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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 396 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ।
तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा–असंसट्ठे हत्थे असंसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण असंसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा [पाणं वा] खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पिंडेसणा।
अहावरा दोच्चा पिंडेसणा–संसट्ठे हत्थे संसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण संसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–दोच्चा पिंडेसणा।
अहावरा तच्चा पिंडेसणा–इह खलु पाईणं वा, पडीणं Translated Sutra: अब संयमशील साधु को सात पिण्डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए। (१) पहली पिण्डैषणा – असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र। हाथ और बर्तन (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट हो तो उनसे अशनादि आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यह पहली पिण्डैषणा है। (२) दूसरी पिण्डैषणा है – संसृष्ट हाथ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-२ | Hindi | 495 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा अणुवीइ ओग्गहं जाणेज्जा–जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए, ते ओग्गहं अणुण्णविज्जा। कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउसा, आउसंतस्स आग्गहो, जाव साहम्मिया एत्ता, ताव ओग्गहं ओगिण्हिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो।
से किं पुण तत्थ ओग्गहंसि एवोग्गहियंसि? जे तत्थ गाहावईण वा, गाहावइ-पुत्ताण वा इच्चेयाइं आयत्तणाइं उवाइकम्म। अह भिक्खू जाणेज्जा इमाहिं सत्तहिं पडिमाहिं ओग्गहं ओगिण्हित्तए।
तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा–से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु Translated Sutra: साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे। पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे। अव – गृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित स्थानदोषों का परित्याग करके निवास | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-६ मकाई आदि अध्ययन-१ थी १४ |
Hindi | 23 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पंचमस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते। छट्ठस्स णं भंते! वग्गस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं छट्ठस्स वग्गस्ससोलस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा– Translated Sutra: भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने छठे वर्ग के क्या भाव कहे हैं ? ‘हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने अष्टम अंग अंतगडदशा के छठे वर्ग के सोलह अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं – | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 56 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–वीरकण्हा वि, नवरं–महालयं सव्वओभद्दं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा–
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं Translated Sutra: आर्या काली की तरह आर्या वीरकृष्णा ने भी दीक्षा अंगीकार की। विशेष यह कि उसने महत् सर्वतोभद्र तप कर्म अंगीकार किया, जो इस प्रकार है – उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, यावत् सात उपवास किए सब में सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया। यह प्रथम लता हुई। चोला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, इसी क्रम | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 299 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! सरीरा पन्नत्ता? गोयमा! पंच सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए वेउव्विए आहारए तेयए कम्मए।
नेरइयाणं भंते! कइ सरीरा पन्नत्ता? गोयमा! तओ सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–वेउव्विए तेयए कम्मए।
असुरकुमाराणं भंते! कइ सरीरा पन्नत्ता? गोयमा! तओ सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–वेउव्विए तेयए कम्मए।
एवं तिन्नि-तिन्नि एए चेव सरीरा जाव थणियकुमाराणं भाणियव्वा।
पुढविकाइयाणं भंते! कइ सरीरा पन्नत्ता? गोयमा! तओ सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए तेयए कम्मए।
एवं आउ-तेउ-वणस्सइकाइयाण वि एए चेव तिन्नि सरीरा भाणियव्वा।
वाउकाइयाणं भंते! कइ सरीरा पन्नत्ता? गोयमा! चत्तारि सरीरा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए Translated Sutra: भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार – औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण। नैरयिकों के तीन शरीर हैं। – वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर। असुरकुमारों के तीन शरीर हैं। वैक्रिय, तैजस और कार्मण। इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना। पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन, – औदारिक, तैजस और | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 48 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ते णं परिव्वाया रिउवेद यजुव्वेद सामवेद अहव्वणवेद इतिहासपंचमाणं निघंटु छट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा पारगा धारगा सडंगवी सट्ठितंतविसारया संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे अन्नेसु य बहूसु बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिणिट्ठया यावि होत्था।
