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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 539 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं चउत्थं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं–से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा, नेवन्नेहिं मेहुणं गच्छावेज्जा, अन्नंपि मेहुणं गच्छंतं न समणुज्जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया। केवली बूया–निग्गंथे णं अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहमाणे, संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेवली-पण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा। नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं Translated Sutra: इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, समस्त प्रकार के मैथुन – विषय सेवन का प्रत्या – ख्यान करता हूँ। देव – सम्बन्धी, मनुष्य – सम्बन्धी और तिर्यंच – सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से मैथुन – सेवन कराऊंगा और न ही मैथुनसेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 540 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पंचमं भंते! महव्वयं–सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं गिण्हेज्जा, नेवन्नेहिं परिग्गहं गिण्हावेज्जा, अन्नंपि परिग्गहं गिण्हंतं ण समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–सोयओ जीवे मणुण्णामणुण्णाइं सद्दाइं सुणेइ। मणुण्णामणुण्णेहिं सद्देहिं नो सज्जेज्जा, नो रज्जेज्जा, नो गिज्झेज्जा, नो मुज्झेज्जा, नो अज्झोववज्जेज्जा, नो विणिग्घाय-मावज्जेज्जा। केवली बूया– Translated Sutra: इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पाँचवे महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत के संदर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा, और न परिग्रहण करने वालों का अनुमोदन | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 541 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अणिच्चमावासमुवेंति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं ।
विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ॥ Translated Sutra: संसार के समस्त प्राणी जिन शरीर आदि में आत्माएं आवास प्राप्त करती हैं, वे सब स्थान अनित्य हैं। सर्वश्रेष्ठ मौनीन्द्र प्रवचन में कथित यह वचन सूनकर गहराई से पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष आगारिक बंधनों का व्युत्सर्ग कर दे, एवं आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर दे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 542 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहागअं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विण्णु चरंतमेसणं ।
तुदंति वायाहिं अभिद्दवं णरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं ॥ Translated Sutra: उस तथाभूत अनन्त (एकेन्द्रियादि जीवों) के प्रति सम्यक् यतनावान अनुपसंयमी आगमज्ञ विद्वान एवं आगमानुसार एषणा करने वाले भिक्षु को देखकर मिथ्यादृष्टि असभ्य वचनों के तथा पथ्थर आदि प्रहार से उसी तरह व्यथित कर देते हैं, जिस तरह संग्राम में वीर योद्धा, शत्रु के हाथी को बाणों की वर्षा से व्यथित कर देता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 543 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया ।
तितिक्खए णाणि अदुट्ठचेयसा, गिरिव्व वाएण ण संपवेवए ॥ Translated Sutra: असंस्कारी एवं असभ्य जनों द्वारा कथित आक्रोशयुक्त शब्दों तथा – प्रेरित शीतोष्णादि स्पर्शों से पीड़ित ज्ञानवान भिक्षु प्रशान्तचित्त से सहन करे। जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, वैसे मुनि भी विचलित न हो। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 544 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही ।
