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Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-२

चूलिका-२

अध्ययन-१० [३] उच्चार प्रश्नवण विषयक

Hindi 500 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा, गाहावइ-पुत्ता वा कंदाणि वा, मूलाणि वा, [तयाणि वा?], पत्ताणि वा, पुप्फाणि वा, फलाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा अंतातो वा बाहिं णीहरंति, बहियाओ वा अंतो साहरंति, अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–खंधंसि वा, पीढंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, अट्टंसि वा, पासायंसि वा, अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अनंतरहियाए पुढवीए, ससिणिद्धाए पुढवीए, ससरक्खाए

Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जान कि गृहपति या उसके पुत्र कन्द, मूल यावत्‌ हरी जिसके अंदर से बाहर ले जा रहे हैं, या बाहर से भीतर ले जा रहे हैं, अथवा उस प्रकार की किन्हीं सचित्त वस्तुओं को इधर – उधर कर रहे हैं, तो वहाँ साधु – साध्वी मल – मूत्र विसर्जन न करे। ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि स्कन्ध पर, चौकी पर, मचान पर,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-२

उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक Hindi 114 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। तए णं से खंदए अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं। तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठे जाव नमंसित्ता मासियं

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से नीकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र – अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर के पास आकर वन्दना – नमस्कार
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-५

उद्देशक-२ वायु Hindi 221 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अह णं भंते! ओदणे, कुम्मासे, सुरा–एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! ओदने, कुम्मासे, सुराए य जे घणे दव्वे– एए णं पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च वणस्सइ जीव-सरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया, सत्थपरिणामिया, अगनिज्झामिया, अगनिज्झूसिया, अगनि-परिणामिया अगनिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। सुराए य जे दवे दव्वे– एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगनिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। अह णं भंते! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया– एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया– एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढवी-जीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया

Translated Sutra: भगवन्‌ ! अब यह बताएं कि ओदन, उड़द और सुरा, इन तीनों द्रव्यों को किन जीवों का शरीर कहना चाहिए? गौतम ! ओदन, कुल्माष और सुरा में जो घन द्रव्य हैं, वे पूर्वभाव – प्रज्ञापना की अपेक्षा से वनस्पतिजीव के शरीर हैं। उसके पश्चात्‌ जब वे (ओदनादि द्रव्य) शस्त्रातीत हो जाते हैं, शस्त्रपरिणत हो जाते हैं; आग से जलाये अग्नि से सेवित
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 645 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आनंदे नामं थेरे पगइभद्दए जाव विनीए छट्ठं-छट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से आनंदे थेरे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइ-वयइ। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आनंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकरावणस्स अदूर-सामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–एहि ताव आनंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि। तए णं से आनंदे थेरे

Translated Sutra: उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर का अन्तेवासी आनन्द नामक स्थविर था। वह प्रकृति से भद्र यावत्‌ विनीत था और निरन्तर छठ – छठ का तपश्चरण करता हुआ और संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय किया, यावत्‌ – गौतमस्वामी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 657 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते से णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने? एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता। तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता। से णं भंते! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम ! वह ऊंचे चन्द्र और सूर्य का यावत्‌ उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ गोशालक की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। भगवन्‌ ! वह गोशालक देव उस देवलोक से आयुष्य, भव और स्थिति
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१८

उद्देशक-६ गुडवर्णादि Hindi 740 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] फाणियगुले णं भंते! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नत्ते? गोयमा! एत्थ णं दो नया भवंति, तं जहा– नेच्छइयनए य, वावाहारियनए य। वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पन्नत्ते। भमरे णं भंते! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नत्ते? गोयमा! एत्थ णं दो नया भवंति, तं जहा– नेच्छइयनए य, वावाहारियनए य। वावाहारिय-नयस्स कालए भमरे, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पन्नत्ते। सुयपिच्छे णं भंते! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नत्ते? एवं चेव, नवरं वावहारियनयस्स नीलए सुयपिच्छे, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पन्नत्ते। एवं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! फाणित गुड़ कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाला कहा गया है ? गौतम! इस विषय में दो नयों हैं, यथा – नैश्चयिक नय और व्यावहारिक नय। व्यावहारिक नय की अपेक्षा से फाणित – गुड़ मधुर रस वाला कहा गया है और नैश्चयिक नय की दृष्टि से गुड़ पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला कहा गया है। भगवन्‌ ! भ्रमर
BruhatKalpa बृहत्कल्पसूत्र Ardha-Magadhi

उद्देशक-२ Hindi 51 Sutra Chheda-02 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोहूमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खिण्णाणि वा विक्खिण्णाणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पकिण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए।

