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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 14 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं आगमओ दव्वावस्सयं?
आगमओ दव्वावस्सयं–जस्स णं आवस्सए त्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं धोससमं अहीनक्खरं अनच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुन्नघोसं कंठोट्ठविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अनुप्पेहाए। कम्हा? अनुवओगो दव्वमिति कट्टु। Translated Sutra: आगमद्रव्य – आवश्यक क्या है ? जिस ने ‘आवश्यक’ पद को सीख लिया है, स्थित कर लिया है, जित कर लिया है, मित कर लिया है, परिजित कर लिया है, नामसम कर लिया है, घोषसम किया है, अहीनाक्षर किया है, अनत्यक्षर किया है, व्यतिक्रमरहित उच्चारण किया है, अस्खलित किया है, पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, एक शास्त्र के भिन्न – भिन्न | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 273 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं विभागनिप्फन्ने? विभागनिप्फन्ने– Translated Sutra: विभागनिष्पन्न कालप्रमाण क्या है ? समय, आवलिका, मुहूर्त्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागर, अवसर्पिणी(उत्सर्पिणी) और (पुद्गल)परावर्तन रूप काल को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहते हैं सूत्र – २७३, २७४ | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 311 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं संखप्पमाणे? संखप्पमाणे अट्ठविहे पन्नत्ते, तं जहा–१. नामसंखा २. ठवणसंखा ३. दव्वसंखा ४. ओवम्मसंखा ५. परिमाणसंखा ६. जाणणासंखा ७. गणणासंखा ८. भावसंखा।
से किं तं नामसंखा? नामसंखा–जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदु भयाण वा संखा ति नामं कज्जइ। से तं नामसंखा।
से किं तं ठवणसंखा? ठवणसंखा–जण्णं कट्ठकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अनेगा वा सब्भावठवणाए वा असब्भावठवणाए वा संखा ति ठवणा ठविज्जइ। से तं ठवणसंखा।
नाम-ट्ठवणाणं को पइविसेसो? नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया Translated Sutra: संख्याप्रमाण क्या है ? आठ प्रकार का है। यथा – नामसंख्या, स्थापनासंख्या, द्रव्यसंख्या, औपम्यसंख्या, परिमाण – संख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या, भावसंख्या। नामसंख्या क्या है ? जिस जीव का अथवा अजीव का अथवा जीवों का अथवा अजीवों का अथवा तदुभव का अथवा तदुभयों का संख्या ऐसा नामकरण कर लिया जाता है, उसे नामसंख्या कहते | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 322 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं समोयारे? समोयारे छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–१. नामसमोयारे २. ठवणसमोयारे ३. दव्वसमोयारे ४. खेत्तसमोयारे ५. कालसमोयारे ६. भावसमोयारे।
नामट्ठवणाओ गयाओ जाव। से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे।
से किं तं जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्वसमोयारे? जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्वसमोयारे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–आयसमोयारे परसमोयारे तदुभयसमोयारे। सव्वदव्वा वि णं आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे वदराणि, तदुभयसमोयरेणं जहा घरे थंभो आयभावे य, जहा घडे गीवा आयभावे य।
अहवा जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्वसमोयारे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–आयसमोयारे य Translated Sutra: समवतार क्या है ? समवतार के छह प्रकार हैं, जैसे – नामसमवतार, स्थापनासमवतार, द्रव्यसमवतार, क्षेत्रसमवतार, कालसमवतार और भावसमवतार। नाम और स्थापना (समवतार) का वर्णन पूर्ववत् जानना। द्रव्यसमवतार दो प्रकार का कहा है – आगमद्रव्यसमवतार, नोआगमद्रव्यसमवतार। यावत् आगमद्रव्यसमवतार का तथा नोआगमद्रव्यसमवतार के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 424 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पयोगबंधे?
पयोगबंधे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए।
तत्थ णं जे से अनादीए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं, तत्थ वि णं तिण्हं-तिण्हं अनादीए अपज्जवसिए, सेसाणं सादीए। तत्थ णं जे से सादीए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से णं चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–आलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पयोगबंधे।
से किं तं आलावणबंधे?