अलूसए सव्वसहे महामुनी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ॥ Translated Sutra: माध्यमस्थभाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि कुशल – गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है। अतः उन्हें दुःखी देखकर, किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भाँति सब प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि त्रिजगत् – स्वभाववेत्ता होता है। इसी कारण उसे सुश्रमण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 545 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुनिस्स ज्झायओ ।
समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढइ ॥ Translated Sutra: अनुत्तर श्रमणधर्मपद में प्रवृत्ति करने वाला जो विद्वान् – कालज्ञ एवं विनीत मुनि होता है, उस तृष्णारहित, धर्मध्यान में संलग्न समाहित – मुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भाँति निरंतर बढ़ते रहते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 546 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपदा पवेदिता ।
महागुरू णिस्सयरा उदीरिया, तमं व तेजो तिदिसं पगासया ॥ Translated Sutra: षट्काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग – द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान से सभी एकेन्द्रियादि भाव – दिशाओं में रहने वाले जीवों के लिए क्षेम स्थान, कर्म – बन्धन से दूर करने में समर्थ महान गुरु – महाव्रतों का उनके लिए निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 547 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सितेहिं भिक्खू असिते परिव्वए, असज्जमित्थीसु चएज्ज पूअणं ।
अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिए ॥ Translated Sutra: भिक्षु कर्म या रागादि निबन्धनजनक गृहपाश से बंधे हुए गृहस्थों के साथ आबद्ध – होकर संयम में विचरण करे तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा – सत्कार आदि लालसा छोड़े। इहलोक तथा परलोक में निःस्पृह होकर रहे। कामभोगों के कटुविपाक का देखने वाला पण्डित मुनि मनोज्ञ – शब्दादि कामगुणों को स्वीकार न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 548 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो, धिईमओ दुक्खमस्स भिक्खुनो ।
विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा । Translated Sutra: तथा सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा आचरण करने वाले, धृतिमान – दुःखों को सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चाँदी का मैल अलग हो जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 549 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से हु प्परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय-मेहुणे चरे ।
भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ॥ Translated Sutra: जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा – कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसा ही जो भिक्षु परिज्ञा – सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, लोक सम्बन्धी आशंसा से रहित, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम में विचरण करना, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 550 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुद्दं व भुयाहि दुत्तरं ।
अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुनी अंतकडे त्ति वुच्चइ ॥ Translated Sutra: कहा है – अपार सलिल – प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है। अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को जानकर उसका परित्याग कर दे। इस प्रकार पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 551 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा हि बद्धं इह ‘माणवेहि य’, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिओ ।
अहा तहा बंधविमोक्ख जे विऊ, से हु मुनी अंतकडे त्ति वुच्चइ ॥ Translated Sutra: मनुष्यों ने इस संसार के द्वारा जिस रूप से – प्रकृति – स्थिति आदि रूप से कर्म बांधे हैं, उसी प्रकार उन कर्मों का विमोक्ष भी बताया गया है। इस प्रकार जो विज्ञाता मुनि बन्ध और विमोक्ष का स्वरूप यथातथ्य रूप से जानता है, वह मुनि अवश्य ही संसार का या कर्मों का अंत करने वाला कहा गया है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 552 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इमंमि लोए ‘परए य दोसुवि’, ण विज्जइ बंधण जस्स किंचिवि ।
