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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 46 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं लोगुत्तरियं भावसुयं?
लोगुत्तरियं भावसुयं– जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पन्ननाणदंसणधरेहिं तीय-पडुप्पन्न मनागयजाणएहिं सव्वन्नूहिं सव्वदरिसीहिं तेलोक्कचहिय-महियपूइएहिं पणीयं दुवालसंगं गणि-पिडगं, तं जहा–
१.आयारो २. सूयगडो ३. ठाणं ४. समवाओ ५. वियाहपन्नत्ती ६. नायाधम्मकहाओ ७. उवासगदसाओ ८. अंतगडदसाओ ९. अनुत्तरोव-वाइयदसाओ १०. पण्हावागरणाइं ११. विवागसुयं १२. दिट्ठिवाओ।
से तं लोगुत्तरियं भावसुयं। से तं नोआगमओ भावसुयं। से तं भावसुयं। Translated Sutra: लोकोत्तरिक (नोआगम) भावश्रुत क्या है ? उत्पन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करनेवाले, भूत – भविष्यत् और वर्तमान कालिक पदार्थों को जानने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा अवलोकित, पूजित, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान – दर्शन के धारक अरिहंत भगवंतो द्वारा प्रणीत आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 161 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं छनामे? छनामे छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–१. उदइए २. उवसमिए ३. खइए ४. खओवसमिए ५. पारिणामिए ६. सन्निवाइए।
से किं तं उदइए? उदइए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–उदए य उदयनिप्फन्ने य।
से किं तं उदए? उदए–अट्ठण्हं कम्मपयडीणं उदए णं। से तं उदए।
से किं तं उदयनिप्फन्ने? उदयनिप्फन्ने दुविहे पन्नत्ते, तं जहा– जीवोदयनिप्फन्ने य अजीवो-दयनिप्फन्ने य।
से किं तं जीवोदयनिप्फन्ने? जीवोदयनिप्फन्ने अनेगविहे पन्नत्ते, तं जहा–नेरइए तिरिक्ख-जोणिए मनुस्से देवे पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए तसकाइए, कोहकसाई मानकसाई मायाकसाई लोभकसाई, इत्थिवेए पुरिसवेए नपुंसगवेए, कण्हलेसे Translated Sutra: छहनाम क्या है ? छह प्रकार हैं। औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक। औदयिकभाव क्या है ? दो प्रकार का है। औदयिक और उदयनिष्पन्न। औदयिक क्या है ? ज्ञानावरणादिक आठ कर्मप्रकृतियों के उदय से होने वाला औदयिकभाव है। उदयनिष्पन्न औदयिकभाव क्या है ? दो प्रकार हैं – जीवोदयनिष्पन्न, अजीवोदयनिष्पन्न। जीवोदयनिष्पन्न | |||||||||
Anuyogdwar | અનુયોગદ્વારાસૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Gujarati | 46 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं लोगुत्तरियं भावसुयं?
लोगुत्तरियं भावसुयं– जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पन्ननाणदंसणधरेहिं तीय-पडुप्पन्न मनागयजाणएहिं सव्वन्नूहिं सव्वदरिसीहिं तेलोक्कचहिय-महियपूइएहिं पणीयं दुवालसंगं गणि-पिडगं, तं जहा–
१.आयारो २. सूयगडो ३. ठाणं ४. समवाओ ५. वियाहपन्नत्ती ६. नायाधम्मकहाओ ७. उवासगदसाओ ८. अंतगडदसाओ ९. अनुत्तरोव-वाइयदसाओ १०. पण्हावागरणाइं ११. विवागसुयं १२. दिट्ठिवाओ।
से तं लोगुत्तरियं भावसुयं। से तं नोआगमओ भावसुयं। से तं भावसुयं। Translated Sutra: લોકોત્તરિક ભાવશ્રુતનું સ્વરૂપ કેવું છે ? ઉત્પન્ન જ્ઞાન – દર્શનને ધારણ કરનાર, ભૂત – ભવિષ્ય, વર્તમાનકાલિક પદાર્થને જાણનાર, સર્વજ્ઞ, સર્વદર્શી, ત્રિલોકવર્તી જીવો દ્વારા અવલોકિત, મહિત, પૂજિત, અપ્રતિહત, શ્રેષ્ઠ જ્ઞાન – દર્શનના ધારક એવા અરિહંત ભગવાન દ્વારા પ્રણીત ૧. આચાર, ૨. સૂયગડ, ૩. ઠાણ, ૪. સમવાય, ૫. વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ, | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Gujarati | 649 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी–गोसाला! से जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहिं परब्भमाणे-परब्भमाणे कत्थ य गड्डं वा दरिं वा दुग्गं वा निन्नं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं आवरेत्ताणं चिट्ठेज्जा, से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मण्णइ, अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मण्णइ, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मण्णइ, एवामेव तुमं पि गोसाला! अनन्ने संते अन्नमिति अप्पाणं उपलभसि, तं मा एवं गोसाला! नारिहसि गोसाला! सच्चेव ते सा छाया नो अन्ना। Translated Sutra: સૂત્ર– ૬૪૯. ત્યારે શ્રમણ ભગવન્ મહાવીરે ગોશાલક મંખલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું – હે ગોશાળા! જેમ કોઈ ચોર હોય, ગ્રામવાસીથી પરાભવ પામતો હોય, તે કોઈ ખાડા, દરિ, દૂર્ગ, નિમ્નસ્થાન, પર્વત કે વિષયને પ્રાપ્ત ન કરી શકવાથી, પોતાને એક મોટા ઉનના રોમથી, શણના રોમથી, કપાસના પક્ષ્મથી કે તણખલા વડે પોતાને આવૃત્ત કરીને રહે અને ન ઢંકાયેલને | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Gujarati | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: ભગવન્ ! ભવ્યજીવો પરમાધામી અસુરોમાં ઉપજે ? ગૌતમ ! જે કોઈ સજ્જડ રાગ, દ્વેષ, મોહ અને મિથ્યાત્વના ઉદયે સારી રીતે કહેવા છતાં ઉત્તમ હિતોપદેશની અવગણના કરે છે, બાર અંગો આદિ શ્રુતજ્ઞાનને અપ્રમાણ કરે છે તથા શાસ્ત્રના સદ્ભાવો અને રહસ્યને જાણતા નથી. અનાચારને પ્રશંસે છે. તેની પ્રભાવના કરે છે. જેમ સુમતિએ તે સાધુની પ્રશંસા, | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 134 | Sutra | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं सम्मसुयं? सम्मसुयं जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पन्ननाणदंसणधरेहिं तेलोक्क चहिय-महिय-पूइएहिं तीय-पडुप्पन्नमनागयजाणएहिं सव्वण्णूहिं सव्वदरिसीहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा–
आयारो सूयगडो ठाणं समवाओ वियाहपन्नत्ती नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगड-दसाओ अनुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाइं विवागसुयं दिट्ठिवाओ।
इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं चोद्दसपुव्विस्स सम्मसुयं, अभिन्नदसपुव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिन्नेसु भयणा।
से त्तं सम्मसुयं। Translated Sutra: – सम्यक्श्रुत किसे कहते हैं ? सम्यक्श्रुत उत्पन्न ज्ञान और दर्शन को धारण करनेवाले, त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा आदर – सन्मानपूर्वक देखे गये तथा यथावस्थित उत्कीर्तित, भावयुक्त नमस्कृत, अतीत, वर्तमान और अनागत को जाननेवाले, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्हंत – तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्रणीत – अर्थ से कथन किया हुआ | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 138 | Sutra | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अंगपविट्ठं?
