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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 417 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पगईए मंदा वि भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया ।
आयारमंता गुणसुट्ठिअप्पा जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४१६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 418 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ ।
एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ॥ Translated Sutra: जो कोई सर्प को ‘छोटा बच्चा है’ यह जान कर उसकी आशातना करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है, इसी प्रकार आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्दबुद्धि भी संसार में जन्म – मरण के पथ पर गमन करता है। अत्यन्त क्रुद्ध हुआ भी आशीविष सर्प जीवन – नाश से अधिक और क्या कर सकता है ? परन्तु अप्रसन्न हुए पूज्यपाद आचार्य तो अबोधि | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 419 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो किं जीवनासाओ परं नु कुज्जा ।
आयरियपाया पुन अप्पसन्ना अबोहिआसायण नत्थि मोक्खो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४१८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 420 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जो पावगं जलियमवक्कमेज्जा आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा ।
जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी एसोवमासायणया गुरूणं ॥ Translated Sutra: जो प्रज्वलित अग्नि को मसलता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है, या जीवितार्थी होकर विषभक्षण करता है, ये सब उपमाऍं गुरुओं की आशातना के साथ (घटित होती हैं) कदाचित् वह अग्नि न जलाए, कुपित हुआ सर्प भी न डसे, वह हलाहल विष भी न मारे; किन्तु गुरु की अवहेलना से (कदापि) मोक्ष सम्भव नहीं है। सूत्र – ४२०, ४२१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 421 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिया हु से पावय नो डहेज्जा आसीविसो वा कुविओ न भक्खे ।
सिया विसं हालहलं न मारे न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४२० | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 422 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा ।
जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं एसोवमासायणया गुरूणं ॥ Translated Sutra: जो पर्वत को सिर से फोड़ना चाहता है, सोये हुए सिंह को जगाता है, या जो शक्ति की नोक पर प्रहार करता है, गुरुओं की आशातना करने वाला भी इनके तुल्य है। सम्भव है, कोई अपने सिर से पर्वत का भी भेदन कर दे, कुपित हुआ सिंह भी न खाए अथवा भाले की नोंक भी उसे भेदन न करे; किन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष (कदापि) सम्भव नहीं है। सूत्र – ४२२, | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 423 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिया हु सीसेण गिरिं पि भिंदे सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे ।
सिया न भिंदेज्ज व सत्तिअग्गं न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४२२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 424 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियपाया पुन अप्पसन्ना अबोहिआसायण नत्थि मोक्खो ।
तम्हा अनाबाह सुहाभिकंखी गुरुप्पसायाभिमुहो रमेज्जा ॥ Translated Sutra: आचार्यप्रवर के अप्रसन्न होने पर बोधिलाभ नहीं होता तथा (उनकी) आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए निराबाध सुख चाहनेवाला साधु गुरु की प्रसन्नता के अभिमुख होकर प्रयत्नशील रहे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 425 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जहाहियग्गी जलण नमंसे नाणाहुईमंतपयाभि सित्तं ।
एवायरियं उवचिट्ठएज्जा अनंतनाणोवगओ वि संतो ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार आहिताग्नि ब्राह्मण नाना प्रकार की आहुतियों और मंत्रपदों से अभिषिक्त की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, उसी प्रकार शिष्य अनन्तज्ञान – सम्पन्न हो जाने पर भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा – भक्ति करे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 426 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए सिरसा पंजलीओ कायग्गिरा भो! मनसा य निच्चं ॥ Translated Sutra: जिसके पास धर्म – पदों का शिक्षण ले, हे शिष्य ! उसके प्रति विनय का प्रयोग करो। सिर से नमन करके, हाथों को जोड़ कर तथा काया, वाणी और मन से सदैव सत्कार करो। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 427 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] लज्जा दया संजम बंभचेरं कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं ।
जे मे गुरू सययमणुसासयंति ते हं गुरू सययं पूययामि ॥ Translated Sutra: कल्याणभागी (साधु) के लिए लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य; ये विशोधि के स्थान हैं। अतः जो गुरु मुझे निरन्तर शिक्षा देते हैं, उनकी मैं सतत पूजा करूं। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 428 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवलभारहं तु ।
