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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 746 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणी दंसण-रहिओ चरित्त-रहिओ उ भमइ संसारे।
जो पुन चरित्त-जुत्तो सो सिज्झइ नत्थि संदेहो॥ Translated Sutra: दर्शन या चारित्ररहित ज्ञानी पूरे संसार में घूमता है। लेकिन जो चारित्रयुक्त हो वो यकीनन सिद्धि पाता है उसमें संदेह नहीं। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 786 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मंतराय-भीए भीए संसार-गब्भ-वसहीनं।
णोदीरिज्ज कसाए मुनी मुनीणं तयं गच्छं॥ Translated Sutra: धर्म के अंतराय से भयभीत, संसार के गर्भावास से डरे हुए मुनि अन्य मुनि को कषाय की उदीरणा न करे, वो गच्छ। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 794 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एक्कं पि जो दुहत्तं सत्तं परिबोहिउं ठवे मग्गे।
ससुरासुरम्मि वि जगे तेणेहं घोसियं अमाघायं॥ Translated Sutra: इस संसार में दुःख भुगतनेवाले एक जीव को प्रतिबोध करके उसे मार्ग के लिए स्थापन करते हैं, उसने देव और असुरवाले जगत में अमारी पड़ह की उद्घोषणा करवाई है ऐसा समझना। भूत, वर्तमान और भावि में ऐसे कुछ महापुरुष थे, है और होंगे कि जिनके चरणयुगल जगत के जीव को वंदन करने के लायक हैं, और परहित करने के लिए एकान्त कोशीष करने में | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 800 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं मेरा णं लंघेयव्व त्ति।
एयं गच्छ-ववत्थं लंघेत्तु ति-गारवेहिं पडिबद्धे।
संखाईए गणिणो अज्ज वि बोहिं न पाविंति॥ Translated Sutra: तीन गारव में आसक्त ऐसे कईं आचार्य गच्छ की व्यवस्था का उल्लंघन करके आज भी बोधि – सच्चा मार्ग नहीं पा सकते। दूसरे भी अनन्त बार चार गति रूप भव में और संसार में परिभ्रमण करेंगे लेकिन बोधि की प्राप्ति नहीं करेंगे। और लम्बे अरसे तक काफी दुःखपूर्ण संसार में रहेंगे। हे गौतम ! चौदराज प्रमाण लोक के बारे में बाल के अग्रभाग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 812 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ–जहा णं तहा वि ते एयं गच्छववत्थं नो विलिंघिंसु गोयमा णं इओ आसन्नकाले णं चेव महायसे महासत्ते महानुभागे सेज्जंभवे नामं अनगारे महातवस्सी महामई दुवालसंगसुयधारी भवेज्जा।
से णं अपक्खवाएणं अप्पाउक्खे भव्वसत्ते सुयअतिसएणं विण्णाय एक्कारसण्हं अंगाणं चोद्दसण्हं पुव्वाणं परमसार णवणीय भूयं सुपउणं सुपद्धरुज्जयं सिद्धिमग्गं दसवेयालियं नाम सुयक्खंधं निऊहेज्जा।
से भयवं किं पडुच्च गोयमा मनगं पडुच्चा जहा कहं नाम एयस्स णं मनगस्स पारंपरिएणं थेवकालेणेव महंत घोर दुक्खागराओ चउगइ संसार सागराओ निप्फेडो भवतु।
भवदुगुंछेवण न विना सव्वन्नुवएसेणं, Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है, तो भी गच्छ व्यवस्था का उल्लंघन नहीं होगा। हे गौतम ! यहाँ नजदीकी काल में महायशवाले महासत्त्ववाले महानुभाग शय्यंभव नाम के महा तपस्वी महामतिवाले बारह अंग समान श्रुतज्ञान को धारण करनेवाले ऐसे अणगार होंगे वो पक्षपात रहित अल्प आयुवाले भव्य सत्त्व को ज्ञान के अतिशय के द्वारा | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 816 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयरे णं ते पंच सए एक्क विवज्जिए साहूणं जेहिं च णं तारिस गुणोववेयस्स महानुभागस्स गुरुणो आणं अइक्कमिउं नाराहियं गोयमा णं इमाए चेव उसभ चउवीसिगाए अतीताए तेवीसइमाए चउवीसिगाए जाव णं परिनिव्वुडे चउवीसइमे अरहा ताव णं अइक्कंतेणं केवइएणं कालेणं गुणनिप्फन्ने कम्मसेल मुसुमूरणे महायसे, महासत्ते, महानुभागे, सुगहिय नामधेज्जे, वइरे नाम गच्छाहिवई भूए।
तस्स णं पंचसयं गच्छं निग्गंथीहिं विना, निग्गंथीहिं समं दो सहस्से य अहेसि। ता गोयमा ताओ निग्गंथीओ अच्चंत परलोग भीरुयाओ सुविसुद्ध निम्मलंतकरणाओ, खंताओ, दंताओ, मुत्ताओ, जिइंदियाओ, अच्चंत भणिरीओ निय सरीरस्सा वि य छक्काय Translated Sutra: हे भगवंत ! एक रहित ऐसे ५०० साधु जिन्होंने वैसे गुणयुक्त महानुभाव गुरु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके आराधक न हुए, वे कौन थे ? हे गौतम ! यह ऋषभदेव परमात्मा की चोवीसी के पहले हुई तेईस चौवीसी और उस चौवीसी के चौवीसवे तीर्थंकर निर्वाण पाने के बाद कुछ काल गुण से पैदा हुए कर्म समान पर्वत का चूरा करनेवाला, महायशवाले, महासत्त्ववाले | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 818 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नं च–जइ एते तव संजम किरियं अनुपालेहिंति, तओ एतेसिं चेव सेयं होहिइ, जइ न करेहिंति, तओ एएसिं चेव दुग्गइ-गमणमनुत्तरं हवेज्जा। नवरं तहा वि मम गच्छो समप्पिओ, गच्छाहिवई अहयं भणामि। अन्नं च–
