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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में कईं साधकों को आचार – गोचर सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु – जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Gujarati | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: આ મનુષ્યલોકમાં કેટલાક સાધુઓને આચાર – ગોચરનું યોગ્ય જ્ઞાન હોતું નથી. તેઓ આરંભાર્થી થઈ અન્યમતવાળાનું અનુકરણ કરી ‘‘પ્રાણીને મારો’’ એવું કહી બીજા પાસે હિંસા કરાવે છે, હિંસા કરનારની અનુમોદના કરે છે. અદત્તને ગ્રહણ કરે છે અથવા અનેક પ્રકારના વચનો બોલે છે – જેમ કે, કોઈ કહે છે લોક છે, કોઈ કહે છે લોક નથી, એ પ્રમાણે લોક | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 30 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से बलवाउए कूणिएणं रन्नाएवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए पीइमने परमसोमनस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामि! त्ति आणाए विनएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता हत्थिवाउयं आमंतेइ, आमंतेत्ता एवं वयासी–
खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! कूणियस्स रन्नो भिंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि, हय गय रह पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सन्नाहेहि, सन्नाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।
तए णं से हत्थिवाउए बलवाउयस्स एयमट्ठं सोच्चा आणाए विनएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता छेयायरिय उवएस मइ कप्पणा विकप्पेहिं सुनिउणेहिं Translated Sutra: राजा कूणिक द्वारा यों कहे जाने पर उस सेनानायक ने हर्ष एवं प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़े, अंजलि को मस्तक से लगाया तथा विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार करते हुए निवेदन किया – महाराज की जैसी आज्ञा। सेनानायक ने यों राजाज्ञा स्वीकार कर हस्ति – व्यापृत को बुलाया। उससे कहा – देवानुप्रिय ! भंभसार के पुत्र महाराज कूणिक | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
5. निःशंकित्व (अभयत्व) | Hindi | 53 | View Detail | ||
Mool Sutra: सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगभए, परलोगभए।
आदाणभए अकम्हाभए, आजीवभए, मरणभए असिलोगभए ।। Translated Sutra: भयस्थान सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा-इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, आजीविका भय, मरण भय, अपयश भय। (ये सातों भय सम्यग्दृष्टि को नहीं होते हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
5. निःशंकित्व (अभयत्व) | Hindi | 53 | View Detail | ||
Mool Sutra: सप्त भयस्थानानि प्रज्ञप्तानि, स यथा-इहलोकभय परलोकभय।
आदानभय अकस्मात्भय, आजीविकाभय मरणभय अयशलोकभय ।। Translated Sutra: भयस्थान सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा-इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, आजीविका भय, मरण भय, अपयश भय। (ये सातों भय सम्यग्दृष्टि को नहीं होते हैं।) | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 80 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरड्ढभरहे वासे बहवे आवाडा नामं चिलाया परिवसंति–अड्ढा दित्ता बित्ता विच्छिण्णविउलभवन सयणासण जानवाहनाइण्णा बहुधन बहुजायरूवरयया आओगपओग-संपउत्ता विच्छड्डियपउरभत्तपाणा बहुदासी-दास गो महिस गवेलगप्पभूया बहुजनस्स अपरिभूया सूरा वीरा विक्कंता विच्छिण्णविउलबलबाहणा बहुसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि होत्था।
तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अन्नया कयाइ विसयंसि बहूइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भवित्था, तं जहा– अकाले गज्जियं, अकाले विज्जुयं, अकाले पायवा पुप्फंति, अभिक्खणं-अभिक्खणं आगासे देवयाओ नच्चंति।
तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहूइं उप्पाइयसयाइं Translated Sutra: उस समय उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में – आपात संज्ञक किरात निवास करते थे। वे आढ्य, दीप्त, वित्त, भवन, शयन, आसन, यान, वाहन तथा स्वर्ण, रजत आदि प्रचुर धन के स्वामी थे। आयोग – प्रयोग – संप्रवृत्त – थे। उनके यहाँ भोजन कर चुकने के बाद भी खाने – पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उनके घरों में बहुत से नौकर – नौकरानियाँ, गायें, भैंसे, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 406 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा णं गोयमा इत्थीयं नाम पुरिसाणं अहमाणं सव्व-पाव-कम्माणं वसुहारा, तम-रय-पंक-खाणी सोग्गइ-मग्गस्स णं अग्गला, नरयावयारस्स णं समोयरण-वत्तणी
(२) अभूमयं विसकंदलिं, अणग्गियं चडुलिं अभोयणं विसूइयं अणामियं वाहिं, अवेयणं मुच्छं, अणोवसग्गं मारिं अनियलिं गुत्तिं, अरज्जुए पासे, अहेउए मच्चू,
(३) तहा य णं गोयमा इत्थि-संभोगे पुरिसाणं मनसा वि णं अचिंतणिज्जे, अणज्झव-सणिज्जे, अपत्थणिज्जे, अणीहणिज्जे, अवियप्पणिज्जे, असंकप्पणिज्जे, अणभिलसणिज्जे, असंभरणिज्जे तिविहं तिविहेणं ति।
(४) जओ णं इत्थियं नाम पुरिसस्स णं, गोयमा सव्वप्पगारेसुं पि दुस्साहिय-विज्जं पि व दोसुप्पपायणिं, सारंभ Translated Sutra: हे गौतम ! यह स्त्री, पुरुष के लिए सर्व पापकर्म की सर्व अधर्म की धनवृष्टि समान वसुधारा समान है। मोह और कर्मरज के कीचड़ की खान समान सद्गति के मार्ग की अर्गला – विघ्न करनेवाली, नरक में उतरने के लिए सीड़ी समान, बिना भूमि के विषवेलड़ी, अग्नि रहित उंबाडक – भोजन बिना विसूचिकांत बीमारी समान, नाम रहित व्याधि, चेतना बिना मूर्छा, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 821 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केरिस गुणजुत्तस्स णं गुरुणो गच्छनिक्खेवं कायव्वं गोयमा जे णं सुव्वए, जे णं सुसीले, जे णं दढव्वए, जे णं दढचारित्ते, जे णं अनिंदियंगे, जे णं अरहे, जे णं गयरागे, जे णं गयदोसे, जे णं निट्ठिय मोह मिच्छत्त मल कलंके, जे णं उवसंते, जे णं सुविण्णाय जगट्ठितीए, जे णं सुमहा वेरग्गमग्गमल्लीणे, जे णं इत्थिकहापडिनीए, जे णं भत्तकहापडिनीए, जे णं तेण कहा पडिनीए, जे णं रायकहा पडिनीए, जे णं जनवय कहा पडिनीए, जे णं अच्चंतमनुकंप सीले, जे णं परलोग-पच्चवायभीरू, जे णं कुसील पडिनीए,
जे णं विण्णाय समय सब्भावे, जे णं गहिय समय पेयाले, जे णं अहन्निसानुसमयं ठिए खंतादि अहिंसा लक्खण दसविहे समणधम्मे, Translated Sutra: हे भगवंत ! कैसे गुणयुक्त गुरु हो तो उसके लिए गच्छ का निक्षेप कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो अच्छे व्रतवाले, सुन्दर शीलवाले, दृढ़ व्रतवाले, दृढ़ चारित्रवाले, आनन्दित शरीर के अवयववाले, पूजने के लायक, राग रहित, द्वेष रहित, बड़े मिथ्यात्व के मल के कलंक जिसके चले गए हैं वैसे, जो उपशान्त हैं, जगत की दशा को अच्छी तरह से पहचानते हो, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1245 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पणयामरमरुय मउडुग्घुट्ठ-चलण-सयवत्त-जयगुरु
जगनाह, धम्मतित्थयर, भूय-भविस्स वियाणग Translated Sutra: जिनके चरणकमल प्रणाम करते हुए देव और अनुसरते मस्तक के मुकुट से संघट्ट हुए हैं ऐसे हे जगद्गुरु ! जगत के नाथ, धर्म तीर्थंकर, भूत और भावि को पहचाननेवाले, जिन्होंने तपस्या से समग्र कर्म के अंश जला दिए हैं ऐसे, कामदेव शत्रु का विदारण करनेवाले, चार कषाय के समूह का अन्त करनेवाले, जगत के सर्व जीव के प्रति वात्सल्यवाले, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: हे भगवंत ! उस ब्राह्मणीने ऐसा तो क्या किया कि जिससे इस प्रकार सुलभ बोधि पाकर सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक बनी और फिर उसके उपदेश से कईं भव्य जीव नर – नारी कि जो अनन्त संसार के घोर दुःख में सड़ रहे थे उन्हें सुन्दर धर्मदेश आदि के द्वारा शाश्वत सुख देकर उद्धार किया। हे गौतम ! उसने पूर्वभव में कईं सुन्दर भावना सहित | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र | Hindi | 232 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्मदिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्तभयविप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका।।