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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 48 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुक्खरवरदीवड्ढे धायइसंडे य जंबुद्दीवे य ।
भरहेरवय विदेहे धम्माइगरे नमंसामि ॥ Translated Sutra: अर्ध पुष्करवरद्वीप, घातकी खंड़ और जम्बूद्वीप में उन ढ़ाई द्वीप में आए हुए भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में श्रुतधर्म की आदि करनेवाले को यानि तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 49 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तमतिमिरपडल विद्धंसणस्स सुरगणनरिंदमहियस्स ।
सीमाधरस्स वंदे पप्फोडियमोहजालस्स ॥ Translated Sutra: अज्ञान समान अंधेरे के समूह को नष्ट करनेवाले, देव और नरेन्द्र के समूह से पूजनीय और मोहनीय कर्म के सर्व बन्धन को तोड़ देनेवाले ऐसे मर्यादावंत यानि आगम युक्त श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 50 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाईजरामरण सोग पणासणस्स, कल्लाणपुक्खल विसालसुहावहस्स ।
को देवदानवनरिंदगणच्चिअस्स, धम्मस्ससारमुवलब्भकरे पमायं ॥ Translated Sutra: जन्म, बुढ़ापा, मरण और शोक समान सांसारिक दुःख को नष्ट करनेवाले, ज्यादा कल्याण और विशाल सुख देनेवाले, देव – दानव और राजा के समूह से पूजनीय श्रुतधर्म का सार जानने के बाद कौन धर्म आराधना में प्रमाद कर सकता है ? | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 3 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोगस्स उज्जोयगरे धम्मतित्थयरे जिणे ।
अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली ॥ Translated Sutra: लोक में उद्योत करनेवाले (चौदह राजलोक में रही सर्व वस्तु का स्वरूप यथार्थ तरीके से प्रकाशनेवाले) धर्मरूपी तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले, रागदेश को जीतनेवाले, केवली चोबीस तीर्थंकर का और अन्य तीर्थंकर का मैं कीर्तन करूँगा। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 5 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुविहिं च पुप्फदंतं सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च ।
विमलमणंतं च जिणं धम्मं संतिं च वंदामि ॥ Translated Sutra: सुविधि या पुष्पदंत को, शीतल श्रेयांस और वासुपूज्य को, विमल और अनन्त (एवं) धर्म और शान्ति जिन को वंदन करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ वंदन |
Hindi | 10 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए,
अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अहोकायं काय-संफासं
खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो
जत्ता भे जवणिज्जं च भे,
खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए
जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: (शिष्य कहता है) हे क्षमा (आदि दशविध धर्मयुक्त) श्रमण, (हे गुरुदेव !) आपको मैं इन्द्रिय और मन की विषय विकार के उपघात रहित निर्विकारी और निष्पाप प्राणातिपात आदि पापकारी प्रवृत्ति रहित काया से वंदन करना चाहता हूँ। मुझे आपकी मर्यादित भूमि में (यानि साड़े तीन हाथ अवग्रह रूप – मर्यादा के भीतर) नजदीक आने की (प्रवेश करने | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 12 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। Translated Sutra: मंगल – यानि संसार से मुझे पार उतारे वो या जिससे हित की प्राप्ति हो वो या जो धर्म को दे वो (ऐसे ‘मंगल’ – चार हैं) अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररूपित धर्म। (यहाँ और आगे के सूत्र – १३, १४ में ‘साधु’ शब्द के अर्थ में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणि आदि सबको समझ लेना। और फिर केवली प्ररूपित धर्म से श्रुत धर्म और चारित्र धर्म | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 13 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि लोगुत्तमा अरहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। Translated Sutra: क्षायोपशमिक आदि भाव रूप ‘भावलोक’ में चार को उत्तम बताया है। अर्हंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म। [अर्हंतो को सर्व शुभ प्रकृति का उदय है। यानि वो शुभ औदयिक भाव में रहते हैं। इसलिए वो भावलोक में उत्तम हैं। सिद्ध चौदह राजलोक को अन्त में मस्तक पर बिराजमान होते हैं। वो क्षेत्रलोक में उत्तम हैं। साधु श्रुतधर्म | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 14 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि सरणं पवज्जामि अरहंते सरणं पवज्जामि सिद्धे सरणं पवज्जामि साहू सरणं पवज्जामि केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि। Translated Sutra: शरण – यानि सांसारिक दुःख की अपेक्षा से रक्षण पाने के लिए आश्रय पाने की प्रवृत्ति। ऐसे चार शरण को मैं अंगीकार करता हूँ। मैं अरिहंत – सिद्ध – साधु और केवली भगवंत के बताए धर्म का शरण अंगीकार करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 15 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो कओ
काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्वो असमणपाउग्गो
नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं
जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: मैं दिवस सम्बन्धी अतिचार का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, यह अतिचार सेवन काया से – मन से – वचन से (किया गया हो), उत्सूत्र भाषण – उन्मार्ग सेवन से (किया हो), अकल्प्य या अकरणीय (प्रवृत्ति से किया हो) दुर्ध्यान या दुष्ट चिन्तवन से (किया हो) अनाचार सेवन से, अनीच्छनीय श्रमण को अनुचित (प्रवृत्ति से किया हो।) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 18 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिक्कमामि गोचरचरिआए भिक्खायरिआए उग्घाडकवाडउग्घाडणाए साणा-वच्छा-दारसंघट्टणाए मंडी-पाहुडियाए बलि-पाहुडियाए ठवणा-पाहुडियाए संकिए सहसागारे
अणेसणाए [पाणेसणाए] पाणभोयणाए बीयभोयणाए हरियभोयणाए पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिट्ठहडाए दगसंसट्ठहडाए रयसंसट्ठहडाए परिसाडणियाए पारिट्ठावणियाए ओहासणभिक्खाए जं उग्गमेणं उप्पायणेसणाए
अपरिसुद्धं परिग्गहियं परिभुत्तं वा जं न परिट्ठवियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। (किसका ?) भिक्षा के लिए गोचरी घूमने में, लगे हुए अतिचार का (किस तरह से?) सांकल लगाए हुए या सामान्य से बन्ध किए दरवाजे – जाली आदि खोलने से कूत्ते – बछड़े या छोटे बच्चे का (केवल तिर्यंच का) संघट्टा – स्पर्श करने से, किसी बरतन आदि में अलग नीकालकर दिया गया आहार लेने से, अन्य धर्मी मूल भाजन में से | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 20 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिक्कमामि एगविहे असंजमे,
पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिं-रागबंधणेणं दोसबंधणेणं,
पडिक्कमामि तिहिं दंडेहिं-मणदंडेणं वयदंडेणं कायदंडेणं,
पडिक्कमामि तिहिं गुत्तीहिं-मणगुत्तीए वइगुत्तीए कायगुत्तीए। Translated Sutra: मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (लेकिन किसका ?) एक, दो, तीन आदि भेदभाव के द्वारा बताते हैं। (यहाँ मिच्छामि दुक्कडम् यानि मेरा वो पाप मिथ्या हो वो बात एकविध आदि हरएक दोष के साथ जुड़ना।) अविरति रूप एक असंयम से (अब के सभी पद असंयम का विस्तार समझना) दो बन्धन से राग और द्वेष समान बन्धन से, मन, वचन, काया, दंड़ सेवन से, मन, वचन, काया, गुप्ति | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 25 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चउद्दसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं, सोलसहिं गाहासोलसएहिं, सत्तरसविहे असंजमे, अट्ठारसविहे अबंभे, एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं, वीसाए असमाहिट्ठाणेहिं। Translated Sutra: इहलोक – परलोक आदि सात भय स्थान के कारण से, जातिमद – कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति – शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय – | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 27 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेत्तीसाए आसायणाहिं। Translated Sutra: तैंतीस प्रकार की आशातना जो यहाँ सूत्र में ही बताई गई है उसके द्वारा लगे अतिचार, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी का अवर्णवाद से अबहुमान करने से, श्रावक – श्राविका की निंदा आदि से, देव – देवी के लिए कुछ भी बोलने से, आलोक – परलोक के लिए असत् प्ररूपणा से, केवली प्रणित श्रुत या चारित्र धर्म की आशातना के द्वारा, | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 32 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं धम्मं सद्दहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि पालेमि अनुपालेमि
तं धम्मं सद्दहंतो पत्तियंतो रोएंतो फासेंतो पालंतो अनुपालंतो
तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स
अब्भुट्ठिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए–
असंजमं परियाणामि संजमं उवसंपज्जामि
अबंभं परियाणामि बंभ उवसंपज्जामि
अकप्पं परियाणामि कप्पं उवसंपज्जामि
अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि
अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि
मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपज्जामि
अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि
अमग्गं परियाणामि मग्गं उवसंपज्जामि Translated Sutra: उस धर्म की मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रीति के रूप से स्वीकार करता हूँ, उस धर्म को ज्यादा सेवन की रुचि – अभिलाषा करता हूँ। उस धर्म की पालना – स्पर्शना करता हूँ। अतिचार से रक्षा करता हूँ। पुनः पुनः रक्षा करता हूँ। उस धर्म की श्रद्धा, प्रीति, रुचि, स्पर्शना, पालन, अनुपालन करते हुए मैं केवलि कथित धर्म की आराधना करने | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 51 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्ध भो पयओ नमो जिणमए नंदी सया संजमे ।
देवं नाग सुवण्णकिन्नरगण स्सब्भूअ भावच्चिए ॥
लोगो जत्थ पइट्ठिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं ।
धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥ Translated Sutra: हे मानव ! सिद्ध ऐसे जिनमत को मैं पुनः नमस्कार करता हूँ कि जो देव – नागकुमार – सुवर्णकुमार – किन्नर के समूह से सच्चे भाव से पूजनीय हैं। जिसमें तीन लोक के मानव सुर और असुरादिक स्वरूप के सहारे के समान संसार का वर्णन किया गया है ऐसे संयम पोषक और ज्ञान समृद्ध दर्शन के द्वारा प्रवृत्त होनेवाला शाश्वत धर्म की वृद्धि | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 56 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उज्जिंतसेल सिहरे दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स ।
तं धम्मचक्कवट्टीं अरिट्ठनेमिं नमंसामि ॥ Translated Sutra: जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण (वो तीनों कल्याणक) उज्जयंत पर्वत के शिखर पर हुए हैं वो धर्म चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि को मैं – नमस्कार करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Hindi | 63 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ समणोवासओ पुव्वामेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमइ सम्मत्तं उवसंपज्जइ
नो से कप्पइ अज्जप्पभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि वा अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा
पुव्वि अणालत्तएणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा
तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अनुप्पयाउं वा
नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतारेणं
से य सम्मत्ते पसत्थ-समत्त-मोहणिय-कम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे
सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते सम्मत्तस्स समणोवासएणं
इमे पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं Translated Sutra: वहाँ (श्रमणोपासकों) – श्रावक पूर्वे यानि श्रावक बनने से पहले मिथ्यात्व छोड़ दे और सम्यक्त्व अंगीकार करे। उनको न कल्पे। (क्या न कल्पे वो बताते हैं) आजपर्यन्त अन्यतीर्थिक के देव, अन्य तीर्थिक की ग्रहण की हुई अरिहंत प्रतिमा को वंदन नमस्कार करना न कल्पे। पहले भले ही ग्रहण न की हो लेकिन अब वो (प्रतिमा) अन्यतीर्थिक | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Hindi | 81 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इत्थं पुण समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाइं तिन्नि गुणव्वयाइं आवकहियाइं चत्तारि सिक्खा-वयाइं इत्तरियाइं एयस्स पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं तं जहा–
तं निसग्गेण वा अभिगमेणं वा पंच अइयारविसुद्धं अणुव्वय-गुणव्वयाइं च अभिग्गा अन्नेवि पडिमादओ विसेसकरणजोगा।
अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाझूसणाराहणया इमीसे समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा तं जहा–
इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, काम-भोगासंसप्पओगे। Translated Sutra: इस प्रकार श्रमणोपासक धर्म में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और यावत्कथिक या इत्वरकथिक यानि चिरकाल या अल्पकाल के चार शिक्षाव्रत बताए हैं। इन सबसे पहले श्रमणोपासक धर्म में मूल वस्तु सम्यक्त्व है। वो निसर्ग से और अभिमान से दो प्रकार से है। पाँच अतिचार रहित विशुद्ध अणुव्रत और गुणव्रत की प्रतिज्ञा के सिवा दूसरी | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Gujarati | 3 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोगस्स उज्जोयगरे धम्मतित्थयरे जिणे ।
अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली ॥ Translated Sutra: લોકમાં ઉદ્યોત કરનાર, ધર્મતીર્થ કરનાર, જિન(રાગ – દ્વેષને જિતનાર), કેવલી એવા ચોવીશે અરિહંતની (અને અન્ય અરિહંતોની) હું સ્તવના કરીશ. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Gujarati | 4 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उसभमजियं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमइं च ।
पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪. ઋષભ અને અજિતને, સંભવ અભિનંદન અને સુમતિને, પદ્મપ્રભુ સુપાર્શ્વ તથા ચંદ્રપ્રભુ એ સર્વે જિનને હું વંદન કરું છું. સૂત્ર– ૫. સુવિધિ (અથવા)પુષ્પદંતને, શીતલ શ્રેયાંસ અને વાસુપૂજ્યને, વિમલ અને અનંતને, તથા ધર્મ અને શાંતિ જિનને હું વંદન કરું છું. સૂત્ર– ૬. કુંથુ અર અને મલ્લિને, મુનિસુવ્રત અને નમિને, અરિષ્ટનેમિ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ वंदन |
Gujarati | 10 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए,
अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अहोकायं काय-संफासं
खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो
जत्ता भे जवणिज्जं च भे,
खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए
जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: શિષ્ય કહે છે – હે ક્ષમા (આદિ દશવિધ ધર્મથી યુક્ત) શ્રમણ ! આપને હું ઇન્દ્રિયો તથા મનની વિષયવિકારના ઉપઘાત રહિત, નિર્વિકારી અને નિષ્પાપ કાયા વડે વંદન કરવાને ઇચ્છું છું. મને આપની મર્યાદિત ભૂમિમાં પ્રવેશવાની અનુજ્ઞા આપો. નિસીહી (એમ કહી શિષ્ય અવગ્રહમાં પ્રવેશે.) અધોકાય એટલે આપના ચરણને હું મારી કાયા વડે સ્પર્શુ છું. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 12 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। Translated Sutra: ચાર પદાર્થો મંગલરૂપ છે – અરિહંત મંગલ છે, સિદ્ધો મંગલ છે, સાધુ મંગલ છે, કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મ મંગલ છે. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 13 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि लोगुत्तमा अरहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। Translated Sutra: લોકમાં ચાર ઉત્તમ છે – અરિહંત લોકોત્તમ છે, સિદ્ધો લોકોત્તમ છે, સાધુ લોકોત્તમ છે, કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મ લોકોત્તમ છે. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 14 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि सरणं पवज्जामि अरहंते सरणं पवज्जामि सिद्धे सरणं पवज्जामि साहू सरणं पवज्जामि केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि। Translated Sutra: હું ચાર શરણા અંગીકાર કરું છું. હું અરિહંતનું શરણું સ્વીકારું છું. સિદ્ધનું શરણું સ્વીકારું છું. સાધુનું શરણું સ્વીકારું છું અને કેવલિ ભગવંતે પ્રરૂપિત ધર્મનું શરણું સ્વીકારું છું. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 15 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो कओ
काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्वो असमणपाउग्गो
नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं
जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: હું દિવસ સંબંધી અતિચારોનું પ્રતિક્રમણ કરવાને ઇચ્છું છું. (આ અતિચાર સેવન) – કાયાથી, વચનથી, મનથી કરેલ હોય. ઉત્સૂત્રભાષણ કે ઉન્માર્ગ સેવનથી (હોય). અકલ્પ્ય કે અકરણીયથી (થયેલ હોય). દુર્ધ્યાન કે દુષ્ટ ચિંતવનથી (થયેલ હોય). અનાચારથી, અનિચ્છનીયથી, અશ્રમણપ્રાયોગ્યથી હોય. જ્ઞાન, દર્શન કે ચારિત્ર – શ્રુત અને સામાયિકમાં હોય. ત્રણ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 21 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहिं- मायासल्लेणं निआणसल्लेणं मिच्छादंसणसल्लेणं,
पडिक्कमामि तिहिं गारवेहिं इड्ढीगारवेणं रसगारवेणं सायागारवेणं,
पडिक्कमामि तिहिं विराहणाहिं- नाणाविराहणाए दंसणविराहणाए चरित्तविराहणाए,
पडिक्कमामि चउहिं कसाएहिं-कोहकसाएणं माणकसाएणं मायाकसाएणं लोभकसाएणं,
पडिक्कमामि चउहिं सण्णाहिं-आहारसण्णाए भयसण्णाए मेहुणसण्णाए परिग्गहसण्णाए,
पडिक्कमामि चउहिं विकहाहिं- इत्थिकहाए भत्तकहाए देसकहाए रायकहाए,
पडिक्कमामि चउहिं झाणेहिं-अट्टेणं झाणेणं रुद्देणं झाणेणं धम्मेणं झाणेणं सुक्केणं झाणेणं। Translated Sutra: હું પ્રતિક્રમું છું (કોને ?) ત્રણ શલ્ય – માયા, નિદાન અને મિથ્યાદર્શન શલ્યથી થયેલા અતિચારોને. હું પ્રતિક્રમું છું, ત્રણ ગારવો – ઋદ્ધિ ગારવ, રસ ગારવ અને શાતા ગારવ વડે થયેલા અતિચારોને. હું પ્રતિક્રમું છું, ત્રણ વિરાધના – જ્ઞાનવિરાધના, દર્શનવિરાધના, ચારિત્રવિરાધના વડે થયેલા અતિચારોને. હું પ્રતિક્રમું છું, ચાર | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 24 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिक्कमामि छहिं जीवनिकाएहिं- पुढविकाएणं आउकाएणं तेउकाएणं वाउकाएणं वणस्सइकाएणं तसकाएणं,
