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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१ आहार | Hindi | 328 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वदासी–जीवे णं भंते! कं समयमणाहारए भवइ?
गोयमा! पढमे समए सिय आहारए सिय अनाहारए, बितिए समए सिय आहारए सिय अनाहारए, ततिए समए सिय आहारए सिय अनाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए। एवं दंडओ–जीवा य एगिंदिया य चउत्थे समए, सेसा ततिए समए।
जीवे णं भंते! कं समयं सव्वप्पाहारए भवति?
गोयमा! पढमसमयोववन्नए वा चरिमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवति। दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं। Translated Sutra: उस काल और उस समय में, यावत् गौतमस्वामी ने पूछा – भगवन् ! (परभव में जाता हुआ) जीव किस समय में अनाहारक होता है ? गौतम ! (परभव में जाता हुआ) जीव, प्रथम समय में कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है; द्वीतिय समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, तृतीय समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१ आहार | Hindi | 337 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! खेत्तातिक्कंतस्स, कालातिक्कंतस्स, मग्गातिक्कंतस्स, पमाणातिक्कंतस्स पान-भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
गोयमा! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहेत्ता उग्गए सूरिए आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! खेत्तातिक्कंते पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असनं-पान-खाइम-साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्ता आहारमाहारेइ एस णं गोयमा! कालातिक्कंते पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहारमाहारेइ, Translated Sutra: भगवन् ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान – भोजन का क्या अर्थ है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय अशन – पान – खादिम – स्वादिमरूप चतुर्विध आहार को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं, तो हे गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-२ विरति | Hindi | 339 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! सव्वपाणेहिं, सव्वभूएहिं, सव्वजीवेहिं, सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवति? दुपच्चक्खायं भवति?
गोयमा! सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं भवति, सिय दुपच्चक्खायं भवति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं भवति सिय दुपच्चक्खायं भवति?
गोयमा! जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स नो एवं अभिसमन्नागयं भवति– इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स Translated Sutra: हे भगवन् ! ‘मैंने सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सभी तत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है’, इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है या दुष्प्रत्याख्यान होता है ? गौतम ! ‘मैंने सभी प्राण यावत् सभी तत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है’, ऐसा कहने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है कदाचित् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-३ स्थावर | Hindi | 345 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वणस्सइक्काइया णं भंते! कं कालं सव्वप्पाहारगा वा, सव्वमहाहारगा वा भवंति?
गोयमा! पाउस-वरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सइकाइया सव्वमहाहारगा भवंति, तदानंतरं च णं सरदे, तदानंतरं च णं हेमंते, तदानंतरं च णं वसंते, तदानंतरं च णं गिम्हे। गिम्हासु णं वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा भवंति।
जइ णं भंते! गिम्हासु वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा भवंति, कम्हा णं भंते! गिम्हासु बहवे वणस्सइ-काइया पत्तिया, पुप्फिया, फलिया, हरियगरेरिज्जमाणा, सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठंति?
गोयमा! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य, पोग्गला य वणस्सइकाइयत्ताए वक्कमंति, चयंति, उववज्जंति। एवं खलु Translated Sutra: भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव किस काल में सर्वाल्पाहारी होते और किस काल में सर्वमहाहारी होते हैं ? गौतम ! प्रावृट् – ऋतु (श्रावण और भाद्रपद मास) में तथा वर्षाऋतु (आश्विन और कार्तिक मास) में वनस्पतिकायिक जीव सर्वमहाहारी होते हैं। इसके पश्चात् शरदऋतु में, तदनन्तर हेमन्तऋतु में इसके बाद वसन्तऋतु में और तत्पश्चात् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 359 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्सम-दुस्समाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ?
गोयमा! कालो भविस्सइ हाहाभूए, भंभब्भूए कोलाहलभूए। समानुभावेण य णं खर-फरुस-धूलिमइला दुव्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाहिंति। इह अभिक्खं धूमाहिंति य दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुस-तमपडल-निरालोगा। समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति। अहियं सूरिया तवइस्संति।
अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा विरसमेहा खार-मेहा खत्तमेहा अग्गिमेहा विज्जुमेहा विसमेहा असणिमेहा–अपिवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणोदीरणा-परिणामसलिला, अमणुन्नपा-णियगा Translated Sutra: भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल का दुःषमदुःषम नामक छठा आरा जब अत्यन्त उत्कट अवस्था को प्राप्त होगा, तब भारतवर्ष का आकारभाव – प्रत्यवतार कैसा होगा ? गौतम ! वह काल हाहाभूत, भंभाभूत (दुःखार्त्त) तथा कोलाहलभूत होगा। काल के प्रभाव से अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, असह्य, व्याकुल, भयंकर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 360 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मनुयाणं केरिसए आगारभाव-पडोयारे भविस्सइ?