अंगपविट्ठं दुवालसविहं पन्नत्तं, तं जहा–आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ, वियाहपन्नत्ती नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अनुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाइं, विवागसुयं, दिट्ठिवाओ। Translated Sutra: – अङ्गप्रविष्ट कितने प्रकार का है ? बारह प्रकार का – आचार, सूत्रकृत्, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद। | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 148 | Sutra | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पण्हावागरणाइं?
पण्हावागरणेसु णं अट्ठुत्तरं परिणसयं, अट्ठुत्तरं अपसिणसयं, अट्ठुत्तरं पसिणापसिणसयं, अण्णे य विचित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जंति। पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखे-ज्जा अनुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।
से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसनकाला पणयालीसं समुद्देसनकाला, संखेज्जाइं पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा, अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया Translated Sutra: प्रश्नव्याकरण किस प्रकार है ? प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्न हैं, १०८ अप्रश्न हैं, १०८ प्रश्नाप्रश्न हैं। अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न तथा आदर्शप्रश्न। इनके अतिरिक्त अन्य भी विचित्र विद्यातिशय कथन हैं। नागकुमारों और सुपर्णकुमारों के साथ हुए मुनियों के दिव्य संवाद भी हैं। परिमित वाचनाऍं हैं। संख्यात | |||||||||
Nandisutra | નન્દીસૂત્ર | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Gujarati | 148 | Sutra | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पण्हावागरणाइं?
पण्हावागरणेसु णं अट्ठुत्तरं परिणसयं, अट्ठुत्तरं अपसिणसयं, अट्ठुत्तरं पसिणापसिणसयं, अण्णे य विचित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जंति। पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखे-ज्जा अनुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।
से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसनकाला पणयालीसं समुद्देसनकाला, संखेज्जाइं पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा, अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया Translated Sutra: પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રમાં કોનું વર્ણન છે ? પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રમાં એકસો આઠ પ્રશ્ન એવા છે કે જે વિદ્યા, મંત્રવિધિથી જાપ વડે સિદ્ધ કરેલ છે અને પ્રશ્ન પૂછવા પર તે શુભાશુભ બતાવે. એકસો આઠ અ – પ્રશ્ન છે અર્થાત્ પૂછ્યા વિના જ શુભાશુભ બતાવે. એકસો આઠ પ્રશ્ન છે જે પૂછવાથી અથવા વગર પૂછ્યે સ્વયં શુભાશુભનું કથન કરે. જેમ કે | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण निसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोह मोहिय मती, असुर भयग गरुल विज्जु जलण दीव उदहि दिस पवण थणिया। अणवण्णिय पणवण्णिय इसिवादिय भूयवादियकंदिय महाकंदिय कूहंड पतगदेवा, पिसाय भूय जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस महोरग गंधव्व तिरिय जोइस विमाणवासि मणुयगणा, जलयर थलयर खहयराय मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोग-तिसिया, तण्हाए बलवईए महईए समभिभूया गढिया य अतिमुच्छिया य, अबंभे ओसण्णा, तामसेन भावेण अणुम्मुक्का, दंसण-चरित्तमोहस्स पंजरं पिव करेंतिअन्नोन्नं सेवमाणा।
भुज्जो असुर सुर तिरिय मणुय भोगरत्ति विहार संपउत्ता य चक्कवट्टी सुरनरवतिसक्कया सुरवरव्व देवलोए भरह नग नगर नियम Translated Sutra: उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सुरगण सेवन करते हैं। कौन – से देव सेवन करते हैं ? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 20 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मेहुणसण्णासंपगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहिं हणंति एक्कमेक्कं विसयविसउदीरएसु। अवरे परदारेहिं हम्मंति विसुणिया घननासं सयणविप्पनासं च पाउणंति। परस्स दाराओ जे अविरया मेहुण-सण्णसंपगिद्धा य मोहभरिया अस्सा हत्थी गवा य महिसा मिगा य मारेंति एक्कमेक्कं, मनुयगणा वानरा य पक्खी य विरुज्झंति, मित्ताणि खिप्पं भवंति सत्तू, समये धम्मे गणे य भिंदंति पारदारी। धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण उल्लोट्टए चरित्तओ, जसमंतो सुव्वया य पावंति अयसकित्तिं, रोगत्ता वाहिया य वड्ढेंति रोय-वाही, दुवे य लोया दुआराहगा भवंति–इहलोए चेव परलोए–परस्स दाराओ जे अविरया।
तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिया Translated Sutra: जो मनुष्य मैथुनसंज्ञा में अत्यन्त आसक्त है और मूढता अथवा से भरे हुए हैं, वे आपस में एक दूसरे का शस्त्रों से घात करते हैं। कोई – कोई विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली परकीय स्त्रियों में प्रवृत्त होकर दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं। जब उनकी परस्त्रीलम्पटता प्रकट हो जाती है तब धन का विनाश और स्वजनों का सर्वथा | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 21 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! एत्तो परिग्गहो पंचमो उ नियमाणाणामणि कणग रयण महरिह परिमल सपुत्तदार परिजन दासी दास भयग पेस हय गय गो महिस उट्ट खर अय गवेलग सीया सगड रह जाण जुग्ग संदण सयणासण वाहण कुविय घण धण्ण पाण भोयण अच्छायण गंध मल्ल भायण भवणविहिं चेव बहुविहीयं, भरहं णग णगर णियम जणवय पुरवर दोणमुह खेड कब्बड मडंब संबाह पट्टण सहस्समंडियं थिमियमेइणीयं, एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं अपरिमिय मणंततण्हमणुगय महिच्छसार निर-यमूलो, लोभकलिकसाय महक्खंधो, चिंतासयनिचिय विपुलसालो,गारव पविरल्लियग्गविडवो, नियडि तयापत्तपल्लवधरो, पुप्फफलं जस्स कामभोगा, आयासविसूरणाकलह पकंपियग्गसिहरो, नरवतिसंपूजितो, Translated Sutra: हे जम्बू ! चौथे अब्रह्म नामक आस्रवद्वार के अनन्तर यह पाँचवां परिग्रह है। अनेक मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों, बहुमूल्य सुगंधमय पदार्थ, पुत्र और पत्नी समेत परिवार, दासी – दास, भृतक, प्रेष्य, घोड़े, हाथी, गाय, भैंस, ऊंट, गधा, बकरा और गवेलक, शिबिका, शकट, रथ, यान, युग्य, स्यन्दन, शयन, आसन, वाहन तथा कुप्य, धन, धान्य, पेय पदार्थ, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 22 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स य नामाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तं जहा– १. परिग्गहो २. संचयो ३. चयो ४. उवचयो
