हे भगवंत ! किस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करे ? हे गौतम ! आगे हम बताएंगे उस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करना चाहिए। अति प्रशस्त और शोभन तिथि, करण, मुहूर्त्त, नक्षत्र, योग, लग्न, चन्द्रबल हो तब आठ तरह के मद स्थान से मुक्त हो, शंका रहित श्रद्धासंवेग जिसके अति वृद्धि पानेवाले हो, अति तीव्र महान उल्लास पानेवाले, शुभ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 494 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किमेयस्स अचिंत-चिंतामणि-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं गोयमा
(२) इयं एयस्स अचिंत-चिंतामणी-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स णं सुत्तत्थं-पन्नत्तं
(३) तं जहा–जे णं एस पंचमं-गल-महासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरो ववत्ती तिल-तेल-कमल-मयरंदव्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव,
(४) जहत्थ किरियाणुगय-सब्भूय-गुणुक्कित्तणे, जहिच्छिय-फल-पसाहगे चेव परम-थुइवाए (५) से य परमथुई केसिं कायव्वा सव्व-जगुत्तमाणं।
(६) सव्व-जगुत्तमुत्तमे य जे केई भूए, जे केई भविंसु, जे केई भविस्संति, ते सव्वे चेव अरहंतादओ चेव नो नमन्ने ति।
(७) ते य पंचहा १ अरहंते, २ सिद्धे, ३ आयरिए, Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या यह चिन्तामणी कल्पवृक्ष समान पंच मंगल महाश्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ को प्ररूपे हैं ? हे गौतम ! यह अचिंत्य चिंतामणी कल्पवृक्ष समान मनोवांछित पूर्ण करनेवाला पंचमंगल महा श्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ प्ररूपेल हैं। वो इस प्रकार – जिस कारण के लिए तल में तैल, कमल में मकरन्द, सर्वलोक में पंचास्तिकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 495 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नामं पि सयल-कम्मट्ठ-मल-कलंकेहिं विप्पमुक्काणं।
तियसिंद च्चिय-चलणाण जिन-वरिंदाण जो सरइ॥ Translated Sutra: समग्र आठ तरह के कर्म समान मल के कलंक रहित, देव और इन्द्र से पूजित चरणवाले जीनेश्वर भगवंत का केवल नाम स्मरण करनेवाले मन, वचन, काया समान तीन कारण में एकाग्रतावाला, पल – पल में शील और संयम में उद्यम – व्रत नियम में विराधना न करनेवाली आत्मा यकीनन अल्प काल में तुरंत सिद्धि पाती है। सूत्र – ४९५, ४९६ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 497 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो उन दुह-उव्विग्गो सुह-तण्हालू अलि व्व कमल-वणे।
थय-थुइ-मंगल-जय-सद्द-वावडो रुणु रुणे किंचि॥ Translated Sutra: जो किसी जीव संसार के दुःख से उद्वेग पाए और मोक्ष सुख पाने की अभिलाषावाला बने तब वो ‘‘जैसे कमलवन में भ्रमर मग्न बन जाए उसी तरह’’ भगवंत को स्तवना, स्तुति, मांगलिक जय जयारव शब्द करने में लीन हो जाए और झणझणते गुंजारव करते भक्ति पूर्व हृदय से जिनेश्वर के चरण – युगल के आगे भूमि पर अपना मस्तक स्थापन करके अंजलि जोड़कर | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 498 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भत्ति-भर-निब्भरो जिन-वरिंद-पायारविंद-जुग-पुरओ।
भूमी-निट्ठविय-सिरो, कयंजली-वावडो चरित्तड्ढो॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४९७ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 500 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जेसिं च णं सुगहिय-नामग्गहणाणं तित्थयराणं गोयमा एस जग-पायडे महच्छेरयभूए भुयणस्स वि पयडपायडे महंताइसए पवियंभे, तं जहा– Translated Sutra: हे गौतम ! जिनका पवित्र नाम ग्रहण करना ऐसे उत्तम फलवाला है ऐसे तीर्थंकर भगवंत के जगत में प्रकट महान आश्चर्यभूत, तीन भुवन में विशाल प्रकट और महान ऐसे अतिशय का विस्तार इस प्रकार का है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 501 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खीणट्ठ-कम्म-पाया मुक्का बहु-दुक्ख-गब्भवसहीनं।
पुनरवि अ पत्तकेवल-मनपज्जव-नाण-चरिततनू॥ Translated Sutra: केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और चरम शरीर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया ऐसे जीव भी अरिहंत के अतिशय को देखकर आठ तरह के कर्म का क्षय करनेवाले होते हैं। ज्यादा दुःख और गर्भावास से मुक्त होते हैं, महायोगी होते हैं, विविध दुःख से भरे भवसागर से उद्विग्न बनते हैं। और पलभर में संसार से विरक्त मनवाला बन जाता है। या हे गौतम | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 504 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सयल-नरामर-तियसिंद-सुंदरी-रूव-कंति-लावन्नं।
