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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 45 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कित्तिय वंदिय महिया जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा ।
आरुग्ग-बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४० | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 46 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४० | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ सामायिक |
Hindi | 1 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] Translated Sutra: अरिहंत को नमस्कार हो, सिद्ध को नमस्कार हो, आचार्य को नमस्कार हो, उपाध्याय को नमस्कार हो, लोक में रहे सर्व साधु को नमस्कार हो, इस पाँच (परमेष्ठि) को किया गया नमस्कार सर्व पाप का नाशक है। सर्व मंगल में प्रथम (उत्कृष्ट) मंगल है। अरिहंत शब्द के लिए तीन पाठ हैं। अरहंत, अरिहंत और अरूहंत। यहाँ अरहंत शब्द का अर्थ है – जो | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 8 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कित्तिय वंदिय महिया जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा ।
आरुग्ग-बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥ Translated Sutra: जो (तीर्थंकर) लोगों द्वारा स्तवना किए गए, वंदन किए गए और पूजे गए हैं। लोगों में उत्तमसिद्ध हैं। वो मुझे आरोग्य (रोग का अभाव), बोधि (ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ) तथा सर्वोत्कृष्ट समाधि प्रदान करे। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 9 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ Translated Sutra: चन्द्र से ज्यादा निर्मल, सूरज से ज्यादा प्रकाश करनेवाले और स्वयंभूरमण समुद्र से ज्यादा गम्भीर ऐसे सिद्ध (भगवंत) मुझे सिद्धि (मोक्ष) दो। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 12 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। Translated Sutra: मंगल – यानि संसार से मुझे पार उतारे वो या जिससे हित की प्राप्ति हो वो या जो धर्म को दे वो (ऐसे ‘मंगल’ – चार हैं) अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररूपित धर्म। (यहाँ और आगे के सूत्र – १३, १४ में ‘साधु’ शब्द के अर्थ में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणि आदि सबको समझ लेना। और फिर केवली प्ररूपित धर्म से श्रुत धर्म और चारित्र धर्म | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 13 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि लोगुत्तमा अरहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। Translated Sutra: क्षायोपशमिक आदि भाव रूप ‘भावलोक’ में चार को उत्तम बताया है। अर्हंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म। [अर्हंतो को सर्व शुभ प्रकृति का उदय है। यानि वो शुभ औदयिक भाव में रहते हैं। इसलिए वो भावलोक में उत्तम हैं। सिद्ध चौदह राजलोक को अन्त में मस्तक पर बिराजमान होते हैं। वो क्षेत्रलोक में उत्तम हैं। साधु श्रुतधर्म | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 14 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि सरणं पवज्जामि अरहंते सरणं पवज्जामि सिद्धे सरणं पवज्जामि साहू सरणं पवज्जामि केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि। Translated Sutra: शरण – यानि सांसारिक दुःख की अपेक्षा से रक्षण पाने के लिए आश्रय पाने की प्रवृत्ति। ऐसे चार शरण को मैं अंगीकार करता हूँ। मैं अरिहंत – सिद्ध – साधु और केवली भगवंत के बताए धर्म का शरण अंगीकार करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 25 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चउद्दसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं, सोलसहिं गाहासोलसएहिं, सत्तरसविहे असंजमे, अट्ठारसविहे अबंभे, एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं, वीसाए असमाहिट्ठाणेहिं। Translated Sutra: इहलोक – परलोक आदि सात भय स्थान के कारण से, जातिमद – कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति – शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय – | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 26 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगवीसाए-सबलेहिं, बावीसाए-परीसहेहिं, तेवीसाए-सुयगडज्झयणेहिं, चउवीसाए-देवेहिं, पंचवीसाए-भावणाहिं, छव्वीसाए-दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं, सत्तावीसाए-अणगारगुणेहिं अट्ठावीसइविहे-आयारपकप्पेहिं, एगुणतीसाए-पावसुयपसंगेहिं तीसाए-मोहणीयट्ठाणेहिं एगतीसाए -सिद्धाइगुणेहिं, बत्तीसाए-जोगसंगहेहिं। Translated Sutra: देखो सूत्र २५ | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 27 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेत्तीसाए आसायणाहिं। Translated Sutra: तैंतीस प्रकार की आशातना जो यहाँ सूत्र में ही बताई गई है उसके द्वारा लगे अतिचार, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी का अवर्णवाद से अबहुमान करने से, श्रावक – श्राविका की निंदा आदि से, देव – देवी के लिए कुछ भी बोलने से, आलोक – परलोक के लिए असत् प्ररूपणा से, केवली प्रणित श्रुत या चारित्र धर्म की आशातना के द्वारा, | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 28 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अरिहंताणं आसायणाए सिद्धाणं आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवज्झायाणं आसायणाए