गोयमा! मनुया भविस्संति दुरूवा दुवण्णा दुग्गंधा दुरसा दुफासा अनिट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणुन्ना अमणामा हीनस्सरा दीनस्सरा अणिट्ठस्सरा अकंतस्सरा अप्पियस्सरा असुभस्सरा अमणुन्नस्सरा अमणामस्सरा अनादेज्जवयणपच्चायाया, निल्लज्जा, कूड-कवड-कलह-वह-बंध-वेरनिरया, मज्जायातिक्कमप्पहाणा, अकज्जनिच्चुज्जता, गुरुनियोग-विनयरहिया य, विकल-रूवा, परूढनह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस-ज्झामवण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलियकेसा, बहुण्हारु- संपिणद्ध-दुद्दंसणिज्जरूवा, संकुडितवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणतव्व थेरगनरा, Translated Sutra: भगवन् ! उस समय भारतवर्ष की भूमि का आकार और भावों का आविर्भाव किस प्रकार का होगा ? गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र की भूमि अंगारभूत, मुर्मूरभूत, भस्मीभूत, तपे हुए लोहे के कड़ाह के समान, तप्तप्राय अग्नि के समान, बहुत धूल वाली, बहुत रज वाली, बहुत कीचड़ वाली, बहुत शैवाल वाली, चलने जितने बहुत कीचड़ वाली होगी, जिस पर पृथ्वीस्थित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-८ छद्मस्थ | Hindi | 365 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] छउमत्थे णं भंते! मनूसे तीयमनंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेनं, केवलाहिं पवयणमायाहिं सिज्झिंसु? बुज्झिंसु? मुच्चिंसु? परिनिव्वाइंसु? सव्व-दुक्खाणं अंतं करिंसु?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे जाव–
से नूनं भंते! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया। Translated Sutra: भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, अनन्त और शाश्वत अतीतकाल में केवल संयम द्वारा, केवल संवर द्वारा, केवल ब्रह्मचर्य से तथा केवल अष्टप्रवचनमाताओं के पालन से सिद्ध हुआ है, यावत् उसने सर्व दुःखों का अन्त किया है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस विषय में प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वह, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 371 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे।
असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
हंता पभू।
से णं भंते! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ?
गोयमा! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ।
एवं २ एगवण्णं अनेगरूवं ३. अनेगवण्णं एगरूवं ४. अनेगवण्णं अनेगरूवं–चउभंगो।
असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता Translated Sutra: भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले, एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ हैं। भगवन् ! वह असंवृत अनगार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 372 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विन्नाणमेयं अरहया–महासिलाकंटए संगामे। महासिलाकंटए णं भंते! संगामे वट्टमाणे के जइत्था? के पराजइत्था?
गोयमा! वज्जी, विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई, नव लेच्छई–कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो पराजइत्था।
तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटगं संगामं उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिमे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी –खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! उदाइं हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेनं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया Translated Sutra: अर्हन्त भगवान ने यह जाना है, अर्हन्त भगवान ने यह सूना है – तथा अर्हन्त भगवान को यह विशेष रूप से ज्ञात है कि महाशिलाकण्टक संग्राम महाशिलाकण्टक संग्राम ही है। (अतः) भगवन् ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम चल रहा था, तब उसमें कौन जीता और कौन हारा ? गौतम ! वज्जी विदेहपुत्र कूणिक राजा जीते, नौ मल्लकी और नौ लेच्छकी, जो कि काश | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 373 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नायमेयं अरहया, सुवमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया–रहमुसले संगामे। रहमुसले णं भंते! संगामे वट्टमाणे के जइत्था? के पराजइत्था?
गोयमा! वज्जी, विदेहपुत्ते, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था; नव मल्लई, नव लेच्छई पराजइत्था।
तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी– खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! भूयानंदं हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-पवरजोह-कलियं चाउरंगिणिं सेनं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया जाव Translated Sutra: भगवन् ! अर्हन्त भगवान ने जाना है, इसे प्रत्यक्ष किया है और विशेषरूप से जाना है कि यह रथमूसल – संग्राम है। भगवन् ! यह रथमूसलसंग्राम जब हो रहा था तब कौन जीता, कौन हारा ? हे गौतम ! वज्री – इन्द्र और विदेहपुत्र (कूणिक) एवं असुरेन्द्र असुरराज चमर जीते और नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी राजा हार गए। तदनन्तर रथमूसल – संग्राम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 375 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजणे णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ– एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ–एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु सु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु सु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: भगवन् ! बहुत – से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि – अनेक प्रकार के छोटे – बड़े संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए आहत हुए एवं घायल हुए बहुत – से मनुष्य मृत्यु के समय मरकर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? गौतम ! बहुत – से मनुष्य, जो इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 376 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वरुणे णं भंते! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! सोहम्मे कप्पे, अरुणाभे विमाने देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता तत्थ णं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता।
से णं भंते! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिति।
वरुणस्स णं भंते! नागनत्तुयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! सुकुले Translated Sutra: भगवन् ! वरुण नागनप्तृक कालधर्म पाकर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? गौतम ! वह सौधर्मकल्प में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। उस देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। अतः वहाँ वरुण – देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है। भगवन् ! वह वरुण देव उस देवलोक से आयु – क्षय होने पर, भव – क्षय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 377 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थि रहते थे, यथा – कालोदयी, शैलोदाई शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 378 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे, गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगया।
तए णं से कालोदाई अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
अत्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
कालोदाई! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं Translated Sutra: किसी समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा। यावत् परीषद् धर्मोपदेश सूनकर लौट गई। तदनन्तर अन्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 379 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं अगनिकायं समारंभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगनिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे अगनिकायं निव्वावेइ।
एएसि णं भंते! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव? महाकिरियतराए चेव? महासवतराए चेव? महावेयणतराए चेव? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव? अप्पकिरियतराए चेव? अप्पासवतराए चेव? अप्पवेयणतराए चेव? जे वा से पुरिसे अगनिकायं उज्जालेइ, जे वा से पुरिसे अगनिकायं निव्वावेइ?
