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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 224 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लवणसमुद्दं धायइसंडे नामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति।
धायइसंडे णं भंते! दीवे किं समचक्कवालसंठिते? विसमचक्कवालसंठिते? गोयमा! समचक्कवाल-संठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते।
धायइसंडे णं भंते! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं? केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते? गोयमा! चत्तारि जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, इगयालीसं जोयणसतसहस्साइं दसजोयण-सहस्साइं नव य एगट्ठे जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते। से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेणं वनसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वण्णओ।
धायइसंडस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पन्नत्ता? Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૨૪. ઘાતકીખંડ નામક દ્વીપ વૃત્ત, વલયાકાર સંસ્થાન સંસ્થિત, ચોતરફથી લવણસમુદ્રને ઘેરીને રહેલ છે. ભગવન્ ! ઘાતકીખંડદ્વીપ સમચક્રવાલ સંસ્થિત છે કે વિષમચક્રવાલ સંસ્થિત ? ગૌતમ ! સમચક્રવાલ સંસ્થિત છે, વિષમ – ચક્રવાલ સંસ્થિત નથી. ભગવન્ ! ઘાતકીખંડ દ્વીપનો ચક્રવાલ વિષ્કંભ અને પરિધિ કેટલી છે ? ગૌતમ ! ચક્રવાલ વિષ્કંભ | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 287 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मानुसुत्तरे णं भंते! पव्वते केवतियं उड्ढं उच्चत्तेणं? केवतियं उव्वेहेणं? केवतियं मूले विक्खंभेणं? केवतियं मज्झे विक्खंभेणं? केवतियं उवरिं विक्खंभेणं? केवतियं अंतो गिरिपरिरएणं? केवतियं बाहिं गिरिपरिरएणं? केवतियं मज्झे गिरि परिरएणं? केवतियं उवरिं गिरिपरिरएणं?
गोयमा! मानुसुत्तरे णं पव्वते सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उव्वेहेणं, मूले दसबावीसे जोयणसते विक्खंभेणं, मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसते विक्खंभेणं, उवरि चत्तारिचउवीसे जोयणसते विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दोन्नि य अउणापण्णे Translated Sutra: ભગવન્ ! માનુષોત્તર પર્વતની ઊંચાઈ કેટલી છે ? જમીનમાં ઊંડાઈ કેટલી છે ? મૂળમાં કેટલો પહોળો છે ? મધ્યે કેટલો પહોળો છે ? શિખરે કેટલો પહોળો છે ? તેની અંદરની પરિધિ કેટલી છે ? બહારની પરિધિ કેટલી છે ? મધ્યમાં પરિધિ કેટલી છે ? ઉપરની પરિધિ કેટલી છે ? ગૌતમ ! ગૌતમ ! માનુષોત્તર પર્વત ૧૭૨૧ યોજન ઊંચો છે. ૪૩૦ યોજન અને એક કોશ પૃથ્વીમાં | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 288 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अंतो णं भंते! मानुसुत्तरस्स पव्वतस्स जे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्ढोववन्नगा? कप्पोववन्नगा? विमाणोववन्नगा? चारोववन्नगा? चारट्ठितीया? गतिरतिया? गति-समावन्नगा? गोयमा! ते णं देवा नो उड्ढोववन्नगा, नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा, चारोववन्नगा, नो चारट्ठितीया, गतिरतिया गतिसमावन्नगा, उड्ढीमुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठितेहिं जोयण-साहस्सि-तेहिं तावखेत्तेहिं, साहस्सियाहिं बाहिरियाहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्ट गीत वादित तंती तल ताल तुडिय घन मुइंग पडुप्पवादितरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा महया उक्किट्ठसीहनाय-वोलकलकलरवेणं Translated Sutra: ભગવન્ ! મનુષ્યક્ષેત્રની અંદર જે ચંદ્ર, સૂર્ય, ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારાગણ છે, તેઓ હે ભદંત ! શું ઉર્ધ્વોત્પન્ન છે, કલ્પોત્પન્ન છે, વિમાનોત્પન્ન છે, ચારોત્પન્ન છે, ચારસ્થિતિક છે, ગતિરતિક છે કે ગતિસમાપન્નક છે ? ગૌતમ ! તે દેવો ઉર્ધ્વોત્પન્ન નથી, કલ્પોત્પન્ન નથી, વિમાનોત્પન્ન છે. તેઓ ગતિશીલ છે, સ્થિતિશીલ નથી, ગતિરતિક છે, | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Gujarati | 290 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुक्खरोदण्णं समुद्दं वरुनवरे नामं दीवे वट्टे जधेव पुक्खरोदसमुद्दस्स तधा सव्वं।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–वरुनवरे दीवे? वरुनवरे दीवे? गोयमा! वरुनवरे णं दीवे तत्थतत्थ देसे तहिंतहिं बहुईओ खुड्डाखुड्डियाओ जाव बिलपंतियाओ अच्छाओ जाव सद्दुण्णइय-महुरसरनाइयाओ वारुणिवरोदगपडिहत्थाओ पत्तेयंपत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओ पत्तेयंपत्तेयं वनसंडपरिक्खित्ताओ वण्णओ पासादीयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ। तिसोमाणतोरणा।
तासु णं खुड्डाखुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उप्पातपव्वया जाव पक्खंदोलगा सव्व-फालियामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसु णं उप्पायपव्वएसु Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૮૯ | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
ज्योतिष्क उद्देशक | Gujarati | 315 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदविमाने णं भंते कति देवसाहस्सीओ परिवहंति गोयमा चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभ-गाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउवट्टपीवर-सुसिलिट्ठविसिट्ठ-तिक्खदाढा-विडंबितमुहाणं रत्तुप्पलपत्त-मउयसुमालालु-जीहाणं मधुगुलियपिंग-लक्खाणं पसत्थसत्थवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं विसालपीवरोरुपडिपुन्नविउलखंधाणं मिउविसय पसत्थसुहुमलक्खण-विच्छिण्णकेसरसडोवसोभिताणं चंकमितललिय-पुलितथवलगव्वित-गतीणं उस्सियसुणिम्मि-यसुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयनक्खाणं वइरामयदंताणं पीतिगमाणं मनोगमाणं मनोरमाणं मनोहराणं अमीयगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं Translated Sutra: ભગવન્ ! ચંદ્રવિમાનને કેટલા હજાર દેવ વહન કરે છે ? ગૌતમ ! ચંદ્રવિમાનને કુલ ૧૬,૦૦૦ દેવ વહન કરે છે. તેમાં પૂર્વના ૪૦૦૦ દેવો સિંહરૂપ ધારણ કરી ઉઠાવે છે. તે સિંહ શ્વેત, સુભગ, સુપ્રભ, શંખતલ સમાન વિમલ, નિર્મલ, ઘન દહીં, ગાયનું દૂધ, ફીણ, ચાંદીના સમૂહ સમાન શ્વેત પ્રભાવાળો છે. તેની આંખ મધની ગોળી સમાન પીળી છે, મુખમાં સ્થિત સુંદર | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
वैमानिक उद्देशक-२ | Gujarati | 330 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोहम्मीसानेसु णं भंते! कप्पेसु विमाना केवतियं आयामविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य। तत्थ णं जेते संखेज्जवित्थडा ते णं संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं। तत्थ णं जेते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं। एवं जाव गेवेज्जविमाना।
अनुत्तरविमाना पुच्छा। गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संखेज्जवित्थडे य असंखेज्ज-वित्थडा य। तत्थ णं जेसे संखेज्जवित्थडे से एगं जोयणसयसहस्सं Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૩૨૭ | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
वैमानिक उद्देशक-२ | Gujarati | 338 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोहम्मीसानेसु णं भंते! कप्पेसु देवा केरिसया विभूसाए पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जेते भवधारणिज्जा ते णं आभरनवसणरहिता पगतित्था विभूसाए पन्नत्ता। तत्थ णं जेते उत्तरवेउव्विया ते णं हारविराइयवच्छा जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा विभूसाए पन्नत्ता।
सोहम्मीसानेसु णं भंते! कप्पेसु देवीओ केरिसियाओ विभूसाए पन्नत्ताओ?