५. निहाणं ६. संभारो ७. संकरो ८. आयरो ९. पिंडो १०. दव्वसारो ११. तहा महिच्छा १२. पडिबंधो
१३. लोहप्पा १४. महद्दी १५. उवकरणं १६. संरक्खणा य १७. भारो १८. संपायुप्पायको १९. कलि करंडो २०. पवित्थरो २१. अनत्थो २२. संथवो २३. अगुत्ती २४. आयासो २५. अविओगो २६. अमुत्ती २७. तण्हा २८. अनत्थको २९. आसत्ती ३०. असंतोसो त्ति।
अवि य तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होंति तीसं। Translated Sutra: उस परिग्रह नामक अधर्म के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। वे नाम इस प्रकार हैं – परिग्रह, संचय, चय, उपचय, निधान, सम्भार, संकर, आदर, पिण्ड, द्रव्यसार, महेच्छा, प्रतिबन्ध, लोभात्मा, महर्धिका, उपकरण, संरक्षणा, भार, संपातोत्पादक, कलिकरण्ड, प्रविस्तर, अनर्थ, संस्तव, अगुप्ति या अकीर्ति, आयास, अवियोग, अमुक्ति, तृष्णा, अनर्थक, आसक्ति | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 23 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण परिग्गहं ममायंति लोभघत्था भवनवरविमाणवासिणो परिग्गहरुयी परिग्गहे विविहकरण-बुद्धी, देवनिकाया य–असुर भुयग गरुल विज्जु जलण दीव उदहि दिसि पवण थणिय अणवण्णिय पणवण्णिय इसिवासिय भूतवा-इय कंदिय महाकंदिय कुहंडपतगदेवा, पिसाय भूय जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस महोरग गंधव्वा य तिरियवासी।
पंचविहा जोइसिया य देवा, –बहस्सती चंद सूर सुक्क सनिच्छरा, राहु धूमकेउ बुधा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकनगवण्णा, जे य गहा जोइसम्मि चारं चरंति, केऊ य गतिरतीया, अट्ठावीसतिविहा य नक्खत्तदेवगणा, नानासंठाणसंठियाओ य तारगाओ, ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साम मंडलगती उवरिचरा।
उड्ढलोगवासी दुविहा Translated Sutra: उस परिग्रह को लोभ से ग्रस्त परिग्रह के प्रति रुचि रखने वाले, उत्तम भवनों में और विमानों में निवास करने वाले ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं। नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के निकाय यथा – असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तथा अणपन्निक, यावत् पतंग और पिशाच, यावत् गन्धर्व, ये महर्द्धिक व्यन्तर | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 24 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] परलोगम्मि य नट्ठा तमं पविट्ठा, महया मोहमोहियमती, तिमिसंधकारे, तसथावर-सुहुमबादरेसु, पज्जत्तमपज्जत्तग-साहारणसरीर पत्तेयसरीरेसु य, अंडज पोतज जराउय रसज संसेइम संमुच्छिम उब्भिय उववाइएसु य, नरग तिरिय देव मानुसेसु, जरा मरण रोग सोग बहुले, पलिओवम सागरोवमाइं अनादीयं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरियट्टंति जीवा मोहवस-सन्निविट्ठा।
एसो सो परिग्गहस्स फलविवाओ इहलोइओ पारलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चई, न य अवेदयित्ता अत्थि हु मोक्खोत्ति–एवमाहंसु नायकुलनंदनो महप्पा जिनो उ वीरवरनामधेज्जो, कहेसी य परिग्गहस्स Translated Sutra: परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में नष्ट – भ्रष्ट होते हैं। अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं। तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मति वाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्यायों में तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत् चार गति वाले संसार – कानन में परिभ्रमण | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 25 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएहिं पंचहिं असंवरेहिं रयमादिणित्तु अनुसमयं ।
चउव्विहगतिपेरंतं, अनुपरियट्टंति संसारं ॥ Translated Sutra: इन पूर्वोक्त पाँच आस्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 26 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वगई-पक्खंदे, काहेंति अनंतए अकयपुण्णा ।
जे य न सुणंति धम्मं, सोऊण य जे पमायंति ॥ Translated Sutra: जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते अथवा श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन करते रहेंगे। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 27 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अणुसिट्ठंपि बहुविहं, मिच्छदिट्ठी णरा अबुद्धीया ।
बद्धलनिकाइयकम्मा, सुणेंति धम्मं न य करेंति ॥ Translated Sutra: जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं, अधार्मिक हैं, निकाचित कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक तरह से शिक्षा पाने पर भी, धर्माश्रवण तो करते हैं किन्तु आचरण नहीं करते। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 28 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किं सक्का काउं जे, जं णेच्छह ओसहं मुहा पाउं ।
जिनवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं ॥ Translated Sutra: जिन भगवान के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के लिए गुणयुक्त मधुर विरेचन औषध हैं, किन्तु निःस्वार्थ भाव से दिये जाने वाले इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या किया जा सकता है ? | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था.
पुण्णभद्दे चेइए वनसंडे असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए.
तत्थण चंपाए नयरीए कोणिए नामं राया होत्था. धारिणी देवी.
