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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-६ मकाई आदि अध्ययन-१ थी १४ |
Hindi | 27 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। चेल्लणा देवी।
तत्थ णं रायगिहे नयरे अज्जुनए नामं मालागारे परिवसइ–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तस्स णं अज्जुनयस्स मालायारस्स बंधुमई नामं भारिया होत्था–सूमालपाणिपाया।
तस्स णं अज्जुनयस्स मालायारस्स रायगिहस्स नयरस्स बहिया, एत्थ णं महं एगे पुप्फारामे होत्था–किण्हे जाव महामेहनिउरुंबभूए दसद्धवन्नकुसुमकुसुमिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तस्स णं पुप्फारामस्स अदूरसामंते, एत्थ णं अज्जुनयस्स मालायारस्स अज्जय-पज्जय-पिइपज्जयागए अणेगकुलपुरिस-परंपरागए मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था–पोराणे Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नगर था। गुणशीलक उद्यान था। श्रेणिक राजा थे। चेलना रानी थी। ‘अर्जुन’ नाम का एक माली रहता था। उसकी पत्नी बन्धुमती थी, जो अत्यन्त सुन्दर एवं सुकुमार थी। अर्जुन माली का राजगृह नगर के बाहर एक बड़ा पुष्पाराम था। वह पुष्पोद्यान कहीं कृष्ण वर्ण का था, यावत् समुदाय की तरह प्रतीत हो रहा था। | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 48 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था। पुन्नभद्दे चेइए।
तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिए राया–वन्नओ।
तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा, कोणियस्स रन्नो चुल्लमाउया, काली नामं देवी होत्था–वन्नओ। जहा नंदा जाव सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ। बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विविहेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।
तए णं सा काली अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव अज्जचंदना अज्जा Translated Sutra: ‘‘भगवन् ! यदि आठवें वर्ग के दश अध्ययन कहे हैं तो प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’’ ‘‘हे जंबू ! उस काल और उस समय चम्पा नामकी नगरी थी। वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था। वहाँ कोणिक राजा था। श्रेणिक राजा की रानी और महाराजा कोणिक की छोटी माता काली देवी थी। (वर्णन)। नन्दा देवी के समान | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 49 | Gatha | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पढमंमि सव्वकामं, पारणयं बिइयए विगइवज्जं ।
तइयंमि अलेवाडं, आयंबिलमो चउत्थम्मि ॥ Translated Sutra: प्रथम परिपाटी में सर्वकामगुण, दूसरी में विगय रहित पारणा किया। तीसरी में लेप रहित और चोथी परिपाटी में आयंबिल से पारणा किया। | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 51 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी। पुन्नभद्दे चेइए। कोणिए राया।
तत्थ णं सेणियस्स रन्नो भज्जा, कोणियस्स रन्नो चुल्लमाउया, सुकाली नामं देवी होत्था। जहा काली तहा सुकाली वि निक्खंता जाव बहूहिं जाव तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।
तए णं सा सुकाली अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव अज्जचंदना अज्जा तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं अज्जाओ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी कनगावली-तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। एवं जहा रयणावली तहा कनगावली वि, नवरं–तिसु ठाणेसु अट्ठमाइं करेइ, जहिं रयणावलीए छट्ठाइं।
एक्काए परिवाडीए संवच्छरो पंच मासा बारस य अहोरत्ता। Translated Sutra: उस काल और उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था, कोणिक राजा था। श्रेणिक राजा की रानी और कोणिक राजा की छोटी माता सुकाली नाम की रानी थी। काली की तरह सुकाली भी प्रव्रजित हुई और बहुत से उपवास आदि तपों से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। फिर वह सुकाली आर्या अन्यदा किसी दिन आर्या – चन्दना आर्या के | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 52 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–महाकाली वि, नवरं–खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा–
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं Translated Sutra: काली की तरह महाकाली ने भी दीक्षा अंगीकार की। विशेष यह कि उसने लघुसिंह निष्क्रीडित तप किया जो इस प्रकार है – उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, बेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, तेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, बेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 55 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–महाकण्हा वि, नवरं–खुड्डागं सव्वओभद्दं पडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ–