कालोदाई! तत्थ णं जे से पुरिसे अगनिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव।
तत्थ Translated Sutra: भगवन् ! (मान लीजिए) समान उम्र के यावत् समान ही भाण्ड, पात्र और उपकरण वाले दो पुरुष एक – दूसरे के साथ अग्निकाय का समारम्भ करें, उनमें से एक पुरुष अग्निकाय को जलाए और एक पुरुष अग्निकाय को बुझाए, तो हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में से कौन – सा पुरुष महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महा – आस्रव वाला और महावेदना वाला है | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 380 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति?
हंता अत्थि।
कयरे णं भंते! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति?
कालोदाई! कुद्धस्स अनगारस्स तेयलेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं-जहिं च णं सा निपतति तहिं-तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति। एतेणं कालोदाई! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति।
तए णं से कालोदाई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं, मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं Translated Sutra: भगवन् ! क्या अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते हैं, वे वस्तुओं को उद्योतित करते हैं, तपाते हैं और प्रकाश करते हैं ? हाँ, कालोदायी ! अचित्त पुद्गल भी यावत् प्रकाश करते हैं। भगवन् ! अचित्त होते हुए भी कौन – से पुद्गल अवभासित होते हैं, यावत् प्रकाश करते हैं ? कालोदायी ! क्रुद्ध अनगार की नीकली हुई तेजोलेश्या दूर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 383 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–एगिंदियपयोगपरिणया, बेइंदियपयोगपरिणया, तेइंदिय-पयोग-परिणया, चउरिंदियपयोगपरिणया, पंचिंदियपयोगपरिणया।
एगिंदियपयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–पुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, आउकाइयएगिंदिय-पयोगपरिणया, तेउकाइय-एगिंदियपयोगपरिणया, वाउकाइय-एगिंदियपयोगपरिणया, वणस्सइ-काइय-एगिंदियपयोगपरिणया।
पुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– सुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, बादरपुढवि-काइयएगिंदियपयोगपरिणया Translated Sutra: भगवन् ! प्रयोग – परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के कहे गए हैं, एकेन्द्रिय – प्रयोग – परिणत यावत्, त्रीन्द्रिय – प्रयोग – परिणत, चतुरिन्द्रिय – प्रयोग – परिणत, पंचेन्द्रिय – प्रयोग – परिणत पुद्गल। भगवन् ! एकेन्द्रिय – प्रयोग – परिणत पुद्गल कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 385 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वीससापरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिणया,
संठाणपरिणया।
जे वण्णपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा– कालवण्णपरिणया जाव सुक्किल-वण्णपरिणया।
जे गंधपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सुब्भिगंधपरिणया, दुब्भिगंधपरिणया।
जे रसपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–तित्तरसपरिणया जाव महुररसपरिणया।
जे फासपरिणया ते अट्ठविहा पन्नत्ता, तं जहा–कक्खडफासपरिणया जाव लुक्खफास-
परिणया।
जे संठाणपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–परिमंडलसंठाणपरिणया जाव आयतसंठाण
परिणया।
जे वण्णओ कालवण्णपरिणया ते Translated Sutra: भगवन् ! विस्रसा – परिणत पुद्गल कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – वर्णपरिणत, गन्धपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत और संस्थानपरिणत। जो पुद्गल वर्णपरिणत हैं, वे पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा – कृष्णवर्ण के रूप में परिणत यावत् शुक्ल वर्ण के रूप में परिणत पुद्गल। जो गन्ध – परिणत – पुद्गल हैं, वे दो प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-१ पुदगल | Hindi | 386 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! दव्वे किं पयोगपरिणए? मीसापरिणए? वीससापरिणए?
गोयमा! पयोगपरिणए वा, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा।
जइ पयोगपरिणए किं मनपयोगपरिणए? वइपयोगपरिणए? कायपयोगपरिणए?
गोयमा! मनपयोगपरिणए वा, वइपयोगपरिणए वा, कायपयोगपरिणए वा।
जइ मनपयोगपरिणए किं सच्चमनपयोगपरिणए? मोसमनपयोगपरिणए? सच्चामोसमन-पयोग-परिणए? असच्चामोसमनपयोगपरिणए?
