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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-२

चूलिका-४

अध्ययन-१६ विमुक्ति

Hindi 546 Gatha Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपदा पवेदिता । महागुरू णिस्सयरा उदीरिया, तमं व तेजो तिदिसं पगासया ॥

Translated Sutra: षट्‌काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग – द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान से सभी एकेन्द्रियादि भाव – दिशाओं में रहने वाले जीवों के लिए क्षेम स्थान, कर्म – बन्धन से दूर करने में समर्थ महान गुरु – महाव्रतों का उनके लिए निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है,
Anuyogdwar अनुयोगद्वारासूत्र Ardha-Magadhi

अनुयोगद्वारासूत्र

Hindi 22 Sutra Chulika-02 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं? लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं–जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिरनुकंपा हया इव उद्दामा गया इव निरंकुसा घट्ठा मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडुरपाउरणा जिनाणं अणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं उभओकालं आवस्सयस्स उवट्ठंति। से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं। से तं जाणगसरीर-भवियसरीरवतिरत्तं दव्वावस्सयं। से त्तं नोआगमओ दव्वावस्सयं। से तं दव्वावस्सयं।

Translated Sutra: लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक क्या है ? जो श्रमण के गुणों से रहित हों, छह काय के जीवों के प्रति अनुकम्पा न होने के कारण अश्व की तरह उद्दाम हों, हस्तिवत्‌ निरंकुश हों, स्निग्ध पदार्थों के लेप से अंग – प्रत्यंगों को कोमल, सलौना बनाते हों, शरीर को धोते हों, अथवा केशों का संस्कार करते हों, ओठों को मुलायम रखने के लिए मक्खन
Auppatik औपपातिक उपांग सूत्र Ardha-Magadhi

समवसरण वर्णन

Hindi 26 Sutra Upang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे वेमाणिया देवा अंतियं पाउब्भवित्था–सोहम्मीसाण सणंकुमार माहिंद बंभ लंतग महासुक्क सहस्साराणय पाणयारण अच्चुयवई पहिट्ठा देवा जिनदंसणुस्सुयागमण जणियहासा पालग पुप्फग सोमणस सिरिवच्छ नंदियावत्त कामगम पीइगम मनोगम विमल सव्वओभद्द णामधेज्जेहिं विमानेहिं ओइण्णा वंदनकामा जिणाणं मिग महिस वराह छगल दद्दुर हय गयवइ भूयग खग्ग उसभंक विडिम पागडिय चिंधमउडा पसिढिल वर-मउड तिरीडधारी कुंडलुज्जोवियाणणा मउड दित्त सिरया रत्ताभा पउम पम्हगोरा सेया सुभवण्णगंधफासा उत्तमवेउव्विणो विविहवत्थगंधमल्लधारी महिड्ढिया जाव पज्जुव

Translated Sutra: उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर समक्ष सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण तथा अच्युत देवलोकों के अधिपति – इन्द्र अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक प्रादुर्भूत हुए। जिनेश्वरदेव के दर्शन पाने की उत्सुकता और तदर्थ अपने वहाँ पहुँचने से उत्पन्न हर्ष से वे प्रफुल्लित
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१

उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष Hindi 38 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं? हंता गोयमा! तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या वही सत्य और निःशंक हैं, जो जिन – भगवंतों ने निरूपित किया है? हाँ, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा निरूपित है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१

उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष Hindi 39 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिट्ठेमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति? हंता गोयमा! एवं मणं धारेमाणे एवं पकरेमाणे, एवं चिट्ठेमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! (वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित है) इस प्रकार मन में धारण (निश्चय) करता हुआ, उसी तरह आचरण करता हुआ, यों रहता हुआ, इसी तरह संवर करता हुआ जीव क्या आज्ञा का आराधक होता है ? हाँ, गौतम ! इसी प्रकार मन में निश्चय करता हुआ यावत्‌ आज्ञा का आराधक होता है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१