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, Translated Sutra: इसी प्रकार महाकृष्णा ने भी दीक्षा ग्रहण की, विशेष – वह लघुसर्वतोभद्र प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगी, उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, फिर बेला, तेला, चौला और पचौला किया और सबमें सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके तेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, चौला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 56 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–वीरकण्हा वि, नवरं–महालयं सव्वओभद्दं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा–
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं Translated Sutra: आर्या काली की तरह आर्या वीरकृष्णा ने भी दीक्षा अंगीकार की। विशेष यह कि उसने महत् सर्वतोभद्र तप कर्म अंगीकार किया, जो इस प्रकार है – उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, यावत् सात उपवास किए सब में सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया। यह प्रथम लता हुई। चोला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, इसी क्रम | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 57 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–रामकण्हा वि, नवरं–भद्दोत्तरपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा–
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठारसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
वीसइमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठारसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
वीसइमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
वीसइमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं Translated Sutra: आर्या काली की तरह आर्या रामकृष्णा का भी वृत्तान्त समझना चाहिए। विशेष यह कि रामकृष्णा आर्या भद्रोत्तर प्रतिमा अंगीकार करके विचरण करने लगी, जो इस प्रकार है – पाँच उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके छह यावत् – नौ उपवास किये, सबमें सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया। यह प्रथम लता हुई। सात उपवास किये, | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 58 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–पिउसेनकण्हा वि, नवरं–मुत्तावलिं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा–
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चोद्दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
सोलसमं Translated Sutra: पितृसेनकृष्णा का चरित्र भी आर्या काली की तरह समझना। विशेष यह कि पितृसेनकृष्णा ने मुक्तावली तप अंगीकार किया है – उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके बेला, फिर उपवास, फिर तेला, फिर उपवास, फिर चौला, फिर उपवास और पचौला, फिर उपवास और छह, फिर उपवास और सात, इसी तरह क्रमशः बढ़ते बढ़ते उपवास और पंद्रह उपवास | |||||||||
Antkruddashang | અંતકૃર્દ્દશાંગસૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वर्ग-८ कालि आदि अध्ययन-१ थी १० |
Gujarati | 55 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं–महाकण्हा वि, नवरं–खुड्डागं सव्वओभद्दं पडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ–
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
अट्ठमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
छट्ठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ।
चउत्थं करेइ, Translated Sutra: એ પ્રમાણે મહાકૃષ્ણા રાણી પણ જાણવા. વિશેષ એ કે – તેણી લઘુ સર્વતોભદ્ર પ્રતિમા સ્વીકારી વિચરે છે. ૧. ઉપવાસ કરે છે, સર્વ કામગુણિત પારણુ કરે છે. પછી – ૨. છઠ્ઠ, અઠ્ઠમ, ચાર, પાંચ ઉપવાસ અને સર્વકામગુણિત પારણું. પછી – ૩. અઠ્ઠમ, ચાર, પાંચ, એક ઉપવાસ અને સર્વકામગુણિત પારણું. પછી – ૪. છઠ્ઠ, પાંચ, એક, બે ઉપવાસ, સર્વકામગુણિત પારણું. | |||||||||
Anuttaropapatikdashang | अनुत्तरोपपातिक दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-३ धन्य, सुनक्षत्र, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र... अध्ययन-१ |
Hindi | 11 | Sutra | Ang-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सेणिए राया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। परिसा निग्गया। सेणिए निग्गए। धम्मकहा। परिसा पडिगया।
तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इमासि णं भंते! इंदभूइपामोक्खाणं चोद्दसण्हं समणसाहस्सीणं कतरे अनगारे महादुक्करकारए चेव महानिज्जरतराए चेव?