Translated Sutra: उपाश्रय के आसपास या आँगन में चावल, गेहूँ, मुग, उड़द, तल, कलथी, जव या ज्वार का अलग – अलग ढ़ग हो वो ढ़ग आपस में सम्बन्धित हो, सभी धान्य ईकट्ठे हो या अलग हो तो जघन्य से गीले हाथ की रेखा सूख जाए और उत्कृष्ट से पाँच दिन जितना वक्त भी साधु – साध्वी का वहाँ रहना न कल्पे, लेकिन यदि ऐसा जाने कि चावल आदि छूटे – फैले हुए अलग ढ़ग में या
Dashvaikalik दशवैकालिक सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-५ पिंडैषणा

उद्देशक-१ Hindi 82 Gatha Mool-03 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] इंगालं छारियं रासिं तुसरासिं च गोमयं । ससरक्खेहिं पाएहिं संजओ तं न अक्कमे ॥

Translated Sutra: संयमी साधु अंगार, राख, भूसे और गोबर पर सचित रज से युक्त पैरों से उन्हें अतिक्रम कर न जाए।
Gacchachar गच्छाचार Ardha-Magadhi

गच्छे वसमानस्य गुणा

Hindi 3 Gatha Painna-07A View Detail
Mool Sutra: [गाथा] जामद्धं जाम दिन पक्खं मासं संवच्छरं पि वा । सम्मग्गपट्ठिए गच्छे संवसमाणस्स गोयमा! ॥

Translated Sutra: गौतम ! अर्ध प्रहर – एक प्रहर दिन, पक्ष, एक मास या एक साल पर्यन्त भी सन्मार्गगामी गच्छ में रहनेवाले – आलसी – निरुत्साही और विमनस्क मुनि भी, दूसरे महाप्रभाववाले साधुओं को सर्व क्रिया में अल्प सत्त्ववाले – जीव से न हो सके ऐसे तप आदि रूप उद्यम करते देखकर, लज्जा और शंका का त्याग करके धर्मानुष्ठान करने में उत्साह धरते
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ संघाट

Hindi 50 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोढं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता अट्ठि-मुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महिय-गत्तं करेंति, करेत्ता अवउडा बंधनं करेंति, करेत्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधंति, बंधित्ता मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिहं नयरं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया। धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई। आयुध और प्रहरण ग्रहण किये। फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत – से नीकलने के मार्गों यावत्‌ दरवों, पीछे खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों,
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-७ रोहिणी

Hindi 75 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे। तत्थ णं रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे जाव अपरिभूए। भद्दा भारिया–अहीनपंचिंदियसरीरा जाव सुरूवा। तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारगा होत्था, तं जहा–धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए। तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तं जहा–उज्झिया भोगवइया रक्खिया रोहिणिया। तए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यदि श्रमण यावत्‌ निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन्‌ ! सातवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था। उस राजगृह नगर में धन्य नामक
Gyatadharmakatha धर्मकथांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-१२ उदक

Hindi 144 Sutra Ang-06 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे

Translated Sutra: वह जितशत्रु राजा एक बार – किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत्‌ अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत्‌ सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत्‌ जीमने के अनन्तर, हाथ – मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन,
Mahanishith महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन

उद्देशक-३ Hindi 345 Gatha Chheda-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] सव्वावस्सगमुज्जुत्तो सव्वालंबणविरहिओ। विमुक्को सव्वसंगेहिं सबज्झब्भंतरेहि य॥

Translated Sutra: सर्व आवश्यक क्रिया में उद्यमवन्त बने हुए, प्रमाद, विषय, राग, कषाय आदि के आलम्बन रहित बाह्य अभ्यंतर सर्व संग से मुक्त, रागद्वेष मोह सहित, नियाणा रहित बने, विषय के राग से निवृत्त बने, गर्भ परम्परा से भय लगे, आश्रव द्वार का रोध करके क्षमादि यतिधर्म और यमनियमादि में रहा हो, उस शुक्ल ध्यान की श्रेणी में आरोहण करके शैलेशीकरण
Mahanishith महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं

चूलिका-१ एकांत निर्जरा

Hindi 1423 Gatha Chheda-06 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] ता जा जरा न पीडेइ वाही जाव न केइ मे। जाविंदियाइं-न हायंति ताव धम्मं चरेत्तु हं॥