उद्देशक-४ कर्मप्रकृत्ति Hindi 48 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं उवट्ठाएज्जा? हंता उवट्ठाएज्जा। से भंते! किं वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? अवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? गोयमा! वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। नो अवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। जइ वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा, किं–बालवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? पंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? बालपंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? गोयमा! बालवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। नो पंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। नो बालपंडिय-वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। जीवे णं भंते! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं अवक्कमेज्जा? हंता अवक्कमेज्जा। से भंते! किं वीरियत्ताए अवक्कमेज्जा? अवीरियत्ताए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! कृतमोहनीय कर्म जब उदीर्ण हो, तब जीव उपस्थान – परलोक की क्रिया के लिए उद्यम करता है? हाँ, गौतम ! करता है। भगवन्‌ ! क्या जीव वीर्यता – सवीर्य होकर उपस्थान करता है या अवीर्यता से ? गौतम ! जीव वीर्यता से उपस्थान करता है, अवीर्यता से नहीं करता। भगवन्‌ ! यदि जीव वीर्यता से उपस्थान करता है, तो क्या बालवीर्य से करता
Bhaktaparigna भक्तपरिज्ञा Ardha-Magadhi

शाश्वत अशाश्वत सुखं

Hindi 6 Gatha Painna-04 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] जं सासयसुहसाहणमाणाआराहणं जिणिंदाणं । ता तीए जइयव्वं जिनवयणविसुद्धबुद्धीहिं ॥

Translated Sutra: जिनवचन में निर्मल बुद्धिवाले मानव ने शाश्वत सुख के साधन ऐसे जो जिनेन्द्र की आज्ञा का आराधन है, उन आज्ञा पालने के लिए उद्यम करना चाहिए।
Bhaktaparigna भक्तपरिज्ञा Ardha-Magadhi

व्रत सामायिक आरोपणं

Hindi 31 Gatha Painna-04 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] नियदव्वमउव्वजिणिंदभवण-जिनबिंब-वरपइट्ठासु । वियरइ पसत्थपुत्थय-सुतित्थ-तित्थयरपूयासु ॥

Translated Sutra: प्रधान जिनेन्द्र प्रसाद, जिनबिम्ब और उत्तम प्रतिष्ठा के लिए तथा प्रशस्त ग्रन्थ लिखवाने में, सुतीर्थ में और तीर्थंकर की पूजा के लिए श्रावक अपने द्रव्य का उपयोग करे।
Dashvaikalik दशवैकालिक सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-५ पिंडैषणा

उद्देशक-१ Hindi 162 Gatha Mool-03 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] सिया य भिक्खू इच्छेज्जा सेज्जमागम्म भोत्तुयं । सपिंडपायमागम्म उंडुयं पडिलेहिया ॥

Translated Sutra: कदाचित्‌ भिक्षु बसति में आकर भोजन करना चाहे तो पिण्डपात सहित आकर भोजन भूमि प्रतिलेखन कर ले। विनयपूर्वक गुरुदेव के समीप आए और ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करे। जाने – आने में और भक्तपान लेने में (लगे) समस्त अतिचारों का क्रमशः उपयोगपूर्वक चिन्तन कर ऋजुप्रज्ञ और अनुद्विग्न संयमी अव्याक्षिप्त चित्त से गुरु के पास
Devendrastava देवेन्द्रस्तव Ardha-Magadhi

ज्योतिष्क अधिकार

Hindi 127 Gatha Painna-09 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] एसो तारापिंडो सव्वसमासेण मनुयलोगम्मि । बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेज्जा ॥

Translated Sutra: संक्षेप में मानवलोक में यह नक्षत्र समूह कहा है। मानवलोक की बाहर जिनेन्द्र द्वारा असंख्य तारे बताएं हैं
Devendrastava देवेन्द्रस्तव Ardha-Magadhi

इसिप्रभापृथ्वि एवं सिद्धाधिकार

Hindi 306 Gatha Painna-09 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] इसिवालियस्स भद्दं सुरवरथयकारयस्स धीरस्स । जेहिं सया थुव्वंता सव्वे इंदा य पवरकित्तीया ॥

Translated Sutra: वीर और इन्द्र की स्तुति के कर्ता जिसमें खुद सभी इन्द्र की और जिनेन्द्र की स्तुति कीर्तन किया वो।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-८ मल्ली

Hindi 105 Gatha Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी । देविंददाणविंदा, वहंति सीयं जिणिंदस्स ॥

Translated Sutra: चलायमान चपल कुण्डलों को धारण करनेवाले तथा अपनी ईच्छा अनुसार विक्रिया से बनाये हुए आभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र देव की शिबिका वहन की।
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१२ उदक

Hindi 144 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे

Translated Sutra: वह जितशत्रु राजा एक बार – किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत्‌ अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत्‌ सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत्‌ जीमने के अनन्तर, हाथ – मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन,
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१७ अश्व