जे तित्थयरेहिं भगवंतेहिं छत्तीसं आयरियगुणे समाइट्ठे तेसिं तु अहयं एक्कमवि नाइक्कमामि, जइ वि पाणोवरमं भवेज्जा। जं च आगमे इह परलोग विरुद्धं तं णायरामि, न कारयामि न कज्जमाणं समनुजाणामि। तामेरिसगुण जुत्तस्सावि जइ भणियं न करेंति ताहमिमेसिं वेसग्गहणा उद्दालेमि।
एवं च समए पन्नत्ती जहा–जे केई साहू वा साहूणी वा वायामेत्तेणा वि असंजममनुचिट्ठेज्जा से णं सारेज्जा से णं वारेज्जा, से Translated Sutra: दूसरा यह शिष्य शायद तप और संयम की क्रिया का आचरण करेंगे तो उससे उनका ही श्रेय होगा और यदि नहीं करेंगे तो उन्हें ही अनुत्तर दुर्गति गमन करना पड़ेगा। फिर भी मुझे गच्छ समर्पण हुआ है, मैं गच्छाधिपति हूँ, मुझे उनको सही रास्ता दिखाना चाहिए। और फिर दूसरी बात यह ध्यान में रखनी है कि – तीर्थंकर भगवंत ने आचार्य के छत्तीस | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 821 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केरिस गुणजुत्तस्स णं गुरुणो गच्छनिक्खेवं कायव्वं गोयमा जे णं सुव्वए, जे णं सुसीले, जे णं दढव्वए, जे णं दढचारित्ते, जे णं अनिंदियंगे, जे णं अरहे, जे णं गयरागे, जे णं गयदोसे, जे णं निट्ठिय मोह मिच्छत्त मल कलंके, जे णं उवसंते, जे णं सुविण्णाय जगट्ठितीए, जे णं सुमहा वेरग्गमग्गमल्लीणे, जे णं इत्थिकहापडिनीए, जे णं भत्तकहापडिनीए, जे णं तेण कहा पडिनीए, जे णं रायकहा पडिनीए, जे णं जनवय कहा पडिनीए, जे णं अच्चंतमनुकंप सीले, जे णं परलोग-पच्चवायभीरू, जे णं कुसील पडिनीए,
जे णं विण्णाय समय सब्भावे, जे णं गहिय समय पेयाले, जे णं अहन्निसानुसमयं ठिए खंतादि अहिंसा लक्खण दसविहे समणधम्मे, Translated Sutra: हे भगवंत ! कैसे गुणयुक्त गुरु हो तो उसके लिए गच्छ का निक्षेप कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो अच्छे व्रतवाले, सुन्दर शीलवाले, दृढ़ व्रतवाले, दृढ़ चारित्रवाले, आनन्दित शरीर के अवयववाले, पूजने के लायक, राग रहित, द्वेष रहित, बड़े मिथ्यात्व के मल के कलंक जिसके चले गए हैं वैसे, जो उपशान्त हैं, जगत की दशा को अच्छी तरह से पहचानते हो, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 833 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केइ अमुणिय समय सब्भावे होत्था विहिए, इ वा अविहिए, इ वा कस्स य गच्छायारस्स य मंडलिधम्मस्स वा छत्तीसइविहस्स णं सप्पभेय नाण दंसण चरित्त तव वीरियायारस्स वा, मनसा वा, वायाए वा, कहिं चि अन्नयरे ठाणे केई गच्छाहिवई आयरिए, इ वा अंतो विसुद्ध, परिणामे वि होत्था णं असई चुक्केज्ज वा, खलेज्ज वा, परूवेमाणे वा अणुट्ठे-माणे वा, से णं आराहगे उयाहु अनाराहगे गोयमा अनाराहगे।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अनाराहगे गोयमा णं इमे दुवालसंगे सुयनाणे अणप्पवसिए अनाइ निहणे सब्भूयत्थ पसाहगे अनाइ संसिद्धे से णं देविंद वंद वंदाणं अतुल बल वीरिएसरिय सत्त परक्कम महापुरिसायार Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले हो, वह विधि से या अविधि से किसी गच्छ के आचार या मंड़ली धर्म के मूल या छत्तीस तरह के भेदवाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के आचार को मन से वचन से या काया से किसी भी तरह कोई भी आचार स्थान में किसी गच्छाधिपति या आचार्य के जितने अंतःकरण में विशुद्ध परिणाम होने के | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 842 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ गोयमा अप्प संकिएणं चेव चिंतियं तेण सावज्जायरिएणं जहा णं– जइ इह एयं जहट्ठियं पन्नवेमि तओ जं मम वंदनगं दाउमाणीए तीए अज्जाए उत्तिमंगेण चलणग्गे पुट्ठे तं सव्वेहिं पि दिट्ठमेएहिं ति। ता जहा मम सावज्जायरियाहिहाणं कयं तहा अन्नमवि किंचि एत्थ मुद्दंकं काहिंति। अहन्नहा सुत्तत्थं पन्नवेमि ता णं महती आसायणा।
ता किं करियव्वमेत्थं ति। किं एयं गाहं पओवयामि किं वा णं अन्नहा पन्नवेमि अहवा हा हा न जुत्तमिणं उभयहा वि। अच्चंतगरहियं आयहियट्ठीणमेयं, जओ न मेस समयाभिप्पाओ जहा णं जे भिक्खू दुवालसंगस्स णं सुयनाणस्स असई चुक्कखलियपमायासंकादी सभयत्तेणं पयक्खरमत्ता बिंदुमवि Translated Sutra: तब अपनी शंकावाला उन्होंने सोचा कि यदि यहाँ मैं यथार्थ प्ररूपणा करूँगा तो उस समय वंदना करती उस आर्या ने अपने मस्तक से मेरे चरणाग्र का स्पर्श किया था, वो सब इस चैत्यवासी ने मुझे देखा था। तो जिस तरह मेरा सावद्याचार्य नाम बना है, उस प्रकार दूसरा भी वैसा कुछ अवहेलना करनेवाला नाम रख देंगे जिससे सर्व लोक में मै अपूज्य | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 844 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ताहे पुणो वि तेहिं भणियं जहा किमेयाइं अरड-बरडाइं असंबद्धाइं दुब्भासियाइं पलवह जइ पारिहारगं णं दाउं सक्के ता उप्फिड, मुयसु आसणं, ऊसर सिग्घं, इमाओ ठाणाओ। किं देवस्स रूसेज्जा। जत्थ तुमं पि पमाणीकाऊणं सव्व संघेणं समय सब्भावं वायरेउं जे समाइट्ठो।