गोयमा! दुविधाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–भवधारणिज्जाओ य उत्तरवेउव्वियाओ य। तत्थ णं जाओ भवधारणिज्जाओ ताओ णं आभरनवसणरहिताओ पगतित्थाओ विभूसाए पन्नत्ताओ।
तत्थ णं Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૩૮. સૌધર્મ – ઈશાનના દેવો વિભૂષાથી કેવા કહ્યા છે ? ગૌતમ ! દેવો બે પ્રકારે છે – વૈક્રિય શરીરવાળા અને અવૈક્રિય શરીરવાળા. તેમાં જે તે વૈક્રિય શરીરવાળા છે, તેઓ હાર વિરાજિત વક્ષઃસ્થળવાળા યાવત્ દશે દિશાઓને ઉદ્યોતીત કરતા, પ્રભાસતા યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. તેમાં જે તે અવૈક્રિય શરીરવાળા છે, તેઓ આભરણ – વસ્ત્ર રહિત, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 15 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परमत्थ-तत्त-सिट्ठं सब्भूयत्थ पसाहगं।
तब्भणियानुट्ठाणेणं जे आया रंजए सकं॥ Translated Sutra: परम अर्थयुक्त, तत्त्व स्वरूप में सिद्ध हुए, सद्भुत चीज को साबित कर देनेवाले ऐसे, वैसे पुरुषों ने किए अनुष्ठान द्वारा वो (निर्दोष) आत्मा खुद को आनन्दित करता है। वैसे आत्मा में उत्तमधर्म होता है उत्तम तप – संपत्ति शील चारित्र होते हैं इसलिए वो उत्तम गति पाते हैं। सूत्र – १५, १६ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 21 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असंजम-अहम्मं च, निस्सील-व्वतता वि य।
सकुलसत्तमसुद्धी य, सुकयनासो तहेव य॥ Translated Sutra: असंयम, अधर्म, शील और व्रत रहितता, कषाय सहितता, योग की अशुद्धि यह सभी सुकृत पुण्य को नष्ट करनेवाले और पार न पा सके वैसी दुर्गति में भ्रमण करनेवाले हो और फिर शारीरिक मानसिक दुःख पूर्ण अंत रहित संसार में अति घोर व्याकुलता भुगतनी पड़े, कुछ को रूप की बदसूरती मिले, दारिद्र्य, दुर्भगता, हाहाकार करवानेवाली वेदना, पराभाव | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 96 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न पुणो तहा आलोएयव्वं माया-डंभेण केणई।
जह आलोएमाणाणं चेव संसार-वुड्ढी भवे॥ Translated Sutra: आलोचना करनेवाले को माया दंभ – शल्य से कोई आलोचना नहीं करनी चाहिए। उस तरह की आलोचना से संसार की वृद्धि होती है। अनादि अनन्तकाल से अपने कर्म से दुर्मतिवाले आत्मा ने कईं विकल्प समान कल्लोलवाले संसार समुद्र में आलोचना करने के बाद भी अधोगति पानेवाले के नाम बताऊं उसे सून कि जो आलोचना सहित प्रायश्चित्त पाए हुए | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 197 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता गोयम भाव-दोसेणं आया वंचिज्जई परं।
जेणं चउ-गइ-संसारे हिंडइ सोक्खेहिं वंचिओ॥ Translated Sutra: हे गौतम ! चार गति समान संसार में मृगजल समान संसार के सुख से ठगित, भाव दोष समान शल्य से धोखा खाता है और संसार में चारों गति में घूमता है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 740 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मउए निहुय-सहावे हास-दव-वज्जिए विगह-मुक्के।
असमंजसमकरेंते गोयर-भूमट्ठ विहरंति॥ Translated Sutra: नम्र होकर स्थिर स्वभाववाला हँसी और जल्द गति को छोड़कर, विकथा न करनेवाला, अघटित कार्य न करनेवाला, आँठ तरह की गोचरी की गवेषणा करे यानि वहोरने के लिए जाए। जिसमें मुनिओं के अलग – अलग तरह के दुष्कर अभिग्रह, प्रायश्चित् आचरण करते देखकर देवेन्द्र के चित्त चमत्कार पाए वो गच्छ। सूत्र – ७४०, ७४१ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1518 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] काले णं तु खवे कम्मं, काले णं तु पबंधए।
एगं बंधे खवे एगं, गोयमा कालमनंतगं॥ Translated Sutra: काल से तो कर्म खपाता है, काल के द्वारा कर्म बाँधता है, एक बाँधे, एक कर्म का क्षय करे, हे गौतम ! समय तो अनन्त है, योग का निरोध करनेवाला कर्म वेदता है लेकिन कर्म नहीं बाँधते। पुराने कर्म को नष्ट करते हैं, नए कर्म की तो उसे कमी ही है, इस प्रकार कर्म का क्षय जानना। इस विषय में समय की गिनती न करना। अनादि समय से यह जीव है तो | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-१ | Hindi | 246 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] घोरं-मनुस्स-जाईणं घोर-पयंडं मुणे तिरिच्छासुं।
घोर-पयंडमहारोद्दं नारय-जीवाण गोयमा॥ Translated Sutra: मानव जातिमे घोर दुःख है। तिर्यंचगति में घोर प्रचंड़ दुख है और हे गौतम ! नारक के जीव का दुख घोर प्रचंड़ महारौद्र होता है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-२ | Hindi | 271 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ता मह किलेसमुत्तिणं सुहियं से अत्ताणयं।
मन्नंतो पमुइओ हिट्ठो सत्थचित्तो वि चिट्ठई॥ Translated Sutra: शरण रहित उस जीव को क्लेश न देकर सुखी किया, इसलिए अति हर्ष पाए। और स्वस्थ चित्तवाला होकर सोचे – माने कि यदि एक जीव को अभयदान दिया और फिर सोचने लगे कि अब मैं निवृत्ति – शांति प्राप्त हुआ। खुजलाने से उत्पन्न होनेवाला पापकर्म दुःख को भी मैंने नष्ट किया। खुजलाने से और उस जीव की विराधना होने से मैं अपनेआप नहीं जान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 314 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तं तारिसं महाघोरं दुक्खमनुभविउं चिरं।
