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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ सामायिक |
Hindi | 1 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] Translated Sutra: अरिहंत को नमस्कार हो, सिद्ध को नमस्कार हो, आचार्य को नमस्कार हो, उपाध्याय को नमस्कार हो, लोक में रहे सर्व साधु को नमस्कार हो, इस पाँच (परमेष्ठि) को किया गया नमस्कार सर्व पाप का नाशक है। सर्व मंगल में प्रथम (उत्कृष्ट) मंगल है। अरिहंत शब्द के लिए तीन पाठ हैं। अरहंत, अरिहंत और अरूहंत। यहाँ अरहंत शब्द का अर्थ है – जो | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ सामायिक |
Hindi | 2 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] करेमि भंते सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि
जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि
तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: हे भगवंत ! (हे पूज्य !) में (आपकी साक्षी में) सामायिक का स्वीकार करता हूँ यानि समभाव की साधना करता हूँ। जिन्दा हूँ तब तक सर्व सावद्य (पाप) योग का प्रत्याख्यान करता हूँ। यानि मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति न करने का नियम करता हूँ। (जावज्जीव के लिए) मन से, वचन से, काया से (उस तरह से तीन योग से पाप व्यापार) मैं खुद न करूँ, | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ वंदन |
Hindi | 10 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए,
अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अहोकायं काय-संफासं
खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो
जत्ता भे जवणिज्जं च भे,
खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए
जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: (शिष्य कहता है) हे क्षमा (आदि दशविध धर्मयुक्त) श्रमण, (हे गुरुदेव !) आपको मैं इन्द्रिय और मन की विषय विकार के उपघात रहित निर्विकारी और निष्पाप प्राणातिपात आदि पापकारी प्रवृत्ति रहित काया से वंदन करना चाहता हूँ। मुझे आपकी मर्यादित भूमि में (यानि साड़े तीन हाथ अवग्रह रूप – मर्यादा के भीतर) नजदीक आने की (प्रवेश करने | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 15 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो कओ
काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्वो असमणपाउग्गो
नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं
जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: मैं दिवस सम्बन्धी अतिचार का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, यह अतिचार सेवन काया से – मन से – वचन से (किया गया हो), उत्सूत्र भाषण – उन्मार्ग सेवन से (किया हो), अकल्प्य या अकरणीय (प्रवृत्ति से किया हो) दुर्ध्यान या दुष्ट चिन्तवन से (किया हो) अनाचार सेवन से, अनीच्छनीय श्रमण को अनुचित (प्रवृत्ति से किया हो।) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 16 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए
गमणागमणे पाणक्कमणे बीयक्कमणे हरियक्कमणे ओसा-उत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मक्कडा-संताणासंकमणे
जे मे जीवा विराहिया एगिंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया
अभिहया वत्तिया लेसिया संघाइया संघट्टिया परियाविया किलामिया उद्दविया ठाणाओ ठाणं संकामिया
जीवियाओ ववरोविया
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: (मैं प्रतिक्रमण करने के यानि पाप से वापस मुड़ने के समान क्रिया करना) चाहता हूँ। ऐर्यापथिकी यानि गमनागमन की क्रिया के दौहरान हुई विराधना से (यह विराधना किस तरह होती है वो बताते हैं – ) आते – जाते, मुझसे किसी त्रसजीव, बीज, हरियाली, झाकल का पानी, चींटी का बिल, सेवाल, कच्चा पानी, कीचड़ या मंकड़े के झाले आदि चंपे गए हो; जो कोई | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 17 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसिज्जाए निगामसिज्जाए संथारा उव्वट्टणाए परियट्टणाए आउंटण-पसारणाए छप्पइयसंघट्टणाए कूइए कक्कराइए छीए जंभाइए आमोसे ससरक्खामोसे आउल-माउलाए सोअणवत्तियाए इत्थीविप्परिआसियाए दिट्ठिविप्परिआसिआए मणविप्परिआ-सिआए पाणभोयणविप्परिआसिआए
जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। (लेकिन किसका ?) दिन के प्रकामशय्या गहरी नींद लेने से (यहाँ प्रकाम यानि गहरा या संथारा उत्तरपट्टा से या तीन कपड़े से ज्यादा उपकरण का इस्तमाल करने से, शय्या यानि निद्रा या संथारीया आदि) हररोज ऐसी नींद लेने से, संथारा में बगल बदलने से और पुनः वही बगल बदलने से, शरीर के अवयव सिकुड़ने से | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 20 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिक्कमामि एगविहे असंजमे,
पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिं-रागबंधणेणं दोसबंधणेणं,
पडिक्कमामि तिहिं दंडेहिं-मणदंडेणं वयदंडेणं कायदंडेणं,
पडिक्कमामि तिहिं गुत्तीहिं-मणगुत्तीए वइगुत्तीए कायगुत्तीए। Translated Sutra: मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (लेकिन किसका ?) एक, दो, तीन आदि भेदभाव के द्वारा बताते हैं। (यहाँ मिच्छामि दुक्कडम् यानि मेरा वो पाप मिथ्या हो वो बात एकविध आदि हरएक दोष के साथ जुड़ना।) अविरति रूप एक असंयम से (अब के सभी पद असंयम का विस्तार समझना) दो बन्धन से राग और द्वेष समान बन्धन से, मन, वचन, काया, दंड़ सेवन से, मन, वचन, काया, गुप्ति | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 25 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चउद्दसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं, सोलसहिं गाहासोलसएहिं, सत्तरसविहे असंजमे, अट्ठारसविहे अबंभे, एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं, वीसाए असमाहिट्ठाणेहिं। Translated Sutra: इहलोक – परलोक आदि सात भय स्थान के कारण से, जातिमद – कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति – शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय – | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 33 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जं संभरामि जं च न संभरामि, जं पडिक्कमामि जं च न पडिक्कमामि,
तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि
समणोहं संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मो अनियाणो दिट्ठिसंपन्नो मायामोस-विवज्जओ। Translated Sutra: (सभी दोष की शुद्धि के लिए कहा है) जो कुछ थोड़ा सा भी मेरी स्मृतिमें है, छद्मस्थपन से स्मृतिमें नहीं है, ज्ञात वस्तु का प्रतिक्रमण किया और सूक्ष्म का प्रतिक्रमण न किया उस अनुसार जो अतिचार लगा हो वो सभी दिन सम्बन्धी अतिचार का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। इस प्रकार अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करके मैं तप – संयम रत साधु हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 35 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खामेमि सव्वजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे ।
भित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणई ॥ Translated Sutra: सभी जीव को मैं खमाता हूँ। सर्व जीव मुझे क्षमा करो और सर्व जीव के साथ मेरी मैत्री है। मुझे किसी के साथ वैर नहीं है। उस अनुसार मैंने अतिचार की निन्दा की है आत्मसाक्षी से उस पाप पर्याय की निंदा – गर्हा की है, उस पाप प्रवृत्ति की दुगंछा की है, इस प्रकार से किए गए – हुए पाप व्यापार को सम्यक्, मन, वचन, काया से प्रतिक्रमता | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 39 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स
उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं
पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउसग्गं।
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अन्नत्थ
ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलीए पित्तमुच्छाए
सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं
एवमाइएहिं आगारेहिं
अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो
जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि
तावकायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: वो (ईयापथिकी विराधना के परिणाम से उत्पन्न होनेवाला) पापकर्म का पूरी तरह से नाश करने के लिए, प्रायश्चित्त करने से, विशुद्धि करने के द्वारा, शल्य रहित करने के द्वारा और तद् रूप उत्तरक्रिया करने के लिए यानि आलोचना – प्रतिक्रमण आदि से पुनः संस्करण करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ। ‘‘अन्नत्थ’’ के | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 61 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो उवट्ठिओ मि तुब्भण्हं संतिअं