सव्वं पि होज्ज जइ एगरासि-सपिंडियं कह वि॥ Translated Sutra: समग्र मानव, देव, इन्द्र और देवांगना के रूप, कान्ति, लावण्य वो सब इकट्ठे करके उसका ढ़ग शायद एक और किया जाए और उसकी दूसरी ओर जिनेश्वर के चरण के अँगूठे के अग्र हिस्से का करोड़ या लाख हिस्से की उसके साथ तुलना की जाए तो वो देव – देवी के रूप का पिंड़ सुवर्ण के मेरू पर्वत के पास रखे गए ढ़ग की तरह शोभारहित दिखता है। या इस जगत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 505 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता तं जिन-चलणंगुट्ठग्ग-कोडि-देसेग-लक्ख-भागस्स।
सन्निज्झे वि न सोहइ, जह छार-उडं कंचनगिरिस्स त्ति॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५०४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 517 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता गोयमा णं एसेऽत्थ परमत्थे तं जहा–
भावच्चणमुग्ग-विहारया य, दव्वच्चणं तु जिन-पूया।
पढमा जतीण, दोन्नि वि गिहीन, पढम च्चिय पसत्था॥ Translated Sutra: भाव – अर्चन प्रमाद से उत्कृष्ट चारित्र पालन समान है। जब कि द्रव्य अर्चन जिनपूजा समान है। मुनि के लिए भाव अर्चन है और श्रावक के लिए दोनों अर्चन बताए हैं। उसमें भाव अर्चन प्रशंसनीय है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 531 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तं जहा–मेरुत्तुंगे मणि-मंडिएक्क-कंचणगए परमरम्मे।
नयन-मनाऽऽनंदयरे पभूय-विण्णाण-साइसए॥ Translated Sutra: लाख योजन प्रमाण मेरु पर्वत जैसे ऊंचे, मणिसमुद्र से शोभायमान, सुवर्णमय, परम मनोहर, नयन और मन को आनन्द देनेवाला, अति विज्ञानपूर्ण, अति मजबूत, दिखाई न दे उस तरह जुड़ दिया हो ऐसा, अति घिसकर मुलायम बनाया हुआ, जिसके हिस्से अच्छी तरह से बाँटे गए हैं ऐसा कईं शिखरयुक्त, कईं घंट और ध्वजा सहित, श्रेष्ठ तोरण युक्त कदम – कदम पर | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 535 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कुद्दंत-रास-जन-सय-समाउले जिन-कहा-खित्त-चित्ते।
पकहंत-कहग-नच्चंत-छत्त-गंधव्व-तूर-निग्घोसे॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५३१ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 538 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तव-संजमेण बहु-भव-समज्जियं पाव-कम्म-मल-लेवं।
निद्धोविऊण अइरा अनंत-सोक्खं वए मोक्खं॥ Translated Sutra: इस प्रकार तपसंयम द्वारा कईं भव के उपार्जन किए पापकर्म के मल समान लेप को साफ करके अल्पकाल में अनंत सुखवाला मोक्ष पाता है। समग्र पृथ्वी पट्ट को जिनायतन से शोभायमान करनेवाले दानादिक चार तरह का सुन्दर धर्म सेवन करनेवाला श्रावक ज्यादा से ज्यादा अच्छी गति पाए तो भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं नीकल सकता। लेकिन अच्युत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 539 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] काउं पि जिनाययणेहिं मंडियं सव्वमेइणी-वट्ठं।
दाणाइ-चउक्केणं सुट्ठु वि गच्छेज्ज अच्चुयगं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५३८ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 561 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इय विज्जाहर-किन्नर-नरेण ससुराऽसुरेण वि जगेण
संथुव्वंते दुविहत्थवेहिं ते तिहुयणेक्कीसे। Translated Sutra: उस प्रकार विद्याधर, किन्नर, मानव, देव असुरवाले जगत ने तीन भुवन में उत्कृष्ट ऐसे जिनेश्वर की द्रव्यस्तव और भावस्तव ऐसे दो तरह से स्तुति की है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 562 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गोयमा धम्मतित्थंकरे जिने अरहंते।
अह तारिसे वि इड्ढी-पवित्थरे, सयल-तिहुयणाउलिए।
साहीणे जग-बंधू मनसा वि न जे खणं लुद्धे॥ Translated Sutra: हे गौतम ! धर्म तीर्थंकर भगवंत, अरिहंत, जिनेश्वर जो विस्तारवाली ऋद्धि पाए हुए हैं। ऐसी समृद्धि स्वाधीन फिर भी जगत् बन्धु पलभर उसमें मन से भी लुभाए नहीं। उनका परमैश्वर्य रूप शोभायमय लावण्य, वर्ण, बल, शरीर प्रमाण, सामर्थ्य, यश, कीर्ति जिस तरह देवलोक में से च्यवकर यहाँ अवतरे, जिस तरह दूसरे भव में, उग्र तप करके देवलोक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 570 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] होही खणं अप्फालिय-सूसर-गंभीर-दुंदुहि-णिग्घोसा।