Hindi 184 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था। तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति

Translated Sutra: ‘भगवन्‌ ! यदि यावत्‌ निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था। (वर्णन) उस नगर में कनककेतु नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत – से
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

3. अहिंसा-सूत्र Hindi 166 View Detail
Mool Sutra: रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये। तेसिं चेदुप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठा ।।

Translated Sutra: रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में `अहिंसा' कहा गया है। और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?]
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 257 View Detail
Mool Sutra: आह गुरु पूयाए, कामवहो होइ जइ वि हु जिणाणं। तह वि तइ कायव्वा, परिणामविसुद्धिहेऊओ ।।

Translated Sutra: यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

1. लोक सूत्र Hindi 287 View Detail
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।।

Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 425 View Detail
Mool Sutra: य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याज्जिन इव प्रभुः ।।

Translated Sutra: जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है (परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं।)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

10. अनित्य व अशरण संसार Hindi 103 View Detail
Mool Sutra: जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते, विविधव्याधिसंतप्ते। लोके नास्ति शरणं जिनेन्द्रवरशासनं मुक्त्वा ।।

Translated Sutra: जन्म, जरा व मरण के भय से पूर्ण तथा विविध व्याधियों से संतप्त इस लोक में जिनशासन को छोड़कर (अथवा आत्मा को छोड़कर) अन्य कोई शरण नहीं है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

3. अहिंसा-सूत्र Hindi 166 View Detail
Mool Sutra: रागादीनामनुत्पादः अहिंसकत्वमिति देशितं समये। तेषां चैवोत्पत्तिः हिंसेति जिनेन निर्दिष्टा ।।

Translated Sutra: रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में `अहिंसा' कहा गया है। और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?]
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 257 View Detail
Mool Sutra: आह गुरु पूजायां, कायवधः भवत्येव यद्यपि जिनानाम्। तथापि सा कर्तव्या, परिणामविशुद्धिहेतुत्वात् ।।

Translated Sutra: यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

1. लोक सूत्र Hindi 287 View Detail
Mool Sutra: धर्मः अधर्मः आकाशः, कालः पुद्गलाः जन्तवः। एष लोक इति प्रज्ञप्तो, जिनैर्वरदर्शिभिः ।।

Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 425 View Detail
Mool Sutra: य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याज्जिन इव प्रभुः ।।

Translated Sutra: जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है (परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं।)
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक

Hindi 229 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए दिव्वं जिणिंदाभिगमनजोग्गं सव्वालंकारविभूसियं उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता अट्ठहिं अग्ग-महिसीहिं सपरिवाराहिं नट्टाणीएणं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमानं अनुप्पयाहिणीकरेमाणे-अनुप्पयाहिणीकरेमाणे पुव्विल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव सीहासने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने। एवं चेव सामानियावि उत्तरेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहित्ता पत्तेयं-पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति। अवसेसा देवा य देवीओ

Translated Sutra: पालक देव द्वारा दिव्य यान की रचना को सुनकर शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान्‌ के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्यानीक, गन्धर्वानीक के साथ उस यान – विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से –
Jambudwippragnapati जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Ardha-Magadhi

वक्षस्कार २ काळ

Hindi 46 Sutra Upang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उसभे णं अरहा कोसलिए वज्जरिसहनारायसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिए पंच धनुसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। उसभे णं अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झावसित्ता, तेवट्ठिं पुव्वसय-सहस्साइं रज्जवासमज्झा वसित्ता, तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए। उसभे णं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरियायं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरियायं पाउणित्ता, चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जेसे हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे

Translated Sutra: कौशलिक भगवान्‌ ऋषभ वज्रऋषभनाराचसंहनन युक्त, समचौरससंस्थानसंस्थित तथा ५०० धनुष दैहिक ऊंचाई युक्त थे। वे २० लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा ६३ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे। यों ८३ लाख पूर्व गृहवास में रहे। तत्पश्चात्‌ मुंडित होकर अगारवास से अनगार – धर्म में प्रव्रजित हुए। १००० वर्ष छद्मस्थ – पर्याय
Mahanishith महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-३ कुशील लक्षण

Hindi 570 Gatha Chheda-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] होही खणं अप्फालिय-सूसर-गंभीर-दुंदुहि-णिग्घोसा। जय-सद्द-मुहल-मंगल-कयंजली जह य खीर-सलिलेणं॥