से हु निरालंबणे अप्पइट्ठिए, कलंकली भावपहं विमुच्चइ ॥
Translated Sutra: इस लोक, परलोक या दोनों लोकों में जिसका किंचिन्मात्र भी रागादि बन्धन नहीं है, तथा जो साधक निरालम्ब है, एवं जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं है, वह साधु निश्चय ही संसार में गर्भादि के पर्यटन के प्रपंच से विमुक्त हो जाता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Gujarati | 4 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सेज्जं पुण जाणेज्जा–सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अन्नेसिं वा अंतिए सोच्चा तं जहा–पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दक्खिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्ढाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहे वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अन्नयरीओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अनुदिसाओ वा आगओ अहमंसि।
एवमेगेसिं जं णातं भवइ–अत्थि मे आया ओववाइए।
जो इमाओ ‘दिसाओ अनुदिसाओ वा’ अनुसंचरइ सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ ‘जो आगओ अनुसंचरइ’ सोहं। Translated Sutra: કોઈ જીવ પોતાના જાતિસ્મરણ જ્ઞાનથી, તીર્થંકર આદિના વચનથી કે અન્ય વિશિષ્ટજ્ઞાનીની પાસેથી સાંભળી જાણી શકે છે કે, હું પૂર્વદિશાથી આવ્યો છું – યાવત્ – અન્ય દિશા કે વિદિશાથી આવેલો છું. એ જ રીતે કેટલાક જીવોને એવું જ્ઞાન હોય છે કે મારો આત્મા પુનર્ભવ કરવાવાળો છે, જે આ દિશા – વિદિશામાં વારંવાર આવાગમન કરે છે. જે સર્વે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Gujarati | 5 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई। Translated Sutra: પૂર્વાદિ દિશામાં જે ગમનાગમન કરે છે, તે આત્મા હું જ છું એવું જે જ્ઞાન કે એવો નિશ્ચય જેને થઇ જાય છે તે પોતાને નિત્ય અને અમૂર્ત લક્ષણવાળો જાણે છે, આ સોऽહં) ‘તે હું જ છું’ એવું જ્ઞાન જેને છે તે જ જીવ આત્મ – વાદી છે. જે આત્મવાદી છે તે લોક અર્થાત્ પ્રાણીગણનો પણ સ્વીકાર કરે છે તેથી તે લોકવાદી છે. લોક – પરિભ્રમણ દ્વારા તે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Gujarati | 8 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अनुदिसाओ वा अनुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ सहेति। Translated Sutra: કર્મ અને કર્મબંધના સ્વરૂપને નહીં જાણનાર પુરૂષ અર્થાત્ આત્મા જ કર્મબંધના કારણે આ દિશા – વિદિશામાં વારંવાર આવાગમન કરે છે. અને પોતાનાં કર્મો અનુસાર સર્વે દિશા અને વિદિશામાં જાય છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Gujarati | 9 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे य पडिसंवेदेइ। Translated Sutra: તે આત્મા અનેક પ્રકારની યોનિઓ અર્થાત્ જીવ – ઉત્પત્તિ સ્થાન સાથે પોતાનો સંબંધ જોડે છે અને વિરૂપ એવો સ્પર્શો અર્થાત્ સુખ અને દુઃખનું વેદન કરે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Gujarati | 13 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्सेते लोगंसि कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: લોકમાં જેણે આ કર્મ સમારંભોને જાણ્યા છે, તે નિશ્ચયથી પરિજ્ઞાતકર્મા છે એટલે કે કર્મબંધના હેતુઓને જાણનાર અને તેનો ત્યાગ કરનાર વિવેકી મુનિ છે – તેમ ભગવંત પાસેથી સાંભળીને હું તમને કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Gujarati | 16 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव पुढवि-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा पुढवि-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा पुढवि-सत्थं समारंभंते