एवं खलु सेणिया! इमासि णं इंदभूइपामोक्खाणं चोद्दसण्हं समणसाहस्सीणं धन्ने अनगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ, इमासिं णं Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। गुणशैलक चैत्य था। श्रेणिक राजा था। उसी काल और उसी समय में श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी उक्त चैत्य में बिराजमान हुए। यह सूनकर पर्षदा नीकली, भगवान की सेवा में उपस्थित हुई, श्रेणिक राजा भी उपस्थित हुआ। भगवान ने धर्म – कथा सुनाई और लोग वापिस चले गए। श्रेणिक राजा ने इस कथा को | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 114 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तए णं से खंदए अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठे जाव नमंसित्ता मासियं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से नीकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र – अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर के पास आकर वन्दना – नमस्कार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 638 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइ–एवं खलु देवानुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिने जिनप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिने जिनसद्दं पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं?
तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कनगपुलगनिधस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे Translated Sutra: इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत – से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे – हे देवानुप्रियो ! निश्चित है कि गोशालक मंखलिपुत्र ‘जिन’ होकर अपने आप को ‘जिन’ कहता हुआ, यावत् ‘जिन’ शब्द में अपने आपको प्रकट करता हुआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आर्यास्वरूपं |
Hindi | 134 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मासे मासे उ जा अज्जा एगसित्थेण पारए ।
कलहइ गिहत्थभासाहिं, सव्वं तीए निरत्थयं ॥ Translated Sutra: हर एक महिने एक ही कण से जो साध्वी तप का पारणा करती है, वैसी साध्वी भी यदि गृहस्थ की सावद्य बोली से कलह करे तो उसका सर्व अनुष्ठान निरर्थक है। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 39 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे अनगारे अन्नया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।
तए णं से मेहे अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।
मासियं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ किट्टेइ, सम्मं काएणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि Translated Sutra: तत्पश्चात् उन मेघ अनगार ने किसी अन्य समय श्रमण भगवान महावीर की वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना – नमस्कार करके कहा – ‘भगवन् ! मैं आपकी अनुमति पाकर एक मास की मर्यादा वाली भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार करके विचरने की ईच्छा करता हूँ। भगवान् ने कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध न करो, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 80 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अनगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव एगराइयं।
तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अनगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तं जहा–
चउत्थं करेंति, सव्वकामगुणियं पारेंति।
छट्ठं करेंति, चउत्थं करेंति।
अट्ठमं करेंति, छट्ठं करेंति।
दसमं करेंति, अट्ठमं करेंति।
दुवालसमं करेंति, दसमं करेंति।
चोद्दसमं करेंति, दुवालसमं करेंति।
सोलसमं करेंति, चोद्दसमं करेंति।
अट्ठारसमं करेंति, सोलसमं करेंति।
वीसइमं करेंति, सोलसमं करेंति।
अट्ठारसमं करेंति, चोद्दसमं करेंति।
सोलसमं करेंति, दुवालसमं करेंति।
चोद्दसमं Translated Sutra: तत्पश्चात् वे महाबल आदि सातों अनगार एक मास की पहली भिक्षु – प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। यावत् बारहवी एकरात्रि की भिक्षु – प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों अनगार क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरने लगे। वह तप इस प्रकार किया जाता है – सर्वप्रथम | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 147 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 159 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नामं थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नामं अनगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउलं-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ।