आलावणबंधे–जण्णं तणभाराण वा, कट्ठभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेत्तलता-वाग-वरत्त-रज्जु-वल्लि-कुस-दब्भमादीएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं Translated Sutra: भगवन् ! प्रयोगबंध किस प्रकार का है ? गौतम ! प्रयोगबंध तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार – अनादिअपर्यवसित, सादि – अपर्यवसित अथाव सादि सपर्यवसित। इनमें से जो अनादि – अपर्यवसित है, जह जीव के आठ मध्यप्रदेशों का होता है। उन आठ प्रदेशों में भी तीन – तीन प्रदेशों का जो बंध होता है, वह अनादि – अपर्यवसित बंध है। शेष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 425 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य पंचेंदियवेउव्वियसरीर-प्पयोगबंधे य।
जइ एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदियसरीरप्पयोगबंधे? अवाउक्काइय-एगिंदियसरीरप्पयो-गबंधे?
एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउव्वियसरीरभेदो तहा भाणियव्वो जाव पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअनुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमानियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध अनुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमानियदेवपंचिंदियवेउव्वि-यसरीरप्पयोगबंधे य।
वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! वैक्रियशरीर – प्रयोगबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का है। एकेन्द्रियवैक्रियशरीर – प्रयोगबंध और पंचेन्द्रियवैक्रियशरीर – प्रयोगबंध। भगवन् ! यदि एकेन्द्रिय – वैक्रियशरीरप्रयोगबंध है, तो क्या वह वायुकायिक एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबंध है अथवा अवायुकायिक एकेन्द्रिय – वैक्रियशरीरप्रयोगबंध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ | Hindi | 930 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुलागस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गल-परियट्टं देसूणं। एवं जाव नियंठस्स।
सिणायस्स–पुच्छा।
गोयमा! नत्थि अंतरं।
पुलायाणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासाइं।
बउसाणं भंते! –पुच्छा।
गोयमा! नत्थि अंतरं। एवं जाव कसायकुसीलाणं।
नियंठाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। सिणायाणं जहा बउसाणं। Translated Sutra: भगवन् ! (एक) पुलाक का अन्तर कितने काल का होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का होता है। (अर्थात्) अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल का और क्षेत्र की अपेक्षा देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन का। इसी प्रकार निर्ग्रन्थ तक जानना। भगवन् ! स्नातक का ? गौतम ! उसका अन्तर नहीं होता। भगवन् ! (अनेक) | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 36 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जद्दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जा संथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जा-संथारए जाए यावि होत्था।
तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चा-रस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टेंति अप्पेगइया पाएहिं संघट्टेंति अप्पे गइया सीसे संघट्टेंति अप्पेटइया पीट्ठे संघट्टेंति अप्पेगइया कायंसि संघट्टेंति अप्पेगइया ओलंडेंति अप्पेगइया पोलंडेंति Translated Sutra: जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगिकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम में अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्ग्रन्थों के शय्या – संस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकुमार का शय्या – संस्तारक द्वार के समीप हुआ। तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात् अन्य | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