ते णं परिव्वाया दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणा पन्नवेमाणा परूवेमाणा विहरंति। जं णं अम्हं किं चि असुई भवइ तं णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं समाणं सुई भवइ।
एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो।
तेसि णं परिव्वायाणं Translated Sutra: वे परिव्राजक ऋक्, यजु, साम, अथर्वण – इन चारों वेदों, पाँचवे इतिहास, छठे निघण्टु के अध्येता थे। उन्हें वेदों का सांगोपांग रहस्य बोधपूर्वक ज्ञान था। वे चारों वेदों के सारक, पारग, धारक, तथा वेदों के छहों अंगों के ज्ञाता थे। वे षष्टितन्त्र – में विशारद या निपुण थे। संख्यान, शिक्षा, वेद मन्त्रों के उच्चारण के विशिष्ट | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 50 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजने णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ। से कहमेयं भंते! एवं खलु गोयमा! जं णं से बहुजने अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ– एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमट्ठे अहंपि णं गोयमा! एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पन्नवेमि एवं परूवेमि एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहरेइ, Translated Sutra: भगवन् ! बहुत से लोग एक दूसरे से आख्यात करते हैं, भाषित करते हैं तथा प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है। भगवन् ! यह कैसे है ? बहुत से लोग आपस में एक दूसरे से जो ऐसा कहते हैं, प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर में सौ घरों में | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 51 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सेज्जे इमे गामागर नयर निगम रायहाणि खेड कब्बड दोणमुह मडंब पट्टणासम संबाह सन्निवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा–आयरियपडिनीया उवज्झायपडिनीया तदुभयपडिनीया कुलपडिनीया गणपडिनीया आयरिय उवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अनालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेसिं उववाए Translated Sutra: जो ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे – आचार्यप्रत्यनीक, उपाध्याय – प्रत्यनीक, कुल – प्रत्यनीक, गण – प्रत्यनीक, आचार्य और उपाध्याय के अयशस्कर, अवर्णकारक, अकीर्तिकारक, असद्भाव, आरोपण तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को – दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए बहुत | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 54 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कइसमए णं भंते! आवज्जीकरणे पन्नत्ते? गोयमा! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पन्नत्ते।
केवलिसमुग्घाए णं भंते! कइसमइए पन्नत्ते? गोयमा! अट्ठसमइए पन्नत्ते, तं जहा–पढमे समए दंडं करेइ, बीए समए कवाडं करेइ, तइए समए मंथं करेइ, चउत्थे समए लोयं पूरेइ, पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ, छट्ठे समए मंथं पडिसा-हरइ, सत्तमे समए कबाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता सरीरत्थे भवइ।
से णं भंते! तहा समुग्घायगए किं मनजोगं जुंजइ? वयजोगं जुंजइ? कायजोगं जुंजइ? गोयमा! नो मणजोगं जुंजइ, नो वयजोगं जुंजइ, कायजोगं जुंजइ।
कायजोगं जुंजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ? ओरालियमीसासरीरकायजोगं Translated Sutra: भगवन् ! आवर्जीकरण का प्रक्रियाक्रम कितने समय का कहा गया है ? गौतम ! वह असंख्येय समयवर्ती अन्तर्मुहूर्त्त का कहा गया है। भगवन् ! केवली – समुद्घात कितने समय का कहा गया है ? गौतम ! आठ समय का है। जैसे – पहले समय में केवली आत्मप्रदेशों को विस्तीर्ण कर दण्ड के आकार में करते हैं। दूसरे समय में वे आत्मप्रदेशों को विस्तीर्ण | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 55 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! तहा सजोगी सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ? नो इणट्ठे समट्ठे।
से णं पुव्वामेव सन्निस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीनं पढमं मनजोगं निरुंभइ, तयानंतरं च णं विदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा, असंखेज्ज-गुणपरिहीणं विइयं वइजोगं निरुंभइ, तयानंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहन्न-जोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिरुंभइ। से णं एएणं उवाएणं पढमं मनजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता वयजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता कायजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता जोगनिरोहं करेइ, करेत्ता अजोगत्तं Translated Sutra: भगवन् ! क्या सयोगी सिद्ध होते हैं ? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे सबसे पहले पर्याप्त, संज्ञी, पंचेन्द्रिय जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं। उसके बाद पर्याप्त बेइन्द्रिय जीव के जघन्य वचन – योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन वचन – योग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 761 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–सिय भंते! जाव चत्तारि पंच पुढविक्काइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति?
नो इणट्ठे समट्ठे। पुढविक्काइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा।
ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी? मिच्छदिट्ठी? सम्मामिच्छदिट्ठी?