तए णं से धम्मरुई अनगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाइं ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। परीषद् वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 175 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्ठेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्घाए उद्धुयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था।
तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध-दाहिणड्ढ-भरहवासे Translated Sutra: तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो! यह द्रौपदी अपने रूप, यौवन, लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अत एव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरी उपासना नहीं करती। अत एव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।’ इस प्रकार नारद ने विचार करके | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 121 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया अज्जियरज्जो निज्जियसत्तू उप्पन्नसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे नवनिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुयायमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहिं केवलकप्पं भरहं वासं ओयवेइ, ओयवेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी– खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय गय रह पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेन्नं सण्णा हेह, एतमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुंबिय पुरिसा जाव पच्चप्पिणंति।
तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे तहेव जाव धवलमहामेह निग्गए Translated Sutra: राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अर्जित किया – । शत्रुओं को जीता। उसके यहाँ समग्र रत्न उद्भूत हुए। नौ निधियाँ प्राप्त हुईं। खजाना समृद्ध था – । बत्तीस हजार राजाओं से अनुगत था। साठ हजार वर्षों में समस्त भरतक्षेत्र को साध लिया। तदनन्तर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा – ‘देवानुप्रियों ! शीघ्र | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 122 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स भरहस्स रन्नो अन्नया कयाइ रज्जधुरं चिंतेमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अभिजिए णं मए नियगबल वीरिय पुरिसक्कार परक्कमेणं चुल्ल-हिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेयं खलु मे अप्पाणं महयारायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तए त्तिकट्टु एवं संपेहेति, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए फुल्लु-प्पल-कमल-कोमलुम्मिलियंमि अहपंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास किंसुय सुयमुह गुंजद्धरागसरिसे कमलागर संडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिंमि दिणयरे तेयसा जलंते जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव मज्जनघराओ पडिनिक्खमइ, Translated Sutra: राजा भरत अपने राज्य का दायित्व सम्हाले था। एक दिन उसके मन में ऐसा भाव, उत्पन्न हुआ – मैंने अपना बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम द्वारा समस्त भरतक्षेत्र को जीत लिया है। इसलिए अब उचित है, मैं विराट् राज्याभिषेक – समारोह आयोजित करवाऊं, जिसमें मेरा राजतिलक हो। दूसरे दिन राजा भरत, स्नान कर बाहर निकला, पूर्व की ओर मुँह | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 493 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं कयराए विहिए पंच-मंगलस्स णं विणओवहाणं कायव्वं
(२) गोयमा इमाए विहिए पंचमंगलस्स णं विणओवहाणं कायव्वं, तं जहा–सुपसत्थे चेव सोहने तिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्ग-ससीबले
(३) विप्पमुक्क-जायाइमयासंकेण, संजाय-सद्धा-संवेग-सुतिव्वतर-महंतुल्लसंत-सुहज्झ-वसायाणुगय-भत्ती-बहुमान-पुव्वं निन्नियाण-दुवालस-भत्त-ट्ठिएणं,