पडिक्कमामि छहिं लेसाहिं किण्हलेसाए नीललेसाए काउलेसाए तेउलेसाए पम्हलेसाए सुक्कलेसाए,
पडिक्कमामि सत्तहिं भयट्ठाणेहिं, अट्ठहिं मयट्ठाणेहिं, नवहिं बंभचेरगुत्तीहिं, दसविहे समण-धम्मे, एक्कारसहिं उवासगपडिमाहिं, बारसहिं भिक्खुपडिमाहिं, तेरसहिं किरियाट्ठाणेहिं। Translated Sutra: હું છ જીવનિકાય – પૃથ્વીકાય, અપ્કાય, તેઉકાય, વાયુકાય, વનસ્પતિકાય અને ત્રસકાયની વિરાધનાથી થયેલ અતિચારો પ્રતિક્રમું છું. હું છ લેશ્યા – કૃષ્ણ લેશ્યા, નીલ લેશ્યા, કાપોત લેશ્યા, તેજોલેશ્યા, પદ્મલેશ્યા અને શુક્લ લેશ્યા નિમિત્તે થયેલ અતિચારોને પ્રતિક્રમું છું. હું પ્રતિક્રમું છું – સાત ભયસ્થાનોથી૦, આઠ મદસ્થાનોથી૦, | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 28 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अरिहंताणं आसायणाए सिद्धाणं आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवज्झायाणं आसायणाए
साहूणं आसायणाए साहुणीणं आसायणाए सावयाणं आसायणाए सावियाणं आसायणाए
देवाणं आसायणाए देवीणं आसायणाए
इहलोगस्स आसायणाए परलोगस्स आसायणाए
केवलिपन्नत्तस्सधम्मस्स आसायणाए
सदेवमणुयासुरस्सलोगस्स आसायणाए
सव्वपाणभूयजीव-सत्ताणं आसायणाए
कालस्स आसायणाए
सुयस्स आसायणाए सुयदेवयाए आसायणाए
वायणायरियस्स आसायणाए। Translated Sutra: (૧) અરિહંતોની આશાતના, (૨) સિદ્ધોની આશાતના, (૩) આચાર્યની આશાતના, (૪) ઉપાધ્યાયની આશાતના, (૫) સાધુની આશાતના, (૬) સાધ્વીની આશાતના, (૭) શ્રાવકની આશાતના, (૮) શ્રાવિકાની આશાતના, (૯) દેવોની આશાતના, (૧૦) દેવીની આશાતના, (૧૧) આલોક સંબંધી આશાતના, (૧૨) પરલોક સંબંધી આશાતના, (૧૩) કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મની આશાતના, (૧૪) દેવ – મનુષ્ય – અસુર લોક સંબંધી | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 32 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं धम्मं सद्दहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि पालेमि अनुपालेमि
तं धम्मं सद्दहंतो पत्तियंतो रोएंतो फासेंतो पालंतो अनुपालंतो
तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स
अब्भुट्ठिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए–
असंजमं परियाणामि संजमं उवसंपज्जामि
अबंभं परियाणामि बंभ उवसंपज्जामि
अकप्पं परियाणामि कप्पं उवसंपज्जामि
अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि
अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि
मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपज्जामि
अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि
अमग्गं परियाणामि मग्गं उवसंपज्जामि Translated Sutra: તે ધર્મની હું શ્રદ્ધા કરું છું. પ્રીતિ કરું છું. રૂચિ કરું છું. પાલન – સ્પર્શના કરું છું. અનુપાલન કરું છું. તે ધર્મની શ્રદ્ધા કરતો, પ્રીતિ કરતો, રૂચિ કરતો, સ્પર્શના કરતો, અનુપાલન કરતો હું – તે ધર્મની આરાધનામાં ઉદ્યત થયો છું, વિરાધનાથી અટકેલો છું (તેના જ માટે) અસંયમને જાણીને તજુ છું અને સંયમનો સ્વીકારું છું. અબ્રહ્મને | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 48 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुक्खरवरदीवड्ढे धायइसंडे य जंबुद्दीवे य ।
भरहेरवय विदेहे धम्माइगरे नमंसामि ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૮. અર્દ્ધ પુષ્કરવરદ્વીપ, ધાતકીખંડ અને જંબૂદ્વીપ (એ અઢીદ્વીપ)માં આવેલ ભરત, ઐરવત અને વિદેહ ક્ષેત્રમાં રહેલા શ્રુત ધર્મના આદિ કરોને હું નમસ્કાર કરું છું. સૂત્ર– ૪૯. અજ્ઞાનરૂપી અંધકારના સમૂહનો નાશ કરનાર, દેવ અને નરેન્દ્રોના સમૂહથી પૂજાયેલ, મોહની જાળને તોડી નાંખનારા, મર્યાદાધરને વંદુ છું. સૂત્ર– ૫૦. જન્મ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 53 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धाणं बुद्धाणं पारगयाणं परंपरगयाणं ।
लोअग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૫૩. સિદ્ધ થયેલા, બોધ પામેલા, સંસારને પાર પામેલા, પરંપર સિદ્ધ થયેલા, લોકના અગ્રભાગને પામેલા એવા સર્વે સિદ્ધ ભગવંતોને સદા નમસ્કાર. સૂત્ર– ૫૪. જે દેવોના પણ દેવ છે, જેને દેવો અંજલીપૂર્વક નમસ્કાર કરે છે, તે ઇન્દ્રો વડે પૂજાયેલા મહાવીર ભગવંતને હું મસ્તકથી વંદુ છું. સૂત્ર– ૫૫. જિનવરોમાં વૃષભ સમાન – શ્રેષ્ઠ એવા | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 58 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो उवट्ठिओमि अब्भिंतरपक्खियं खामेउं