गोयमा! नो सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, नो सम्मामिच्छदिट्ठी।
ते णं भंते! जीवा किं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! क्या कदाचित् दो यावत् चार – पाँच पृथ्वीकायिक मिलकर साधारण शरीर बाँधते हैं, बाँधकर पीछे आहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर का बन्ध करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येक – पृथक् – पृथक् आहार करने वाले हैं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 134 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाइं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणाइं पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाइं उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ (श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। परीषद् वन्दना करने गई यावत् धर्मोपदेश सूनकर) परीषद् वापस लौट गई। उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखते थे। वे निरन्तर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 446 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं वाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए, पगइउवसंतयाए, पगइपयणुकोह-मान-माया-लोभयाए, मिउमद्दवसंपन्नयाए, अल्लीणयाए, विणीययाए, अन्नया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं-विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ।
से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं जाणइ-पासइ। से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पन्नेणं Translated Sutra: निरन्तर छठ – छठ का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए उस जीव की प्रकृति – भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और लाभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-५ परमाणु | Hindi | 786 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! एगवण्णे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पन्नत्ते। जइ एगवण्णे? सिय कालए, सिय नीलए, सिय लोहियए, सिय हालिद्दए, सिय सुक्किलए। जइ एगगंधे? सिय सुब्भिगंधे, सिय दुब्भिगंधे। जइ एगरसे? सिय तित्ते, सिय कडुए, सिय कसाए, सिय अंबिले, सिय महुरे। जइ दुफासे? १. सिय सीए य निद्धे य, २. सिय सीए य लुक्खे य, ३. सिय उसिणे य निद्धे य, ४. सिय उसिणे य लुक्खे य।
दुप्पएसिए णं भंते! खंधे कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! सिय एगवण्णे, सिय दुवण्णे, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, सिय दुरसे, सिय दुफासे, सिय तिफासे, सिय चउफासे पन्नत्ते।
जइ एगवण्णे? Translated Sutra: भगवन् ! परमाणु – पुद्गल कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला कहा गया है ? गौतम ! (वह) एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श वाला कहा गया है। यदि एक वर्ण वाला हो तो कदाचित् काला, कदाचित् नीला, कदाचित् लाल, कदाचित् पीला और कदाचित् श्वेत होता है। यदि एक गन्ध वाला होता है तो कदाचित् सुरभिगन्ध और कदाचित् दुरभिगन्ध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-५ परमाणु | Hindi | 787 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बायरपरिणए णं भंते! अनंतपएसिए खंधे कतिवण्णे? एवं जहा अट्ठारसमसए जाव सिय अट्ठफासे पन्नत्ते। वण्ण-गंध-रसा जहा दसपएसियस्स।
जइ चउफासे? १. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे, २. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे, ३. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे, ४. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ५. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे, ६. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे, ७. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे, ८. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ९. सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे Translated Sutra: भगवन् ! बादर – परिणाम वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है ? गौतम ! अठारहवे शतक के छठे उद्देशक के समान ‘कदाचित् आठ स्पर्श वाला कहा गया है’, तक जानना। अनन्तप्रदेशी बादर परिणामी स्कन्ध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भंग, दशप्रदेशी स्कन्ध के समान कहने। यदि वह चार स्पर्श वाला होता है, तो कदाचित् सर्वकर्कश, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-६ अंतर | Hindi | 789 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! किं पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा? पुव्विं आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा?
गोयमा! पुव्विं वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा एवं जहा सत्तरसमसए छट्ठुद्देसे जाव से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–पुव्विं वा जाव उववज्जेज्जा, नवरं–तेहिं संपाउणणा, इमेहिं आहारो भण्णति, सेसं तं चेव।
पुढविक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए ईसाने कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए? एवं चेव। Translated Sutra: भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी और शर्कराप्रभापृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं; इत्यादि वर्णन सत्तरहवे शतक के छठे उद्देशक के अनुसार, विशेष यह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 53 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तीसा य पन्नवीसा, पन्नरस दसेव या सयसहस्सा ।