एवायरिओ सुयसीलबुद्धिए विरायई सुरमज्झे व इंदो ॥ Translated Sutra: जैसे रात्रि के अन्त में प्रदीप्त होता हुआ सूर्य सम्पूर्ण भारत को प्रकाशित करता है, वैसे ही आचार्य श्रुत, शील और प्रज्ञा से भावों को प्रकाशित करते हैं तथा जिस प्रकार देवों के बीच इन्द्र सुशोभित होता है, (सुशोभित होते हैं)। जैसे मेघों से मुक्त अत्यन्त निर्मल आकाश में कौमुदी के योग से युक्त, नक्षत्र और तारागण से | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 429 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा ।
खे सोहई विमले अब्भमुक्के एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४२८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 430 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] महागरा आयरिया महेसी समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए ।
संपाविउकामे अनुत्तराइं आराहए तोसए धम्मकामी ॥ Translated Sutra: अनुत्तर ज्ञानादि की सम्प्राप्ति का इच्छुक तथा धर्मकामी साधु (ज्ञानादि रत्नों के) महान् आकर, समाधि – योग तथा श्रुत, शील, और प्रज्ञा से सम्पन्न महर्षि आचार्यों को आराधे तथा उनकी विनयभक्ति से सदा प्रसन्न रखे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-१ | Hindi | 431 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सोच्चाण मेहावी सुभासियाइं सुस्सूसए आयरियप्पमत्तो ।
आराहइत्ताण गुणे अणेगे से पावई सिद्धिमणुत्तरं ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: मेधावी साधु (पूर्वोक्त) सुभाषित वचनों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य की शुश्रूषा करे। इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना करके अनुत्तर सिद्धि प्राप्त करता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 432 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स खंधाओ पच्छा समुवेंति साहा ।
साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता तओ से पुप्फं च फलं रसो य ॥ Translated Sutra: वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध से शाखाऍं, शाखाओं से प्रशाखाऍं निकलती हैं। तदनन्तर पत्र, पुष्प, फल और रस उत्पन्न होता है। इसी प्रकार धर्म ( – रूप वृक्ष) का मूल विनय है और उसका परम रसयुक्त फल मोक्ष है। उस (विनय) के द्वारा श्रमण कीर्ति, श्रुत और निःश्रेयस् प्राप्त करता है। सूत्र – ४३२, ४३३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 433 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं धम्मस्स विनओ मूलं परमो से मोक्खो ।
जेण कित्तिं सुयं सिग्घं निस्सेसं चाभिगच्छई ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 434 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे य चंडे मिए थद्धे दुव्वाई नियडी सढे ।
वुज्झइ से अविनीयप्पा कट्ठं सोयगयं जहा ॥ Translated Sutra: जो क्रोधी है, मृग – पशुसम अज्ञ, अहंकारी, दुर्वादी, कपटी और शठ है; वह अविनीतात्मा संसारस्रोत में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है, जैसे जल के स्रोत में पड़ा हुआ काष्ठ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 435 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] विनयं पि जो उवाएणं चोइओ कुप्पई नरो ।
दिव्वं सो सिरिमेज्जंतिं दंडेण पडिसेहए ॥ Translated Sutra: (किसी भी) उपाय से विनय ( – धर्म) में प्रेरित किया हुआ जो मनुष्य कुपित हो जाता है, वह आती हुई दिव्यलक्ष्मी को डंडे से रोकता (हटाता) है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 436 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव अविनीयप्पा उववज्झा हया गया ।
दीसंति दुहमेहंता आभिओगमुवट्ठिया ॥ Translated Sutra: जो औपबाह्य हाथी और घोड़े अविनीत होते हैं, वे (सेवाकाल में) दुःख भोगते हुए तथा भार – वहन आदि निम्न कार्यों में जुटाये जाते हैं और जो हाथी और घोड़े सुविनीत होते हैं, वे सुख का अनुभव करते हुए महान् यश और ऋद्धि को प्राप्त करते हैं। इसी तरह इस लोक में जो नर – नारी अविनीत होते हैं, वे क्षत – विक्षत, इन्द्रियविकल, दण्ड और | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 437 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव सुविनीयप्पा उववज्झा हया गया ।
दीसंति सुहमेहंता इड्ढिं पत्ता महायसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 438 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव अविनीयप्पा लोगंसि नरनारिओ ।
दीसंति दुहमेहंता छाया विगलितेंदिया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 439 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दंडसत्थपरिजुण्णा असब्भ वयणेहि य ।
कलुणा विवन्नछंदा खुप्पिवासाए परिगया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 440 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव सुविनीयप्पा लोगंसि नरनारिओ ।
दीसंति सुहमेहंता इड्ढिं पत्ता महायसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 441 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव अविनीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा ।
दीसंति दुहमेहंता आभिओगमुवट्ठिया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 442 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव सुविनीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा ।
दीसंति सुहमेहंता इड्ढिं पत्ता महायसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 443 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे आयरियउवज्झायाणं सुस्सूसावयणंकरा ।
