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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

2. विरोध में अविरोध Hindi 366 View Detail
Mool Sutra: न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात्। व्यत्युदेति विशेषात्ते, सहैक्त्रोयादि सत् ।।

Translated Sutra: [यहाँ यह शंका हो सकती है कि एक ही द्रव्य में एक साथ उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य ये तीन विरोधी बातें कैसे सम्भव हैं? इसका उत्तर देते हैं कि]- अन्वय रूप से सर्वदा अवस्थित रहने वाला सामान्य द्रव्य तो न उत्पन्न होता है न नष्ट, परन्तु पर्यायरूप पूर्वोत्तरवर्ती विशेषों की अपेक्षा वही नष्ट भी होता है और उत्पन्न भी। इस हेतु
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

2. विरोध में अविरोध Hindi 367 View Detail
Mool Sutra: जह कंचणस्स कंचण-भावेण अवट्ठियस्स कडगाई। उप्पज्जंति विणस्संति, चेव भावा अणेगविहा ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णरूपेण अवस्थित रहते हुए भी उसमें कड़ा कुण्डल आदि अनेकविध भाव उत्पन्न व नष्ट होते रहते हैं, उसी प्रकार द्रव्य व पर्यायों को प्राप्त जीव द्रव्य का नित्यत्व व अनित्यत्व भी न्याय-सिद्ध है। संदर्भ ३६७-३६८
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

2. विरोध में अविरोध Hindi 368 View Detail
Mool Sutra: एवं च जीवदव्वस्स, दव्वपज्जवविसेसभइयस्स। निच्चत्तमणिच्चत्तं, च होइ णाओवलभंतं ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ३६७; संदर्भ ३६७-३६८
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 402 View Detail
Mool Sutra: वाक्येष्वनेकान्तद्योतिगम्यं-प्रतिविशेषणम्। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्-तत्केवलिनामपि ।।

Translated Sutra: `स्यात्' यह निपात या अव्यय अनेकान्त का द्योतक है और पदार्थ अनेकान्त का द्योत्य है। इस प्रकार अर्थयोगी होने के कारण यह शब्द केवलियों के भी वाक्यों में अनेकान्त के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

2. विरोध में अविरोध Hindi 366 View Detail
Mool Sutra: न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात्। व्यत्युदेति विशेषात्ते, सहैक्त्रोयादि सत् ।।

Translated Sutra: [यहाँ यह शंका हो सकती है कि एक ही द्रव्य में एक साथ उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य ये तीन विरोधी बातें कैसे सम्भव हैं? इसका उत्तर देते हैं कि]- अन्वय रूप से सर्वदा अवस्थित रहने वाला सामान्य द्रव्य तो न उत्पन्न होता है न नष्ट, परन्तु पर्यायरूप पूर्वोत्तरवर्ती विशेषों की अपेक्षा वही नष्ट भी होता है और उत्पन्न भी। इस हेतु
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

2. विरोध में अविरोध Hindi 367 View Detail
Mool Sutra: यथा कांचनस्य कांचनभावेन अवस्थितस्य कटकादयः। उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चैव भावाः अनेकविधाः ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णरूपेण अवस्थित रहते हुए भी उसमें कड़ा कुण्डल आदि अनेकविध भाव उत्पन्न व नष्ट होते रहते हैं, उसी प्रकार द्रव्य व पर्यायों को प्राप्त जीव द्रव्य का नित्यत्व व अनित्यत्व भी न्याय-सिद्ध है। संदर्भ ३६७-३६८
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

2. विरोध में अविरोध Hindi 368 View Detail
Mool Sutra: एवं च जीवद्रव्यस्य द्रव्यपर्यायविशेषभक्तस्य। नित्यत्वमनित्यत्वं च भवति न्यायोपलभ्यमानम् ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ३६७; संदर्भ ३६७-३६८
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 402 View Detail
Mool Sutra: वाक्येष्वनेकान्तद्योतिगम्यं-प्रतिविशेषणम्। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्-तत्केवलिनामपि ।।

Translated Sutra: `स्यात्' यह निपात या अव्यय अनेकान्त का द्योतक है और पदार्थ अनेकान्त का द्योत्य है। इस प्रकार अर्थयोगी होने के कारण यह शब्द केवलियों के भी वाक्यों में अनेकान्त के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है।
Nandisutra नन्दीसूत्र Ardha-Magadhi

नन्दीसूत्र

Hindi 158 Gatha Chulika-01 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] अक्खर सण्णी सम्मं, साइयं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपविट्ठं, सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥

Translated Sutra: अक्षर, संज्ञी, सम्यक्‌, सादि, सपर्यवसित, गमिक और अङ्गप्रविष्ट, ये सात और इनके सप्रतिपक्ष सात मिलकर श्रुतज्ञान के चौदह भेद हो जाते हैं। बुद्धि के जिन आठ गुणों से आगम शास्त्रों का अध्ययन एवं श्रुतज्ञान का लाभ देखा गया है, वे इस प्रकार हैं – विनययुक्त शिष्य गुरु के मुखारविन्द से निकले हुए वचनों को सुनना चाहता है।
Prashnavyakaran प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र Ardha-Magadhi

आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-२ मृषा

Hindi 11 Sutra Ang-10 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण वदंति केई अलियं पावा अस्संजया अविरया कवडकुडिल कडुय चडुलभावा कुद्धा लुद्धाभया य हस्सट्ठिया य सक्खी चोरा चारभडा खंडरक्खा जियजूईकरा य गहिय-गहणा कक्कगुरुग कारगा कुलिंगी उवहिया वाणियगा य कूडतुला कूडमाणी कूडकाहावणोवजीवी पडकार कलाय कारुइज्जा वंचनपरा चारिय चडुयार नगरगुत्तिय परिचारग दुट्ठवायि सूयक अनवलभणिया य पुव्वकालियवयणदच्छा साहसिका लहुस्सगा असच्चा गारविया असच्चट्ठावणाहिचित्ता उच्चच्छंदा अनिग्गहा अनियता छंदेण मुक्कवायी भवंति अलियाहिं जे अविरया। अवरे नत्थिकवादिणो वामलोकवादी भणंति–सुण्णंति। नत्थि जीवो। न जाइ इहपरे वा लोए। न य किंचिवि फुसति

Translated Sutra: यह असत्य कितनेक पापी, असंयत, अविरत, कपट के कारण कुटिल, कटुक और चंचल चित्तवाले, क्रुद्ध, लुब्ध, भय उत्पन्न करने वाले, हँसी करने वाले, झूठी गवाही देने वाले, चोर, गुप्तचर, खण्डरक्ष, जुआरी, गिरवी रखने वाले, कपट से किसी बात को बढ़ा – चढ़ा कर कहनेवाले, कुलिंगी – वेषधारी, छल करनेवाले, वणिक्‌, खोटा नापने – तोलनेवाले, नकली सिक्कों
Saman Suttam समणसुत्तं Prakrit

चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद

३८. प्रमाणसूत्र Hindi 677 View Detail
Mool Sutra: ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। सण्णा सती मती पण्णा, सव्वं आभिणिबोधियं।।४।।

Translated Sutra: ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, शक्ति, मति और प्रज्ञा--ये सब आभिनिबोधिक या मतिज्ञान हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद

३८. प्रमाणसूत्र Hindi 677 View Detail
Mool Sutra: ईहा अपोहः विमर्शः मार्गणा च गवेषणा। संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्वं आभिनिबोधिकम्।।४।।

Translated Sutra: ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, शक्ति, मति और प्रज्ञा--ये सब आभिनिबोधिक या मतिज्ञान हैं।
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