साहूणं आसायणाए साहुणीणं आसायणाए सावयाणं आसायणाए सावियाणं आसायणाए
देवाणं आसायणाए देवीणं आसायणाए
इहलोगस्स आसायणाए परलोगस्स आसायणाए
केवलिपन्नत्तस्सधम्मस्स आसायणाए
सदेवमणुयासुरस्सलोगस्स आसायणाए
सव्वपाणभूयजीव-सत्ताणं आसायणाए
कालस्स आसायणाए
सुयस्स आसायणाए सुयदेवयाए आसायणाए
वायणायरियस्स आसायणाए। Translated Sutra: देखो सूत्र २७ | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 31 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अनुत्तरं केवलियं पडिपुन्नं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं
सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं इत्थं ठिया जीवा
सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। Translated Sutra: यह निर्ग्रन्थ प्रवचन (जिन आगम या श्रुत) सज्जन को हितकारक, श्रेष्ठ, अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, सर्वथा शुद्ध, शल्य को काट डालनेवाला सिद्धि के मार्ग समान, मोक्ष के मुक्तात्माओं के स्थान के और सकल कर्मक्षय समान, निर्वाण के मार्ग समान हैं। सत्य है, पूजायुक्त है, नाशरहित यानि शाश्वत, सर्व दुःख सर्वथा क्षीण हुए | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 51 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्ध भो पयओ नमो जिणमए नंदी सया संजमे ।
देवं नाग सुवण्णकिन्नरगण स्सब्भूअ भावच्चिए ॥
लोगो जत्थ पइट्ठिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं ।
धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥ Translated Sutra: हे मानव ! सिद्ध ऐसे जिनमत को मैं पुनः नमस्कार करता हूँ कि जो देव – नागकुमार – सुवर्णकुमार – किन्नर के समूह से सच्चे भाव से पूजनीय हैं। जिसमें तीन लोक के मानव सुर और असुरादिक स्वरूप के सहारे के समान संसार का वर्णन किया गया है ऐसे संयम पोषक और ज्ञान समृद्ध दर्शन के द्वारा प्रवृत्त होनेवाला शाश्वत धर्म की वृद्धि | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 53 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धाणं बुद्धाणं पारगयाणं परंपरगयाणं ।
लोअग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥ Translated Sutra: सिद्धिपद को पाए हुए, सर्वज्ञ, फिर से जन्म न लेना पड़े उस तरह से संसार का पार पाए हुए, परम्पर सिद्ध हुए और लोक के अग्र हिस्से को पाए हुए यानि सिद्ध शीला पर बिराजमान ऐसे सर्व सिद्ध भगवंत को सदा नमस्कार हो। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 56 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उज्जिंतसेल सिहरे दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स ।
तं धम्मचक्कवट्टीं अरिट्ठनेमिं नमंसामि ॥ Translated Sutra: जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण (वो तीनों कल्याणक) उज्जयंत पर्वत के शिखर पर हुए हैं वो धर्म चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि को मैं – नमस्कार करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 57 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चत्तारि अट्ठदस दो य वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं ।
परमट्ठ निट्ठिअट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥
[इति सुयथय-सिद्धथव गाहाओ] Translated Sutra: चार, आँठ, दश और दो ऐसे वंदन किए गए चौबीस तीर्थंकर और जिन्होंने परमार्थ (मोक्ष) को सम्पूर्ण सिद्ध किया है वैसे सिद्ध मुझे सिद्धि दो। | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Gujarati | 8 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कित्तिय वंदिय महिया जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा ।
आरुग्ग-बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥ Translated Sutra: કીર્તિત(લોકો વડે સ્તવના કરાયેલ), વંદિત(લોકો વડે વંદના કરાયેલ), પૂજિત(લોકો વડે પૂજાયેલ), એવા જે લોકમધ્યે ઉત્તમ સિદ્ધો છે, તેઓ મને આરોગ્ય, બોધિલાભ અને ઉત્તમસમાધિ આપો. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Gujarati | 9 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ Translated Sutra: ચંદ્ર કરતા વધુ નિર્મળ, સૂર્યથી વધુ પ્રકાશ કરનારા, શ્રેષ્ઠ સાગર(સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર) જેવા ગંભીર, એવા હે સિદ્ધો(ભગવંતો) મને સિદ્ધિ(મોક્ષ) આપો. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 12 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। Translated Sutra: ચાર પદાર્થો મંગલરૂપ છે – અરિહંત મંગલ છે, સિદ્ધો મંગલ છે, સાધુ મંગલ છે, કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મ મંગલ છે. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 13 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि लोगुत्तमा अरहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। Translated Sutra: લોકમાં ચાર ઉત્તમ છે – અરિહંત લોકોત્તમ છે, સિદ્ધો લોકોત્તમ છે, સાધુ લોકોત્તમ છે, કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મ લોકોત્તમ છે. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 14 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि सरणं पवज्जामि अरहंते सरणं पवज्जामि सिद्धे सरणं पवज्जामि साहू सरणं पवज्जामि केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि। Translated Sutra: હું ચાર શરણા અંગીકાર કરું છું. હું અરિહંતનું શરણું સ્વીકારું છું. સિદ્ધનું શરણું સ્વીકારું છું. સાધુનું શરણું સ્વીકારું છું અને કેવલિ ભગવંતે પ્રરૂપિત ધર્મનું શરણું સ્વીકારું છું. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 26 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगवीसाए-सबलेहिं, बावीसाए-परीसहेहिं, तेवीसाए-सुयगडज्झयणेहिं, चउवीसाए-देवेहिं, पंचवीसाए-भावणाहिं, छव्वीसाए-दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं, सत्तावीसाए-अणगारगुणेहिं अट्ठावीसइविहे-आयारपकप्पेहिं, एगुणतीसाए-पावसुयपसंगेहिं तीसाए-मोहणीयट्ठाणेहिं एगतीसाए -सिद्धाइगुणेहिं, बत्तीसाए-जोगसंगहेहिं। Translated Sutra: એકવીસ શબલદોષ, બાવીશ પરીષહો, તેવીશ સૂત્રકૃત્ આગમના કુલ અધ્યયનો, ચોવીશ દેવો, પચીશ ભાવના, છવીશ – દશાશ્રુતસ્કંધ બૃહત્ કલ્પ અને વ્યવહાર એ ત્રણેના મળીને ઉદ્દેશનકાળ, સત્તાવીશ પ્રકારે અણગારનું ચારિત્ર, અટ્ઠાવીશ ભેદે આચાર પ્રકલ્પ, ઓગણત્રીશ ભેદે પાપશ્રુતના પ્રસંગો વડે, ત્રીશ મોહનીય સ્થાનો વડે, એકત્રીશ સિદ્ધોના | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 28 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अरिहंताणं आसायणाए सिद्धाणं आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवज्झायाणं आसायणाए
साहूणं आसायणाए साहुणीणं आसायणाए सावयाणं आसायणाए सावियाणं आसायणाए
देवाणं आसायणाए देवीणं आसायणाए
इहलोगस्स आसायणाए परलोगस्स आसायणाए
केवलिपन्नत्तस्सधम्मस्स आसायणाए
सदेवमणुयासुरस्सलोगस्स आसायणाए
सव्वपाणभूयजीव-सत्ताणं आसायणाए
कालस्स आसायणाए
सुयस्स आसायणाए सुयदेवयाए आसायणाए
वायणायरियस्स आसायणाए। Translated Sutra: (૧) અરિહંતોની આશાતના, (૨) સિદ્ધોની આશાતના, (૩) આચાર્યની આશાતના, (૪) ઉપાધ્યાયની આશાતના, (૫) સાધુની આશાતના, (૬) સાધ્વીની આશાતના, (૭) શ્રાવકની આશાતના, (૮) શ્રાવિકાની આશાતના, (૯) દેવોની આશાતના, (૧૦) દેવીની આશાતના, (૧૧) આલોક સંબંધી આશાતના, (૧૨) પરલોક સંબંધી આશાતના, (૧૩) કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મની આશાતના, (૧૪) દેવ – મનુષ્ય – અસુર લોક સંબંધી | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 31 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अनुत्तरं केवलियं पडिपुन्नं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं
सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं इत्थं ठिया जीवा
सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। Translated Sutra: આ નિર્ગ્રન્થ પ્રવચન સત્ય, અનુત્તર, કૈવલિક, પ્રતિપૂર્ણ, નૈયાયિક, સંશુદ્ધ, શલ્યકર્ત્તક, સિદ્ધિનો માર્ગ, મુક્તિનો માર્ગ, નિર્વાણનો માર્ગ, નિર્યાણનો માર્ગ, અવિતથ, અવિસંધિ, સર્વ દુઃખનો પ્રક્ષીણ માર્ગ છે. આમાં સ્થિત જીવો સિદ્ધ થાય છે, બોધ પામે છે, મુક્ત થાય છે, પરિનિર્વાણ પામે છે અને સર્વે દુઃખોનો અંત કરે છે. | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 45 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कित्तिय वंदिय महिया जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा ।
आरुग्ग-बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૦ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 46 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૦ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 51 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्ध भो पयओ नमो जिणमए नंदी सया संजमे ।
देवं नाग सुवण्णकिन्नरगण स्सब्भूअ भावच्चिए ॥
लोगो जत्थ पइट्ठिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं ।
धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૮ | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 53 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धाणं बुद्धाणं पारगयाणं परंपरगयाणं ।
लोअग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૫૩. સિદ્ધ થયેલા, બોધ પામેલા, સંસારને પાર પામેલા, પરંપર સિદ્ધ થયેલા, લોકના અગ્રભાગને પામેલા એવા સર્વે સિદ્ધ ભગવંતોને સદા નમસ્કાર. સૂત્ર– ૫૪. જે દેવોના પણ દેવ છે, જેને દેવો અંજલીપૂર્વક નમસ્કાર કરે છે, તે ઇન્દ્રો વડે પૂજાયેલા મહાવીર ભગવંતને હું મસ્તકથી વંદુ છું. સૂત્ર– ૫૫. જિનવરોમાં વૃષભ સમાન – શ્રેષ્ઠ એવા | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Gujarati | 57 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चत्तारि अट्ठदस दो य वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं ।
परमट्ठ निट्ठिअट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥
[इति सुयथय-सिद्धथव गाहाओ] Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૩ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Hindi | 28 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए। Translated Sutra: हमें कल्पता है। अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के लिए जल ले सकते हैं। ‘हम पीने तथा नहाने के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 80 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से अबुज्झमाणे ‘हतोवहते जाइ-मरणं अणुपरियट्टमाणे’।
जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं, खेत्त-वत्थ ममायमाणाणं।
आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण, इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता।
न एत्थ तवो वा, दमो वा, नियमो वा दिस्सति।
संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासुवेइ। Translated Sutra: वह प्रमादी पुरुष कर्म – सिद्धान्त को नहीं समझाता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत – पुनः पुनः पीड़ित होता हुआ जन्म – मरण के चक्र में बार – बार भटकता है। जो मनुष्य, क्षेत्र – खुली भूमि तथा वास्तु – भवन – मकान आदि में ममत्व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है। वे रंग – बिरंगे मणि, कुण्डल, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 81 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इणमेव नावकंखंति, जे जना धुवचारिनो । जाती-मरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे ॥ Translated Sutra: जो पुरुष ध्रुवचारी होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते। वे जन्म – मरण के चक्र को जानकर द्रढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर बढ़ते रहें। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 108 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उद्देसो पासगस्स नत्थि।
बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुपरियट्टइ। Translated Sutra: द्रष्टा के लिए कोई उद्देश (अथवा उपदेश) नहीं है। बाल बार – बार विषयों में स्नेह करता है। काम – ईच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (सेवन करता है) इसीलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन – २ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 110 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं।
समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए।
जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति... Translated Sutra: इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे। जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् प्रकार से परिज्ञात किया है – (जो उनमें रागद्वेष न करता हो)। वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। जो पुरुष | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Hindi | 134 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वंता कोहं च, माणं च, मायं च, लोभं च।
एयं पासगस्स दंसणं ‘उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स’।
आयाणं निसिद्धा? सगडब्भि। Translated Sutra: वह (साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर देता है। यह दर्शन हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ – सर्वदर्शी का है। जो कर्मों के आदान का निरोध करता है, वही स्व – कृत का भेत्ता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Hindi | 138 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी।
जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी।
जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी।
जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी।
जे जम्म-दंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी।
जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च।
एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स।
आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि।
किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ? नत्थि। Translated Sutra: जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है, जो मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है, जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा | Hindi | 146 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आवंति केआवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति–से दिट्ठं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता’ हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा।
एत्थ वि जाणह नत्थित्थ दोसो।
अनारियवयणमेयं।
तत्थ जे ते आरिया, ते एवं वयासी–से दुद्दिट्ठं च भ, दुस्सुयं च भ, दुम्मयं च भे, दुव्विण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जण्णं तुब्भे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं ‘परूवेह, एवं पण्णवेह’– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा, Translated Sutra: इस मत – मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न – भिन्न मतवाद का प्रतिपादन करते हैं। जैसे की कुछ मतवादी कहते हैं – ‘हमने यह देख लिया है, सून लिया है, मनन कर लिया है और विशेष रूप से जान भी लिया है, ऊंची, नीची और तिरछी सब दिशाओं में सब तरह से भली – भाँति इसका निरीक्षण भी कर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में कईं साधकों को आचार – गोचर सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु – जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 213 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया।
अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स