त्रिविध जीव प्रतिपत्ति |
Hindi | 57 | Sutra | Upang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इत्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–वणस्सइकालो।
एवं सव्वासिं तिरिक्खित्थीणं।
मनुस्सित्थीए खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं–जाव अवड्ढपोग्गलपरियट्टं देसूणं। एवं जाव पुव्वविदेह अवरविदेहियाओ।
अकम्मभूमिगमनुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ? गोयमा! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव अंतरदीवियाओ।
देवित्थियाणं Translated Sutra: भगवन् ! स्त्री के पुनः स्त्री होने में कितने काल का अन्तर होता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल। ऐसा सब तिर्यंचस्त्रियों में कहना। मनुष्यस्त्रियों का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 606 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नं च–जे केई जावज्जीवाभिग्गहेण अपुव्वं, नाणाहिगमं करेज्जा, तस्सासतीए पुव्वाहियं गुणेज्जा, तस्सावियासतीए पंचमंगलाणं अड्ढाइज्जे सहस्से परावत्ते, से भिक्खू आराहगे। तं च नाणावरणं खवेत्तु णं तित्थयरे इ वा गणहरे इ वा भवेत्ता णं सिज्झेज्जा। Translated Sutra: दूसरा – जो किसी यावज्जीव तक के अभिग्रह पूर्वक अपूर्वज्ञान का बोध करे, उसकी अशक्ति में पूर्व ग्रहण किए ज्ञान का परावर्तन करे, उसकी भी अशक्ति में ढ़ाई हजार पंचमंगल नवकार का परावर्तन – जप करे, वो भी आत्मा आराधक है। अपने ज्ञानावरणीय कर्म खपाकर तीर्थंकर या गणधर होकर आराधकपन पाकर सिद्धि पाते हैं | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 314 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तं तारिसं महाघोरं दुक्खमनुभविउं चिरं।
पुणो वि कूरतिरिएसु उववज्जिय नरयं वए॥ Translated Sutra: वहाँ लम्बे अरसे तक उस तरह के महाघोर दुःख का अहसास करके फिर से क्रूरतिर्यंच के भव में पैदा होकर क्रूर पापकर्म करके वापस नारकी में जाए इस तरह नरक और तिर्यंच गति के भव का बारी – बारी परावर्तन करते हुए कईं तरह के महादुःख का अहसास करते हुए वहाँ हुए के जो दुःख हैं उनका वर्णन करोड़ साल बाद भी कहने के लिए शक्तिमान न हो सके। सूत्र | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 328 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं भव-काय-ट्ठितीए सव्व-भावेहिं पोग्गले।
सव्वे सपज्जवे लोए सव्व वन्नंतरेहि य। Translated Sutra: उस प्रकार सर्व पुद्गल के सर्व पर्याय सर्व वर्णान्तर सर्व गंधरूप से, रसरूप से, स्पर्शपन से, संस्थानपन से अपनी शरीररूप में, परिणाम पाए, भवस्थिति और कायस्थिति के सर्वभाव लोक के लिए परिणामान्तर पाए, उतने पुद्गल परावर्तन काल तक बोधि पाए या न पाए। सूत्र – ३२८, ३२९ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 488 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१०) तत्थ जे ते अपसत्थ-नाण-कुसीले ते एगूणतीसइविहे दट्ठव्वे, तं जहा–
सावज्ज-वाय-विज्जा-मंत-तंत-पउंजण-कुसीले १,
विज्जा-मंत-तंताहिज्जण-कुसीले २,
वत्थु-विज्जा पउंजणाहिज्जण-कुसीले ३-४,
गह-रिक्ख-चार-जोइस -सत्थ-पउंजणाहिज्जण-कुसीले ५-६,
निमित्त-लक्खण-पउंजणाहिज्जण कुसीले ७-८,
सउण-लक्खण-पउंजणाहिज्जण-कुसीले ९-१०,
हत्थि-सिक्खा-पउंजणाहिज्जण-कुसीले ११-१२,
धणुव्वेय-पउंजणाहिज्जण-कुसीले १३-१४,
गंधव्ववेय-पउंजणाहिज्जण-कुसीले १५-१६,
पुरिस-इत्थी-लक्खण-पउंजणज्झावण-कुसीले १७-१८,
काम-सत्थ-पउंजणाहिज्जण-कुसीले १९-२०,
कुहुगिंद जाल-सत्थ-पउंजणाहिज्जण-कुसीले २१-२२,
आलेक्ख-विज्जाहिज्जण-कुसीले Translated Sutra: उसमें जो अप्रशस्त ज्ञान कुशील है वो २९ प्रकार के हैं। वो इस तरह – १. सावद्यवाद विषयक मंत्र, तंत्र का प्रयोग करने समान कुशील। २. विद्या – मंत्र – तंत्र पढ़ाना – पढ़ना यानि वस्तुविद्या कुशील। ३. ग्रह – नक्षत्र चार ज्योतिष शास्त्र देखना, कहना, पढ़ाना समान लक्षण कुशील। ४. निमित्त कहना। शरीर के लक्षण देखकर कहना, उसके | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 693 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किमेस वासेज्जा गोयमा अत्थेगे जे णं वासेज्जा, अत्थेगे जे णं नो वासेज्जा से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अत्थेगे जे णं वासेज्जा अत्थेगे जे णं नो वासेज्जा।