समणुजाणइ। Translated Sutra: પૃથ્વીકાયના આરંભ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા એટલે કે શુદ્ધ સમજ બતાવી છે કે – આ જીવિતનો વંદન – માનન અને પૂજનને માટે, જન્મ – મરણથી છૂટવા માટે, દુઃખોનો નાશ કરવાને માટે તેઓ સ્વયં જ પૃથ્વીશસ્ત્રોનો સમારંભ કરે છે, બીજા પાસે પૃથ્વીશસ્ત્રનો સમારંભ કરાવે છે, પૃથ્વી – શસ્ત્રનો આરંભ કરનારની અનુમોદના કરે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Gujarati | 17 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं सत्थेहिं’ पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमब्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमब्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमब्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमब्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, Translated Sutra: પૃથ્વીકાયનો સમારંભ અર્થાત્ હિંસા, તે હિંસા કરનાર જીવોને અહિતને માટે થાય છે, અબોધી અર્થાત્ બોધી બીજના નાશને માટે થાય છે. જે સાધુ આ વાતને સારી રીતે સમજે છે, તે સંયમ – સાધનામાં તત્પર થઈ જાય છે. ભગવંત અને શ્રમણના મુખેથી ધર્મશ્રવણ કરીને કેટલાક મનુષ્યો એવું જાણે છે કે – આ પૃથ્વીકાયની હિંસા ગ્રંથિ અર્થાત્ કર્મબંધનું | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Gujarati | 18 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं पुढवि-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवण्णे
पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते पुढवि-कम्म-समारंभा परिण्णाता भवंति,
से हु मुनी परिण्णात-कम्मे। Translated Sutra: જે પૃથ્વીકાય જીવો પર શસ્ત્રનો સમારંભ કરતા નથી, તે જ આ આરંભોનો પરિજ્ઞાતા – વિવેકી છે. આ પૃથ્વીકાયનો સમારંભ જાણીને બુદ્ધિમાન મનુષ્ય સાધુ) સ્વયં પૃથ્વીકાય શસ્ત્રનો સમારંભ હિંસા) કરે નહીં, બીજા દ્વારા પૃથ્વીકાય શસ્ત્રનો સમારંભ કરાવે નહીં અને પૃથ્વીકાય શસ્ત્રનો સમારંભ કરનારની અનુમોદના કરે નહીં. જેણે આ પૃથ્વીકર્મ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Gujarati | 19 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–से जहावि अनगारे उज्जुकडे, णियागपडिवण्णे, अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। Translated Sutra: મુનિના સ્વરૂપને વિશેષથી દર્શાવતા જણાવે છે – ભગવંત પાસેથી સાંભળીને હું તમને કહું છું. – જે સરળ આચરણવાળા છે, મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરેલ છે અને જેઓ કપટરહિત હોય છે તેને અણગાર અર્થાત્ સાધુ કહે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Gujarati | 23 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि– नेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा।
जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ। Translated Sutra: અપ્કાય સંબંધે વિશેષથી હું તને કહું છું કે – મુનિ સ્વયં અપ્કાય જીવોના અસ્તિત્વનો નિષેધ ન કરે એ રીતે આત્માના અસ્તિત્વનો પણ નિષેધ ન કરે. જે અપ્કાય આદિ પ્રાણીઓના ચૈતન્યનો નિષેધ કરે છે, તે આત્માના ચૈતન્યનો નિષેધ કરે છે, જે આત્માનો ચૈતન્યનો નિષેધ કરે છે તે અપ્કાયના ચૈતન્યનો નિષેધ કરે છે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Gujarati | 24 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे
विहिंसति।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव उदय-सत्थं समारंभति, अन्नेहिं वा उदय-सत्थं समारंभावेति, अन्ने वा उदय-सत्थं समारंभंते समणुजाणति।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं सुबंज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અપ્કાયના જીવોની અનેક પ્રકારના શસ્ત્રો દ્વારા સમારંભ કરતા બીજા જીવોની પણ હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ વિવેક કહેલ છે. અજ્ઞાની જીવ આ ક્ષણિક જીવિતના | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Gujarati | 31 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं उदय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं उदय-सत्थं समारंभावेज्जा, उदय-सत्थं समारंभंतेवि अन्ने न समणुजाणेज्जा।
जस्सेते उदय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति,