तिन्नेगं पंचूणं, पंचेव अनुत्तरा निरया ॥ Translated Sutra: प्रथम पृथ्वी (नरकभूमि) में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवी में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं में केवल पाँच नारकावास हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 65 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] काऊ य दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए ।
पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ Translated Sutra: पहली और दूसरी नरकपृथ्वी में कापोतलेश्या है, तीसरी नरकपृथ्वी में मिश्र लेश्याएं हैं, चौथी में नील लेश्या है, पाँचवी में मिश्र लेश्याएं हैं, छठी में कृष्ण लेश्या और सातवी में परम कृष्ण लेश्या होती है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 114 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तए णं से खंदए अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठे जाव नमंसित्ता मासियं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से नीकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र – अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर के पास आकर वन्दना – नमस्कार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 151 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ केरिसविउव्वणा २. चमर ३. किरिय ४,५. जाणित्थि ६. नगर ७. पाला य ।
८. अहिवइ ९. इंदिय १. परिसा, ततियम्मि सए दसुद्देसा ॥ Translated Sutra: तृतीय शतक में दस उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में चमरेन्द्र की विकुर्वणा – शक्ति कैसी है ? इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं, दूसरे उद्देशक में चमरेन्द्र का उत्पात, तृतीय उद्देशक में क्रियाओं। चतुर्थ में देव द्वारा विकुर्वित यान को साधु जानता है? इत्यादि प्रश्नों। पाँचवे उद्देशक में साधु द्वारा स्त्री आदि के रूपों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 156 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासि तीसए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडि-पुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स Translated Sutra: भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने मे समर्थ है, तो आप देवानुप्रिय का शिष्य ‘तिष्यक’ नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था निरन्तर छठ – छठ की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूरे आठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 159 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं सणंकुमारे वि, नवरं–चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे।
एवं लंतए वि, नवरं–सातिरेगे अट्ठ केवलकप्पे। महासुक्के सोलस केवलकप्पे। सहस्सारे सातिरेगे सोलस।
एवं पाणए वि, नवरं–बत्तीसं केवलकप्पे।
एवं अच्चुए वि, नवरं–सातिरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अन्नं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति तच्चे गोयमे वायुभूई अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ जाव विहरइ।
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ मोयाओ नयरीओ नंदनाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। Translated Sutra: इसी प्रकार सनत्कुमार देवलोक के देवेन्द्र के विषय में भी समझना चाहिए। विशेषता यह है कि (सनत् – कुमारेन्द्र की विकुर्वणाशक्ति) सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों जितने स्थल को भरने की है और तीरछे उसकी विकुर्वणा – शक्ति असंख्यात (द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की) है। इसी तरह (सनत्कुमारेन्द्र के) सामानिक देव, त्राय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-१ सूर्य | Hindi | 215 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ चंप-रवि २ अनिल ३ गंठिय ४ सद्दे ५-६ छउमाउ ७ एयण ८ नियंठे ।
९ रायगिहं १ चंपा-चंदिमा य दस पंचमम्मि सए ॥ Translated Sutra: पांचवे शतक में ये दस उद्देशक हैं – प्रथम उद्देशक में चम्पा नगरी में सूर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। द्वीतिय में वायु – सम्बन्धी प्ररूपण। तृतीय में जालग्रन्थी का उदाहरण। चतुर्थ में शब्द – सम्बन्धी प्रश्नोत्तर। पंचम में छद्मस्थ वर्णन। छठे में आयुष्य सम्बन्धी निरूपण है। सातवे में पुद्गलों का कम्पन। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-७ पुदगल कंपन | Hindi | 256 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे किं –१. देसेणं देसं फुसइ, २. देसेहिं देसे फुसइ, ३. देसेणं सव्वं फुसइ, ४. देसेहिं देसे फुसइ, ५. देसेहिं देसे फुसइ, ६. देसेहिं सव्वं फुसइ, ७. सव्वेणं देसं फुसइ, ८. सव्वेणं देसे फुसइ, ९. सव्वेणं सव्वं फुसइ?
गोयमा! १. नो देसेणं देसं फुसइ, २. नो देसेणं देसे फुसइ, ३. नो देसेणं सव्वं फुसइ, ४. नो देसेहिं देसं फुसइ, ५. नो देसेहिं देसे फुसइ, ६. नो देसेहिं सव्वं फुसइ, ७. नो सव्वेणं देसं फुसइ, ८. नो सव्वेणं देसे फुसइ, ९. सव्वेणं सव्वं फुसइ।
परमाणुपोग्गले दुप्पएसियं फुसमाणे सत्तम-नवमेहिं फुसइ।
परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसमाणे निपच्छिमएहिं तिहिं फुसइ।
जहा Translated Sutra: भगवन् ! परमाणुपुद्गल, परमाणुपुद्गल को स्पर्श करता हुआ १ – क्या एकदेश से एकदेश को स्पर्श करता है ?, २ – एकदेश से बहुत देशों को स्पर्श करता है ?, ३ – अथवा एकदेश से सबको स्पर्श करता है ?, ४ – अथवा बहुत देशों से एकदेश को स्पर्श करता है ?, ५ – या बहुत देशों से बहुत देशों को स्पर्श करता है ?, ६ – अथवा बहुत देशों से सभी को स्पर्श | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-१ वेदना | Hindi | 273 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! जे महावेदने से महानिज्जरे? जे महानिज्जरे से महावेदने? महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्जराए?