गोयमा अत्थेगे जे णं आणाए ठिए अत्थेगे जे णं आणा विराहगे। जे णं आणा ठिए से णं सम्मद्दंसण नाण चरित्ताराहगे। जे णं सम्मद्दंसण नाण चरित्ताराहगे से णं गोयमा अच्चंत विऊ सुपवरकम्मुज्जए मोक्खमग्गे। जे य उ णं आणा विराहगे से णं अनंताणुबंधी कोहे, से णं अनंतानुबंधी माने, से णं अनंतानुबंधी कइयवे, से णं अनंताणुबंधी लोभे, जे णं अनंतानुबंधी कोहाइकसाय चउक्के से णं घन राग दोस मोह मिच्छत्त पुंजे।
जे णं घन राग Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या उसमें रहकर इस गुरुवास का सेवन होता है ? हे गौतम ! हा, किसी साधु यकीनन उसमें रहकर गुरुकुल वास सेवन करते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं कि जो वैसे गच्छ में वास न करे। हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि – कोई वास करे और कोई वास नहीं करते ? हे गौतम ! एक आत्मा आज्ञा का आराधक है और एक आज्ञा का विराधक है। जो गुरु | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1284 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] साम-भेय-पयाणाइं अह सो सहसा पउंजिउं।
तस्स साहस-तुलणट्ठा गूढ-चरिएण वच्चइ॥ Translated Sutra: सीधी तरह आज्ञा न माने तो साम, भेद, दाम, दंड आदि नीति के प्रयोग करके भी आज्ञा मनवाना। उसके पास सैन्यादिक कितनी चीजे हैं। उसका साहस मालूम करने के लिए गुप्तचर – जासूस पुरुष के झरिये जांच – पड़ताल करवाए। या गुप्त चरित्र से खुद पहने हुए कपड़े से अकेला जाए। बड़े पर्वत, कील्ले, अरण्य, नदी उल्लंघन करके लम्बे अरसे के बाद | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1382 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे णं पडिक्कमणं न पडिक्कमेज्जा, से णं तस्सोट्ठावणं निद्दिसेज्जा। बइट्ठ-पडिक्कमणे खमणं। सुन्नासुन्नीए अणोवउत्तपमत्तो वा पडिक्कमणं करेज्जा, दुवालसं। पडिक्कमण-कालस्स चुक्कइ, चउत्थं। अकाले पडिक्कमणं करेज्जा, चउत्थं। कालेण वा पडिक्कमणं नो करेज्जा, चउत्थं।
संथारगओ वा संथारगोवविट्ठो वा पडिक्कमणं करेज्जा, दुवालसं। मंडलीए न पडिक्क-मेज्जा, उवट्ठावणं। कुसीलेहिं समं पडि-क्कमणं करेज्जा, उवट्ठावणं। परिब्भट्ठ बंभचेर वएहिं समं पडिक्कमेज्जा, पारंचियं। सव्वस्स समणसंघस्स तिविहं तिविहेण खमण-मरि सामणं अकाऊणं पडिक्कमणं करेज्जा, उवट्ठावणं। पयं पएणाविच्चामेलिय पडिक्कमण Translated Sutra: जो प्रतिक्रमण न करे उसे उपस्थापना का प्रायश्चित्त देना। बैठे – बैठे प्रतिक्रमण करनेवाले को खमण (उपवास), शून्याशून्यरूप से यानि कि यह सूत्र बोला गया है या नहीं वैसे उपयोगरहित अनुपयोग से प्रमत्तरूप से प्रतिक्रमण किया जाए तो पाँच उपवास, मांड़ली में प्रतिक्रमण न करे तो उपस्थापना; कुशील के साथ प्रतिक्रमण करे तो | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1383 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वज्जेंतो बीय-हरीयाइं, पाणे य दग-मट्टियं।
उववायं विसमं खाणुं रन्नो गिहवईणं च॥ Translated Sutra: ऐसे करते हुए भिक्षा का समय आ पहुँचा। हे गौतम ! इस अवसर पर पिंड़ेसणा – शास्त्र में बताए विधि से दीनता रहित मनवाला भिक्षु बीज और वनस्पतिकाय, पानी, कीचड़, पृथ्वीकाय को वर्जते, राजा और गृहस्थ की ओर से होनेवाले विषम उपद्रव – कदाग्रही को छोड़नेवाला, शंकास्थान का त्याग करनेवाला, पाँच समिति, तीन गुप्ति में उपयोगवाला, गोचरचर्या | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
परिसिट्ठं १-अणुन्नानंदी |
Hindi | 164 | Sutra | Chulika-01a | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अणुन्ना?