अहाकप्पं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा [रयहरणं वा] अक्खरं वा पयं वा गाहं वा सिलोगं वा सिलोगद्धं वा अट्ठं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा
तुब्भेहिं सम्मं चिअत्तेण दिन्नं
मए अविणएण पडिच्छिअं
तस्स मिच्छामिदुक्कडं
–आयरियसंतिअं। Translated Sutra: हे क्षमा – श्रमण (पूज्य) ! मैं भी उपस्थित होकर मेरा निवेदन करना चाहता हूँ। आपका दिया हुआ यह सब कुछ जो मेरे लिए जरुरी है वस्त्र, पात्र, कँबल, रजोहरण एवं अक्षर, पद, गाथा, श्लोक, अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण आदि स्थविर कल्प को योग्य और बिना माँगे आपने मुझे प्रीतिपूर्वक दिया फिर भी मैंने अविनय से ग्रहण किया वो मेरा पाप | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Hindi | 72 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अनत्थदंडे चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा–
अवज्झाणारिए पमत्तायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे
अनत्थदंडवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा तं जहा–
कंदप्पे कुक्कुइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उवभोगपरिभोगाइरेगे। Translated Sutra: अनर्थदंड़ चार प्रकार से बताया है वो इस प्रकार – अपध्यान – प्रमादाचरण – हत्याप्रदान और पापकर्मोपदेश। अनर्थदंड़ विरमण व्रत धारक श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए वो इस प्रकार – काम विकार सम्बन्ध से हुआ अतिचार, कुत्सित चेष्टा, मौखर्य, वाचालता, हत्या अधिकरण का इस्तमाल, भोग का अतिरेक। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Hindi | 73 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइयं नामं सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च। Translated Sutra: सामायिक यानि सावद्य योग का वर्जन और निरवद्य योग का सेवन ऐसे शिक्षा अध्ययन दो तरीके से बताया है। उपपातस्थिति, उपपात, गति, कषायसेवन, कर्मबंध और कर्मवेदन इन पाँच अतिक्रमण का वर्जन करना चाहिए – सभी जगह विरति की बात बताई गई है। वाकई सर्वत्र विरति नहीं होती। इसलिए सर्व विरति कहनेवाले ने सर्व से और देश से (सामायिक) | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ वंदन |
Gujarati | 10 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए,
अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अहोकायं काय-संफासं
खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो
जत्ता भे जवणिज्जं च भे,
खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए
जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: શિષ્ય કહે છે – હે ક્ષમા (આદિ દશવિધ ધર્મથી યુક્ત) શ્રમણ ! આપને હું ઇન્દ્રિયો તથા મનની વિષયવિકારના ઉપઘાત રહિત, નિર્વિકારી અને નિષ્પાપ કાયા વડે વંદન કરવાને ઇચ્છું છું. મને આપની મર્યાદિત ભૂમિમાં પ્રવેશવાની અનુજ્ઞા આપો. નિસીહી (એમ કહી શિષ્ય અવગ્રહમાં પ્રવેશે.) અધોકાય એટલે આપના ચરણને હું મારી કાયા વડે સ્પર્શુ છું. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 15 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो कओ
काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्वो असमणपाउग्गो
नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं
जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Translated Sutra: હું દિવસ સંબંધી અતિચારોનું પ્રતિક્રમણ કરવાને ઇચ્છું છું. (આ અતિચાર સેવન) – કાયાથી, વચનથી, મનથી કરેલ હોય. ઉત્સૂત્રભાષણ કે ઉન્માર્ગ સેવનથી (હોય). અકલ્પ્ય કે અકરણીયથી (થયેલ હોય). દુર્ધ્યાન કે દુષ્ટ ચિંતવનથી (થયેલ હોય). અનાચારથી, અનિચ્છનીયથી, અશ્રમણપ્રાયોગ્યથી હોય. જ્ઞાન, દર્શન કે ચારિત્ર – શ્રુત અને સામાયિકમાં હોય. ત્રણ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 26 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगवीसाए-सबलेहिं, बावीसाए-परीसहेहिं, तेवीसाए-सुयगडज्झयणेहिं, चउवीसाए-देवेहिं, पंचवीसाए-भावणाहिं, छव्वीसाए-दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं, सत्तावीसाए-अणगारगुणेहिं अट्ठावीसइविहे-आयारपकप्पेहिं, एगुणतीसाए-पावसुयपसंगेहिं तीसाए-मोहणीयट्ठाणेहिं एगतीसाए -सिद्धाइगुणेहिं, बत्तीसाए-जोगसंगहेहिं। Translated Sutra: એકવીસ શબલદોષ, બાવીશ પરીષહો, તેવીશ સૂત્રકૃત્ આગમના કુલ અધ્યયનો, ચોવીશ દેવો, પચીશ ભાવના, છવીશ – દશાશ્રુતસ્કંધ બૃહત્ કલ્પ અને વ્યવહાર એ ત્રણેના મળીને ઉદ્દેશનકાળ, સત્તાવીશ પ્રકારે અણગારનું ચારિત્ર, અટ્ઠાવીશ ભેદે આચાર પ્રકલ્પ, ઓગણત્રીશ ભેદે પાપશ્રુતના પ્રસંગો વડે, ત્રીશ મોહનીય સ્થાનો વડે, એકત્રીશ સિદ્ધોના | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 33 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जं संभरामि जं च न संभरामि, जं पडिक्कमामि जं च न पडिक्कमामि,
तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि
समणोहं संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मो अनियाणो दिट्ठिसंपन्नो मायामोस-विवज्जओ। Translated Sutra: જે કંઈ મને સ્મરણમાં છે, જે કંઈ સ્મરણમાં નથી. જેનું મેં પ્રતિક્રમણ કર્યુ અને જે (અજાણ)નું પ્રતિક્રમણ ન કર્યું. તે (સર્વે)ના દિવસ સંબંધી અતિચારોને હું પ્રતિક્રમું છું. હું શ્રમણ છું, સંયત – વિરત – પ્રતિહત અને પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મ વાળો છું, નિયાણા રહિત છું, દૃષ્ટિ સંપન્ન અને માયામૃષા રહિત છું. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 39 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स
उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं
पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउसग्गं।
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अन्नत्थ
ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलीए पित्तमुच्छाए
सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं
एवमाइएहिं आगारेहिं
अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो
जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि
तावकायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: તેનું ઉત્તરીકરણ કરવા માટે, પ્રાયશ્ચિત્ત કરવા વડે, વિશુદ્ધિ કરવા વડે, શલ્ય રહિત કરવા વડે પાપકર્મોના નિર્ઘાતનને માટે હું કાયોત્સર્ગમાં સ્થિર થાઉં છું. અન્નત્થ (સિવાય કે, નીચેના કારણો સિવાય) શ્વાસ લેવાથી, શ્વાસ મૂકવાથી, ઉધરસથી, છીંકથી, બગાસાથી, ઓડકારથી, વાતનિસર્ગથી, ભ્રમરીથી, પિત્ત મૂર્છાથી. સૂક્ષ્મ અંગ સંચાલનથી, | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Gujarati | 72 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अनत्थदंडे चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा–
अवज्झाणारिए पमत्तायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे
अनत्थदंडवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा तं जहा–
कंदप्पे कुक्कुइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उवभोगपरिभोगाइरेगे। Translated Sutra: અનર્થ દંડ ચાર ભેદે કહેલ છે – અપધ્યાનાચરિત, પ્રમત્તાચરિત, હિંસાપ્રદાન, પાપકર્મોપદેશ. અનર્થદંડ વિરમણ વ્રતી શ્રાવકને આ પાંચ અતિચાર જાણવા જોઈએ – કંદર્પ, કૌકુત્ચ્ય, મૌખરિક, સંયુક્તાધિકરણ, ઉપભોગ પરિભોગાતિરિક્ત. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Gujarati | 73 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइयं नामं सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च। Translated Sutra: સામાયિક એટલે સાવદ્યયોગનું પરિવર્જન અને નિરવદ્ય યોગનું પ્રતિસેવન. એમ શિક્ષા અધ્યયન બે પ્રકારે કહ્યું છે ઉપપાત – સ્થિતિ, ગતિ, કષાય, કર્મબંધ અને કર્મવેદન આ પાંચ અતિક્રમણ વર્જવા. સામાયિક કરેલ હોય ત્યારે શ્રાવક શ્રમણ જેવો થાય છે. આ કારણે વારંવાર સામાયિક કરવી જોઈએ. બધે જ ‘વિરતિ’ કહેવાઈ છે, ખરેખર બધે ‘વિરતિ’ હોતી | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-१ जीव अस्तित्व | Hindi | 3 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि मे आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि? Translated Sutra: इसी प्रकार कुछ प्राणियों को यह ज्ञान नहीं होता कि मेरी आत्मा औपपातिक है अथवा नहीं ? मैं पूर्व जन्म में कौन था ? मैं यहाँ से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा ? | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Hindi | 49 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–संतिमे तसा पाणा, तं जहा–अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया ओव-वाइया।