तेसिं सिक्खा पवड्ढंति जलसित्ता इव पायवा ॥ Translated Sutra: जो साधक आचार्य और उपाध्याय की सेवा – शुश्रूषा करते हैं, उनके वचनों का पालन करते हैं, उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 444 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा नेउणियाणि य ।
गिहिणो उवभोगट्ठा इहलोगस्स कारणा ॥ Translated Sutra: जो गृहस्थ लोग इस लोक के निमित्त, सुखोपभोग के लिए, अपने या दूसरों के लिए; शिल्पकलाऍं या नैपुण्यकलाऍं सीखते हैं। ललितेन्द्रिय व्यक्ति भी कला सीखते समय (शिक्षक द्वारा) घोर बन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं। फिर भी वे गुरु के निर्देश के अनुसार चलने वाले उस शिल्प के लिए प्रसन्नतापूर्वक उस शिक्षकगुरु | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 445 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं ।
सिक्खमाणा नियच्छंति जुत्ता ते ललिइंदिया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४४४ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 446 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ते वि त गुरुं पूयंति तस्स सिप्पस्स कारणा ।
सक्कारेंति नमंसंति तुट्ठा निद्देसवत्तिणो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४४४ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 447 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] किं पुन जे सुयग्गाही अनंतहियकामए ।
आयरिया जं वए भिक्खू तम्हा तं नाइवत्तए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४४४ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 448 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नीयं सेज्जं गइं ठाणं नीयं च आसनानि य ।
नीयं च पाए वंदेज्जा नीयं कुज्जा य अंजलिं ॥ Translated Sutra: (साधु आचार्य से) नीची शय्या करे, नीची गति करे, नीचे स्थान में खड़ा रहे, नीचा आसन करे तथा नीचा होकर आचार्यश्री के चरणों में वन्दन और अंजलि करे। कदाचित् आचार्य के शरीर का अथवा उपकरणों का भी स्पर्श हो जाए तो कहे – मेरा अपराध क्षमा करें, फिर ऐसा नहीं होगा। सूत्र – ४४८, ४४९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 449 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संघट्टइत्ता काएणं तहा उवहिणामवि ।
खमेह अवराहं मे वएज्ज न पुणो त्ति य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४४८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 450 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दुग्गओ वा पओएणं चोइओ वहई रहं ।
एवं दुबुद्धि किच्चाणं वुत्तो वुत्तो पकुव्वई ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार दुष्ट बैल चाबुक से प्रेरित किये जाने पर (ही) रथ को वहन करता है, उसी प्रकार दुर्बुद्धि शिष्य (भी) आचार्यों के बार – बार कहने पर (कार्य) करता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 451 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आलवंते लवंते वा न निसेज्जाए पडिस्सुणे ।
मोत्तूणं आसणं धीरो सुस्सूसाए पडिस्सुणे ॥ Translated Sutra: गुरु के एक बार या बार – बार बुलाने पर बुद्धिमान् शिष्य आसन पर से ही उत्तर न दे, किन्तु आसन छोड़ कर शुश्रूषा के साथ उनकी बात सुन कर स्वीकार करे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 452 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कालं छंदोवयारं च पडिलेहित्ताण हेउहिं ।
तेण तेण उवाएण तं तं संपडिवायए ॥ Translated Sutra: काल, गुरु के अभिप्राय, उपचारों तथा देश आदि को हेतुओं से भलीभाँति जानकर तदनुकूल उपाय से उस – उस योग्य कार्य को सम्पादित करे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 453 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] विवत्ती अविनीयस्स संपत्ती विनियस्स य ।
जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ Translated Sutra: अविनीत को विपत्ति और विनीत को सम्पत्ति (प्राप्त) होती है, जिसको ये दोनों प्रकार से ज्ञात है, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 454 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि चंडे मइइड्ढिगारवे पिसुणे नरे साहस हीनपेसणे ।
अदिट्ठधम्मे विनए अकोविए असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य चण्ड, अपनी बुद्धि और ऋद्धि का गर्वी, पिशुन, अयोग्यकार्य में साहसिक, गुरु – आज्ञा – पालन से हीन, श्रमण – धर्म से अदृष्ट, विनय में अनिपुण और असंविभागी है, उसे (कदापि) मोक्ष (प्राप्त) नहीं होता। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 455 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] निद्देसवत्ती पुन जे गुरूणं सुयत्थधम्मा विनयम्मि कोविया ।
तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: किन्तु जो गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, जो गीतार्थ हैं तथा विनय में कोविद हैं; वे इस दुस्तर संसार – सागर को तैर कर कर्मों का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट गति में गए हैं। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 456 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा ।