से हु मुनी परिण्णात-कम्मे। Translated Sutra: જલકાય શસ્ત્રના સમારંભકર્તા મનુષ્ય પૂર્વોક્ત આરંભના ફળથી અજ્ઞાત છે. જેઓ જલકાય શસ્ત્રનો સમારંભ નથી કરતા એવા મુનિ આરંભોના ફળના જ્ઞાતા છે. આ જાણીને મેધાવી મુનિ અપ્કાય શસ્ત્રનો સમારંભ અર્થાત્ હિંસા જાતે કરતા નથી, બીજા પાસે કરાવતા નથી કે કરનારની અનુમોદના કરતા નથી. જે મુનિએ આ બધાં અપ્કાય શસ્ત્ર સમારંભને જાણેલા | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 32 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से बेमि’–नेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं अब्भाइक्खवइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ। Translated Sutra: અગ્નિકાય સંબંધે વિશેષથી હું તને કહું છું કે – સ્વયં કદી લોક અર્થાત્ અગ્નિકાયના સચેતનપણાનો નિષેધ ન કરે અને આત્માનો પણ અપ્લાપ ન કરે. જે અગ્નિકાયની સજીવતાનો નિષેધ કરે છે, તે આત્માનો નિષેધ કરે છે. જે આત્માનો નિષેધ કરે છે તે લોક અર્થાત્ અગ્નિકાયની સજીવતાનો નિષેધ કરે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 33 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे। जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे। Translated Sutra: જે દીર્ઘલોક એટલે વનસ્પતિ અને શસ્ત્ર અર્થાત્ અગ્નિનાં સ્વરૂપને જાણે છે, તે અશસ્ત્ર અર્થાત્ સંયમના સ્વરૂપને પણ જાણે છે. જે સંયમને જાણે છે તે દીર્ઘલોકશસ્ત્ર અર્થાત્ વનસ્પતિના શસ્ત્રરૂપ અગ્નિકાયને પણ જાણે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 35 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पवुच्चति। Translated Sutra: જે પ્રમાદી છે, રાંધવું – પકાવવું આદિ ગુણના અથવા ઇન્દ્રિય સુખોના અર્થી છે, તે જ દંડદેનાર અથવા હિંસક કહેવાય છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 37 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे, अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति। तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव अगणि-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा अगणि-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा अगणि-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेहिं नायं भवति– एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए। इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं विरूवरूवेहिं Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અનેક પ્રકારના શસ્ત્રોથી અગ્નિકાયના સમારંભ દ્વારા અગ્નિકાય જીવોની તથા અન્ય અનેક પ્રકારના જીવોની હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ વિવેક કહેલ છે કે | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 38 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि– अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।(जाव)
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि– संति पाणा पुढवि- निस्सिया, तण- निस्सिया, पत्त- निस्सिया, कट्ठ- निस्सिया, गोमय- निस्सिया, कयवर- निस्सिया। संति संपातिमा पाणा, आहच्च संपयंति य। अगणिं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जंति। जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति। जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायंति। Translated Sutra: તે હું તમને કહું છું કે – પૃથ્વી, તૃણ, પત્ર, લાકડું, છાણ અને કચરો એ સર્વેને આશ્રીને ત્રસ જીવો હોય છે, ઉડનારા જીવો પણ અગ્નિમાં પડે છે, આ જીવો અગ્નિના સ્પર્શથી સંકોચ પામે છે. અગ્નિમાં પડતા જ આ જીવો મૂર્ચ્છા પામે છે. મૂર્ચ્છા પામેલા તે મૃત્યુ પામે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 39 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं अगणि-सत्थे समारंभावेज्जा, अगणि-सत्थं समारंभमाणे अन्ने न समणुजाणेज्जा।
जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: અગ્નિકાયમાં શસ્ત્રનો સમારંભ ન કરનાર અર્થાત્ હિંસા ન કરનાર આ બધા આરંભનો અર્થાત્ હિંસાના પરિણામનો જ્ઞાતા હોય છે. આ આરંભને જાણીને મેઘાવી સાધુ અગ્નિશસ્ત્ર સમારંભ જાતે કરે નહીં, બીજા પાસે કરાવે નહીં, કરનારની અનુમોદના કરે નહીં. જેણે આ બધા અગ્નિકર્મ સમારંભના અશુભ પરિણામને જાણ્યા છે અને જાણીને તેનો ત્યાગ કર્યો | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Gujarati | 41 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे। Translated Sutra: જે શબ્દાદિ ગુણ અર્થાત્ શબ્દ આદિ વિષય