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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1422 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एसा खलु लेसाणं ओहेण ठिई उ वण्णिया होइ ।
चउसु वि गईसु एत्तो लेसाण ठिइं तु वोच्छामि ॥ Translated Sutra: गति की अपेक्षा के बिना यह लेश्याओं की ओघ – सामान्य स्थिति है। अब चार गतियों की अपेक्षा से लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूँगा। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1423 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दस वाससहस्साइं काऊए ठिई जहन्निया होइ ।
तिण्णुदही पलिओवम असंखभागं च उक्कोसा ॥ Translated Sutra: कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार – वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है। नील लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है। कृष्ण – लेश्या की जघन्य – स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1424 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तिण्णुदही पलियमसंखभागा जहन्नेण नीलठिई ।
दस उदही पलिओवम असंखभागं च उक्कोसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४२३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1425 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दस उदही पलियमसंखभागं जहन्निया होइ ।
तेत्तीससागराइं उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४२३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1426 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एसा नेरइयाणं लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ ।
तेण परं वोच्छामि तिरियमनुस्साण देवाणं ॥ Translated Sutra: नैरयिक जीवों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन किया है। इसके बाद तिर्यंच, मनुष्य और देवों की लेश्या – स्थिति का वर्णन करूँगा। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1427 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अंतोमुहुत्तमद्धं लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ ।
तिरियाण नराणं वा वज्जित्ता केवलं लेसं ॥ Translated Sutra: केवल शुक्ल लेश्या को छोड़कर मनुष्य और तिर्यंचों की जितनी भी लेश्याऍं हैं, उन सब की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है। शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व है। सूत्र – १४२७, १४२८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1428 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ ।
नवहि वरिसेहि ऊणा नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४२७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1429 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एसा तिरियनराणं लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ ।
तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिइ उ देवाणं ॥ Translated Sutra: मनुष्य और तिर्यंचों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन है। इससे आगे देवों की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूँगा। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1430 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दस वाससहस्साइं किण्हाए ठिई जहन्निया होइ ।
पलियमसंखिज्जइमो उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ Translated Sutra: कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक नील लेश्या की जघन्य स्थिति, और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक है। नील लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1431 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जा किण्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणं नीलाए पलियमसंखं तु उक्कोसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४३० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1432 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जा नीलाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणं काऊए पलियमसंखं च उक्कोसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४३० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1433 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेण परं वोच्छामि तेउलेसा जहा सुरगणाणं ।
भवणवइवाणमंतर-जोइसवेमाणियाणं च ॥ Translated Sutra: इससे आगे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का निरूपण करूँगा। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1434 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पलिओवमं जहन्ना उक्कोसा सागरा उ दुण्हहिया ।
पलियमसंखेज्जेणं होई भागेण तेऊए ॥ Translated Sutra: तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागर है। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागर है। सूत्र – १४३४, १४३५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1435 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दस वाससहस्साइं तेऊए ठिई जहन्निया होई ।
दुण्णुदही पलिओवमं असंखभागं च उक्कोसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४३४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1436 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जा तेऊए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणं पम्हाए दसउ मुहुत्तहियाइं च उक्कोसा ॥ Translated Sutra: तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक पद्मलेश्या की जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त अधिक दस सागर है। जो पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति है, और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त – अधिक तेंतीस सागर है। सूत्र – १४३६, १४३७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1437 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जा पम्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणं सुक्काए तेत्तीसमुहुत्तमब्भहिया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४३६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1438 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किण्हा नीला काऊ तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ ।