हंता गोयमा! जे महावेदने से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदने, महावेदनस्स य अप्पवेदनस्स य से सेए जे पसत्थ-निज्जराए।
छट्ठ-सत्तमासु णं भंते! पुढवीसु नेरइया महावेदना?
हंता महावेदना।
ते णं भंते! समणेहिंतो निग्गंथेहिंतो महानिज्जरतरा?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणं खाइ अट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जे महावेदने से महानिज्जरे? जे महानिज्जरे से महावेदने? महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्जराए?
गोयमा! से जहानामए दुवे वत्था सिया–एगे वत्थे Translated Sutra: भगवन् ! क्या यह निश्चित है कि जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है और जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है ? तथा क्या महावेदना वाला और अल्पवेदना वाला, इन दोनों में वही जीव श्रेयान् (श्रेष्ठ) है, जो प्रशस्तनिर्जरा वाला है ? हाँ, गौतम ! जो महावेदना वाला है इत्यादि जैसा ऊपर कहा है, इसी प्रकार समझना चाहिए भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-१ वेदना | Hindi | 275 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! किं महावेदना महानिज्जरा? महावेदना अप्पनिज्जरा? अप्पवेदना महानिज्जरा? अप्पवेदना अप्पनिज्जरा?
गोयमा! अत्थेगतिया जीवा महावेदना महानिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा महावेदना अप्प-निज्जरा, अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदना महानिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदना अप्पनिज्जरा।
से केणट्ठेणं?
गोयमा! पडिमापडिवन्नए अनगारे महावेदने महानिज्जरे। छट्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदना अप्पनिज्जरा। सेलेसिं पडिवन्नए अनगारे अप्पवेदने महानिज्जरे। अनुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदना अप्पनिज्जरा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! जीव (क्या) महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं, अथवा अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? गौतम ! कितने ही जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, कितने ही जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, कईं जीव अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं, तथा कईं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-७ शाली | Hindi | 311 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-सुसमा १. तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा २. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा ३. एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसम-सुसमा ४. एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसमा ५. एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसम-दूसमा ६. ।
पुनरवि उस्सप्पिणीए एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसम-दूसमा १. एक्कवीसं वास-सहस्साइं कालो दूसमा २. एगा सागरोव-मकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसम-सुसमा ३. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा ४. तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा५. चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो Translated Sutra: इस सागरोपम – परिमाण के अनुसार (अवसर्पिणीकाल में) चार कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक सुषम – सुषमा आरा होता है; तीन कोटाकोटि सागरोपम – काल का एक सुषमा आरा होता है; दो कोटाकोटि सागरोपम – काल का एक सुषमदुःषमा आरा होता है; बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम – काल का एक दुःषम सुषमा आरा होता है; इक्कीस हजार वर्ष का एक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-८ पृथ्वी | Hindi | 313 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव ईसीपब्भारा।
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए गेहा इ वा? गेहावणा इ वा?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामा इ वा? जाव सन्निवेसा इ वा?
नो इणट्ठे समट्ठे।
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ओराला बलाहया संसेयंति? संमुच्छंति? वासं वासंति?
हंता अत्थि। तिन्नि वि पकरेंति–देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, नागो वि पकरेति।
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे थणियसद्दे?
हंता अत्थि। तिन्नि वि पकरेंति।
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे अगनिकाए?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! कितनी पृथ्वीयाँ कही गई हैं ? गौतम ! आठ। – रत्नप्रभा यावत् ईषत्प्राग्भारा। भगवन् ! रत्न – प्रभापृथ्वी के नीचे गृह अथवा गृहापण हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे महान् मेघ संस्वेद | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 359 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्सम-दुस्समाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ?
गोयमा! कालो भविस्सइ हाहाभूए, भंभब्भूए कोलाहलभूए। समानुभावेण य णं खर-फरुस-धूलिमइला दुव्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाहिंति। इह अभिक्खं धूमाहिंति य दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुस-तमपडल-निरालोगा। समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति। अहियं सूरिया तवइस्संति।
अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा विरसमेहा खार-मेहा खत्तमेहा अग्गिमेहा विज्जुमेहा विसमेहा असणिमेहा–अपिवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणोदीरणा-परिणामसलिला, अमणुन्नपा-णियगा Translated Sutra: भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल का दुःषमदुःषम नामक छठा आरा जब अत्यन्त उत्कट अवस्था को प्राप्त होगा, तब भारतवर्ष का आकारभाव – प्रत्यवतार कैसा होगा ? गौतम ! वह काल हाहाभूत, भंभाभूत (दुःखार्त्त) तथा कोलाहलभूत होगा। काल के प्रभाव से अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, असह्य, व्याकुल, भयंकर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-७ अणगार | Hindi | 364 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे इमे भंते! असण्णिणो पाणा, तं जहा–पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, छट्ठा य एगतिया तसा–एए णं अंधा, मूढा, तमपविट्ठा, तमपडल-मोहजाल-पडिच्छन्ना अकामनिकरणं वेदनं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! जे इमे असण्णिणो पाणा जाव वेदनं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया।
अत्थि णं भंते! पभू वि अकामनिकरणं वेदनं वेदेंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! पभू वि अकामनिकरणं वेदनं वेदेंति?