सव्वत्थ सम्मयं पावं।
तमेव उवाइकम्म।
एस मह विवेगे वियाहिते।
गामे वा अदुवा रण्णे? नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह–पवेदितं माहणेण मईमया।
जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया।
जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं, अनियाणा ते वियाहिया। Translated Sutra: जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन) रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। (वह मुनि उन मतवादियों से कहे – ) (आप के दर्शनों में आरम्भ) पाप सर्वत्र सम्मत है। मैं उसी (पाप) का निकट से अति – क्रमण करके (स्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 355 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जाइं पुण कुलाइं जाणेज्जा, तं जहा–खत्तियाण वा, राईण वा, कुराईण वा, रायपे-सियाण वा, रायवंसट्ठियाण वा, अंतो वा बहिं वा गच्छंताण वा, सन्निविट्ठाण वा, निमंतेमानाण वा, अनिमंतेमानाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
[एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए।
–त्ति बेमि।] Translated Sutra: भिक्षु एवं भिक्षुणी इन कुलों को जाने, जैसे कि चक्रवर्ती आदि क्षत्रियों के कुल, उनसे भिन्न अन्य राजाओं के कुल, कुराजाओं के कुल, राजभृत्य दण्डपाशिक आदि के कुल, राजा के मामा, भानजा आदि सम्बन्धीयों के कुल, इन कुलों के घर से, बाहर या भीतर जाते हुए, खड़े हुए या बैठे हुए, निमंत्रण किये जान पर या न किये जाने पर, वहाँ से प्राप्त | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-३ इर्या |
उद्देशक-३ | Hindi | 463 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा। ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा– आउसंतो! समणा! अवियाइं एत्तो पडिपहे पासह, तं जहा– मणुस्सं वा, गोणं वा, महिसं वा, पसुं वा, पक्खिं वा, सरी-सिवं वा, जलयरं वा? से आइक्खह, दंसेह। तं नो आइक्खेज्जा, नो दंसेज्जा, नो तेसिं तं परिण्णं परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेज्जा, जाणं वा नो जाणंति वएज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा। ते णं पाडिपहिया एवं वएज्जा–आउसंतो! समणा! अवियाइं एत्तो पडिपहे पासह–उदगपसूयाणि कंदाणि वा, Translated Sutra: रत्नाधिक साधुओं के साथ ग्रामानुग्राम विहार करने वाले साधु को मार्ग में यदि सामने से आते हुए कुछ प्रातिपथिक मिले और वे यों पूछे कि – ‘‘आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? और कहाँ जाएंगे ?’’ (ऐसा पूछने पर) जो उन साधुओं में सबसे रत्नाधिक वे उनको सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। तब वह साधु बीच में न बोले। किन्तु मौन रहकर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-४ भाषाजात |
उद्देशक-१ वचन विभक्ति | Hindi | 467 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा– पुव्वं भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासमयविइक्कंता भासिया भासा अभासा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा–जा य भासा सच्चा, जा य भासा मोसा, जा य भासा सच्चामोसा, जा य भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं कक्कसं कडुयं निट्ठुरं फरुसं अण्हयकरिं छेयणकरिं भेयणकरिं परितावनकरिं उद्दवनकरिं भूतोवघाइयं अभिकंख ‘नो भासेज्जा’।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा–जा य भासा सच्चा सुहुमा, जा य भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं असावज्जं अकिरियं अकक्कसं अकडुयं अनिट्ठुरं अफरुसं अणण्हयकरिं अछेय-णकरिं Translated Sutra: संयमशील साधु – साध्वी को भाषा के सम्बन्ध में यह भी जान लेना चाहिए कि बोलने से पूर्व भाषा अभाषा होती है, बोलते समय भाषा भाषा कहलाती है और बोलने के पश्चात् बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है। जो भाषा सत्या है, जो भाषा मृषा है, जो भाषा सत्यामृषा है अथवा जो भाषा असत्यामृषा है, इन चारों भाषाओं में से (केवल सत्या और असत्यामृषा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 510 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए-सुसमसुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमाए समाए वीतिक्कंताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिक्कंताए, दुसमसुसमाए समाए बहु वीतिक्कंताए–पण्णहत्तरीए वासेहिं, मासेहिं य अद्धणवमेहिं सेसेहिं, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे–आसाढसुद्धे, तस्सणं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, महावि-जय-सिद्धत्थ-पुप्फुत्तर-पवर-पुंडरीय-दिसासोवत्थिय-वद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता इह खलु जबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्ढभरहे दाहिणमाहणकुंडपुर-सन्निवेसंसि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम – सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम – दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम – सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल ७५ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवे पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 511 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते। तस्स णं इमे नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा – १. अम्मापिउसंतिए ‘वद्धमाणे’ २. सह-सम्मुइए ‘समणे’ ३. ‘भीमं भयभेरवं उरालं अचेलयं परिसहं सहइ’ त्ति कट्टु देवेहिं से नामं कयं ‘समणे भगवं महावीरे’।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासवगोत्तेणं। तस्स णं तिण्णि नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा–१. सिद्धत्थे ति वा २. सेज्जंसे ति वा ३. जसंसे ति वा।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिट्ठ-सगोत्ता। तीसेणं तिण्णि नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा–१. तिसला ति वा २. विदेहदिण्णा ति वा ३. पियकारिणी ति वा।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पित्तियए ‘सुपासे’ कासवगोत्तेणं।