पुणो वि कूरतिरिएसु उववज्जिय नरयं वए॥ Translated Sutra: वहाँ लम्बे अरसे तक उस तरह के महाघोर दुःख का अहसास करके फिर से क्रूरतिर्यंच के भव में पैदा होकर क्रूर पापकर्म करके वापस नारकी में जाए इस तरह नरक और तिर्यंच गति के भव का बारी – बारी परावर्तन करते हुए कईं तरह के महादुःख का अहसास करते हुए वहाँ हुए के जो दुःख हैं उनका वर्णन करोड़ साल बाद भी कहने के लिए शक्तिमान न हो सके। सूत्र | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 319 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अज्झवसाय-विसेसं तं पडुच्चा केइ कह कह वि लब्भंती मानुसत्तणं।
तप्पुव्व-सल्ल-दोसेणं मानुसत्ते वि आगया। Translated Sutra: और फिर वैसे किसी शुभ अध्यवसाय विशेष से किसी भी तरह मनुष्यत्व पाए लेकिन अभी पूर्व किए गए शल्य के दोष से मनुष्य में आने के बाद भी जन्म से ही दरिद्र के वहाँ उत्पन्न होता है। वहाँ व्याधि, खस, खुजली आदि रोग से घिरे हुए रहता है और सब लोग उसे न देखने में कल्याण मानते हैं। यहाँ लोगों की लक्ष्मी हड़प लेने की दृढ़ मनोभावना | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 324 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चिट्ठंति संसरेमाणे जम्म-जर-मरण-बहु-वाहि वेयणा-रोग-सोग-दारिद्द-कलह-ब्भक्खाणं-संताव-गब्भवासादि-दुक्खसंधु-किए।
तप्पुव्वसल्ल-दोसेणं निच्चानंद-महूसव-थाम-जोग-अट्ठारस-सीलंग-सहस्साहिट्ठियस्ससव्वा सुह-पावकम्मट्ठ-रासि-निद्द-हण-अहिंसा-लक्खण-समण-धम्मस्स बोहिं नो पाविंति ते॥ Translated Sutra: जो आगे एक बार पूर्वभव में शल्य या पाप दोष का सेवन किया था, उस कारण से चारों गति में भ्रमण करते हुए और हर एक भव में जन्मधारण, अनेक व्याधि, दर्द, रोग, शोक, दरिद्रता, क्लेश, झूठे कलंक पाना, गर्भावास आदि के दुःख समान अग्नि में जलनेवाला बेचारा ‘‘क्या नहीं पा सकता’’ वो बताता है। निर्वाण गमन उचित आनन्द महोत्सव स्वरूप सामर्थ्ययोग, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 330 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं वय-नियम-भंगं जे कज्जमाणमुवेक्खए।
अह सीलं खंडिज्जंतं, अहवा संजम-विराहणं॥ Translated Sutra: इस प्रकार व्रत – नियम का भंग करे, व्रत – नियम तोड़नेवाले की उपेक्षा करे, उसे स्थिर न करे, शील – खंड़न करे, अगर शील खंड़न करनेवाले की उपेक्षा करे, वो संयम विराधना करे या संयम विराधक की उपेक्षा करे, उन्मार्ग का प्रवर्तन करे और ऐसा करते हुए न रोके, उत्सूत्र का आचरण करे और सामर्थ्य होते हुए भी उसे न रोके या उपेक्षा करे, वो | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 333 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं लद्धामवि बोहिं जइ णं नो भवइ निम्मला।
ता संवुडासव-द्दारे पगति-ट्ठिइ-पएसानुभावियबंधो, नो हासो नो य निज्जरे॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३३२ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 366 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कह सहिहं बहु-भव-ग्गहणे दुहमनुसमयमहण्णिसं।
घोर-पयंडं-महारोद्दं हा-हा-कंद-परायणा॥ Translated Sutra: वो दुःख कैसे होगा ? चार गति और ८४ लाख योनि स्वरूप कईं भव और गर्भावास सहना पड़ेगा, जिसमें रात – दिन के प्रत्येक समय सतत घोर, प्रचंड़ महा भयानक दुःख सहना पड़ेगा – हाहा – अरे रे ! – मर गया रे ऐसे आक्रन्द करना पड़ेगा। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 367 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नारय-तिरिच्छ-जोणीसु अत्ताणासरणा वि य।
एगागी ससरीरेणं असहाया कडु-विरसं घनं॥ Translated Sutra: नारक और तिर्यंच गति में कोई रक्षा करनेवाला या शरणभूत नहीं होता। बेचारे अकेले – अपने शरीर को किसी सहाय करनेवाला न मिले, वहाँ कटू और कठिन विरस पाप के फल भुगतना पड़े। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 368 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] असिवण-वेयरणी जंते करवत्ते कूडसामलिं।
कुंभी-वायासा-सीहे एमादी नारए दुहे॥ Translated Sutra: नारकी तलवार की धार समान पत्रवाले पेड़ के वन में छाँव की ईच्छा से जाए तो पवन से पत्ते शरीर पर भी पड़े यानि शरीर के टुकड़े हो। लहू, परु, चरबी केशवाले दुर्गंधयुक्त प्रवाहवाली वैतरणी नदी में डूबना, यंत्र में पीलना, करवत से कटना। कंटकयुक्त शाल्मली पेड़ के साथ आलिंगन, कुंभी में पकाना, कौए आदि पंछी की चोंच की मार सहना, शेर | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 371 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कुंथू-पय-फरिस-जनियं पि दुक्खं न अहियासिउं तरे।