एयाहि तिहि वि जीवो दुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥ Translated Sutra: कृष्ण, नील और कापोत – ये तीनों अधर्म लेश्याऍं हैं। इन तीनों से जीव अनेक बार दुर्गति को प्राप्त होता है तेजो – लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ललेश्या – ये तीनों धर्म लेश्याऍं हैं। इन तीनों से जीव अनेक बार सुगति को प्राप्त होता है। सूत्र – १४३८, १४३९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1439 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेऊ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ ।
एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४३८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1440 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु ।
न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ Translated Sutra: प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तर् मुहूर्त्त व्यतीत हो जाता है और जब अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं। सूत्र – १४४०–१४४२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1441 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लेसाहिं सव्वाहिं चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु ।
न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४४० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1442 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अंतमुहुत्तम्मि गए अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव ।
लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४४० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1443 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा एयाण लेसाणं अणुभागे वियाणिया ।
अप्पसत्थाओ वज्जित्ता पसत्थाओ अहिट्ठेज्जासि ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: अतः लेश्याओं के अनुभाग को जानकर अप्रशस्त लेश्याओं का परित्याग कर प्रशस्त लेश्याओं में अधिष्ठित होना चाहिए। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1444 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुणेह मेगग्गमणा मग्गं बुद्धेहि देसियं ।
जमायरंतो भिक्खू दुक्खाणंतकरो भवे ॥ Translated Sutra: मुझ से ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग को एकाग्र मन से सुनो, जिसका आचरण कर भिक्षु दुःखों का अन्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1445 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गिहवासं परिच्चज्ज पवज्जं अस्सिओ मुनी ।
इमे संगे वियाणिज्जा जेहिं सज्जंति मानवा ॥ Translated Sutra: गृहवास का परित्याग कर प्रव्रजित हुआ मुनि, इन संगों को जाने, जिनमें मनुष्य आसक्त होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1446 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव हिंसं अलियं चोज्जं अबंभसेवनं ।
इच्छाकामं च लोभं च संजओ परिवज्जए ॥ Translated Sutra: संयत भिक्षु हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, इच्छा – काम और लोभ से दूर रहे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1447 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मनोहरं चित्तहरं मल्लधूवेण वासियं ।
सकवाडं पंडुरुल्लोयं मनसा वि न पत्थए ॥ Translated Sutra: मनोहर चित्रों से युक्त, माल्य और धूप से सुवासित, किवाड़ों तथा सफेद चंदोवा से युक्त – ऐसे चित्ताकर्षक स्थान की मन से भी इच्छा न करे। काम – राग को बढ़ाने वाले इस प्रकार के उपाश्रय में इन्द्रियों का निरोध करना भिक्षु के लिए दुष्कर है। सूत्र – १४४७, १४४८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1448 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इंदियाणि उ भिक्खुस्स तारिसम्मि उवस्सए ।
दुक्कराइं निवारेउं कामरागविवड्ढणे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४४७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1449 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुसाने सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एक्कओ ।
पइरिक्के परकडे वा वासं तत्थभिरोयए ॥ Translated Sutra: अतः एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के नीचे तथा परकृत एकान्त स्थान में रहने की अभिरुचि रखे। परम संयत भिक्षु प्रासुक, अनावाध, स्त्रियों के उपद्रव से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे। सूत्र – १४४९, १४५० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1450 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासुयम्मि अनाबाहे इत्थीहिं अनभिद्दुए ।
तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४४९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1451 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न सयं गिहाइं कुज्जा णेव अन्नेहिं कारए ।
गिहकम्मसमारंभे भूयाणं दीसई वहो ॥ Translated Sutra: भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवाए। चूँकि गृहकर्म के समारंभ में प्राणियों का वध देखा जाता है। त्रस और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर जीवों का वध होता है, अतः संयत भिक्षु गृह – कर्म के समारंभ का परित्याग करे। सूत्र – १४५१, १४५२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1452 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तसाणं थावराणं च सुहुमाणं बायराण य ।
तम्हा गिहसमारंभं संजओ परिवज्जए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४५१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1453 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव भत्तपानेसु पयण पयावणेसु य ।
पाणभूयदयट्ठाए न पये न पयावए ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार भक्त – पान पकाने और पकवाने में हिंसा होती है। अतः प्राण और भूत जीवों की दया के लिए न स्वयं पकाए न दूसरे से पकवाए। भक्त और पान के पकाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का वध होता है – अतः भिक्षु न पकवाए। सूत्र – १४५३, १४५४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1454 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जलधन्ननिस्सिया जीवा पुढवीकट्ठनिस्सिया ।
हम्मंति भत्तपानेसु तम्हा भिक्खू न पायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४५३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1455 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विसप्पे सव्वओधारे बहुपाणविनासने ।
नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोइं न दीवए ॥ Translated Sutra: अग्नि के समान दूसरा शस्त्र नहीं है, वह सभी ओर से प्राणिनाशक तीक्ष्ण धार से युक्त है, बहुत अधिक प्राणियों की विनाशक है, अतः भिक्षु अग्नि न जलाए। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1456 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हिरण्णं जायरूवं च मनसा वि न पत्थए ।
समलेट्ठुकंचणे भिक्खू विरए कयविक्कए ॥ Translated Sutra: क्रय – विक्रय से विरक्त भिक्षु सुवर्ण और मिट्टी को समान समझनेवाला है, अतः वह सोने और चाँदी की मन से भी इच्छा न करे। वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक होता है और बेचने वाला वणिक् अतः क्रय – विक्रय में प्रवृत्त ‘साधु’ नहीं है। भिक्षावृत्ति से ही भिक्षु को भिक्षा करनी चाहिए, क्रय – विक्रय से नहीं। क्रय – विक्रय महान् | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1457 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किणंतो कइओ होइ विक्किणंतो य वाणिओ ।
कयविक्कयम्मि वट्टंतो भिक्खू न भवइ तारिसो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४५६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1458 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भिक्खयव्वं न केयव्वं भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा ।
कयविक्कओ महादोसो भिक्खावत्ती सुहावहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४५६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1459 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समुयाणं उंछमेसिज्जा जहासुत्तमनिंदियं ।
लाभालाभम्मि संतुट्ठे पिंडवायं चरे मुनी ॥ Translated Sutra: मुनि श्रुत के अनुसार अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे। वह लाभ और अलाभ में सन्तुष्ट रहकर भिक्षा – चर्या करे। अलोलुप, रस में अनासक्त, रसनेन्द्रिय का विजेता, अमूर्च्छित महामुनि यापनार्थ – जीवन – निर्वाह के लिए ही खाए, रस के लिए नहीं। सूत्र – १४५९, १४६० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1460 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अलोले न रसे गिद्धे जिब्भादंते अमुच्छिए ।
न रसट्ठाए भुंजिज्जा जवणट्ठाए महामुनी ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४५९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1461 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्चणं रयणं चेव वंदणं पूयणं तहा ।
इड्ढीसक्कारसम्माणं मनसा वि न पत्थए ॥ Translated Sutra: मुनि अर्चना, रचना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी प्रार्थना न करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1462 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुक्कज्झाणं ज्झियाएज्जा अनियाणे अकिंचने ।
वोसट्ठकाए विहरेज्जा जाव कालस्स पज्जओ ॥ Translated Sutra: मुनि शुक्ल ध्यान में लीन रहे। निदानरहित और अकिंचन रहे। जीवनपर्यन्त शरीर की आसक्ति को छोड़कर विचरण करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1463 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निज्जूहिऊण आहारं कालधम्मे उवट्ठिए ।
जहिऊण मानुसं बोंदिं पहू दुक्खे विमुच्चई ॥ Translated Sutra: अन्तिम काल – धर्म उपस्थित होने पर मुनि आहार का परित्याग कर और मनुष्य – शरीर को छोड़कर दुःखों से मुक्तप्रभु हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1464 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अनासवो ।
संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिव्वुए ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: निर्मम, निरहंकार, वीतराग और अनाश्रव मुनि केवल – ज्ञान को प्राप्त कर शाश्वत परिनिर्वाण को प्राप्त होता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1465 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जीवाजीवविभत्ति सुणेह मे एगमना इओ ।
जं जाणिऊण समणे सम्मं जयइ संजमं ॥ Translated Sutra: जीव और अजीव के विभाग का तुम एकाग्र मन होकर मुझसे सुनो, जिसे जानकर भिक्षु सम्यक् प्रकार से संयम में यत्नशील होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1466 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए ।
अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए ॥ Translated Sutra: यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है और जहाँ अजीव का एक देश केवल आकाश है, वह अलोक कहा जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1467 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा ।
परूवणा तेसि भवे जीवाणमजीवाण य ॥ Translated Sutra: द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से जीव और अजीव की प्ररूपणा होती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1477 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असंखकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्निया ।
अजीवाण य रूवीणं ठिई एसा वियाहिया ॥ Translated Sutra: रूपी अजीवों – पुद्गल द्रव्यों की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल की बताई गई है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1478 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनंतकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्नयं ।
अजीवाण य रूवीण अंतरेयं वियाहियं ॥ Translated Sutra: रूपी अजीवों का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1479 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वण्णओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा ।
संठाणओ य विन्नेओ परिणामो तेसि पंचहा ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से स्कन्ध आदि का परिणमन पाँच प्रकार का है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1480 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वण्णओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया ।
किण्हा नीला य लोहिया हालिद्दा सुक्किला तहा ॥ Translated Sutra: जो स्कन्ध आदि पुद्गल वर्ण से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं – कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल। |