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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 14 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं आगमओ दव्वावस्सयं?
आगमओ दव्वावस्सयं–जस्स णं आवस्सए त्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं धोससमं अहीनक्खरं अनच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुन्नघोसं कंठोट्ठविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अनुप्पेहाए। कम्हा? अनुवओगो दव्वमिति कट्टु। Translated Sutra: आगमद्रव्य – आवश्यक क्या है ? जिस ने ‘आवश्यक’ पद को सीख लिया है, स्थित कर लिया है, जित कर लिया है, मित कर लिया है, परिजित कर लिया है, नामसम कर लिया है, घोषसम किया है, अहीनाक्षर किया है, अनत्यक्षर किया है, व्यतिक्रमरहित उच्चारण किया है, अस्खलित किया है, पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, एक शास्त्र के भिन्न – भिन्न | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 273 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं विभागनिप्फन्ने? विभागनिप्फन्ने– Translated Sutra: विभागनिष्पन्न कालप्रमाण क्या है ? समय, आवलिका, मुहूर्त्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागर, अवसर्पिणी(उत्सर्पिणी) और (पुद्गल)परावर्तन रूप काल को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहते हैं सूत्र – २७३, २७४ | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 311 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं संखप्पमाणे? संखप्पमाणे अट्ठविहे पन्नत्ते, तं जहा–१. नामसंखा २. ठवणसंखा ३. दव्वसंखा ४. ओवम्मसंखा ५. परिमाणसंखा ६. जाणणासंखा ७. गणणासंखा ८. भावसंखा।
से किं तं नामसंखा? नामसंखा–जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदु भयाण वा संखा ति नामं कज्जइ। से तं नामसंखा।
से किं तं ठवणसंखा? ठवणसंखा–जण्णं कट्ठकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अनेगा वा सब्भावठवणाए वा असब्भावठवणाए वा संखा ति ठवणा ठविज्जइ। से तं ठवणसंखा।
नाम-ट्ठवणाणं को पइविसेसो? नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया Translated Sutra: संख्याप्रमाण क्या है ? आठ प्रकार का है। यथा – नामसंख्या, स्थापनासंख्या, द्रव्यसंख्या, औपम्यसंख्या, परिमाण – संख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या, भावसंख्या। नामसंख्या क्या है ? जिस जीव का अथवा अजीव का अथवा जीवों का अथवा अजीवों का अथवा तदुभव का अथवा तदुभयों का संख्या ऐसा नामकरण कर लिया जाता है, उसे नामसंख्या कहते | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 322 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं समोयारे? समोयारे छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–१. नामसमोयारे २. ठवणसमोयारे ३. दव्वसमोयारे ४. खेत्तसमोयारे ५. कालसमोयारे ६. भावसमोयारे।
नामट्ठवणाओ गयाओ जाव। से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे।
से किं तं जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्वसमोयारे? जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्वसमोयारे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–आयसमोयारे परसमोयारे तदुभयसमोयारे। सव्वदव्वा वि णं आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे वदराणि, तदुभयसमोयरेणं जहा घरे थंभो आयभावे य, जहा घडे गीवा आयभावे य।
अहवा जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्वसमोयारे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–आयसमोयारे य Translated Sutra: समवतार क्या है ? समवतार के छह प्रकार हैं, जैसे – नामसमवतार, स्थापनासमवतार, द्रव्यसमवतार, क्षेत्रसमवतार, कालसमवतार और भावसमवतार। नाम और स्थापना (समवतार) का वर्णन पूर्ववत् जानना। द्रव्यसमवतार दो प्रकार का कहा है – आगमद्रव्यसमवतार, नोआगमद्रव्यसमवतार। यावत् आगमद्रव्यसमवतार का तथा नोआगमद्रव्यसमवतार के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 423 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–सादीयवीससाबंधे य, अनादीयवीससाबंधे य।
अनादियवीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–धम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे, अधम्मत्थिकाय-अन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे आगासत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे।
धम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे णं भंते! किं देसबंधे? सव्वबंधे?