गोयमा! जे णं नो पभू विणा पदीवेणं अंधकारंसि रूवाइं पासित्तए, जे णं नो पभू पुरओ रूवाइं अनिज्झाइत्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू मग्गओ रूवाइं अनवयक्खित्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू पासओ रूवाइं अनवलोएत्ता णं पासित्तए, जे णं Translated Sutra: भगवन् ! ये जो असंज्ञी प्राणी हैं, यथा – पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक ये पाँच तथा छठे कईं त्रस – कायिक जीव हैं, जो अन्ध हैं, मूढ़ हैं, तामस में प्रविष्ट की तरह हैं, (ज्ञानावरणरूप) तमःपटल और (मोहनीयरूप) मोहजाल से आच्छादित हैं, वे अकामनिकरण (अज्ञान रूप में) वेदना वेदते हैं, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हाँ, गौतम ! जो ये | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 371 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे।
असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
हंता पभू।
से णं भंते! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ?
गोयमा! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ।
एवं २ एगवण्णं अनेगरूवं ३. अनेगवण्णं एगरूवं ४. अनेगवण्णं अनेगरूवं–चउभंगो।
असंवुडे णं भंते! अनगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता Translated Sutra: भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले, एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ हैं। भगवन् ! वह असंवृत अनगार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-९ असंवृत्त | Hindi | 375 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजणे णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ– एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ–एवं खलु बहवे मनुस्सा अन्नयरेसु सु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु सु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: भगवन् ! बहुत – से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि – अनेक प्रकार के छोटे – बड़े संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए आहत हुए एवं घायल हुए बहुत – से मनुष्य मृत्यु के समय मरकर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? गौतम ! बहुत – से मनुष्य, जो इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 378 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे, गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगया।
तए णं से कालोदाई अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
अत्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
कालोदाई! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं Translated Sutra: किसी समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा। यावत् परीषद् धर्मोपदेश सूनकर लौट गई। तदनन्तर अन्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-८ प्रत्यनीक | Hindi | 414 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! बंधे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा–इरियावहियबंधे य, संपराइयबंधे य।
इरियावहियं णं भंते! कम्मं किं नेरइओ बंधइ? तिरिक्खजोणिओ बंधइ? तिरिक्खजोणिणी बंधइ? मनुस्सो बंधइ? मनुस्सी बंधइ? देवो बंधइ? देवी बंधइ?
गोयमा! नो नेरइओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, नो देवो बंधइ, नो देवी बंधइ। पुव्व पडिवन्नए पडुच्च मनुस्सा य मनुस्सीओ य बंधंति, पडिवज्जमाणए पडुच्च १. मनुस्सो वा बंधइ २. मनुस्सी वा बंधइ ३. मनुस्सा वा बंधंति ४. मनुस्सीओ वा बंधंति ५. अहवा मनुस्सो य मनुस्सी य बंधइ ६. अहवा मनुस्सो य मनुस्सीओ य बंधंति ७. अहवा मनुस्सा य मनुस्सी य बंधंति Translated Sutra: भगवन् ! बंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! बंध दो प्रकार का – ईर्यापथिकबंध और साम्परायिकबंध। भगवन् ! ईर्यापथिककर्म क्या नैरयिक बाँधता है, या तिर्यंचयोनिक या तिर्यंचयोनिक स्त्री बाँधती है, अथवा मनुष्य, या मनुष्य – स्त्री बाँधती है, अथवा देव या देवी बाँधती है ? गौतम ! ईर्यापथिककर्म न नैरयिक बाँधता है, न तिर्यंच – | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 498 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–उप्पले णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
गोयमा! एगजीवे, नो अनेगजीवे। तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जंति ते णं नो एगजीवा अनेगजीवा।
ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जंति। एवं उववाओ भाणियव्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसानेति।
ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! जहन्नेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरांत जब उस उत्पल में दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रहकर अनेक जीव वाला बन जाता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 506 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं हत्थिणापुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवने नामं उज्जाणे होत्था–सव्वोउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे नंदनवनसन्निभप्पगासे सुहसीतलच्छाए मनोरमे सादुप्फले अकंटए, पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्था–महयाहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दे नामं कुमारे होत्था–सुकुमालपाणिपाए, जहा सूरियकंते जाव रज्जं Translated Sutra: उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था। उस हस्तिनापुर नगर के बाहर ईशानकोण में सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध था। रम्य था, नन्दनवन के समान सुशोभित था। उसकी छाया सुखद और शीतल थी। वह मनोरम, स्वादिष्ट फलयुक्त, कण्टकरहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 516 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अहाउनिव्वत्तिकाले?
