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Search Results (1351)

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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग)

4. परम्परा-मुक्ति Hindi 40 View Detail
Mool Sutra: विगिंच कम्मुणो हेउं, जसं संचिणु खंतिए। पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ।।

Translated Sutra: धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु (मिथ्यात्व, अविरति) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। (काल पूर्ण होने पर वहाँ से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

15. बोधि-दुर्लभ भावना Hindi 112 View Detail
Mool Sutra: माणुस्सं विग्गहं लद्धुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिमहिंसयं ।।

Translated Sutra: (चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कषाय-विजय व अहिंसादि युक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

4. कषाय-निग्रह Hindi 123 View Detail
Mool Sutra: कोहस्स व माणस्स व, मायालोभेसु वा न एएसिं। वच्चइ वसं खणंपि हु, दुग्गइगइवड्ढणकराणं ।।

Translated Sutra: दुर्गति की वृद्धि करनेवाले क्रोध मान माया व लोभ इन चारों के वश, एक क्षण के लिए भी न हो।
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

6. समता-सूत्र (स्थितप्रज्ञता) Hindi 127 View Detail
Mool Sutra: लाहालाहे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो णिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ।।

Translated Sutra: लाभ व अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरण में, निन्दा व प्रशंसा में तथा मान व अपमान में भिक्षु सदा समता रखे। (यही साधु का सामायिक नामक चारित्र है।)
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

8. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) Hindi 135 View Detail
Mool Sutra: सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छेलणापहोअस्स, दुल्लहा सु गई तारिसगस्स ।।

Translated Sutra: जो श्रमण केवल अपने शरीर के सुखों का ही स्वादिया है, और उन सुखों के लिए सदा आकुल-व्याकुल रहता है, खूब खा पीकर सो जाता है और सदा हाथ-पाँव आदि धोने में ही लगा रहता है, उसे सुगति दुर्लभ है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

3. विविक्त देश-सेवित्व Hindi 210 View Detail
Mool Sutra: लोइयजणसंगादो, होइ मइमुहरकुडिलदुब्भावो। लोइयसंगं तम्हा, जोइ वि तिविहेण मुंचाओ ।।

Translated Sutra: लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाला वतक्कड़, कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से प्रायः अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए, मुमुक्षु जनों को मन वचन काय से लौकिक संगति का त्याग कर देना चाहिए।
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग)

3. अन्त मति सो गति Hindi 239 View Detail
Mool Sutra: जो जाए परिणिमित्ता, लेस्साए संजुदो कुणइ कालं। तल्लेस्सो उववज्जइ, तल्लेस्से चैव सो सग्गे ।।

Translated Sutra: जो व्यक्ति जिस लेश्या या परिणाम से युक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, वह अगले भव में उस लेश्या के साथ उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 256 View Detail
Mool Sutra: एया वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदुं, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।।

Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

13. उत्तम त्याग Hindi 281 View Detail
Mool Sutra: णिव्वेगतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवेच्चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ।।

Translated Sutra: जो जीव पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन हो जाता है, उसको त्यागधर्म होता है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

2. जीव द्रव्य (आत्मा) Hindi 291 View Detail
Mool Sutra: सव्वे सरा नियट्टंति, तक्का तत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने ।।

Translated Sutra: (शास्त्र केवल मनुष्यादिक व्यवहारिक जीवों का ही विस्तार करने वाले हैं। इन सर्व विकल्पों से अतीत) मुक्तात्मा का स्वरूप बतलाने में सभी शब्द निवृत्त हो जाते हैं, तर्क वहाँ तक पहुँच नहीं पाता, और बुद्धि की उसमें गति नहीं। वह मात्र चिज्ज्योति स्वरूप है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य Hindi 305 View Detail
Mool Sutra: ण य गच्छदि धम्मत्थो, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ।।