एस संसारेत्ति पवुच्चति। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – ये सब त्रस प्राणी हैं, जैसे – अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्च्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक। यह संसार कहा जाता है। मंद तथा अज्ञानी जीव को यह संसार होता है। मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देखकर कहता हूँ – प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण चाहता है। सूत्र – ४९, ५० | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 30 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एत्थवि तेसिं नो णिकरणाए। Translated Sutra: अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय ही हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Hindi | 62 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं।
तं णोअन्नेसिं।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवन्नेछज्जीवणिकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते छज्जीव-णिकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुनी परिण्णाय-कम्मे।
Translated Sutra: वह वसुमान् (ज्ञान – दर्शन – चारित्र – रूप धनयुक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तः करण से पापकर्म को अकरणीय जाने, तथा उस विषय में अन्वेषण भी न करे। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट् – जीवनिकाय का समारंभ न करे। दूसरों से समारंभ न करवाए। समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसने षट् | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Hindi | 76 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति-पासति।
पडिलेहाए नावकंखति।
एस अनगारेत्ति पवुच्चति।
अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विनिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो
से आय-बले, से नाइ-बले, से मित्त-बले, से पेच्च-बले, से देव-बले, से राय-बले, से चोर-बले, से अतिहि-बले, से किवण-बले, से समण-बले।
इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समायाणं।
सपेहाए भया कज्जति।
पाव-मोक्खोत्ति मन्नमाणे।
अदुवा आसंसाए। Translated Sutra: जो लोभ से निवृत्त होकर प्रव्रज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण से मुक्त होकर) सब कुछ जानता है, देखता है। जो प्रतिलेखना कर, विषय – कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है। (जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात – दिन परितप्त रहता है। काल या अकाल में सतत प्रयत्न करता रहता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 98 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए।
तम्हा पावं कम्मं, ने व कुज्जा न कारवे। Translated Sutra: वह उसको सम्यक् प्रकार से जानकर संयम साधना से समुद्यत होता है। इसलिए वह स्वयं पापकर्म न करे, दूसरों से न करवाए (अनुमोदन भी न करे)। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 113 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए।
मंता एयं मइमं! पास।
आरंभजं दुक्खमिणं ति नच्चा।
माई पमाई पुनरेइ गब्भं।
उवेहमानो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति।
अप्पमत्तो कामेहिं, उवरतो पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते ‘जे खेयण्णे’।
जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे।
अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
कम्मुणा उवाही जायइ। कम्मं च पडिलेहाए। Translated Sutra: (सुप्त) मनुष्यों को दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे। हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (दुखियों) को देख। यह दुःख आरम्भज है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से आत्महित में प्रवृत्त रह)। मया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य बार – बार जन्म लेता है। शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है, वह | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 115 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जातिं च वुड्ढिं च इहज्ज! पासे। भूतेहिं जाणे पडिलेह सातं।
तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा, समत्तदंसी न करेति पावं॥ Translated Sutra: हे आर्य ! तू इस संसार में जन्म और बुद्धि को देख। तू प्राणियों को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर। इससे त्रैविद्य या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है)। समत्वदर्शी पाप नहीं करता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 116 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं। आरंभजीवी ‘उ भयाणुपस्सी’।