(४) चेइयालये जंतुविरहिओगासे,
(५) भत्ति-भर-निब्भरुद्धसिय-ससीसरोमावली-पप्फुल्ल-वयण-सयवत्त-पसंत-सोम-थिर-दिट्ठी
(६) नव-नव-संवेग- समुच्छलंत- संजाय- बहल- घन- निरंतर- अचिंत- परम- सुह- परिणाम-विसेसुल्लासिय-सजीव-वीरियानुसमय-विवड्ढंत-पमोय-सुविसुद्ध-सुनिम्मल-विमल-थिर-दढयरंत Translated Sutra: हे भगवंत ! किस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करे ? हे गौतम ! आगे हम बताएंगे उस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करना चाहिए। अति प्रशस्त और शोभन तिथि, करण, मुहूर्त्त, नक्षत्र, योग, लग्न, चन्द्रबल हो तब आठ तरह के मद स्थान से मुक्त हो, शंका रहित श्रद्धासंवेग जिसके अति वृद्धि पानेवाले हो, अति तीव्र महान उल्लास पानेवाले, शुभ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1382 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे णं पडिक्कमणं न पडिक्कमेज्जा, से णं तस्सोट्ठावणं निद्दिसेज्जा। बइट्ठ-पडिक्कमणे खमणं। सुन्नासुन्नीए अणोवउत्तपमत्तो वा पडिक्कमणं करेज्जा, दुवालसं। पडिक्कमण-कालस्स चुक्कइ, चउत्थं। अकाले पडिक्कमणं करेज्जा, चउत्थं। कालेण वा पडिक्कमणं नो करेज्जा, चउत्थं।
संथारगओ वा संथारगोवविट्ठो वा पडिक्कमणं करेज्जा, दुवालसं। मंडलीए न पडिक्क-मेज्जा, उवट्ठावणं। कुसीलेहिं समं पडि-क्कमणं करेज्जा, उवट्ठावणं। परिब्भट्ठ बंभचेर वएहिं समं पडिक्कमेज्जा, पारंचियं। सव्वस्स समणसंघस्स तिविहं तिविहेण खमण-मरि सामणं अकाऊणं पडिक्कमणं करेज्जा, उवट्ठावणं। पयं पएणाविच्चामेलिय पडिक्कमण Translated Sutra: जो प्रतिक्रमण न करे उसे उपस्थापना का प्रायश्चित्त देना। बैठे – बैठे प्रतिक्रमण करनेवाले को खमण (उपवास), शून्याशून्यरूप से यानि कि यह सूत्र बोला गया है या नहीं वैसे उपयोगरहित अनुपयोग से प्रमत्तरूप से प्रतिक्रमण किया जाए तो पाँच उपवास, मांड़ली में प्रतिक्रमण न करे तो उपस्थापना; कुशील के साथ प्रतिक्रमण करे तो | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 117 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं ।
भावं अहे करेई तम्हा तं भावऽहेकम्मं ॥ Translated Sutra: संयमस्थान – कंड़क संयमश्रेणी, लेश्या एवं शाता वेदनीय आदि के समान शुभ प्रकृति में विशुद्ध विशुद्ध स्थान में रहे साधु को आधाकर्मी आहार जिस प्रकार से नीचे के स्थान पर ले जाता है, उस कारण से वो अधःकर्म कहलाता है। संयम स्थान का स्वरूप देशविरति समान पाँचवे गुण – स्थान में रहे सर्व उत्कृष्ट विशुद्ध स्थानवाले जीव | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
एषणा |
Hindi | 655 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घेत्तव्वमलोवकडं लेवकडे मा हु पच्छकम्माई ।
न य रसगेहिपसंगो इअ वुत्ते चोयगो भणइ ॥ Translated Sutra: लिप्त का अर्थ है – जिस अशनादि से हाथ, पात्र आदि खरड़ाना, जैसे की दहीं, दूध, दाल आदि द्रव्यों को लिप्त कहलाते हैं। जिनेश्वर परमात्मा के शासन में ऐसे लिप्त द्रव्य लेना नहीं कल्पता, क्योंकि लिप्त हाथ, भाजन आदि धोने में पश्चात्कर्म लगते हैं तथा रस की आसक्ति का भी संभव होता है। लिप्त हाथ, लिप्त भाजन, शेष बचे हुए द्रव्य | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा |
Hindi | 38 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! दत्ताणुण्णायसंवरो नाम होति ततियं–सुव्वतं महव्वतं गुणव्वतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणं-ततण्हामणुगय महिच्छ मणवयणकलुस आयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमण हत्थ पायनिहुयं निग्गंथं नेट्ठिकं निरुत्तं निरासवं निब्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभ पवरबलवग सुविहिय-जनसंमतं परमसाहुधम्मचरणं।
जत्थ य गामागर नगर निगम खेड कब्बड मडंब दोणमुह संवाह पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि मुत्त सिल प्पवाल कंस दूस रयय वरकणग रयणमादिं पडियं पम्हुट्ठं विप्पणट्ठं न कप्पति कस्सति कहेउं वा गेण्हिउं वा। अहिरण्णसुवण्णिकेण समलेट्ठुकंचनेनं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं।
जं Translated Sutra: हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार ‘दत्तानुज्ञात’ नामक है। यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है। यह परकीय द्रव्य – पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा – अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन | |||||||||