जय-सद्द-मुहल-मंगल-कयंजली जह य खीर-सलिलेणं॥ Translated Sutra: पलभर हाथ हिलाना, सुन्दर स्वर में गाना, गम्भीर दुंदुभि का शब्द करते, क्षीर समुद्र में से जैसे शब्द प्रकट हो वैसे जय जय करनेवाले मंगल शब्द मुख से नीकलते थे और जिस तरह दो हाथ जोड़कर अंजलि करते थे, जिस तरह क्षीर सागर के जल से कईं खुशबूदार चीज की खुशबू से सुवासित किए गए सुवर्ण मणिरत्न के बनाए हुए ऊंचे कलश से जन्माभिषेक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 580 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जह सिज्झइ जग-नाहो महिमं नेव्वाण-नामियं, जह य।
सव्वे वि सुर-वरिंदा असंभवे तह वि मुच्चंति॥ Translated Sutra: जिस तरह जगत के नाथ सिद्धि पाते हैं, जिस तरह सर्व सुरवरेन्द्र उनका निर्वाण महोत्सव करते हैं और फिर भगवंत की गेरमोजुदगी में शोक पाए हुए वो देव अपने गात्र को बहते अश्रुजल के सरसर शब्द करनेवाले प्रवाह से जिस तरह धो रहे थे। और फिर दुःखी स्वर से विलाप करते थे कि हे स्वामी ! हमे अनाथ बनाया। जिस तरह सुरभी गंधयुक्त गोशीर्ष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 589 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवमिह अपत्थावे वि भत्ति-भर-निब्भराण परिओसं।
जणयइ गरुयं जिन-गुण-गहणेक्क-रसक्खित्त-चित्ताणं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५८६ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 590 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एयं तु जं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अनंत-गम-पज्जवेहिं सुत्तस्स य पिहब्भूयाहिं निज्जुत्ती-भास-चुण्णीहिं जहेव अनंत-नाण-दंसण-धरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जं तं आसि
(२) अह-न्नया काल-परिहाणि-दोसेणं ताओ निज्जुत्ती-भास चुण्णीओ वोच्छिण्णाओ
(३) इओ य वच्चंतेणं काल समएणं महिड्ढी-पत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुयहरे समुप्पन्ने
(४) तेणे यं पंच-मंगल-महा-सुयक्खंधस्स उद्धारो मूल-सुत्तस्स मज्झे लिहिओ
(५) मूलसुत्तं पुन सुत्तत्ताए गणहरेहिं, अत्थत्ताए अरहंतेहिं, भगवंतेहिं, धम्मतित्थंकरेहिं, तिलोग-महिएहिं, वीर-जिणिंदेहिं, Translated Sutra: यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध नवकार का व्याख्यान महा विस्तार से अनन्तगम और पर्याय सहित सूत्र से भिन्न ऐसे निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि से अनन्त ज्ञान – दर्शन धारण करनेवाले तीर्थंकर ने जिस तरह व्याख्या की थी। उसी तरह संक्षेप से व्याख्यान किया जाता था। लेकिन काल की परिहाणी होने के दोष से वो निर्युक्ति भाष्य, चूर्णिका | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 591 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (७) एत्थ य जत्थ जत्थ पयं पएणाऽनुलग्गं सुत्तालावगं न संपज्जइ, तत्थ तत्थ सुयहरेहिं कुलि-हिय-दोसो न दायव्वो त्ति
(८) किंतु जो सो एयस्स अचिंत-चिंतामणी-कप्पभूयस्स महानिसीह-सुयक्खंधस्स पुव्वायरिसो आसि, तहिं चेव खंडाखंडीए उद्देहियाइएहिं हेऊहिं बहवे पन्नगा परिसडिया।
(९) तहा वि अच्चंत-सुमहत्थाइसयं ति इमं महानिसीह-सुयक्खंधं कसिण-पवयणस्स परम-सार-भूयं परं तत्तं महत्थंति कलिऊणं
(१०) पवयण-वच्छल्लत्तणेणं बहु-भव-सत्तोवयारियं च काउं, तहा य आय-हियट्ठयाए आयरिय-हरिभद्देणं जं तत्थाऽऽयरिसे दिट्ठं तं सव्वं स-मतीए साहिऊणं लिहियं ति
(११) अन्नेहिं पि सिद्धसेन दिवाकर-वुड्ढवाइ-जक्खसेण-देवगुत्त-जसवद्धण-खमासमण-सीस-रविगुत्त-णेमिचंद-जिणदासगणि-खमग-सच्चरिसि-पमुहेहिं Translated Sutra: यहाँ जहाँ जहाँ पद पद के साथ जुड़े हो और लगातार सूत्रालापक प्राप्त न हो वहाँ श्रुतधर ने लहीयाओं ने झूठ लिखा है। ऐसा दोष मत देना लेकिन जो किसी इस अचिन्त्य चिन्तामणी और कल्पवृक्ष समान महानिशीथ श्रुतस्कंध की पूर्वादर्श पहले की लिखी हुई प्रति थी उसमें ही ऊधई आदि जीवांत से खाकर उस कारण से टुकड़ेवाली प्रत हो गई। काफी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 595 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एवं स सुत्तत्थोभयत्तगं चिइ-वंदणा-विहाणं अहिज्जेत्ता णं तओ सुपसत्थे सोहणे तिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्ग-ससी-बले।
(२) जहा सत्तीए जग-गुरूणं संपाइय-पूओवयारेणं पडिलाहियसाहुवग्गेण य, भत्तिब्भर-निब्भरेणं, रोमंच-कंचुपुलइज्जमाणतणू सहरिसविसट्ट वयणारविंदेणं, सद्धा-संवेग-विवेग-परम-वेरग्ग-मूलं विणिहय-घनराग-दोस-मोह-मिच्छत्त-मल-कलंकेण