कामेसु गिद्धा निचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरेंति गब्भं॥ Translated Sutra: इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश है, उसे तोड़ ड़ाल; क्योंकि ऐसे लोग हिंसादि पापरूप आरंभ करके जीते हैं और आरंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक में शारीरिक, मानसिक कामभोगों को ही देखते रहते हैं, अथवा आरंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन करते हैं। ऐसे कामभोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं। (कर्मों की | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 118 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा, आयंकदंसी न करेति पावं।
‘अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे’। पलिच्छिंदिया णं निक्कम्मदंसी॥ Translated Sutra: इसलिए अति विद्वान् परम – मोक्ष पद को जानकर जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप नहीं करता। हे धीर ! तू (इस आतंक – दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी हो जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 119 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस मरणा पमुच्चइ।
से हु दिट्ठपहे मुनी।
लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया जए कालकंखी परिव्वए।
बहुं च खलु पावकम्मं पगडं। Translated Sutra: वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है। वह मुनि भय को देख चूका है। वह लोक में परम (मोक्ष) को देखता है। वह राग – द्वेष रहित शुद्ध जीवन जीता है। वह उपशान्त, समित, (ज्ञान आदि से) सहित होता। (अत एव) सदा संयत होकर, मरण की आकांक्षा करता हुआ विचरण करता है। (इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 120 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सच्चंसि धितिं कुव्वह।
एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति। Translated Sutra: (उन कर्मों को नष्ट करने हेतु) तू सत्य में धृति कर। इस में स्थिर रहने वाला मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण कर डालता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 122 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसेवित्ता एतमट्ठं, इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवए।
निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं नच्चा। अनन्नं चर माहणे!
से न छणे न छनावए, छणंतं णाणुजाणइ।
निव्विंद नंदिं अरते पयासु।
अणोमदंसी निसन्ने पावेहिं कम्मेहिं। Translated Sutra: इस प्रकार कईं व्यक्ति इस अर्थ का आसेवन करके संयम – साधना में संलग्न हो जाते हैं। इसलिए वे फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते। हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू विषयाभिलाषा मत कर)। केवल मनुष्यों के ही, जन्म – मरण नहीं, देवों के भी उपपात और च्यवन निश्चित हैं, यह जानकर (विषय – सुखों में आसक्त मत हो)। हे माहन ! तू अनन्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 125 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संधिं लोगस्स जाणित्ता। आयओ बहिया पास।
तम्हा न हंता न विघायए।
जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुनी कारणं सिया? Translated Sutra: साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि समझकर प्रमाद करना उचित नहीं है। अपनी आत्मा के समान बाह्य – जगत को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए। जो परस्पर एक – दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-३ अनवद्यतप | Hindi | 149 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमं निरुद्धाउयं संपेहाए
दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं।
पुढो फासाइं च फासे।
लोयं च पास विप्फंदमाणं।
जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं, अनिदाणा ते वियाहिया।
तम्हा तिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि। Translated Sutra: यह मनुष्य – जीवन अल्पायु है, यह सम्प्रेक्षा करता हुआ साधक अकम्पित रहकर क्रोध का त्याग करे। (क्रोधादि से) वर्तमानमें अथवा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाले दुःखों को जाने। क्रोधी पुरुष भिन्न – भिन्न नरकादि स्थानोंमें विभिन्न दुःखों का अनुभव करता है। प्राणीलोक को इधर – उधर भाग – दौड़ करते देख ! जो पुरुष पापकर्मों | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-४ संक्षेप वचन | Hindi | 152 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया?