Translated Sutra: धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलता है और न जीव पुद्गलों को जबरदस्ती चलाता है। वह इनकी गति के लिए प्रवर्तक या निमित्त मात्र है। (इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को निमित्त मात्र ही समझना चाहिए।)
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य Hindi 306 View Detail
Mool Sutra: जादो अलोगलोगो, जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी। दो वि य मया विभत्ता, अविभत्ता लोयमेत्ता य ।।

Translated Sutra: वास्तव में देखा जाये तो इन दो द्रव्यों के कारण ही एक अखण्ड आकाश में पूर्वोक्त लोक व अलोक विभाग उत्पन्न हो गये हैं। ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण हैं, और एक क्षेत्रावगाही हैं। परन्तु अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा दोनों की सत्ता जुदी-जुदी है। एक का स्वरूप या लक्षण गति हेतुत्व है और दूसरे का स्थिति हेतुत्व।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) Hindi 327 View Detail
Mool Sutra: मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ, णाणिय ताइँ भणंति। जीवहं रज्जइँ देवि लहु, दुक्खइँ जाइँ जणंति ।।

Translated Sutra: और फिर वह (पापानुबन्धी) पुण्य भी किसी काम का नहीं, जो उसे राज्य-सुख देकर उसमें आसक्ति उत्पन्न करा देता है, जिसके कारण (पुण्य क्षीण हो जाने पर) शीघ्र ही वह नरक आदि गतियों के दुःखों को प्राप्त हो जाता है। [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य सर्वत्र व सर्वदा इसी प्रकार तिरस्कार के योग्य है :]
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) Hindi 329 View Detail
Mool Sutra: एएहिं पंचहिं असंवरेहिं, रयमादिणित्तु अणुसमयं। चउविह गति पेरंतं, अणुपरियट्टंति संसारं ।।

Translated Sutra: हिंसा असत्य आदि पाँच प्रधान असंवर या आस्रवद्वार हैं। इनसे प्रति समय अनुरंजित रहने के कारण जीव नित्य ही कर्म-रज का संचय करके चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता रहता है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) Hindi 337 View Detail
Mool Sutra: लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के। गइपुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार मिट्टी का लेप धुल जाने पर तूम्बी स्वतः जल के ऊपर आ जाती है, जिस प्रकार एरण्ड का बीज गर्मी के दिनों में चटखकर स्वयं ऊपर की ओर जाता है, जिस प्रकार अग्नि की शिखा तथा धूम का स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन होता है और जिस प्रकार धनुष्य से छूटे हुए बाण का पूर्व प्रयोग के कारण ऊपर की ओर गमन होता है, उसी प्रकार पूर्व प्रयोगवश
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14. सृष्टि-व्यवस्था

3. कर्म-कारणवाद Hindi 356 View Detail
Mool Sutra: जो खलु संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी ।।

Translated Sutra: संसार स्थित जीव को पूर्व-संस्कारवश स्वयं राग द्वेषादि परिणाम होते हैं। परिणामों के निमित्त से कर्म और कर्मों के निमित्त से चारों गतियों में गमन होना स्वाभाविक है। गति प्राप्त हो जाने पर देह, तथा देह के होने पर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, तथा उससे पुनः राग-द्वेष का होना स्वाभाविक
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

3. वस्तु की जटिलता Hindi 371 View Detail
Mool Sutra: वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे, तत्त्वं वागतिशायि यत्। द्वादशांगबाह्यं वा, श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ।।

Translated Sutra: तत्त्व वास्तव में वचनातीत है। द्वादशांग वाणी अथवा अंगबाह्य रूप विशाल आगम केवल स्थूल व व्यावहारिक पदार्थों को ही विषय करता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

3. एक गम्भीर पहेली Hindi 6 View Detail
Mool Sutra: हा! यथा मोहितमतिना, सुगति-मार्गमजानता। भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयङ्करे ।।

Translated Sutra: हा! मोक्षमार्ग अर्थात् धर्म को नहीं जानता हुआ, यह मोहितमति जीव अनादिकाल से इस भयंकर तथा भीम भव-वन में भटक रहा है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