गोयमा! देसबंधे, नो सव्वबंधे। एवं अधम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे वि, एवं आगासत्थि-कायअन्नमन्नअणा-दीयवीससाबंधे वि।
धम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! विस्त्रसाबंध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा – सादिक विस्त्रसाबंध और अनादिक विस्त्राबंध। भगवन् ! अनादिक – विस्त्रसाबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकारकाधर्मास्तिकायका अन्योन्य – अनादिक – विस्त्रसाबंध, अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य – अनादिक – विस्त्रसाबंध और आकाशास्तिकाय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 424 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पयोगबंधे?
पयोगबंधे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए।
तत्थ णं जे से अनादीए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं, तत्थ वि णं तिण्हं-तिण्हं अनादीए अपज्जवसिए, सेसाणं सादीए। तत्थ णं जे से सादीए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से णं चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–आलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पयोगबंधे।
से किं तं आलावणबंधे?
आलावणबंधे–जण्णं तणभाराण वा, कट्ठभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेत्तलता-वाग-वरत्त-रज्जु-वल्लि-कुस-दब्भमादीएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं Translated Sutra: भगवन् ! प्रयोगबंध किस प्रकार का है ? गौतम ! प्रयोगबंध तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार – अनादिअपर्यवसित, सादि – अपर्यवसित अथाव सादि सपर्यवसित। इनमें से जो अनादि – अपर्यवसित है, जह जीव के आठ मध्यप्रदेशों का होता है। उन आठ प्रदेशों में भी तीन – तीन प्रदेशों का जो बंध होता है, वह अनादि – अपर्यवसित बंध है। शेष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 425 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य पंचेंदियवेउव्वियसरीर-प्पयोगबंधे य।
जइ एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदियसरीरप्पयोगबंधे? अवाउक्काइय-एगिंदियसरीरप्पयो-गबंधे?
एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउव्वियसरीरभेदो तहा भाणियव्वो जाव पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअनुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमानियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध अनुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमानियदेवपंचिंदियवेउव्वि-यसरीरप्पयोगबंधे य।
वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! वैक्रियशरीर – प्रयोगबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का है। एकेन्द्रियवैक्रियशरीर – प्रयोगबंध और पंचेन्द्रियवैक्रियशरीर – प्रयोगबंध। भगवन् ! यदि एकेन्द्रिय – वैक्रियशरीरप्रयोगबंध है, तो क्या वह वायुकायिक एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबंध है अथवा अवायुकायिक एकेन्द्रिय – वैक्रियशरीरप्रयोगबंध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आराधना | Hindi | 432 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते, तं जहा–वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे।
वण्णपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–कालवण्णपरिणामे जाव सुक्किलवण्णपरिणामे। एवं एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामे पंचविहे, फासपरिणामे अट्ठविहे।
संठाणपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव आयतसंठाणपरिणामे। Translated Sutra: भगवन् ! पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का – वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाभ, रसपरिणाम, स्पर्शपरिणाम और संस्थानपरिणाम। भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का – कृष्ण वर्णपरिणाम यावत् शुक्ल वर्णपरिणाम। इसी प्रकार गन्धपरिणाम दो प्रकार का, रसपरिणाम पांच प्रकार का और स्पर्शपरिणाम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आराधना | Hindi | 433 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसे किं १. दव्वं? २. दव्वदेसे? ३. दव्वाइं? ४. दव्वदेसा? ५. उदाहु दव्वं च दव्वदेसे य? ६. उदाहु दव्वं च दव्वदेसा य? ७. उदाहु दव्वाइं च दव्वदेसे य? ८. उदाहु दव्वाइं च दव्वदेसा य?