अणुन्ना छव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–नामाणुण्णा ठवणाणुण्णा दव्वाणुण्णा खेत्ताणुण्णा कालाणुण्णा भावाणुण्णा।
से किं तं नामाणुण्णा?
नामाणुण्णा–जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा अणुण्ण त्ति णामं कीरइ।
से त्तं नामाणुण्णा।
से किं तं ठवणाणुण्णा?
ठवणाणुण्णा–जं णं कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा चित्तकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघातिमे वा अक्खे वा वराडए वा एगे वा अणेगे वा सब्भावठवणाए वा असब्भाव-ठवणाए वा अणुण्ण त्ति ठवणा ठविज्जति। से त्तं ठवणाणुण्णा।
नाम-ठवणाणं को पतिविसेसो?
नामं आवकहियं, Translated Sutra: वह अनुज्ञा क्या है ? अनुज्ञा छह प्रकार से है – नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। वह नाम अनुज्ञा क्या है ? जिसका जीव या अजीव, जीवो या अजीवो, तदुभय या तदुभयो अनुज्ञा ऐसा नाम हो वह नाम अनुज्ञा। वह स्थापना अनुज्ञा क्या है ? जो भी कोई काष्ठ, पत्थर, लेप, चित्र, ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरिम, संघातिम ऐसे एक या अनेक अक्ष आदि | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-५ | Hindi | 314 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा आलोएज्ज वा पलोएज्ज वा, आलोएंतं वा पलोएंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी पेड़ की जड़ – स्कंध के आसपास की सचित्त भूमि पर खड़े रहकर, एकबार या बार बार आसपास देखे, अवलोकन करे, खड़े रहे, शरीर प्रमाण शय्या करे, बैठे, पासा बदले, असन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार करे, मल – मूत्र का त्याग करे, स्वाध्याय करे, सूत्र अर्थ तदुभय रूप सज्झाय का उद्देशके करे, बारबार सज्झाय पठन या समुद्देश करे, | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 334 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कीयगडंपिय दुविहं दव्वे भावे य दुविहमेक्केक्कं ।
आयकियं च परकियं परदव्वं तिविहऽचित्ताइ ॥ Translated Sutra: साधु के लिए बिका हुआ लाकर देना क्रीतदोष कहलाता है। क्रीतदोष दो प्रकार से है। १. द्रव्य से और २. भाव से। द्रव्य के और भाव के दो – दो प्रकार – आत्मक्रीत और परक्रीत। परद्रव्यक्रीत तीन प्रकार से। सचित्त, अचित्त और मिश्र। आत्मद्रव्यक्रीत – साधु अपने पास के निर्माल्यतीर्थ आदि स्थान में रहे प्रभावशाली प्रतिमा की | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 351 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परियट्टियंपि दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेणं ।
एक्केक्कंपिय दुविहं तद्दव्वे अन्नदव्वे य ॥ Translated Sutra: साधु के लिए चीज की अदल – बदल करके देना परावर्तित। परावर्तित दो प्रकार से। लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक में एक चीज देकर ऐसी ही चीज दूसरों से लेना। या एक चीज देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना। लोकोत्तर में भी ऊक्त अनुसार वो चीज देकर वो चीज लेनी या देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना लौकिक तद्रव्य – यानि खराबी घी आदि | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उपसंहार |
Hindi | 703 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] छहिं कारणेहिं साधू आहारिंतोवि आयरइ धम्मं ।
छहिंचेव कारणेहि निज्जूहिंतोवि आयरइ ॥ Translated Sutra: आहार करने के छह कारण हैं। इन छह कारण के अलावा आहार ले तो कारणातिरिक्त नामका दोष लगे क्षुधा वेदनीय दूर करने के लिए, वैयावच्च सेवा भक्ति करने के लिए, संयम पालन करने के लिए, शुभ ध्यान करने के लिए, प्राण टिकाए रखने के लिए, इर्यासमिति का पालन करने के लिए। इन छह कारण से साधु आहार खाए, लेकिन शरीर का रूप या जबान के रस के | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 473 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! नेरइए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं।
तिरिक्खजोणिए णं भंते! तिरिक्खजोणिए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालतो, खेत्तओ अनंता लोगा–असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जतिभागो।
तिरिक्खजोणिणी णं भंते! तिरिक्खजोणिणीति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहत्तअब्भइयाइं। एवं मनूसे वि। मनूसी वि एवं चेव।
देवे णं भंते! देवे त्ति कालओ केवचिरं होइ? Translated Sutra: भगवन् ! नारक नारकत्वरूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम। भगवन् ! तिर्यंचयोनिक ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक। कालतः अनन्त उत्सर्पिणी – अवसर्पिणी काल, क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्तनों तक, वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवें | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 227 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं विवागसुए?
विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जति।
ते समासओ दुविहे पन्नत्ते, तं जहा– दुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव।
तत्थ णं दह दुहविवागाणि दह सुहविवागाणि।
से किं तं दुहविवागाणि?
दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाइं संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविज्जति।
सेत्तं दुहविवागाणि।
से किं तं सुहविवागाणि?
सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया Translated Sutra: विपाकसूत्र क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? विपाकसूत्र में सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) कर्मों का विपाक कहा गया है। यह विपाक संक्षेप से दो प्रकार का है – दुःख विपाक और सुख – विपाक। इनमें दुःख – विपाक में दश अध्ययन हैं और सुख – विपाक में भी दश अध्ययन हैं। यह दुःख विपाक क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? दुःख – विपाक में | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 730 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्ठविधे अद्धोवमिए पन्नत्ते, तं जहा–पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, पोग्गल-परियट्टे, तीतद्धा, अणागतद्धा, सव्वद्धा। Translated Sutra: औपमिक काल आठ प्रकार के कहे गए हैं, यथा – पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, पुद्गल – परावर्तन, अतीतकाल, भविष्यकाल, सर्वकाल। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१२ समवसरण |
Hindi | 556 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्देसु रूवेसु असज्जमाणे ‘रसेसु गंधेसु’ अदुस्समाणे ।
णो जीवियं नो मरणाभिकंखे आयाणगुत्ते ‘वलया विमुक्के’ ॥
Translated Sutra: जो शब्दों, रूपों, रसों और गंधों में राग – द्वेष नहीं करता, जीवन और मरण की अभिकांक्षा नहीं करता, इन्द्रियों का संवर करता है वह इन्द्रियजयी परावर्तन से विमुक्त है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1113 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं अयमट्ठे एवमाहिज्जइ, तं जहा–
संवेगे १ निव्वेए २ धम्मसद्धा ३ गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया ४ आलोयणया ५ निंदणया ६ गरहणया ७ सामाइए ८ चउव्वीसत्थए ९ वंदणए १०
पडिक्कमणे ११ काउस्सग्गे १२ पच्चक्खाणे १३ थवथुइमंगले १४ कालपडिलेहणया १५ पायच्छित्तकरणे १६ खमावणया १७ सज्झाए १८ वायणया १९ पडिपुच्छणया २०
परियट्टणया २१ अणुप्पेहा २२ धम्मकहा २३ सुयस्स आराहणया २४ एगग्गमण-सन्निवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ वोदाणे २८ सुहसाए २९ अप्पडिबद्धया ३०
विवित्तसयणासणसेवणया ३१ विणियट्टणया ३२ संभोगपच्चक्खाणे ३३ उवहिपच्चक्खाणे ३४ आहारपच्चक्खाणे ३५ कसायपच्चक्खाणे ३६ जोगपच्चक्खाणे ३७ सरीरपच्चक्खाणे Translated Sutra: उसका यह अर्थ है, जो इस प्रकार कहा जाता है। जैसे कि – संवेग, निर्वेद, धर्म श्रद्धा, गुरु और साधर्मिक की शुश्रृषा, आलोचना, निन्दा, गर्हा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, स्तव – स्तुति – मंगल, कालप्रतिलेखना, प्रायश्चित्त, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिप्रच्छना, परावर्तना, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1134 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] परियट्टणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
परियट्टणाए णं वंजणाइं जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ। Translated Sutra: भन्ते ! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? परावर्तना से व्यंजन स्थिर होता है। और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजन – लब्धि को प्राप्त होता है। |