6. दुःख-हेतु-कर्म Hindi 11 View Detail
Mool Sutra: यदिदं जगति पृथक् जनाः, कर्मभिर्लुप्यन्ते प्राणिनः। स्वयमेव कृतैर्गाहन्ते, नो तस्य मुच्येतास्पृष्टः ।।

Translated Sutra: इस संसार के समस्त प्राणी अपने ही कर्मों के द्वारा दुःखी हो रहे हैं। अन्य कोई भी सुख या दुःख देनेवाला नहीं है। कर्मों का फल भोगे बिना इनसे छुटकारा सम्भव नहीं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग)

4. परम्परा-मुक्ति Hindi 40 View Detail
Mool Sutra: विविग्धि कर्मणो हेतुं, यशः संचिनु क्षान्त्या। पार्थिवं शरीरं हित्वा, ऊर्ध्वां प्रक्रामति दिशम् ।।

Translated Sutra: धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु (मिथ्यात्व, अविरति) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। (काल पूर्ण होने पर वहाँ से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

5. निश्चय व्यवहार ज्ञान-समन्वय Hindi 90 View Detail
Mool Sutra: सूत्रमर्थनिमेणं न सूत्रमात्रेणार्थप्रतिपत्तिः। अर्थगतिः पुनः नयवादग्रहणलीना दुरभिगम्या ।।

Translated Sutra: इसमें सन्देह नहीं कि सूत्र (शास्त्र) अर्थ का स्थान है, परन्तु मात्र सूत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती। अर्थ का ज्ञान विचारणा व तर्कपूर्ण गहन नयवाद पर अवलम्बित होने के कारण दुर्लभ है। अतः सूत्र का ज्ञाता अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न करे, क्योंकि अकुशल एवं धृष्ट आचार्य (शास्त्र को पक्ष-पोषण का तथा शास्त्रज्ञान
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

15. बोधि-दुर्लभ भावना Hindi 112 View Detail
Mool Sutra: मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ।।

Translated Sutra: (चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कषाय-विजय व अहिंसादि युक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

4. कषाय-निग्रह Hindi 123 View Detail
Mool Sutra: क्रोधस्य च मानस्य च, माया लोभयोश्च नैतेषां। व्रजति वशं क्षणमपि दुर्गतिगतिवर्द्धनकराणाम् ।।

Translated Sutra: दुर्गति की वृद्धि करनेवाले क्रोध मान माया व लोभ इन चारों के वश, एक क्षण के लिए भी न हो।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

6. समता-सूत्र (स्थितप्रज्ञता) Hindi 127 View Detail
Mool Sutra: लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा। समः निन्दाप्रशंसयोः, तथा मानापमानयोः ।।

Translated Sutra: लाभ व अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरण में, निन्दा व प्रशंसा में तथा मान व अपमान में भिक्षु सदा समता रखे। (यही साधु का सामायिक नामक चारित्र है।)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

8. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) Hindi 135 View Detail
Mool Sutra: सुखस्वादकस्य श्रमणस्य, साताकुलस्य निकामशायिनः। उत्क्षालनाप्रधाविनः, दुर्लभा सुगतिस्तादृशस्य ।।

Translated Sutra: जो श्रमण केवल अपने शरीर के सुखों का ही स्वादिया है, और उन सुखों के लिए सदा आकुल-व्याकुल रहता है, खूब खा पीकर सो जाता है और सदा हाथ-पाँव आदि धोने में ही लगा रहता है, उसे सुगति दुर्लभ है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

3. विविक्त देश-सेवित्व Hindi 210 View Detail
Mool Sutra: लौकिकजनसंसर्गात्, भवति मतिमुखर-कुटिलदुर्भावः। लौकिकसंसर्गं तस्मात्, योगी अपि त्रिविधेन मुंचेत् ।।

Translated Sutra: लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाला वतक्कड़, कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से प्रायः अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए, मुमुक्षु जनों को मन वचन काय से लौकिक संगति का त्याग कर देना चाहिए।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