गोयमा! १. सिय दव्वं २. सिय दव्वदेसे ३. नो दव्वाइं ४. नो दव्वदेसा ५. नो दव्वं च दव्वदेसे य ६. नो दव्वं च दव्वदेसा य ७. नो दव्वाइं च दव्वदेसे य ८. नो दव्वाइं च दव्वदेसा य।
दो भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा किं दव्वं? दव्वदेसे? –पुच्छा।
गोयमा! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, सिय दव्वाइं, सिय दव्वदेसा, सिय दव्वं च दव्वदेसे य। सेसा पडिसेहेयव्वा।
तिन्नि भंते पोग्गलत्थिकायपदेसा किं दव्वं? दव्वदेसे? –पुच्छा।
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश द्रव्य है, द्रव्यदेश है, बहुत द्रव्य हैं, बहुत द्रव्य – देश हैं ? एक द्रव्य और एक द्रव्यदेश है, एक द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश हैं, बहुत द्रव्य और द्रव्यदेश है, या बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश हैं ? गौतम ! वह कथञ्चित् एक द्रव्य है, कथञ्चित् एक द्रव्यदेश है, किन्तु वह बुहत द्रव्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आराधना | Hindi | 437 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! किं पोग्गली? पोग्गले?
गोयमा! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि?
गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी, एवामेव गोयमा! जीवे वि सोइंदिय-चक्खिंदिय-घाणिंदिय-जिब्भिंदिय-फासिंदियाइं पडुच्च पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि।
नेरइए णं भंते! किं पोग्गली! पोग्गले?
एवं चेव। एवं जाव वेमाणिए, नवरं–जस्स जइ इंदियाइं तस्स तइ भाणियव्वाइं।
सिद्धे णं भंते! किं पोग्गली? पोग्गले?
गोयमा! नो पोग्गली, पोग्गले।
से केणट्ठेणं भंते! एवं Translated Sutra: भगवन् ! जीव पुद्गली है अथवा पुद्गल है। गौतम ! जीव पुदगली भी है और पुद्गल भी। भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! जैसे किसी पुरुष के पास छत्र हो तो उसे छत्री, दण्ड हो तो दण्डी, घट होने से घटी, पट होने से पटी और कर होने से करी कहा जाता है, इसी तरह हे गौतम ! जीव श्रोत्रेन्द्रिय – चक्षुरिन्द्रिय – घ्राणेन्द्रिय – | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-१ दिशा | Hindi | 475 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–किमियं भंते! पाईणा ति पवुच्चइ? गोयमा! जीवा चेव, अजीवा चेव।
किमियं भंते! पडीणा ति पवुच्चइ?
गोयमा! एवं चेव। एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्ढा, एवं अहो वि।
कति णं भंते! दिसाओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! दस दिसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–१. पुरत्थिमा २. पुरत्थिमदाहिणा ३. दाहिणा ४. दाहिणपच्चत्थिमा ५. पच्चत्थिमा ६. पच्चत्थिमुत्तरा ७. उत्तरा ८. उत्तरपुरत्थिमा ९. उड्ढा १. अहो।
एयासि णं भंते! दसण्हं दिसाणं कति नामधेज्जा पन्नत्ता?