Translated Sutra: पलभर हाथ हिलाना, सुन्दर स्वर में गाना, गम्भीर दुंदुभि का शब्द करते, क्षीर समुद्र में से जैसे शब्द प्रकट हो वैसे जय जय करनेवाले मंगल शब्द मुख से नीकलते थे और जिस तरह दो हाथ जोड़कर अंजलि करते थे, जिस तरह क्षीर सागर के जल से कईं खुशबूदार चीज की खुशबू से सुवासित किए गए सुवर्ण मणिरत्न के बनाए हुए ऊंचे कलश से जन्माभिषेक
Mahanishith महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-३ कुशील लक्षण

Hindi 590 Sutra Chheda-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एयं तु जं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अनंत-गम-पज्जवेहिं सुत्तस्स य पिहब्भूयाहिं निज्जुत्ती-भास-चुण्णीहिं जहेव अनंत-नाण-दंसण-धरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जं तं आसि (२) अह-न्नया काल-परिहाणि-दोसेणं ताओ निज्जुत्ती-भास चुण्णीओ वोच्छिण्णाओ (३) इओ य वच्चंतेणं काल समएणं महिड्ढी-पत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुयहरे समुप्पन्ने (४) तेणे यं पंच-मंगल-महा-सुयक्खंधस्स उद्धारो मूल-सुत्तस्स मज्झे लिहिओ (५) मूलसुत्तं पुन सुत्तत्ताए गणहरेहिं, अत्थत्ताए अरहंतेहिं, भगवंतेहिं, धम्मतित्थंकरेहिं, तिलोग-महिएहिं, वीर-जिणिंदेहिं,

Translated Sutra: यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध नवकार का व्याख्यान महा विस्तार से अनन्तगम और पर्याय सहित सूत्र से भिन्न ऐसे निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि से अनन्त ज्ञान – दर्शन धारण करनेवाले तीर्थंकर ने जिस तरह व्याख्या की थी। उसी तरह संक्षेप से व्याख्यान किया जाता था। लेकिन काल की परिहाणी होने के दोष से वो निर्युक्ति भाष्य, चूर्णिका
Mahanishith महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-३ कुशील लक्षण

Hindi 598 Sutra Chheda-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा साहु-साहुणि-समणोवासग-सड्ढिगाऽसेसा-सन्न-साहम्मियजण-चउव्विहेणं पि समण-संघेणं नित्थारग-पारगो भवेज्जा धन्नो संपुन्न-सलक्खणो सि तुमं। ति उच्चारेमाणेणं गंध-मुट्ठीओ घेतव्वाओ। (२) तओ जग-गुरूणं जिणिंदाणं पूएग-देसाओ गंधड्ढाऽमिलाण-सियमल्लदामं गहाय स-हत्थेणोभय-खं धेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा नीसंदेहमेवं भाणियव्वं, जहा। (३) भो भो जम्मंतर-संचिय-गुरुय-पुन्न-पब्भार सुलद्ध-सुविढत्त-सुसहल-मनुयजम्मं देवानुप्पिया ठइयं च नरय-तिरिय-गइ-दारं तुज्झं ति। (४) अबंधगो य अयस-अकित्ती-णीया-गोत्त-कम्म-विसेसाणं तुमं ति, भवंतर-गयस्सा वि उ न दुलहो तुज्झ पंच नमोक्कारो, । (५) भावि-जम्मंतरेसु

Translated Sutra: और फिर साधु – साध्वी श्रावक – श्राविका समग्र नजदीकी साधर्मिक भाई, चार तरह के श्रमण संघ के विघ्न उपशान्त होते हैं और धर्मकार्य में सफलता पाते हैं। और फिर उस महानुभाव को ऐसा कहना कि वाकई तुम धन्य हो, पुण्यवंत हो, ऐसा बोलते – बोलते वासक्षेप मंत्र करके ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद जगद्‌गुरु जिनेन्द्र की आगे के स्थान
Mahanishith महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-४ कुशील संसर्ग