6. विनय तप Hindi 218 View Detail
Mool Sutra: दर्शनज्ञाने विनयश्चारित्रतप औपचारिको विनयः। पंचविधः खलु विनयः, पंचमगतिनायको भणितः ।।

Translated Sutra: विनय पाँच प्रकार की होती है-दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय चारित्र-विनय, तप-विनय और उपचार-विनय। [तहाँ दर्शन आदि पारमार्थिक गुणों के प्रति बहुमान का होना प्रधान, निश्चय या मौलिक विनय है। गुरुजनों, गुणीजनों व वृद्धजनों के प्रति यथायोग्य विनय का होना उसकी साधनभूत उपचार या व्यवहार-विनय है।]
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग)

3. अन्त मति सो गति Hindi 239 View Detail
Mool Sutra: यो यया परिनिमित्तात्, लेश्यया संयुक्तः करोति कालम्। तल्लेश्यः उपजायते, तल्लेश्ये चैव सः स्वर्गे ।।

Translated Sutra: जो व्यक्ति जिस लेश्या या परिणाम से युक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, वह अगले भव में उस लेश्या के साथ उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 256 View Detail
Mool Sutra: एकापि सा समर्था, जिनभक्तिः दुर्गतिं निवारयितुम्। पुण्यान्यपि पूरयितुं, आसिद्धिः परम्परासुखानाम् ।।

Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

2. जीव द्रव्य (आत्मा) Hindi 291 View Detail
Mool Sutra: सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते। मतिस्तत्र न ग्राहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः ।।

Translated Sutra: (शास्त्र केवल मनुष्यादिक व्यवहारिक जीवों का ही विस्तार करने वाले हैं। इन सर्व विकल्पों से अतीत) मुक्तात्मा का स्वरूप बतलाने में सभी शब्द निवृत्त हो जाते हैं, तर्क वहाँ तक पहुँच नहीं पाता, और बुद्धि की उसमें गति नहीं। वह मात्र चिज्ज्योति स्वरूप है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य Hindi 305 View Detail
Mool Sutra: न च गच्छति धर्मास्तिको, गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य। भवति गतेः स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च ।।

Translated Sutra: धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलता है और न जीव पुद्गलों को जबरदस्ती चलाता है। वह इनकी गति के लिए प्रवर्तक या निमित्त मात्र है। (इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को निमित्त मात्र ही समझना चाहिए।)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य Hindi 306 View Detail
Mool Sutra: जातमलोकलोकं, ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती। द्वावपि च मतौ विभक्ता-वविभक्तौ लोकमात्रौ च ।।

Translated Sutra: वास्तव में देखा जाये तो इन दो द्रव्यों के कारण ही एक अखण्ड आकाश में पूर्वोक्त लोक व अलोक विभाग उत्पन्न हो गये हैं। ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण हैं, और एक क्षेत्रावगाही हैं। परन्तु अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा दोनों की सत्ता जुदी-जुदी है। एक का स्वरूप या लक्षण गति हेतुत्व है और दूसरे का स्थिति हेतुत्व।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

13. तत्त्वार्थ अधिकार

5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) Hindi 327 View Detail
Mool Sutra: मा पुनः पुण्यानि भद्राणि, ज्ञानिनः तानि भणन्ति। जीवस्य राज्यानि दत्वा लघु, दुःखानि यानि जनयन्ति ।।

Translated Sutra: और फिर वह (पापानुबन्धी) पुण्य भी किसी काम का नहीं, जो उसे राज्य-सुख देकर उसमें आसक्ति उत्पन्न करा देता है, जिसके कारण (पुण्य क्षीण हो जाने पर) शीघ्र ही वह नरक आदि गतियों के दुःखों को प्राप्त हो जाता है। [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य सर्वत्र व सर्वदा इसी प्रकार तिरस्कार के योग्य है :]
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

13. तत्त्वार्थ अधिकार

6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) Hindi 329 View Detail
Mool Sutra: एतेः तंचभिरसंवरैः, रजमाचित्याऽनुसमयम्। चतुर्विधगतिपर्यन्त-मनुपरिवर्तन्ते संसारम् ।।