तओ पुणो वि सुइरं परितप्पिऊणं गोयमा अन्नं पारिहारगं अलभमाणेणं अंगीकाऊण दीहं संसारं भणियं च सावज्जायरिएणं जहा णं उस्सग्गाववाएहिं आगमो ठिओ तुब्भे न याणहेयं। एगंतो मिच्छत्तं, जिणाणमाणा मणेगंता।
एयं च वयणं गोयमा गिम्हायव संताविएहिं सिहिउलेहिं च अहिणव पाउस सजल घणोरल्लिमिव सबहुमाणं समाइच्छियं तेहिं दुट्ठ-सोयारेहिं।
तओ Translated Sutra: तब भी उस दुराचारी ने कहा कि तुम ऐसे आड़े – टेढ़े रिश्ते के बिना दुर्भाषित वचन का प्रलाप क्यों करते हो? यदि उचित समाधान देने के लिए शक्तिमान न हो तो खड़े हो जाव, आसन छोड़ दे यहाँ से जल्द आसन छोड़कर नीकल जाए। जहाँ तुमको प्रमाणभूत मानकर सर्व संघ ने तुमको शास्त्र का सद्भाव कहने के लिए फरमान किया है। अब देव के उपर क्या दोष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1012 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भयवं अकिच्चं काऊणं पच्छित्तं जो करेज्ज वा।
तस्स लट्ठयरं पुरओ जं अकिच्चं न कुव्वए॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! अकार्य करके अगर अतिचार सेवन करके यदि किसी प्रायश्चित्त का सेवन करे उससे अच्छा जो अकार्य न करे वो ज्यादा सुन्दर है ? हे गौतम ! अकार्य सेवन करके फिर मैं प्रायश्चित्त सेवन करके शुद्धि कर लूँगा। उस प्रकार मन से भी वो वचन धारण करके रखना उचित नहीं है। जो कोई ऐसे वचन सुनकर उसकी श्रद्धा करता है, या उसके अनुसार | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1077 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता जे अविदिय-परमत्थे, गोयमा नो य जे मुणे।
तम्हा ते विवज्जेज्जा, दोग्गई-पंथ-दायगे॥ Translated Sutra: इसलिए जो परमार्थ को नहीं जानते और हे गौतम ! जो अज्ञानी हैं, वो दुर्गति के पंथ को देनेवाले ऐसे पृथ्वीकाय आदि कि विराधना गीतार्थ गुरु निश्रा में रहकर संयम आराधना करनी। गीतार्थ के वचन से हलाहल झहर का पान करना। किसी भी विकल्प किए बिना उनके वचन के मुताबिक तत्काल झहर का भी भक्षण कर लेना। परमार्थ से सोचा जाए तो वो विष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1507 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] त्ति भाणिऊणं अद्दंसणं गया देवया इति ते छइल्ल पुरिसे लहुं च गंतूण साहियं तेहिं नरवइणो।
तओ आगओ बहु विकप्प कल्लोल मालाहि णं आऊरिज्जमाण हियय सागरो हरिस विसाय वसेहिं भीऊड्डपाया-तत्थ चकिर-हियओ सणियं गुज्झ सुरंग खडक्किया दारेणं कंपंत सव्वगत्तो महया कोऊहल्लेणं कुमार दंसणुक्कंठिओ य तमुद्देसं। दिट्ठो य तेणं सो सुगहियणामधेज्जो महायसो महासत्तो महानुभावो कुमार महरिसी, अपडिवाइ महोही पच्चएणं साहेमाणो संखाइयाइ भवाणुहूयं दुक्खसुहं सम्मत्ताइलंभं संसार सहावं कम्मबंध ट्ठिती विमोक्खमहिंसा लक्खणमणगारे वयरबंधं नरादीणं सुहनिसन्नो सोहम्माहिवई धरिओवरिपंडुरायवत्तो।
ताहे Translated Sutra: यह अवसर देखकर उस चतुर राजपुरुषने जल्द राजा के पास पहुँचकर देखा हुआ वृत्तान्त निवेदन किया। उसे सुनकर कईं विकल्प रूप तरंगमाला से पूरे होनेवाले हृदयसागरवाला हर्ष और विषाद पाने से भय सहित खड़ा हो गया। त्रास और विस्मययुक्त हृदयवाला राजा धीरे – धीरे गुप्त सुरंग के छोटे द्वार से कंपते सर्वगात्रवाले महाकौतुक से | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1511 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कहं पुन एरिसे सुलभबोही जाए महायसे सुगहिय-णामधेज्जे से णं कुमारं महरिसी गोयमा ते णं समणभावट्ठिएणं अन्न-जम्मम्मि वाया दंडे पउत्ते अहेसि, तन्निमित्तेणं जावज्जीवं मूणव्वए गुरूवएसे णं संधारिए अन्नं च तिन्नि महापावट्ठाणे संजयाणं तं जहा–आऊ तेऊ मेहुणे। एते य सव्वोवाएहिं परिवज्जए ते णं तु एरिसे सुलभबोही जाए।
अहन्नया णं गोयमा बहु सीसगण परियरिए से णं कुमारमहरिसी पत्थिए सम्मेयसेलसिहरे देहच्चाय निमित्तेणं, कालक्कमेणं तीए चेव वत्तणीए जत्थ णं से राय कुल बालियानरिंदे चक्खुकुसीले। जाणावियं च रायउले, आगओ य वंदनवत्तियाए सो इत्थी-नरिंदो उज्जानवरम्मि।