(३) सुविसुद्ध-सुनिम्मल-विमल-सुभ-सुभयरऽनुसमय-समुल्लसंत-सुपसत्थज्झवसायगएणं, भुवण-गुरु-जियणंद पडिमा विणिवेसिय-नयन-मानसेणं अनन्नं-माणसेगग्ग-चित्तयाए य।
(४) धन्नो हं पुन्नो हं ति जिन-वंदणाइ-सहलीकयजम्मो त्ति इइ मन्नमानेणं, विरइय-कर-कमलंजलिणा, Translated Sutra: इस प्रकार सूत्र, अर्थ और उभय सहित चैत्यवंदन आदि विधान पढ़कर उसके बाद शुभ तिथि, करण, मुहूर्त्त, नक्षत्र योग, लग्न और चन्द्रबल का योग हुआ हो उस समय यथाशक्ति जगद्गुरु तीर्थंकर भगवंत को पूजने लायक उपकरण इकट्ठे करके साधु भगवंत को प्रतिलाभी का भक्ति पूर्ण हृदयवाला रोमांचित बनकर पुलकित हुए शरीरवाला, हर्षित हुए मुखारविंदवाला, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 598 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा साहु-साहुणि-समणोवासग-सड्ढिगाऽसेसा-सन्न-साहम्मियजण-चउव्विहेणं पि समण-संघेणं नित्थारग-पारगो भवेज्जा धन्नो संपुन्न-सलक्खणो सि तुमं। ति उच्चारेमाणेणं गंध-मुट्ठीओ घेतव्वाओ।
(२) तओ जग-गुरूणं जिणिंदाणं पूएग-देसाओ गंधड्ढाऽमिलाण-सियमल्लदामं गहाय स-हत्थेणोभय-खं धेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा नीसंदेहमेवं भाणियव्वं, जहा।
(३) भो भो जम्मंतर-संचिय-गुरुय-पुन्न-पब्भार सुलद्ध-सुविढत्त-सुसहल-मनुयजम्मं देवानुप्पिया ठइयं च नरय-तिरिय-गइ-दारं तुज्झं ति।
(४) अबंधगो य अयस-अकित्ती-णीया-गोत्त-कम्म-विसेसाणं तुमं ति, भवंतर-गयस्सा वि उ न दुलहो तुज्झ पंच नमोक्कारो, ।
(५) भावि-जम्मंतरेसु Translated Sutra: और फिर साधु – साध्वी श्रावक – श्राविका समग्र नजदीकी साधर्मिक भाई, चार तरह के श्रमण संघ के विघ्न उपशान्त होते हैं और धर्मकार्य में सफलता पाते हैं। और फिर उस महानुभाव को ऐसा कहना कि वाकई तुम धन्य हो, पुण्यवंत हो, ऐसा बोलते – बोलते वासक्षेप मंत्र करके ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद जगद्गुरु जिनेन्द्र की आगे के स्थान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 600 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं सुदुक्करं पंच-मंगल-महासुयक्खंधस्स विणओवहाणं पन्नत्तं, महती य एसा नियंतणा, कहं बालेहिं कज्जइ
(२) गोयमा जे णं केइ न इच्छेज्जा एयं नियंतणं, अविनओवहाणेणं चेव पंचमंगलाइ सुय-नाणमहिज्जिणे अज्झावेइ वा अज्झावयमाणस्स वा अणुन्नं वा पयाइ।
(३) से णं न भवेज्जा पिय-धम्मे, न हवेज्जा दढ-धम्मे, न भवेज्जा भत्ती-जुए, हीले-ज्जा सुत्तं, हीलेज्जा अत्थं, हीलेज्जा सुत्त-त्थ-उभए हीलेज्जा गुरुं।
(४) जे णं हीलेज्जा सुत्तत्थोऽभए जाव णं गुरुं, से णं आसाएज्जा अतीताऽणागय-वट्टमाणे तित्थयरे, आसाएज्जा आयरिय-उवज्झाय-साहुणो
(५) जे णं आसाएज्जा सुय-नाणमरिहंत-सिद्ध-साहू, से तस्स णं सुदीहयालमणंत-संसार-सागरमाहिंडेमाणस्स Translated Sutra: हे भगवंत ! यह पंचमंगल श्रुतस्कंध पढ़ने के लिए विनयोपधान की बड़ी नियंत्रणा – नियम बताए हैं। बच्चे ऐसी महान नियंत्रणा किस तरह कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो कोई ईस बताई हुई नियंत्रणा की ईच्छा न करे, अविनय से और उपधान किए बिना यह पंचमंगल आदि श्रुतज्ञान पढ़े – पढ़ाए या उपधान पूर्वक न पढ़े या पढ़ानेवाले को अच्छा माने उसे नवकार | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 616 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगमवि जो दुहत्तं सत्तं पडिबोहिउं ठवियमग्गे।
ससुरासुरम्मि वि जगे तेण इहं घोसिओ अनाघाओ॥ Translated Sutra: दुःखी ऐसे एक जीव को जो प्रतिबोध देकर मोक्ष मार्ग में स्थापन करते हैं, वो देवता और असुर सहित इस जगत में अमारी पड़ह बजानेवाले होते हैं, जिस तरह दूसरी धातु की प्रधानता युक्त सुवर्ण क्रिया बिना कंचनभाव को नहीं पाता। उस तरह सर्व जीव जिनोपदेश बिना प्रतिबोध नहीं पाते। राग – द्वेष और मोह रहित होकर जो शास्त्र को जाननेवाले | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 617 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धाउपहाणो कंचनभावं न य गच्छई किया-हीनो।
एवं भव्वो वि जिनोवएस-हीनो न बुज्झेज्जा॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६१६ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 654 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कहं पुन तेण सुमइणा कुसील-संसग्गी कया आसी उ, जीए अ एरिसे अइदारुणे अवसाणे समक्खाए जेण भव-कायट्ठितीए अनोर-पारं भव-सायरं भमिही। से वराए दुक्ख-संतत्ते अलभंते सव्वण्णुवएसिए अहिंसा-लक्खण खंतादि-दसविहे धम्मे बोहिं ति गोयमा णं इमे, तं जहा–
