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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 510 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए-सुसमसुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमाए समाए वीतिक्कंताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिक्कंताए, दुसमसुसमाए समाए बहु वीतिक्कंताए–पण्णहत्तरीए वासेहिं, मासेहिं य अद्धणवमेहिं सेसेहिं, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे–आसाढसुद्धे, तस्सणं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, महावि-जय-सिद्धत्थ-पुप्फुत्तर-पवर-पुंडरीय-दिसासोवत्थिय-वद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता इह खलु जबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्ढभरहे दाहिणमाहणकुंडपुर-सन्निवेसंसि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम – सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम – दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम – सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल ७५ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवे पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 236 | Gatha | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिंगी सिही विसाणी, दाढी पक्खी खुरी नही वाली ।
दुपय चउप्पय बहुपय, नंगूली केसरी ककुही ॥ Translated Sutra: शृंगी, शिखी, विषाणी, दंष्ट्री, पक्षी, खुरी, नखी, वाली, द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, लांगूली, केशरी, ककुदी आदि। परिकरबंधन – विशिष्ट रचना युक्त वस्त्रों के पहनने से – कमर कसने से योद्धा पहिचाना जाता है, विशिष्ट प्रकार के वस्त्रों को पहनने से महिला पहिचानी जाती है, एक कण पकने से द्रोणपरिमित अन्न का पकना और एक ही गाथा के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-७ शाली | Hindi | 311 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-सुसमा १. तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा २. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा ३. एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसम-सुसमा ४. एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसमा ५. एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसम-दूसमा ६. ।
पुनरवि उस्सप्पिणीए एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसम-दूसमा १. एक्कवीसं वास-सहस्साइं कालो दूसमा २. एगा सागरोव-मकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसम-सुसमा ३. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा ४. तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा५. चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो Translated Sutra: इस सागरोपम – परिमाण के अनुसार (अवसर्पिणीकाल में) चार कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक सुषम – सुषमा आरा होता है; तीन कोटाकोटि सागरोपम – काल का एक सुषमा आरा होता है; दो कोटाकोटि सागरोपम – काल का एक सुषमदुःषमा आरा होता है; बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम – काल का एक दुःषम सुषमा आरा होता है; इक्कीस हजार वर्ष का एक | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 50 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिवए बालवकरणंसि अभीइनक्खत्ते चोद्ददसपढमसमये अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुय-पज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण कम्म बल वीरिय पुरिसक्कार परक्कम-पज्जवेहिं अनंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमाणामं समा काले पडि-वज्जिस्सइ समणाउसो!।
तीसे णं भंते! Translated Sutra: गौतम ! अवसर्पिणी काल के छठे आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर आनेवाले उत्सर्पिणी – काल का श्रावण मास, कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन बालव नामक करण में चन्द्रमा के साथ अभिजित् नक्षत्र का योग होने पर चतुर्दशविध काल के प्रथम समय में दुषम – दुषमा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि अनन्त – गुण – क्रम से | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 40 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं सुसमदुस्समा नामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! ।
सा णं समा तिहा विभज्जइ–पढमे तिभाए, मज्झिमे तिभाए, पच्छिमे तिभाए।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे Translated Sutra: गौतम ! द्वितीय आरक का तीन सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी – काल का सुषम – दुःषमा नामक तृतीय आरक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्ण – पर्याय यावत् पुरुषकार – पराक्रमपर्याय की अनन्त गुण परिहानि होती है। उस आरक को तीन भागों में विभक्त किया है – प्रथम त्रिभाग, मध्यम त्रिभाग, अंतिम त्रिभाग। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 811 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं अट्ठण्हं साहूणमसइं उस्सग्गेण वा अववाएण वा चउहिं अनगारेहिं समं गमनागमनं नियंठियं तहा दसण्हं संजईणं हेट्ठा उसग्गेणं, चउण्हं तु अभावे अववाएणं हत्थ-सयाओ उद्धं गमनं नाणुण्णायं। आणं वा अइक्कमंते साहू वा साहूणीओ वा अनंत-संसारिए समक्खाए।
ता णं से दुप्पसहे अनगारे असहाए भवेज्जा। सा वि य विण्हुसिरी अनगारी असहाया चेव भवेज्जा। एवं तु ते कहं आराहगे भवेज्जा गोयमा णं दुस्समाए परियंते ते चउरो जुगप्पहाणे खाइग सम्मत्त नाण दंसण चारित्त समण्णिए भवेज्जा।