ता तं मह-दुक्ख-संघट्टं कह नित्थरिह सुदारुणं॥ Translated Sutra: कुंथुआ के पाँव के स्पर्श से उत्पन्न होनेवाली खुजली का दुःख तू यहाँ सहने के लिए समर्थ नहीं बनता तो फिर ऊपर कहे गए नरक तिर्यंचगति के अति भयानक महादुःख आएंगे तब उसका निस्तार – पार कैसे पाएंगे ? | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 387 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं नो इत्थीणं निज्झाएज्जा। नो नमालवेज्जा। नो णं तीए सद्धिं परिवसेज्जा। नो णं अद्धाणं पडिवज्जेज्जा
(२) गोयमा सव्व-प्पयारेहि णं सव्वित्थीयं अच्चत्थं मउक्कडत्ताए रागेणं संधुक्किज्जमाणी
कामग्गिए संपलित्ता सहावओ चेव विसएहिं बाहिज्जइ।
(३) तओ सव्व-पयारेहिं णं सव्वत्थियं अच्चत्थं मउक्कडत्ताए रागेणं संधु-क्किज्जमाणी कामग्गीए संपलित्ता सहावओ चेव विसएहिं बाहिज्जमाणी, अनुसमयं सव्व-दिसि-विदिसासुं णं सव्वत्थ विसए पत्थेज्जा
(४) जावं णं सव्वत्थ-विसए पत्थेज्जा, ताव णं सव्व-पयारेहिं णं सव्वत्थ सव्वहा पुरिसं संकप्पिज्जा,
(५) जाव णं Translated Sutra: हे भगवंत ! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि – स्त्री के मर्म अंग – उपांग की ओर नजर न करना, उसके साथ बात न करना, उसके साथ वास न करना, उसके साथ मार्ग में अकेले न चलना ? हे गौतम ! सभी स्त्री सर्व तरह से अति उत्कट मद और विषयाभिलाप के राग से उत्तेजित होती है। स्वभाव से उस का कामाग्नि हंमेशा सुलगता रहता है। विषय की ओर उसका चंचल चित्त | |||||||||
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अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 389 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं केणं अट्ठेण एवं वुच्चइ जहा पुरिसे वि णं जे णं न संजुज्जे से णं धन्ने जे णं संजुज्जे से अधन्ने
(२) गोयमा जे य णं से तीए इत्थीए पावाए बद्ध-पुट्ठ-कम्म-ट्ठिइं चिट्ठइ।
से णं पुरिससंगेणं निकाइज्जइ
(३) तेणं तु बद्ध-पुट्ठ-निकाइएणं कम्मेणं सा वराई
(४) तं तारिसं अज्झवसायं पडुच्चा एगिंदियत्ताए पुढवादीसुं गया समाणी अनंत-काल-परियट्टेण वि णं नो पावेज्जा बेइंदियत्तणं
(५) एवं कह कह वि बहुकेसेण अनंत-कालाओ एगिंदियत्तणं खविय बेइंदियत्तं, एवं तेइंदियत्तं चउरिं-दियत्तमवि केसेणं वेयइत्ता पंचिंदियत्तेणं आगया समाणी
(६) दुब्भगित्थिय-पंड-तेरिच्छ-वेयमाणी। हा-हा-भूय-कट्ठ-सरणा, Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहलाता है कि जो पुरुष उस स्त्री के साथ योग न करे वो धन्य और योग करे वो अधन्य ? हे गौतम ! बद्धस्पृष्ट – कर्म की अवस्था तक पहुँची हुई वो पापी स्त्री पुरुष का साथ प्राप्त हो तो वो कर्म निकाचितपन में बदले, यानि बद्धस्पृष्ट निकाचित कर्म से बेचारी उस तरह के अध्यवसाय पाकर उसकी आत्मा पृथ्वीकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 394 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (८) जे णं से विमज्झिमे, से णं निय-कलत्तेण सद्धिं विकम्मं समायरेज्जा, नो णं पर-कलत्तेणं,
(९) एसे य णं जइ पच्छा उग्ग-बंभयारी नो भवेज्जा, तो णं अज्झवसाय-विसेसं तं तारिसमंगीकाऊणं अनंत-संसारियत्तणे भयणा,
(१०) जओ णं जे केइ अभिगय-जीवाइ-पयत्थे सव्व-सत्ते आगमाणुसारेणं सुसाहूणं धम्मोवट्ठंभ-दानाइ-दान-सील-तव-भावनामइए चउव्विहे धम्म-खंधे समनुट्ठेज्जा। से णं जइ कहवि नियम-वयभंगं न करेज्जा
(११) तओ णं साय-परंपरएणं सुमानुसत्त-सुदेवत्ताए। जाव णं अपरिवडिय-सम्मत्ते, निसग्गेण वा अभिगमेण वा जाव अट्ठारससीलंग-सहस्सधारी भवित्ताणं निरुद्धासवदारे, विहूय-रयमले, पावयं कम्मं खवित्ताणं सिज् Translated Sutra: और फिर जो विमध्यम तरह के पुरुष हो वो अपनी पत्नी के साथ इस प्रकार कर्म का सेवन करे लेकिन पराई स्त्री के साथ वैसे अनुचित कर्म का सेवन न करे। लेकिन पराई स्त्री के साथ ऐसा पुरुष यदि पीछे से उग्र ब्रह्मचारी न हो तो अध्यवसाय विशेष अनन्त संसारी बने या न बने। अनन्त संसारी कौन न बने ? तो कहते हैं कि उस तरह क भव्य आत्मा जीवादिक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 403 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एत्थं च गोयमा जं इत्थीयं भएण वा, लज्जाए वा, कुलंकुसेण वा, जाव णं धम्म-सद्धाए वा तं वेयणं अहि-यासेज्जा नो वियम्मं समायरेज्जा
(२) से णं धन्ना, से णं पुण्णा, से य णं वंदा, से णं पुज्जा, से णं दट्ठव्वा, से णं सव्व-लक्खणा, से णं सव्व-कल्लाण-कारया, से णं सव्वुत्तम-मंगल-निहि
(३) से णं सुयदेवता, से णं सरस्सती, से णं अंबहुंडी, से णं अच्चुया, से णं इंदाणी, से णं परमपवित्तुत्तमा सिद्धी मुत्ती सासया सिवगइ त्ति Translated Sutra: हे गौतम ! ऐसे वक्त यदि वो स्त्री भय से, लज्जा से, कुल के कलंक के दोष से, धर्म की श्रद्धा से, काम का दर्द सह ले और असभ्य आचरण सेवन न करे वो स्त्री धन्य है। पुन्यवंती है, वंदनीय है। पूज्य है। दर्शनीय है, सर्व लक्षणवाली है, सर्व कल्याण साधनेवाली है। सर्वोत्तम मंगल की नीधि है। वो श्रुत देवता है, सरस्वती है। पवित्र देवी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 406 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा णं गोयमा इत्थीयं नाम पुरिसाणं अहमाणं सव्व-पाव-कम्माणं वसुहारा, तम-रय-पंक-खाणी सोग्गइ-मग्गस्स णं अग्गला, नरयावयारस्स णं समोयरण-वत्तणी