Hindi 677 Sutra Chheda-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एवमायण्णिऊण तओ भणियं सुमइणा। जहा–तुमं चेव सत्थवादी भणसु एयाइं, नवरं न जुत्तमेयं जं साहूणं अवन्नवायं भासिज्जइ। अन्नं तु–किं न पेच्छसि तुमं एएसिं महानुभागाणं चेट्ठियं छट्ठ-ट्ठम-दसम दुवालस-मास- खमणाईहिं आहा-रग्गहणं गिम्हायावणट्ठाए वीरासण-उक्कुडुयासण-नाणाभिग्गह-धारणेणं च कट्ठ-तवोणुचरणेणं च पसुक्खं मंस-सोणियं ति महाउ-वासगो सि तुमं, महा-भासा-समिती विइया तए, जेणेरिस-गुणोवउत्ताणं पि महानुभागाणं साहूणं कुसीले त्ति नामं संकप्पियंति। तओ भणियं नाइलेणं जहा मा वच्छ तुमं एतेणं परिओसमुवयासु, जहा अहयं आसवारेणं परिमुसिओ। अकाम-निज्जराए वि किंचि कम्मक्खयं भवइ, किं पुन

Translated Sutra: ऐसा सुनकर सुमति ने कहा – तुम ही सत्यवादी हो और इस प्रकार बोल सकते हो। लेकिन साधु के अवर्णवाद बोलना जरा भी उचित नहीं है। वो महानुभाव के दूसरे व्यवहार पर नजर क्यों नहीं करते ? छट्ठ, अट्ठम, चार – पाँच उपवास मासक्षमण आदि तप करके आहार ग्रहण करनेवाले ग्रीष्म काल में आतापना लेते है। और फिर विरासन उत्कटुकासन अलग – अलग
Nandisutra नन्दीसूत्र Ardha-Magadhi

नन्दीसूत्र

Hindi 22 Gatha Chulika-01 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] निव्वुइ-पह-सासनयं, जयइ सया सव्वभावदेसणयं । कुसमय-मय-नासनयं, जिणिंदवरवीरसासनयं ॥

Translated Sutra: निर्वाण पथ का प्रदर्शक, सर्व भावों का प्ररूपक, कुदर्शनों के अहंकार का मर्दक जिनेन्द्र भगवान्‌ का शासन सदा जयवन्त है।
Pragnapana प्रज्ञापना उपांग सूत्र Ardha-Magadhi

पद-३६ समुद्घात

Hindi 617 Gatha Upang-04 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] अगंतूणं समुग्घायं, अनंता केवली जिना । जर-मरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगतिं गता ॥

Translated Sutra: समुद्‌घात किये बिना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं।
Prashnavyakaran प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र Ardha-Magadhi

आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ परिग्रह

Hindi 23 Sutra Ang-10 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण परिग्गहं ममायंति लोभघत्था भवनवरविमाणवासिणो परिग्गहरुयी परिग्गहे विविहकरण-बुद्धी, देवनिकाया य–असुर भुयग गरुल विज्जु जलण दीव उदहि दिसि पवण थणिय अणवण्णिय पणवण्णिय इसिवासिय भूतवा-इय कंदिय महाकंदिय कुहंडपतगदेवा, पिसाय भूय जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस महोरग गंधव्वा य तिरियवासी। पंचविहा जोइसिया य देवा, –बहस्सती चंद सूर सुक्क सनिच्छरा, राहु धूमकेउ बुधा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकनगवण्णा, जे य गहा जोइसम्मि चारं चरंति, केऊ य गतिरतीया, अट्ठावीसतिविहा य नक्खत्तदेवगणा, नानासंठाणसंठियाओ य तारगाओ, ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साम मंडलगती उवरिचरा। उड्ढलोगवासी दुविहा

Translated Sutra: उस परिग्रह को लोभ से ग्रस्त परिग्रह के प्रति रुचि रखने वाले, उत्तम भवनों में और विमानों में निवास करने वाले ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं। नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के निकाय यथा – असुरकुमार यावत्‌ स्तनितकुमार तथा अणपन्निक, यावत्‌ पतंग और पिशाच, यावत्‌ गन्धर्व, ये महर्द्धिक व्यन्तर
Prashnavyakaran प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र Ardha-Magadhi

आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१ हिंसा

Hindi 8 Sutra Ang-10 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कयरे? जे ते सोयरिया मच्छबंधा साउणिया वाहा कूरकम्मादीवित बंधप्पओग तप्प गल जाल वीरल्लग आयसीदब्भवग्गुरा कूडछेलिहत्था हरिएसा ऊणिया य वीदंसग पासहत्था वनचरगा लुद्धगा य महुघात-पोतघाया एणीयारा पएणीयारा सर दह दीहिअ तलाग पल्लल परिगालण मलण सोत्तबंधण सलिलासयसोसगा विसगरलस्स य दायगा उत्तण वल्लर दवग्गिणिद्दय पलीवका। कूरकम्मकारी इमे य बहवे मिलक्खुया, के ते? सक जवण सवर बब्बर कायमुरुंड उड्ड भडग निण्णग पक्काणिय कुलक्ख गोड सीहल पारस कोंच अंध दविल चिल्लल पुलिंद आरोस डोंब पोक्कण गंधहारग बहलीय जल्ल रोम मास बउस मलया य चुंचुया य चूलिय कोंकणगा मेद पल्हव मालव मग्गर आभासिया अणक्क