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नामं थेरे–जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने रूवसंपन्ने विनयसंपन्ने नाणसंपन्ने दंसणसंपन्ने चरित्तसंपन्ने लज्जासंपन्ने लाघवसंपन्ने ओयसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोभे जियनिद्दे जिइंदिए जियपरीसहे जिवियास-मरण-भय-विप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करण-प्पहाणे चरणप्पहाणे निच्छयप्पहाणे अज्जवप्पहाणे मद्दवप्पहाणे Translated Sutra: उस काल, उस समय चम्पानगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था, वनखण्ड था। उसमें उत्तम अशोक – वृक्ष था। वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था। राजा कोणिक था और उसकी पटरानी का धारिणी था। उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी स्थविर आर्य सुधर्मा थे। वे जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 2 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इणमो अण्हय-संवर-विनिच्छियं पवयणस्स निस्संदं ।
वोच्छामि निच्छयत्थं, सुहासियत्थं महेसीहिं ॥ Translated Sutra: हे जम्बू ! आस्रव और संवर का भलीभाँति निश्चय कराने वाले प्रवचन के सार को मैं कहूँगा, जो महर्षियों – तीर्थंकरों एवं गणधरों आदि के द्वारा निश्चय करने के लिए सुभाषित है – समीचीन रूप से कहा गया है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 3 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचविहो पन्नत्तो, जिनेहिं इह अण्हओ अणादीओ ।
हिंसा - मोसमदत्तं, अब्बंभ - परिग्गहं चेव ॥ Translated Sutra: जिनेश्वर देव ने इस जगत में अनादि आस्रव को पाँच प्रकार का कहा है – हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्म और परिग्रह। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 4 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जारिसओ जंनामा, जह य कओ जारिसं फलं देति ।
जेवि य करेंति पावा, पाणवहं तं निसामेह ॥ Translated Sutra: प्राणवधरूप प्रथम आस्रव जैसा है, उसके जो नाम हैं, जिन पापी प्राणियों द्वारा वह किया जाता है, जिस प्रकार किया जाता है और जैसा फल प्रदान करता है, उसे तुम सूनो। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 5 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पाणवहो नाम एस निच्चं जिणेहिं भणिओ–पावो चंडो रुद्दो खुद्दो साहसिओ अनारिओ निग्घिणो निस्संसो महब्भओ पइभओ अतिभओ बीहणओ तासणओ अणज्जो उव्वेयणओ य निरवयक्खो निद्धम्मो निप्पिवासो निक्कलुणो निरयवास-गमन-निधनो मोह-महब्भय-पवड्ढओ-मरण वेमणंसो पढमं अधम्मदारं। Translated Sutra: जिनेश्वर भगवान ने प्राणवध को इस प्रकार कहा है – यथा पाप, चण्ड, रुद्र, क्षुद्र, साहसिक, अनार्य, निर्घृण, नृशंस, महाभय, प्रतिभय, अतिभय, भापनक, त्रासनक, अन्याय, उद्वेगजनक, निरपेक्ष, निर्धर्म, निष्पिपास, निष्करुण, नरकवास गमन – निधन, मोहमहाभय प्रवर्तक और मरणवैमनस्य यह प्रथम अधर्मद्वार है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 6 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स य नामाणि इमाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तं जहा–
१-२. पाणवहुम्मूलणा सरीराओ ३. अवीसंभो ४. हिंसविहिंसा तहा ५. अकिच्चं च ६. घायणा
७. मारणा य ८. वहणा ९. उद्दवणा १०. तिवायणा य ११. आरंभ-समारंभो १२. आउय-कम्मस्स उवद्दवो [भेय-निट्ठवण-गालणा य संवट्टग-संखेवो] १३. मच्चू १४. असंजमो १५. कडग-मद्दणं
१६. वीरमणं १७. परभव संकामकारओ १८. दुग्गतिप्पवाओ १९. पावकोवो य २०. पावलोभो
२१. छविच्छेओ २२. जीवियंतकरणो २३. भयंकरो २४. अणकरो २५. वज्जो २६. परितावण-अण्हओ २७. विनासो २८. निज्जवणा २९. लुंपणा ३०. गुणाणं विराहणत्ति।
अवि य तस्स एवमादीणि नामधेज्जाणि होंति तीसं पाणवहस्स कलुसस्स कडुयफल-देसगाइं। Translated Sutra: प्राणवधरूप हिंसा के गुणवाचक तीस नाम हैं। यथा – प्राणवध, शरीर से (प्राणों का) उन्मूलन, अविश्वास, हिंस्यविहिंसा, अकृत्य, घात, मारण, वधना, उपद्रव, अतिपातना, आरम्भ – समारंभ, आयुकर्म का उपद्रव – भेद – निष्ठापन – गालना – संवर्तक और संक्षेप, मृत्यु, असंयम, कटकमर्दन, व्युपरमण, परभवसंक्रामणकारक, दुर्गतिप्रपात, पापकोप, पापलोभ, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 7 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण करेंति केई पावा असंजया अविरया अणिहुय-परिणाम-दुप्पयोगी पाणवहं भयंकरं बहुविहं परदुक्खुप्पायणप्पसत्ता इमेहिं तसथावरेहिं जीवेहिं पडिणिविट्ठा, किं ते?
पाढीण-तिमि-तिमिंगिल-अनेगज्झस-विविहजातिमंदुक्क-दुविहकच्छभ-नक्क-मगर-दुविह गाह-दिलिवेढय-मंदुय-सीमा-गार-पुलुय-सुंसुमार-बहुप्पगारा जलयरविहाणाकते य एवमादी।
कुरंग-रुरु-सरभ-चमर-संबर-हुरब्भ-ससय-पसय-गोण-रोहिय-हय-गय-खर-करभ-खग्ग-वानर-गवय-विग-सियाल-कोल-मज्जार-कोलसुणक-सिरियंदलय-आवत्त-कोकंतिय-गोकण्ण-मिय -महिस-वियग्घ- छगल-दीविय- साण- तरच्छ-अच्छ- भल्ल- सद्दूल-सीह- चिल्लला-चउप्पय-विहाणाकए य एवमादी।
अयगर-गोनस-वराहि-मउलि-काओदर-दब्भपुप्फ-आसालिय-महोरगा Translated Sutra: कितने ही पातकी, संयमविहीन, तपश्चर्या के अनुष्ठान से रहित, अनुपशान्त परिणाम वाले एवं जिनके मन, वचन और काम का व्यापार दुष्ट है, जो अन्य प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने में आसक्त रहते हैं तथा त्रस और स्थावर जीवों की प्रति द्वेषभाव वाले हैं, वे अनेक प्रकारों से हिंसा किया करते हैं। वे कैसे हिंसा करते हैं ? मछली, बड़े मत्स्य, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 8 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कयरे? जे ते सोयरिया मच्छबंधा साउणिया वाहा कूरकम्मादीवित बंधप्पओग तप्प गल जाल वीरल्लग आयसीदब्भवग्गुरा कूडछेलिहत्था हरिएसा ऊणिया य वीदंसग पासहत्था वनचरगा लुद्धगा य महुघात-पोतघाया एणीयारा पएणीयारा सर दह दीहिअ तलाग पल्लल परिगालण मलण सोत्तबंधण सलिलासयसोसगा विसगरलस्स य दायगा उत्तण वल्लर दवग्गिणिद्दय पलीवका।
कूरकम्मकारी इमे य बहवे मिलक्खुया, के ते?