(२) अभूमयं विसकंदलिं, अणग्गियं चडुलिं अभोयणं विसूइयं अणामियं वाहिं, अवेयणं मुच्छं, अणोवसग्गं मारिं अनियलिं गुत्तिं, अरज्जुए पासे, अहेउए मच्चू,
(३) तहा य णं गोयमा इत्थि-संभोगे पुरिसाणं मनसा वि णं अचिंतणिज्जे, अणज्झव-सणिज्जे, अपत्थणिज्जे, अणीहणिज्जे, अवियप्पणिज्जे, असंकप्पणिज्जे, अणभिलसणिज्जे, असंभरणिज्जे तिविहं तिविहेणं ति।
(४) जओ णं इत्थियं नाम पुरिसस्स णं, गोयमा सव्वप्पगारेसुं पि दुस्साहिय-विज्जं पि व दोसुप्पपायणिं, सारंभ Translated Sutra: हे गौतम ! यह स्त्री, पुरुष के लिए सर्व पापकर्म की सर्व अधर्म की धनवृष्टि समान वसुधारा समान है। मोह और कर्मरज के कीचड़ की खान समान सद्गति के मार्ग की अर्गला – विघ्न करनेवाली, नरक में उतरने के लिए सीड़ी समान, बिना भूमि के विषवेलड़ी, अग्नि रहित उंबाडक – भोजन बिना विसूचिकांत बीमारी समान, नाम रहित व्याधि, चेतना बिना मूर्छा, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 432 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] भयवं किं पायच्छित्तेणं छिंदिज्जा नारगाउयं ।
अनुचरिऊण पच्छित्तं बहवे दुग्गइं गए॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या प्रायश्चित्त करने से नरक का बँधा हुआ आयु छेदन हो जाए ? हे गौतम ! प्रायश्चित्त करके भी कईं आत्माए दुर्गति में गई है। | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 492 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं जइ एवं ता किं पंच-मंगलस्स णं उवहाणं कायव्वं
(२) गोयमा पढमं नाणं तओ दया, दयाए य सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं अत्तसम-दरिसित्तं
(३) सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं-अत्तसम-दंसणाओ य तेसिं चेव संघट्टण-परियावण-किलावणोद्दावणाइ-दुक्खु-पायण-भय-विवज्जणं,
(४) तओ अणासवो, अणासवाओ य संवुडासवदारत्तं, संवुडासव-दारत्तेणं च दमो पसमो
(५) तओ य सम-सत्तु-मित्त-पक्खया, सम-सत्तु-मित्त-पक्खयाए य अराग-दोसत्तं, तओ य अकोहया अमाणया अमायया अलोभया, अकोह-माण-माया-लोभयाए य अकसायत्तं
(६) तओ य सम्मत्तं, समत्ताओ य जीवाइ-पयत्थ-परिन्नाणं, तओ य सव्वत्थ-अपडिबद्धत्तं, सव्वत्थापडिबद्धत्तेण य अन्नाण-मोह-मिच्छत्तक्खयं
(७) Translated Sutra: हे भगवंत ! यदि ऐसा है तो क्या पंच मंगल के उपधान करने चाहिए ? हे गौतम ! प्रथम ज्ञान और उसके बाद दया यानि संयम यानि ज्ञान से चारित्र – दया पालन होता है। दया से सर्व जगत के सारे जीव – प्राणी – भूत – सत्त्व को अपनी तरह देखनेवाला होता है। जगत के सर्व जीव, प्राणी, भूत सत्त्व को अपनी तरह सुख – दुःख होता है, ऐसा देखनेवाला होने | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 494 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किमेयस्स अचिंत-चिंतामणि-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं गोयमा
(२) इयं एयस्स अचिंत-चिंतामणी-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स णं सुत्तत्थं-पन्नत्तं
(३) तं जहा–जे णं एस पंचमं-गल-महासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरो ववत्ती तिल-तेल-कमल-मयरंदव्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव,
(४) जहत्थ किरियाणुगय-सब्भूय-गुणुक्कित्तणे, जहिच्छिय-फल-पसाहगे चेव परम-थुइवाए (५) से य परमथुई केसिं कायव्वा सव्व-जगुत्तमाणं।
(६) सव्व-जगुत्तमुत्तमे य जे केई भूए, जे केई भविंसु, जे केई भविस्संति, ते सव्वे चेव अरहंतादओ चेव नो नमन्ने ति।
(७) ते य पंचहा १ अरहंते, २ सिद्धे, ३ आयरिए, Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या यह चिन्तामणी कल्पवृक्ष समान पंच मंगल महाश्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ को प्ररूपे हैं ? हे गौतम ! यह अचिंत्य चिंतामणी कल्पवृक्ष समान मनोवांछित पूर्ण करनेवाला पंचमंगल महा श्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ प्ररूपेल हैं। वो इस प्रकार – जिस कारण के लिए तल में तैल, कमल में मकरन्द, सर्वलोक में पंचास्तिकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 518 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एत्थं च गोयमा केई अमुनिय-समय-सब्भावे, ओसन्न-विहारी, नीयवासिणो, अदिट्ठ-परलोग-पच्चवाए, सयंमती, इड्ढि-रस-साय-गारवाइमुच्छिए, राग-दोस-मोहाहंकार-ममीकाराइसु पडिबद्धे,
(२) कसिण संजम-सद्धम्म-परम्मुहे, निद्दय-नित्तिंस-निग्घिण-अकुलण-निक्किवे, पावायर-णेक्क-अभिनिविट्ठ-बुद्धी, एगंतेणं अइचंड-रोद्द-कूराभिग्गहिय-मिच्छ-द्दिट्ठिणो,
(३) कय-सव्व-सावज्ज-जोग-पच्चक्खाणे, विप्पमुक्कासेस-संगारंभ परिग्गहे, तिविहं तिविहेणं पडिवन्न-सामाइए य दव्वत्ताए न भावत्ताए, नाम-मेत्तंमुडे, अनगारे महव्वयधारी समणे वि भवित्ता णं एवं मन्नमाने, सव्वहा उम्मग्गं पवत्तंति,
(४) जहा–किल अम्हे अरहं-ताणं Translated Sutra: हे गौतम ! यहाँ कुछ शास्त्र के परमार्थ को न समजनेवाले अवसन्न शिथिलविहारी, नित्यवासी, परलोक के नुकसान के बारे में न सोचनेवाले, अपनी मति के अनुसार व्यवहार करनेवाले, स्वच्छंद, ऋद्धि, रस, शाता – गारव आदि में आसक्त हुए, राग – द्वेष, मोह – अंधकार – ममत्त्व आदि में अति प्रतिबद्ध रागवाले, समग्र संयम समान सद्धर्म से पराङ्मुख, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 538 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तव-संजमेण बहु-भव-समज्जियं पाव-कम्म-मल-लेवं।