१४।। Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं और इसी कारण निर्भय भी होते हैं। वे सात प्रकार के भयों--इस लोक का भय, परलोकभय, अरक्षा-भय, अगुप्ति-भय, मृत्यु-भय, वेदना-भय और अकस्मात्-भय--से रहित होते हैं, इसीलिए निःशंक होते हैं। (अर्थात् निःशंकता और निर्भयता दोनों एक साथ रहनेवाले गुण हैं।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र | Hindi | 232 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन।
सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात् तस्मात् तु निश्शङ्का।।१४।। Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं और इसी कारण निर्भय भी होते हैं। वे सात प्रकार के भयों--इस लोक का भय, परलोकभय, अरक्षा-भय, अगुप्ति-भय, मृत्यु-भय, वेदना-भय और अकस्मात्-भय--से रहित होते हैं, इसीलिए निःशंक होते हैं। (अर्थात् निःशंकता और निर्भयता दोनों एक साथ रहनेवाले गुण हैं।) | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१३ |
Hindi | 26 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेरस किरियाठाणा पन्नत्ता, तं जहा–अट्ठादंडे अणट्ठादंडे हिंसादंडे अकम्हादंडे दिट्ठिविप्परिआसिआ- दंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादानवत्तिए अज्झत्थिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभ-वत्तिए ईरियावहिए नामं तेरसमे।
सोहम्मीसानेसु कप्पेसु तेरस विमापत्थडा पन्नत्ता।
सोहम्मवडेंसगे णं विमाने णं अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते।
एवं ईसाणवडेंसगे वि।
जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिआणं अद्धतेरस जाइकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता।
पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू पन्नत्ता।
गब्भवक्कंतिअपंचेंदिअतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे पन्नत्ते, तं जहा– Translated Sutra: तेरह क्रियास्थान कहे गए हैं। जैसे – अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्माद् दंड, दृष्टिविपर्यास दंड, मृषावाद प्रत्यय दंड, अदत्तादान प्रत्यय दंड, आध्यात्मिक दंड, मानप्रत्यय दंड, मित्रद्वेषप्रत्यय दंड, मायाप्रत्यय दंड, लोभप्रत्यय दंड और ईर्यापथिक दंड। सौधर्म – ईशान कल्पों में तेरह विमान – प्रस्तट हैं। सौधर्मावतंसक | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-७ |
Hindi | 7 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्त भयट्ठाणा पन्नत्ता, जहा–इहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए।
सत्त समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा– वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउव्विय-समुग्घाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्घाए केवलिसमुग्घाए।
समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
सत्त वासहरपव्वया पन्नत्ता, तं जहा–चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पी सिहरी मंदरे।
सत्त वासा पन्नत्ता, तं जहा– भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे रम्मए हेरण्णवते एरवए।
खीणमोहे णं भगवं मोहणिज्जवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ वेएई।
महानक्खत्ते सत्ततारे पन्नत्ते।
कत्तिआइया सत्त Translated Sutra: सात भयस्थान कहे गए हैं। जैसे – इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात् भय, आजीवभय, मरणभय और अश्लोकभय। सात समुद्घात कहे गए हैं, जैसे – वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिक – समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, आहारक समुद्घात और केवलिसमुद्घात। श्रमण भगवान महावीर सात रत्नि – हाथ प्रमाण शरीर से ऊंचे थे। इस जम्बूद्वीप | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Hindi | 79 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जलमज्झे ओगाढा नईइ पूरेण निम्ममसरीरा ।