सक जवण सवर बब्बर कायमुरुंड उड्ड भडग निण्णग पक्काणिय कुलक्ख गोड सीहल पारस कोंच अंध दविल चिल्लल पुलिंद आरोस डोंब पोक्कण गंधहारग बहलीय जल्ल रोम मास बउस मलया य चुंचुया य चूलिय कोंकणगा मेद पल्हव मालव मग्गर आभासिया अणक्क Translated Sutra: वे हिंसक प्राणी कौन हैं ? शौकरिक, मत्स्यबन्धक, मृगों, हिरणों को फँसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा वागुरिक, चीता, बन्धनप्रयोग, छोटी नौका, गल, जाल, बाज पक्षी, लोहे का जाल, दर्भ, कूटपाश, इन सब साधनों को हाथ में लेकर फिरने वाले, चाण्डाल, चिड़ीमार, बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर, मधु – मक्खियों का घात करने वाले, पोतघातक, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ मृषा |
Hindi | 9 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! बितियं च अलियवयणं–लहुसगलहु चवल भणियं भयंकर दुहकर अयसकर वेरकरगं अरतिरति रागदोस मणसंकिलेस वियरणं अलिय नियडिसाति जोयबहुलं नीयजण निसेवियं निसंसं अप्पच्चयकारकं परमसाहु गरहणिज्जं परपीलाका-रकं परमकण्हलेस्ससहियं दुग्गइविणिवायवड्ढणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचियमणुगतं दुरंतं। बितियं अधम्मदारं। Translated Sutra: जम्बू ! दूसरा (आस्रवद्वार) अलीकवचन है। यह गुण – गौरव से रहित, हल्के, उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, भय उत्पन्न करने वाला, दुःखोत्पादक, अपयशकारी एवं वैर उत्पन्न करने वाला है। यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक संक्लेश को देने वाला है। शुभ फल से रहित है। धूर्त्तता एवं अविश्वसनीय वचनों की प्रचुरता वाला | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ मृषा |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स य नामाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तं जहा–१. अलियं २. सढं ३. अणज्जं ४. मायामोसो
५. असंतकं ६. कूड कवडमवत्थु ७. निरत्थयमवत्थगं च ८. विद्देसगरहणिज्जं ९. अनुज्जगं
१०. कक्कणा य ११. वंचणा य १२. मिच्छापच्छाकडं च १३. साती १४. ओच्छन्नं १५. उक्कूलं च १६. अट्टं १७. अब्भक्खाणं च १८. किब्बिसं १९. वलयं २०. गहणं च २१. मम्मणं च २२. नूमं
२३. नियती २४. अप्पच्चओ २५. असमओ २६. असच्चसंघत्तणं २७. विवक्खो २८. अवहीयं २९. उवहि असुद्धं ३०. अवलोवो त्ति।
अवि य तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होंति तीसं सावज्जस्स अलियस्स वइ-जोगस्स अनेगाइं। Translated Sutra: उस असत्य के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। अलीक, शठ, अन्याय्य, माया – मृषा, असत्क, कूटकपटअवस्तुक, निरर्थकअपार्थक, विद्वेष – गर्हणीय, अनृजुक, कल्कना, वञ्चना, मिथ्यापश्चात्कृत, साति, उच्छन्न, उत्कूल, आर्त्त, अभ्याख्यान, किल्बिष, वलय, गहन, मन्मन, नूम, निकृति, अप्रत्यय, असमय, असत्यसंधत्व, विपक्ष, अपधीक, उपधि – अशुद्ध और अपलोप। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ मृषा |
Hindi | 11 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण वदंति केई अलियं पावा अस्संजया अविरया कवडकुडिल कडुय चडुलभावा कुद्धा लुद्धाभया य हस्सट्ठिया य सक्खी चोरा चारभडा खंडरक्खा जियजूईकरा य गहिय-गहणा कक्कगुरुग कारगा कुलिंगी उवहिया वाणियगा य कूडतुला कूडमाणी कूडकाहावणोवजीवी पडकार कलाय कारुइज्जा वंचनपरा चारिय चडुयार नगरगुत्तिय परिचारग दुट्ठवायि सूयक अनवलभणिया य पुव्वकालियवयणदच्छा साहसिका लहुस्सगा असच्चा गारविया असच्चट्ठावणाहिचित्ता उच्चच्छंदा अनिग्गहा अनियता छंदेण मुक्कवायी भवंति अलियाहिं जे अविरया।
अवरे नत्थिकवादिणो वामलोकवादी भणंति–सुण्णंति। नत्थि जीवो। न जाइ इहपरे वा लोए। न य किंचिवि फुसति Translated Sutra: यह असत्य कितनेक पापी, असंयत, अविरत, कपट के कारण कुटिल, कटुक और चंचल चित्तवाले, क्रुद्ध, लुब्ध, भय उत्पन्न करने वाले, हँसी करने वाले, झूठी गवाही देने वाले, चोर, गुप्तचर, खण्डरक्ष, जुआरी, गिरवी रखने वाले, कपट से किसी बात को बढ़ा – चढ़ा कर कहनेवाले, कुलिंगी – वेषधारी, छल करनेवाले, वणिक्, खोटा नापने – तोलनेवाले, नकली सिक्कों | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ मृषा |
Hindi | 12 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स य अलियस्स फलविवागं अयाणमाणा वड्ढेंति महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालं बहुदुक्ख-संकडं नरय-तिरिय-जोणिं। तेण य अलिएण समनुबद्धा आइद्धा पुनब्भवंधकारे भमंति भीमे दुग्गति-वसहिमुवगया।
तेय दीसंतिह दुग्गगा दुरंता परव्वसा अत्थभोगपरिवज्जिया असुहिताफुडियच्छवी बीभच्छा विवन्ना खरफरुस विरत्त ज्झाम ज्झुसिरा निच्छाया लल्ल विफल वाया असक्कतमसक्कया अगंधा अचेयणा दुभगा अकंता काकस्सरा हीनभिन्नघोसा विहिंसा जडबहिरंधया य मम्मणा अकंत विकय करणा नीया नीयजन निसेविणो लोग गरहणिज्जा भिच्चा असरिसजणस्स पेस्सा दुम्मेहा लोक वेद अज्झप्प समयसुतिवज्जिया नरा धम्मबुद्धि वियला।
अलिएण Translated Sutra: पूर्वोक्त मिथ्याभाषण के फल – विपाक से अनजान वे मृषावादी जन नरक और तिर्यञ्च योनि की वृद्धि करते हैं, जो अत्यन्त भयंकर है, जिनमें विश्रामरहित वेदना भुगतनी पड़ती है और जो दीर्घकाल तक बहुत दुःखों से परिपूर्ण हैं। वे मृषावाद में निरत नर भयंकर पुनर्भव के अन्धकार में भटकते हैं। उस पुनर्भव में भी दुर्गति प्राप्त | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! तइयं च अदिन्नादाणं–हर दह मरण भय कलुस तासण परसंतिगऽभेज्जलोभमूलं काल विसम संसियं अहोऽच्छिण्णतण्ह-पत्थाण-पत्थोइमइयं अकित्तिकरणं अणज्जं छिद्दमंतर विधुर वसण मग्गण उस्सव मत्त प्पमत्त पसुत्त वंचणाखिवण घायणपर अनिहुयपरिणामतक्करजणबहुमयं अकलुणं रायपुरिसरक्खियं सया साहुगरहणिज्जं पियजण मित्तजण भेदविप्पीतिकारकं रागदोस-बहुलं पुणो य उप्पूर समर संगाम डमर कलि कलह वेहकरणं दुग्गति विणिवायवड्ढणं भवपुनब्भवकरं चिरपरिचितमनुगयं दुरंतं। तइयं अधम्मदारं। Translated Sutra: हे जम्बू ! तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान। यह अदत्तादान (परकीय पदार्थ का) हरण रूप है। हृदय को जलाने वाला, मरण – भय रूप, मलीन, परकीय धनादि में रौद्रध्यान स्वरूप, त्रासरूप, लोभ मूल तथा विषमकाल और विषमस्थान आदि स्थानों पर आश्रित है। यह अदत्तादान निरन्तर तृष्णाग्रस्त जीवों को अधोगति की ओर ले जाने वाली बुद्धि वाला है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 14 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स य नामानि गोण्णाणि होंति तीसं, तंजहा– १. चोरिक्कं २. परहडं ३. अदत्तं ४. कूरिकडं