गोयमा! दस नामधेज्जा पन्नत्ता, तं जहा–
इंदा अग्गेयो जम्मा, य नेरई वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणी या, विमला य तमा य बोद्धव्वा ॥
इंदा णं भंते! दिसा किं १. जीवा Translated Sutra: राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! यह पूर्वदिशा क्या कहलाती है ? गौतम! यह जीवरूप भी है और अजीवरूप भी है। भगवन् ! पश्चिमदिशा क्या कहलाती है ? गौतम ! यह भी पूर्वदिशा के समान जानना। इसी प्रकार दक्षिणदिशा, उत्तरदिशा, उर्ध्वदिशा और अधोदिशा के विषय में भी जानना चाहिए। भगवन् ! दिशाऍं कितनी कही | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ | Hindi | 930 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुलागस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गल-परियट्टं देसूणं। एवं जाव नियंठस्स।
सिणायस्स–पुच्छा।
गोयमा! नत्थि अंतरं।
पुलायाणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासाइं।
बउसाणं भंते! –पुच्छा।
गोयमा! नत्थि अंतरं। एवं जाव कसायकुसीलाणं।
नियंठाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। सिणायाणं जहा बउसाणं। Translated Sutra: भगवन् ! (एक) पुलाक का अन्तर कितने काल का होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का होता है। (अर्थात्) अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल का और क्षेत्र की अपेक्षा देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन का। इसी प्रकार निर्ग्रन्थ तक जानना। भगवन् ! स्नातक का ? गौतम ! उसका अन्तर नहीं होता। भगवन् ! (अनेक) | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 36 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जद्दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जा संथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जा-संथारए जाए यावि होत्था।
तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चा-रस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टेंति अप्पेगइया पाएहिं संघट्टेंति अप्पे गइया सीसे संघट्टेंति अप्पेटइया पीट्ठे संघट्टेंति अप्पेगइया कायंसि संघट्टेंति अप्पेगइया ओलंडेंति अप्पेगइया पोलंडेंति Translated Sutra: जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगिकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम में अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्ग्रन्थों के शय्या – संस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकुमार का शय्या – संस्तारक द्वार के समीप हुआ। तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात् अन्य | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
1. सम्यग्ज्ञान-सूत्र (अध्यात्म-विवेक) | Hindi | 80 | View Detail | ||
Mool Sutra: भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो, विभिन्नाः पुद्गलाः अपि।
शून्यः संसर्ग इत्येवं, यः पश्यति स पश्यति ।। Translated Sutra: प्रत्येक आत्मा तथा शरीर मन आदि सभी पुद्गल भी परस्पर एक-दूसरे से भिन्न हैं। देह व जीव का अथवा पिता पुत्रादि का संसर्ग कोई वस्तु नहीं है। जो ऐसा देखता है वही वास्तव में देखता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
2. निश्चय ज्ञान (अध्यात्म शासन) | Hindi | 83 | View Detail | ||
Mool Sutra: एको भावः सर्वभावस्वभावः, सर्वे भावाः एक भावस्वभावाः।
एकोभावस्तत्त्वतो येन बुद्धः, सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः ।। Translated Sutra: (द्रव्य के परिवर्तनशील कार्य `पर्याय' कहलाते हैं।) जिस प्रकार `मृत्तिका' घट, शराब व रामपात्रादि अपनी विविध पर्यायों या कार्यों के रूप ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं, इसी प्रकार जीव, पुद्गल आदि प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी त्रिकालगत पर्यायों का पिण्ड ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं। जिस प्रकार घट, शराब आदि उत्पन्न ध्वंसी विविध | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
12. मनो मौन | Hindi | 200 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि।
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ।। Translated Sutra: वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है। देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 287 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 288 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवा पुग्गलकाया, आयासं अत्थिकाइया सेसा।
अमया अत्थित्तमया, कारणभूदा हि लोगस्स ।। Translated Sutra: इन छह द्रव्यों में से जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म व अधर्म इन पाँच को सिद्धान्त में `अस्तिकाय' संज्ञा प्रदान की गयी है। काल द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी हैं, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 294 | View Detail | ||