છે તે જ આવર્ત અર્થાત્ સંસારના કારણો છે અને જે આવર્ત એટલે કે સંસારના કારણો છે તે જ ગુણ એટલે શબ્દ આદિ વિષયો છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Gujarati | 45 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: पमत्ते गारमावसे। Translated Sutra: ઉપર કહેલ અસંયમી, પ્રમાદી બની ગૃહત્યાગી હોવા છતાં ગૃહસ્થભાવને લીધે જેમ ગૃહવાસી જ છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Gujarati | 46 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वगेणरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाती-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव वणस्सइ-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा वणस्सइ-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवओ, अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અનેક પ્રકારના શસ્ત્રોથી વનસ્પતિ કર્મ સમારંભથી વનસ્પતિ જીવોની હિંસા કરતા બીજા પણ અનેક જીવોની હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ વિવેક કહ્યો છે. આ જીવનને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Gujarati | 47 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे। (जाव) अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि–इमंपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं। इमंपि बुड्ढिधम्मयं, एयंपि बुड्ढिधम्मयं। इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं। इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति। इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं। इमंपि अनिच्चयं, एयंपि अनिच्चयं। इमंपि असासयं, एयंपि असासयं। इमंपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं। इमंपि विपरिनामधम्मयं, एयंपि विपरिनामधम्मयं। Translated Sutra: તે હું તમને કહું છું – માનવ શરીર સાથે વનસ્પતિકાયની સમાનતા દર્શાવતા કહે છે) જે રીતે માનવ શરીર જન્મ લે છે, વૃદ્ધિ પામે છે, ચેતનવંત છે, છેદાતા કરમાય છે, આહાર લે છે, અનિત્ય છે, અશાશ્વત છે, વધે – ઘટે છે અને વિકારને પામે છે એ જ રીતે વનસ્પતિ પણ ઉત્પન્ન થાય છે, વૃદ્ધિ પામે છે, ચેતનાયુક્ત છે, છેદાતા કરમાય છે, આહાર લે છે, અનિત્ય | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Gujarati | 48 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी– नेव सयं वणस्सइ-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं वणस्सइ-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेवणस्सइ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते वणस्सइ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: વનસ્પતિકાયનો સમારંભ કરનાર તેના આરંભના પરિણામોથી અજાણ હોય છે અને વનસ્પતિશસ્ત્રનો સમારંભ ન કરનાર આ હિંસાજન્ય વિપાકોનો પરિજ્ઞાતા હોય છે અર્થાત્ ઉપર કહેલ હિંસા આદિ ક્રિયાઓ કર્મબંધનું કારણ છે એવો વિવેક તેને હોય છે. આવું જાણી મેઘાવી પુરુષ વનસ્પતિકાયની હિંસા સ્વયં ન કરે, બીજા પાસે ન કરાવે, કરનારને અનુમોદે નહીં. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 49 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–संतिमे तसा पाणा, तं जहा–अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया ओव-वाइया।
एस संसारेत्ति पवुच्चति। Translated Sutra: હું કહું છું કે – આ બધા ત્રસ પ્રાણી છે. તે આ પ્રમાણે – અંડજ, પોતજ, જરાયુજ, રસજ, સંસ્વેદજ, સંમૂર્ચ્છિમ, ઉદ્ભિજ્જ અને ઔપપાતિક. આ આઠ પ્રકારના ત્રસજીવોનો સમુદાય જ સંસાર કહેવાય છે. | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 53 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संति पाणा पुढो सिया।
लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकाय-समारंभेणं तसकाय-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव तसकाय-सत्थं समारंभति, अन्नेहिं वा तसकाय-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा तसकाय-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवओ, अनगाराणं ‘वा अंतिए’ इहमेगेसिं नायं भवइ– एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए। इच्चत्थं गढिए Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અનેક પ્રકારના શસ્ત્રોથી ત્રસકાયના સમારંભ દ્વારા ત્રસકાય જીવોની હિંસા કરતા તેઓ બીજા અનેક પ્રકારના જીવોની પણ હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં નિશ્ચયથી ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 54 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि–अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति, अप्पेगे नहाए वहंति, अप्पेगे ण्हारुणीए वहंति, अप्पेगे अट्ठीए वहंति, अप्पेगे अट्ठिमिंजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणुट्ठाए Translated Sutra: હું કહું છું કે, કેટલાક લોકો દેવ – દેવીની પૂજાને માટે ત્રસકાય જીવોને હણે છે, કોઈ ચર્મને માટે, કોઈ માંસને માટે, કોઈ લોહી માટે, એ પ્રમાણે હૃદય, પિત્ત, ચરબી, પિંછા, પુચ્છ, વાળ, શીંગડું, વિષાણ, દાંત, દાઢા, નખ, સ્નાયુ, અસ્થિ, અસ્થિમિંજ માટે ત્રસકાયની હિંસા કરે છે. કોઈ સકારણ કે અકારણ હિંસા કરે છે. કોઈ મને માર્યો કે મને મારે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 55 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं तसकाय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं तसकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेतसकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते तसकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे। Translated Sutra: આ ત્રસકાય હિંસામાં પ્રવૃત્ત જીવને તેના કટુ વિપાકો – કડવા ફળનું જ્ઞાન હોતું નથી. ત્રસકાયની હિંસા ન કરનારને હિંસા કર્મબંધનું કારણ છે તેનું જ્ઞાન હોય છે. આવું જાણીને મેઘાવી મુનિ ત્રસકાય જીવોની હિંસા સ્વયં કરે નહીં, બીજા પાસે કરાવે નહીં, કરનારની અનુમોદના ન કરે.જે આ ત્રસકાય સમારંભનો પરિજ્ઞાતા છે, તે જ મુનિ પરિજ્ઞાતકર્મા | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Gujarati | 57 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयंकदंसी अहियं ति नच्चा।
जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ।
एयं तुलमन्नेसिं। Translated Sutra: જે પોતાના સુખ – દુઃખને જાણે છે તે બીજાના સુખ – દુઃખને પણ જાણે છે અને જે બીજાના સુખ – દુઃખને જાણે છે, તે પોતાના સુખ – દુઃખને પણ જાણે છે, તેથી પોતાને અને બીજાને પરસ્પર સમાન જાણી તેની તુલના કર. | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Gujarati | 59 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव वाउ-सत्थं समारंभति, अन्नेहिं वा वाउ-सत्थं समारंभावेति, अन्ने वा वाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवओ, अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं नायं भवइ–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અનેક પ્રકારના શસ્ત્રોથી વાયુકાયનો સમારંભ કરતા વાયુજીવોની હિંસા કરવા વડે તેના આશ્રિત અન્ય અનેક જીવોની હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ વિવેક બતાવેલ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Gujarati | 60 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि–संति संपाइमा पाणा, आहच्च संपयंति य। फरिसं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जंति। जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायंति।
एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति।
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं वाउ-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं वाउ-सत्थ समारंभावेज्जा, नेवन्नेवाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया Translated Sutra: તે હું કહું છું – જે ઉડતા જીવ છે તે વાયુકાય સાથે એકઠા થઈને પીડા પામે છે. જેઓ આવા સંઘાતને પામે છે તે જીવો પરિતાપ પામે છે અને મૃત્યુ પામે છે. વાયુકાય – હિંસામાં પ્રવૃત્તને હિંસાદિ ક્રિયા કર્મબંધનું કારણ છે તેનું જ્ઞાન નથી. જેમણે આ શસ્ત્ર સમારંભનો ત્યાગ કર્યો છે તેઓ વાયુકાય હિંસાના પરિજ્ઞાતા છે. આ પ્રમાણે પરિજ્ઞા | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Gujarati | 62 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं।