Prashnavyakaran | પ્રશ્નવ્યાપકરણાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा |
Gujarati | 38 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! दत्ताणुण्णायसंवरो नाम होति ततियं–सुव्वतं महव्वतं गुणव्वतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणं-ततण्हामणुगय महिच्छ मणवयणकलुस आयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमण हत्थ पायनिहुयं निग्गंथं नेट्ठिकं निरुत्तं निरासवं निब्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभ पवरबलवग सुविहिय-जनसंमतं परमसाहुधम्मचरणं।
जत्थ य गामागर नगर निगम खेड कब्बड मडंब दोणमुह संवाह पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि मुत्त सिल प्पवाल कंस दूस रयय वरकणग रयणमादिं पडियं पम्हुट्ठं विप्पणट्ठं न कप्पति कस्सति कहेउं वा गेण्हिउं वा। अहिरण्णसुवण्णिकेण समलेट्ठुकंचनेनं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं।
जं Translated Sutra: હે જંબૂ ! ત્રીજું સંવરદ્વાર ‘‘દત્તાનુજ્ઞાત’’ નામે છે. હે સુવ્રત ! આ મહાવ્રત છે તથા અણુવ્રત પણ છે. આ પરકીય દ્રવ્યના હરણની નિવૃત્તિરૂપ ક્રિયાથી યુક્ત છે. આ વ્રત. અપરિમિત – અનંત તૃષ્ણાથી અનુગત મહાઅભિલાષાથી યુક્ત મન, વચન દ્વારા પાપમય પરદ્રવ્ય – હરણનો સમ્યક્ નિગ્રહ કરે છે. આ વ્રતના પ્રભાવે. મન સુસંયમિત થાય છે. હાથ | |||||||||
Pushpika | पूष्पिका | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ शुक्र |
Hindi | 7 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गिं हुणइ, चरुं साहेइ, साहेत्ता बलिं वइस्सदेवं करेइ, करेत्ता अतिहिपूयं करेइ, करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ।
तए णं से सोमिले माहणरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सोमिले माहणरिसी दोच्चछट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गेण्हइ, गेण्हित्ता दाहिणं दिसिं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सानिलमाहणरिसिंअभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि Translated Sutra: तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मर्षी ने दूसरा षष्ठक्षपण अंगीकार किया। पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल वस्त्र पहने यावत् आहार किया, इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गए और कहा – ‘हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! प्रस्थान के लिए प्रवृत्त सोमिल ब्रह्मर्षी की रक्षा करें और यहाँ जो कन्द, मूल आदि | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२०. सम्यक्चारित्रसूत्र | Hindi | 273 | View Detail | ||
Mool Sutra: मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए।
न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं।।१२।। Translated Sutra: जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने-महीने के तप करता है और (पारणा में) कुश के अग्रभाव जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२०. सम्यक्चारित्रसूत्र | Hindi | 273 | View Detail | ||
Mool Sutra: मासे मासे तु यो बालः, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते।
न स स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्घति षोडशीम्।।१२।। Translated Sutra: जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने-महीने के तप करता है और (पारणा में) कुश के अग्रभाव जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता। | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Hindi | 63 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसी सुकोसलरिसी चाउम्मासस्स पारणादिवसे ।
ओरुहमाणो उ नगा खइओ छायाइ वग्घीए ॥ Translated Sutra: साकेतपुर के श्री कीर्तिधर राजा के पुत्र श्री सुकोशल ऋषि, चातुर्मास में मासक्षमण के पारणे के दिन, पिता मुनि के साथ पर्वत पर से उतर रहे थे। उस वक्त पूर्वजन्म की वाघण माँ ने उन्हें फाड़ डाला – | |||||||||
Sanstarak | સંસ્તારક | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Gujarati | 63 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसी सुकोसलरिसी चाउम्मासस्स पारणादिवसे ।