तत्थ णं जे से महायसे महानुभागे दुप्पसहे अनगारे से णं अच्चंत विसुद्ध सम्मद्दंसण नाण चारित्त गुणेहिं उववेए सुदिट्ठ Translated Sutra: हे भगवंत ! उत्सर्ग से आँठ साधु की कमी में या अपवाद से चार साधु के साथ (साध्वी का) गमनागमन निषेध किया है। और उत्सर्ग से दस संयति से कम और अपवाद से चार संयति की कमी में एक सौ हाथ से उपर जाने के लिए भगवंत ने निषेध किया है। तो फिर पाँचवें आरे के अन्तिम समय में अकेले सहाय बिना दुप्पसह अणगार होंगे और विष्णु श्री साध्वी | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-८९ |
Hindi | 168 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] उसभे णं अरहा कोसलिए इमीसे ओसप्पिणीए ततियाए समाए पच्छिमे भागे एगूणनउइए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए वीइक्कंते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधने सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे।
समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउत्थीए समाए पच्छिमे भागे एगूणनउइए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए वीइक्कंते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधने सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे।
हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी एगूणनउइं वाससयाइं महाराया होत्था।
संतिस्स णं अरहओ एगूणणउई अज्जासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जासंपया होत्था। Translated Sutra: कौशलिक ऋषभ अर्हत् इसी अवसर्पिणी के तीसरे सुषमदुषमा आरे के पश्चिम भाग में नवासी अर्धमासों (३ वर्ष, ८ मास, १५ दिन) के शेष रहने पर कालगत होकर सिद्ध, बुद्ध, कर्म – मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। श्रमण भगवान महावीर इसी अवसर्पिणी के चौथे दुःषमसुषमा काल के अन्तिम भाग में नवासी अर्धमासों (३ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१ |
Hindi | 50 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगा ओसप्पिणी।
एगा सुसम-सुसमा। एगा सुसमा। एगा सुसम-दूसमा।
एगा दूसम-सुसमा। एगा दूसमा। एगा दूसम-दूसमा।
एगा उस्सप्पिणी।
एगा दुस्सम-दुस्समा। एगा दुस्समा। एगा दुस्सम-सुसमा।
एगा सुसम-दुस्समा। एगा सुसमा। एगा सुसम-सुसमा। Translated Sutra: अवसर्पिणी एक है। सुषमासुषमा एक है – यावत् – दुषमदुषमा एक है। उत्सर्पिणी एक है। दुषमदुषमा एक है – यावत् – सुषमसुषमा एक है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-१ | Hindi | 145 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तिविहा ओसप्पिणी पन्नत्ता, तं जहा–उक्कोसा, मज्झिमा, जहन्ना।
तिविहा सुसम-सुसमा, तिविहा सुसमा, तिविहा सुसम-दूसमा, तिविहा दूसम-सुसमा, तिविहा दूसमा, तिविहा दूसम-दूसमा पन्नत्ता, तं जहा–उक्कोसा, मज्झिमा, जहन्ना।
तिविहा उस्सप्पिणी पन्नत्ता, तं जहा–उक्कोसा, मज्झिमा, जहन्ना।
तिविहा दुस्सम-दुस्समा, तिविहा दुस्समा, तिविहा दुस्सम-सुसमा, तिविहा सुसम-दुस्समा, तिविहा सुसमा, तिविहा सुसम-सुसमा पन्नत्ता, तं जहा–उक्कोसा, मज्झिमा, जहन्ना। Translated Sutra: तीन प्रकार की अवसर्पिणी कही गई है, यथा – उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। इस प्रकार छहों आरक का कथन करना चाहिए – यावत् दुषमदुःषमा। तीन प्रकार की उत्सर्पिणी कही गई है, यथा – उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। इस प्रकार छ आरक समझने चाहिए – यावत् सुषमसुषमा। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-६ |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] छव्विहा ओसप्पिणी पन्नत्ता, तं जहा– सुसम-सुसमा, सुसमा, सुसम-दूसमा, दूसम-सुसमा, दूसमा, दूसम-दूसमा।
छव्विहा उस्सप्पिणी पन्नत्ता, तं जहा– दुस्सम-दुस्समा, दुस्समा, दुस्सम-सुसमा, सुसम-दुस्समा, सुसमा, सुसम-सुसमा। Translated Sutra: अवसर्पिणी काल छः प्रकार का है, सुषम – सुषमा यावत् दुषम – दुषमा। उत्सर्पिणी काल छः प्रकार का है, यथा – दुषम दुःषमा यावत् सुषम सुषमा। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 658 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेज्जा, तं जहा–अकाले वरिसइ, काले न वरिसइ, असाधू पुज्जंति, साधु न पुज्जंति, गुरूहिं जणो मिच्छं पडिवण्णो, मनोदुहता, वइदुहता।
सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तं जहा– अकाले न वरिसइ, काले वरिसइ, असाधू न पुज्जंति, साधू पुज्जंति, गुरूहिं जनो सम्मं पडिवण्णो, मणोसुहता, वइसुहता। Translated Sutra: दुषमकाल के सात लक्षण हैं, यथा – अकाल में वर्षा होना, वर्षाकाल में वर्षा न होना, असाधु जनों की पूजा होना, साधु जनों की पूजा न होना, गुरु के प्रति लोगों का मिथ्याभाव होना, मानसिक दुःख, वाणी का दुःख। सुषमकाल के सात लक्षण हैं, यथा – अकाल में वर्षा नहं होती है, वर्षाकाल में वर्षा होती है, असाधु की पूजा नहीं होती है, साधु | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१० |
Hindi | 985 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दसहिं ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेज्जा, तं जहा– अकाले वरिसइ, काले न वरिसइ, असाहू पूइज्जंति, साहू न पूइज्जंति, गुरुसु जनो मिच्छं पडिवन्नो, अमणुन्ना सद्दा, अमणुन्ना रूवा, अमणुन्ना गंधा, अमणुन्ना रसा, अमणुन्नाफासा।
दसहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तं जहा– अकाले ण वरिसति, काले वरिसति, असाहू न पूइज्जंति, साहू पूइज्जंति, गुरुसु जणो सम्मं पडिवण्णो, मणुन्ना सद्दा, मणुन्ना रूवा, मणुन्ना गंधा, मणुन्ना रसा, मणुन्ना फासा। Translated Sutra: दश लक्षणों से पूर्ण दुषम काल जाना जाता है, यथा – अकाल में वर्षा हो, काल में वर्षा न हो, असाधु की पूजा हो, साधु की पूजा न हो, माता पिता आदि का विनय न करे, अमनोज्ञ शब्द यावत् स्पर्श। दश कारणों से पूर्ण सुषमकाल जाना जाता है, यथा – अकाल में वर्षा न हो, शेष पूर्व कथित से विपरीत यावत् मनोज्ञ स्पर्श। |