गोयमा! सच्चमनपयोगपरिणए वा, मोसमनपयोगपरिणए वा, सच्चामोसमनपयोगपरिणए वा, असच्चामोसमनपयोगपरिणए वा।
जइ सच्चमनपयोगपरिणए किं आरंभसच्चमनपयोगपरिणए? अनारंभसच्चमनपयोग-परिणए? सारंभसच्चमनपयोगपरिणए? असारंभसच्चमनपयोगपरिणए? समारंभसच्चमनपयोग-परिणए? असमारंभसच्चमनपयोगपरिणए?
गोयमा! Translated Sutra: गौतम ! एक द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत होता है, मिश्रपरिणत होता है अथवा विस्रसापरिणत होता है ? गौतम ! एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है, अथवा मिश्रपरिणत होता है, अथवा विस्रसापरिणत भी होता है। भगवन् ! यदि एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है तो क्या वह मनःप्रयोगपरिणत होता है, वचन – प्रयोग परिणत होता है, अथवा काय – प्रयोग – परिणत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 395 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आभिनिबोहियनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते?
गोयमा! से समासओ चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ।
दव्वओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वदव्वाइं जाणइ-पासइ।
खेत्तओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वं खेत्तं जाणइ-पासइ।
कालओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वं कालं जाणइ-पासइ।
भावओ णं आभिनिबोहियनाणी आएसेनं सव्वे भावे जाणइ-पासइ।
सुयनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते?
गोयमा! से समासओ चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ।
दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ-पासइ।
खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वखेत्तं जाणइ-पासइ।
कालओ णं सुयनाणी उवउत्ते Translated Sutra: भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान का विषय कितना व्यापक है ? गौतम ! संक्षेप में चार प्रकार का है। यथा – द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य से आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश (सामान्य) से सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है, क्षेत्र से सामान्य से सभी क्षेत्र को जानता और देखता है, इसी प्रकार काल से भी और भाव से भी जानना। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 396 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणी णं भंते! नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! नाणी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–१. सादीए वा अपज्जवसिए २. सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जे से सादीए सप-ज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठिं सागरोवमाइं सातिरेगाइं।
आभिनिबोहियनाणी णं भंते! आभिनिबोहिय नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! एवं चेव।
एवं सुयनाणी वि।
ओहिनाणी वि एवं चेव, नवरं–जहन्नेणं एक्कं समयं।
मनपज्जवनाणी णं भंते! मनपज्जवनाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
केवलनाणी णं भंते! केवलनाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! सादीए अपज्जवसिए।
अन्नाणी, मइअन्नाणी, Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानी ’ज्ञानी’ के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं। – सादि – अपर्यवसित और सादि – सपर्यवसित। इनमें से जो सादि – सपर्यवसित ज्ञानी हैं, वे जघन्यतः अन्तमुहूर्त्त तक और उत्कृष्टतः कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक ज्ञानीरूप में रहते हैं। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबो – धिकज्ञानी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 402 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ?
हंता भवइ।
से केणं खाइ णं अट्ठेणं भंते एवं वुच्चइ–जायं चरइ? नो अजायं चरइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–नो मे माता, नो मे पिता, नो मे भाया, नो मे भगिनी, नो मे भज्जा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो मे सुण्हा; पेज्जबंधने पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जायं चरइ, नो अजायं चरइ।
समणोवासगस्स णं भंते! पुव्वामेव थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ?
गोयमा! तीयं पडिक्कमति, पडुप्पन्नं संवरेति, अनागयं पच्चक्खाति।
तीयं पडिक्कममाणे किं १. तिविहं तिविहेणं Translated Sutra: भगवन् ! उन शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार किये हुए श्रावक का वह अपहृत भाण्ड उसके लिए तो अभाण्ड हो जाता है ? हाँ, गौतम ! वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाता है। भगवन् ! तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का नहीं ? गौतम ! सामायिक आदि करने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 403 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आजीवियसमयस्स णं अयमट्ठे–अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता; से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुंपित्ता, विलुंपित्ता, उद्दवइत्ता आहारमाहारेंति।
तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तं जहा–१. ताले २. तालपलंबे ३. उव्विहे ४. संविहे ५. अवविहे ६. उदए ७. नामुदए ८. णम्मुदए ९. अणुवालए १. संखवालए ११. अयंपुले १२. कायरए – इच्चेते दुवालस आजीविओवासगा अरहंतदेवतागा, अम्मापिउसुस्सूसगा, पंचफल-पडिक्कंता, तं जहा–उंबरेहिं, वडेहिं, बोरेहिं, सतरेहिं, पिलक्खूहिं पलंडु-ल्हसुणकंदमूलविवज्जगा, अनिल्लंछिएहिं अनक्कभिन्नेहिं गोणेहि तसपाणविवज्जिएहिं छेत्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति।
एए वि ताव एवं Translated Sutra: आजीविक के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी होते हैं। इसलिए वे हनन करके, काटकर, भेदन करके, कतर कर, उतार कर और विनष्ट करके खाते हैं। ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं – ताल, तालप्रलम्ब, उद्विध, संविध, अवविध, उदय, नामोदय, नर्मोदय, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-६ प्रासुक आहारादि | Hindi | 407 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्ठेणं अन्नयरेसु अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति– इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि, पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, अकरणयाए अब्भुट्ठेमि, अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि।
१. से य संपट्ठिए असंपत्ते, थेरा य पुव्वामेव अमुहा सिया। से णं भंते! किं आराहए? विराहए?