ओरुहमाणो उ नगा खइओ छायाइ वग्घीए ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૬૩. સાકેતપુરમાં શ્રીકીર્તિધર રાજાના પુત્ર સુકોશલ ઋષિ હતા. ચાતુર્માસના પારણાના દિવસે પર્વત ઉપરથી ઊતરતી વેળા પૂર્વ જન્મની માતા એવી વાઘણ વડે ખવાયા. સૂત્ર– ૬૪. છતાં ત્યારે ગાઢપણે ધીરતાપૂર્વક પોતાના પ્રત્યાખ્યાનમાં ઉપયોગવંત રહ્યા. તે પણ તે રીતે વાઘણ વડે ખવાયા છતાં ઉત્તમાર્થને સ્વીકાર્યો. સૂત્ર સંદર્ભ– | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 765 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरिसं च विद्धून कुमारगं वा सूलंमि केइ पए जायतेए ।
पिण्णागपिंडिं सइमारुहेत्ता बुद्धान तं कप्पइ पारणाए ॥ Translated Sutra: कोई पुरुष मनुष्य को या बालक को खली का पिण्ड मानकर उसे शूल में बींधकर आग में पकाए तो वह पवित्र है, बुद्धों के पारणे के योग्य है। | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 765 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरिसं च विद्धून कुमारगं वा सूलंमि केइ पए जायतेए ।
पिण्णागपिंडिं सइमारुहेत्ता बुद्धान तं कप्पइ पारणाए ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૬૩ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 271 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं निसामित्ता हेऊकारणचोइओ ।
तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा – ‘‘जो बाल साधक महीने – महीने के तप करता है और पारणा में कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी पा नहीं सकता है।’’ सूत्र – २७१, २७२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 966 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह तेनेव कालेणं पुरीए तत्थ माहणे ।
विजयघोसे त्ति नामेण जण्णं जयइ वेयवी ॥ Translated Sutra: उसी समय पुरी में वेदों का ज्ञाता, विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। एक मास की तपश्चर्या के पारणा के समय भिक्षा के लिए वह जयघोष मुनि विजयघोष के यज्ञ में उपस्थित हुआ। सूत्र – ९६६, ९६७ | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ सुखविपाक अध्ययन-१ सुबाहुकुमार |
Hindi | 37 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
तए णं से सुहम्मे जंबू–अनगारं एवं वयासी–एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे ।
तस्स णं हत्थिसीसस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं पुप्फकरंडए नामं उज्जाने होत्था–सव्वोउय–पुप्फ–समिद्धे।
तत्थ णं कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था–दिव्वे ।
तत्थ णं हत्थिसोसे नयरे अदोणसत्तू नामं राया होत्था–महयाहिमंवत–महंत–मलय–मंदर–महिंदसारे।
तस्स Translated Sutra: हे भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने यदि सुखविपाक के सुबाहुकुमार आदि दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं तो हे भगवन् ! सुख – विपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? श्रीसुधर्मा स्वामी ने श्रीजम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा – हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में हस्तिशीर्ष नामका एक बड़ा ऋद्ध | |||||||||
Vyavaharsutra | व्यवहारसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-९ | Hindi | 242 | Sutra | Chheda-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] खुड्डियण्णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अनगारस्स कप्पइ से पढमसरदकालसमयंसि वा चरिमनिदाह-कालसमयंसि वा बहिया गामस्स वा जाव सन्निवेसस्स वा वनंसि वा वनविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा। भोच्चा आरुभइ चोदसमेणं पारेइ। अभोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ।
जाए मोए आईयव्वे, दिया आगच्छइ आईयव्वे, राइं आगच्छइ नो आईयव्वे, सपाणे आगच्छइ नो आईयव्वे, अप्पाणे आगच्छइ आईयव्वे, सबीए आगच्छइ नो आईयव्वे, अबीए आगच्छइ आई-यव्वे, ससणिद्धे आगच्छइ नो आईयव्वे, अससणिद्धे आगच्छइ आईयव्वे, ससरक्खे आगच्छइ नो आईयव्वे, अससरक्खे आगच्छइ आईयव्वे। जाए मोए आईयव्वे तं जहा–अप्पे वा बहुए वा।
एवं खलु एसा Translated Sutra: छोटी पेशाब प्रतिमा वहनेवाले साधु को पहले शरद काल में (मागसर मास में) और अन्तिम उष्ण काल में (आषाढ़ मास में) गाँव के बाहर यावत् सन्निवेश, वन, वनदूर्ग, पर्वत, पर्वतदूर्ग में यह प्रतिमा धारण करना कल्पे, भोजन करके प्रतिमा ग्रहण करे तो १४ भक्त से पूरी हो यानि छ उपवास के बाद पारणा करे, खाए बिना पड़िमा कने से १६ भक्त से यानि |