Translated Sutra: हिंसा असत्य आदि पाँच प्रधान असंवर या आस्रवद्वार हैं। इनसे प्रति समय अनुरंजित रहने के कारण जीव नित्य ही कर्म-रज का संचय करके चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता रहता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

13. तत्त्वार्थ अधिकार

8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) Hindi 337 View Detail
Mool Sutra: अलाबु च ऐरण्डफलमग्निर्धूमश्चेषुर्धनुविप्रमुक्तः। गतिः पूर्वप्रयोगेणैवं सिद्धानामपि गतिस्तु ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार मिट्टी का लेप धुल जाने पर तूम्बी स्वतः जल के ऊपर आ जाती है, जिस प्रकार एरण्ड का बीज गर्मी के दिनों में चटखकर स्वयं ऊपर की ओर जाता है, जिस प्रकार अग्नि की शिखा तथा धूम का स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन होता है और जिस प्रकार धनुष्य से छूटे हुए बाण का पूर्व प्रयोग के कारण ऊपर की ओर गमन होता है, उसी प्रकार पूर्व प्रयोगवश
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

14. सृष्टि-व्यवस्था

3. कर्म-कारणवाद Hindi 356 View Detail
Mool Sutra: यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः। परिणामात्कर्मं कर्मणो भवति गतिषु गतिः ।।

Translated Sutra: संसार स्थित जीव को पूर्व-संस्कारवश स्वयं राग द्वेषादि परिणाम होते हैं। परिणामों के निमित्त से कर्म और कर्मों के निमित्त से चारों गतियों में गमन होना स्वाभाविक है। गति प्राप्त हो जाने पर देह, तथा देह के होने पर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, तथा उससे पुनः राग-द्वेष का होना स्वाभाविक
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

14. सृष्टि-व्यवस्था

3. कर्म-कारणवाद Hindi 357 View Detail
Mool Sutra: गतिमधिगतस्य देहो, देहादिन्द्रियाणि जायन्ते। तैस्तु विषयग्रहणं, ततो रागो वा द्वेषो वा ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ३५६; संदर्भ ३५६-३५८
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

3. वस्तु की जटिलता Hindi 371 View Detail
Mool Sutra: वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे, तत्त्वं वागतिशायि यत्। द्वादशांगबाह्यं वा, श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ।।

Translated Sutra: तत्त्व वास्तव में वचनातीत है। द्वादशांग वाणी अथवा अंगबाह्य रूप विशाल आगम केवल स्थूल व व्यावहारिक पदार्थों को ही विषय करता है।
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 49 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! । तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! काले भविस्सई

Translated Sutra: गौतम ! पंचम आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – दुःषमा नामक छठ्ठा आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, समपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। भगवन्‌ ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 53 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! बहुसम-रमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव नानाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहि य उवसोभिए, तं जहा–कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। तीसे णं भंते! समाए मनुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! तेसिं णं मनुयाणं छव्विहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, बहूईओ रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउयं पालेहिंति, पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी, अप्पेगइया तिरिय-गामी, अप्पेगइया मनुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, न सिज्झंति। तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं

Translated Sutra: उत्सर्पिणी काल के दुःषमा नामक द्वितीय आरक में भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम ! उनका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा। उस समय मनुष्यों का आकार – प्रकार कैसा होगा ? गौतम ! उस मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होंगे। उनकी ऊंचाई सात हाथ की होगी। उनका जघन्य अन्त – मुहूर्त्त का तथा उत्कृष्ट कुछ
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ३ भरतचक्री