५. परलाभो ६. असंजमो ७. परघनम्मि गेही ८. लोलिक्का ९. तक्करत्तणं ति य १०. अवहारो
११. हत्थलहुत्तणं १२. पावकम्मकरणं १३. तेणिक्का १४. हरणविप्पणासो १५. आदियणा
१६. लुंपणा घणाणं १७. अप्पच्चओ १८. ओवीलो १९. अक्खेवो २०. खेवो २१. विक्खेवो २२. कूडया २३. कुलमसी य २४. कंखा २५. लालप्पणपत्थणा य २६. आससणाय वसणं २७. इच्छा मुच्छा य २८. तण्हा गेही २९. नियडिकम्मं ३०. अपरच्छ त्ति।
अवि य तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होंति तीसं अदिण्णादाणस्स पाव कलिकलुस कम्मबहुलस्स अणेगाइं। Translated Sutra: पूर्वोक्त स्वरूप वाले अदत्तादान के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। – चौरिक्य, परहृत, अदत्त, क्रूरिकृतम्, परलाभ, असंजम, परधन में गृद्धि, लोलुपता, तस्करत्व, अपहार, हस्तलघुत्व, पापकर्मकरण, स्तेनिका, हरणवि – प्रणाश, आदान, धनलुम्पता, अप्रत्यय, अवपीड, आक्षेप, क्षेप, विक्षेप, कूटता, कुलमषि, कांक्षा, लालपन – प्रार्थना, व्यसन, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 15 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण करेंति चोरियं तक्करा परदव्वहरा छेया कयकरण लद्धलक्खा साहसिया लहुस्सगा अतिमहिच्छ लोभगत्था, दद्दर ओवीलका य गेहिया अहिमरा अणभंजका भग्गसंधिया रायदुट्ठकारी य विसयनिच्छूढा लोकवज्झा, उद्दहक गामघाय पुरघाय पंथघायग आलीवग तित्थभेया लहुहत्थ संपउत्ता जूईकरा खंडरक्खत्थीचोर पुरिसचोर संधिच्छेया य गंथिभेदगपरधनहरणलोमावहार- अक्खेवी हडकारक निम्मद्दग गूढचोर गोचोर अस्सचोरग दासिचोरा य एकचोरा ओकड्ढक संपदायक उच्छिंपक सत्थघायक बिलकोलीकारका य निग्गाह विप्पलुंपगा बहुविहतेणिक्कहरणबुद्धी, एते अन्नेय एवमादी परस्स दव्वाहि जे अविरया।
विपुलबल-परिग्गहा य बहवे रायाणो Translated Sutra: उस चोरी को वे चोर – लोग करते हैं जो परकीय द्रव्य को हरण करने वाले हैं, हरण करने में कुशल हैं, अनेकों बार चोरी कर चूके हैं और अवसर को जानने वाले हैं, साहसी हैं, जो तुच्छ हृदय वाले, अत्यन्त महती ईच्छा वाले एवं लोभ से ग्रस्त हैं, जो वचनों के आडम्बर से अपनी असलियत को छिपाने वाले हैं – आसक्त हैं, जो सामने से सीधा प्रहार | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 16 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहेव केइ परस्स दव्वं गवेसमाणा गहिता य हया य बद्धरुद्धा य तरितं अतिधाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गाह चारभड चाडुकराण तेहि य कप्पडप्पहार निद्दय आरक्खिय खर फरुस वयण तज्जण गलत्थल्ल उत्थल्लणाहिं विमणा चारगवसहिं पवेसिया निरयवसहिसरिसं।
तत्थवि गोम्मिकप्पहार दूमण निब्भच्छण कडुयवयण भेसणग भयाभिभूया अक्खित्त नियंसणा मलिणदंडिखंडवसणा उक्कोडा लंच पास मग्गण परायणेहिं गोम्मिकभडेहिं विविहेहिं बंधणेहि, किं ते? हडि नियड बालरज्जुय कुदंडग वरत्त लोह-संकल हत्थंदुय वज्झपट्ट दामक णिक्कोडणेहिं, अन्नेहि य एवमादिएहिं गोम्मिक भंडोवकरणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं संकोडण मोड-णाहि Translated Sutra: इसी प्रकार परकीय धन द्रव्य की खोज में फिरते हुए कईं चोर पकड़े जाते हैं और उन्हें मारा – पीटा जाता है, बाँधा जाता है और कैद किया जाता है। उन्हें वेग के साथ घूमाया जाता है। तत्पश्चात् चोरों को पकड़ने वाले, चौकीदार, गुप्तचर उन्हें कारागार में ठूंस देते। कपड़े के चाबुकों के प्रहारों से, कठोर – हृदय सिपाहियों के तीक्ष्ण | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 17 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! अबंभं च चउत्थं– सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्जं, पंक-पणग-पासजालभूयं, थी पुरिस नपुंसगवेदचिंधं तव संजम बंभचेर विग्घं भेदाययण बहुपमादमूलं कायरकापुरिससेवियं सुयणजनवज्जणिज्जं उड्ढं नरग तिरिय तिलोक्कपइट्ठाणं, जरा मरण रोग सोगबहुलं वध बंध विधाय दुव्विघायं दंसण चरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं। चउत्थं अधम्मदारं। Translated Sutra: हे जम्बू ! चौथा आस्रवद्वार अब्रह्मचर्य है। यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और असुरों सहित समस्त लोक द्वारा प्रार्थनीय है। यह प्राणियों को फँसाने वाले कीचड़ के समान है। संसार के प्राणियों को बाँधने के लिए पाश और फँसाने के लिए जाल सदृश है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिह्न है। यह अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 18 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स य नामानि गोण्णाणि इमाणि होंति तीसं, तं जहा– १. अबंभं २. मेहुणं ३. चरंतं ४. संसग्गि
५. सेवणाधिकारो ६. संकप्पो ७. बाहणा पदाणं ८. दप्पो ९. मोहो १०. मणसंखोभो ११. अणिग्गहो १२. वुग्गहो १३. विघाओ १४. विभंगो १५. विब्भमो १६. अधम्मो १७. असीलया १८. गामधम्मतत्ती १९. रती २०. रागो २१. कामभोग-मारो २२. वेरं २३. रहस्सं २४. गुज्झं २५. बहुमानो २६. बंभ-चेरविग्घो २७. वावत्ति २८. विराहणा २९. पसंगो ३०. कामगुणो त्ति।