Translated Sutra: वे हिंसक प्राणी कौन हैं ? शौकरिक, मत्स्यबन्धक, मृगों, हिरणों को फँसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा वागुरिक, चीता, बन्धनप्रयोग, छोटी नौका, गल, जाल, बाज पक्षी, लोहे का जाल, दर्भ, कूटपाश, इन सब साधनों को हाथ में लेकर फिरने वाले, चाण्डाल, चिड़ीमार, बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर, मधु – मक्खियों का घात करने वाले, पोतघातक,
Prashnavyakaran प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र Ardha-Magadhi

संवर द्वार श्रुतस्कंध-२

अध्ययन-५ अपरिग्रह

Hindi 45 Sutra Ang-10 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जो सो वीरवरवयणविरतिपवित्थर-बहुविहप्पकारो सम्मत्तविसुद्धमूलो धितिकंदो विणयवेइओ निग्गततिलोक्कविपुल-जसनिचियपीणपीवरसुजातखंधो पंचमहव्वयविसालसालो भावणतयंत ज्झाण सुभजोग नाण पल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हयफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि सिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खर मोत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवर-वरपायवो। चरिमं संवरदारं। जत्थ न कप्पइ गामागर नगर खेड कब्बड मडंब दोणमुह पट्टणासमगयं च किंचि अप्पं व बहुं व अणुं व थूलं व तस थावरकाय दव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं। न हिरण्ण सुवण्ण खेत्त वत्थुं, न दासी दास भयक पेस हय गय गवेलगं व, न जाण जुग्ग सयणासणाइं,

Translated Sutra: श्रीवीरवर – महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर – पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है। विनय इसकी वेदिका है। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भावनाएं इस संवरवृक्ष
Rajprashniya राजप्रश्नीय उपांग सूत्र Ardha-Magadhi

सूर्याभदेव प्रकरण

Hindi 13 Sutra Upang-02 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते सूरियाभविमानवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य पायत्ताणियाहिवइस्स देवस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया पीइना परमसोमनस्सिया हरिसवस विसप्प-माणहियया अप्पेगइया वंदनवत्तियाए अप्पेगइया पूयणवत्तियाए अप्पेगइया सक्कारवत्तियाए अप्पेगइया सम्मानवत्तियाए अप्पेगइया कोऊहलवत्तियाए अप्पेगइया असुयाइं सुणिस्सामो, अप्पेग-इया सुयाइं अट्ठाइं हेऊइं पसिणाइं कारणाइं वागरणाइं पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सूरियाभस्स देवस्स वयणमनुयत्तेमाणा अप्पेगइया अन्नमन्नमनुवत्तेमाणा अप्पेगइया जिनभतिरागेणं अप्पेगइया धम्मो त्ति अप्पेगइया जीयमेयं

Translated Sutra: तदनन्तर पदात्यनीकाधिपति देव से इस बात को सूनकर सूर्याभविमानवासी सभी वैमानिक देव और देवियाँ हर्षित, सन्तुष्ट यावत्‌ विकसितहृदय हो, कितने वन्दना करने के विचार से, कितने पर्युपासना की आकांक्षा से, कितने सत्कार की भावना से, कितने सम्मान की ईच्छा से, कितने जिनेन्द्र भगवान प्रति कुतूहलजनित भक्ति – अनुराग से, कितने
Rajprashniya राजप्रश्नीय उपांग सूत्र Ardha-Magadhi

सूर्याभदेव प्रकरण

Hindi 16 Sutra Upang-02 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सूरियाभे देवे आभियोगस्स देवस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए पीइमने परमसोमनस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए दिव्वं जिणिंदाभिगमनजोग्गं उत्तरवेउव्वियरूवं विउव्वति, विउव्वित्ता चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि, दोहिं अनिएहिं, तं जहा–गंधव्वाणिएण य नट्ठाणिएण य सद्धिं संपरिवुडे तं दिव्वं जाणविमानं अनुपयाहिणी-करेमाणे पुरत्थिमिल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहति, दुरुहित्ता जेणेव सीहासने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासन-वरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसण्णे। तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स चत्तारि सामानियसाहस्सीओ तं दिव्वं जाणविमानं