इच्छं खामेमि अब्भिंतर पक्खियं पन्नरस्सण्हं दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं
जंकिंचि अपत्तियं परपत्तियं
भत्ते पाणे विनए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए
जंकिंचि मज्झ विनयपरिहीणं सुहुमं वा बायरं वा
तुब्भे जाणह अहं न जाणामि
तस्स मिच्छामि दुक्कडम्। Translated Sutra: હે ક્ષમાશ્રમણ ! હું ઇચ્છું છું (શું ?) પાક્ષિકની અંદર થયેલ અતિચારોની ક્ષમા માંગવાને, તે માટે ઉપસ્થિત થયો છું. પંદર દિવસ અને પંદર રાત્રિમાં જે કંઈ – અપ્રીતિ કે વિશેષથી અપ્રીતિ થયેલી હોય (કયા વિષયમાં ?) ભોજનમાં, પાણીમાં, વિનયમાં, વૈયાવચ્ચમાં, આલાપ – સંલાપમાં, ઉચ્ચ આસન કે સમ આસનમાં રાખવા, વચ્ચે બોલવામાં ગુરુની ઉપરવટ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Gujarati | 63 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ समणोवासओ पुव्वामेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमइ सम्मत्तं उवसंपज्जइ
नो से कप्पइ अज्जप्पभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि वा अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा
पुव्वि अणालत्तएणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा
तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अनुप्पयाउं वा
नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतारेणं
से य सम्मत्ते पसत्थ-समत्त-मोहणिय-कम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे
सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते सम्मत्तस्स समणोवासएणं
इमे पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं Translated Sutra: તેમાં – શ્રમણોપાસકો પૂર્વે જ અર્થાત શ્રાવક બનતા પહેલા જ મિથ્યાત્વને પ્રતિક્રમે (છોડે)છે અને સમ્યક્ત્વને અંગીકાર કરે. તેઓને કલ્પે નહીં – (શું ન કલ્પે ?) આજથી અન્યતીર્થિક કે અન્યતીર્થિકના દેવો કે અન્યતીર્થિકે પરિગૃહિત અરહંત પ્રતિમાને વંદન કરવા કે નમસ્કાર કરવો. (ન કલ્પે.) પૂર્વે ભલે ગ્રહણ ન કરી હોય, પણ હાલ અન્યતીર્થિક | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Gujarati | 81 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इत्थं पुण समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाइं तिन्नि गुणव्वयाइं आवकहियाइं चत्तारि सिक्खा-वयाइं इत्तरियाइं एयस्स पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं तं जहा–
तं निसग्गेण वा अभिगमेणं वा पंच अइयारविसुद्धं अणुव्वय-गुणव्वयाइं च अभिग्गा अन्नेवि पडिमादओ विसेसकरणजोगा।
अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाझूसणाराहणया इमीसे समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा तं जहा–
इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, काम-भोगासंसप्पओगे। Translated Sutra: આ પ્રમાણે શ્રાવકધર્મમાં પાંચ અણુવ્રત, ત્રણ ગુણવ્રત અને યાવત્કથિત કે ઇત્વરકથિત અર્થાત ચિરકાળ કે અલ્પકાળ માટે ચાર શિક્ષાવ્રત કહ્યા છે. આ બધાની પૂર્વે શ્રાવકધર્મની મૂલ વસ્તુ સમ્યક્ત્વ છે તે આ – તે નિસર્ગથી કે અભિગમથી બે ભેદે અથવા પાંચ અતિચાર રહિત વિશુદ્ધ અણુવ્રત અને ગુણવ્રતની પ્રતિજ્ઞા સિવાય બીજી પણ પ્રતિમા | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 17 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं सत्थेहिं’ पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमब्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमब्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमब्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमब्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, Translated Sutra: वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। उसकी अबोधि के लिए होती है। वह साधक हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, संयम – साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सूनकर यह ज्ञात होता है कि, ‘यह जीव हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।’ (फिर भी) जो मनुष्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 42 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अड्ढं अहं तिरियं पाईणं ‘पासमाणे रूवाइं पासति’, ‘सुणमाणे सद्दाइं सुणेति’। Translated Sutra: ऊंचे, नीचे, तीरछे, सामने देखने वाला रूपों को देखता है। सूनने वाला शब्दों को सूनता है। ऊंचे, नीचे, तीरछे, विद्यमान वस्तुओं में आसक्ति करने वाला, रूपों में मूर्च्छित होता है, शब्दों में मूर्च्छित होता है। यह (आसक्ति) ही संसार है। जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है। इन्द्रिय एवं मन से असंयत है, वह आज्ञा – धर्म – | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 25 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह च खलु भो! अनगाराणं उदय-जीवा वियाहिया।