तह वि हु जलदहमज्झे पडिवन्ना उत्तमं अट्ठं ॥ Translated Sutra: कौशाम्बी नगरी में ललीतघटा बत्तीस पुरुष विख्यात थे। उन्होंने संसार की असारता को जानकर श्रमणत्व अंगीकार किया। श्रुतसागर के रहस्यों को प्राप्त किये हुए ऐसे उन्होंने पादपोपगम अनशन स्वीकार किया। अकस्मात् नदी की बाढ़ से खींचते हुए बड़े द्रह मध्य में वो चले गए। ऐसे अवसर में भी उन्होंने समाधिपूर्वक पंड़ित मरण | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-२ | Hindi | 456 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंच आसवदारा पन्नत्ता, तं जहा–मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, कसाया, जोगा।
पंच संवरदारा पन्नत्ता, तं जहा–समत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं।
पंच दंडा पन्नत्ता, तं जहा–अट्ठादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, दिट्ठीविप्परियासियादंडे।
पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादंसणवत्तिया। Translated Sutra: पाँच आश्रवद्वार कहे गए हैं, यथा – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग। पाँच संवर द्वार कहे गए हैं – सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभयोग। पाँच प्रकार का दण्ड कहा गया है, यथा, अर्थ दण्ड – स्व – पर के हित के लिए त्रस या स्थावर प्राणी की हिंसा। अनर्थ दण्ड – निरर्थक हिंसा। हिंसा दण्ड – जिसने अतीत में हिंसा की | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 600 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्त भयट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा–इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, अकम्हाभए, वेयणभए, मरणभए, असिलोगभए। Translated Sutra: भयस्थान सात प्रकार के कहे गए हैं। यथा – इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात भय, वेदना भय, मरण भय, अश्लोक – अपयश भय। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१० |
Hindi | 925 | Gatha | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दप्प पमायऽणाभोगे, आउरे आवतीसु य ।
संकिते सहसक्कारे, भयप्पओसा य वीमंसा ॥ Translated Sutra: दर्प प्रतिसेवना – दर्पपूर्वक दौड़ने या वध्यादि कर्म करने से। प्रमाद प्रतिसेवना – हास्य विकथा आदि प्रमाद से अनाभोग प्रतिसेवना – आतुर प्रतिसेवना – स्वयं की या अन्य की चिकित्सा हेतु। आपत्ति प्रतिसेवना – विपद्ग्रस्त होने से शंकित प्रतिसेवना – शुद्ध आहारादि में अशुद्ध की शंका होने पर भी ग्रहण करने से। सहसात्कार | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-२ | Gujarati | 456 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंच आसवदारा पन्नत्ता, तं जहा–मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, कसाया, जोगा।
पंच संवरदारा पन्नत्ता, तं जहा–समत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं।
पंच दंडा पन्नत्ता, तं जहा–अट्ठादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, दिट्ठीविप्परियासियादंडे।
पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादंसणवत्तिया। Translated Sutra: પાંચ આશ્રવદ્વારો કહ્યા છે. તે આ – મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય, યોગ. પાંચ સંવર દ્વારો કહ્યા છે. તે આ – સમ્યક્ત્વ, વિરતિ, અપ્રમાદ, અકષાયીત્વ, અયોગીત્વ. પાંચ દંડ કહ્યા છે – અર્થદંડ, અનર્થદંડ, હિંસાદંડ, અકસ્માત દંડ, દૃષ્ટિવિપર્યાસ દંડ. | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 648 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–इह खलु किरियाठाणे नामज्झयणे पन्नत्ते। तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा–धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव।