गोयमा! आराहए, नो विराहए।
२. से य संपट्ठिए असंपत्ते, अप्पणा य पुव्वामेव अमुहे सिया। से णं भंते! किं आराहए? विराहए?
गोयमा! आराहए, नो विराहए।
३. से य संपट्ठिए असंपत्ते, थेरा य Translated Sutra: गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्हा करूँ; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करूँ, इस (पाप – दोष से) विशुद्ध बनूँ, पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-७ अदत्तादान | Hindi | 410 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे–वण्णओ, गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढवि-सिलावट्टओ। तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना विनयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चारित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघव-संपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जिइंदिया जियपरीसहा जीवियासमरणभयविप्पमुक्का समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। वहाँ गुणशीलक चैत्य था। यावत् पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के आसपास बहुत – से अन्यतीर्थिक रहते थे। उस काल और उस समय धर्मतीर्थ की आदि करने वाले श्रमण भगवान महावीर यावत् समवसृत हुए यावत् धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापिस चली गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-८ प्रत्यनीक | Hindi | 421 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति? अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति?
हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि, मज्झंतियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं?
हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण मुहुत्तंसि, मज्झंतियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समाउच्चत्तेणं।
जइ णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप में क्या दो सूर्य, उदय और अस्त के मुहूर्त्त में दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, मध्याह्न के मुहूर्त्तमें निकट में होते हुए दूर दिखाई देते हैं? हाँ, गौतम ! जम्बूद्वीपमें दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, इत्यादि। भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय में, मध्याह्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आराधना | Hindi | 432 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते, तं जहा–वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे।
वण्णपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–कालवण्णपरिणामे जाव सुक्किलवण्णपरिणामे। एवं एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामे पंचविहे, फासपरिणामे अट्ठविहे।
संठाणपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव आयतसंठाणपरिणामे। Translated Sutra: भगवन् ! पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का – वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाभ, रसपरिणाम, स्पर्शपरिणाम और संस्थानपरिणाम। भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का – कृष्ण वर्णपरिणाम यावत् शुक्ल वर्णपरिणाम। इसी प्रकार गन्धपरिणाम दो प्रकार का, रसपरिणाम पांच प्रकार का और स्पर्शपरिणाम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-१ जंबुद्वीप | Hindi | 439 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला नामं नगरी होत्था–वण्णओ। माणिभद्दे चेतिए–वण्णओ। सामी समोसढे, परिसा निग्गता जाव भगवं गोयमे पज्जुवासमाणे एवं वदासी–कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे! किंसंठिए णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे?
एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणियव्वा जाव एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस सलिला-सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवंतीति मक्खाया।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: उस काल और उस समय में मिथिला नगरी थी। वहाँ माणिभद्र चैत्य था। महावीर स्वामी का समवसरण हुआ। परिषद् निकली। (भगवान् ने) – धर्मोपदेश दिया, यावत् भगवान् गौतम ने पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछा – भगवन् ! जम्बूद्वीप कहाँ है ? (उसका) संस्थान किस प्रकार है ? गौतम ! इस विषय में जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्ति में कहे अनुसार – जम्बूद्वीप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३२ गांगेय | Hindi | 458 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति निरंतरं नेरइया उववज्जंति संतरं असुरकुमारा उववज्जंति निरंतरं असुरकुमारा उव-वज्जंति जाव संतरं वेमाणिया उववज्जंति निरंतरं वेमाणिया उववज्जंति?
संतरं नेरइया उव्वट्टंति निरंतरं नेरइया उव्वट्टंति जाव संतरं वाणमंतरा उव्वट्टंति निरंतरं वाणमंतरा उव्वट्टंति? संतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइसिया चयंति संतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति?