अत्थि इहेव भारहे वासे मगहा नाम जनवओ। तत्थ कुसत्थलं नाम पुरं। तम्मि य उवलद्ध-पुन्न-पावे समुनिय-जीवाजीवादि-पयत्थे सुमती-नाइल नामधेज्जे दुवे सहोयरे महिड्ढीए सड्ढगे अहेसि।
अहन्नया अंतराय-कम्मोदएणं वियलियं विहवं तेसिं, न उणं सत्त-परक्कमं ति। एवं तु अचलिय-सत्त-परक्कमाणं तेसिं अच्चंतं परलोग-भीरूणं विरय-कूड-कवडालियाणं पडिवन्न-जहोवइट्ठ-दाणाइ-चउक्खंध-उवासग-धम्माणं Translated Sutra: हे भगवंत ! उस सुमति ने कुशील संसर्ग किस तरह किया था कि जिससे इस तरह के अति भयानक दुःख परीणामवाला भवस्थिति और कायस्थिति युक्त पार रहित भवसागर में दुःख संतप्त बेचारा वो भ्रमण करेगा। सर्वज्ञ – भगवंत के उपदेशीत अहिंसा लक्षणवाले क्षमा आदि दश प्रकार के धर्म को और सम्यक्त्व न पाएगा, हे गौतम ! वो बात यह है – इस भारतवर्ष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 677 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवमायण्णिऊण तओ भणियं सुमइणा। जहा–तुमं चेव सत्थवादी भणसु एयाइं, नवरं न जुत्तमेयं जं साहूणं अवन्नवायं भासिज्जइ।
अन्नं तु–किं न पेच्छसि तुमं एएसिं महानुभागाणं चेट्ठियं छट्ठ-ट्ठम-दसम दुवालस-मास- खमणाईहिं आहा-रग्गहणं गिम्हायावणट्ठाए वीरासण-उक्कुडुयासण-नाणाभिग्गह-धारणेणं च कट्ठ-तवोणुचरणेणं च पसुक्खं मंस-सोणियं ति महाउ-वासगो सि तुमं, महा-भासा-समिती विइया तए, जेणेरिस-गुणोवउत्ताणं पि महानुभागाणं साहूणं कुसीले त्ति नामं संकप्पियंति। तओ भणियं नाइलेणं जहा मा वच्छ तुमं एतेणं परिओसमुवयासु, जहा अहयं आसवारेणं परिमुसिओ।
अकाम-निज्जराए वि किंचि कम्मक्खयं भवइ, किं पुन Translated Sutra: ऐसा सुनकर सुमति ने कहा – तुम ही सत्यवादी हो और इस प्रकार बोल सकते हो। लेकिन साधु के अवर्णवाद बोलना जरा भी उचित नहीं है। वो महानुभाव के दूसरे व्यवहार पर नजर क्यों नहीं करते ? छट्ठ, अट्ठम, चार – पाँच उपवास मासक्षमण आदि तप करके आहार ग्रहण करनेवाले ग्रीष्म काल में आतापना लेते है। और फिर विरासन उत्कटुकासन अलग – अलग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 680 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहा य जे भिक्खू वा भिक्खूणी वा परपासंडीणं पसंसं करेज्जा, जे या वि णं निण्हगाणं पसंसं करेज्जा, जे णं निण्हगाणं अनुकूलं भासेज्जा, जे णं निण्हगाणं आययणं पविसेज्जा, जे णं निण्हगाणं गंथ सत्थ पयक्खरं वा परूवेज्जा, जे णं निण्हगाणं संतिए काय किलेसाइए तवे इ वा, संजमे इ वा, नाणे इ वा, विण्णाणे इ वा, सुए इ वा, पंडिच्चे इ वा अभिमुह मुद्ध परिसा मज्झ गए सलाहेज्जा, से वि य णं परमाहम्मिएसुं उववज्जेज्जा जहा सुमती। Translated Sutra: और फिर जो भिक्षु या भिक्षुणी परपाखंड़ी की प्रशंसा करे या निह्नवों की प्रशंसा करे, जिन्हें अनुकूल हो वैसे वचन बोले, निह्नवों के मंदिर – मकान में प्रवेश करे, जो निह्नवों के ग्रंथ, शास्त्र, पद या अक्षर को प्ररूपे, जो निह्नवों के प्ररूपित कायक्लेश आदि तप करे, संयम करे। उस के ज्ञान का अभ्यास करे, विशेष तरह से पहचाने, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 713 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गच्छं महानुभागं तत्थ वसंताण निज्जरा विउला।
सारण वारण चोयणमादीहिं न दोस-पडिवत्ती॥ Translated Sutra: महानुभाग ऐसे गच्छ में गुरुकुलवास करनेवाले साधुओं को काफी निर्जरा होती है। और सारणा, वायणा, चोयणा आदि से दोष की निवृत्ति होती है। गुरु के मन को अनुसरनेवाले, अतिशय विनीत, परिषह जीतनेवाले, धैर्य रखनेवाले, स्तब्ध न होनेवाले, लुब्ध न होनेवाले, गारव न करनेवाले, विकथा न करनेवाले, क्षमा रखनेवाले, इन्द्रिय का दमन करनेवाले, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 730 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गुरु-चलण-भत्ति-भर-निब्भरेक्क-परिओस-लद्धमालावे।
अज्झीयंति सुसीसा एगग्गमणा स गोयमा गच्छ॥ Translated Sutra: गुरु के चरण की भक्ति समूह से और उसकी प्रसन्नता से जिन्होंने आलावा को प्राप्त किए है ऐसे सुशिष्य एकाग्रमन से जिसमें अध्ययन करता हो उसे गच्छ कहते हैं। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 756 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मूल-गुणेहिं उ खलियं बहु-गुण-कलियं पि लद्धि-संपन्नं।
उत्तम-कुले वि जायं निद्धाडिज्जइ जहिं तयं गच्छं॥ Translated Sutra: उत्तम कुल में पैदा होनेवाला और गुण सम्पन्न, लब्धियुक्त हो लेकिन जिन्हें मूलगुण में स्खलना होती हो उनको जिसमें से नीकाला जाए वो गच्छ। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 794 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एक्कं पि जो दुहत्तं सत्तं परिबोहिउं ठवे मग्गे।