तत्थ णं जे से पढमठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्स-मंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं इमं एयारूवं दंडसमादानं संपेहाए, तं जहा–णेरइएसु तिरिक्खजोणिएसु माणुसेसु देवेसु जे यावण्णे तहप्पगारा Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! मैंने सूना है, उन आयुष्मन् श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा था – निर्ग्रन्थ प्रवचन में ‘क्रियास्थान’ अध्ययन है, उसका अर्थ यह है – इस लोक में सामान्य रूप से दो स्थान बताये जाते हैं, एक धर्म – स्थान और दूसरा अधर्मस्थान, अथवा एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान। इन दोनों स्थानों में से प्रथम | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 652 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ–
से जहानामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा णूमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा मियवत्तिए मियसंकप्पे मिययपणिहाणे मियवहाए गंता ‘एते मिय’ त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसुं आयामेत्ता णं निसिरेज्जा, से ‘मियं वहिस्सामि’ त्ति कट्टु तित्तिरं वा वट्टगं वा ‘चडगं वा’ लावगं वा कवोयगं वा कविं वा कविजलं वा विंधित्ता भवति–इति खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसइ–अकस्मादंडे।
से जहानामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीहीणि वा कोद्दवाणि Translated Sutra: इसके बाद चौथा क्रियास्थान अकस्माद् दण्डप्रत्ययिक है। जैसे कि कोई व्यक्ति नदी के तट पर अथवा द्रह पर यावत् किसी घोर दुर्गम जंगल में जाकर मृग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है, मृग का वध करने के लिए जल पड़ता है; ‘यह मृग है’ यों जानकर किसी एक मृग को मारने के लिए वह | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Gujarati | 648 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–इह खलु किरियाठाणे नामज्झयणे पन्नत्ते। तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा–धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव।
तत्थ णं जे से पढमठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्स-मंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं इमं एयारूवं दंडसमादानं संपेहाए, तं जहा–णेरइएसु तिरिक्खजोणिएसु माणुसेसु देवेसु जे यावण्णे तहप्पगारा Translated Sutra: મેં સાંભળેલ છે કે, તે આયુષ્યમાન્ ભગવંતે આ પ્રમાણે કહ્યું છે – અહીં ‘ક્રિયાસ્થાન’ નામક અધ્યયન કહ્યું છે. તેનો અર્થ આ છે – આ લોકમાં સંક્ષેપથી બે સ્થાન કહ્યા છે, ધર્મ અને અધર્મ. ઉપશાંત અને અનુપશાંત. તેમાં પ્રથમ સ્થાન અધર્મપક્ષનો આ અર્થ કહ્યો છે. આ લોકમાં પૂર્વાદિ છ દિશામાં અનેકવિધ મનુષ્યો હોય છે. જેમ કે – કોઈ આર્ય | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Gujarati | 652 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ–
से जहानामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा णूमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा मियवत्तिए मियसंकप्पे मिययपणिहाणे मियवहाए गंता ‘एते मिय’ त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसुं आयामेत्ता णं निसिरेज्जा, से ‘मियं वहिस्सामि’ त्ति कट्टु तित्तिरं वा वट्टगं वा ‘चडगं वा’ लावगं वा कवोयगं वा कविं वा कविजलं वा विंधित्ता भवति–इति खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसइ–अकस्मादंडे।
से जहानामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीहीणि वा कोद्दवाणि Translated Sutra: હવે ચોથા ક્રિયાસ્થાન અકસ્માત દંડ પ્રત્યયિક કહે છે. જેમ કે કોઈ પુરુષ નદીના તટ યાવત્ ઘોર દુર્ગમ જંગલમાં જઈને મૃગને મારવાની ઇચ્છાથી, મૃગને મારવાનો સંકલ્પ કરે, મૃગનું ધ્યાન કરે, મૃગના વધને માટે જઈને આ મૃગ છે – એમ વિચારીને મૃગના વધને માટે બાણ ચડાવીને છોડે, તે મૃગને બદલે તે બાણ તીતર, બટેર, ચકલી, લાવક, કબૂતર, વાંદરો |