Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & Scriptures
Search :
Scripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 181 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ?
हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ।
जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंत किरिया भवइ?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति?
मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में काँपता है, विविध रूप में काँपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है, घट्टित होता (घूमता) है, क्षुब्ध होता है, उदीरित होता या करता है; और उन – उन भावों में परिणत होता है ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित – (परिमित) रूप से काँपता है, यावत् उन – उन भावों में परिणत होता है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Gujarati | 181 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ?
हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ।
जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंत किरिया भवइ?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति?
मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ Translated Sutra: ભગવન્ ! શું જીવ હંમેશા સમિત અર્થાત કંઇક કંપે છે, વિશેષ પ્રકારે કંપે છે, ચાલે છે (એક સ્થાનેથી બીજે સ્થાને જાય છે) – સ્પંદન કરે છે(થોડું ચાલે છે)? ઘટ્ટિત થાય છે(સર્વ દિશાઓમાં જાય)? ક્ષોભને પામે છે? ઉદીરિત થાય છે? અને તે તે ભાવે પરિણમે છે તે ? હા, મંડિતપુત્ર ! એમ જ છે. ભગવન્ ! જ્યાં સુધી તે જીવ હંમેશા કંઈક કંપે યાવત્ પરિણમે |