गंगेया! संतरं पि नेरइया उववज्जंति निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति जाव संतरं पि थणियकुमारा उववज्जंति निरंतरं पि थणि-यकुमारा उववज्जंति, नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जंति निरंतरं पुढविक्काइया Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते है या निरन्तर उत्पन्न होते है ? असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते है अथवा निरन्तर ? यावत् वैमानिक देव सान्तर उत्पन्न होते है या निरन्तर उत्पन्न होते है ? (इसी तरह) नैरयिक का उद्वर्तन सान्तर होता है अथवा निरन्तर ? यावत् वाणव्यन्तर देवो का उद्वर्त्तन सान्तर होता है या निरन्तर ? ज्योतिष्क | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३२ गांगेय | Hindi | 459 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तप्पभितिं च णं से गंगेये अनगारे समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणइ सव्वण्णुं सव्वदरिसिं। तए णं से गंगेये अनगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं से गंगेये अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमह-व्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरति।
तए णं से गंगेये अनगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता Translated Sutra: तब से गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचाना। गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया। उसके बाद कहा – भगवन् ! मैं आपके पास चातुर्यामरूप धर्म के बदले पंचमहाव्रतरूप धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं। इस प्रकार सारा वर्णन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 460 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था–वण्णओ। बहुसालए चेइए–वण्णओ। तत्थ णं माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्ते नामं माहणे परिवसइ–अड्ढे दित्ते वित्ते जाव वहुजणस्स अपरिभूए रिव्वेद-जजुव्वेद-सामवेद-अथव्वणवेद-इतिहासपंचमाणं निघंटुछट्ठाणं–चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए धारए पारए सडंगवी सट्ठितंतविसारए, संखाणे सिक्खा कप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोतिसामयणे, अन्नेसु य बहूसु बंभण्णएसु नयेसु सुपरिनिट्ठिए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवानंदा नामं Translated Sutra: उस काल और समय में ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर था। वहाँ बहुशाल नामक चैत्य था। उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर में ऋषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। वह आढ्य, दीप्त, प्रसिद्ध, यावत् अपरिभूत था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद में निपुण था। स्कन्दक तपास की तरह वह भी ब्राह्मणों के अन्य बहुत से नयों में निष्णात | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 463 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पच्चत्थिमे णं एत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। तत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमाली नामं खत्तियकुमारे परिवसइ–अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूते, उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं णाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवनच्चिज्जमाणे-उवनच्चिज्जमाणे, उवगिज्जमाणे-उवगिज्जमाणे, उव-लालिज्जमाणे-उवलालिज्जमाणे, पाउस-वासारत्त-सरद-हेमंत-वसंत-गिम्ह-पज्जंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं माणेमाणे, कालं गाले-माणे, इट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरइ।
तए णं खत्तियकुण्डग्गामे Translated Sutra: उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर से पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था। (वर्णन) उस क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में जमालि नाम का क्षत्रियकुमार रहता था। वह आढ्य, दीप्त यावत् अपरिभूत था। वह जिसमें मृदंग वाद्य की स्पष्ट ध्वनि हो रही थी, बत्तीस प्रकार के नाटको के अभिनय और नृत्य हो रहे थे, अनेक प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 464 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महयाभडचडगर पहकरवंदपरिक्खित्ते, जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं Translated Sutra: श्रमण भगवान् महावीर के पास से धमृ सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् वन्दन – नमन किया और कहा – ‘‘भगवन् ! मैं र्निग्रन्थ – प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ – प्रवचन पर प्रतीत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 465 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! खत्तियकुंडग्गामं नयरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-सम्मज्जिओवलित्तं जहा ओववाइए जाव सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तहेव पच्चप्पिणंति।
तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्घ महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव उवट्ठवेंति।
तए Translated Sutra: तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – शीघ्र ही क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के अन्दर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़ कर जमीन की सफाई करके उसे लिपाओ, इत्यादि औपपातिक सूत्र अनुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा वापस सौंपी। क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने दुबारा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 466 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए।
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स एयमट्ठं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ।
तए णं से जमाली अनगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए।
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स दोच्चं पि, तच्चं Translated Sutra: तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना – नमस्कार करके इस प्रकार बोले – भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर विहार करना चाहता हूँ। यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात को आदर नहीं दिया, न स्वीकार किया। वे मौन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 467 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के हट्ठे जाए, अरोए वलियसरीरे साव-त्थीओ नयरीओ कोट्ठगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वानुपुव्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी–जहा णं देवानुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं अव-क्कंता, नो खलु अहं तहा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंते, अहं णं उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कंते।
तए Translated Sutra: तदन्तर किसी समय जमालि – अनगार उक रोगातंक से मुक्त और हृष्ट हो गया तथा नीरोग और बलवान् शीर वाला हुआ; तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामनुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उनके पास आया। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 468 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं भगवं गोयमे जमालिं अनगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी– एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासि कुसिस्से जमाली नामं अनगारे से णं भंते! जमाली अनगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी– एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नामं अनगारे, से णं तदा ममं एवमाइक्खमाणस्स एवं भासमाणस्स एवं पण्णवेमाणस्स एवं परूवेमाणस्स एतमट्ठं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एतमट्ठं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे, दोच्चं पि ममं Translated Sutra: जमालि अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और वन्दना नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! यह निश्चित है कि जमालि अनगार आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य था भगवन् ! वह जमालि अनगार काल के समय काल करके कहाँ उत्पन्न हुआ है ? श्रमण भगवानम् महावीर ने भगवान् गौतमस्वामी से कहा – गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 469 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: कतिविहा णं भंते! देवकिव्विसिया पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा देवकिव्विसिया पन्नत्ता, तं जहा–तिपलिओवमट्ठिइया, तिसागरोवमट्ठिइया, तेरससागरोवमट्ठिइया।
कहिं णं भंते! तिपलिओवमट्ठिइया देवकिव्विसिया परिवसंति?