तं णोअन्नेसिं।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेछज्जीवणिकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते छज्जीव-णिकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे।
Translated Sutra: તે સંયમરૂપી ધનથી યુક્ત છે, જે સર્વ – પ્રકારે બોધ અને જ્ઞાનયુક્ત આત્મા ન કરવા યોગ્ય પાપકર્મ ન કરે. આ પાપકર્મને જાણીને મેઘાવી સાધુ છ જીવનિકાયની હિંસા સ્વયં કરે નહીં, બીજા પાસે કરાવે નહીં, કરનારને અનુમોદે નહીં. જેણે આ બધા છ જીવનિકાયશસ્ત્ર સમારંભ જાણ્યા છે, તે જ ‘‘પરિજ્ઞાતકર્મા’’ એટલે કે કર્મબંધના હેતુઓને જાણનાર | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 63 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।
इति से गुणट्ठी महता परियावेणं वसे पमत्ते– माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयण-संगंथ-संथुया मे, विवित्तोवगरण-परियट्टण-भोयण-अच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए– वसे पमत्ते।
अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकाल-समुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विणि-विट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो।
अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं, तं जहा– Translated Sutra: જે શબ્દાદિ વિષય છે તે સંસારનું કારણ છે. અને જે સંસારના મૂળ કારણ છે, તે શબ્દાદિ વિષય છે, આ રીતે તે વિષય અભિલાષી પ્રાણી પ્રમાદી બની શારીરિક અને માનસિક પરિતાપ ભોગવે છે. તે આ પ્રમાણે માને છે કે – મારી માતા, મારા પિતા, મારો ભાઈ, મારી બહેન, પત્ની, પુત્ર, પુત્રી, પુત્રવધૂ, મિત્ર, સ્વજન, સંબંધી છે. મારા હાથી, ઘોડા, મકાન આદિ સાધન, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 64 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोय-परिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, चक्खु-परिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, घाण-परिण्णाणेहिं परिहाय-माणेहिं, रस-परिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, फास-परिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं।
अविक्कंतं च खलु वयं संपेहाए।
तओ से एगया मूढभावं जणयंति। Translated Sutra: આ લોકમાં મનુષ્યનું આયુ ઘણું અલ્પ છે, તેમાં વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે – કાન, આંખ, નાક, જીભ અને સ્પર્શનું જ્ઞાન પ્રતિદિન ઓછું થતું જાય છે. યૌવનને જલદીથી જતું જોઈને તે એક દિવસ મૂઢભાવને પામે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 65 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा।
से न हस्साए, न किड्डाए, न रतीए, न विभूसाए। Translated Sutra: તે જેમની સાથે રહે છે, તે સ્વજન આદિ તેને અપમાનજનક વચનો કહે છે. પછી તે પણ સ્વજનોની નિંદા કરે છે. તેઓ તારી રક્ષા કરવા કે શરણ આપવા સમર્થ નથી. તું પણ તેની રક્ષા કરવા કે શરણ આપવા અસમર્થ છે. તે વૃદ્ધ હાસ્ય, ક્રીડા, રતિ કે શૃંગારને યોગ્ય રહેતો નથી. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 67 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीविए इह जे पमत्ता।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: જેને જીવનની ક્ષણભંગુરતાનું જ્ઞાન નથી તે અસંયમી જીવન પ્રતિ પ્રમત્ત બની છ કાયના જીવોનું હનન, છેદન, ભેદન કરે છે. લૂંટે છે, ધાડ પાડે છે, ઉપદ્રવ કરે છે , ત્રાસ આપે છે. આવું કરતો તે એમ માને છે કે, કોઈએ ન કર્યું હોય તેવું કામ કરીશ. જે સ્વજનાદિ સાથે વસે છે તેઓએ પૂર્વે મારું પોષણ કરેલ તેમ વિચારી પછી તું તારા સ્વજનોને પોષે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 68 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाणं भोयणाए।
तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया नियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: મનુષ્ય ઉપભોગ પછી બચેલી કે સંચિત કરી રાખેલી વસ્તુ બીજાને ઉપયોગી થશે તેમ માની રાખી મૂકે છે. પછી કોઈ વખતે તેને રોગની પીડા ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે જે સ્વજનાદિ સાથે તે વસે છે તેઓ જ તેને ઘૃણા કરી પહેલા છોડી દે છે. પછી તે પણ નિરાશ થઇ પોતાના સ્વજન – સ્નેહીઓને છોડી દે છે, આ સમયે તે ધન કે સ્વજન તારી રક્ષા કરવા કે શરણ આપવા સમર્થ |