सत्थं चेत्थ अणुवीइ पासा। Translated Sutra: हे मनुष्य ! इस अनगार – धर्म में, जल को ‘जीव’ कहा है। जलकाय के जो शस्त्र हैं, उन पर चिन्तन करके देख | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 86 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसं च छंदं च विगिंच धीरे।
तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु।
जेण सिया तेण णोसिया।
इणमेव नावबुज्झंति, जेजना मोहपाउडा।
थीभि लोए पव्वहिए।
ते भो वयंति–एयाइं आयतणाइं।
से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरग-तिरिक्खाए।
उदाहु वीरे– अप्पमादो महामोहे।
अलं कुसलस्स पमाएणं।
संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए।
नालं पास।
अलं ते एएहिं। Translated Sutra: हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता त्याग दे। उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जिस भोगसामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है। जो मनुष्य मोहकी सघनतासे आवृत हैं, ढ़ंके हैं, वे इस तथ्य को कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षण – भंगुर हैं, तथा वे ही शल्य नहीं जानते यह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 87 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयं पास मुनि! महब्भयं।
नाइवाएज्ज कंचणं।
एस वीरे पसंसिए, जे न निविज्जति आदाणाए।
‘न मे देति’ न कुप्पिज्जा, थोवं लद्धुं न खिंसए।
‘पडिसेहिओ परिणमिज्जा’।
एयं मोणं समणुवासेज्जासि। Translated Sutra: हे मुनि ! यह देख, ये भोग महान भयरूप हैं। भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर। वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता। ‘यह मुझे भिक्षा नहीं देता’ ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करनी चाहिए। गृहस्वामी दाता द्वारा प्रतिबंध करने पर शान्त भाव से वापस लौट | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 95 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ।
गढिए अणुपरियट्टमाणे।
संधिं विदित्ता इह मच्चिएहिं।
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।
अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि, पासति पुढोवि सवंताइं।
पंडिए पडिलेहाए। Translated Sutra: वह आयतचक्षु – दीर्घदर्शी लोकदर्शी होता है। यह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तीरछे भाग को जानता है। (कामभोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में अनुपरिवर्तन करता रहता है। यहाँ (संसार में) मनुष्यों के, (मरणधर्माशरीर की) संधि को जानकर (विरक्त हो)। वह वीर प्रशंसा के योग्य है जो (कामभोग में) बद्ध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 104 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुव्वसु मुनी अणाणाए। तुच्छए गिलाइ वत्तए। एस वीरे पसंसिए।
अच्चेइ लोयसंजोयं। एस णाए पवुच्चइ। Translated Sutra: जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम – धन से रहित है। वह धर्म का कथन करने में ग्लानि का अनुभव करता है, (क्योंकि) वह चारित्र की द्रष्टि से तुच्छ जो है। वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक – संयोग से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है। यही न्याय्य (तीर्थंकरों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 105 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो।
जे अनन्नदंसी, से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे, से अनन्नदंसी॥
जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ॥ Translated Sutra: यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख बताए हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा – विवेक बताते हैं। इस प्रकार कर्मों को जानकर सर्व प्रकार से (निवृत्ति करे)। जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। (आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान व्यक्ति को धर्म – उपदेश करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 106 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अवि य हणे अनादियमाणे। एत्थंपि जाण, सेयंति नत्थि।
के यं पुरिसे? कं च नए?
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिण्णचारी।
न लिप्पई छणपएण वीरे।