निद्धोविऊण अइरा अनंत-सोक्खं वए मोक्खं॥ Translated Sutra: इस प्रकार तपसंयम द्वारा कईं भव के उपार्जन किए पापकर्म के मल समान लेप को साफ करके अल्पकाल में अनंत सुखवाला मोक्ष पाता है। समग्र पृथ्वी पट्ट को जिनायतन से शोभायमान करनेवाले दानादिक चार तरह का सुन्दर धर्म सेवन करनेवाला श्रावक ज्यादा से ज्यादा अच्छी गति पाए तो भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं नीकल सकता। लेकिन अच्युत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 548 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नरएसु जाइं अइदूसहाइं दुक्खाइं परम-तिक्खाइं।
को वन्नेही ताइं जीवंतो वास-कोडिं पि । Translated Sutra: नरकगति के भीतर अति दुःसह ऐसे जो दुःख हैं उसे करोड़ साल जीनेवाला वर्णन शूरु करे तो भी पूर्ण न कर सके। इसलिए हे गौतम ! दस तरह का यतिधर्म घोर तप और संयम का अनुष्ठान आराधन वो रूप भावस्तव से ही अक्षय, मोक्ष, सुख पा सकते हैं। सूत्र – ५४८, ५४९ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 598 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा साहु-साहुणि-समणोवासग-सड्ढिगाऽसेसा-सन्न-साहम्मियजण-चउव्विहेणं पि समण-संघेणं नित्थारग-पारगो भवेज्जा धन्नो संपुन्न-सलक्खणो सि तुमं। ति उच्चारेमाणेणं गंध-मुट्ठीओ घेतव्वाओ।
(२) तओ जग-गुरूणं जिणिंदाणं पूएग-देसाओ गंधड्ढाऽमिलाण-सियमल्लदामं गहाय स-हत्थेणोभय-खं धेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा नीसंदेहमेवं भाणियव्वं, जहा।
(३) भो भो जम्मंतर-संचिय-गुरुय-पुन्न-पब्भार सुलद्ध-सुविढत्त-सुसहल-मनुयजम्मं देवानुप्पिया ठइयं च नरय-तिरिय-गइ-दारं तुज्झं ति।
(४) अबंधगो य अयस-अकित्ती-णीया-गोत्त-कम्म-विसेसाणं तुमं ति, भवंतर-गयस्सा वि उ न दुलहो तुज्झ पंच नमोक्कारो, ।
(५) भावि-जम्मंतरेसु Translated Sutra: और फिर साधु – साध्वी श्रावक – श्राविका समग्र नजदीकी साधर्मिक भाई, चार तरह के श्रमण संघ के विघ्न उपशान्त होते हैं और धर्मकार्य में सफलता पाते हैं। और फिर उस महानुभाव को ऐसा कहना कि वाकई तुम धन्य हो, पुण्यवंत हो, ऐसा बोलते – बोलते वासक्षेप मंत्र करके ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद जगद्गुरु जिनेन्द्र की आगे के स्थान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 621 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं कयरे ते दंसण-कुसीले गोयमा दंसण-कुसीले दुविहे नेए–आगमओ नो आगमओ य। तत्थ आगमो सम्मद्दंसणं,
१ संकंते, २ कंखंते, ३ विदुगुंछंते, ४ दिट्ठीमोहं गच्छंते अणोववूहए, ५ परिवडिय-धम्मसद्धे सामन्नमुज्झिउ-कामाणं अथिरीकरणेणं, ७ साहम्मियाणं अवच्छल्लत्तणेणं, ८ अप्पभावनाए एतेहिं अट्ठहिं पि थाणंतरेहिं कुसीले नेए। Translated Sutra: हे भगवंत ! दर्शनकुशील कितने प्रकार के होते हैं ? हे गौतम ! दर्शनकुशील दो प्रकार के हैं – एक आगम से और दूसरा नोआगम से। उसमें आगम से सम्यग्दर्शन में शक करे, अन्य मत की अभिलाषा करे, साधु – साध्वी के मैले वस्त्र और शरीर देखकर दुगंछा करे। घृणा करे, धर्म करने का फल मिलेगा या नहीं, सम्यक्त्व आदि गुणवंत की तारीफ न करना। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 625 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहा सरीर-कुसीले दुविहे चेट्ठा-कुसीले विभूसा-कुसीले य। तत्थ जे भिक्खू एयं किमि-कुल-निलयं सउण-साणाइ -भत्तं सडण-पडण-विद्धंसण-धम्मं असुइं असासयं असारं सरीरगं आहरादीहिं निच्चं चेट्ठेजा, नो णं इणमो भव-सय-सुलद्ध-णाण-दंसणाइ-समण्णिएणं सरीरेणं अच्चंत-घोर-वीरुग्ग-कट्ठ-घोर-तव-संजम-मनुट्ठेज्जा, से णं चेट्ठा कुसीले।
तहा जे णं विभूसा कुसीले से वि अनेगहा, तं जहा–तेलाब्भंगण-विमद्दण संबाहण-सिणानुव्वट्टण-परिहसण-तंबोल-धूवण-वासन-दसणुग्घसन-समालहण-पुप्फोमालण-केस-समारण -सोवाहण-दुवियड्ढगइ-भणिर-हसिर-उवविट्ठुट्ठिय-सन्निवन्नेक्खिय-विभूसावत्ति-सविगार-नियंस-नुत्तरीय-पाउ-रण-दंडग-गहणमाई Translated Sutra: और शरीर कुशील दो तरह के जानना, कुशील चेष्टा और विभूषा – कुशील, उसमें जो भिक्षु इस कृमि समूह के आवास समान, पंछी और श्वान के लिए भोजन समान। सड़ना, गिरना, नष्ट होना, ऐसे स्वभाववाला, अशुचि, अशाश्वत, असार ऐसे शरीर को हंमेशा आहारादिक से पोषे और वैसे शरीर की चेष्टा करे, लेकिन सेंकड़ों भव में दुर्लभ ऐसे ज्ञान – दर्शन आदि सहित | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 681 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं तेणं सुमइ जीवेणं तक्कालं समणत्तं अनुपालियं तहा वि एवंविहेहिं नारय तिरिय नरामर विचित्तोवाएहिं एवइयं संसाराहिंडणं गोयमा णं जमागम बाहाए लिंगग्गहणं कीरइ, तं डंभमेव केवलं सुदीह संसार हेऊभूयं। नो णं तं परियायं संजमे लिक्खइ, तेणेव य संजमं दुक्करं मन्ने।