समणस्स Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर के पिता काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम कहे जाते हैं, सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी। श्रमण भगवान महावीर की माता वाशिष्ठ गोत्रीया थीं। उनके तीन नाम कहे जाते हैं – त्रिशला, विदेहदत्ता और प्रियकारिणी। चाचा ‘सुपार्श्व’ थे, जो काश्यप गौत्र के थे। ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन थे, जो काश्यप | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 512 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पालइत्ता, छण्हं जीवनिकायाणं संरक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरहित्ता पडिक्कमित्ता, अहारिहं उत्तरगुणं पायच्छित्तं पडिवज्जित्ता, कुससंथारं दुरुहित्ता भत्तं पच्चक्खाइंति, भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीर-संलेहणाए सोसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। तओ णं आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता महाविदेहवासे चरिमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर के माता पिता पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी थे, दोनों श्रावक – धर्म का पालन करने वाले थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक – धर्म का पालन करके षड्जीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा एवं पाप दोषों का प्रतिक्रमण करके, मूल और उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 513 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे नाते नायपुत्ते नायकुल-विणिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसुमाले तीसं वासाइं विदेहत्ति कट्टु अगारमज्झे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा बलं, चिच्चा वाहणं, चिच्चा धण-धण्ण-कणय-रयण-संत-सार-सावदेज्जं, विच्छड्डेत्ता विगोवित्ता विस्साणित्ता, दायारे सु णं ‘दायं पज्जभाएत्ता’, संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमेमासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं अभिणिक्खमनाभिप्पाए यावि Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चूके थे, ज्ञात कुल से विनिवृत्त थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय थे, विदेहदत्ता के पुत्र थे, सुकुमार थे। भगवान महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता – पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 529 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धत्थवणं व जहा, कणियारवणं व चंपगवणं वा ।
सोहइ कुसुमभरेणं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ॥ Translated Sutra: उस समय देवों के आगमन से गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरसों, कचनार या कनेर या चम्पकवन फूलों के झुण्ड से सुहावना प्रतीत होता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 532 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, ‘हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं’ जोगोवगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, छट्ठेण भत्तेणं अपाणएणं, एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए सिवियाए सहस्सवाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे-समण्णिज्जमाणे उत्तरखत्तिय कुंडपुर-संणिवेसस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिंरयणिप्पमाणं अच्छुप्पेणं भूमिभागेणं सणियं-सणियं चंदप्पभं सिवियं सहस्सवाहिणिं ठवेइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत के विजय मुहूर्त्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्व गामिनी छाया होने पर, द्वीतिय पौरुषी प्रहर के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्त – प्रत्याख्यान के साथ एकमात्र | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 549 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से हु प्परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय-मेहुणे चरे ।
भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ॥ Translated Sutra: जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा – कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसा ही जो भिक्षु परिज्ञा – सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, लोक सम्बन्धी आशंसा से रहित, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम में विचरण करना, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है। |