Translated Sutra: तो जब तक बुढ़ापे से पीड़ा न पाऊं और फिर मुझे कोइ व्याधि न हो, जब तक इन्द्रिय सलामत है। तब तक मैं धर्म का सेवन कर लूँ। पहले के लिए गए पापकर्म की निन्दा, गर्हा लम्बे अरसे तक करके उसे जलाकर राख कर दूँ। प्रायश्चित्त का सेवन करके मैं कलंक रहित बनूँगा। हे गौतम ! निष्कलुष निष्कलंक ऐसे शुद्ध भाव वो नष्ट न हो उनसे पहले कैसा
Pindniryukti पिंड – निर्युक्ति Ardha-Magadhi

एषणा

Hindi 573 Gatha Mool-02B View Detail
Mool Sutra: [गाथा] दुविहं च मक्खियं खलु सच्चित्तं चेव होइ अच्चित्तं । सच्चित्तं पुन तिविहं अच्चित्तं होइ दुविहं तु ॥

Translated Sutra: म्रक्षित (लगा हुआ – चिपका हुआ) दो प्रकार से – सचित्त और अचित्त। सचित्त म्रक्षित तीन प्रकार से – पृथ्वीकाय म्रक्षित, अप्‌काय म्रक्षित, वनस्पतिकाय म्रक्षित। अचित्त म्रक्षित दो प्रकार से – लोगों में तिरस्कार रूप, माँस, चरबी, रूधिर आदि से म्रक्षित, लोगों में अनिन्दनीय घी आदि से म्रक्षित। सचित्त पृथ्वीकाय म्रक्षित
Saman Suttam Saman Suttam Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२४. श्रमणधर्मसूत्र English 344 View Detail
Mool Sutra: बहु श्रृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां प्रेक्षते। न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति।।९।।

Translated Sutra: A monk hears much through his ears and sees much with his eyes; but everything that he has seen and heard does not deserve to be narrated.
Saman Suttam સમણસુત્તં Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२४. श्रमणधर्मसूत्र Gujarati 344 View Detail
Mool Sutra: बहु श्रृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां प्रेक्षते। न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति।।९।।

Translated Sutra: ઘણી બધી વાતો ગોચરી ગયેલ મુનિના કાને પડે છે, ઘણી બધી વસ્તુઓ ગોચરી ગયેલ મુનિની નજરે પડે છે; પરંતુ સાંભળેલું ને જોયેલું બધું એ કોઈને કહે નહિ.
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२४. श्रमणधर्मसूत्र Hindi 344 View Detail
Mool Sutra: बहु श्रृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां प्रेक्षते। न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति।।९।।

Translated Sutra: गोचरी अर्थात् भिक्षा के लिए निकला हुआ साधु कानों से बहुत-सी अच्छी-बुरी बातें सुनता है और आँखों से बहुत-सी अच्छी-बुरी वस्तुएँ देखता है, किन्तु सब-कुछ देख-सुनकर भी वह किसीसे कुछ कहता नहीं है। अर्थात् उदासीन रहता है।
Sthanang स्थानांग सूत्र Ardha-Magadhi

स्थान-४

उद्देशक-४ Hindi 381 Sutra Ang-03 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहे अवद्धंसे पन्नत्ते, तं जहा– आसुरे, आभिओगे, संमोहे, देवकिब्बिसे। चउहिं ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा–कोवसीलताए, पाहुडसीलताए, संसत्त-तवोकम्मेणं निमित्ताजीवयाए। चउहिं ठाणेहिं जीवा आभिओगत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा–अत्तुक्कोसेणं, परपरिवाएणं, भूतिकम्मेणं, कोउयकरणेणं। चउहिं ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा–उम्मग्गदेसणाए, मग्गंतराएणं, कामा-संसपओगेणं, भिज्जानियाणकरणेणं। चउहिं ठाणेहिं जीवा देवकिब्बिसियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा–अरहंताणं अवण्णं वदमाणे, अरहंत पन्नत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणमवण्णं वदमाणे,

Translated Sutra: अपध्वंश (चारित्र के फल का नाश) चार प्रकार का है। यथा – आसुरी भावनाजन्य – आसुर भाव, अभियोग भावनाजन्य – अभियोग भाव, सम्मोह भावनाजन्य – सम्मोह भाव, किल्बिष भावनाजन्य – किल्बिष भाव। असुरायु का बंध चार कारणों से होता है। यथा – क्रोधी स्वभाव से, अतिकलह करने से, आहार में आसक्ति रखते हुए तप करने से, निमित्त ज्ञान द्वारा
Sthanang स्थानांग सूत्र Ardha-Magadhi

स्थान-५

उद्देशक-१ Hindi 430 Sutra Ang-03 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा– दुआइक्खं, दुव्विभज्जं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं। पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा–सुआइक्खं, सुविभज्जं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरनुचरं। पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चमब्भणुण्णाताइं भवंति, तं जहा–खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे। पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं

Translated Sutra: पाँच कारणों से प्रथम और अन्तिम जिन का उपदेश उनके शिष्यों को उन्हें समझने में कठिनाई होती है। दुराख्येय – आयास साध्य व्याख्या युक्त। दुर्विभजन – विभाग करने में कष्ट होता है। दुर्दर्श – कठिनाई से समझ में आता है। दुःसह – परीषह सहन करने में कठिनाई होती है। दुरनुचर – जिनाज्ञानुसार आचरण करने में कठिनाई होती है। पाँच
Sthanang स्थानांग सूत्र Ardha-Magadhi

स्थान-५

उद्देशक-३ Hindi 482 Sutra Ang-03 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अहेलोगे णं पंच वायरा पन्नत्ता, तं जहा– पुढविकाइया, आउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, ओराला तसा पाणा। उड्ढलोगे णं पंच बायरा पन्नत्ता, तं जहा– पुढविकाइया, आउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, ओराला तसा पाणा। तिरियलोगे णं पंच बायरा पन्नत्ता, तं जहा–एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया पंचिंदिया। पंचविहा बायरतेउकाइया पन्नत्ता, तं जहा–इंगाले, जाले, मुम्मुरे, अच्ची, अलाते। पंचविधा बादरवाउकाइया पन्नत्ता, तं० पाईणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, उदीनवाते, विदिसवाते। पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पन्नत्ता, तं जहा–अक्कंते, धंते, पीलिए, सरीरानुगते, संमुच्छिमे।

Translated Sutra: अधोलोक में पाँच बादर (स्थूल) कायिक जीव हैं, यथा – पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पति – कायिक, औदारिक शरीर वाले – त्रस प्राणी। ऊर्ध्व लोक में अधोलोक के समान पाँच प्रकार के बादरकायिक जीव हैं, तिरछालोक में पाँच प्रकार के बादर कायिक जीव हैं, यथा एकेन्द्रिय यावत्‌ पंचेन्द्रिय। पाँच प्रकार के बादर तेजस्कायिक
Sutrakrutang सूत्रकृतांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कन्ध १

अध्ययन-५ नरक विभक्ति

उद्देशक-१ Hindi 314 Gatha Ang-02 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] रुहिरे पुणो वच्च-समुस्सियंगे भिण्णुत्तिमंगे परिवत्तयंता । पयंति णं णेरइए फुरंते सजीवमच्छे व अयो-कवल्ले ॥

Translated Sutra: रुधिर से लिप्त, मल से लतपथ, भिन्नांग एवं परिवर्तमान नैरयिकों को कड़ाही में जीवित मछलियों की तरह उलट – पलट कर पकाते हैं।वे वहाँ राख नहीं होते हैं और न ही तीव्र वेदना से मरते हैं। वे अपने कृतकर्म का वेदन करते हैं और वे दुःख दुष्कृत से और अधिक दुःखी होते हैं।वहाँ शीत से सन्त्रस्त होकर प्रगाढ़ सुतप्त अग्नि की ओर जाते
Upasakdashang उपासक दशांग सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-७ सद्दालपुत्र

Hindi 44 Sutra Ang-07 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नदा कदाइ वाताहतयं कोलालभंडं अंतो सालाहिंतो बहिया नीणेइ, नीणेत्ता आयवंसि दलयइ। तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी–सद्दालपुत्ता! एस णं कोलालभंडे कहं कतो? तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी–एस णं भंते! पुव्विं मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं तिमिज्जइ, तिम्मिज्जित्ता छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ, मीसिज्जित्ता चक्के आरुभिज्जति, तओ बहवे करगा य वारगा य पिहडगा य घडगा य अद्धघडगा य कलसगा य अलिंजरगा य जंबूलगा य० उट्टियाओ य कज्जंति। तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं

Translated Sutra: एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा। भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडलापुत्र से कहा – सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने ? आजीविकोपासक सकडालपुत्र बोला – भगवन्‌ ! पहले मिट्टी की पानी के साथ गूंथा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ
Uttaradhyayan उत्तराध्ययन सूत्र Ardha-Magadhi

अध्ययन-२५ यज्ञीय

Hindi 980 Gatha Mool-04 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] अजाणगा जण्णवाई विज्जामाहणसंपया । गूढा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवग्गिणो ॥

Translated Sutra: विद्या ब्राह्मण की सम्पदा है, यज्ञवादी इस से अनभिज्ञ हैं, वे बाहरमें स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे कि अग्नि राख से ढँकी हुई होती है।
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