Mool Sutra: भेदसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलना-
त्मिकां क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः ।। Translated Sutra: परस्पर में मिलकर स्कन्धों या भूतों को उत्पन्न करते हैं | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 295 | View Detail | ||
Mool Sutra: खन्धा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य।
परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउव्विहा ।। Translated Sutra: रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 296 | View Detail | ||
Mool Sutra: खंधं सयलसमत्थं, तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति।
अद्धंद्धं च पदेसो, परमाणु चेव अविभागी ।। Translated Sutra: पृथिवी आदि स्थूल पदार्थ स्कन्ध कहलाते हैं। उसके आधे को देश तथा उसके भी आधे भाग को प्रदेश कहते हैं। जिसका पुनः भेद होना किसी प्रकार भी सम्भव न हो वह परमाणु कहलाता है। (अति स्थूल, स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म के भेद से स्कन्ध अनेक प्रकार के हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 297 | View Detail | ||
Mool Sutra: सद्दंधयार-उज्जोय, पभा-छायातवेहिया।
वण्णगंधरसफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। Translated Sutra: शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप आदि सब पुद्गल के कार्य हैं, और वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श ये चार उसके प्रधान लक्षण हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 298 | View Detail | ||
Mool Sutra: ओरालियो य देहो, देहो वेउव्विओ य तेजइओ।
आहारय कम्मइओ, पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।। Translated Sutra: मनुष्यादि के स्थूल शरीर `औदारिक' कहलाते हैं और देवों व नारकियों के `वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेज शक्ति `तैजस शरीर' है। योगी जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट शरीर `आहारक' कहलाता है। और रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज `कार्मण शरीर' माना गया है। ये पाँचों | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 299 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवस्स णत्थि रागो, णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो।
जेण दु एंद सव्वे, पुग्गल दव्वस्स परिणामा ।। Translated Sutra: परमार्थतः न तो राग जीव का परिणाम है और न द्वेष और मोह, क्योंकि ये सब पुद्गल-द्रव्य के परिणाम हैं। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 300 | View Detail | ||
Mool Sutra: मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः।
अकर्म-कर्मनोकर्म, जातिभेदेषु वर्गणा ।। Translated Sutra: (अधिक कहाँ तक कहा जाय) लोक में जितने भी मूर्तिमान पदार्थ हैं, वे अकर्म रूप हों या कर्म रूप, नोकर्म अर्थात् विविध प्रकार के शरीरों व स्कन्धों रूप हों या विभिन्न जाति की सूक्ष्म वर्गणा रूप, यहाँ तक कि देहधारी संसारी जीव भी, इन सबमें पुद्गल शब्द प्रवृत्त होता है। (मन, वाणी व ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म भी पुद्गल माने गये | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
4. आकाश द्रव्य | Hindi | 302 | View Detail | ||
Mool Sutra: घम्माघर्म्मौ कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये।
आयासे सो लोगो, ततो परदो अलोगुत्तो ।। Translated Sutra: (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षट्द्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित हैं, वह `लोक' है और शेष अनन्त आकाश `अलोक' कहलाता है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 303 | View Detail | ||
Mool Sutra: उदयं जह मच्छाणं, गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए।
तह जीवपुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाणेहिं ।। Translated Sutra: जिस प्रकार मछली के लिए जल उदासीन रूप से सहकारी है, उसी प्रकार जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्यों को धर्म द्रव्य गमन में उदासीन रूप से सहकारी है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 304 | View Detail | ||
Mool Sutra: जह हवदि धम्मदव्वं, तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं, कारणभूदं तु पुढ़वीव ।। Translated Sutra: धर्म द्रव्य की ही भाँति अधर्म द्रव्य को भी जानना चाहिए। क्रियायुक्त जीव व पुद्गल के ठहरने में यह उनके लिए उदासीन रूप से सहकारी होता है, जिस प्रकार स्वयं ठहरने में समर्थ होते हुए भी हम पृथिवी का आधार लिये बिना इस आकाश में कहीं ठहर नहीं सकते। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 305 | View Detail | ||