अहाउनिव्वत्तिकाले–जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मनुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं। सेत्तं अहाउ-निव्वत्तिकाले।
से किं तं मरणकाले?
मरणकाले–जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं मरणकाले।
से किं तं अद्धाकाले?
अद्धाकाले–से णं समयट्ठयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्ठयाए। एस णं सुदंसणा! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्ठयाए। असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवु-च्चइ। संखेज्जाओ आवलियाओ उस्साओ जहा सालिउद्देसए जाव–
एएसि णं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया Translated Sutra: भगवन् ! वह यथार्निवृत्तिकाल क्या है ? (सुदर्शन !) जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव ने स्वयं जिस गति का और जैसा भी आयुष्य बाँधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना – भोगना, ‘यथायुर्निवृ – त्तिकाल’ कहलाता है। भगवन् ! मरणकाल क्या है ? सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 521 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुम्माणवड्ढणं करेह, करेत्ता हत्थिणापुरं नगरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-संमज्जिओवलित्तं जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसंजुत्तं उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममे-तमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्ख-मइ, Translated Sutra: इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिना – पुर नगर में शीघ्र ही चारक – शोधन अर्थात् – बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लीप – पोत कर शुद्धि (यावत्) करो – कराओ। तत्पश्चात् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 543 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवायवेरमणे, जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
अह भंते! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! ओग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे–एस णं कतिवण्णे जाव कति फासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे कतिवण्णे Translated Sutra: भगवन् ! प्राणातिपात – विरमण यावत् परिग्रह – विरमण तथा क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ? गौतम ! (ये सभी) वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित कहे हैं। भगवन् ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 569 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा।
अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए पंच अनुत्तरा महतिमहालया महानिरया पन्नत्ता, तं जहा–काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे। ते णं नरगा छट्ठीए तमाए पुढवीए नरएहिंतो महत्तरा चेव, महावित्थिण्णतरा चेव, महोगासतरा चेव, महापइरिक्कतरा चेव, नो तहा महप्पवेसणतरा चेव, आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, अनोमानतरा चेव। तेसु णं नरएसु नेरइया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियत्तरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, नो तहा अप्पक-म्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा Translated Sutra: भगवन् ! नरकपृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात, यथा – रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी। अधःसप्तमा पृथ्वी में पाँच अनुत्तर और महातिमहान् नरकावास यावत् अप्रतिष्ठान तक हैं। वे नरकावास छठी तमःप्रभापृथ्वी के नरकावासों से महत्तर हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महान अवकाश वाले हैं, बहुत रिक्त स्थान वाले हैं; किन्तु | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 638 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइ–एवं खलु देवानुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिने जिनप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिने जिनसद्दं पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं?
तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कनगपुलगनिधस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे Translated Sutra: इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत – से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे – हे देवानुप्रियो ! निश्चित है कि गोशालक मंखलिपुत्र ‘जिन’ होकर अपने आप को ‘जिन’ कहता हुआ, यावत् ‘जिन’ शब्द में अपने आपको प्रकट करता हुआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 641 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं अहं गोयमा! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि। तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ। आइच्चतेयतवियाओ य से छप्पदीओ सव्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पान-भूय-जीव-सत्त-दयट्ठयाए च णं पडियाओ-पडियाओ तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चोरुभेइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सिं पासइ, पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: तदनन्तर, हे गौतम ! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया। उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बालतपस्वी निरन्तर छठ – छठ तपःकर्म करने के साथ – साथ दोनों भुजाएं ऊंची रखकर सूर्य के सम्मुख खड़ा होकर आतापनभूमि में आतापना ले रहा था। सूर्य की गरमी से तपी हुई जूएं चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थीं और वह तपस्वी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 643 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेसे जाए। Translated Sutra: तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक मुट्ठी में आवें, इतने उड़द के बाकलों से तथा एक चुल्लूभर पानी से निरन्तर छठ – छठ के तपश्चरण के साथ दोनों बाहें ऊंची करके सूर्य के सम्मुख खड़ा रहकर आतापना – भूमि में यावत् आतापना लेने लगा। ऐसा करते हुए गोशालक को छह मास के अन्त में, संक्षिप्त – विपुल – तेजोलेश्या प्राप्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 645 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आनंदे नामं थेरे पगइभद्दए जाव विनीए छट्ठं-छट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से आनंदे थेरे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइ-वयइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आनंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकरावणस्स अदूर-सामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–एहि ताव आनंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि।
तए णं से आनंदे थेरे Translated Sutra: उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर का अन्तेवासी आनन्द नामक स्थविर था। वह प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था और निरन्तर छठ – छठ का तपश्चरण करता हुआ और संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय किया, यावत् – गौतमस्वामी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 647 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं गच्छ णं तुमं आनंदा! गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमट्ठं परिकहेहि–मा णं अज्जो! तुब्भं केई गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ, गोसाले णं मंखलिपुत्ते समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवन्ने।
तए णं से आनंदे थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव गोयमादी समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोयमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वयासी–एवं खलु अज्जो! छट्ठक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे Translated Sutra: (भगवन् – ) ‘इसलिए हे आनन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण – निर्ग्रन्थों को यह बात कही कि – हे आर्यो! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ कोई भी धार्मिक चर्चा न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार पूर्वक कोई प्रत्युपचार (तिरस्कार) न करे। क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण – निर्ग्रन्थों के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 648 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जावं च णं आनंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमट्ठं परिकहेइ, तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हाला हलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता आजीविय-संघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं सावत्थिं नगरिं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी–सुट्ठु णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी, साहू णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी–गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी।
जे णं Translated Sutra: जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को भगवान का आदेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक आजीवकसंघ से परिवृत्त होकर हालाहला कुम्भकारी की दुकान से नीकलकर अत्यन्त रोष धारण किए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आया। फिर श्रमण भगवान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 655 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपु-रत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं साणकोट्ठए नामं चेइए होत्था–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूर-सामंते, एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था–किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरंबभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरि-ज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति। तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति–अड्ढा Translated Sutra: तदनन्तर किसी दिन भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से नीकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल उस समय मेंढिकग्राम नगर था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था। यावत् पृथ्वी – शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था वह श्याम, श्यामप्रभावाला, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 657 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते से णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता। तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता।
से णं भंते! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे Translated Sutra: भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम ! वह ऊंचे चन्द्र और सूर्य का यावत् उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ गोशालक की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। भगवन् ! वह गोशालक देव उस देवलोक से आयुष्य, भव और स्थिति | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 658 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] विमलवाहने णं भंते! राया सुमंगलेणं अनगारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! विमलवाहने णं राया सुमंगलेणं अनगारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति।
से णं ततो अनंतरं उव्वट्टित्ता मच्छेसु उववज्जिहिति। तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चं पि अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति।
से णं तओनंतरं उव्वट्टित्ता दोच्चं पि मच्छेसु उववज्जिहिति। तत्थ णं वि सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा छट्ठाए तमाए पुढवीए Translated Sutra: भगवन् ! सुमंगल अनगार द्वारा अश्व, रथ और सारथि – सहित भस्म किया हुआ विमलवाहन राजा कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! वह अधःसप्तम पृथ्वी में, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नरकों में नैरयिकरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् उद्वर्त्त कर मत्स्यों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र के द्वारा वध होने पर दाहज्वर की पीड़ा से काल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-३ कर्म | Hindi | 671 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए, एत्थ णं एगजंबुए नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुव्वानुपुव्विं चर-माणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे एगजंबुए समोसढे जाव परिसा पडिगया।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–अनगारस्स णं भंते! भावियप्पणो छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं Translated Sutra: किसी समय एक दिन श्रमण भगवान महावीर राजगृहनगर के गुणशीलक नामक उद्यान से नीकले और बाहर के (अन्य) जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में उल्लूकतीर नामका नगर था। (वर्णन) उस उल्लूकतीर नगर के बाहर ईशानकोण में ‘एकजम्बुक’ उद्यान था। एक बार किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् ‘एकजम्बूक’ |