अन्नं च समणत्ताए एसे य पढमे संजम पए जं कुसील संसग्गी णिरिहरणं अहा णं नो निरिहरे, ता संजममेव न ठाएज्जा, ता तेणं सुमइणा तमेवायरियं तमेव पसंसियं तमेव उस्सप्पियं तमेव सलाहियं तमेवाणुट्ठियं ति।
एयं च सुत्तमइक्कमित्ताणं एत्थं पए जहा सुमती तहा अन्नेसिमवि सुंदर विउर सुदंसण सेहरणीलभद्द सभोमे य खग्गधारी तेणग समण Translated Sutra: हे भगवंत ! उस सुमति के जीव ने उस समय श्रमणपन अंगीकार किया तो भी इस तरह के नारक तिर्यंच मानव असुरादिवाली गति में अलग – अलग भव में इतने काल तक संसार भ्रमण क्यों करना पड़ा ? हे गौतम ! जो आगम को बाधा पहुँचे उस तरह के लिंग वेश आदि ग्रहण किए जाए तो वो केवल दिखावा ही है और काफी लम्बे संसार का कारण समान वो माने जाते हैं। उसकी | |||||||||
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अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 683 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं सो उण णाइल सड्ढगो कहिं समुप्पन्नो गोयमा सिद्धीए।
से भयवं कहं गोयमा ते णं महानुभागेणं तेसिं कुसीलाणं संसग्गिं णितुट्ठेऊणं तीए चेव बहु सावय तरु संड संकुलाए घोर-कंताराडवीए सव्व पाव कलिमल कलंक विप्पमुक्कं तित्थयर वयणं परमहियं सुदुल्लहं भवसएसुं पि त्ति कलिऊणं अच्चंत विसुद्धासएणं फासुद्देसम्मि निप्पडिकम्मं निरइयारं पडिवन्नं पडिवन्नं पायवोगमणमणसणं ति।
अहन्नया तेणेव पएसेणं विहर-माणो समागओ तित्थयरो अरिट्ठनेमी। तस्स य अणुग्गहट्ठाए तेणे य अचलिय सत्तो भव्वसत्तो त्ति काऊणं उत्तिमट्ठ पसाहणी कया साइसया देसणा। तमायन्न-माणो सजल जलहर निनाय देव दुंदुही निग्घोसं Translated Sutra: हे भगवंत ! वो नागिल श्रावक कहाँ पैदा हुआ ? हे गौतम ! वो सिद्धिगति में गया। हे भगवंत ! किस तरह? हे गौतम ! महानुभाव नागिल ने उस कुशील साधु के पास से अलग होकर कईं श्रावक और पेड़ से व्याप्त घोर भयानक अटवी में सर्व पाप कलिमल के कलंक रहित चरम हितकारी सेंकड़ों भव में भी अति दुर्लभ तीर्थंकर भगवंत का वचन है ऐसा मानकर निर्जीव | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 773 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अइदुलहं भेसज्जं बल-बुद्धि-विवद्धणं पि पुट्ठिकरं।
अज्जा लद्धं भुज्जइ, का मेरा तत्थ गच्छम्मि॥ Translated Sutra: अति दुर्लभ बल – बुद्धि वृद्धि करनेवाले शरीर की पुष्टि करनेवाले औषध साध्वी ने पाए हो और साधु उसका इस्तमाल करे तो उस गच्छ में कैसे मर्यादा रहे ? शशक, भसक ही बहन सुकुमालिका की गति सुनकर श्रेयार्थी धार्मिक पुरुष को सहज भी (मोहनीयकर्म का) भरोसा मत करना। सूत्र – ७७३, ७७४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 788 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जत्थ य कम्मविवागस्स चेट्ठियं चउगईए जीवाणं।
नाऊण महवरद्धे वि नो पकुप्पंति तं गच्छं॥ Translated Sutra: जिसमें चार गति के जीव कर्म के विपाक भुगतते देखकर और पहचानकर मुनि अपराध करनेवाले पर भी क्रोधित न हो वो गच्छ। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 800 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं मेरा णं लंघेयव्व त्ति।
एयं गच्छ-ववत्थं लंघेत्तु ति-गारवेहिं पडिबद्धे।
संखाईए गणिणो अज्ज वि बोहिं न पाविंति॥ Translated Sutra: तीन गारव में आसक्त ऐसे कईं आचार्य गच्छ की व्यवस्था का उल्लंघन करके आज भी बोधि – सच्चा मार्ग नहीं पा सकते। दूसरे भी अनन्त बार चार गति रूप भव में और संसार में परिभ्रमण करेंगे लेकिन बोधि की प्राप्ति नहीं करेंगे। और लम्बे अरसे तक काफी दुःखपूर्ण संसार में रहेंगे। हे गौतम ! चौदराज प्रमाण लोक के बारे में बाल के अग्रभाग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 811 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं अट्ठण्हं साहूणमसइं उस्सग्गेण वा अववाएण वा चउहिं अनगारेहिं समं गमनागमनं नियंठियं तहा दसण्हं संजईणं हेट्ठा उसग्गेणं, चउण्हं तु अभावे अववाएणं हत्थ-सयाओ उद्धं गमनं नाणुण्णायं। आणं वा अइक्कमंते साहू वा साहूणीओ वा अनंत-संसारिए समक्खाए।
ता णं से दुप्पसहे अनगारे असहाए भवेज्जा। सा वि य विण्हुसिरी अनगारी असहाया चेव भवेज्जा। एवं तु ते कहं आराहगे भवेज्जा गोयमा णं दुस्समाए परियंते ते चउरो जुगप्पहाणे खाइग सम्मत्त नाण दंसण चारित्त समण्णिए भवेज्जा।
तत्थ णं जे से महायसे महानुभागे दुप्पसहे अनगारे से णं अच्चंत विसुद्ध सम्मद्दंसण नाण चारित्त गुणेहिं उववेए सुदिट्ठ Translated Sutra: हे भगवंत ! उत्सर्ग से आँठ साधु की कमी में या अपवाद से चार साधु के साथ (साध्वी का) गमनागमन निषेध किया है। और उत्सर्ग से दस संयति से कम और अपवाद से चार संयति की कमी में एक सौ हाथ से उपर जाने के लिए भगवंत ने निषेध किया है। तो फिर पाँचवें आरे के अन्तिम समय में अकेले सहाय बिना दुप्पसह अणगार होंगे और विष्णु श्री साध्वी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 812 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ–जहा णं तहा वि ते एयं गच्छववत्थं नो विलिंघिंसु गोयमा णं इओ आसन्नकाले णं चेव महायसे महासत्ते महानुभागे सेज्जंभवे नामं अनगारे महातवस्सी महामई दुवालसंगसुयधारी भवेज्जा।