अवि य तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होंति तीसं। Translated Sutra: उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं। अब्रह्म, मैथुन, चरंत, संसर्गि, सेवनाधिकार, संकल्पी, बाधनापद, दर्प, मूढ़ता, मनःसंक्षोभ, अनिग्रह, विग्रह, विघात, विभग, विभ्रम, अधर्म, अशीलता, ग्रामधर्मतप्ति, गति, रागचिन्ता, कामभोगमार, वैर, रहस्य, गुह्य, बहुमान, ब्रह्मचर्यविघ्न, व्यापत्ति, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ परिग्रह |
Hindi | 29 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचेव उज्झिऊणं, पंचेव य रक्खिऊण भावेण ।
कम्मरय विप्पमुक्का, सिद्धिवरमणुत्तरं जंति ॥ Translated Sutra: जो प्राणी पाँच को त्याग कर और पाँच की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्मरज से सर्वथा रहित होकर सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त करते हैं। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 30 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जंबू एत्तो संवरदाराइं, पंच वोच्छामि आणुपुव्वीए ।
जह भणियाणि भगवया, सव्वदुहविमोक्खणट्ठाए ॥ Translated Sutra: हे जम्बू ! अब मैं पाँच संवरद्वारों को अनुक्रम से कहूँगा, जिस प्रकार भगवान ने सर्व दुःखों स मुक्ति पाने के लिए कहे हैं। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 31 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [[गाथा] ] पढमं होइ अहिंसा, बितियं सच्चवयणंति पण्णत्तं ।
दत्तमणुन्नायसंवरो, य बंभचेरमपरिग्गहत्तं च ॥ Translated Sutra: प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन है, तीसरा स्वामी की आज्ञा से दत्त है, चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रहत्व है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 32 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ पढमं अहिंसा, तसथावरसव्वभूयखेमकरी ।
तीसे सभावणाए, किंचि वोच्छं गुणुद्देसं ॥ Translated Sutra: इन संवरद्वारों में प्रथम जो अहिंसा है, वह त्रस और स्थावर – समस्त जीवों का क्षेम – कुशल करने वाली है। मैं पाँच भावनाओं सहित अहिंसा के गुणों का कुछ कथन करूँगा। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ताणि उ इमाणि सुव्वय-महव्वयाइंलोकहिय-सव्वयाइं सुयसागर देसियाइं तव संजम महव्वयाइं सीलगुणवरव्वयाइं सच्चज्जवव्वयाइं नरग तिरिय मणुय देवगति विवज्जकाइं सव्वजिनसासणगाइं कम्मरयविदारगाइं भवसयविणासणकाइं दुहसयविमोयणकाइं सुहसयपवत्तणकाइं कापुरिस-दुरु-त्तराइं सप्पुरिसनिसेवियाइं निव्वाणगमणमग्गसग्गपणायगाइं संवरदाराइं पंच कहियाणि उ भगवया।
तत्थ पढमं अहिंसा, जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स भवति–
दीवो ताणं सरणं गती पइट्ठा
निव्वाणं निव्वुई समाही
सत्ती कित्ती कंती
रती य विरती य सुयंग तित्ती
दया विमुत्ती खंती समत्ताराहणा
महंती बोही बुद्धी धिती
समिद्धी रिद्धी विद्धी
ठिती Translated Sutra: हे सुव्रत ! ये महाव्रत समस्त लोक के लिए हितकारी है। श्रुतरूपी सागर में इनका उपदेश किया गया है। ये तप और संयमरूप व्रत है। इन महाव्रतों में शील का और उत्तम गुणों का समूह सन्निहित है। सत्य और आर्जव – इनमें प्रधान है। ये महाव्रत नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बचाने वाले हैं – समस्त जिनों – तीर्थंकरों | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 34 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एसा सा भगवती अहिंसा, जा सा–
भीयाणं पिव सरणं, पक्खीणं पिव गयणं।
तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं।
समुद्दमज्झे व पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं।
दुहट्टियाणं व ओसहिबलं, अडवीमज्झे व सत्थगमणं।
एत्तो विसिट्ठतरिका अहिंसा, जा सा–
पुढवि जल अगणि मारुय वणप्फइ बीज हरित जलचर थलचर खहचर तसथावर सव्वभूय खेमकरी।
[सूत्र] एसा भगवती अहिंसा, जा सा–
अपरिमियनाणदंसणधरेहिं सीलगुण विनय तव संजमनायकेहिं तित्थंकरेहिं सव्वजग-वच्छलेहिं तिलोगमहिएहिं जिणचंदेहिं सुट्ठु दिट्ठा, ओहिजिणेहिं विण्णाया, उज्जुमतीहिं विदिट्ठा, विपुलमतीहिं विदिता, पुव्वधरेहिं अधीता, वेउव्वीहिं पतिण्णा।
आभिनिबोहियनाणीहिं Translated Sutra: यह अहिंसा भगवती जो है सो भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने समान है, प्यास से पीड़ित प्राणियों के लिए जल के समान है, भूखों के लिए भोजन के समान है, समुद्र के मध्य में जहाज समान है, चतुष्पद के लिए आश्रम समान है, दुःखों से पीड़ित के लिए औषध समान है, भयानक जंगल में सार्थ समान है। भगवती अहिंसा | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 35 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स इमा पंच भावनाओ पढमस्स वयस्स होंति पाणातिवायवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए।
पढमं–ठाणगमणगुणजोगजुंजण जुगंतरनिवातियाए दिट्ठीए इरियव्वं कीड पयंग तस थावर दयावरेण, निच्चं पुप्फ फल तय पवाल कंद मूल दगमट्टिय बीज हरिय परिवज्जएण सम्मं।
एवं खु सव्वपाणा न हीलियव्वा न निंदियव्वा, न गरहियव्वा, न हिंसियव्वा, न छिंदियव्वा, न भिंदियव्वा, न वहेयव्वा, न भयं दुक्खं च किंचि लब्भा पावेउं जे।
एवं इरियासमितिजोगेण भावित्तो भवति अंतरप्पा, असबलमसंकिलिट्ठ निव्वणचरित्त-भावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।
बितियं च–मणेण पावएणं पावगं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वह बंध परिकिलेसबहुलं भय मरण परिकिलेससंकि-लिट्ठं Translated Sutra: पाँच महाव्रतों – संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये – आगे कही जाने वाली – पाँच भावनाएं प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं। खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व – पर की पीड़ारहितता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ सत्य |