ससुरासुरम्मि वि जगे तेणेहं घोसियं अमाघायं॥ Translated Sutra: इस संसार में दुःख भुगतनेवाले एक जीव को प्रतिबोध करके उसे मार्ग के लिए स्थापन करते हैं, उसने देव और असुरवाले जगत में अमारी पड़ह की उद्घोषणा करवाई है ऐसा समझना। भूत, वर्तमान और भावि में ऐसे कुछ महापुरुष थे, है और होंगे कि जिनके चरणयुगल जगत के जीव को वंदन करने के लायक हैं, और परहित करने के लिए एकान्त कोशीष करने में | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 811 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं अट्ठण्हं साहूणमसइं उस्सग्गेण वा अववाएण वा चउहिं अनगारेहिं समं गमनागमनं नियंठियं तहा दसण्हं संजईणं हेट्ठा उसग्गेणं, चउण्हं तु अभावे अववाएणं हत्थ-सयाओ उद्धं गमनं नाणुण्णायं। आणं वा अइक्कमंते साहू वा साहूणीओ वा अनंत-संसारिए समक्खाए।
ता णं से दुप्पसहे अनगारे असहाए भवेज्जा। सा वि य विण्हुसिरी अनगारी असहाया चेव भवेज्जा। एवं तु ते कहं आराहगे भवेज्जा गोयमा णं दुस्समाए परियंते ते चउरो जुगप्पहाणे खाइग सम्मत्त नाण दंसण चारित्त समण्णिए भवेज्जा।
तत्थ णं जे से महायसे महानुभागे दुप्पसहे अनगारे से णं अच्चंत विसुद्ध सम्मद्दंसण नाण चारित्त गुणेहिं उववेए सुदिट्ठ Translated Sutra: हे भगवंत ! उत्सर्ग से आँठ साधु की कमी में या अपवाद से चार साधु के साथ (साध्वी का) गमनागमन निषेध किया है। और उत्सर्ग से दस संयति से कम और अपवाद से चार संयति की कमी में एक सौ हाथ से उपर जाने के लिए भगवंत ने निषेध किया है। तो फिर पाँचवें आरे के अन्तिम समय में अकेले सहाय बिना दुप्पसह अणगार होंगे और विष्णु श्री साध्वी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 816 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयरे णं ते पंच सए एक्क विवज्जिए साहूणं जेहिं च णं तारिस गुणोववेयस्स महानुभागस्स गुरुणो आणं अइक्कमिउं नाराहियं गोयमा णं इमाए चेव उसभ चउवीसिगाए अतीताए तेवीसइमाए चउवीसिगाए जाव णं परिनिव्वुडे चउवीसइमे अरहा ताव णं अइक्कंतेणं केवइएणं कालेणं गुणनिप्फन्ने कम्मसेल मुसुमूरणे महायसे, महासत्ते, महानुभागे, सुगहिय नामधेज्जे, वइरे नाम गच्छाहिवई भूए।
तस्स णं पंचसयं गच्छं निग्गंथीहिं विना, निग्गंथीहिं समं दो सहस्से य अहेसि। ता गोयमा ताओ निग्गंथीओ अच्चंत परलोग भीरुयाओ सुविसुद्ध निम्मलंतकरणाओ, खंताओ, दंताओ, मुत्ताओ, जिइंदियाओ, अच्चंत भणिरीओ निय सरीरस्सा वि य छक्काय Translated Sutra: हे भगवंत ! एक रहित ऐसे ५०० साधु जिन्होंने वैसे गुणयुक्त महानुभाव गुरु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके आराधक न हुए, वे कौन थे ? हे गौतम ! यह ऋषभदेव परमात्मा की चोवीसी के पहले हुई तेईस चौवीसी और उस चौवीसी के चौवीसवे तीर्थंकर निर्वाण पाने के बाद कुछ काल गुण से पैदा हुए कर्म समान पर्वत का चूरा करनेवाला, महायशवाले, महासत्त्ववाले | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 818 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नं च–जइ एते तव संजम किरियं अनुपालेहिंति, तओ एतेसिं चेव सेयं होहिइ, जइ न करेहिंति, तओ एएसिं चेव दुग्गइ-गमणमनुत्तरं हवेज्जा। नवरं तहा वि मम गच्छो समप्पिओ, गच्छाहिवई अहयं भणामि। अन्नं च–
जे तित्थयरेहिं भगवंतेहिं छत्तीसं आयरियगुणे समाइट्ठे तेसिं तु अहयं एक्कमवि नाइक्कमामि, जइ वि पाणोवरमं भवेज्जा। जं च आगमे इह परलोग विरुद्धं तं णायरामि, न कारयामि न कज्जमाणं समनुजाणामि। तामेरिसगुण जुत्तस्सावि जइ भणियं न करेंति ताहमिमेसिं वेसग्गहणा उद्दालेमि।
एवं च समए पन्नत्ती जहा–जे केई साहू वा साहूणी वा वायामेत्तेणा वि असंजममनुचिट्ठेज्जा से णं सारेज्जा से णं वारेज्जा, से Translated Sutra: दूसरा यह शिष्य शायद तप और संयम की क्रिया का आचरण करेंगे तो उससे उनका ही श्रेय होगा और यदि नहीं करेंगे तो उन्हें ही अनुत्तर दुर्गति गमन करना पड़ेगा। फिर भी मुझे गच्छ समर्पण हुआ है, मैं गच्छाधिपति हूँ, मुझे उनको सही रास्ता दिखाना चाहिए। और फिर दूसरी बात यह ध्यान में रखनी है कि – तीर्थंकर भगवंत ने आचार्य के छत्तीस | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 821 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केरिस गुणजुत्तस्स णं गुरुणो गच्छनिक्खेवं कायव्वं गोयमा जे णं सुव्वए, जे णं सुसीले, जे णं दढव्वए, जे णं दढचारित्ते, जे णं अनिंदियंगे, जे णं अरहे, जे णं गयरागे, जे णं गयदोसे, जे णं निट्ठिय मोह मिच्छत्त मल कलंके, जे णं उवसंते, जे णं सुविण्णाय जगट्ठितीए, जे णं सुमहा वेरग्गमग्गमल्लीणे, जे णं इत्थिकहापडिनीए, जे णं भत्तकहापडिनीए, जे णं तेण कहा पडिनीए, जे णं रायकहा पडिनीए, जे णं जनवय कहा पडिनीए, जे णं अच्चंतमनुकंप सीले, जे णं परलोग-पच्चवायभीरू, जे णं कुसील पडिनीए,