Mool Sutra: ण य गच्छदि धम्मत्थो, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ।। Translated Sutra: धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलता है और न जीव पुद्गलों को जबरदस्ती चलाता है। वह इनकी गति के लिए प्रवर्तक या निमित्त मात्र है। (इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को निमित्त मात्र ही समझना चाहिए।) | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
6. काल द्रव्य | Hindi | 307 | View Detail | ||
Mool Sutra: सब्भावसभावाणं, जीवाणं तह य पोग्गलाणं य।
परियट्टणसंभूदो, कालो णियमेण पण्णत्तो ।। Translated Sutra: सत्तास्वभावी जीव व पुद्गलों की वर्तना व परिवर्तना में जो धर्म-द्रव्य की भाँति ही उदासीन निमित्त है, उसे ही निश्चय से काल द्रव्य कहा गया है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 313 | View Detail | ||
Mool Sutra: आगासकालपुग्गल-धम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा।
तेसिं अचेदणत्थं भणिदं जीवस्स चेदणदा ।। Translated Sutra: (पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से) आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य जीव-प्रधान चेतन गुण से व्यतिरिक्त होने के कारण अजीव हैं, और जीव द्रव्य चेतन है। | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 349 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं।
परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि ।। Translated Sutra: [जैन-दर्शन-मान्य स्वभाववाद की इस प्रक्रिया में पुद्गल (जड़) तत्त्व भी बिना किसी चेतन की सहायता के स्वयं ही पृथिवी आदि महाभूतों के रूप में परिणमन कर जाता है। सो कैसे, वही प्रक्रिया इन गाथाओं द्वारा बतायी गयी है।] परमाणु के स्पर्श-गुण की दो प्रधान शक्तियाँ हैं - स्निग्धत्व व रूक्षत्व अर्थात् (Attractive force and Repulsive force)। ये दोनों | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 350 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिद्धा वा लुक्खावा अणुपरिणामा समा वा विसमा वा।
समदो दुराधिगा जदि बज्झंति हि आदिपरिहीणा ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३४९; संदर्भ ३४९-३५१ | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 351 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा।
पुढ़विजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३४९; संदर्भ ३४९-३५१ | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 353 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवपरिणामहेदुं, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं, तहेव जीवो वि परिणमइ ।। Translated Sutra: जीव के राग-द्वेषादि आस्रवभूत परिणामों के निमित्त से पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमन करते हैं, और इसी प्रकार जीव भी पुद्गल या जड़ कर्मों के निमित्त से राग-द्वेषादि रूप परिणमन करता है। (ऐसा ही कोई स्वभाव है, जिसमें तर्क नहीं चलता है।) | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 355 | View Detail | ||
Mool Sutra: ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया, पुणो वि जीवस्स।
संजायंते देहा, देहंतरसंकमं पप्पा ।। Translated Sutra: वे कर्म रूप परिणत पुद्गल स्कन्ध भवान्तर की प्राप्ति होने पर उस जीव के नये शरीर का आयोजन कर देते हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 313 | View Detail | ||
Mool Sutra: आकाशकालपुद्गल-धर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ।। Translated Sutra: (पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से) आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य जीव-प्रधान चेतन गुण से व्यतिरिक्त होने के कारण अजीव हैं, और जीव द्रव्य चेतन है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
1. सम्यग्ज्ञान-सूत्र (अध्यात्म-विवेक) | Hindi | 80 | View Detail | ||
Mool Sutra: भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो, विभिन्नाः पुद्गलाः अपि।
शून्यः संसर्ग इत्येवं, यः पश्यति स पश्यति ।। Translated Sutra: प्रत्येक आत्मा तथा शरीर मन आदि सभी पुद्गल भी परस्पर एक-दूसरे से भिन्न हैं। देह व जीव का अथवा पिता पुत्रादि का संसर्ग कोई वस्तु नहीं है। जो ऐसा देखता है वही वास्तव में देखता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
2. निश्चय ज्ञान (अध्यात्म शासन) | Hindi | 83 | View Detail | ||
Mool Sutra: एको भावः सर्वभावस्वभावः, सर्वे भावाः एक भावस्वभावाः।
एकोभावस्तत्त्वतो येन बुद्धः, सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः ।। Translated Sutra: (द्रव्य के परिवर्तनशील कार्य `पर्याय' कहलाते हैं।) जिस प्रकार `मृत्तिका' घट, शराब व रामपात्रादि अपनी विविध पर्यायों या कार्यों के रूप ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं, इसी प्रकार जीव, पुद्गल आदि प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी त्रिकालगत पर्यायों का पिण्ड ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं। जिस प्रकार घट, शराब आदि उत्पन्न ध्वंसी विविध | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