कुमार महरिसिणो Translated Sutra: हे भगवंत ! वो महायशवाले सुग्रहीत नाम धारण करनेवाले कुमार महर्षि इस तरह के सुलभबोधि किस तरह बने ? हे गौतम ! अन्य जन्म में श्रमणभाव में रहे थे तब उसने वचन दंड़ का प्रयोग किया था। उस निमित्त से जीवनभर गुरु के उपदेश से मौनव्रत धारण किया था। दूसरा संयतोने तीन महापाप स्थानक बताए हैं, वो इस प्रकार – अप्काय, अग्निकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1141 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं का उण सा रज्जज्जिया किंवा तीए अगीयत्थ-अत्त-दोसेणं वाया-मेत्तेणं पि पावं कम्मं समज्जियं, जस्स णं विवागऽयं सोऊणं नो धिइं लभेज्जा
(२) गोयमा णं इहेव भारहे वासे भद्दो नाम आयरिओ अहेसि, तस्स य पंच सए साहूणं महानुभागाणं दुवालस सए निग्गंथीणं।
(३) तत्थ य गच्छे चउत्थरसियं ओसावणं तिदंडोऽचित्तं च कढिओदगं विप्प-मोत्तूणं चउत्थं न परिभुज्जई।
(४) अन्नया रज्जा नामाए अज्जियाए पुव्वकय असुह पाव कम्मोदएण सरीरगं कुट्ठवाहीए परिसडि-ऊणं किमिएहिं सुमद्दिसिउमारद्धं।
(५) अह अन्नया परिगलंत पूइ रुहिरतणूं तं रज्जज्जियं पासिया, ताओ संजईओ भणंति। जहा हला हला दुक्करकारिगे, किमेयं Translated Sutra: हे भगवंत ! वो रज्जु आर्या कौन थी और उसने अगीतार्थपन के दोष से केवल वचन से कैसा पापकर्म उपार्जन किया कि जो विपाक सुनकर धृति न पा सके ? हे गौतम ! इसी भरतक्षेत्र में भद्र नामके आचार्य थे। उन्हें महानुभाव ऐसे पाँचसौ शिष्य और बारह सौ निर्ग्रन्थी – साध्वी थी। उस गच्छ में चौथे (आयंबिल) रसयुक्त ओसामण तीन उबालावाला हुआ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1147 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भयवं नाहं वियाणामि, लक्खणदेवी हु अज्जिया।
जा अणुकलुसमगीयत्थत्ता काउं पत्ता दुक्ख-परंपरं॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! लक्ष्मणा आर्या जो अगीतार्थ और कलुषतावाली थी और उसकी वजह से दुःख परम्परा पाई वो मैं नहीं जानता। हे गौतम ! पाँच भरत और पाँच ऐरावत् क्षेत्र के लिए उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सर्व काल में एक – एक संसार में यह अतिध्रुव चीज है। जगत् की यह स्थिति हंमेशा टिकनेवाली है। हे गौतम ! मैं हूँ उस तरह सात हाथ के प्रमाणवाली | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1233 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं सो लक्खणज्जाए जीवो गोयमा चिरं।
घन-घोर-दुक्ख-संतत्तो, चउगइ-संसार-सागरे॥ Translated Sutra: उस प्रकार लक्ष्मणा साध्वी का जीव हे गौतम ! लम्बे अरसे तक कठिन घोर दुःख भुगतते हुए चार गति रूप संसार में नारकी तिर्यंच और कुमानवपन में भ्रमण करके फिर से यहाँ श्रेणीक राजा का जीव जो आनेवाली चौबीसी में पद्मनाभ के पहले तीर्थंकर होंगे उनके तीर्थ में कुब्जिका के रूप में पैदा होगा। शरीरसीबी की खाण समान गाँव में या | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1314 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मंडवियाए भवेयव्वं दुक्कर-कारि भणित्तु णं।
नवरं एयारिसं भविया, किमत्थं गोयमा एयं पुणो तं पपुच्छसी॥ Translated Sutra: फिर से तुम्हें यह पूछे गए सवाल का प्रत्युत्तर देता हूँ कि चार ज्ञान के स्वामी, देव – असुर और जगत के जीव से पूजनीय निश्चित उस भव में ही मुक्ति पानेवाले हैं। आगे दूसरा भव नहीं होगा। तो भी अपना बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम छिपाए बिना उग्र कष्टमय घोर दुष्कर तप का वो सेवन करते हैं। तो फिर चार गति स्वरूप संसार के जन्म | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1317 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता अन्नेसु वि सत्तेसु चउगइ-संसार-घोर-दुक्ख-भीएसु, जं जहेव तित्थयरा
भणंति, तं तहेव समनुट्ठियव्वं गोयम सव्वं जहट्ठियं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३१४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1330 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दियहाइं दो व तिन्नि व अद्धाणं होइ जं तुलग्गेण।
सव्वायरेण तस्स वि संवलयं लेइ पवसंतो॥ Translated Sutra: दो, तीन दिन की बाहर गाँव की सफर करनी होती है, तो सर्वादर से मार्ग की जरुरते, खाने का भाथा आदि लेकर फिर प्रयाण करते हैं तो फिर चोराशी लाख योनिवाले संसार की चार गति की लम्बी सफर के प्रवास के लिए तपशील – स्वरूप धर्म के भाथा का चिन्तवन क्यों नहीं करता ? जैसे जैसे प्रहर, दिन, मास, साल, स्वरूप समय पसार होता है, वैसे वैसे महा | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1334 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पावो पमाय-वसओ जीवो संसार-कज्जमुज्जुत्तो।
दुक्खेहिं न निव्विन्नो सोक्खेहिं न गोयमा तिप्पे॥ Translated Sutra: प्रमादित हुए यह पापी जीव संसार के कार्य करने में अप्रमत्त होकर उद्यम करते हैं, उसे दुःख होने के बाद भी वो ऊंब नहीं जाता और हे गौतम ! उसे सुख से भी तृप्ति नहीं होती। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1339 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आवीयं थण-छीरं सागर-सलिलाओ बहुयरं होज्जा।