से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमन्नेसि।
कुसले पुण नोबद्धे, नोमुक्के। Translated Sutra: कभी अनादर होने पर वह (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है। अतः यहाँ यह भी जाने धर्मकथा करना श्रेय नहीं है। पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए की यह पुरुष कौन है ? किस देवता को मानता है ? वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है। वह ऊंची, नीची और तीरछी दिशाओं में, सब प्रकार से समग्र परिज्ञा/विवेकज्ञान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 110 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं।
समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए।
जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति... Translated Sutra: इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे। जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् प्रकार से परिज्ञात किया है – (जो उनमें रागद्वेष न करता हो)। वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। जो पुरुष | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 112 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सीओसिनच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णोवेदेति।
जागर-वेरोवरए वीरे।
एवं दुक्खा पमोक्खसि।
जरामच्चुवसोवणीए नरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति। Translated Sutra: वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है तथा स्पर्शजन्य सुख – दुःख का वेदन नहीं करता। जागृत और वैर से उपरत वीर ! तू इस प्रकार दुःखों से मुक्ति पा जाएगा। बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य सतत मूढ़ बना रहता है। वह धर्म को नहीं जान पाता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 125 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संधिं लोगस्स जाणित्ता। आयओ बहिया पास।
तम्हा न हंता न विघायए।
जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुनी कारणं सिया? Translated Sutra: साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि समझकर प्रमाद करना उचित नहीं है। अपनी आत्मा के समान बाह्य – जगत को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए। जो परस्पर एक – दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 131 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं ।
जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥
पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि।
पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि।
सच्चस्स आणाए ‘उवट्ठिए से’ मेहावी मारं तरति।
सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति। Translated Sutra: जिसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर अत्यन्त दूर समझो, जिसे अत्यन्त दूर समझते हो उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो। हे पुरुष ! अपना ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है। सत्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Hindi | 139 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति–सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा।
एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए।
तं जहा–उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवट्ठिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा। संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा।
तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सिं चेयं पवुच्चइ। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – जो अर्हन्त भगवान अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे – वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं – समस्त प्राणियों, सर्व भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का हनन नहीं करना चाहिए, बलात् उन्हें शासित नहीं करना चाहिए, न उन्हें दास | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Hindi | 140 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं आइइत्तु न णिहे न निक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा।
दिट्ठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा। नो लोगस्सेसणं चरे। Translated Sutra: साधक उस (अर्हत् भाषित – धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर (उसका आचरण करे)। (इष्ट – अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। वह लोकैषणा में न भटके। |