12. मनो मौन | Hindi | 200 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि।
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ।। Translated Sutra: वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है। देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 287 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मः अधर्मः आकाशः, कालः पुद्गलाः जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तो, जिनैर्वरदर्शिभिः ।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 288 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाः पुद्गलकायाः, आकाशमस्तिकायौ शेषौ।
अमया अस्तित्वमयाः, कारणभूता हि लोकस्य ।। Translated Sutra: इन छह द्रव्यों में से जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म व अधर्म इन पाँच को सिद्धान्त में `अस्तिकाय' संज्ञा प्रदान की गयी है। काल द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी हैं, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण हैं। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 294 | View Detail | ||
Mool Sutra: भेदसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलना-
त्मिकां क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः ।। Translated Sutra: परस्पर में मिलकर स्कन्धों या भूतों को उत्पन्न करते हैं | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 295 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्कन्धाश्य स्कन्धदेशाश्च, तत्प्रदेशास्तथैव च।
परमाणवश्च बोद्धव्याः, रूपिणश्च चतुर्विधः ।। Translated Sutra: रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 296 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्कन्धः सकलसमस्तस्तस्य, त्वर्धं भणन्ति देश इति।
अर्द्धार्द्धं च प्रदेशः, यरमाणुश्चैवाविभागी ।। Translated Sutra: पृथिवी आदि स्थूल पदार्थ स्कन्ध कहलाते हैं। उसके आधे को देश तथा उसके भी आधे भाग को प्रदेश कहते हैं। जिसका पुनः भेद होना किसी प्रकार भी सम्भव न हो वह परमाणु कहलाता है। (अति स्थूल, स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म के भेद से स्कन्ध अनेक प्रकार के हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 297 | View Detail | ||
Mool Sutra: शब्दान्धकारोद्योत-प्रभाच्छायातपाधिकाः।
वर्णं-गन्ध-रस-स्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम्। Translated Sutra: शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप आदि सब पुद्गल के कार्य हैं, और वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श ये चार उसके प्रधान लक्षण हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 298 | View Detail | ||
Mool Sutra: औदारिकश्च देहो, देहो वैक्रियकश्च तैजसः।
आहारकः कार्माणः, पुद्गलद्रव्यात्मिकाः सर्वे ।। Translated Sutra: मनुष्यादि के स्थूल शरीर `औदारिक' कहलाते हैं और देवों व नारकियों के `वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेज शक्ति `तैजस शरीर' है। योगी जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट शरीर `आहारक' कहलाता है। और रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज `कार्मण शरीर' माना गया है। ये पाँचों | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 299 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवस्य नास्ति रागो, नापि द्वेषो नैव विद्यते मोहः।
येन ऐत सर्वे, पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः ।। Translated Sutra: परमार्थतः न तो राग जीव का परिणाम है और न द्वेष और मोह, क्योंकि ये सब पुद्गल-द्रव्य के परिणाम हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 300 | View Detail | ||
Mool Sutra: मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः।
अकर्म-कर्मनोकर्म, जातिभेदेषु वर्गणा ।। Translated Sutra: (अधिक कहाँ तक कहा जाय) लोक में जितने भी मूर्तिमान पदार्थ हैं, वे अकर्म रूप हों या कर्म रूप, नोकर्म अर्थात् विविध प्रकार के शरीरों व स्कन्धों रूप हों या विभिन्न जाति की सूक्ष्म वर्गणा रूप, यहाँ तक कि देहधारी संसारी जीव भी, इन सबमें पुद्गल शब्द प्रवृत्त होता है। (मन, वाणी व ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म भी पुद्गल माने गये | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
4. आकाश द्रव्य | Hindi | 302 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्माधर्मौ कालः, पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके।
आकाशे सः लोकः, ततः परतः अलोकः उक्तः ।। Translated Sutra: (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षट्द्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित हैं, वह `लोक' है और शेष अनन्त आकाश `अलोक' कहलाता है। |