से णं अपक्खवाएणं अप्पाउक्खे भव्वसत्ते सुयअतिसएणं विण्णाय एक्कारसण्हं अंगाणं चोद्दसण्हं पुव्वाणं परमसार णवणीय भूयं सुपउणं सुपद्धरुज्जयं सिद्धिमग्गं दसवेयालियं नाम सुयक्खंधं निऊहेज्जा।
से भयवं किं पडुच्च गोयमा मनगं पडुच्चा जहा कहं नाम एयस्स णं मनगस्स पारंपरिएणं थेवकालेणेव महंत घोर दुक्खागराओ चउगइ संसार सागराओ निप्फेडो भवतु।
भवदुगुंछेवण न विना सव्वन्नुवएसेणं, Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है, तो भी गच्छ व्यवस्था का उल्लंघन नहीं होगा। हे गौतम ! यहाँ नजदीकी काल में महायशवाले महासत्त्ववाले महानुभाग शय्यंभव नाम के महा तपस्वी महामतिवाले बारह अंग समान श्रुतज्ञान को धारण करनेवाले ऐसे अणगार होंगे वो पक्षपात रहित अल्प आयुवाले भव्य सत्त्व को ज्ञान के अतिशय के द्वारा | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 818 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नं च–जइ एते तव संजम किरियं अनुपालेहिंति, तओ एतेसिं चेव सेयं होहिइ, जइ न करेहिंति, तओ एएसिं चेव दुग्गइ-गमणमनुत्तरं हवेज्जा। नवरं तहा वि मम गच्छो समप्पिओ, गच्छाहिवई अहयं भणामि। अन्नं च–
जे तित्थयरेहिं भगवंतेहिं छत्तीसं आयरियगुणे समाइट्ठे तेसिं तु अहयं एक्कमवि नाइक्कमामि, जइ वि पाणोवरमं भवेज्जा। जं च आगमे इह परलोग विरुद्धं तं णायरामि, न कारयामि न कज्जमाणं समनुजाणामि। तामेरिसगुण जुत्तस्सावि जइ भणियं न करेंति ताहमिमेसिं वेसग्गहणा उद्दालेमि।
एवं च समए पन्नत्ती जहा–जे केई साहू वा साहूणी वा वायामेत्तेणा वि असंजममनुचिट्ठेज्जा से णं सारेज्जा से णं वारेज्जा, से Translated Sutra: दूसरा यह शिष्य शायद तप और संयम की क्रिया का आचरण करेंगे तो उससे उनका ही श्रेय होगा और यदि नहीं करेंगे तो उन्हें ही अनुत्तर दुर्गति गमन करना पड़ेगा। फिर भी मुझे गच्छ समर्पण हुआ है, मैं गच्छाधिपति हूँ, मुझे उनको सही रास्ता दिखाना चाहिए। और फिर दूसरी बात यह ध्यान में रखनी है कि – तीर्थंकर भगवंत ने आचार्य के छत्तीस | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 833 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केइ अमुणिय समय सब्भावे होत्था विहिए, इ वा अविहिए, इ वा कस्स य गच्छायारस्स य मंडलिधम्मस्स वा छत्तीसइविहस्स णं सप्पभेय नाण दंसण चरित्त तव वीरियायारस्स वा, मनसा वा, वायाए वा, कहिं चि अन्नयरे ठाणे केई गच्छाहिवई आयरिए, इ वा अंतो विसुद्ध, परिणामे वि होत्था णं असई चुक्केज्ज वा, खलेज्ज वा, परूवेमाणे वा अणुट्ठे-माणे वा, से णं आराहगे उयाहु अनाराहगे गोयमा अनाराहगे।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अनाराहगे गोयमा णं इमे दुवालसंगे सुयनाणे अणप्पवसिए अनाइ निहणे सब्भूयत्थ पसाहगे अनाइ संसिद्धे से णं देविंद वंद वंदाणं अतुल बल वीरिएसरिय सत्त परक्कम महापुरिसायार Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले हो, वह विधि से या अविधि से किसी गच्छ के आचार या मंड़ली धर्म के मूल या छत्तीस तरह के भेदवाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के आचार को मन से वचन से या काया से किसी भी तरह कोई भी आचार स्थान में किसी गच्छाधिपति या आचार्य के जितने अंतःकरण में विशुद्ध परिणाम होने के | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 844 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ताहे पुणो वि तेहिं भणियं जहा किमेयाइं अरड-बरडाइं असंबद्धाइं दुब्भासियाइं पलवह जइ पारिहारगं णं दाउं सक्के ता उप्फिड, मुयसु आसणं, ऊसर सिग्घं, इमाओ ठाणाओ। किं देवस्स रूसेज्जा। जत्थ तुमं पि पमाणीकाऊणं सव्व संघेणं समय सब्भावं वायरेउं जे समाइट्ठो।
तओ पुणो वि सुइरं परितप्पिऊणं गोयमा अन्नं पारिहारगं अलभमाणेणं अंगीकाऊण दीहं संसारं भणियं च सावज्जायरिएणं जहा णं उस्सग्गाववाएहिं आगमो ठिओ तुब्भे न याणहेयं। एगंतो मिच्छत्तं, जिणाणमाणा मणेगंता।
एयं च वयणं गोयमा गिम्हायव संताविएहिं सिहिउलेहिं च अहिणव पाउस सजल घणोरल्लिमिव सबहुमाणं समाइच्छियं तेहिं दुट्ठ-सोयारेहिं।
तओ Translated Sutra: तब भी उस दुराचारी ने कहा कि तुम ऐसे आड़े – टेढ़े रिश्ते के बिना दुर्भाषित वचन का प्रलाप क्यों करते हो? यदि उचित समाधान देने के लिए शक्तिमान न हो तो खड़े हो जाव, आसन छोड़ दे यहाँ से जल्द आसन छोड़कर नीकल जाए। जहाँ तुमको प्रमाणभूत मानकर सर्व संघ ने तुमको शास्त्र का सद्भाव कहने के लिए फरमान किया है। अब देव के उपर क्या दोष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 890 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाव गुरुणो न रयहरणं, पव्वज्जा य न अल्लिया।
तावाकज्जं न कायव्वं, लिंगमवि जिन-देसियं॥ Translated Sutra: जैसे कि जब तक गुरु को रजोहरण और प्रव्रज्या वापस अर्पण न की जाए तब तक चारित्र के खिलाफ किसी भी अपकार्य का आचरण न करना चाहिए। जिनेश्वर के उपदेशीत यह वेश – रजोहरण गुरु को छोड़कर दूसरे स्थान पर न छोड़ना चाहिए। अंजलिपूर्वक गुरु को रजोहरण अर्पण करना चाहिए। यदि गुरु महाराज समर्थ हो और उसे समझा सके तो समझाकर सही मार्ग |