गोयमा! उप्पिं जोइसियाणं, हिट्ठिं सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिपलिओवमट्ठिइया देव-किव्विसिया परिवसंति।
कहिं णं भंते! तिसागरोवमट्ठिइया देवकिव्विसिया परिवसंति?
गोयमा! उप्पिं सोहम्मीसानाणं कप्पाणं, हिट्ठिं सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिसागरोवमट्ठिइया देवकिव्विसिया परिवसंति।
कहिं णं भंते! तेरससागरोवमट्ठिइया देवकिव्विसिया परिवसंति?
गोयमा! उप्पिं बंभलोगस्स Translated Sutra: भगवन् ! किल्विषिक देव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! तीन प्रकार के – तीन पल्योपम की स्थिति वाले, तीन सागरोपम की स्थिति वाले और तेरह सागरोपम की स्थिति वाले ! भगवन् ! तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? गौतम ! ज्योतिष्क देवों के ऊपर और सौधर्म – ईशान कल्पों के नीचे तीन पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३४ पुरुषघातक | Hindi | 471 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी–पुरिसे णं भंते! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ? नोपुरिसे हणइ?
गोयमा! पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि, से णं एगं पुरिसं हणमाणे अनेगे जीवे हणइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ।
पुरिसे णं भंते! आसं हणमाणे किं आसं हणइ? नोआसे हणइ?
गोयमा! आसं पि हणइ, नोआसे वि हणइ। से केणट्ठेणं?
अट्ठो तहेव। एवं हत्थि, सीहं, वग्घं जाव चिल्ललगं।
पुरिसे णं भंते! इसिं हणमाणे किं इसिं हणइ? नोइसिं हणइ?
गोयमा! इसिं पि हणइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। वहाँ भगवान् गौतम ने यावत् भगवान् से पूछा – भगवन् ! कोई पुरुष पुरुष की घात करता हुआ क्या पुरुष की ही घात करता है अथवा नोपुरुष की भी घात करता है ? गौतम ! वह पुरुष का भी घात करता है और नोपुरुष का। भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! उस पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं एक ही | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-१ दिशा | Hindi | 475 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–किमियं भंते! पाईणा ति पवुच्चइ? गोयमा! जीवा चेव, अजीवा चेव।
किमियं भंते! पडीणा ति पवुच्चइ?
गोयमा! एवं चेव। एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्ढा, एवं अहो वि।
कति णं भंते! दिसाओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! दस दिसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–१. पुरत्थिमा २. पुरत्थिमदाहिणा ३. दाहिणा ४. दाहिणपच्चत्थिमा ५. पच्चत्थिमा ६. पच्चत्थिमुत्तरा ७. उत्तरा ८. उत्तरपुरत्थिमा ९. उड्ढा १. अहो।
एयासि णं भंते! दसण्हं दिसाणं कति नामधेज्जा पन्नत्ता?
गोयमा! दस नामधेज्जा पन्नत्ता, तं जहा–
इंदा अग्गेयो जम्मा, य नेरई वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणी या, विमला य तमा य बोद्धव्वा ॥
इंदा णं भंते! दिसा किं १. जीवा Translated Sutra: राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! यह पूर्वदिशा क्या कहलाती है ? गौतम! यह जीवरूप भी है और अजीवरूप भी है। भगवन् ! पश्चिमदिशा क्या कहलाती है ? गौतम ! यह भी पूर्वदिशा के समान जानना। इसी प्रकार दक्षिणदिशा, उत्तरदिशा, उर्ध्वदिशा और अधोदिशा के विषय में भी जानना चाहिए। भगवन् ! दिशाऍं कितनी कही | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-२ संवृत्त अणगार | Hindi | 481 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अनालोइयपडिक्कंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा।
भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ–पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि एयस्स ठाणस्स आलोएस्सामि, पडिक्कमिस्सामि, निंदिस्सामि, गरिहिस्सामि, विउट्टिस्सामि, विसोहिस्सामि, अकरणयाए अब्भुट्ठिस्सामि, अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयं पडिक्कंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा।
भिक्खू Translated Sutra: कोई भिक्षु किसी अकृत्य का सेवन करके यदि उस अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती। यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर लिया, किन्तु बाद में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-४ श्यामहस्ती | Hindi | 487 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से सामहत्थी अनगारे जायसड्ढे जाव उट्ठाए Translated Sutra: उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था (वर्णन) वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। वहाँ श्रमण भगवान महावीर का समवसरण हुआ यावत् परीषद् आई और वापस लौट गई। उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरण करते थे। उस काल और उस समय में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-५ देव | Hindi | 488 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे। गुणसिलए चेइए जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना जहा अट्ठमे सए सत्तमुद्देसए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तए णं ते थेरा भगवंतो जायसड्ढा जायसंसया जहा गोयमसामी जाव पज्जुवासमाणा एवं वयासी–
चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?