Translated Sutra: तदनन्तर आभियोगिक देव ने उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तर पूर्व दिग्भाग में सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देवों के बैठने के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की। पूर्व दिशा में सूर्याभदेव की परिवार सहित चार अग्र महिषियों के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की। दक्षिणपूर्व दिशा में सूर्याभदेव की आभ्यन्तर
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) Hindi 546 View Detail
Mool Sutra: जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।।१।।

Translated Sutra: मोहनीय आदि कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होनेवाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने `गुण' या `गुणस्थान' संज्ञा दी है। अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएँ श्रेणियाँ-भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 103 View Detail
Mool Sutra: णिव्वेदतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।।२२।।

Translated Sutra: सब द्रव्यों में होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद (संसार देह तथा भोगों के प्रति वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१६. मोक्षमार्गसूत्र Hindi 193 View Detail
Mool Sutra: दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि। साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा।।२।।

Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि (सम्यक्) दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बन्ध होता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१६. मोक्षमार्गसूत्र Hindi 195 View Detail
Mool Sutra: वदसमिदीगुत्तीओ, सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं। कुव्वंतो वि अभव्वो, अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु।।४।।

Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप का आचरण करते हुए भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२२. द्विविध धर्मसूत्र Hindi 296 View Detail
Mool Sutra: दो चेव जिणवरेहिं, जाइजरामरणविप्पमुक्केहिं। लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा वि।।१।।

Translated Sutra: जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक में दो ही मार्ग बतलाये हैं--एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा है उत्तम श्रावकों का।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२२. द्विविध धर्मसूत्र Hindi 299 View Detail
Mool Sutra: नो खलु अहं तहा, संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं, अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइय।दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामि।।४।।

Translated Sutra: मैं मुण्डित (प्रव्रजित) होकर अनगारधर्म स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, अतः मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित द्वादशव्रतयुक्त श्रावकधर्म कों अंगीकार करुुंगा।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२७. आवश्यकसूत्र Hindi 434 View Detail
Mool Sutra: देवस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुविसग्गो।।१८।।

Translated Sutra: दिन, रात, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्रभगवान् के गुणों का चिन्तवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२८. तपसूत्र Hindi 465 View Detail
Mool Sutra: जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं। आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएसं।।२७।।

Translated Sutra: अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) Hindi 552 View Detail
Mool Sutra: णो इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणत्तुं, सम्माइट्ठी अविरदो सो।।७।।

Translated Sutra: जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) Hindi 557 View Detail
Mool Sutra: तारिसपरिणामट्ठियजीवा, हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणा, खवणुवसमणुज्जया भणिया।।१२।।

Translated Sutra: अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (ज्ञानसूर्य) जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है।)
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन

३५. द्रव्यसूत्र Hindi 635 View Detail
Mool Sutra: चेयणरहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं। लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं।।१२।।

Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है।
Saman Suttam Saman Suttam Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२८. तपसूत्र English 465 View Detail
Mool Sutra: यः पश्यत्यात्मानं, समभावे संस्थाप्य परिणामम्। आलोचनमिति जानीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम्।।२७।।

Translated Sutra: He who realises his own soul after attaining mental equanimity achieves confession, know this to be the advice of the supreme Jina.
Saman Suttam સમણસુત્તં Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२८. तपसूत्र Gujarati 465 View Detail
Mool Sutra: यः पश्यत्यात्मानं, समभावे संस्थाप्य परिणामम्। आलोचनमिति जानीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम्।।२७।।

Translated Sutra: ચિત્તવૃત્તિને સમભાવમાં સ્થિર કરીને આત્મનિરીક્ષણ કરવું. તે જિનેશ્વરે કહેલો નિશ્ચયદૃષ્ટિનો આલોચના તપ છે.
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 103 View Detail
Mool Sutra: निर्वेदत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु। यः तस्य भवति त्यागः, इति भणितं जिनवरेन्द्रैः।।२२।।

Translated Sutra: सब द्रव्यों में होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद (संसार देह तथा भोगों के प्रति वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
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