संसारम्मि अनंते अविला-जोणीए एक्काए॥ Translated Sutra: माता का स्तनपान करके पीया गया दूध भी समुद्र जल से काफी बढ़ जाए। इस अनन्त संसार में स्त्रीओं की कईं योनि है उसमें से केवल एक कुत्ती सात दिन पहले मर गई हो और उसकी योनि सड़ गई हो उसके बीच जो कृमि पैदा हुए हो जीव ने जो क्लेवर छोड़ा हो वो सब इकट्ठे करके सातवीं नरक पृथ्वी से लेकर सिद्धिक्षेत्र तक चौदहराज प्रमाणलोक जितना | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1347 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वच्चइ खणेण जीवो पित्ताणिल-सेंभ-धाउ-खोभेहिं।
उज्जमह, मा विसीयह, तरतम-जोगो इमो दुसहो॥ Translated Sutra: जीव के शरीर में वात, पित्त, कफ, धातु, जठराग्नि आदि के क्षोभ से पलभर में मौत होती है तो धर्म में उद्यम करो और खेद मत पाना। इस तरह के धर्म का सुन्दर योग मिलना काफी दुर्लभ है। इस संसार में जीव को पंचेन्द्रियपन, मानवपन, आर्यपन, उत्तम कुल में पैदा होना, साधु का समागम, शास्त्र का श्रवण, तीर्थंकर के वचन की श्रद्धा, आरोग्य, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1355 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न य संसारम्मि सुहं जाइ-जरा-मरण-दुक्ख-गहियस्स।
जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाए उ। Translated Sutra: जन्म, जरा और मरण के दुःख से घिरे इस जीव को संसार में सुख नहीं है, इसलिए मोक्ष ही एकान्त उपदेश – ग्रहण करने के लायक है। हे गौतम ! सर्व तरह से और सर्व भाव से मोक्ष पाने के लिए मिला हुआ मानव भव सार्थक करना। सूत्र – १३५५, १३५६ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1362 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अत्थेगे गोयमा पाणी जे पव्वज्जिय जहा तहा।
अविहीए तह चरे धम्मं जह संसारा न मुच्चए॥ Translated Sutra: हे गौतम ! ऐसे जीव भी होते हैं कि जो जैसे तैसे प्रव्रज्या अंगीकार कर के वैसी अविधि से धर्म का सेवन करते हैं कि जिससे संसार से मुक्त न हो सके। उस विधि के श्लोक कौन – से हैं ? हे गौतम ! वो विधि श्लोक इस प्रकार जानना। सूत्र – १३६२, १३६३ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1364 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाऊण सुवीसत्थो सामायारिं किया-कलावं च।
आलोइय-नीसल्लो, आगब्भा परम-संविग्गो॥ Translated Sutra: चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण, जीवादिक तत्त्व के सद्भाव की श्रद्धा, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय का दमन, तीन गुप्ति, चार कषाय का निग्रह उन सब में सावध रहना, साधुपन की सामाचारी और क्रिया – कलाप जानकर विश्वस्त होनेवाले, लगे हुए दोष की आलोचना करके शल्यरहित, गर्भावास आदि के दुःख की वजह से, काफी संवेग पानेवाला, जन्म, जरा, मरण | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1365 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जम्म-जर-मरण-भीओ चउ-गइ संसार-कम्म-दहणट्ठा।
पइदियहं हियएणं एयं अनवरय-झायंतो॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३६४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1366 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जरमरण-मयर-पउरे रोग-किलेसाइ-बहुविह-तरंगे।
कम्मट्ठ-कसाय-गाह-गहिर-भव-जलहि मज्झम्मि॥ Translated Sutra: जरा, मरण और काम की प्रचुरतावाले रोग क्लेश आदि बहुविध तरंगवाले, आँठ कर्म, चार कषायरूप भयानक जलचर से भरे गहरे भवसागर में इस मानवरूप में सम्यक्त्व ज्ञानचारित्ररूप उत्तम नाव जहाज पाकर यदि उसमें से भ्रष्ट हुआ हो तो दुःख का अन्त पाए बिना मैं पार रहित संसार सागर में लम्बे अरसे तक इधर – ऊधर भटकते पटकते भ्रमण करूँगा। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1374 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो चंदनेन बाहुं आलिंपइ वासिणा व जो तच्छे।
संथुणइ जो अ निंदइ सम-भावो हुज्ज दुण्हं पि॥ Translated Sutra: जो कोइ बावन चंदन के रस से शरीर और और बाहूँ पर विलेपन करे, या किसी बाँस से शरीर छिले, कोई उसके गुण की स्तुति करे या अवगुण की नींदा करे तो दोनो पर समान भाव रखनेवाला उस प्रकार बल, वीर्य, पुरुषार्थ पराक्रम को न छिपाते हुए, तृण और मणि, ढ़ेफा और कंचन की ओर समान मनवाला, व्रत, नियम, ज्ञान, चारित्र, तप आदि समग्र भुवन में अद्वितीय, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1375 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं अनिगूहिय बल-विरिय-पुरिसक्कार-परक्कमो, सम-तण-मणि-लिट्ठु-कंचणोवेक्को॥