जे णं विण्णाय समय सब्भावे, जे णं गहिय समय पेयाले, जे णं अहन्निसानुसमयं ठिए खंतादि अहिंसा लक्खण दसविहे समणधम्मे, Translated Sutra: हे भगवंत ! कैसे गुणयुक्त गुरु हो तो उसके लिए गच्छ का निक्षेप कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो अच्छे व्रतवाले, सुन्दर शीलवाले, दृढ़ व्रतवाले, दृढ़ चारित्रवाले, आनन्दित शरीर के अवयववाले, पूजने के लायक, राग रहित, द्वेष रहित, बड़े मिथ्यात्व के मल के कलंक जिसके चले गए हैं वैसे, जो उपशान्त हैं, जगत की दशा को अच्छी तरह से पहचानते हो, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 822 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केवतियं कालं जाव एस आणा पवेइया गोयमा जाव णं महायसे महासत्ते महानुभागे सिरिप्पभे अनगारे। से भयवं केवतिएणं काले णं से सिरिप्पभे अनगागरे भवेज्जा ।
गोयमा होही दुरंत पंत लक्खणे अदट्ठव्वे रोद्दे चंडे पयंडे उग्ग पयंडे दंडे निम्मेरे निक्किवे निग्घिणे नित्तिंसे कूरयर पाव मती अनारिए मिच्छदिट्ठी कक्की नाम रायाणे। से णं पावे पाहुडियं भमाडिउकामे सिरि समण संघं कयत्थेज्जा। जाव णं कयत्थे इ ताव णं गोयमा जे केई तत्थ सीलड्ढे महानुभागे अचलियसत्ते तवो हणे अनगारे तेसिं च पाडिहेरियं कुज्जा सोहम्मे कुलिसपाणी एरावण-गामी सुरवरिंदे।
एवं च गोयमा देविंद वंदिए दिट्ठपच्चए Translated Sutra: हे भगवंत ! कितने अरसे तक यह आज्ञा प्रवेदन की है ? हे गौतम ! जब तक महायशवाले, महासत्त्ववाले, महागुणभाग, श्री प्रभुनाम के अणगार होंगे तब तक आज्ञा का प्रवर्तन होगा। हे भगवन् ! कितने समय के बाद श्री प्रभ नाम के अणगार होंगे ? हे गौतम ! दुरन्त प्रान्त – तुच्छ लक्षणवाला न देखने के लायक रौद्र, क्रोधी, प्रचंड, कठिन, उग्रभारी, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 823 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं उड्ढं पुच्छा। गोयमा तओ परेण उड्ढं हायमाणे कालसमए तत्थ णं जे केई छक्काय समारंभ विवज्जी से णं धन्ने पुन्ने वंदे पूए नमंसणिज्जे। सुजीवियं जीवियं तेसिं। Translated Sutra: हे भगवंत ! उसके बाद के काल में क्या हुआ ? हे गौतम ! उसके बाद के काल समय में जो कोई आत्मा छ काय जीव के समारम्भ का त्याग करनेवाला हो, वो धन्य, पूज्य, वंदनीय, नमस्करणीय, सुंदर जीवन जीनेवाले माने जाते हैं। हे भगवंत ! सामान्य पृच्छा में इस प्रकार यावत् क्या कहना ? हे गौतम ! अपेक्षा से कैसी आत्मा उचित है। और (प्रव्रज्या के | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 827 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयरे णं से–बहुरूवे वुच्चइ जे णं ओसन्न विहारीणं ओसन्ने, उज्जयविहारीणं उज्जयविहारी, निद्धम्म सबलाणं निद्धम्म सबले बहुरूवी रंगगए चारणे इव नडे Translated Sutra: हे भगवंत ! वो बहुरुप किसे कहते हैं ? जो शिथिल आचारवाला हो ऐसा ओसन्न या कठिन आचार पालनेवाला उद्यत विहारी बनकर वैसा नाटक करे। धर्म रहित या चारित्र में दूषण लगानेवाले हो ऐसा नाटक भूमि में तरह तरह के वेश धारण करे, उसकी तरह चारण या नाटक हो, पल में राम, पल में लक्ष्मण, पल में दश मस्तक – वाला रावण बने और फिर भयानक कान, आगे | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 830 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं गोयमा जे णं असई कयाई केई चुक्क खलिएणं पव्वावेज्जा, से णं दूरद्धाण ववहिए करेज्जा, से णं सन्निहिए नो धरेज्जा, से णं आयरेणं नो आलवेज्जा, से णं भंडमत्तोवगरणेण आयरेणं नो पडिलाहावेज्जा, से णं तस्स गंथसत्थं नो उद्दिसेज्जा, से णं तस्स गंतसत्थं नो अणुजाणेज्जा, से णं तस्स सद्धिं गुज्झ रहस्सं वा अगुज्झ रहस्सं वा नो मंतेज्जा। एवं गोयमा जे केई एय दोस विप्पमुक्के, से णं पव्वावेज्जा।
तहा णं गोयमा मिच्छ देसुप्पन्नं अनारियं नो पव्वावेज्जा। एवं वेसासुयं नो पव्वावेज्जा। एवं गणिगं नो पव्वावेज्जा। एवं चक्खुविगलं, एवं विगप्पिय करचरणं, एवं छिन्न कन्न नासोट्ठं, एवं कुट्ठवाहीए Translated Sutra: देखो सूत्र ८२७ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 831 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं गच्छववत्थं तह त्ति पालेत्तु तहेव जं जहा भणियं।