से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सम्ममेयंति पासह।
जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं।
पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं।
‘कम्मुणा सफलं’ दट्ठुं, तओ णिज्जाइ वेयवी। Translated Sutra: जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का) पूर्व – संस्कार नहीं है और पश्चात् का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा ? (जिसकी भोगकांक्षाएं शान्त हो गई हैं।) वही वास्तव में प्रज्ञानवान् है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। यह सम्यक् है, ऐसा तुम देखो – सोचो। (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-४ संक्षेप वचन | Hindi | 153 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे खलु भो! वीरा समिता सहिता सदा जया संघडदंसिनो आतोवरया अहा-तहा लोगमुवेहमाणा, पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं इति सच्चंसि परिचिट्ठिंसु, साहिस्सामो णाणं वीराणं समिताणं सहिताणं सदा जयाणं संघडदंसिणं आतोवरयाणं अहा-तहा लोगमुवेहमाणाणं।
किमत्थि उवाधी पासगस्स ‘न विज्जति? नत्थि’। Translated Sutra: हे आर्यो ! जो साधक वीर हैं, समित हैं, सहित हैं, संयत हैं, सतत शुभाशुभदर्शी हैं, (पापकर्मों से) स्वतः उपरत हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं, सभी दिशाओं में भली प्रकार सत्य में स्थित हो चूके हैं, उन के सम्यग् ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसका उपदेश करेंगे। (ऐसे) सत्यद्रष्टा वीर के कोई उपाधि होती है ? नहीं होती। – ऐसा मैं | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-१ एक चर | Hindi | 158 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे।
‘एत्थ फासे’ पुणो-पुणो
आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी।
एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं, ‘असरणे सरणं’ ति मन्नमाणे।
इहमेगेसिं एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, आसवसक्की पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे ‘मा से केइ अदक्खू’ अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ। अट्ठा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आवट्टं अणुपरियट्टंति। Translated Sutra: हे साधको ! विविध कामभोगों में गृद्ध जीवों को देखो, जो नरक – तिर्यंच आदि यातना – स्थानों में पच रहे हैं – उन्हीं विषयों से खिंचे जा रहे हैं। इस संसार प्रवाह में उन्हीं स्थानों का बारंबार स्पर्श करते हैं। इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीवी हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों) के कारण आरम्भजीवी हैं। अज्ञानी साधक इस | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-२ विरत मुनि | Hindi | 160 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस समिया-परियाए वियाहिते।
जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं, उदाहु ते आयंका फुसंति। इति उदाहु वीरे ते फासे पुट्ठो हियासए।
से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्मं, विद्धंसण-धम्मं, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं, विपरिनाम धम्मं, पासह एयं रूवं। Translated Sutra: ऐसा साधक शमिता या समता का पारगामी, कहलाता है। जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं है, कदाचित् उन्हें आतंक स्पर्श करे, ऐसे प्रसंग पर धीर (वीर) तीर्थंकर महावीर न कहा कि ‘उन दुःखस्पर्शों को (समभावपूर्वक) सहन करे।’ यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे अवश्य छूट जाएगा। इस रूप – देह के स्वरूप को देखो, छिन्न – भिन्न और | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Hindi | 168 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुभं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पाव कम्मं।
तं नो अन्नेसिं।
जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ॥
न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं।
मुनी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं।
पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओहंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए। Translated Sutra: संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे। जिस सम्यक् को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो। (सम्यक्त्व) का सम्यक्रूप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल हैं, आसक्ति – मूलक स्नेह से आर्द्र | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-४ अव्यक्त | Hindi | 172 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति से युक्त, सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है – ‘यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा ?’ वह स्त्रियाँ परम आराम हैं। (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक – सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?) ग्रामधर्म | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 190 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मरणं तेसिं संपेहाए, उववायं चयणं च नच्चा ।
परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा तहा ॥
संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया।
तामेव सइं असइं अतिअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेदेंति।
बुद्धेहिं एयं पवेदितं।
संति पाणा वासगा, रसगा, उदए उदयचरा, आगासगामिणो।
पाणा पाणे किलेसंति। पास लोए महब्भयं। Translated Sutra: उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात और च्यवन को जानकर तथा कर्मों के विपाक का भली – भाँति विचार करके उसके यथातथ्य को सूनो। (इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गए हैं, जो अंधे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं। वे प्राणी उसीको एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करते हैं। बुद्धों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 206 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणा–‘एवं पेगे वइत्ता’,
मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं ।
‘वीरायमाणा समुट्ठाए, अविहिंसा सुव्वया दंता’ ॥
अहेगे पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे।
वसट्टा कायराजना लूसगा भवंति।
अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, ‘से समणविब्भंते समणविब्भंते’।
पासहेगे समण्णागएहिं असमण्णागए, णममाणेहिं अणममाणे, विरतेहिं अविरते, दविएहिं अदविए।
अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्ठियट्ठे वीरे आगमेणं सया परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा ? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। दीन और पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में कईं साधकों को आचार – गोचर सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु – जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 213 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया।
अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स
सव्वत्थ सम्मयं पावं।
तमेव उवाइकम्म।
एस मह विवेगे वियाहिते।
गामे वा अदुवा रण्णे? नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह–पवेदितं माहणेण मईमया।
जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया।
जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं, अनियाणा ते वियाहिया। Translated Sutra: जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन) रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। (वह मुनि उन मतवादियों से कहे – ) (आप के दर्शनों में आरम्भ) पाप सर्वत्र सम्मत है। मैं उसी (पाप) का निकट से अति – क्रमण करके (स्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 220 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समुट्ठिता।
‘सोच्चा वई मेहावी’, पंडियाणं निसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते।
ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा नो ‘परिग्गहावंतो सव्वावंतो’ च णं लोगंसि।
णिहाय दंडं पाणेहिं, पावं कम्मं अकुव्वमाणे, एस महं अगंथे वियाहिए।
ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च नच्चा। Translated Sutra: कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं। तीर्थंकर तथा श्रुतज्ञानी आदि पण्डितों के वचन सूनकर, मेधावी साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) आर्यों ने समता में धर्म कहा है, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से धर्म कहा है। वे कामभोगों की आकांक्षा न रखनेवाले, प्राणियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 246 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गामे वा अदुवा रण्णे, थंडिलं पडिलेहिया ।
अप्पपाणं तु विण्णाय, तणाइं संथरे मुनी ॥ Translated Sutra: (संलेखन – साधक) ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन करे, उसे जीव – जन्तुरहित स्थान जानकर मुनि (वहीं) घास बिछा ले। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 279 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] भगवं च ‘एवं मन्नेसिं’, सोवहिए हु लुप्पती बाले ।
कम्मं च सव्वसो नच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ Translated Sutra: भगवान ने यह भलीभाँति जान – मान लिया था कि द्रव्य – भाव – उपधि से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही क्लेश का अनुभव करता है। अतः कर्मबन्धन सर्वांग रूप से जानकर कर्म के उपादानरूप पाप का प्रत्याख्यान कर दिया था | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 281 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अइवातियं अणाउट्टे, सयमण्णेसिं अकरणयाए ।
जस्सित्थिओ परिण्णाया, सव्वकम्मावहाओ से अदक्खू ॥ Translated Sutra: भगवान ने स्वयं पाप – दोष रहित निर्दोष अनाकुट्टि का आश्रय लेकर दूसरों को हिंसा न करने की (प्रेरणा दी)। जिन्हें स्त्रियाँ परिज्ञात हैं, उन भगवान महावीर ने देख लिया था कि ’ कामभोग समस्त पापकर्मों के उपादान कारण हैं’ |