परिचत्त-कलत्त-पुत्त-सुहि-सयन-मित्त-बंधव-धन-धन्न-सुवन्न-हिरन्न-मणी-रयण-सार-भंडारो॥
अच्चंत-परम-वेरग्गवासणाजणिय-पवर- सुहज्झाय-परम-धम्म-सद्धा-परो॥
अकिलिट्ठ-निक्कलुस-अदीन-मानसो य वय-नियम-नाण-चरित्त- तवाइ-सयल-भुवणेक्क-मंगल-अहिंसा-लक्खण-खंताइ-दस-विह- धम्माणुट्ठाणेक्कंत-बद्ध-लक्खो॥
सव्वावस्सग्ग-तक्काल-करण-सज्झाय-झाणं आउत्तो, संखाईय-अनेग-कसिण-संजम-पएसु अविखलिओ, संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पाव-कम्मो, अनियाणो माया-मोस-विवज्जिओ, साहू वा साहूणी वा एवं गुण-कलिओ, जइ कह वि पमाय -दोसेणं असइं कहिंचि कत्थइ Translated Sutra: देखो सूत्र १३७४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1379 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं तं बितियं पायच्छित्तस्सणं पयं गोयमा बीयं तइयं चउत्थं पंचमं जाव णं संखाइयाइं पच्छित्तस्स णं पयाइं ताव णं एत्थं च एव पढम पच्छित्त पए अंतरोवगायाइं समनुविंदा।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ गोयमा जओ णं सव्वावस्सग्ग-कालाणुपेही भिक्खू णं रोद्दट्टज्झाण राग दोस कसाय गारव ममाकाराइसुं णं अनेग पमायालंबणेसु सव्व भाव भावतरंतरेहि णं अच्चंत विप्पमुक्को भवेज्जा।
केवलं तु नाण दंसण चारित्त तवोकम्म सज्झायज्झाण सद्धम्मावस्सगेसु अच्चंतं अनिगूहिय बल वीरिय परक्कमे सम्मं अभिरमेज्जा। जाव णं सद्धम्मावस्सगेसुं अभिरमेज्जा, ताव णं सुसंवुडासवदारे हवेज्जा। जाव Translated Sutra: हे भगवंत ! प्रायश्चित्त का दूसरा पद क्या है ? हे गौतम ! दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा यावत् संख्यातीत प्रायश्चित्त पद स्थान को यहाँ प्रथम प्रायश्चित्त पद के भीतर अंतर्गत् रहे समझना। हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से आप कहते हो ? हे गौतम ! सर्व आवश्यक के समय का सावधानी से उपयोग रखनेवाले भिक्षु रौद्र – आर्तध्यान, राग, द्वेष, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1390 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जया णं से सीसे जहुत्त संजम किरियाए पवट्टंति तहाविहे य केई कुगुरू तेसिं दिक्खं परूवेज्जा, तया णं सीसा किं समनुट्ठेज्जा गोयमा घोर वीर तव संजमे से भयवं कहं गोयमा अन्न गच्छे पविसित्ताणं। से भयवं जया णं तस्स संतिएणं सिरिगारेणं विम्हिए समाणे अन्नगच्छेसुं पवेसमेव न लभेज्जा, तया णं किं कुव्विज्जा गोयमा सव्व-पयारेहिं णं तं तस्स संतियं सिरियारं फुसावेज्जा।
से भयवं केणं पयारेणं तं तस्स संतियं सिरियारं सव्व पयारेहि णं फुसियं हवेज्जा गोयमा अक्खरेसुं से भयवं किं णामे ते अक्खरे गोयमा जहा णं अप्पडिग्गाही कालकालंतरेसुं पि अहं इमस्स सीसाणं वा सीसिणीगाणं वा। से भयवं Translated Sutra: हे भगवंत ! जब शिष्य यथोक्त संयमक्रिया में व्यवहार करता हो तब कुछ कुगुरु उस अच्छे शिष्य के पास उनकी दीक्षा प्ररूपे तब शिष्य का कौन – सा कर्तव्य उचित माना जाता है ? हे गौतम ! घोर वीर तप का संयम करना। हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम ! अन्य गच्छ में प्रवेश करके। हे भगवंत ! उसके सम्बन्धी स्वामीत्व की फारगति दिए बिना दूसरे गच्छ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1404 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिचिच्चाणं तयं कम्मं घोर-संसार-दुक्खदं।
मणो-वइ-काय-किरियाहिं सीलभारं धरेमि अहं॥ Translated Sutra: हम जैसों की शुद्धि कैसे होगी ? घोर संसार के दुःख देनेवाले वैसे पापकर्म का त्याग करके मन, वचन, काया की क्रिया से शील के बोझ मैं धारण करूँगा। जिस तरह सारे भगवंत, केवली, तीर्थंकर, चारित्रयुक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु और फिर जिस तरह से पाँच लोकपाल, जो जीव धर्म के परीचित हैं, उनके समक्ष मैं तल जितना भी पाप नहीं छिपाऊंगा। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1412 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता इहइं चेव सव्वं पि निय-दुच्चरियं जह-ट्ठियं।
आलोएत्ता निंदित्ता गरहित्ता पायच्छित्तं चरित्तु णं॥ Translated Sutra: तो उसके बदले यही मेरा समग्र दुश्चरित्र का जिस प्रकार मैंने सेवन किया हो उसके अनुसार प्रकट करके गुरु के पास आलोचना करके निन्दना करके, गर्हणा करके, प्रायश्चित्त का सेवन करके, धीर – वीर – पराक्रमवाला घोर तप करके संसार के दुःख देनेवाले पापकर्म को जलाकर भस्म कर दूँ। सूत्र – १४१२, १४१३ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1413 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निद्दहेमि पावयं कम्मं झत्ति संसार-दुक्खयं।