अज्जो! पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–काली, रायी, रयणी, विज्जू, मेहा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ठ देवीसहस्सं परिवारो पन्नत्तो।
पभू णं भंते! ताओ एगमेगा देवी अन्नाइं अट्ठट्ठ देवीसहस्साइं Translated Sutra: उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक उद्यान था। यावत् परीषद् लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के बहुत – से अन्तेवासी स्थविर भगवान जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों से युक्त थे, आठवें शतक के सप्तम उद्देशक के अनुसार अनेक विशिष्ट गुणसम्पन्न, यावत् विचरण करते थे। एक बार उन स्थविरों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-५ देव | Hindi | 489 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमस्स महारन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?
अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कनगा, कनगलता, चित्तगुत्ता, वसुंधरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे पन्नत्ते।
पभू णं ताओ एगामेगा देवी अन्नं एगमेगं देवीसहस्सं परियारं विउव्वित्तए?
एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए।
पभू णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमे महाराया सोमाए रायहानीए, सभाए सुहम्माए, सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए? अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं–परियारो जहा सूरियाभस्स। Translated Sutra: भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के लोकपाल सोम महाराज की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? आर्यो! चार यथा – कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता और वसुन्दधरा। इनमें से प्रत्येक देवी का एक – एक हजार देवियों का परिवार है। इनमें से प्रत्येक देवी एक – एक हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिलकर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 494 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उप्पल सालु पलासे कुंभी नालीय पउम कण्णीय ।
नलिन सिव लोग कालाऽऽलभिय दस दो य एक्कारे ॥ Translated Sutra: ग्यारहवें शतक के बारह उद्देशक इस प्रकार हैं – (१) उत्पल, (२) शालूक, (३) पलाश, (४) कुम्भी, (५) नाडीक, (६) पद्म, (७) कर्णिका, (८) नलिन, (९) शिवराजर्षि, (१०) लोक, (११) काल और (१२) आलभिक। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 498 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–उप्पले णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
गोयमा! एगजीवे, नो अनेगजीवे। तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जंति ते णं नो एगजीवा अनेगजीवा।
ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जंति। एवं उववाओ भाणियव्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसानेति।
ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! जहन्नेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरांत जब उस उत्पल में दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रहकर अनेक जीव वाला बन जाता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 506 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं हत्थिणापुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवने नामं उज्जाणे होत्था–सव्वोउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे नंदनवनसन्निभप्पगासे सुहसीतलच्छाए मनोरमे सादुप्फले अकंटए, पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्था–महयाहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दे नामं कुमारे होत्था–सुकुमालपाणिपाए, जहा सूरियकंते जाव रज्जं Translated Sutra: उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था। उस हस्तिनापुर नगर के बाहर ईशानकोण में सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध था। रम्य था, नन्दनवन के समान सुशोभित था। उसकी छाया सुखद और शीतल थी। वह मनोरम, स्वादिष्ट फलयुक्त, कण्टकरहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 508 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ।
तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसि तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव Translated Sutra: फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल के वस्त्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१० लोक | Hindi | 510 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कतिविहे णं भंते! लोए पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे लोए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वलोए, खेत्तलोए, काललोए, भावलोए।
खेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अहेलोयखेत्तलोए, तिरियलोयखेत्तलोए, उड्ढलोयखेत्तलोए।
अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा–रयणप्पभापुढविअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमापुढवि-अहेलोयखेत्तलोए।
तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! असंखेज्जविहे पन्नत्ते, तं जहा–जंबुद्दीवे दीवे तिरियलोयखेत्तलोए जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए।
उड्ढलोयखेत्तलोए Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! लोक कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का है। यथा – द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक। भगवन् ! क्षेत्रलोक कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का। यथा – अधोलोक – क्षेत्रलोक, तिर्यग्लोक – क्षेत्रलोक और ऊर्ध्वलोक – क्षेत्रलोक। भगवन् ! अधोलोक – क्षेत्रलोक कितने प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१० लोक | Hindi | 511 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए जाव एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिन्नि जोयणसयसहस्साइं सोलससहस्साइं दोन्निय सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धनुसयं तेरस अंगुलाइं अद्धंगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं।
तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्ढीया जाव महासोक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचलियं सव्वओ समंता संपरि-क्खित्ताणं चिट्ठेज्जा। अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे Translated Sutra: भगवन् ! लोक कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप, समस्त द्वीप – समुद्रों के मध्य में है; यावत् इसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। किसी काल और किसी समय महर्द्धिक यावत् महासुख – सम्पन्न छह देव, मन्दर पर्वत पर मन्दर की चूलिका |