रय-मल-किलेस-मुक्के गोयम मोक्खं गएऽ णंतं॥ Translated Sutra: जिस प्रकार शास्त्र में किया है उस प्रकार गच्छ की व्यवस्था का यथार्थ पालन करके कर्मरूप रज के मैल और क्लेश से मुक्त हुए अनन्त आत्मा ने मुक्ति पद पाया है। देव, असुर और जगत के मानव से नमन किए हुए, इस भुवन में जिनका अपूर्व प्रकट यश गाया गया है, केवली तीर्थंकर भगवंत ने बताए अनुसार गण में रहे, आत्म पराक्रम करनेवाले, गच्छाधिपति | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 833 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केइ अमुणिय समय सब्भावे होत्था विहिए, इ वा अविहिए, इ वा कस्स य गच्छायारस्स य मंडलिधम्मस्स वा छत्तीसइविहस्स णं सप्पभेय नाण दंसण चरित्त तव वीरियायारस्स वा, मनसा वा, वायाए वा, कहिं चि अन्नयरे ठाणे केई गच्छाहिवई आयरिए, इ वा अंतो विसुद्ध, परिणामे वि होत्था णं असई चुक्केज्ज वा, खलेज्ज वा, परूवेमाणे वा अणुट्ठे-माणे वा, से णं आराहगे उयाहु अनाराहगे गोयमा अनाराहगे।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अनाराहगे गोयमा णं इमे दुवालसंगे सुयनाणे अणप्पवसिए अनाइ निहणे सब्भूयत्थ पसाहगे अनाइ संसिद्धे से णं देविंद वंद वंदाणं अतुल बल वीरिएसरिय सत्त परक्कम महापुरिसायार Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले हो, वह विधि से या अविधि से किसी गच्छ के आचार या मंड़ली धर्म के मूल या छत्तीस तरह के भेदवाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के आचार को मन से वचन से या काया से किसी भी तरह कोई भी आचार स्थान में किसी गच्छाधिपति या आचार्य के जितने अंतःकरण में विशुद्ध परिणाम होने के | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 844 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ताहे पुणो वि तेहिं भणियं जहा किमेयाइं अरड-बरडाइं असंबद्धाइं दुब्भासियाइं पलवह जइ पारिहारगं णं दाउं सक्के ता उप्फिड, मुयसु आसणं, ऊसर सिग्घं, इमाओ ठाणाओ। किं देवस्स रूसेज्जा। जत्थ तुमं पि पमाणीकाऊणं सव्व संघेणं समय सब्भावं वायरेउं जे समाइट्ठो।
तओ पुणो वि सुइरं परितप्पिऊणं गोयमा अन्नं पारिहारगं अलभमाणेणं अंगीकाऊण दीहं संसारं भणियं च सावज्जायरिएणं जहा णं उस्सग्गाववाएहिं आगमो ठिओ तुब्भे न याणहेयं। एगंतो मिच्छत्तं, जिणाणमाणा मणेगंता।
एयं च वयणं गोयमा गिम्हायव संताविएहिं सिहिउलेहिं च अहिणव पाउस सजल घणोरल्लिमिव सबहुमाणं समाइच्छियं तेहिं दुट्ठ-सोयारेहिं।
तओ Translated Sutra: तब भी उस दुराचारी ने कहा कि तुम ऐसे आड़े – टेढ़े रिश्ते के बिना दुर्भाषित वचन का प्रलाप क्यों करते हो? यदि उचित समाधान देने के लिए शक्तिमान न हो तो खड़े हो जाव, आसन छोड़ दे यहाँ से जल्द आसन छोड़कर नीकल जाए। जहाँ तुमको प्रमाणभूत मानकर सर्व संघ ने तुमको शास्त्र का सद्भाव कहने के लिए फरमान किया है। अब देव के उपर क्या दोष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 856 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता गोयम नंदिसेणेणं गिरि-पडणं जाव पत्थुयं।
ताव आयासे इमा वाणी पडिओ वि नो मरिज्ज तं॥ Translated Sutra: हे गौतम ! नंदिषेण ने जब पर्वत पर से गिरने का आरम्भ किया तब आकाश में से ऐसी वाणी सुनाइ दी कि पर्वत से गिरने के बाद भी मौत नहीं मिलेगी। जितने में दिशामुख की ओर देखा तो एक चारण मुनि दिखाइ दिए। तो उन्होंने कहा कि तुम्हारी अकाल मौत नहीं होगी। तो फिर विषम झहर खाने के लिए गया। तब भी विषय का दर्द न सहा जाने पर काफी दर्द | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 890 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाव गुरुणो न रयहरणं, पव्वज्जा य न अल्लिया।
तावाकज्जं न कायव्वं, लिंगमवि जिन-देसियं॥ Translated Sutra: जैसे कि जब तक गुरु को रजोहरण और प्रव्रज्या वापस अर्पण न की जाए तब तक चारित्र के खिलाफ किसी भी अपकार्य का आचरण न करना चाहिए। जिनेश्वर के उपदेशीत यह वेश – रजोहरण गुरु को छोड़कर दूसरे स्थान पर न छोड़ना चाहिए। अंजलिपूर्वक गुरु को रजोहरण अर्पण करना चाहिए। यदि गुरु महाराज समर्थ हो और उसे समझा सके तो समझाकर सही मार्ग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1065 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भयवं जावइयं दिट्ठं, तावइयं कहणुपालिया।
जे भवे अवीय-परमत्थे, किच्चाकिच्चमयाणगे॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! जितना देखा हो या जाना हो तो उसका पालन उतने प्रमाण में किस तरह कर सके ? जिन्होंने अभी परमार्थ नहीं जाना, कृत्य और अकृत्य के जानकार नहीं है। वो पालन किस तरह कर सकेंगे ? हे गौतम ! केवली भगवंत एकान्त हीत वचन को कहते हैं। वो भी जीव का हाथ पकड़कर बलात्कार से धर्म नहीं करवाते। लेकिन तीर्थंकर भगवान के बताए हुए |