अब्भुट्ठित्ता तवं घोरं-धीर-वीर-परक्कमं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४१२ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1419 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हंद्धी हा अहन्नो हं पावो पाव-मती अहं।
पाविट्ठो पाव-कम्मो हं पावाहमायरो अहं॥ Translated Sutra: अहाहा, मुझे धिक्कार है। वाकइ मैं अधन्य हूँ। मैं पापी और पाप मतिवाला हूँ। पापकर्म करनेवाला पापिष्ठ हूँ। मैं अधमाधम महापापी हूँ। मैं कुशील, भ्रष्ट चारित्रवाला, भिल्ल और कसाई की उपमा देने के लायक हूँ। मैं चंड़ाल, कृपारहित पापी, क्रूर कर्म करनेवाला, निन्द्य हूँ। इस तरह का दुर्लभ चरित्र प्राप्त करके ज्ञान, दर्शन | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1422 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता निच्छयं अणुत्तारे घोरे संसार-सागरे।
निब्बुड्डो भव-कोडीहिं समुत्तरंतो न वा पुणो॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४१९ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1475 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आलोइय-निंदिय-गरहिओ वि कय-पायच्छित्त नीसल्लो।
छाइक्कमे न रक्खे जो कत्थ सुद्धिं लभेज्ज सो॥ Translated Sutra: आलोचना, निन्दा, गर्हणा करके प्रायश्चित्त करके निःशल्य भिक्षु पहली छ प्रतिज्ञा की रक्षा न करे तो फिर उसमें भयानक परीणामवाले जो अप्रशस्त भाव सहित अतिक्रम किया हो, मृषावाद, विरमण नाम के दूसरे महाव्रत में तीव्र राग या द्वेष से निष्ठुर, कठिन, कड़े, कर्कश वचन बोलकर महाव्रत का उल्लंघन किया हो, तीसरे अदत्तादान विरमण | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1483 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भयवं को उण सो सुसढो कयरा वा सा जयणा जं अजाणमाणस्स णं तस्स आलोइय-निंदिय गरहिओ वि कय-पायच्छित्तस्सा वि संसारं नो विणिट्ठियं ति। गोयमा जयणा नाम अट्ठारसण्हं सीलंग सहस्साणं सत्तरसविहस्स णं संजमस्स चोद्दसण्हं भूयगामाणं तेरसण्हं किरियाठाणाणं सबज्झ-ब्भंतरस्स णं दुवालस-विहस्स णं तवोणुट्ठाणस्स दुवालसाणं, भिक्खू-पडिमाणं, दसविहस्स णं समणधम्मस्स, णवण्हं चेव बंभगुत्तीणं, अट्ठण्हं तु पवयण-माईणं, सत्तण्हं चेव पाणपिंडेसणाणं, छण्हं तु जीवनिकायाणं, पंचण्हं तु महव्वयाणं, तिण्हं तु चेव गुत्तीणं।
... जाव णं तिण्हमेव सम्मद्दंसण-नाण-चरित्ताणं तिण्हं तु भिक्खू कंतार-दुब्भिक्खायंकाईसु Translated Sutra: हे भगवंत ! वो सुसढ़ कौन था ? वो जयणा किस तरह की थी या अज्ञानता की वजह से आलोचना, निन्दना, गर्हणा प्रायश्चित्त सेवन करने के बावजूद उसका संसार नष्ट नहीं हुआ ? हे गौतम ! जयणा उसे कहते हैं कि जो अठ्ठारह हजार शील के अंग, सत्तरह तरह का संयम, चौदह तरह के जीव का भेद, तेरह क्रिया स्थानक, बाह्य अभ्यंतर – भेदवाले बारह तरह के तप, अनुष्ठान, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1484 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ ते णं काले णं ते णं समएणं सुसढणामधेज्जे अनगारे हभूयवं। तेणं च एगेगस्स णं पक्खस्संतो पभूय-ट्ठाणिओ आलोयणाओ विदिन्नाओ सुमहंताइं च। अच्चंत घोर सुदुक्कराइं पायच्छित्ताइं समनुचिन्नाइं। तहा वि तेणं विरएणं विसोहिपयं न समुवलद्धं ति एतेणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ।
से भयवं केरिसा उ णं तस्स सुसढस्स वत्तव्वया गोयमा अत्थि इहं चेव भारहेवासे, अवंती नाम जनवओ। तत्थ य संबुक्के नामं खेडगे। तम्मि य जम्मदरिद्दे निम्मेरे निक्किवे किविणे निरणुकंपे अइकूरे निक्कलुणे णित्तिंसे रोद्दे चंडरोद्दे पयंडदंडे पावे अभिग्गहिय मिच्छादिट्ठी अणुच्चरिय नामधेज्जे Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा ? उस समय में उस समय यहाँ सुसढ़ नाम का एक अनगार था। उसने एक – एक पक्ष के भीतर कईं असंयम स्थानक की आलोचना दी और काफी महान घोर दुष्कर प्रायश्चित्त का सेवन किया। तो भी उस बेचारे को विशुद्धि प्राप्त नहीं हुई। इस कारण से ऐसा कहा। हे भगवंत ! उस सुसढ़ की वक्तव्यता किस तरह की है ? हे गौतम ! इस भारत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1488 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूएसु जंगमत्तं, तेसु वि पंचेंदियत्तमुक्कोसं।
तेसु वि य मानुसत्तं, मनुयत्ते आरिओ देसो॥ Translated Sutra: जीव में त्रसपन, त्रसपन में भी पंचेन्द्रियपन उत्कृष्ट है। पंचेन्द्रियपन में भी मानवपन उत्तम है। उसमें आर्यदेश, आर्यदेश में उत्तमकुल, उत्तमकुल में उत्कृष्ट जाति – ज्ञाति और फिर उसमें रूप की समृद्धि उसमें भी प्रधानतावाली शक्ति, प्रधानबल मिलने के साथ – साथ लम्बी आयु, उसमें भी विज्ञान – विवेक, विज्ञान में भी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1492 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ण य संसारम्मि सुहं जाइ-जरा-मरण-दुक्ख-गहियस्स।
जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाओ उ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४८८ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1494 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता एत्थ जं न पत्तं तदत्थ भो उज्जमं कुणह तुरियं।
विबुह-जण-णिंदियमिणं उज्झह संसार-अणुबंधं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४८८ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: हे भगवंत ! उस ब्राह्मणीने ऐसा तो क्या किया कि जिससे इस प्रकार सुलभ बोधि पाकर सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक बनी और फिर उसके उपदेश से कईं भव्य जीव नर – नारी कि जो अनन्त संसार के घोर दुःख में सड़ रहे थे उन्हें सुन्दर धर्मदेश आदि के द्वारा शाश्वत सुख देकर उद्धार किया। हे गौतम ! उसने पूर्वभव में कईं सुन्दर भावना सहित | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1513 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केई सामन्नमब्भुट्ठेज्जा से णं एक्काइ जाव णं सत्त अट्ठ भवंतरेसु नियमेण सिज्झेज्जा ता किमेयं अनूनाहियं लक्ख भवंतर परियडणं ति, गोयमा जे णं केई निरइयारे सामन्ने निव्वाहेज्जा से णं नियमेणं एक्काइ जाव णं अट्ठ-भवंतरेसुं सिज्झे। जे उ णं सुहुमे बायरे केई मायासल्ले वा आउकाय परिभोगे वा, तेउकायपरिभोगे वा, मेहुण कज्जे वा, अन्नयरे वा, केई आणाभंगे काऊणं सामन्नमइयरेज्जा से णं जं लक्खेण भवग्गहणेणं सिज्झे, तं महइ लाभे, जओ णं सामन्नमइयरित्ता बोहिं पि लभेज्जा दुक्खेणं। एसा सा गोयमा तेणं माहणी जीवेणं माया कया। जीए य एद्दहमेत्ताए वि एरिसे पावे दारुणे विवागि त्त Translated Sutra: हे भगवंत ! जो किसी श्रमणपन का उद्यम करे वो एक आदि सात – आँठ भव में यकीनन सिद्धि पाए तो फिर इस श्रमणी को क्यों कम या अधिक नहीं ऐसे लाख भव तक संसार में भ्रमण करना पड़ा ? हे गौतम ! जो किसी निरतिचार श्रमणपन निर्वाह करे वो यकीनन एक से लेकर आँठ भव तक सिद्धि पाता है। जो किसी सूक्ष्म या बादर जो किसी माया शल्यवाले हो, अप्काय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1525 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आलोइय निंदियगरहिए णं कय पायच्छित्ते वि भवित्ताणं।
जयणं अयाणमाणे भमिही सुइरं तु संसारे॥ Translated Sutra: आलोचना, निन्दा, गर्हा, प्रायश्चित्त करने के बावजूद भी जयणा का अनजान होने से दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करेगा। हे भगवंत ! कौन – सी जयणा उसने न पहचानी कि जिससे उस प्रकार के दुष्कर काय – क्लेश करके भी उस प्रकार के लम्बे अरसे तक संसार में भ्रमण करेगा ? हे गौतम ! जयणा उसे कहते हैं कि अठ्ठारह हजार शील के सम्पूर्ण अंग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1526 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयराओ य तेणं जयणा न विन्नाया, जओ णं तं तारिसं सुदुक्करं कायकेसं काऊणं पि तहा वि णं भमिहिइ सुइरं तु संसारे गोयमा जयणा णाम अट्ठारसण्हं सीलंग सहस्साणं संपुन्नाणं अखंडिय विराहियाणं जावज्जीव महण्णि-साणुसमयं धारणं कसिणं संजम किरियं अनुमन्नंति। तं च तेण न विण्णायंति। ते णं तु से अहन्ने भमिहिइ सुइरं तु संसारे।
से भयवं केणं अट्ठेणं तं च तेणं न विण्णायंति गोयमा ते णं जावइए कायकेसे कए तावइयस्स अद्ध भागेणेव जइ से बाहिर पाणगं विवज्जंते ता सिद्धीए मनुवयंते नवरं तु तेण बाहिर पाणगे परिभुत्ते बाहिरपाणग परिभोइस्स णं गोयमा बहूए वि कायकेसे णिरत्थगे हवेज्जा। जओ णं गोयमा Translated Sutra: देखो सूत्र १५२५ | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Gujarati | 431 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गोयमा भट्ठ-सीलाणं दुत्तरे संसार-सागरे।
धुवं तमनुकंपित्ता पायच्छित्ते पदरिसिए॥ Translated Sutra: ગૌતમ ! શીલભ્રષ્ટોને સંસાર સાગર તરવો ઘણો મુશ્કેલ છે. માટે અવશ્ય તેમની અનુકંપા કરી તેને પ્રાયશ્ચિત્ત અપાય છે. | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Gujarati | 433 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गोयमा जे समज्जेज्जा अनंत-संसारियत्तणं।
पच्छित्तेणं धुवं तं पि छिंदे, किं पुणो नरयाउयं॥ Translated Sutra: ગૌતમ ! જેમણે અનંત સંસાર ઉપાર્જન કરેલો છે, એવા આત્મા નક્કી પ્રાયશ્ચિત્તથી તેનો નાશ કરે છે. તો નરકાયુ કેમ ન તોડે ? પ્રાયશ્ચિત્તથી કશું અસાધ્ય નથી, સિવાય બોધિલાભ. કેમ કે એક વખત બોધિલાભ હારી જાય તો ફરી મળવો મુશ્કેલ છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૪૩૩, ૪૩૪ |