Hindi | 36 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! बितियं च सच्चवयणं–सुद्धं सुइयं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिट्ठं सुपतिट्ठियं सुपतिट्ठियजसं सुसंजमियवयणबुइयं सुरवर नरवसभ पवर बलवग सुविहियजण बहुमयं परमसाहु-धम्मचरणं तव नियम परिग्गहियं सुगतिपहदेसगं च लोगुत्तमं वयमिणं विज्जाहरगगणगमणविज्जाण साहकं सग्गमग्गसिद्धिपहदेसकं अवितहं, तं सच्चं उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं, अत्थतो विसुद्धं उज्जोयकरं पभासकं भवति सव्वभावाण जीवलोगे अविसंवादि जहत्थमधुरं पच्चक्खं दइवयं व जं तं अच्छेरकारकं अवत्थंतरेसु बहुएसु माणुसाणं।
सच्चेण महासमुद्दमज्झे चिट्ठंति, न निमज्जंति मूढाणिया वि पोया।
सच्चेण य उदगसंभमंसि Translated Sutra: हे जम्बू ! द्वितीय संवर सत्यवचन है। सत्य शुद्ध, शुचि, शिव, सुजात, सुभाषित होता है। यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक् विचारपूर्वक कहा गया है। इसे ज्ञानीजनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है। यह सुप्रतिष्ठित है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है। सत्य सुरवरों, नरवृषभों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ सत्य |
Hindi | 37 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इमं च अलिय पिसुण फरुस कडुय चवल वयण परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभाविकं आगमेसिभद्दं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विओसमणं।
तस्स इमा पंच भावणाओ बितियस्स वयस्स अलियवयणवेरमण परिरक्खणट्ठयाए।
पढमं–सोऊणं संवरट्ठं परमट्ठं, सुट्ठु जाणिऊण न वेगियं न तुरियं न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परस्स पीलाकरं सावज्जं, सच्चं च हियं च मियं चगाहकं च सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालम्मि य वत्तव्वं।
एवं अणुवीइसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा, संजय कर चरण नयण वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो।
बितियं–कोहो ण सेवियव्वो। कुद्धो चंडिक्किओ Translated Sutra: अलीक – असत्य, पिशुन – चुगली, परुष – कठोर, कटु – कटुक और चपल – चंचलतायुक्त वचनों से बचाव के लिए तीर्थंकर भगवान ने यह प्रवचन समीचीन रूप से प्रतिपादित किया है। यह भगवत्प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुभ भावना से युक्त है, भविष्य में श्रेयस्कर है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, मुक्ति का सीधा मार्ग है, सर्वोत्कृष्ट | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा |
Hindi | 38 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! दत्ताणुण्णायसंवरो नाम होति ततियं–सुव्वतं महव्वतं गुणव्वतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणं-ततण्हामणुगय महिच्छ मणवयणकलुस आयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमण हत्थ पायनिहुयं निग्गंथं नेट्ठिकं निरुत्तं निरासवं निब्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभ पवरबलवग सुविहिय-जनसंमतं परमसाहुधम्मचरणं।
जत्थ य गामागर नगर निगम खेड कब्बड मडंब दोणमुह संवाह पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि मुत्त सिल प्पवाल कंस दूस रयय वरकणग रयणमादिं पडियं पम्हुट्ठं विप्पणट्ठं न कप्पति कस्सति कहेउं वा गेण्हिउं वा। अहिरण्णसुवण्णिकेण समलेट्ठुकंचनेनं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं।
जं Translated Sutra: हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार ‘दत्तानुज्ञात’ नामक है। यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है। यह परकीय द्रव्य – पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा – अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 39 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! एत्तो य बंभचेरं–उत्तम तव नियम णाण दंसण चरित्त सम्मत्त विणयमूलं जम नियम गुणप्पहाणजुतं हिमवंत-महंत तेयमंतं पसत्थ गंभीर थिमित मज्झं अज्जवसाहुजणाचरितं मोक्खमग्गं विसुद्ध सिद्धिगति निलयंसासयमव्वाबाहमपुणब्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवमचल-मक्खयकरं जतिवर सारक्खियं सुचरियं सुसाहियं नवरि मुणिवरेहिं महापुरिस धीर सूर धम्मिय धितिमंताण य सया विसुद्धं भव्वं भव्वजणानुचिण्णं निस्संकियं निब्भयं नित्तुसं निरायासं निरुवलेवं निव्वुतिधरं नियम निप्पकंपं तवसंजममूलदलिय नेम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं समितिगुत्तिगुत्तं ज्झाणवरकवाडसुकयं अज्झप्पदिण्णफलिहं संणद्धोत्थइयदुग्गइपहं Translated Sutra: हे जम्बू ! अदत्तादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है। यह ब्रह्मचर्य अनशन आदि तपों का, नियमों का, ज्ञान का, दर्शन का, चारित्र का, सम्यक्त्व का और विनय का मूल है। अहिंसा आदि यमों और गुणों में प्रधान नियमों से युक्त है। हिमवान् पर्वत से भी महान और तेजोवान है। प्रशस्य है, गम्भीर है। इसकी विद्यमानता में मनुष्य | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 40 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचमहव्वय-सुव्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं ।
वेरविरामण पज्जवसाणं, सव्वसमुद्द-महोदधितित्थं ॥ Translated Sutra: यह ब्रह्मचर्यव्रत पाँच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार वाले मुनियों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है। |