आलोइयं इंगियमेव नच्चा जो छंदमाराहयइ स पुज्जो ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जाग्रत रहता है; उसी प्रकार जो आचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जाग्रत रहता है तथा जो आचार्य के आलोकित एवं इंगित को जान कर उनके अभिप्राय की आराधना करता है, वही पूज्य होता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 457 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयारमट्ठा विनयं पउंजे सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं ।
जहोवइट्ठं अभिकंखमाणो गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ॥ Translated Sutra: जो (शिष्य) आचार के लिए विनय करता है, जो सुनने की इच्छा रखता हुआ (उनके) वचन को ग्रहण कर के, उपदेश के अनुसार कार्य करना चाहता है और जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य होता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 458 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] राइणिएसु विनयं पउंजे डहरा वि य जे परियायजेट्ठा ।
नियत्तणे वट्टइ सच्चवाई ओवायवं वक्ककरे स पुज्जो ॥ Translated Sutra: अल्पवयस्क होते हुए भी पर्याय में जो ज्येष्ठ हैं; उन रत्नाधिकों के प्रति जो विनय करता है, नम्र रहता है, सत्यवादी है, गुरु सेवा में रहता है और गुरु के वचनों का पालन करता है, वह पूज्य होता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 459 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अण्णायउंछं चरइ विसुद्धं जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं ।
अलद्धुयं नो परिदेवएज्जा लद्धु न विकत्थयई स पुज्जो ॥ Translated Sutra: जो संयमयात्रा के निर्वाह के लिए सदा विशुद्ध, सामुदायिक, अज्ञात, उञ्छ चर्या करता है, जो न मिलने पर विषाद नहीं करता और मिलने पर श्लाघा नहीं करता, वह पूजनीय है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 460 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संथारसेज्जासणभत्तपाने अप्पिच्छया अइलाभे वि संते ।
जो एवमप्पाणभितोसएज्जा संतोसपाहन्न रए स पुज्जो ॥ Translated Sutra: जो (साधु) संस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पानी का अतिलाभ होने पर भी अल्प इच्छा रखनेवाला है, इस प्रकार जो अपने को सन्तुष्ट रखता है तथा जो सन्तोषप्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 461 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सक्का सहेउं आसाए कंटया अओमया उच्छहया नरेणं ।
अनासए जो उ सहेज्ज कंटए वईमए कण्णसरे स पुज्जो ॥ Translated Sutra: मनुष्य लाभ की आशा से लोहे के कांटों को उत्साहपूर्वक सहता है किन्तु जो किसी लाभ की आशा के बिना कानों में प्रविष्ट होने वाले तीक्ष्ण वचनमाय कांटों को सहन करता है, वही पूज्य होता है। | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 462 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया अओमया ते वि तओ सुउद्धरा ।
वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि वेरानुबंधीणि महब्भयाणि ॥ Translated Sutra: लोहमय कांटे मुहूर्त्तभर दुःखदायी होते हैं; फिर वे भी से सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं। किन्तु वाणी से निकले हुए दुर्वचनरूपी कांटे कठिनता से निकाले जा सकनेवाले, वैर परम्परा बढ़ानेवाले और महाभयकारी होते हैं | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 463 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] समावयंता वयणाभिघाया कण्णंगया दुम्मणियं जणंति ।
धम्मो त्ति किच्चा परमग्गसूरे जिइंदिए जो सहई स पुज्जो ॥ Translated Sutra: आते हुए कटुवचनों के आघात कानों में पहुँचते ही दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं; (परन्तु) जो वीर – पुरुषों का परम अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष ‘यह मेरा धर्म है’ ऐसा मान कर सहन कर लेता है, वही पूज्य होता है। | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 464 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवण्णवायं च परम्मुहस्स पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं ।
ओहारिणिं अप्पियकारिणिं च भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥ Translated Sutra: जो मुनि पीठ पीछे कदापि किसी का अवर्णवाद नहीं बोलता तथा प्रत्यक्ष में विरोधी भाषा एवं निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता, वह पूज्य होता है। | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 465 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अलोलुए अक्कुहए अमाई अपिसुणे यावि अदीनवित्ती ।
नो भावए नो वि य भावियप्पा अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ॥ Translated Sutra: जो लोलुप नहीं होता, इन्द्रजालिक चमत्कार – प्रदर्शन नहीं करता, माया का सेवन नहीं करता, चुगली नहीं खाता, दीनवृत्ति नहीं करता, दूसरों से अपनी प्रशंसा नहीं करवाता और न स्वयं अपनी प्रशंसा करता है तथा जो कुतूहल नहीं करता, वह पूज्य है। | |||||||||
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अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 466 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गुणेहि साहू अगुणेहिसाहू गिण्हाहि साहूगुण मुंचसाहू ।
वियाणिया अप्पगमप्पएणं जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ॥ Translated Sutra: व्यक्ति गुणों से साधु होता है, अगुणों से असाधु। इसलिए साधु के योग्य गुणों को ग्रहण कर और असाधु – गुणों को छोडे। आत्मा को आत्मा से जान कर जो रागद्वेष में सम रहता है, वही पूज्य होता है। |