Hindi 55 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं विनीयाए रायहानीए भरहे नामं राया चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था–महयाहिमवंत महंत मलय मंदर महिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ। बिइओ गमो रायवण्णगस्स इमो–तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उपज्जए जसंसो उत्तमे अभिजाए सत्त-वीरियपरक्कमगुणे पसत्थवण्ण सर सार संघयण बुद्धि धारण मेहा संठाण सील प्पगई पहाणगारवच्छायागइए अनेगवयणप्पहाणे तेय आउ बल वीरियजुत्ते अझुसिरघननिचिय-लोहसंकल नारायवइरउसहसंघयणदेहधारी झस-जुग भिंगार वद्धमाणग भद्दासण संख छत्त वीयणि पडाग चक्क नंगल मुसल रह सोत्थिय अंकुस चंदाइच्च अग्गि जूव सागर इंदज्झय पुहवि पउम कुंजर सीहासन दंड कुम्भ गिरिवर तुरगवर

Translated Sutra: विनीता राजधानी में भरत चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ। वह महाहिमवान्‌ पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह राजा भरत राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम इस प्रकार है – वहाँ असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, उत्तम,
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वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक

Hindi 229 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए दिव्वं जिणिंदाभिगमनजोग्गं सव्वालंकारविभूसियं उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता अट्ठहिं अग्ग-महिसीहिं सपरिवाराहिं नट्टाणीएणं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमानं अनुप्पयाहिणीकरेमाणे-अनुप्पयाहिणीकरेमाणे पुव्विल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव सीहासने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने। एवं चेव सामानियावि उत्तरेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहित्ता पत्तेयं-पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति। अवसेसा देवा य देवीओ

Translated Sutra: पालक देव द्वारा दिव्य यान की रचना को सुनकर शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान्‌ के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्यानीक, गन्धर्वानीक के साथ उस यान – विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से –
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र

Hindi 12 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे भरहे नामं वासे पन्नत्ते? गोयमा! वेयड्ढस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुद्दस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धभरहे नामं वासे पन्नत्ते– पाईणपडीणायए उदीण-दाहिणविच्छिन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए तिहा लवणसमुद्दं पुट्ठे, गंगासिंधूहिं महानईहिं तिभागपविभत्ते दोन्नि अट्ठतीसे जोयणसए तिन्नि य एगूनवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुद्दं पुट्ठा– पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवणसमुद्दं पुट्ठा,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! वैताढ्यपर्वत के दक्षिण में, दक्षिण – लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्व – लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिम – लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत है। वह पूर्व – पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर – दक्षिण में चौड़ा है। यह अर्द्ध – चन्द्र – संस्थान
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वक्षस्कार २ काळ

Hindi 37 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे बासे गेहाइ वा गेहावनाइय वा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे, रुक्खगेहालया णं ते मनुया पन्नत्ता समणाउसो!। अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा नगराइ वा निगमाइ वा रायहानीइ वा खेडाइ वा कब्बडाइ वा मडंबाइ वा दोणमुहाइ वा पट्टणाइ वा आगराइ वा आसमाइ वा संबाहाइ वा सन्निवेसाइ वा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे, जहिच्छियकामगामिणो णं ते मनुया पन्नत्ता। अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा मसीइ वा किसीइ वा वणिएत्ती वा पणिएत्ति वा वाणिज्जेइ वा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे, ववगयअसिमसि किसि वणिय पणिय वाणिज्जा णं ते मनुया पन्नत्ता समणाउसो!। अत्थि णं भंते! तीसे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! उस समय भरतक्षेत्र में क्या घर होते हैं ? क्या गेहापण – बाजार होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। उन मनुष्यों के वृक्ष ही घर होते हैं। क्या उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम यावत्‌ सन्निवेश होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य स्वभावतः यथेच्छ – विचरणशील होते हैं। क्या उस समय भरतक्षेत्र में असि, मषि, कृषि, वणिक्‌
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 40 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं सुसमदुस्समा नामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! । सा णं समा तिहा विभज्जइ–पढमे तिभाए, मज्झिमे तिभाए, पच्छिमे तिभाए। जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे

Translated Sutra: गौतम ! द्वितीय आरक का तीन सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी – काल का सुषम – दुःषमा नामक तृतीय आरक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्ण – पर्याय यावत्‌ पुरुषकार – पराक्रमपर्याय की अनन्त गुण परिहानि होती है। उस आरक को तीन भागों में विभक्त किया है – प्रथम त्रिभाग, मध्यम त्रिभाग, अंतिम त्रिभाग।
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 43 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुच्छिंसि, एत्थ णं उसहे नामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था। तए णं उसभे अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारावासमज्झावसइ, अज्झावसित्ता तेवट्ठिं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झावसइ, तेवट्ठिं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झा-वसमाणे लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ, चोसट्ठिं महिला गुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिन्नि वि पयाहियाए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झावस, अज्झावसत्ता... ...जेसे

Translated Sutra: नाभि कुलकर के, उन की भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्‌, कौशलिक, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुर्दिग्व्याप्त अथवा चार गतियों का अन्त करने में सक्षम धर्म – साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए। कौशलिक अर्हत्‌ ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार – अवस्था में व्यतीत किए। तिरेसठ
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 44 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उसभे णं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहियं चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए। जप्पभिइं च णं उसभे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तप्पभिइं च णं उसभे अरहा कोसलिए निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा मानुस्सा वा तिरिक्खजोणिया वा पडिलोमा वा अनुलोमा वा। तत्थ पडिलोमा–वेत्तेण वा तयाए वा छियाए वा लयाए वा कसेण वा काए आउट्टेज्जा, अनुलोमा–वंदेज्ज वा नमंसेज्ज वा सक्कारेज्ज वा सम्मानेज्ज वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्ज वा ते सव्वे सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ। तए णं से भगवं समणे जाए ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए

Translated Sutra: कौशलिक अर्हत्‌ ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे, तत्पश्चात्‌ निर्वस्त्र। जब से वे प्रव्रजित हुए, वे कायिक परिकर्म रहित, दैहिक ममता से अतीत, देवकृत्‌ यावत्‌ जो उपसर्ग आते, उन्हें वे सम्यक्‌ भाव से सहते, प्रतिकूल अथवा अनुकूल परिषह को भी अनासक्त भाव से सहते, क्षमाशील रहते, अविचल रहते। भगवान्‌ ऐसे उत्तम
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 46 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उसभे णं अरहा कोसलिए वज्जरिसहनारायसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिए पंच धनुसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। उसभे णं अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झावसित्ता, तेवट्ठिं पुव्वसय-सहस्साइं रज्जवासमज्झा वसित्ता, तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए। उसभे णं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरियायं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरियायं पाउणित्ता, चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जेसे हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे

Translated Sutra: कौशलिक भगवान्‌ ऋषभ वज्रऋषभनाराचसंहनन युक्त, समचौरससंस्थानसंस्थित तथा ५०० धनुष दैहिक ऊंचाई युक्त थे। वे २० लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा ६३ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे। यों ८३ लाख पूर्व गृहवास में रहे। तत्पश्चात्‌ मुंडित होकर अगारवास से अनगार – धर्म में प्रव्रजित हुए। १००० वर्ष छद्मस्थ – पर्याय
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 47 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमप-ज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए० परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमसुसमाणामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! । तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे

Translated Sutra: गौतम ! तीसरे आरक का दो सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – सुषमा नामक चौथा आरक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। भगवन्‌ ! उस समय भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है यावत्‌
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वक्षस्कार २ काळ

Hindi 48 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए [भरहे वासे] एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणियाए काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहि अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण कम्म बल वीरिय पुरिसक्कार परक्कम पज्जवेहिं अनंतगुण परिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमा नामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! । तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ?

Translated Sutra: गौतम ! चतुर्थ आरक के ४२००० वर्ष कम एक सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाने पर अव – सर्पिणी – काल का दुःषमा नामक पंचम आरक प्रारंभ होता है। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। भगवन्‌ ! उस काल में भरतक्षेत्र का कैसा आकार – स्वरूप होता है ? गौतम ! भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है
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